Wednesday, 29 March 2017
क्रीया योग

spiritual knowledge

Sunday, May 31, 2015
मुक्ति कैसे होगी
अष्टावक्र ......
शैष भाग.....
कथं ज्ञानम्?
कैसे होगा ज्ञान? कथं मुक्ति? मुक्ति कैसे होगी?’
क्योंकि जिसको तुम ज्ञान कहते हो, वह तो बांध लेता उलटे, मुक्त कहां करता? ज्ञान तो वही है जो मुक्त करे। जीसस ने कहा है, सत्य वही है जो मुक्त करे। ज्ञान तो वही है जो मुक्त करे—यह ज्ञान की कसौटी है। पंडित मुक्त तो दिखाई नहीं पड़ता, बंधा दिखाई पड़ता है। मुक्ति की बातें करता है, मुक्त दिखाई नहीं पड़ता; हजार बंधनों में बंधा हुआ मालूम पड़ता है।
तुमने कभी गौर किया, तुम्हारे तथाकथित संत तुमसे भी ज्यादा बंधे हुए मालूम पड़ते हैं! तुम शायद थोड़े—बहुत मुक्त भी हो, तुम्हारे संत तुमसे भी ज्यादा बंधे हैं। लकीर के फकीर हैं, न उठ सकते स्वतंत्रता से, न बैठ सकते स्वतंत्रता से, न जी सकते स्वतंत्रता से।
कुछ दिनों पहले कुछ साध्वियों की मेरे पास खबर आई कि वे मिलना चाहती हैं, मगर श्रावक आने नहीं देते। यह भी बड़े मजे की बात हुई! साधु का अर्थ होता है, जिसने फिक्र छोड़ी समाज की; जो चल पड़ा अरण्य की यात्रा पर; जिसने कहा, अब न तुम्हारे आदर की मुझे जरूरत है न सम्मान की। लेकिन साधु—साध्वी कहते हैं, ‘श्रावक आने नहीं देते! वे कहते हैं, वहां भूल कर मत जाना। वहां गये तो यह दरवाजा बंद!’ यह कोई साधुता हुई? यह तो परतंत्रता हुई, गुलामी हुई। यह तो बड़ी उलटी बात हुई। यह तो ऐसा हुआ कि साधु श्रावक को बदले, उसकी जगह श्रावक साधु को बदल रहा है। एक मित्र ने आ कर मुझे कहा कि एक साध्वी आपका लिखा पढ़ती है, लेकिन लेकिन चोरी से। और अगर कभी किसी के सामने आपका नाम भी ले दो तो वह इस तरह हो जाती है जैसे उसने कभी आपका नाम सुना ही नहीं।
यह मुक्ति हुई?
जनक ने पूछा, ‘कथं मुक्ति?
कैसे होती मुक्ति? क्या है मुक्ति? उस ज्ञान को मुझे समझायें, जो मुक्त कर देता है।’
स्वतंत्रता मनुष्य की सबसे महत्वपूर्ण आकांक्षा है। सब पा लो, लेकिन गुलामी अगर रही तो छिदती है। सब मिल जाये, स्वतंत्रता न मिले तो कुछ भी नहीं मिला। मनुष्य चाहता है खुला आकाश। कोई सीमा न हो! वह मनुष्य की अंतरतम, निगढ़तम आकांक्षा है, जहां कोई सीमा न हो, कोई बाधा न हो। इसी को परमात्मा होने की आकांक्षा कहो, मोक्ष की आकांक्षा कहो।
हमने ठीक शब्द चुना है ‘मोक्ष'; दुनिया की किसी भाषा में ऐसा प्यारा शब्द नहीं है। स्वर्ग, फिरदौस—इस तरह के शब्द हैं, लेकिन उन शब्दों में मोक्ष की कोई धुन नहीं है। मोक्ष का संगीत ही अनूठा है। उसका अर्थ ही केवल इतना है : ऐसी परम स्वतंत्रता जिस पर कोई बाधा नहीं है; स्वतंत्रता इतनी शुद्ध कि जिस पर कोई सीमा नहीं है।
पूछा जनक ने, ‘कैसे होगी मुक्ति और कैसे होगा वैराग्य? हे प्रभु, मुझे समझा कर कहिए!’ अष्टावक्र ने गौर से देखा होगा जनक की तरफ; क्योंकि गुरु के लिए वही पहला काम है कि जब कोई जिज्ञासा करे तो वह गौर से देखे. ‘जिज्ञासा किस स्रोत से आती है? पूछने वाले ने क्यों पूछा है?’ उत्तर तो तभी सार्थक हो सकता है जब प्रश्न क्यों किया गया है, वह समझ में आ जाये, वह साफ हो जाए।
ध्यान रखना, सदज्ञान को उपलब्ध व्यक्ति, सदगुरु तुम्हारे प्रश्न का उत्तर नहीं देता—तुम्हें उत्तर देता है! तुम क्या पूछते हो, इसकी फिक्र कम है; तुमने क्यों पूछा है, तुम्हारे पूछने के पीछे अंतरचेतन में छिपा हुआ जाल क्या है, तुम्हारे प्रश्नों की आड़ में वस्तुत: कौन—सी आकांक्षा छिपी है..!
दुनिया में चार तरह के लोग हैं—ज्ञानी, मुमुक्षु, अज्ञानी, मूढ़। और दुनिया में चार ही तरह की जिज्ञासाए होती हैं। ज्ञानी की जिज्ञासा तो नि:शब्द होती है। कहना चाहिए, ज्ञानी की जिज्ञासा तो जिज्ञासा होती ही नहीं—जान लिया, जानने को कुछ बचा नहीं, पहुंच गये, चित्त निर्मल हुआ, शांत हुआ, घर लौट आये, विश्राम में आ गये! तो ज्ञानी की जिज्ञासा तो जिज्ञासा जैसी होती ही नहीं। इसका यह अर्थ नहीं कि ज्ञानी सीखने को तैयार नहीं होता। ज्ञानी तो सरल, छोटे बच्चे की भांति हो जाता है—सदा तत्पर सीखने को।
जितना ज्यादा तुम सीख लेते हो, उतनी ही सीखने की तत्परता बढ़ जाती है। जितने तुम सरल और निष्कपट होते चले जाते हो, उतने ही सीखने के लिए तुम खुल जाते हो। आयें हवाएं, तुम्हारे द्वार खुले पाती हैं। आये सूरज, तुम्हारे द्वार पर दस्तक नहीं देनी पड़ती। आये परमात्मा, तुम्हें सदा तत्पर पाता है।
ज्ञान—ज्ञान को संगृहीत नहीं करता; ज्ञानी सिर्फ ज्ञान की क्षमता को उपलब्ध होता है। इस बात को ठीक से समझ लेना, क्योंकि पीछे यह काम पड़ेगी। ज्ञानी का केवल इतना ही अर्थ है कि जो जानने के लिए बिलकुल खुला है; जिसका कोई पक्षपात नहीं, जानने के लिए जिसके पास कोई परदा नहीं; जिसके पास जानने के लिए कोई पूर्व—नियोजित योजना, ढांचा नहीं। ज्ञानी का अर्थ है ध्यानी जो ध्यान पूर्ण है।
तो देखा होगा अष्टावक्र ने गौर से, जनक में झांक कर : यह व्यक्ति ज्ञानी तो नहीं है। यह ध्यान को तो उपलब्ध नहीं हुआ है। अन्यथा इसकी जिज्ञासा मौन होती; उसमें शब्द न होते।
बुद्ध के जीवन में उल्लेख है—एक फकीर मिलने आया। एक साधु मिलने आया। एक परिव्राजक घुमक्कड़। उसने आकर बुद्ध से कहा : ‘पूछने योग्य शब्द मेरे पास नहीं। क्या पूछना चाहता हूं उसे शब्दों में। बांधने की मेरे पास कोई कुशलता नहीं। आप तो जानते ही हैं, समझ लें। जो मेरे योग्य हो, कह दें।‘
यह ज्ञानी की जिज्ञासा है।
बुद्ध चुप बैठे रहे, उन्होंने कुछ भी न कहा। घड़ी भर बाद, जैसे कुछ घटा! वह जो आदमी चुपचाप बैठा बुद्ध की तरफ देखता रहा था, उसकी आंख से आंसुओ की धार लग गई, चरणों में झुका नमस्कार किया और कहा, ‘धन्यवाद! खूब धन्यभागी हूं! जो लेने आया था, आपने दिया।’वह उठकर चला भी गया। उसके चेहरे पर अपूर्व आभा थी। वह नाचता हुआ गया।
बुद्ध के आसपास के शिष्य बड़े हैरान हुए। आनंद ने पूछा. ‘भंते! भगवान! पहेली हो गई। पहले तो यह आदमी कहता है कि मुझे पता नहीं कैसे पूछ— पता नहीं किन शब्दों में पूछ— यह भी पता नहीं क्या पूछने आया हूर फिर आप तो जानते ही हैं सब; देख लें मुझे; जो मेरे लिए जरूरी हो, कह दें। पहले तो यह आदमी ही जरा पहेली था.. यह कोई ढंग हुआ पूछने का! और जब तुम्हें यही पता नहीं कि क्या पूछना है तो पूछना ही क्यों? पूछना क्या? खूब रही! फिर यहीं बात खत्म न हुई; आप चुप बैठे सो चुप बैठे रहे! आपको ऐसा कभी मौन देखा नहीं; कोई पूछता है तो आप उत्तर देते हैं। कभी—कभी तो ऐसा होता है कि कोई नहीं भी पूछता तो भी आप उत्तर देते हैं। आपकी करुणा सदा बहती रहती है। क्या हुआ अचानक कि आप चुप रह गये और आंख बंद हो गई? और फिर क्या रहस्यमय घटा कि वह आदमी रूपांतरित होने लगा। हमने उसे बदलते देखा। हमने उसे किसी और ही रंग में डूबते देखा। उसमें मस्ती आते देखी। वह नाचते हुए गया है—आंसुओ से भरा हुआ, गदगद, आह्लादित! वह चरणों में झुका। उसकी सुगंध हमें भी छुई। यह हुआ क्या? आप कुछ बोले नहीं, उसने सुना कैसे? और हम तो इतने दिनों से, वर्षों से आपके पास हैं, हम पर आपकी कृपा कम है क्या? यह प्रसाद, जो उसे दिया, हमें क्यों नहीं मिलता?’
लेकिन ध्यान रहे, उतना ही मिलता है जितना तुम ले सकते हो।
बुद्ध ने कहा, ‘सुनो। घोड़े..।’आनंद से घोड़े की बात की, क्योंकि आनंद क्षत्रिय था, बुद्ध का चचेरा भाई था और बचपन से ही घोड़े का बड़ा शौक था उसे, घुड़सवार था। प्रसिद्ध घुड़सवार था, प्रतियोगी था बड़ा! उन्होंने कहा, ‘सुन आनंद!’ बुद्ध ने कहा : ‘घोड़े चार प्रकार के होते हैं। एक तो मारो भी तो भी टस से मस नहीं होते। रही से रही घोड़े! जितना मारो उतना ही हठयोगी हो जाते हैं, बिलकुल हठ बांध कर खड़े हो जाते हैं। तुम मारो तो वे जिद्द बना लेते हैं कि देखें कौन जीतता है! फिर दूसरे तरह के घोड़े होते हैं. मारो तो चलते हैं, न मारो तो नहीं चलते। कम से कम पहले से बेहतर। फिर तीसरे तरह के घोड़े होते हैं : कोड़ा फटकासे, मारना जरूरी नहीं। सिर्फ कोड़ा फटकारो, आवाज काफी है। और भी कुलीन होते हैं—दूसरे से भी बेहतर। फिर आनंद, तुझे जरूर पता होगा ऐसे भी घोड़े होते हैं कि कोड़े की छाया देख कर भागते हैं, फटकारना भी नहीं पड़ता। यह ऐसा ही घोड़ा था। छाया काफी है।’
अष्टावक्र ने देखा होगा गौर से।
जब तुम आ कर मुझसे कुछ पूछते हो तो तुम्हारे प्रश्न से ज्यादा महत्वपूर्ण सवाल तुम हो। कभी—कभी तुम्हें भी ऐसा लगता होगा कि तुमने जो नहीं पूछा था, वह मैंने उत्तर दिया है। और कभी—कभी तुम्हें ऐसा भी लगता होगा कि शायद मैं टाल गया तुम्हारे प्रश्न को, बचाव कर गया, कुछ और उत्तर दे गया हूं। लेकिन सदा तुम्हारी भीतरी जरूरत ज्यादा महत्वपूर्ण है; तुम क्या पूछते हो, यह उतना महत्वपूर्ण नहीं। क्योंकि तुम्हें खुद ही ठीक पता नहीं, तुम क्या पूछते हो, क्यों पूछते हो। उत्तर वही दिया जाता है, जिसकी तुम्हें जरूरत है। तुम्हारे पूछने से कुछ तय नहीं होता।
देखा होगा अष्टावक्र ने. ज्ञानी तो नहीं है जनक। अज्ञानी है फिर क्या? अज्ञानी भी नहीं है। क्योंकि अज्ञानी तो अकड़ीला, अकड़ से भरा होता है। अज्ञानी तो झुकना जानता ही नहीं। यह तो मुझे बारह साल की उम्र के लड़के के पैरों में झुक गया, साष्टांग दंडवत की। यह अज्ञानी के लिए असंभव है। अज्ञानी तो समझता है कि मैं जानता ही हूं मुझे कौन समझायेगा! अज्ञानी अगर कभी पूछता भी है तो तुम्हें गलत सिद्ध करने को पूछता है। क्योंकि अज्ञानी तो यह मान कर ही चलता है कि पता तो मुझे है ही; देखें इनको भी पता है या नहीं! अज्ञानी परीक्षा के लिए पूछता है। नहीं, इसकी आंखें, जनक की तो बड़ी निर्मल हैं। मुझ बारह साल के अनजान—अपरिचित लड़के को सम्राट होते हुए भी इसने कहा, ‘एतत मम बूहि प्रभो! हे प्रभु, मुझे समझा कर कहें!’ नहीं, यह विनयशील है, अज्ञानी तो नहीं है। मूढ़ है क्या फिर? मूढ़ तो पूछते ही नहीं। मूढ़ों को तो पता ही नहीं है कि जीवन में कोई समस्या है।
मूढ़ और बुद्धपुरुषों में एक समानता है। बुद्धपुरुषों के लिए कोई समस्या नहीं रही, मूढ़ों के लिए अभी समस्या उठी ही नहीं। बुद्धपुरुष समस्या के पार हो गये : मूढ़ अभी समस्या के बाहर हैं। मूढ़ तो इतना मूर्च्छित है कि उसे कहां सवाल? ‘कथं ज्ञानम्’—मूढ़ पूछेगा? ‘कथं मुक्ति’—मूढ़ पूछेगा? ‘कैसे होगा वैराग्य’—मूढ़ पूछेगा? असंभव!
मूढ़ अगर पूछेगा भी तो पूछता है, राग में सफलता कैसे मिलेगी? मूढ़ अगर पूछता भी है तो पूछता है, संसार में और थोड़े ज्यादा दिन कैसे रहना हो जाये? मुक्ति..! नहीं, मूढ़ पूछता है बंधन सोने के कैसे बनें? बंधन में हीरे—जवाहरात कैसे जड़ें? मूढ़ पूछता भी है तो ऐसी बातें पूछता है। ज्ञान! मूढ़ तो मानता ही नहीं कि ज्ञान हो सकता है। वह तो संभावना को ही स्वीकार नहीं करता। वह तो कहता है, कैसा ज्ञान? मूढ़ तो पशुवत जीता है।
नहीं, यह जनक मूढ़ भी नहीं है—मुमुक्षु है।
मुमुक्षु’ शब्द समझना जरूरी है। मोक्ष की आकांक्षा—मुमुक्षा! अभी मोक्ष के पास नहीं पहुंचा, ज्ञानी नहीं है; मोक्ष के प्रति पीठ करके नहीं खड़ा, मूढ़ नहीं है; मोक्ष के संबंध में कोई धारणाएं पकड़ कर नहीं बैठा, आज्ञानी भी नहीं है—मुमुक्षु है। मुमुक्षु का अर्थ है, सरल है इसकी जिज्ञासा; न मूढ़ता से अपवित्र हो रही है, न अज्ञानपूर्ण धारणाओं से विकृत हो रही है। शुद्ध है इसकी जिज्ञासा। सरल चित्त से पूछा है।
अष्टावक्र ने कहा, ‘हे प्रिय, यदि तू मुक्ति को चाहता है तो विषयों को विष के समान छोड़ दे और क्षमा, आर्जव, दया, संतोष और सत्य को अमृत के समान सेवन कर।’
मुक्तिमिच्छसि चेत्तात विषयान् विषवत्यज।
शब्द ‘विषय’ बड़ा बहुमूल्य है—वह विष से ही बना है। विष का अर्थ होता है, जिसे खाने से आदमी मर जाये। विषय का अर्थ होता है, जिसे खाने से हम बार—बार मरते हैं। बार—बार भोग, बार—बार भोजन, बार—बार महत्वाकांक्षा, ईर्ष्या, क्रोध, जलन—बार—बार इन्हीं को खा—खा कर तो हम मरे हैं! बार—बार इन्हीं के कारण तो मरे हैं! अब तक हमने जीवन में जीवन कहा जाना, मरने को ही जाना है। अब तक हमारा जीवन जीवन की प्रज्वलित ज्योति कहां, मृत्यु का ही धुआ है। जन्म से ले कर मृत्यु तक हम मरते ही तो हैं धीरे—धीरे, जीते कहां? रोज—रोज मरते हैं! जिसको हम जीवन कहते हैं, वह एक सतत मरने की प्रक्रिया है। अभी हमें जीवन का तो पता ही नहीं, तो हम जीयेगे कैसे? यह शरीर तो रोज क्षीण होता चला जाता है। यह बल तो रोज खोता चला जाता है। ये भोग और विषय तो रोज हमें चूसते चले जाते हैं, जराजीर्ण करते चले जाते हैं। ये विषय और कामनाएं तो छेदों की तरह हैं; इनसे हमारी ऊर्जा और आत्मा रोज बहती चली जाती है। आखिर में घड़ा खाली हो जाता है, उसको हम मृत्यु कहते हैं।
तुमने कभी देखा, अगर छिद्र वाले घड़े को कुएं में डालो तो जब तक घड़ा पानी में डूबा होता है, भरा मालूम पड़ता है; उठाओ, पानी के ऊपर खींचो रस्सी, बस खाली होना शुरू हुआ! जोर का शोरगुल होता है। उसी को तुम जीवन कहते हो? जलधारें गिरने लगती हैं, उसी को तुम जीवन कहते हो? और घड़ा जैसे—जैसे पास आता हाथ के, खाली होता चला जाता है। जब हाथ में आता है, तो खाली घड़ा! जल की एक बूंद भी नहीं! ऐसा ही हमारा जीवन है
शैष भाग आगे जारी.........
शुभ प्रभात्म मित्रौं
औम तत्सत.

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अष्टावक्र ........... शैष भाग
अष्टावक्र ...........
शैष भाग.........
बच्चा पैदा नहीं हुआ, भरा मालूम होता है; पैदा हुआ कि खाली होना शुरू हुआ। जन्म का पहला दिन मृत्यु का पहला दिन है। खाली होने लगा। एक दिन मरा, दो दिन मरा, तीन दिन मरा! जिनको तुम ‘जन्म—दिन’ कहते हो, अच्छा हो, ‘मृत्यु—दिन’ कहो तो ज्यादा सत्यतर होगा .। एक साल मर जाते हो, उसको कहते हो, चलो एक जन्म—दिन आ गया! पचास साल मर गये, कहते हो, ‘पचास साल जी लिये, स्वर्ण—जयंती मनाएं!’ पचास साल मरे। मौत करीब आ रही है, जीवन दूर जा रहा है। घड़ा खाली हो रहा है! जो दूर जा रहा है, उसके आधार पर तुम जीवन को सोचते हो या जो पास आ रहा है उसके आधार पर? यह कैसा उलटा गणित! हम रोज मर रहे हैं। मौत करीब सरकती आती है।
अष्टावक्र कहते हैं. विषय हैं विषवत, क्योंकि उन्हें खा—खा कर हम सिर्फ मरते हैं; उनसे कभी जीवन तो मिलता नहीं।
‘यदि तू मुक्ति चाहता है, हे तात, हे प्रिय, तो विषयों को विष के समान छोड़ दे, और क्षमा, आर्जव, दया, संतोष और सत्य को अमृत के समान सेवन कर।’
अमृत का अर्थ होता है, जिससे जीवन मिले, जिससे अमरत्व मिले; जिससे उसका पता चले जो फिर कभी नहीं मरेगा।
तो क्षमा!
क्रोध विष है; क्षमा अमृत है।
आर्जव!
कुटिलता विष है; सीधा—सरलपन, आर्जव अमृत है।
दया!
कठोरता, क्रूरता विष है; दया, करुणा अमृत है।
संतोष।
असंतोष, का कीड़ा खाए चला जाता है। असंतोष का कीड़ा हृदय में कैंसर की तरह है; फैलता चला जाता है; विष को फैलाए चले जाता है।
संतोष—जो है उससे तृप्ति; जो नहीं है उसकी आकांक्षा नहीं। जो है वह काफी से ज्यादा है। वह है ही काफी से ज्यादा। आंख खोलो, जरा देखो!
संतोष कोई थोपना नहीं है ऊपर जीवन के। जरा गौर से देखो, तुम्हें जो मिला है वह तुम्हारी जरूरत से सदा ज्यादा है! तुम्हें जो चाहिए वह मिलता ही रहा है। तुमने जो चाहा है, वह सदा मिल गया है। तुमने दुख चाहा है तो दुख मिल गया है। तुमने सुख चाहा है तो सुख मिल गया है। तुमने गलत चाहा तो गलत मिल गया है। तुम्हारी चाह ने तुम्हारे जीवन को रचा है। चाह बीज है, फिर जीवन उसकी फसल है। जन्मों—जन्मों में जो तुम चाहते रहे हो वही तुम्हें मिलता रहा है। कई बार तुम सोचते हो हम कुछ और चाह रहे हैं, जब मिलता है तो कुछ और मिलता है—तो तुम्हारे चाहने में भूल नहीं हुई है सिर्फ तुमने चाहने के लिए गलत शब्द चुन लिया था। जैसे—तुम चाहते हो सफलता, मिलती है विफलता। तुम कहते हो, विफलता मिल रही है, चाही तो सफलता थी।.
लेकिन जिसने सफलता चाही उसने विफलता को स्वीकार कर ही लिया; वह विफलता से भीतर डर ही गया है। विफलता के कारण ही तो सफलता चाह रहा है। और जब—जब सफलता चाहेगा तब—तब विफलता का खयाल आयेगा। विफलता का खयाल भी मजबूत होता चला जायेगा। सफलता तो कभी मिलेगी; लेकिन रास्ते पर यात्रा तो विफलता—विफलता में ही बीतेगी। विफलता का भाव संगृहीभूत होगा। वह इतना संगृहीभूत हो जायेगा कि वही एक दिन प्रगट हो जायेगा। तब तुम कहते हो कि हमने तो सफलता चाही थी। लेकिन सफलता के चाहने में तुमने विफलता को चाह लिया।
सफलता चाही, विफलता मिलेगी। अगर सचमुच सफलता चाहिए हो, सफलता चाहना ही मत; फिर तुम्हें कोई विफल नहीं कर सकता।
तुम कहते हो : हमने सम्मान चाहा था, अपमान मिल रहा है। सम्मान चाहता ही वही व्यक्ति है, जिसका अपने प्रति कोई सम्मान नहीं। वही तो दूसरों से सम्मान चाहता है। अपने प्रति जिसका अपमान है वही तो दूसरों से अपने अपमान को भर लेना चाहता है, ढांक लेना चाहता है। सम्मान की आकांक्षा इस बात की खबर है कि तुम अपने भीतर अपमानित अनुभव कर रहे हो; तुम्हें अनुभव हो रहा है कि मैं कुछ भी नहीं हूं दूसरे मुझे कुछ बना दें, सिंहासन पर बिठा दें, पताकाएं फहरा दें, झंडे उठा लें मेरे नाम के—दूसरे कुछ कर दें!
तुम भिखमंगे हो! तुमने अपना अपमान तो खुद कर लिया जब तुमने सम्मान चाहा। और यह अपमान गहन होता जायेगा।
मेरा कोई अपमान नहीं कर सकता, क्योंकि मैं सम्मान चाहता ही नहीं। यह सम्मान को पा लेना है। लाओत्सु कहता है, मुझे कोई हरा नहीं सकता, क्योंकि जीत की हमने बात ही छोड़ दी। अब हराओगे कैसे! तुम उसी को हरा सकते हो जो जीतना चाहता है अब यह जरा उलझा हुआ हिसाब है।
इस दुनिया में सम्मान उन्हें मिलता है जिन्होंने सम्मान नहीं चाहा। सफलता उन्हें मिलती है जिन्होंने सफलता नहीं चाही। क्योंकि जिन्होंने सफलता नहीं चाही उन्होंने तो स्वीकार ही कर लिया कि सफल तो हम हैं ही, अब और चाहना क्या है? सम्मान तो हमारे भीतर आत्मा का है ही; अब और चाहना क्या है? परमात्मा ने सम्मान दे दिया तुम्हें पैदा करके; अब और किसका सम्मान चाहते हो? परमात्मा ने तुम्हें काफी गौरव दे दिया! जीवन दिया! यह सौभाग्य दिया कि आंख खोलो, देखो हरे वृक्षों को, फूलों को, पक्षियों को! कान दिए—सुनो संगीत को, जलप्रपात के मरमर को! बोध दिया कि बुद्ध हो सको! अब और क्या चाहते हो? सम्मानित तो तुम हो गये! परमात्मा ने तुम्हें प्रमाण—पत्र दिया। तुम भिखारी की तरह किनसे प्रमाण—पत्र मांग रहे हो? उनसे, जो तुमसे प्रमाण—पत्र मांग रहे हैं?
यह बड़ा मजेदार मामला है : दो भिखारी एक—दूसरे के सामने खड़े भीख मांग रहे हैं! यह भीख मिलेगी कैसे? दोनों भिखारी हैं। तुम किससे सम्मान मांग, रहे हो? किसके सामने खड़े हो? यह अपमान कर रहे हो तुम अपना। और यही अपमान गहन होता जायेगा।
संतोष का अर्थ होता है : देखो, जो तुम्हारे पास है। देखो जरा आंख खोल कर, जो तुम्हें मिला ही है। यह अष्टावक्र की बड़ी बहुमूल्य कुंजी है। यह धीरे—धीरे तुम्हें साफ होगी। अष्टावक्र की दृष्टि बड़ी क्रांतिकारी है, बड़ी अनूठी है, जड़—मूल से क्रांति की है।
‘संतोष और सत्य को अमृत के समान सेवन कर।’
क्योंकि असत्य के साथ जो जीयेगा वह असत्य होता चला जायेगा। जो असत्य को बोलेगा, असत्य को जीयेगा, स्वभावत: असत्य से घिरता चला जायेगा। उसके जीवन से संबंध विच्छिन्न हो जाएंगे, जड़ें टूट जाएंगी।
परमात्मा में जड़ें चाहते हो तो सत्य के द्वारा ही वे जड़ें हो सकती हैं। प्रामाणिकता और सत्य के द्वारा ही तुम परमात्मा से जुड़ सकते हो। परमात्मा से टूटना है तो असत्य का धुआ पैदा करो, असत्य के बादल अपने पास बनाओ। जितने तुम असत्य होते चले जाओगे उतने परमात्मा से दूर होते चले जाओगे।
‘तू न पृथ्वी है, न जल है, न वायु है, न आकाश है। मुक्ति के लिए आत्मा को, अपने को इन सबका साक्षी चैतन्य जान।’
सीधी—सीधी बातें हैं; भूमिका भी नहीं है। अभी दो वचन नहीं बोले अष्टावक्र ने कि ध्यान आ गया, कि समाधि की बात आ गई। जानने वाले के पास समाधि के अतिरिक्त और कुछ जताने को है भी नहीं। वह दो वचन भी बोले, क्योंकि एकदम से अगर समाधि की बात होगी तो शायद तुम चौंक ही जाओगे, समझ ही न पाओगे। मगर दो वचन—और सीधी समाधि की बात आ गई!
अष्टावक्र सात कदम भी नहीं चलते; बुद्ध तो सात कदम चले, आठवें कदम पर समाधि है। अष्टावक्र तो पहला कदम ही समाधि का उठाते हैं।
‘तू न पृथ्वी है, न जल, न वायु, न आकाश’—ऐसी प्रतीति में अपने को थिर कर।’मुक्ति के लिए आत्मा को, अपने को इन सबका साक्षी चैतन्य जान।’
‘साक्षी’ सूत्र है। इससे महत्वपूर्ण सूत्र और कोई भी नहीं। देखने वाले बनो! जो हो रहा है उसे होने दो; उसमें बाधा डालने की जरूरत नहीं। यह देह तो जल है, मिट्टी है, अग्नि है, आकाश है। तुम इसके भीतर तो वह दीये हो जिसमें ये सब जल, अग्नि, मिट्टी, आकाश, वायु प्रकाशित हो रहे हैं। तुम द्रष्टा हो। इस बात को गहन करो।
साक्षिणां चिद्धूपं आत्मानं विदि…….
यह इस जगत में सर्वाधिक बहुमूल्य सूत्र है। साक्षी बनो! इसी से होगा शान! इसी से होगा वैराग्य! इसी से होगी मुक्ति!
प्रश्न तीन थे, उत्तर एक है।
‘यदि तू देह को अपने से अलग कर और चैतन्य में विश्राम कर स्थित है तो तू अभी ही सुखी, शात और बंध—मुक्त हो जायेगा।’
इसलिए मैं कहता हूं यह जड़—मूल से क्रांति है। पतंजलि इतनी हिम्मत से नहीं कहते कि ‘अभी ही।’ पतंजलि कहते हैं, ‘करो अभ्यास—यम, नियम; साधो—प्राणायाम, प्रत्याहार, आसन; शुद्ध करो। जन्म—जन्म लगेंगे, तब सिद्धि है।’
महावीर कहते हैं, ‘पंच महाव्रत! और तब जन्म—जन्म लगेंगे, तब होगी निर्जरा; तब कटेगा जाल कर्मों का।’
सुनो अष्टावक्र को
यदि देह पृथस्कृत्य चिति विश्राम्य तिष्ठसि।
अधुनैव सुखी शांत: बंधमुक्तो भविष्यसि।।
‘अधुनैव!’ अभी, यहीं, इसी क्षण! ‘यदि तू देह को अपने से अलग कर और चैतन्य में विश्राम कर स्थित है…!’ अगर तूने एक बात देखनी शुरू कर दी कि यह देह मैं नहीं हूं; मैं कर्ता और भोक्ता नहीं हूं; यह जो देखने वाला मेरे भीतर छिपा है जो सब देखता है—बचपन था कभी तो बचपन देखा, फिर जवानी आयी तो जवानी देखी, फिर बुढ़ापा आया तो बुढ़ापा देखा; बचपन नहीं रहा तो मैं बचपन तो नहीं हो सकता—आया और गया, मैं तो हूं! जवानी नहीं रही तो मैं जवानी तो नहीं हो सकता— आई और गई; मैं तो हूं! बुढ़ापा आया, जा रहा है, तो मैं बुढ़ापा नहीं हो सकता। क्योंकि जो आता है जाता है, वह मैं कैसे हो सकता हूं! मैं तो सदा हूं। जिस पर बचपन आया, जिस पर जवानी आई, जिस पर बुढ़ापा आया, जिस पर हजार चीजें आईं और गईं—मैं वही शाश्वत हूं।
स्टेशनों की तरह बदलती रहती है बचपन, जवानी, बुढ़ापा, जन्म—यात्री चलता जाता। तुम स्टेशन के साथ अपने को एक तो नहीं समझ लेते! की स्टेशन पर तुम ऐसा तो नहीं समझ लेते कि मैं भुज हूं! फिर पहुंचे मनमाड तो ऐसा तो नहीं समझ लेते कि मैं मनमाड हूं! तुम जानते हो कि भुज आया, गया; मनमाड आया, गया—तुम तो यात्री हो! तुम तो द्रष्टा हों—जिसने भुज देखा, भुज आया; जिसने मनमाड़ देखा, मनमाड आया! तुम तो देखने वाले हो!
तो पहली बात : जो हो रहा है उसमें से देखने वाले को अलग कर लो!
‘देह को अपने से अलग कर और चैतन्य में विश्राम..।’
और करने योग्य कुछ भी नहीं है। जैसे लाओत्सु का सूत्र है—समर्पण, वैसे अष्टावक्र का सूत्र है—विश्राम, रेस्ट। करने को कुछ भी नहीं है।
मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, ध्यान कैसे करें? वे प्रश्न ही गलत पूछ रहे हैं। गलत पूछते हैं तो मैं उनको कहता हूं करो। अब क्या करोगे! तो उनको बता देता हूं कि करो, कुछ न कुछ तो करना ही पड़ेगा—अभी तुम्हें करने कीं खुजलाहट है तो उसे तो पूरा करना होगा। खुजली है तो क्या करोगे! बिना खुजाए नहीं बनता। लेकिन धीरे—धीरे उनको करवा—करवा कर थका डालता हूं। फिर वे कहते हैं कि अब इससे छुटकारा दिलवाओ! अब कब तक यह करते रहें? मैं कहता हूं मैं तो पहले ही राजी था, लेकिन तुम्हें समझने में जरा देर लगी। अब विश्राम करो!
ध्यान का आत्यंतिक अर्थ विश्राम है......
शैष आगे जारी...........
औम तत्सत.

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रूद्रयामल तंत्र.
रूद्रयामल तंत्र..........
शिवजी ने कहा भी है – ‘‘हे प्राणवल्लभे। अवैष्णव, नास्तिक, गुरु सेवा रहित, अनर्थकारी, क्रोधी आदि ऐसे अनाधिकारी को मंत्र अथवा नाम जप की महिमा अथवा विधि कभी न दें। कुमार्गगामी अपने पुत्र तक को यह विद्या न दें। तन-मन और धन से गुरु सुश्रुषा करने वालों को यह विधि दें।’’
किसी भी देवी-देवता का सतत् नाम जप यदि लयबद्धता से किया जाए तो वह अपने में स्वयं ही एक सिद्ध मंत्र बन जाता है। जप की शास्त्रोक्त विधि तो बहुत ही क्लिष्ट है। किसी नाम अथवा मंत्र से इक्षित फल की प्राप्ति के लिए उसमें पुरुश्चरण करने का विधान है। पुरुश्चरण क्रिया युक्त मंत्र शीघ्र फलप्रद होता है। मंत्रादि की पुरुश्चरण क्रिया कर लेने पर कोई भी सिद्धी अपने आराध्य मंत्र के द्वारा सरलता से प्राप्त की जा सकती है। पुरुश्चरण के दो चरण हैं। किसी कार्य की सिद्धी के लिए पहले से ही उपाय सोचना, तदनुसार अनुष्ठान करना तथा किसी मंत्र, नाम जप, स्तोत्र आदि को अभीष्ट कार्य की सिद्धि के लिए नियमपूर्वक सतत् जपना इष्ट सिद्धि की कामना से सर्वप्रथम मंत्र, नामादि का पुरश्चरण कर लें। अर्थात मंत्र में जितने अक्षर हैं उतने लाख जप करें। मंत्र का दशांश अर्थात दसवां भाग हवन करें। हवन के लिए मंत्र के अंत में ‘स्वाहा’ बोलें। हवन का दशांश तर्पण करें। अर्थात मंत्र के अंत में ‘तर्पयामी’ बोलें। तर्पण का दशांश मार्जन करें अर्थात मंत्र के अंत में ‘मार्जयामि’ अथवा ‘अभिसिन्चयामी’ बोलें। मार्जन का दशांश साधु ब्राह्मण आदि को श्रद्धा भाव से भोजन कराएं, दक्षिणादि से उनको प्रसन्न करके उनका आशीर्वाद लें। इस प्रकार पुरुश्चरण से मंत्र साधक का कुछ भी असाध्य नहीं रह जाता।
अपने-अपने बुद्धि-विवेक अथवा संत और गुरु कृपा से आराध्य देव का मंत्र, नाम, स्तोत्रादि चुनकर आप भी उसे सतत् जपकर जीवन को सार्थक बना सकते हैं। लम्बी प्रक्रिया में न जाना चाहें तो अपने आराध्य देव के शत, कोटि अथवा लक्ष नाम जप ही आपके लिए प्रभावशाली मंत्र सिद्ध हो सकते हैं। भौतिक इक्षाओं की पूर्ति के लिए आप सरल सा उपाय भी कर सकते हैं। बौद्धिक पाठक गण यदि मंत्र सार, मंत्र चयन आदि की विस्तृत प्रक्रिया में भी जाना चाहते हैं तो वह पुस्तक ‘मंत्र जप के रहस्य’ से लाभ उठा सकते हैं।
प्रस्तुत प्रयोग पूरे 100 दिन का है अर्थात इसे सौ दिनों में पूरा करना है। बीच में यदि कोई दिन छूट जाए तो उसके स्थान पर उसी क्रम में दिनों की संख्या आप आगे भी बढ़ा सकते हैं। जिस प्रयोजन के लिए नाम, मंत्रादि, जप प्रारम्भ कर रहे हैं उसके अनुरुप बैठने का एक स्थान सुनिश्चित कर लें :
प्रयोजन स्थान
सर्व कार्य सिद्धि अगस्त्य अथवा पीपल के नीचे
लक्ष्मी कृपा कैथ अथवा बेल वृक्ष के नीचे
संतान सुख आम, मालती अथवा अलसी वृक्ष के नीचे
भूमि-भवन जामुन वृक्ष के नीचे
धन-धान्य बरगद अथवा कदम्ब वृक्ष के नीचे
पारिवारिक सुख विवाह आदि किसी नदी का तट
आरोग्य अथवा आयुष्य शिव मन्दिर
सर्वकामना सिद्धि देवालय अथवा पवित्र नदी का तट
प्रयोग काल में शब्द, नाम अथवा मंत्रादि आपको अपने प्रयोजन हेतु जिस पत्र पर लिखना है, उसका विवरण निम्न प्रकार से है :
प्रयोजन पत्र
सुख-समृद्धि केले के पत्र पर
धन-धान्य भोजपत्र पर
मान-सम्मान पीपल पत्र पर
सर्वकामना सिद्धि अनार के पत्र पर
लक्ष्मी कृपा बेल के पत्र पर
मोक्ष तुलसी पत्र
धन प्राप्ति कागज पर
संतान-गृहस्त सुख भोज पत्र पर
वैसे तो अष्ट गंध की स्याही सर्वकामना हेतु किए जा रहे मंत्र के अनुसार निम्न कार्य हेतु किए जा रहे मंत्र सिद्धि के लिए उपयुक्त है तथापि महानिर्वाण तंत्र के अनुसार निम्न कार्य हेतु अलग-अलग स्याही भी चुन सकते है :
प्रयोजन स्याही
सर्व कार्य सिद्धि केसर तथा चंदन
मोक्ष सफेद चंदन
धनदायक प्रयोग रक्त चंदन
आरोग्य गोरोचन तथा गोदुग्ध
संतान सुख चंदन तथा कस्तूरी
शुभ कार्य गोरोचन, चंदन, पंच गंध
(सफेद तथा लाल चंदन, अगर तगर तथा केसर)
रुद्रयामल महातन्त्र के अन्तर्गत चण्डिका शाप विमोचन मन्त्र
श्रीदुर्गा-पाठ को करने से पहले अगर इन बीस श्लोकों को पढ लिया जावे तो किसी प्रकार से देवी की पूजा के प्रति की गयी भूल से मिला श्राप खत्म हो जाता है,अक्सर श्रीदुर्गा पूजा में किसी न किसी प्रकार का विघ्न तभी पडता है ,जब जानबूझ कर या किसी कारण वश पूजा में अशुद्धि या किसी कन्या को बेकार में परेशान किया जाता है।
शाप-विमोचन संकल्प
ऊँ अस्य श्रीचण्डिकाया ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापविमोचन मन्त्रस्य वसिष्ठनारदसंवादसामवेदाधिपतिब्रह्माण ऋषय: सर्वैश्वर्यकारिणी श्रीदुर्गा देवता चरित्रत्रयं बीजं ह्रीं शक्ति: त्रिगुणात्मस्वरूपचण्डिकाशापविमुक्तो मम संकल्पितकार्यसिद्धयर्थे जपे विनियोग:।
शापविमोचन मन्त्र
ऊँ (ह्रीं) रीं रेत:स्वरूपिण्यै मधुकैटभमर्दिन्यै ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद विमुक्ताभव॥१॥
ऊँ रं रक्तस्वरू पिण्यै महिषासुरमर्दिन्यै,ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद विमुक्ताभव॥२॥
ऊँ क्षुं क्षुधास्वरूपिण्यै देववन्दितायै ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद विमुक्ताभव॥३॥
ऊँ छां छायास्वरूपिण्यै दूतसंवादिन्यै ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद विमुक्ताभव॥४॥
ऊँ शं शक्तिस्वरूपिण्यै धूम्रलोचनघातिन्यै ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद विमुक्ताभव॥५॥
ऊँ तं तृषास्वरूपिण्यै चण्डमुण्डवधकारिण्यै ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद विमुक्ताभव॥६॥
ऊँ क्षां क्षान्तिस्वरूपिण्यै रक्तबीजवधकारिण्यै ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद विमुक्ताभव॥७॥
ऊँ जां जातिरूपिण्यै निशुम्भवधकारिण्यै ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद विमुक्ताभव॥८॥
ऊँ लं लज्जास्वरूपिण्यै शुम्भवधकारिण्यै ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद विमुक्ताभव॥९॥
ऊँ शां शान्तिस्वरूपिण्यै देवस्तुत्यै ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद विमुक्ताभव॥१०॥
ऊँ श्रं श्रद्धास्वरूपिण्यै सकलफ़लदात्र्यै ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद विमुक्ताभव॥११॥
ऊँ श्रीं बुद्धिस्वरूपिण्यै महिषासुरसैन्यनाशिन्यै ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद विमुक्ताभव॥१२॥
ऊँ कां कान्तिस्वरूपिण्यै राजवरप्रदायै ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद विमुक्ताभव॥१३॥
ऊँ माँ मातृस्वरूपिण्यै अनर्गलमहिमासहितायै ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद विमुक्ताभव॥१४॥
ऊँ ह्रीं श्रीं दुं दुर्गायै सं सर्वैश्वर्यकारिण्यै ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद विमुक्ताभव॥१५॥
ऊँ ऐं ह्रीं क्लीं नम: शिवायै अभेद्यकवचस्वरूपिण्यै ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद विमुक्ताभव॥१६॥
ऊँ क्रीं काल्यै कालि ह्रीं फ़ट स्वाहायै ऋग्वेदस्वरूपिण्यै ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद विमुक्ताभव॥१७॥
ऊँ ऐं ह्रीं क्लीं महाकालीमहालक्ष्मीमहासरस्वतीस्वरूपिण्यै त्रिगुणात्मिकायै दुर्गादेव्यै नम:॥१८॥
इत्येवं हि महामन्त्रान पठित्वा परमेश्वर,चण्डीपाठं दिवा रात्रौ कुर्यादेव न संशय:॥१९॥
एवं मन्त्रं न जानाति चण्डीपाठं करोति य:,आत्मानं चैव दातारं क्षीणं कुर्यान्न संशय:॥२०॥
(श्रीदुर्गामार्पणामस्तु)
2…कुण्डलिणी की सात्त्विक और धार्मिक उपासनाविधि रूद्रयामलतन्त्र नामक ग्रंथमे वर्णित है , जो साधक को दिव्य ज्ञान प्रदान करती है ।
1. संक्षिप्त विवरण – योग
योगरन्धितकर्माणो ह्रदि योगविभाविते ।
योगिनो यं प्रपश्यन्ति योगेशं तं नतोऽस्म्यहम् ॥
श्रीमद्भाग ०८ . ३ . २७
योग के द्वारा कर्म , कर्म वासना और कर्मफल को भस्म करके योगी जन योग से विशुद्ध अपने ह्रदय में जिन योगेश्वर भगवान् का दर्शन करते हैं । उन्हें मैं प्रणाम करता हूँ ।
पराञ्चि खानि व्यतृणत् स्वयंभूस्तस्मात्पराङ् पश्यति नान्तरात्मन् ।
कश्चिद्धीरः प्रत्यगात्मानमैक्षदावृत्तचक्षुरमृतत्वमिच्छन् ॥
कठोपनिषद् २ .१ .१
समस्त जन संसार में स्वभावतः बहिर्मुख ही उत्पन्न होते हैं । उनमें कोई विरला योगी ही अमृतत्व की कामना से अन्तर्मुख होकर प्रत्यगात्मा को देखता है ।
ओंकार का जप और तेज का ध्यान ही शब्दब्रह्म की उपासना है । इस लोक में दो प्रकार के शब्द सुने जाते हैं , एक नित्य तथा दूसरा कार्यरुप अनित्य । जो शब्द सुना जाता है या उच्चरित होता हैं , वह लोक व्यवहार के लिए प्रवृत्त वैखरी रुप कार्यात्मक अनित्य है । पश्यन्ती रुप शब्द ब्रह्मात्मक बिम्ब के ही वर्ण (मात्रुकाएँ ), पद और वाक्य प्रतिबिम्ब हैं । पश्यन्ति रुप नित्य शब्दात्मा समस्त साध्य साधनात्मक पद और पदार्थ भेद रुप व्यवहार का उपादान कारण है । अकार ककारादि क्रम का वहाँ उपसंहार हो जाता है । अतः समस्त कर्मों का आश्रय , सुख -दुःख का अधिष्ठान , घट के भीतर रखे हुए दीपक के प्रकाश की भाँति भोगायतन शरीर मात्र का प्रकाशक ‘शब्दब्रह्म ’ उच्चारण करने वाले जनों के ह्रदय में विद्यमान रहता है । योगी उसी शब्द तत्त्व स्वरुप महानात्मा के साथ ऐक्य लाभ करता हुआ वैकरण्य (लय ) को प्राप्त करता है ।
नाद्योग में साधक दक्षिणकर्ण में ‘अनाहत ’ को सुनता है । अभ्यास करने पर क्रमशः घण्टा -वादन , मेघ -गर्जन एवं तालवादन आदि दस प्रकार के नाद सुनायी पडते हैं । अन्तिम नाद ओंकार है , उसी में मन का लय करना चाहिए । तभी स्वरुपस्थिति प्राप्त होती है । ऐसा ही नादबिन्दूपनिषद् में कहा भी है —
सिद्धासने स्थितो योगी मुद्रां सन्धाय वैष्णवीम् ।
श्रुणुयाद् दक्षिणे कर्णे नादमन्तर्गतं सदा ॥
हठयोगप्रदीपिका (४ . २९ , ८३ . ५९ ) में कहा गया है कि —
इन्दियाणां मनोनाथो मनोनाथस्तु मारुतः ।
मारुतस्य लयो नाथः स लयो नादमाश्रितः ॥
अभ्यस्यमानो नादोऽयं ब्राह्ममावृणुते ध्वनिम् ।
पश्चाद् विक्षेपमखिलं जित्वा योगी सुखी भवेत् ॥
कर्पूरमनले यद्वषत् सैन्धवं सलिले यथा ।
तथा संघीयमानं च मनस्तत्त्वे विलियते ॥
यह लय योग ही कुण्डलिनी योग के नाम से प्रसिद्ध है —
लयक्रिया साधनेन सुप्ता सा कुलकुण्डली ।
प्रबुद्ध्य तस्मिन् पुरुषे लीयते नात्र संशयः ॥
.शैष कल...
.
औम तत्सत.

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अष्टावक्र
अष्टावक्र ......
कल पढते समय ऐसा लगा कि मैं इस पृथ्वी पर नहीं हूं, वरन मुक्त और असीम आकाश में एक ज्योति—कण हूं। पढनै के बाद भी हलकेपन का, खालीपन का अनुभव होता रहा; उसी आकाश में भ्रमण करते रहने का जी होता रहा। ज्ञान, कर्म, भक्ति मैं नहीं जानता; लेकिन अकेला होने पर इस स्थिति में डूबे रहने का जी होता है। लेकिन कभी—कभी यह भाव भी उठता है कि कहीं यह मेरा पागलपन तो नहीं है, कहीं यह मेरे अहंकार का ही दूसरा खेल तो नहीं है!
इस पृथ्वी पर हम हैं, पर इस पृथ्वी पर वस्तुत: हम न हो सकते हैं और न हम हैं। प्रतीत होता है, पृथ्वी पर हम अजनबी हैं। देह में घर किया है, लेकिन देह हमारा घर नहीं। जैसे कोई परदेस में बस जाये और भूल ही जाये स्वदेश को, फिर अचानक राह पर किसी दिन बाजार में कोई मिल जाये जो घर की याद दिला दे, जो अपनी भाषा में बोले—तो एक क्षण को परदेस मिट जायेगा, स्वदेश प्रगट हो जायेगा।
शास्त्र का यही मूल्य है। शास्ताओं के वचनों का यही अर्थ है। उनकी सुनकर क्षण भर को हम यहां नहीं रह जाते; वहां हो जाते हैं जहां हमें होना चाहिए। उनके संगीत में बहकर, जो चारों तरफ घेरे है वह दूर हो जाता है; और जो बहुत दूर है, पास आ जाता है।
अष्टावक्र के वचन बहुत अनूठे हैं। सुनोगे तो ऐसा बार—बार होगा। बार—बार लगेगा, पृथ्वी पर नहीं हो, आकाश के हो गये; क्योंकि वे वचन आकाश के हैं। वे वचन स्वदेश से आए हैं। उस स्रोत से आए हैं, जहां से हम सबका आना हुआ है; और जहां हमें जाना चाहिए, और जहां जाए बिना हम कभी चैन को उपलब्ध न हो सकेंगे।
जहां हम हैं—सराय है, घर नहीं। कितना ही मानकर बैठ जायें कि घर है, फिर भी सराय सराय बनी रहती है। समझा लें, बुझा लें, भुला लें—भेद नहीं पड़ता; काटा चुभता ही रहता है; याद आती ही रहती है। और कभी जब ऐसे किसी सत्य के साथ मुलाकात हो जाये, जो खींच ले, जो चुंबक की तरह किसी और दूसरी दुनिया का दर्शन करा दे तो लगेगा कि हम पृथ्वी के हिस्से नहीं रहे।
ठीक लगा।
कल पढतै सुनते समय ऐसा लगा कि मैं इस पृथ्वी पर नहीं हूं।’
इस पृथ्वी पर कोई भी नहीं है। इस पृथ्वी पर हम मालूम होते हैं, प्रतीति होती है, सत्यतः हम आकाश में हैं। हमारा स्वभाव आकाश का है।
आत्मा यानी भीतर का आकाश। शरीर यानी पृथ्वी। शरीर बना है पृथ्वी से। तुम बने हो आकाश से। तुम्हारे भीतर दोनों का मिलन हुआ है।
तुम क्षितिज हो, जहां पृथ्वी आकाश से मिलती हुई मालूम पड़ती है; लेकिन मिलती थोड़े ही है कभी! दूर क्षितिज मालूम पड़ता है—मिल रहा आकाश पृथ्वी से। चल पड़ो; लगता है ऐसे घड़ी दो घड़ी में पहुंच जायेंगे। चलते रहो जन्मों—जन्मों तक, कभी भी उस जगह न पहुंचोगे जहां आकाश पृथ्वी से मिलता है। बस मालूम होता; सदा मालूम होता मिल रहा—थोड़ी दूर आगे, बस थोड़ी दूर आगे!
क्षितिज कहीं है नहीं—सिर्फ दिखाई पड़ता है। जैसे बाहर क्षितिज है वैसे ही हमारी अवस्था है। यहां भीतर भी मिलन कभी हुआ नहीं। आत्मा कैसे मिले शरीर से! मर्त्य का अमृत से मिलन कैसे हो! दूध पानी में मिल जाता है—दोनों पृथ्वी के हैं। आत्मा शरीर से कैसे मिले—दोनों का गुणधर्म भिन्न है! कितने ही पास हों, मिलन असंभव है। सनातन से पास हों तो भी मिलन असंभव है। मिलन हो नहीं सकता; सिर्फ हमारी प्रतीति है, हमारी धारणा है। क्षितिज हमारी धारणा है। हमने मान रखा है, इसलिए है।
अष्टावक्र के वचनों को अगर जाने दोगे हृदय के भीतर तीर की तरह तो वे तुम्हारी याद को जगायेंगे; तुम्हारी भूली—बिसरी स्मृति को उठायेंगे; क्षण भर को आकाश जैसे खुल जायेगा, बादल कट जायेंगे; सूरज की किरणों से भर जायेगा प्राण।
कठिनाई होगी; क्योंकि हमारे सारे जीवन के विपरीत होगा यह अनुभव। इससे बेचैनी होगी। और ये जो घटाएं छट गई हैं, ये तुम्हारे कारण नहीं छटी हैं; ये तो किसी शास्ता के वचनों का परिणाम हैं। फिर घटाएं घिर जायेंगी। तुम घर पहुंचते—पहुंचते फिर घटाओं को घेर लोगे। तुम अपनी आदत से इतनी जल्दी बाज थोड़े आओगे—फिर घटाएं घिर जायेंगी, तब और बेचैनी होगी कि जो दिखाई पड़ा था, वह सपना तो नहीं था; जो दिखाई पड़ा था, कहीं कल्पना तो नहीं थी, कहीं अहंकार का, मन का खेल तो न था, कहीं ऐसा तो न हुआ कि हम किसी पागलपन में पड़ गये थे!
स्वभावत: तुम्हारी आदतों का वजन बहुत पुराना है। अंधेरा बड़ा प्राचीन है। यद्यपि है नहीं—पर है बहुत प्राचीन। सूरज की किरण कभी फूटती है तो बड़ी नयी है—अत्यंत नयी है, सद्यस्नात! क्षण भर को दिखाई पड़ती है, फिर तुम अपने अंधेरे में खो जाते हो। तुम्हारे अंधेरे का बड़ा लंबा इतिहास है। जब तुम दोनों को तौलोगे तो शक किरण पर पैदा होगा, अंधेरे पर पैदा नहीं होगा। होना चाहिए अंधेरे पर—होता है किरण पर; क्योंकि किरण है नयी और अंधेरा है पुराना। अंधेरा है परंपरा जैसा— सदियों—सदियों की धारा है। किरण है अभी—अभी फूटी—ताजी, नयी, इतनी नयी कि भरोसा कैसे करें! ‘…. लगा कि मैं इस पृथ्वी पर नहीं हूं।’
इस पृथ्वी पर कोई भी नहीं है। इस पृथ्वी पर हम हो नहीं सकते। मान्यता है हमारी, धारणा है हमारी, लगता है—सत्य नहीं है।
और मुझे, असीम आकाश में एक ज्योति—कण हूं ऐसा प्रतीत हुआ।’
यह शुरुआत है : ‘असीम आकाश में एक ज्योति—कण हूं।’ जल्दी ही लगेगा कि असीम आकाश हूं। यह प्रारंभ है।
तो असीम आकाश में भी अभी हम पूरी तरह लीन नहीं हो पाते। अगर लगता भी है कभी, कभी वह उड़ान भी आ जाती है, वह तूफान भी आ जाता है, हवाएं हमें ले भी जाती है—तो भी हम अपने को अलग ही बचा लेते हैं।’ज्योति कण!’ न रहे अंधेरे, हो गये ज्योति—कण; लेकिन आकाश से अभी भी भेद रहा, फर्क रहा, फासला रहा। घटना तो पूरी उस दिन घटेगी, जिस दिन तुम आकाश ही हो जाओगे—ज्योति—कण भी भिन्न है—जिस दिन तुम अभिन्न हो जाओगे; जिस दिन लगेगा मैं शून्याकाश हूं।
ऐसा तो कहते हैं भाषा में कि मैं शून्य आकाश हूं। जब तक ‘मैं’ है, तब तक यह कैसे हो सकेगा? मैं है तो आकाश अलग रहेगा। जब ऐसा प्रतीत होगा कि शून्याकाश है, तब मैं तो नहीं रहूंगा। शून्याकाश ही रहेगा। कहते हैं : अहं ब्रह्मास्मि—मैं ब्रह्म हूं। लेकिन जब ब्रह्म होगा तब मैं कैसे रहेगा? ब्रह्म ही रहेगा, मैं नहीं रहूंगा। पर कहने में और कोई उपाय नहीं।
भाषा तो सोए हुए लोगों की है। भाषा तो उनकी है जो परदेस में बस गए और जिन्होंने परदेस को स्वदेश मान लिया है। मौन ही ज्ञानियों का है; भाषा तो अज्ञानियों की है।
तो जैसे ही कुछ कहो, कहते ही सत्य असत्य हो जाता है।’अहं ब्रह्मास्मि! मैं ब्रह्म हूं। मैं आकाश हूं।’—कहते ही असत्य हो गया।.. आकाश ही है!
लेकिन यह भी कहना ‘ आकाश ही है’ पूरा सत्य नहीं है, क्योंकि ‘ही’ बताता है कि कुछ और भी होगा, अन्यथा ‘ही’ पर जोर क्यों है? ‘आकाश है’, इतने कहने में. भी अड़चन है, क्योंकि जो है वह ‘नहीं’ हो सकता है।
हम कहते हैं, मकान है; कभी मकान नहीं हो जाता है, गिर जाता है, खंडहर हो जाता है। हम कहते हैं, आदमी है; कभी आदमी मर जाता है। आकाश इस तरह तो नहीं है कि कभी है और कभी नहीं है। आकाश तो सदा है।
तो आकाश है, ऐसा कहना पुनरुक्ति है। आकाश का स्वभाव ही होना है, इसलिए ‘है’ को क्या दोहराना? ‘है’ कहना तो उन चीजों के लिए ठीक है जो कभी नहीं’ भी हो जाती हैं। मनुष्य है। एक दिन नहीं था, आज है, कल फिर नहीं हो जायेगा। हमारी ‘है’ तो दो ‘नहीं’ के बीच में है। आकाश की ‘है’ कल भी है आज भी है, कल भी है। दो ‘है’ के बीच में ‘है’ का क्या अर्थ? दो ‘नहीं’ के बीच में ‘है’ का अर्थ होता है।
आकाश है, यह भी पुनरुक्ति है। कहें आकाश। लेकिन ‘ आकाश’ जब कहते हैं, शब्द जब बनाते हैं, तभी भूल हो जाती है। आकाश कहने का अर्थ ही हुआ कि कुछ और भी है जो आकाश से अन्यथा है, भिन्न है। अन्यथा शब्द की क्या जरूरत है? अगर एक ही है तब तो एक कहने का भी कोई प्रयोजन नहीं। एक तो तभी सार्थक है जब दो हो, तीन हो, चार हो, संख्या हो।’ आकाश’ भी क्या कहना? इसलिए ज्ञान तो मौन है। परम ज्ञान को शब्दों तक लाना असंभव है।
लेकिन हम धन्यभागी हैं कि अष्टावक्र जैसे किन्हीं पुरुषों ने अथक, असंभव चेष्टा की है। जहां तक संभव हो सकता था, सत्य की सुगंध को शब्द तक लाने का प्रयास किया है।
और इतना खयाल रखना कि अष्टावक्र जैसी सफल चेतना बहुत कम है। बहुतों ने प्रयास किया है सत्य को शब्द तक लाने का—सभी हारे हैं। हारना सुनिश्चित है। मगर अगर हारे हुओं में भी देखना हो, तो अष्टावक्र सबसे कम हारे हैं, सबसे ज्यादा जीते हैं। सुनोगे ठीक से तो घर की याद आयेगी। शुभ है कि लगा ज्योति—कण हूं। तैयारी रखना खोने की। किसी दिन लगेगा ज्योति—कण भी खो गया, आकाश ही बचा। तब पूरा मतवालापन छायेगा। तब डूबोगे सत्य की शराब में। तब नाचोगे। तब अमृत की पूरी झलक मिलेगी।
पढने के बाद भी हलकेपन, खालीपन का अनुभव होता रहा। उसी आकाश में भ्रमण करने का जी होता रहा।’
यहां थोड़ी भूल हो जाती है। जब भी हमें कुछ सुखद अनुभव होता है, तो हम चाहते हैं फिर—फिर हो। मनुष्य का मन है बड़ा कमजोर—आकांक्षा से भर जाता है, लोभ से भर जाता है, प्रलोभन पैदा होता है। जो भी सुखद है उसे दोहराने का मन होता है। लेकिन एक बात खयाल रखना, दोहराने में ही भूल हो जाती है। जैसे ही तुमने चाहा फिर से हो, कभी न होगा। क्योंकि जब पहली दफे हुआ था तो तुम्हारे चाहने से न हुआ था—हो गया था, घटा था; तुम्हारा कृत्य न था
शैष कल ....
शुभ रात्री मित्रौं.
औम तत्सत

Posted by Philippe Desmarais at 5:52 AM No comments:
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मन बड़ा होशियार है
अष्टावक्र.....
शैष भाग .....
सत्य है यही; न तो विधि है और न उपाय है। तुम्हारा ऐसा पूछना बचने की विधि और उपाय है। यह बात हमारा मन स्वीकार करने को राजी नहीं होता कि परमात्मा अभी और यहीं मिल सकता है। क्यों नहीं राजी होता? इसलिए राजी नहीं होता कि अगर अभी और यहीं मिल सकता है, तो फिर हमें मिल नहीं रहा तो इसका कारण क्या होगा? फिर इसकी व्याख्या कैसे करें? अगर अभी और यहीं मिल सकता है, तो मिल क्यों नहीं रहा? बेचैनी खड़ी हो जाती है। अभी और यहीं मिल सकता है, मिल तो नहीं रहा! तो इसे समझायें कैसे? यह तो बड़ी अड़चन की बात हो गई। इस अड़चन को सुलझाने के लिए तुम कहते हो. मिल तो सकता है, लेकिन पात्रता चाहिए!
बुद्धि रास्ते निकालती है। जहां उलझन खड़ी हो जाती है, उसे सुलझाती है. ‘रास्ता खोजना पड़ेगा, पात्रता खोजनी पड़ेगी, शुद्ध होना पड़ेगा—तब मिलेगा। और अगर अष्टावक्र कहते हैं अभी और यहीं मिल सकता है, तो जरूर इसमें कुछ कारण है। वे इसलिए कहते हैं ताकि तुम तीव्रता से प्रयास में लग जाओ! लेकिन लगना प्रयास में ही पड़ेगा।’
मन बड़ा होशियार है!
अष्टावक्र की बात बिलकुल सीधी—साफ है. परमात्मा अभी और यहीं मिल सकता है, क्योंकि परमात्मा कोई उपलब्धि नहीं है। परमात्मा तुम्हारा स्वभाव है। सारा जोर सीधा है। तुम परमात्मा हो; मिल सकने की बात ही गलत है। जब हम कहते हैं अभी और यहीं मिल सकता है तो इसका अर्थ इतना ही हुआ कि मिला ही हुआ है; जरा आंख खोलो और देखो! मिल सकने की भाषा ठीक नहीं है। मिल सकने में तो ऐसा लगता है कि तुम अलग हो और परमात्मा अलग है, तुम खोजने वाले हो, वह खोज का लक्ष्य है; तुम यात्री हो, वह मंजिल है। नहीं, अभी और यहीं मिल सकता है का इतना ही अर्थ है कि तुम वही हो जिसे तुम खोज रहे हो। जरा अपने को पहचानो! आंख खोलो और देखो! या आंख बंद करो और देखो—मगर देखो! थोडी दृष्टि की बात है, पात्रता की नहीं।
पात्रता का तो अर्थ हुआ कि परमात्मा भी सौदा हे। जैसे तुम बाजार में जाते हो तो कोई चीज हजार रुपये की है, कोई लाख रुपये की है, कोई दस लाख रुपये की है—हर चीज का मूल्य है। तो पात्रता का तो अर्थ हुआ कि परमात्मा का भी मूल्य है; जो पात्रता अर्जित करेगा, मूल्य चुकायेगा, उसे मिलेगा। तुम परमात्मा को भी बाजार में एक वस्तु बना लेना चाहते हो। त्याग करोगे, तपश्चर्या करोगे, तो मिलेगा! मूल्य चुकाओगे तो मिलेगा! मुफ्त कहीं मिलता है! तुम परमात्मा को खींच कर दुकान पर रख देते हो; डब्बे में बंद कर देते हो, दाम लिख देते हो। तुम कहते हो : इतने उपवास करो, इतना ध्यान करो; इतनी तपश्चर्या करो; धूप में तपो; सर्दी, आतप सहो—तब मिलेगा!
कभी इस पर तुमने सोचा कि यह तुम क्या कह रहे हो? तुम यह कह रहे हो कि तुम्हारे कुछ करने से परमात्मा के मिलने का संबंध हो सकता है। तुम जो करोगे, वह तुम्हारा किया होगा। तुम्हारा किया तुमसे बड़ा नहीं हो सकता। तुम्हारी तपश्चर्या तुम्हारी ही होगी। तुम जैसी ही दीन, तुम जैसी ही मलिन। तुम्हारी तपश्चर्या तुमसे बड़ी नहीं हो सकती। और तपश्चर्या से जो मिलेगा उसकी भी सीमा होगी; क्योंकि सीमित से सीमित ही मिल सकता है, असीम नहीं। तपश्चर्या से जो मिलेगा वह तुम्हारे ही मन की कोई धारणा होगी, परमात्मा नहीं।
अष्टावक्र कह रहे हैं कि परमात्मा तो है ही। वही तुम्हारे भीतर धड़क रहा है। वही तुम्हारे भीतर श्वास ले रहा है। वही जन्मा है। वही विदा होगा। वही अनत काल से, अनंत—अनंत रूपो प्रगट हो रहा है। कहीं वृक्ष है, कहीं पक्षी है, कहीं मनुष्य है।
परमात्मा है! उसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। इस सत्य की प्रत्यभिज्ञा, इस सत्य का स्मरण…। मैंने सुना है, एक सम्राट अपने बेटे पर नाराज हो गया, उसे देश—निकाला दे दिया। सम्राट का बेटा था, कुछ और तो करना जानता नहीं था, क्योंकि सम्राट के बेटे ने कभी कुछ किया न था, भीख ही मांग सकता था। जब कोई सम्राट सम्राट न रह जाये तो भिखमंगे के सिवा और कोई उपाय नहीं बचता। भीख मांगने लगा। बीस वर्ष बीत गये। भूल ही गया। अब बीस वर्ष कोई भीख मांगे तो याद रखना कि मैं सम्राट हूं असंभव, कष्टपूर्ण होगा; भीख मांगने में कठिनाई पड़ेगी; यही उचित है कि भूल ही जाओ। वह भूल ही गया था, अन्यथा भीख कैसे मांगे! सम्राट, और भीख मांगे! द्वार—द्वार, दरवाजे—दरवाजे भिक्षापात्र ले कर खड़ा हो! होटल में, रेस्तरा के सामने भीख मांगे! जूठन मांगे! सम्राट! सम्राट को भुला ही देना पडा विस्मत ही कर देना पडा। वह बात ही गई। वह जैसे अध्याय समाप्त हुआ। वह जैसे कि कहीं कोई सपनाँ देखा होगा, कि कोई कहानी पढ़ी होगी, कि फिल्म देखी होगी अपने से क्या लेना—देना!
बीस साल बाद जब सम्राट का हो गया, उसका बाप, तो वह. : एक ही बेटा! वही मालिक था। उसने अपने वजीरों को कहा : उसे खोजो और जहां भी हो उसे ले आओ। कहना, बाप ने क्षमा किया। अब क्षमा और न क्षमा का कोई अर्थ नहीं, मैं मर रहा हूं। अब यह राज्य कौन सम्हालेगा? यह औरों के हाथ में जाये इससे बेहतर है मेरे खून के हाथ में जाये। बुरा— भला जैसा भी है, उसे ले आओ!
जब वजीर पहुंचे तो वह एक होटल के सामने पैसे—पैसे मांग रहा था—टूटा—सा पात्र लिये। नंगा था। पैरों में जूते नही थे। भरी दुपहरी थी। गर्मी के दिन थे। लू बहती थी। पैर जल रहे थे। और वह मांग रहा था कि मुझे जूते खरीदने हैं, इसलिए कुछ पैसे मिल जायें। कुछ पैसे उसके पात्र में पड़े थे। रथ आ कर रुका। वजीर नीचे उतरा। वजीर ने गिर कर उसके चरण छुए—होने वाला सम्राट था! जैसे ही वजीर ने उसके चरण छुए, एक क्षण में घटना घट गई—बीस साल जिसकी याद न आई थी कि मैं सम्राट हूं! फिर ऐसा थोड़े ही लगा रहा कि वह बैठा, उसने सोचा और विचारा और तपश्चर्या की और ध्यान किया कि याद करूं, एक क्षण में, पल में, पल भी न लगा, एक क्षण में रूपांतरण हो गया. यह आदमी और हो गया! अभी भिखारी था दीन—हीन; अब भी था; अब भी पैर में जूते न थे—लेकिन हाथ से उसका पात्र उसने फेंक दिया और वजीरों से कहा कि जाओ और मेरे स्नान की व्यवस्था करो, ठीक वस्त्र जुटाओ! वह जा कर रथ पर बैठ गया। उसकी महिमा देखने जैसी थी। अभी भी वही का वही था, लेकिन उसके चेहरे पर अब एक गरिमा थी; आंखों में एक दीप्ति थी; चारों तरफ एक आभामंडल था! सम्राट था! याद आ गई। बाप ने बुलावा भेज दिया।
ठीक ऐसा ही है।
अष्टावक्र जब कहते कि अभी और यहीं तो वे यही कहते हैं. कितने चलो, बीस साल नहीं बीस जन्म सही देश—निकाले पर रहे भीख मांगी बहुत भूल गये बिलकुल याद को बिलकुल सुला दिया—सुलाना ही पड़ा; न सुलाते तो भीख मांगनी मुश्किल हो जाती; द्वार—द्वार दरवाजे—दरवाजे भिक्षापात्र ले कर घूमे…। अष्टावक्र यह कह रहे हैं : आ गया बुलावा! जागो! भिखमंगे तुम नहीं हो! सम्राट के बेटे हो।
अगर कोई ठीक से सुन लेगा, तो घटना सुनने में ही घट जायेगी। यही अष्टावक्र—गीता का महात्म्य है, महिमा है। कोई आग्रह नहीं है कि कुछ करो। सिर्फ सुन लो, सिर्फ सत्य को पहुंचने दो तुम्हारे हृदय तक, बाधा मत बनो, ग्राहक रहो, सिर्फ सुन लो, पहुंच जाये यह तीर तुम्हारे हृदय में, इसकी चोट—बस पर्याप्त है! जन्मों—जन्मों की विस्मृति टूट जायेगी, स्मरण लौट आयेगा। तुम परमात्मा हो। इसलिए वे कहते हैं : अभी और यहीं!
अब तुम तरकीबें मत खोजो। तुम कहते हो, शायद यह विधि होगी, उपाय होगा कि लोगों की त्वरा बढ़े तीव्रता बढ़े।
स्वामी’ ने पूछा है। स्वामी के पास, स्वामी की बुद्धि में चेष्टा’, ‘प्रयास’, ‘तप’ जरूरत से ज्यादा है—साधारण योगी की जो पकड़ होती है वैसी पकड़ है।
ये अष्टावक्र के वचन साधारण योगी के लिए नहीं हैं; असाधारण, प्रज्ञावान.. जो सुन कर ही जाग जाये। स्वामी थोड़े हठयोगी हैं। काफी पिटाई हो तो थोड़े—बहुत चलेंगे। कोड़े को देख कर, उसकी छाया को देख कर नहीं चल सकतै
हंसना मत, क्योंकि स्वामी जैसे ही अधिक लोग हैं। हंस कर तुम यह मत सोचना कि तुमने हंस लिया तो तुम स्वामी से भिन्न हो कि देखो तुम तो हंसे। स्वामी ने कम से कम हिम्मत करके पूछा, तुमने पूछा नहीं—बस इतना ही फर्क है। हो तुम भी वही। यह अष्टावक्र की गीता पूरी हो जायेगी और अगर तुम परमात्मा न हो गये तो समझ लेना कि वहीं हो, कोई फर्क नहीं है। अगर इस सुनने—सुनने में तुम जाग जाओ और परमात्मा हो जाओ तो ही कोड़े की छाया ने काम किया।
सदा से खोजियो का यह अवलोकन रहा है कि परमात्म—उपलब्धि अत्यंत दुःसाध्य घटना है।’ खोजी शुरू से ही भ्रांति है। खोजी का अर्थ ही यह है कि वह मान लिया है कि परमात्मा को खोजना है, कि परमात्मा को खो दिया है। उसने एक बात तो मान ही ली कि खो दिया परमात्मा को। यह भी कोई बात हुई कि खो दिया परमात्मा को? परमात्मा को खो कैसे सकते हो?
मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं, परमात्मा को खोजना है! मैं कहता हूं ‘चलो ठीक! खोजो! लेकिन खोया कहां? कब खोया?’ वे कहते हैं, ‘इसका तो कुछ पता नहीं है।’ पहले इसका तो तुम ठीक से पता कर लो, कहीं ऐसा न हो कि खोया ही न हो!
कभी—कभी ऐसा हो जाता है कि चश्मा नाक पर चढ़ा है और उसी चश्मे से देख कर चश्मा खोज रहे हैं। कहीं ऐसा न हो कि परमात्मा नाक पर चढ़ा हो और तुम उसी परमात्मा से खोज रहे हो! ऐसा ही है। खोजी बुनियादी रूप से भ्रांत है। उसने एक बात तो मान ही ली कि परमात्मा खो दिया है; या परमात्मा को अब तक खोजा नहीं, पाया नहीं; वह कहीं दूर है, उसे खोजना है।
खोज से कभी परमात्मा नहीं मिलता। खोज—खोज कर तो इतना ही पता चलता है. खोजने में कुछ भी नहीं है। एक दिन खोजते—खोजते खोज ही गिर जाती है; खोज के गिरते ही परमात्मा मिलता है। बुद्ध ने छह वर्ष तक खोजा। खूब खोजा! उन से बड़ा खोजी और कहां खोजोगे? जहां—जहां खबर मिली कि कोई ज्ञान को उपलब्ध है, वहां—वहां गये। सभी चरणों में सिर रखा। जो गुरुओं ने कहा वही किया। गुरु भी थक गये उनसे। क्योंकि गुरु उन शिष्यों से कभी नहीं थकते जो आज्ञा का उल्लंघन करते हैं। उनसे कभी नहीं थकते! क्योंकि उनके पास सदा कहने को है कि तुम आज्ञा मान ही नहीं रहे, इसलिए कुछ नहीं घट रहा है, हम क्या करें? गुरु को बड़ी सुविधा है, अगर तुम गुरु की न मानो। वह सदा कह सकता है कि तुमने माना ही नहीं, मानते तो घट जाता। मगर बुद्ध के साथ गुरु मुश्किल में पड़ गये। जो गुरुओं ने कहा, बुद्ध ने वही किया। उन्होंने एक सेर कहा तो बुद्ध ने सवा सेर किया। गुरु ने आखिर उनसे हाथ जोड़ लिये कि तू भई कहीं और जा; जो हम बता सकते थे बता दिया। बुद्ध ने कहा, इससे तो कुछ घट नहीं रहा है। उन्होंने कहा, इससे ज्यादा हमें भी नहीं घटा है; तेरे से क्या छिपाना। तू कहीं और जा!
इतने प्रामाणिक व्यक्ति के सामने गुरु भी धोखा न दे पाए। सब तरफ खोज कर बुद्ध ने आखिर पाया कि नहीं, खोजने से मिलता ही नहीं। संसार तो व्यर्थ था ही, अध्यात्म भी व्यर्थ हुआ। भोग तो व्यर्थ हो ही चुका था, जिस दिन महल छोड़ा उस दिन व्यर्थ हो चुका था, इसलिए छोड़ा; योग भी व्यर्थ हुआ। न भोग में कुछ है, न योग में कुछ है—अब क्या करें? अब तो करने को ही कुछ न बचा। अब तो कर्ता होने के लिए कोई सुविधा न रही।
इस सूत्र को ठीक से समझना। न भोग बचा न योग बचा, न संसार बचा न स्वर्ग बचा—तो अब कर्ता होने के लिए जगह ही न बची। कुछ करने को बचे तो कर्ता बच सकता है। कुछ करने को न बचा। रात घटना। उस सांझ —वृक्ष कुछ न था।. हैरानी में पड़े। संसार छोड़ दिया था तो योग पकड़ लिया था। भोग छोड़ दिया था तो अध्यात्म पकड़ लिया था। कुछ तो करने को था! तो मन उलझा था। अब मन को कोई जगह न बची। मन का पक्षी तड़फड़ाने लगा : कोई जगह नहीं! मन के लिए जगह चाहिए। अहंकार के लिए कर्ता का रस चाहिए, कर्तव्य चाहिए। कुछ करने को हो तो अहंकार बचे। कुछ था ही नहीं करने को।
जरा थोड़ा सोचो! एक गहन उदासीनता, जिसको अष्टावक्र वैराग्य कहते हैं, वह उदय हुआ। योगी विरागी नहीं है, क्योंकि योगी नये भोग खोज रहा है। योगी आध्यात्मिक भोग खोज रहा है, विरागी नहीं है। अभी भोग की आकांक्षा है। संसार में नहीं मिला तो परमात्मा में खोज रहा है; लेकिन खोज जारी है। यहां नहीं मिला तो वहां खोज रहा है; बाहर नहीं मिला तो भीतर खोज रहा है—लेकिन खोज जारी है।
भोगी विरागी नहीं है, योगी भी विरागी नहीं है। यही, उनकी खोज राग की अलग—अलग है। एक बाहर की तरफ जाता है, एक भीतर की तरफ जाता है; लेकिन जाते दोनों हैं।
उस रात बुद्ध को जाने को कुछ न बचा– बाहर न भीतर। रात की तुम करो! उस रात को जरा जगाओ और सोचो कि कैसी वह रात रही होगी! उस दिन पहली दफा वि उपलब्ध हैं : जो चित्त में विश्राम को उपलब्ध हो जाये तो सत्य उपलब्ध हो जाता है। उस दिन विश्राम उपलब्ध हुआ।
जब तक कुछ करने को शेष है तब तक श्रम जारी रहता है। जब तक कुछ करने को शेष है, तनाव जारी रहता है। अब तनाव करके भी क्या करना? शरीर भी ढीला छट गया, मन भी ढीला छूट गया। वे उस वक्ष के नीचे पड़ गये और सो गये। सुबह जब उनकी आंख खुँली तो ऐसी खुल की जैसी सबकी खुलनी चाहिए। सुबह जब आंख खुली तो पहली दफा खुली। सदियो—सदियों बद, वह आंख खुली। सुबह जब आंख खुली भोर का आखिरी तारा डूबता था। उस भोर के आखिरी तारे को उन्होने डूबते हुए देखा। इधर बाहर भोर का आखिरी तारा डूब गया, भीतर भी की आखिरी रेखा विसर्जित हो गई। कुछ भी न था। भीतर कोई भी न बचा। सन्नाटा था, शून्य था, विराट शून्य था, आकाश था।
कहते हैं, बुद्ध सात दिन वैसे ही बैठे रहे—मूर्तिवत; हिले नहीं, डुले नहीं। कहते हैं, देवता घबड़ा गये। आकाश से देवता उतरे। ब्रह्मा उतरे। चरणों पड़े और कहा : आप कछ बोलें! ऐसी घटना सदियों में घटती है, बड़ी मुश्किल से घटती है। आप कुछ कहें, हम आतुर हैं सुँनने को कि क्या हुआ है! देवता बहुत नाराज हैं इस बात से कि बौद्ध कथाओं में ब्रह्मा को उतार कर, और बुद्ध के चरणों में गिरा दिया। लेकिन कथा बिलकुल ठीक है। क्योंकि देवता भला स्वर्ग में हों, आकांक्षा के बाहर थोड़े ही हैं! आज एक घटना घटी है कि एक व्यक्ति आकांक्षा के बाहर चला गया है।
तो बुद्ध के ऊपर कोई भी नहीं है। बुद्धत्व आखिरी बात है। देवता भी नीचे हैं; अभी उनकी भी स्वर्ग की, भोग की आकांक्षा है।
इसलिए तो कथाएं हैं कि इंद्र का आसन डोलने लगता है जब भी लगता है कि कोई प्रतियोगी आ रहा, कोई ऋषि—मुनि तपश्चर्या में गहरा उतर रहा है—इंद्र घबड़ाता; आसन कंपने लगता! यह तो आसन इंद्र का क्या हुआ, दिल्ली का हुआ! इंद्र का कहो कि भारत का कहो—एक ही बात है! इसमें कुछ बहुत फर्क न हुआ। यह तो कोई आने लगा! तो प्रतिस्पर्धा, घबड़ाहट, बेचैनी!
बुद्ध ना—कुछ करके उपलब्ध हुए। जो बुद्ध के जीवन में घटा; वही अष्टावक्र के जीवन में घटा होगा। कोई कथा हमारे पास नहीं है, किसी ने लिखी नहीं है। लेकिन निश्चित घटा होगा। क्योंकि अष्टावक्र जो कह रहे हैं, वह इतना ही कह रहे हैं कि तुम दौड़ चुके खूब, अब रुको! दौड़ कर नहीं मिलता परमात्मा, रुक कर मिलता है। खोज चुके खूब, अब खोज छोड़ो। खोज कर नहीं मिलता सत्य; क्योंकि सत्य खोजी में छिपा है, खोजने वाले में छिपा है। कहां भागते फिरते हो?
कस्तूरी कुंडल बसै! लेकिन जब कस्तूरी का नाफा फूटता है तो मृग पागल हो जाता है, कस्तूरी—मृग पागल हो जाता है। भागता है। इधर भागता, उधर भागता, खोजता है : ‘कहां से आती है यह गंध? कौन खींचे ले आता है इस सुवास को? कहां से आती है?’ क्योंकि उसने जब भी गंध आती देखी तो कहीं बाहर से आती देखी। कभी फूल की गंध थी, कभी कोई और गंध थी; लेकिन सदा बाहर से आती थी। आज जब गंध भीतर से आ रही है, तब भी वह सोचता है बाहर से ही आती होगी। भागता है। और कस्तुरी उसके ही कुंडल में बसी है। कस्तूरी कुंडल बसै!
परमात्मा तुम्हारे भीतर बसा है। तुम जब तक बाहर खोजते रहोगे—योग में, भोग में—व्यर्थ! साधारण योगी भोग के बाहर ले जाता है; अष्टावक्र योग और भोग दोनों के बाहर ले जाते हैं—योगातीत, भोगातीत! इसलिए तुम पाओगे : सांसारिक का अहंकार होता है। तुमने योगी का अहंकार देखा या नहीं? सांसारिक का क्रोध होता है; तुमने’ दुर्वासाओं का क्रोध देखा या नहीं? सांसारिक आदमी दंभ से अकड़ कर चलता है, पताकाएं ले कर चलता है; तुमने योगियों की पताकाएं, हाथी—घोड़े देखे या नहीं? साधारण आदमी घोषणा करता है. इतना धन है मेरे पास, इतना पद है मेरे पास! तुमने योगियों को देखा घोषणा करते या नहीं कि इतनी सिद्धि है, इतनी रिद्धि है! लेकिन ये सारी बातें वही की वही हैं; कोई फर्क नहीं हुआ.....
शैष आगे जारी.......
औम तत्सत.

Posted by Philippe Desmarais at 5:50 AM No comments:
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ध्यान रखना, मन पुनरुक्ति की वासना है
अष्टावक्र..
......
ध्यान रखना, मन पुनरुक्ति की वासना है। जो हुआ सुखद, फिर से हो; जो हुआ दुखद, फिर कभी न हो—यही तो मन है। मन चुनाव करता है. यह हो और यह न हो; ऐसा बार—बार हो और ऐसा अब कभी न हो। यही तो मन है।
जब तुम जीवन के साथ बहने लगते हो—जो हो ठीक, जो न हो ठीक; दुख आये तो स्वीकार; दुख आये तो विरोध नहीं, सुख आये तो स्वीकार; सुख आये तो उन्माद नहीं। जब सुख और दुख में कोई सम होने लगता है, समता आने लगती है, जब सुख और दुख धीरे—धीरे एक ही जैसे मालूम होने लगते हैं, क्योंकि कोई चुनाव न रहा, अपने हाथ की कोई बात न रही, जो होता है होता है; हम देखते रहते हैं—इसको अष्टावक्र कहते हैं साक्षी— भाव। और वे कहते हैं, साक्षी— भाव सधा तो सब सधा : साक्षी—भाव साक्षी को जगाता है भीतर, बाहर समता ले आता है। समत्व साक्षी— भाव की छाया है। या तुम समत्व में उपलब्ध हो जाओ तो साक्षी— भाव चला आता है। वे दोनों साथ—साथ चलते हैं। वे एक ही घटना के दो पैर या दो पंख हैं।
उसी आकाश में भ्रमण करने का जी होता रहता है।’
इससे सावधान होना। मन को मौका मत देना कि ध्यान की घड़ियों को खराब करे। इसी मन ने तो संसार खराब किया। इसी ने तो जीवन के सारे संबंध विकृत किये। इसी मन ने तो सारे जीवन को रेगिस्तान जैसा रूखा कर दिया; जहां बहुत फूल खिल सकते थे, वहां सिर्फ काटे हाथ में रह गये। अब इस मन को अंतर्यात्रा पर साथ मत लाओ। इसे नमस्कार करो। इसे विदा दो। प्रेम से सही, पर इसे विदा दो। इससे कहो : बहुत हो गया, अब हम न मांगेंगे। अब जो होगा, हम जागेंगे। हम देखेंगे। जैसे ही तुमने मांगा, फिर तुम साक्षी नहीं रह सकते, तुम भोक्ता हो गये। ध्यान के भी भोक्ता हो गये तो ध्यान गया। भोक्ता का अर्थ यह है कि तुमने कहा : इसमें मुझे रस आया, इससे मुझे सुख मिला।
ज्ञान, कर्म, भक्ति मैं नहीं जानता; लेकिन अकेला होने पर इसी स्थिति में डूबे रहने का जी होता है।’
छोड़ो इस जी को—और तुम डूबोगे इसी स्थिति में। अकेले ही नहीं, भीड़ में भी रहोगे, तो डूबोगे। बाजार में भी रहोगे तो भी डूबोगे। इस स्थिति का कोई संबंध अकेले और भीड़ से नहीं है, मंदिर और बाजार से नहीं है, ख्यात, समूह से नहीं है—इस स्थिति का संबंध तुम्हारे चित्त के शात होने से है, सम होने से है। जहां भी शाति, समता होगी, यह घटना घटेगी। लेकिन तुम इसको मांगों मत, अन्यथा यही अशांति बन जायेगी, यही तनाव बन जायेगी।
अष्टावक्र कहते. ‘अभी और यहीं!’
मांग तो सदा कल के लिए होती है। मांग तो ‘अभी और यहीं’ नहीं हो सकती। मांग का स्वभाव वर्तमान में नहीं ठहरता। मांग का अर्थ ही है : हो, कल हो, घड़ी भर बाद हो, क्षण भर बाद हो—हो। मांग अभी तो नहीं हो सकती, मांग के लिए तो समय चाहिए। थोड़ा ही सही, पर समय चाहिए। और भविष्य है नहीं। जो नहीं है उसी का नाम भविष्य है। जो है उसका नाम वर्तमान है। वर्तमान और मांग का कोई संबंध नहीं होता। जब तुम वर्तमान में होओगे तो पाओगे कोई मांग नहीं है। और तब घटेगी यह घटना। जब इसे घटाने का जी न रहेगा, तब यह खूब घटेगी।
इस पहेली को ठीक से समझ लो। इस पहेली का एक—एक कोना पहचान लो। जिस दिन तुम कुछ भी न मांगोगे, उस दिन सब घटेगा। जिस तुम परमात्मा के पीछे दीवाने हो कर न दौड़ोगे, वह तुम्हारे पीछे चला आयेगा। जिस दिन तुम ध्यान के लिए आतुरता न दिखाओगे, तुम्हारे भीतर कोई तनाव न होगा, उस दिन ध्यान ही ध्यान से भर जाओगे।
ध्यान कहीं बाहर से थोड़े ही जाता है। जब तुम तनाव में नहीं हो तो तुम्हारे भीतर शेष रह जाता, उसका नाम ध्यान है।
जब तुम्हारे भीतर वासना नहीं है तो जो शेष रह जाता, उसका नाम ध्यान है।
झील है। तरंगें उठ रही हैं। हवा के झकोरे! झील की पूरी छाती तूफान से भर गई है। आधी है। सब उथल—पुथल हो रही है। आकाश में चांद है पूरा, लेकिन प्रतिबिंब नहीं बनता; क्योंकि झील कंप रही है, दर्पण कैसे बने? चांद का प्रतिबिंब बनता है, टूट—टूट जाता है हजार—हजार टुकड़ों में; चांदी फैल जाती है पूरी झील पर, लेकिन चांद कर प्रतिबिंब नहीं बनता है। झील शात हो गई। लहरें कहीं चली गईं? लहरें कहीं से आई थीं? लहरें झील की थीं। फिर सो गईं; झील में वापस उतर गईं। झील अपनी थिर अवस्था में आ गई। वह जो चांदी की तरह फैल गया चांद था झील की छाती पर, सिकुड़ आया एक जगह, ठीक प्रतिबिंब बनने लगा।
जैसे ही तुम्हारे मन की झील पर तरंगें नहीं होतीं—तरंग यानी वासना, तरंग यानी मांग, तरंग यानी ऐसा हो और ऐसा न हो—जब कोई तरंग मन की झील पर नहीं होती तो सत्य जैसा है वैसा ही प्रतिबिंबित होता है। तो जो बनता है चांद तुम्हारे भीतर, उसके सौंदर्य का क्या कहना! उसके रस का क्या कहना! रसधार बरसती! मिलन होता! फिर सुहागरात ही सुहागरात है!
लेकिन तुमने मांगा कि चूक हो जायेगी।
और मैं समझता हूं मांग बिलकुल स्वाभाविक मालूम होती है। बड़ी अड़चन है। इतना सुख मिलता है ऐसी घड़ियों में कि कैसे बचें न मांगने से! मानवीय है। मैं यह नहीं कहता कि तुमने कुछ बड़ी अमानवीय भूल की। बिलकुल मानवीय भूल है। कभी जब क्षण भर को झरोखा खुल जाता है और आकाश बहता है तुममें, कभी क्षण भर को जब अंधेरा टूटता है और किरणें उतरती हैं तो असंभव है, करीब—करीब असंभव है कि इसे न मांगो।
लेकिन यह ‘असंभव’ सीखना पड़ेगा। आज सीखो, कल सीखो, परसों सीखो, मगर सीखना पड़ेगा। जितनी जल्दी सीखो उतना उचित। अभी तैयार हो जाओ तो अभी घटना घटने को देर नहीं है।
जरा भी क्षण भर की प्रतीक्षा करने की जरूरत नहीं है
इसी स्थिति में डूबे रहने का जी होता है।’
यह स्थिति घटेगी। इसका तुम्हारे चित्त से कुछ लेना—देना नहीं है। इसलिए तुम अपने चित्त को पीछे छोड़ो। वह जब बीच—बीच में आये तब उसे बार—बार कह दो कि क्षमा करो, बहुत हुआ, काफी हुआ! संसार खराब किया, अब परमात्मा तो खराब मत करो! जीवन के सारे सुख विकृत कर डाले; अब ये अंतरतम के सुख आ रहे हैं, इन्हें तो विकृत मत करो!
सजग रह कर मन को नमस्कार कर लो, विदा दे दो। धीरे—धीरे, धीरे—धीरे ऐसी घड़ियां आने लगेंगी—तुम्हारे अनुभव से ही आयेंगी—जब मन नहीं होगा, तत्क्षण फिर वही झरोखा खुलता है; फिर बहती रसधार; फिर उतरता प्रकाश, फिर तुम आलोकित; फिर तुम मगन, फिर तुम अमृत में डूबे! जब ऐसा बार—बार होगा तो बात साफ हो जायेगी; तो फिर मन से तुम अपने को दूर रखने में कुशल हो जाओगे।
जब घटे, तब घट जाने देना; जब न घटे तब शाति से प्रतीक्षा करते रहना—आयेगा। जो एक बार आया है, बार—बार आयेगा। तुम भर मत मांगना। तुम भर बीच में मत आना। तुम भर बाधा मत देना। ‘.? लेकिन कभी—कभी यह भाव भी उठता है कि कहीं यह मेरा पागलपन तो नहीं है!’
बुद्धि ऐसे भाव भी उठायेगी। क्योंकि बुद्धि यह मान ही नहीं सकती कि आनंद हो सकता है। बुद्धि दुख से बिलकुल राजी है। बुद्धि ने दुख को पूरी तरह स्वीकार किया है, क्योंकि बुद्धि दुख की जन्मदात्री है। अपनी ही संतान को कौन स्वीकार नहीं करेगा! तो बुद्धि मानती है : दुख है तो बिलकुल ठीक है। लेकिन महासुख! —जरूर कहीं कोई गड़बड़ हो गई है। ऐसा कहीं होता है? कोई कल्पना हो गई, कोई सपना देखा, किसी दिवा—स्वप्न में खो गये, किसी सम्मोहन में उतर गये? जरूर कहीं कुछ पागलपन हो गया है।
बुद्धि ऐसे बार—बार कहेगी। इसे सुनना मत। इस पर ध्यान मत देना। अगर इस पर ध्यान दिया तो वे घटनाएं बंद हो जायेंगी, वे द्वार—झरोखे फिर कभी न खुलेंगे।
एक बात खयाल में रखना : आनंद सत्य की परिभाषा है। जहां से आनंद मिले, वहीं सत्य है। इसलिए तो हमने परमात्मा को ‘सच्चिदानंद’ कहा है। आनंद उसकी आखिरी परिभाषा है। सत्य से भी ऊपर, चित से भी ऊपर, आनंद को रखा है, सच्चिदानंद’ कहा है। सत्य एक सीढ़ी नीचे, चित एक सीढ़ी नीचे—आनंद परम है।
जहां से आनंद बहे, जहां से आनंद मिले—फिर तुम चिंता मत करना, सत्य के करीब हो। जैसे कोई बगीचे के करीब आता है तो हवाएं ठंडी हो जाती हैं, पक्षियों के गीत सुनाई पड़ने लगते हैं, शीतलता अनुभव होने लगती है—तब बगीचा दिखाई भी न पड़े तो भी अनुभव में आने लगता है कि राह ठीक है, बगीचे की तरफ पहुंच रहे हैं। ऐसे ही, जैसे ही तुम सत्य की तरफ पहुंचने लगते हो, आनंद झरता है, शीतल होने लगता मन, संतुलन आने लगता, सहिष्णुता बढ़ती है, सुख बढ़ता है! एक उमंग घेरे रहती है—अकारण! कोई कारण भी दिखाई नहीं पड़ता। न कोई लाटरी मिली है। न कोई धंधे में बड़ा लाभ हुआ है। न कोई बड़ा पद मिला है। ऐसा भी हो सकता था : पद था, वह भी गया, हाथ में जो था वह भी खो गया; धंधा भी डूब गया—लेकिन अकारण एक उमंग है कि भीतर कोई नाचे जा रहा है, कि रुकता ही नहीं! तो बुद्धि कहेगी. कहीं पागल तो नहीं हो गये हो? ये तो पागलों के लक्षण हैं।
यही बड़ी अजीब दुनिया है. यहां सिर्फ पागल ही प्रसन्न दिखाई पड़ते हैं! इसलिए बुद्धि कहती है, पागल हो गये होओगे, क्योंकि यहां पागलों के सिवा किसी को प्रसन्न देखा है? यहां हजार कारण होते हैं, तब भी आदमी प्रसन्न नहीं होता। बड़ा महल हो, धन हो, संपत्ति हो, सुख—सुविधा हो, तब भी आदमी प्रसन्न नहीं होता। यह दुनिया दुखी लोगों की दुनिया है। मगर दुखी लोगों की भीड़ है। यहां अगर तुम हंसने लगो अकारण तो लोग कहेंगे पागल हो गये हो! अगर तुम कहो कि हंसी आ रही है, कोई कारण नहीं है, फैली जा रही है, भीतर से उठ रही है, लहर आ रही है—लोग कहेंगे, बस, दिमाग खराब हो गया! यहां तुम शक्ल बना कर चलो, उदास रहो, तुम्हारी शक्ल देख कर भूत—प्रेत भी डरें, तो बिलकुल ठीक हो; तो कोई अड़चन नहीं है; तो सब ठीक चल रहा है; तुम आदमी जैसे आदमी हो; जैसा आदमी होना चाहिए वैसे आदमी हो। लेकिन तुम मुस्कुराने लगो, तुम हंसने लगो, तुम गीत गुनगुनाने लगो, तुम राह के किनारे खड़े हो कर नाचने लगो—बस, तुम पागल हो गये! आनंद निष्कासित कर दिया गया है! हमने आनंद को जीवन के बाहर कर दिया है। हम दुख को छाती से लगा कर बैठे हैं। यहां दुखी आदमी बुद्धिमान मालूम होता है; यहां आनंदित आदमी पागल मालूम होता है। सारी सरणी उलटी है।
तो स्वाभाविक है। जीवन भर जिसको तुमने बुद्धिमानी समझा है, आज अचानक अगर खोने लगेगी, खिसकने लगेगी, अगर आज अचानक नींव उखड़ने लगेगी तुम्हारी तथाकथित बुद्धिमानी की, और अचानक झांकने लगेगी प्रसन्नता—’ अकारण’ खयाल रखना! पागलपन का मतलब यह होता है. अकारण प्रसन्न! कारण भी नहीं है कुछ। बैठे हैं अकेले और मुस्कुराहट आ रही है। बस, पागल हो गये! क्योंकि ऐसा तो हमने सिर्फ पागलों को ही देखा है।
ध्यान रखना. पागलों में और परमहंसों में थोड़ा—सा संबंध है। पागल भी हंसते हैं, प्रसन्न होते हैं, क्योंकि बुद्धि गंवा दी। परमहंस भी हंसते हैं, प्रसन्न होते हैं, क्योंकि बुद्धि के पार आ गये। दोनों—पागल बुद्धि से नीचे गिर जाता है, इसलिए हंस लेता है; परमहंस बुद्धि के पार चला जाता है, इसलिए हंसता है—दोनों में थोड़ी समानता है।
पागल और परमहंस में एक बात समान है कि दोनों ने बुद्धि गंवाई। एक ने होशपूर्वक गंवाई है, एक ने बेहोशी में गंवाई है—इसलिए फर्क बहुत है। जमीन— आसमान जितना फर्क है। लेकिन फिर भी एक समानता है। इसलिए कभी—कभी तुम्हें पागल में परमहंस दिखाई पड़ेगा और कभी—कभी परमहंस में पागल। तो भूल—चूक हो जाती है
इतना ही खयाल रखना : तुम्हारा आनंद हिंसात्मक न हो। बस यह पर्याप्त है। तुम्हारा आनंद तुम्हारा निजी हो। इसके कारण किसी के जीवन में कोई बाधा न पड़े, कोई पत्थर न पड़े। तुम्हारा फूल खिले, लेकिन तुम्हारे फूल के खिलने के कारण किसी को कांटे न चुभे। इतना ही भर खयाल रहे तो तुम ठीक दिशा में जा रहे हो।
जहां तुम्हें लगे कि अब दूसरों को बाधा होने लगी, वहां थोड़े सावधान होना! वहां परमहंस की तरफ न जा कर तुमने पागलपन का रास्ता पकड़ लिया।
सिद्धांत’ से किसी को कोई दुख नहीं है। बेझिझक, बेधड़क जा सकते हो। कल मैं एक गीत पढ़ रहा था :
जो कुछ सुंदर था, प्रेय, काम्य
जो अच्छा, मजा, नया था, सत्य—सार
मैं बीन—बीन कर लाया
नैवेद्य चढ़ाया
पर यह क्या हुआ?
सब पड़ा पड़ा कुम्हलाया
सूख गया, मुर्झाया
कुछ भी तो उसने हाथ बढ़ा कर नहीं लिया!
यूं कहीं तो था लिखा
पर मैंने जो दिया, जो पाया,
जो पिया, जो गिराया,
जो ढाला, जो छलकाया,
जो निथारा, जो छाना
जो उतारा, जो चढ़ाया,
जो जोड़ा, जो तोड़ा, जो छोड़ा
सबका जो कुछ हिसाब रहा,
मैंने देखा कि उसी यज्ञ—ज्वाला में गिर गया
और उसी क्षण मुझे लगा कि
अरे मैं तिर गया!
ठीक है, मेरा सिर फिर गया।
तिरता है आदमी—सिर के फिरने से।
परमात्मा को तुम चढ़ाओ चुन—चुन कर चीजें, अच्छी— अच्छी चीजें—उससे कुछ न होगा, जब तक कि सिर न चढ़े। सुनो फिर :
जो कुछ सुंदर था, प्रेय, काम्य
जो अच्छा, मजा, नया था, सत्य—सार
मैं बीन —बीन कर लाया नैवेद्य चढ़ाया
पर यह क्या हुआ?
सब पड़ा —पड़ा कुम्हलाया
सूख गया, मुर्झाया
कुछ भी तो उसने हाथ बढ़ा कर नहीं लिया।
तुम ले आओ सुंदरतम को खोज कर, बहुमूल्य को खोज कर, चढ़ाओ कोहिनूर—कुम्हलायेंगे! तोड़ो फूल कमल के, गुलाब के, चढाओ—कुम्हलायेगे! एक ही चीज वहां स्वीकार है—वह तुम्हारा सिर; वह तुम्हारा अहंकार; वह तुम्हारी बुद्धि; वह तुम्हारा मन। अलग— अलग नाम हैं; बात एक ही है। वहां चढ़ाओ अपने को।
और उसी क्षण मुझे लगा कि
अरे मैं तिर गया
ठीक है, मेरा सिर फिर गया!
लोग तो यही कहेंगे, सिद्धांत, कि सिर फिर गया! कहने दो लोगों को। लोगों के कहने से कोई चिंता नहीं है। जब लोग तुमसे कहते हैं, सिर फिर गया तो वे इतना ही कर रहे हैं कि अपने सिर की रक्षा कर रहे हैं, और कुछ नही। जब लोग तुमसे कहते हैं तुम्हारा सिर फिर गया, तो वे यह कह रहे हैं कि ‘बचाओ हमें, इधर इस तरफ मत आओ! हमें मत सुनाओ ये गीत! मत यह हंसी हमारे द्वार लाओ! मत दिखाओ हमें ये आंखें मदमस्त! ये खबरें मत कहो हमसे!’ घबड़ाहट है उनकी! भीतर उनके भी यही राग है। भीतर उनके भी ऐसी ही वीणा पड़ी है, जो प्रतीक्षा करती है जन्मों—जन्मों से कि कोई छेड़ दे! मगर डर है, घबड़ाहट है। बहुत कुछ उन्होंने झूठे जगत में बनाया है, बसाया है—कहीं उखड़ न जाये.
शैष कल...
औम तत्सत.

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यह सूत्र अत्यंत बहुमूल्य है
अष्टावक्र उवाच।
एको द्रष्टाsसि सर्वस्य मुक्तप्रायोऽसि सर्वदा।
अयमेव हि ते बंधो द्रष्टारं यश्यसीतरम्।।7।।
अहं कतेत्यहंमानमहाकृष्णहि दंशित।
नाहं कत्तेंति विश्वासामृत पीत्वा सुखी भव।। 8।।
एको विशुद्धबोधोउहमिति निश्चवह्रिना।
प्रज्वाल्याज्ञानगहनं वीतशोक: सुखी भव।। 9।।
यत्र विश्वमिदं भाति कल्पित रज्जुसर्यवत्!
आनंदपरमानद स बोधक्ल सुखं चर।। 10।।
मुक्ताभिमानी मुक्तो हि बद्धो बद्धाभिमान्ययि।
किंवदतीह सत्येयं या मति: स गतिर्भवेत।। 11।।
आत्मा साक्षी विभु: पूर्ण एको मुक्तश्चिद क्रिय:।
असंगो निस्पृह: शांतो भ्रमात संसारवानिव!! 12।।
कूटस्थं बोधमद्वैतमात्मान परिभावय।
आभासोsहं भ्रमं मुक्त्वा भावं बाह्यमथांतरम्।।13।।
पहला सूत्र:
अष्टावक्र ने कहा, तू सबका एक द्रष्टा है और सदा सचमुच मुक्त है। तेरा बंधन तो यही है कि तू अपने को छोड़ दूसरे को द्रष्टा देखता है।’
यह सूत्र अत्यंत बहुमूल्य है। एक—एक शब्द इसका ठीक से समझें!
तू सबका एक द्रष्टा है। एको द्रष्टाऽसि सर्वस्व! और सदा सचमुच मुक्त है।’
साधारणत: हमें अपने जीवन का बोध दूसरों की आंखों से मिलता है। हम दूसरों की आंखों का दर्पण की तरह उपयोग करते हैं। इसलिए हम द्रष्टा को भूल जाते हैं, और दृश्य बन जाते है। स्वाभाविक भी है।
छोटा बच्चा पैदा हुआ। उसे अभी अपना कोई पता नहीं। वह दूसरों की आंखों में झांककर ही देखेगा कि मैं कौन हूं।
अपना चेहरा तो दिखायी पडता नहीं, दर्पण खोजना होगा। जब तुम दर्पण में अपने को देखते हो तो तुम दृश्य हो गये, द्रष्टा न रहे। तुम्हारी अपने से पहचान ही कितनी है? उतनी जितना दर्पण ने कहा।
मां कहती है बेटा सुंदर है, तो बेटा अपने को सुंदर मानता है। शिक्षक कहते हैं स्कूल में, बुद्धिमान हो, तो व्यक्ति अपने को बुद्धिमान मानता है। कोई अपमान कर देता है, कोई निंदा कर देता है, तो निंदा का स्वर भीतर समा जाता है। इसलिए तो हमें अपना बोध बड़ा भ्रामक मालूम होता है, क्योंकि अनेक स्वरों से मिलकर बना है; विरोधी स्वरों से मिलकर बना है। किसी ने कहा सुंदर हो, और किसी ने कहा, ‘तुम, और सुंदर! शक्ल तो देखो आईने में!’ दोनों स्वर भीतर चले गये, द्वंद्व पैदा हो गया। किसी ने कहा, बड़े बुद्धिमान हो, और किसी ने कहा, तुम जैसा बुद्ध आदमी नहीं देखा—दोनों स्वर भीतर चले गये, दोनों भीतर जुड़ गये। बड़ी बेचैनी पैदा हो गयी, बड़ा द्वंद्व पैदा हो गया।
इसीलिए तो तुम निश्चित नहीं हो कि तुम कौन हो। इतनी भीड़ तुमने इकट्ठी कर ली है मतों की! इतने दर्पणों में झांका है, और सभी दर्पणों ने अलग—अलग खबर दी! दर्पण तुम्हारे संबंध में थोड़े ही खबर देते हैं, दर्पण अपने संबंध में खबर देते हैं।
तुमने दर्पण देखे होंगे, जिनमें तुम लंबे हो जाते हो; दर्पण देखे होंगे, जिनमें तुम मोटे हो जाते। दर्पण देखे होंगे, जिनमें तुम अति सुंदर दिखने लगते। दर्पण देखे होंगे, जिनमें तुम अति कुरूप हो जाते, अष्टावक्र हो जाते।
दर्पण में जो झलक मिलती है वह तुम्हारी नहीं है, दर्पण के अपने स्वभाव की है। विरोधी बातें इकट्ठी होती चली जाती हैं। इन्हीं विरोधी बातों के संग्रह का नाम तुम समझ लेते हो, मैं हूं! इसलिए तुम सदा कंपते रहते हो, डरते रहते हो।
लोकमत का कितना भय होता है! कहीं लोग बुरा न सोचें। कहीं लोग ऐसा न समझ लें कि मैं मूढ़ हूं! कहीं ऐसा न समझ लें कि मैं असाधु हूं! लोग कहीं ऐसा न समझ लें; क्योंकि लोगों के द्वारा ही हमने अपनी आत्मा निर्मित की है।
गुरजिएफ अपने शिष्यों से कहता था. अगर तुम्हें आत्मा को जानना हो तो तुम्हें लोगों को छोड़ना होगा। ठीक कहता था। सदियों से यही सदगुरुओं ने कहा है। अगर तुम्हें स्वयं को पहचानना हो तो तुम्हें दूसरों की आंखों में देखना बंद कर देना होगा।
मेरे देखे, बहुत—से खोजी, सत्य के अन्वेषक समाज को छोड़ कर चले गये—उसका कारण यह नहीं था कि समाज में रह कर सत्य को पाना असंभव है, उसका कारण इतना ही था कि समाज में रह कर स्वयं की ठीक—ठीक छवि जाननी बहुत कठिन है। यहां लोग खबर दिये ही चले जाते हैं कि तुम कौन हो। तुम पूछो न पूछो, सब तरफ से झलकें आती ही रहती हैं कि तुम कौन हो। और हम धीरे—धीरे इन्हीं झलकों के लिए जीने लगते हैं।
मैंने सुना, एक राजनेता मरा। उसकी पत्नी दो वर्ष पहले मर गयी थी। जैसे ही राजनेता मरा, उसकी पत्नी ने उस दूसरे लोक के द्वार पर उसका स्वागत किया। लेकिन राजनेता ने कहा. अभी मैं भीतर न आऊंगा। जरा मुझे मेरी अर्थी के साथ राजघाट तक हो आने दो।
पत्नी ने कहा अब क्या सार है? वहां तो देह पड़ी रह गयी, मिट्टी है।
उसने कहा मिट्टी नहीं; इतना तो देख लेने दो, कितने लोग विदा करने आये!
राजनेता और उसकी पत्नी भी अर्थी के साथ—साथ—किसी को तो दिखाई न पड़ते थे, पर उनको अर्थी दिखाई पड़ती थी—चले.। बड़ी भीड़ थी! अखबारनवीस थे, फोटोग्राफर थे। झंडे झुकाए गये थे। फूल सजाये गये थे। मिलिट्री के ट्रक पर अर्थी रखी थी। बड़ा सम्मान दिया जा रहा था। तोपें आगे—पीछे थीं। सैनिक चल रहे थे। गदगद हो उठा राजनेता।
पत्नी ने कहा, इतने प्रसन्न क्या हो रहे हो?
उसने कहा, अगर मुझे पता होता कि मरने पर इतनी भीड़ आयेगी तो मैं पहले कभी का मर गया होता। तो हम पहले ही न मर गये होते, इतने दिन क्यों राह देखते! इतनी भीड़ मरने पर आये इसी के लिए तो जीये!
भीड़ के लिए लोग जीते हैं, भीड़ के लिए लोग मरते हैं।
दूसरे क्या कहते हैं, यह इतना मूल्यवान हो गया है कि तुम पूछते ही नहीं कि तुम कौन हो। दूसरे क्या कहते हैं, उन्हीं की कतरन छांट—छांटकर इकट्ठी अपनी तस्वीर बना लेते हो। वह तस्वीर बड़ी डांवांडोल रहती है, क्योंकि लोगों के मन बदलते रहते हैं। और फिर लोगों के मन ही नहीं बदलते रहते, लोगों के कारण भी बदलते रहते हैं।
कोई आकर तुमसे कह गया कि आप बड़े साधु—पुरुष हैं, उसका कुछ कारण है—खुशामद कर गया। साधु—पुरुष तुम्हें मानता कौन है! अपने को छोड्कर इस संसार में कोई किसी को साधु—पुरुष नहीं मानता।
तुम अपनी ही सोचो न! तुम अपने को छोड्कर किसको साधु —पुरुष मानते हो? कभी—कभी कहना पडता है। जरूरतें हैं, जिंदगी है, अड़चनें हैं—झूठे को सच्चा कहना पडता है; दुर्जन को सज्जन कहना पडता है, कुरूप को सुंदर की तरह प्रशंसा करनी पड़ती है, स्तुति करनी पड़ती है, खुशामद करनी पड़ती है। खुशामद इसीलिए तो इतनी बहुमूल्य है।
खुशामद के चक्कर में लोग क्यों आ जाते हैं? मूढ़ से मूढ़ आदमी से भी कहो कि तुम महाबुद्धिमान हो तो वह भी इनकार नहीं करता र क्योंकि उसको अपना तो कुछ पता नहीं है, तुम जो कहते हो वही सुनता है, तुम जो कहते हो वही हो जाता है।
तो उनके कारण बदल जाते हैं। कोई कहता है, सुंदर हो; कोई कहता है, असुंदर हो; कोई कहता है, भले हो, कोई कहता है, बुरे हो—यह सब इकट्ठा होता चला जाता है। और इन विपरीत मतों के आधार पर तुम अपनी आत्मा का निर्माण कर लेते हो। तुम ऐसी बैलगाड़ी पर सवार हो जिसमें सब तरफ बैल जुते हैं, जो सब दिशाओं में एक साथ जा रही है तुम्हारे अस्थिपंजर ढीले हुए जा रहे हैं। तुम सिर्फ घसिटते हो, कहीं पहुंचते नहीं—पहुंच सकते नहीं!
पहला सूत्र है ‘तू सबका एक द्रष्टा है। और तू सदा सचमुच मुक्त है।’
व्यक्ति दृश्य नहीं है, द्रष्टा है।
दुनियां में तीन तरह के व्यक्ति हैं, वे, जो दृश्य बन गये—वे सबसे ज्यादा अंधेरे में हैं, दूसरे वे, जो दर्शक बन गये—वे पहले से थोड़े ठीक हैं, लेकिन कुछ बहुत ज्यादा अंतर नहीं है; तीसरे वे, जो द्रष्टा बन गए। तीनों को अलग—अलग समझ लेना जरूरी है।
जब तुम दृश्य बन जाते हो तो तुम वस्तु हो गये, तुमने आत्मा खो दी। इसलिए राजनेता में आत्मा को पाना मुश्किल है; अभिनेता में आत्मा को पाना मुश्किल है। वह दृश्य बन गया है। वह दृश्य बनने के लिए ही जीता है। उसकी सारी कोशिश यह है कि मैं लोगों को भला कैसे लग र सुंदर कैसे लगू श्रेष्ठ कैसे लग? श्रेष्ठ होने की चेष्टा नहीं है, श्रेष्ठ लगने की चेष्टा है। कैसे श्रेष्ठ दिखायी पडू.
तो जो दृश्य बन रहा है, वह पाखंडी हो जाता है। वह ऊपर से मुखौटे ओढ़ लेता है, ऊपर से सब आयोजन कर लेता है— भीतर सड़ता जाता है।
फिर दूसरे वे लोग हैं, जो दर्शक बन गए। उनकी बड़ी भीड़ है। स्वभावत: पहले तरह के लोगों के लिए दूसरे तरह के लोगों की जरूरत है; नहीं तो दृश्य बनेंगे लोग कैसे? कोई राजनेता बन जाता है, फिर ताली बजाने वाली भीड़ मिल जाती है। तो दोनों में बड़ा मेल बैठ जाता है। नेता हो तो अनुयायी भी चाहिए। कोई नाच रहा हो तो दर्शक भी चाहिए। कोई गीत गा रहा हो तो सुनने वाले भी चाहिए। तो कोई दृश्य बनने में लगा है, कुछ दर्शक बनकर रह गये हैं। दर्शकों की बड़ी भीड़ है
अष्टावक्र कहते हैं मनुष्य का स्वभाव द्रष्टा का है। न तो दृश्य बनना है और न दर्शक।
अब कभी तुम यह भूल मत कर लेना.। कई बार मैंने देखा है, कुछ लोग यह भूल कर लेते हैं, वे समझते हैं दर्शक हो गए तो द्रष्टा हो गये। इन दोनों शब्दों में बड़ा बुनियादी फर्क है। भाषा—कोश में शायद फर्क न हो—वहां दर्शक और द्रष्टा का एक ही अर्थ होगा, लेकिन जीवन के कोश में बड़ा फर्क है।
दर्शक का अर्थ है दृष्टि दूसरे पर है। और द्रष्टा का अर्थ है : दृष्टि अपने पर है। दृष्टि देखने वाले पर है, तो द्रष्टा। और दृष्टि दृश्य पर है, तो दर्शक। बडा क्रांतिकारी भेद है, बड़ा बुनियादी भेद है! जब तुम्हारी नजर दृश्य पर अटक जाती है और तुम अपने को भूल जाते हो तो दर्शक। जब तुम्हारी दृष्टि से सब दृश्य विदा हो जाते हैं, तुम ही तुम रह जाते हो, जागरण—मात्र रह जाता है, होश—मात्र रह जाता है—तो द्रष्टा।
तो दर्शक तो तुम तब हो जब तुम बिलकुल विस्मृत हो गए; तुम अपने को भूल ही गए; नजर लग गयी वहां। सिनेमा—हाल में बैठे हो. तीन घंटे के लिए अपने को भूल जाते हो, याद ही नहीं रहती कि तुम कौन हो। दुख—सुख, चिंताएं सब भूल जाती हैं। इसीलिए तो भीड़ वहां पहुंचती है। जिंदगी में बड़ा दुख है, चिंता है, परेशानी है—कहीं चाहिए भूलने का उपाय! लोग बिलकुल एकाग्र चित्त हो जातै हैं। बस ध्यान उनका लगता ही फिल्म में है। वहां देखते हैं पर्दे पर कुछ भी नहीं है, छायाएं डोल रही हैं, मगर लोग बिलकुल एकाग्र चित्त हैं। बीमारी भूल जाती, चिंता भूल जाती, बुढ़ापा भूल जाता, मौत भी आती हो तो भूल जाती है——लेकिन द्रष्टा नहीं हो गए हो तुम फिल्म में बैठकर, दर्शक हो गए; भूल ही गए अपने को; स्मरण ही न रहा कि मैं कौन हूं। यह जो देखने की ऊर्जा है भीतर इसकी तो स्मृति ही खो गयी, बस सामने दृश्य है, उसी पर अटक गए, उसी में सब भांति डूब गए।
दर्शक होना एक तरह का आत्म—विस्मरण है। और द्रष्टा होने का अर्थ है. सब दृश्य विदा हो गए, पर्दा खाली हो गया; अब कोई फिल्म नहीं चलती वहां; न कोई विचार रहे, न कोई शब्द रहे, पर्दा बिलकुल शून्य हो गया—कोरा और शुभ्र, सफेद! देखने को कुछ भी न बचा, सिर्फ देखने वाला बचा। और अब देखने वाले में डुबकी लगी, तो द्रष्टा!
दृश्य और दर्शक, मनुष्यता इनमें बंटी है। कभी—कभी कोई द्रष्टा होता है—कोई अष्टावक्र, कोई कृष्ण, कोई महावीर, कोई बुद्ध। कभी—कभी कोई जागता और द्रष्टा होता है। तू सबका एक द्रष्टा है।
और इस सूत्र की खूबियां ये हैं कि जैसे ही तुम द्रष्टा हुए, तुम्हें पता चलता है द्रष्टा तो एक ही है संसार में, बहुत नहीं हैं। दृश्य बहुत हैं, दर्शक बहुत हैं। अनेकता का अस्तित्व ही दृश्य और दर्शक के बीच है। वह झूठ का जाल है। द्रष्टा तो एक ही है।
ऐसा समझो कि चांद निकला, पूर्णिमा का चांद निकला। नदी—पोखर में, तालाब—सरोवर में, सागर में, सरिताओं में, सब जगह प्रतिबिंब बने। अगर तुम पृथ्वी पर घूमों और सारे प्रतिबिंबों का अंकन करो तो करोड़ों, अरबों, खरबों प्रतिबिंब मिलेंगे—लेकिन चांद एक है, प्रतिबिंब अनेक हैं। द्रष्टा एक है; दृश्य अनेक हैं, दर्शक अनेक हैं। वे सिर्फ प्रतिबिंब हैं, वे छायाएं हैं।
तो जैसे ही कोई व्यक्ति दृश्य और दर्शक से मुक्त होता है—न तो दिखाने की इच्छा रही कि कोई देखे, न देखने की इच्छा रही; देखने और दिखाने का जाल छूटा; वह रस न रहा—तो वैराग्य। अब कोई इच्छा नहीं होती कि कोई देखे और कहे कि सुंदर हो, सज्जन हो, संत हूो, साधु हो। अगर इतनी भी इच्छा भीतर रह गयी कि लोग तुम्हें साधु समझें तो अभी तुम पुराने जाल में पड़े हो। अगर इतनी भी आकांक्षा रह गयी मन में कि लोग तुम्हें संत पुरुष समझें तो तुम अभी पुराने जाल में पड़े हो; अभी संसार नहीं छूटा। संसार ने नया रूप लिया, नया ढंग पकड़ा, लेकिन यात्रा पुरानी ही जारी है, सातत्य पुराना ही जारी है।
क्या करोगे देखकर? खूब देखा, क्या पाया? क्या करोगे दिखाकर? कौन है यहां, जिसको दिखाकर कुछ मिलेगा?
इन दोनों से पार हट कर, द्वंद्व से हट कर जो द्रष्टा में डूबता है, तो पाता है कि एक ही है। यह पूर्णिमा का चांद तो एक ही है। यह सरोवरों, पोखरों, तालाबों, सागरों में अलग—अलग दिखायी पड़ता था; अलग—अलग दर्पण थे, इसलिए दिखायी पड़ता था
शैष कल.
शुभ रात्री मित्रौं.
औम तत्सत.

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अष्टावक्र
अष्टावक्र उवाच।
देहाभिमानपाशेन चिरं बद्धोsसि पत्रक ।
बोधोsहं ज्ञानखंगेन तन्निष्कृत्य सुखी भव ।।14।।
नि:संगो निष्क्रियोउसि त्वं स्वप्रकाशो निरंजन:?
अयमेव हि ले बंध: समाधिमनुतिष्ठसि ।।15।।
त्वया व्याप्तमिदं विश्व त्वयि प्रोतं यथार्थत: ।
शुद्धबुद्ध स्वरूपस्त्वं मागम: क्षुद्रचित्तताम् ।।16।।
निरपेक्षो निर्विकारो निर्भर: शीतलाशय:।
अगाध बुद्धिरक्षुब्धो भव चिन्यात्रवासन: ।।17।।
साकारमनृतं विद्धि निराकारं तु निश्चलम् ।
एतत्तत्वोपदेशेन न पुनर्भवसंभव ।।18।।
यथैवादर्शमध्यस्थे रूपेन्त: परितस्तम: ।
यथैवास्थिन् शरीरेsन्तः परित परमेश्वर: ।।19।।
एकं सर्वगतं व्योम बहिरंतर्यथा घटे ।
नित्यं निरंतरं ब्रह्म सर्व भूतगणे तथा ।।20।।
पहला सूत्र
अष्टावक्र ने कहा, ‘हे पुत्र! तू बहुत काल से देहाभिमान के पाश में बंधा हुआ है। उस पाश को मैं बोध हूं, इस ज्ञान की तलवार से काट कर तू सुखी हो!’
अष्टावक्र की दृष्टि में—और वही शुद्धतम दृष्टि है, आत्यंतिक दृष्टि है—बंधन केवल मान्यता का है। बंधन वास्तविक नहीं है।
यह पहला सूत्र कहता है : हे पुत्र! तू बहुत काल से देहाभिमान के पाश में बंधा हुआ, उस पाश को ही अपना अस्तित्व मानने लगा है।
मैं देह हूं! मैं देह हूं!! मैं देह हूं!!! —ऐसा जन्मों—जन्मों तक दोहराया है; दोहराने के कारण हम देह हो गये हैं। देह हम हैं नहीं; यह हमारा अभ्यास है। यह हमारा अभ्यास है, यह हमारा आत्म— सम्मोहन है। हमने इतनी प्रगाढ़ता से माना है कि हम हो गये हैं।
अष्टावक्र कह रहे हैं : हम देह नहीं हैं; हमने माना तो हम देह हो गये हैं। हमने जो मान लिया, हम वही हो गये हैं। संसार हमारी मान्यता है। और मान्यता छोड़ दी तो हम तत्सण रूपांतरित हो सकते हैं। छोड़ने के लिए किसी यथार्थ को बदलना नहीं है; सिर्फ एक धारणा को छोड़ देना है। हम वस्तुत: अगर शरीर होते बदलाहट बड़ी मुश्किल थी। हम वस्तुत: शरीर नहीं हैं। हम वस्तुत: तो शरीर के भीतर छिपा जो चैतन्य है, वही हैं—वह साक्षी, द्रष्टा है।
देहाभिमानपाशेन चिरं बद्धोउसि पुत्रक।
बोधोउहं ज्ञानखंगेन तन्निबष्कृत्य सुखी भव ।।
उठा बोध की तलवार! ‘बोध—रूप हूं—उठा ऐसे भाव की तलवार और काट डाल इस धारणा को कि मैं देह हूं। फिर सुखी है।
सारे दुःख देह के है। जन्म है, बीमारी है, बुढ़ापा है, मृत्यु है—सभी देह के हैं। देह के साथ तादात्म है तो देह की सारी पीड़ाओं के साथ भी तादात्म्य है। जब देह जराजीर्ण होती है तो हम सोचते हैं, मैं जराजीर्ण हो गया। जब देह बीमार होती है तो हम सोचते हैं, मैं बीमार हो गया। जब देह मरण के निकट पहुंचती है तो हम घबड़ाते हैं कि मैं मरा। मान्यता—सिर्फ मान्यता!
कभी—कभी, कभी—कभी क्या, अक्सर हम ऐसे ही जीते हैं—मान लेते हैं, फिर मान कर चलने लगते हैं। मान कर चलने लगते हैं तो जीवन में वास्तविक परिणाम होने लगते हैं, मान्यता चाहे झूठी हो। बेटे वहां थे नहीं, लेकिन टांग असली टूट गई। झूठ का भी परिणाम सच हो सकता है। अगर झूठ भी प्रगाढ़ता से मान लिया जाये तो उसके परिणाम यथार्थ में घटित होने लगते हैं।.
मैं शरीर हूं, यह जन्मों—जन्मों से मानी हुई बात है; मान ली तो हम शरीर हो गये। मान ली तो हम क्षुद्र हो गये। मान ली तो हम सीमित हो गये।
अष्टावक्र का मौलिक आधार यही है कि यह आत्म—सम्मोहन है, आटो—हिप्नोसिस है। तुम शरीर हो नहीं गये हो, तुम शरीर हो नहीं सकते हो। इसका कोई उपाय ही नहीं है। जो तुम नहीं हो, वह कैसे हो सकते हो? जो तुम हो, तुम अभी भी वही हो। सिर्फ झूठी मान्यता को काट डालना है।
उस पाश को, मैं बोध हूं, इस ज्ञान की तलवार से काटकर तू अभी सुखी हो जा।’
ज्ञानखंगेन तत् निष्कृत्य त्वं सुखी भव!
अभी सुख को जगा ले, क्योंकि सारे दुख हमारे उस मान्यता के पिछलग्गू हैं कि हम देह हैं। बुद्ध भी मरते हैं, लेकिन मृत्यु की कोई पीड़ा नहीं है। रामकृष्ण भी मरते हैं, लेकिन मृत्यु की कोई पीड़ा नहीं है। रमण भी मरते हैं, लेकिन मृत्यु की कोई पीड़ा नहीं है।
रमण जब मरे तो उन्हें कैंसर था। चिकित्सक बहुत चकित थे। बड़ी कठिन बीमारी थी। बड़ी पीड़ादायी बीमारी थी। लेकिन रमण वैसे ही थे जैसे थे, जैसे बीमारी ने कोई भेद ही नहीं लाया, कहीं कोई अंतर ही नहीं पड़ा। चिकित्सक परेशान थे कि यह असंभव है। यह हो कैसे सकता है! मौत द्वार पर खड़ी है और आदमी अविचलित है। चिकित्सकों की बेचैनी हम समझ सकते हैं। इतनी पीड़ा हो रही है और आदमी अविचलित है, निस्तरंग है! उनकी बेचैनी, उनका तर्क हम समझ सकते हैं; क्योंकि शरीर ही हमारे लिए सब कुछ मालूम होता है। जिसको पता चल गया कि मैं शरीर नहीं हूं. मौत आ रही है लेकिन शरीर को आ रही है। और पीड़ा हो रही है, वह भी शरीर में हो रही है। एक नये चैतन्य का सिद्धातं का आविर्भाव हुआ है जो दूर खड़े होकर देख रहा है। और दूरी शरीर की और चेतना की इतनी है जैसे जमीन और आसमान की दूरी। इससे बड़ी कोई दूरी नहीं है। तुम्हारे भीतर दुनियां में अस्तित्व की सबसे दूर की चीजें मिल रही हैं। तुम क्षितिज हो, जहां जमीन और आसमान मिल रहे हैं।
जायते अस्ति वर्द्धते, विपरिणमते, अपक्षीयते, विनश्यति।
जो उत्पन्न होता है, स्थित है, बढ़ता है, बदलता है, क्षीण होता है और नाश हो जाता है, वह तू नहीं है।’
जो इन सबको देखता है. बचपन देखा तुमने; फिर बचपन को जाते भी देखा! अगर तुम बचपन ही होते तो आज याद भी कौन करता कि बचपन था? तुम बचपन के साथ ही चले गये होते। जवानी देखी। जवानी आते देखी, जाते देखी। अगर तुम जवानी ही होते तो आज कौन याद करता? तुम जवानी के साथ ही चले गये होते। तुमने जवानी आते देखी, जाते देखी—स्वभावत: तुम जवानी से भिन्न हो। इतनी सीधी—सी बात है, इतनी साफ—सुथरी बात है! तुमने पीड़ा देखी, दर्द उठते देखा, दर्द के बादल घिरते देखे अपने चारों तरफ—फिर पीड़ा को जाते भी देखा; दर्द को विसर्जित होते देखा। तुमने दुख देखा, सुख देखा। कांटा चुभा—पीड़ा देखी। कांटा निकला—निष्पीड़ा हुए, वह भी देखा। तुम देखने वाले हो। तुम पार खड़े हो। तुम अछूते हो। कोई भी घटना तुम्हें छू नहीं पाती। तुम जल में कमलवत हो।
‘तू असंग है, क्रियाशून्य है, स्वयं—प्रकाश है और निर्दोष है। तेरा बंधन यही है कि तू समाधि का अनुष्ठान करता है।’
यह अदभुत क्रांतिकारी वचन है। ऐसा क्रांतिकारी वचन दुनियां के किसी शास्त्र में खोजना असंभव है। इसका पूरा अर्थ समझोगे तो गहन अहोभाव पैदा होगा।
पतंजलि ने कहा है, चित्त—वृत्ति का निरोध योग है। यह योग की मान्य धारणा है कि जब तक चित्त—वृत्तियों का निरोध न हो जाये तब तक व्यक्ति स्वयं को नहीं जान पाता। जब चित्त की सारी वृत्तियां शांत हो जाती हैं तो व्यक्ति अपने को जान पाता है।
अष्टावक्र पतंजलि के सूत्र के विरोध में कह रहे हैं।
अष्टावक्र कह रहे हैं, ‘तू असंग है, क्रिया—शून्य है, स्वयं—प्रकाश है और निर्दोष है। तेरा बंधन यही है कि तू समाधि का अनुष्ठान करता है।’
समाधि का अनुष्ठान हो ही नहीं सकता। समाधि का आयोजन हो ही नहीं सकता, क्योंकि समाधि तेरा स्वभाव है। चित्त—वृति तो जड़ स्थितियां हैं। चित्त—वृत्तियों का निरोध तो ऐसे ही है जैसे किसी आदमी के घर में अंधेरा भरा हो, वह अंधेरे से लड़ने लगे।
इसे थोड़ा समझना! ले आये तलवारें, भाले, लट्ठ और लड़ने लगे अंधेरे से; बुला लिया जवानों को, मजबूत आदमियों को, धक्के देने लगे अंधेरे कों—क्या वह जीतेगा कभी? यद्यपि यह परिभाषा सही है कि अंधेरे का न हो जाना प्रकाश है। लेकिन इस परिभाषा में थोड़ा समझ लेना, अंधेरे का न हो जाना प्रकाश है यह सच है, चित्त—वृत्तियों का शून्य हो जाना योग है यह सच है, लेकिन बात को उलटी तरफ से मत पकड़ लेना। अंधेरे का न हो जाना प्रकाश है, इसलिए अंधेरे को न करने में मत लग जाना। वस्तुत: स्थिति दूसरी तरफ से है। प्रकाश का हो जाना अंधेरे का न हो जाना है। तुम प्रकाश जला लेना, अंधेरा अपने—आप चला जायेगा। अंधेरा है ही नहीं। अंधेरा केवल अभाव है।
पतंजलि कहते हैं, चित्त—वृत्तियों को शांत करो तो तुम आत्मा को जान लोगे। अष्टावक्र कहते हैं, आत्मा को जान लो, चित्त—वृत्तियां शांत हो जायेंगी। आत्मा को जाने बिना तुम चित्त—वृत्तियों को शांत कर भी न सकोगे। आत्मा को न जानने के कारण ही तो चित्त—वृत्तियां उठ रही हैं। समझा अपने को कि मैं शरीर हूं तो शरीर की वासनाएं उठती हैं। समझा अपने को कि मैं मन हूं तो मन की वासनाएं उठती हैं। जिसके साथ तुम जुड़ जाते हो उसी की वासनाएँ तुममें प्रतिछायित होती हैं, प्रतिबिंबित होती हैं। तुम जिसके पास बैठ जाते हो, उसी का रंग तुम पर चढ़ जाता है।
जैसे स्फटिक मणि को कोई रंगीन पत्थर के पास रख दे, तो रंगीन पत्थर का रंग मणि पर झलकने लगता है। लाल पत्थर के पास रख दो, मणि लाल मालूम होने लगती है। नीले पत्थर के पास रख दो, मणि नीली मालूम होने लगती है। यह सान्निध्य—दोष है। मणि नीली हो नहीं जाती, सिर्फ प्रतीत होती है।
अंधेरा केवल प्रतीत होता है, है नहीं। प्रकाश के न होने का नाम अंधेरा है। अंधेरे की अपनी कोई सत्ता नहीं, अपना कोई वास्तविक अस्तित्व नहीं। तो तुम अंधेरे से मत लड़ने लगना।
योग और अष्टावक्र की दृष्टि बड़ी विपरीत है। इसलिए मैंने कहा, अगर अष्टावक्र को समझना हो तो कृष्णमूर्ति को समझने की कोशिश करना। कृष्णमूर्ति अष्टावक्र का आधुनिक संस्करण हैं। ठीक आधुनिक भाषा में, आज की भाषा में कृष्णमूर्ति जो कह रहे हैं, वह शुद्ध अष्टावक्र का सार है। कृष्णमूर्ति के मानने वाले ऐसा सोचते हैं कि कृष्णमूर्ति कोई नयी बात कह रहे हैं। नयी बात कहने को है ही नहीं। जो भी कहा जा सकता है, कहा जा चुका है। जितने जीवन के पहलू हो सकते हैं, सब छाने जा चुके हैं। अनंत काल से आदमी खोज कर रहा है। इस सूरज के नीचे नया कहने को कुछ है ही नहीं। केवल भाषा बदलती है, आवरण बदलते हैं, वस्त्र बदलते हैं! समय के अनुसार नयी धारणाओं का प्रयोग बदलता है। लेकिन जो कहा जा रहा है, वह ठीक वही है।
अष्टावक्र की भाषा अति प्राचीन है। कृष्णमूर्ति की भाषा अति नवीन है। लेकिन जो थोड़ा भी समझ सकता है, उसे दिखाई पड़ जायेगा कि बात तो वही है।
कृष्णमूर्ति कहते हैं, योग की कोई जरूरत नहीं, ध्यान की कोई जरूरत नहीं, जप—तप की कोई जरूरत नहीं। ये सब अनुष्ठान हैं। अनुष्ठान उसके लिए करना होता है, जो हमारा स्वभाव नहीं है, स्वभाव को पाने के लिए क्या अनुष्ठान करना है? सब अनुष्ठान छोड़ कर अपने में झांक लो, स्वभाव प्रगट हो जायेगा।
तू असंग है, क्रिया—शून्य है, स्वयं—प्रकाश और निर्दोष है!’ —यह घोषणा तो देखो!
अष्टावक्र कहते हैं, तू निर्दोष है, इसलिए तू भूलकर भी यह मत समझना कि मैं पापी हूं। लाख तुम्हारे साधु —संत कहे चले जायें कि तुम पापी हो, पाप का प्रक्षालन करो, पश्चात्ताप करो, बुरे कर्म किये है उनको छुड़ाओ—अष्टावक्र का वचन ध्यान में रखना : तू क्रिया—शून्य है, इसलिए कर्म तो तू करेगा कैसे?
अष्टावक्र कहते हैं. जीवन में छह लहरें हैं, षट ऊर्मियां। भूख —प्यास, शोक—मोह, जन्म—मरण ये छह तरंगें हैं। भूख—प्यास शरीर की तरंगें हैं। अगर शरीर न हो तो न तो भूख होगी न प्यास होगी। ये शरीर की जरूरतें हैं। जब शरिर स्वस्थ होता है तो ज्यादा भूख लगती है, जब शरीर बीमार होता है तो ज्यादा भूख नहीं लगती। अगर शरीर को धूप में खड़ा करोगे, ज्यादा प्यास लगेगी क्योंकि पसीना उड़ जायेगा। गरमी में ज्यादा प्यास लगेगी, सर्दियों में कम प्यास लगेगी। ये शरीर की जरूरतें हैं, ये शरीर की तरंगें हैं। भूख—प्यास—शरीर की। शोक—मोह—मन की।
और जन्म—मरण.. जन्म—मरण तरंगें प्राण की हैं। जन्म होता श्वास के साथ; मृत्यु होती श्वास के विदा होने के साथ। इसलिए जैसे ही बच्चा पैदा होता है, डाक्टर फिक्र करता है कि बच्चा जल्दी श्वास ले, रोये। रोने का अर्थ केवल इतना ही है कि रोयेगा तो श्वास ले लेगा। रोने के झटके में श्वास का द्वार खुल जायेगा। रोने के झटके में बंद फेफड़ा काम करने लगेगा। अगर बच्चा नहीं रोता कुछ सेकेंड के भीतर तो डाक्टर उसे उलटा लटका कर उस पर चोट करता है, बच्चे के ऊपर, ताकि धक्के में श्वास चल पड़े। श्वास जन्म है। श्वास यानी प्राण की प्रक्रिया। जब आदमी मरता है तो श्वास समाप्त हो जाती है। प्राण की प्रक्रिया बंद हो गई। प्रतिपल यही हो रहा है। श्वास भीतर आती है तो जीवन भीतर आता है। श्वास बाहर जाती है तो जीवन बाहर जाता है।
प्रतिपल जन्म और मृत्यु घट रही है। हर आती श्वास जीवन है। हर जाती श्वास मौत है। तो मौत और जन्म तो प्रतिपल घट रहे हैं। ये प्राण की तरंगें हैं। अष्टावक्र कहते हैं, ये षट ऊर्मियां हैं, तुम इन छहों के पार हो, इनके द्रष्टा हो।
शैष आगै जारी........

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ओंकार का अर्थ है
ओम् अथातोभक्तिजिज्ञासा।।1।।
सापरानुरक्तिरीश्वरे।।2।।
तत्संस्थास्यामृतत्वोपदेशात्।।3।।
ज्ञानमितिचेन्नद्विषतोऽपिज्ञानस्यतदसस्थिते:।।4।।
तयोपक्षयाच्च।। 5।।
ओम् अथातोभक्तिजिज्ञासा!
यह सुबह, यह वृक्षों में शांति, पक्षियों की चहचहाहट… या कि हवाओं का वृक्षों से गुजरना, पहाड़ों का सन्नाटा… या कि नदियां का पहाड़ों से उतरना… या सागरों में लहरों की हलचल, नाद… या आकाश में बादलों की गड़गड़ाहट—यह सभी ओंकार है।
ओंकार का अर्थ है : सार—ध्वनि; समस्त ध्वनियों का सार। ओंकार कोई मंत्र नहीं, सभी छंदों में छिपी हुई आत्मा का नाम है। जहां भी गीत है, वहां ओंकार है। जहां भी वाणी है, वहां ओंकार है। जहां भी ध्वनि है, वहां ओंकार है।
और यह सारा जगत ध्वनियों से भरा है। इस जगत की उत्पत्ति ध्वनि में है। इस जगत का जीवन ध्वनि में है; और इस जगत का विसर्जन भी ध्वनि में है।
ओम से सब पैदा हुआ, ओम में सब जीता, ओम में सब एक दिन लीन हो जाता है। जो प्रारंभ है, वही अंत है। और जो प्रारंभ है और अंत है, वही मध्य भी है। मध्य अन्यथा कैसे होगा!
वेद कहतै है : प्रारंभ में ईश्वर था और ईश्वर शब्द के साथ था, और ईश्वर शब्द था, और फिर उसी शब्द से सब निष्पन्न हुआ। वह ओंकार की ही चर्चा है।
मैं बोलूं तो ओंकार है। तुम सुनो तो ओंकार है। हम मौन बैठें तो ओंकार है। जंहा लयबद्धता है, वहीं ओंकार है। सन्नाटे में भी—स्मरण रखना—जंहा कोई नाद नहीं पैदा होता, वहा भी छुपा हुआ नाद है। मौन का संगीत का संगीत शून्य का संगीत। जब तुम चुप हो, तब भी तो एक गीत झर—झर बहता है। जब वाणी निर्मित नहीं होती, तब भी तो सूक्ष्म में छंद बंधता है। अप्रकट है, अव्यक्त है; पर है तो सही। तो शून्य में भी और शब्द में भी ओंकार निमज्जित है।
ओंकार ऐसा है जैसे सागर। हम ऐसे हैं जैसे सागर की मछली।
इस ओकार को समझना। इस ओंकार को ठीक से समझा नहीं गया है। लोग तो समझे कि एक मंत्र है, दोहरा लिया। यह दोहराने की बात नहीं है। यह तो तुम्हारे भीतर जब छंदोबद्धता पैदा हो, तभी तुम समझोगे ओंकार क्या है। हिंदू होने से नहीं समझोगे। वेदपाठी होने से नहीं समझोगे। पूजा का थाल सजाकर ओंकार की रटन करने से नहीं समझोगे। जब तुम्हारे जीवन में उत्सव होगा, तब समझोगे। जब तुम्हारे जीवन में गान फूटेगा, तब समझोगे। जब तुम्हारे भीतर झरने बहेगे, तब समझोगे।
ओम से शुरुआत अदभुत है।
अथातोभक्तिजिज्ञासा!
उस ओम में सब आ गया; अब आगे विस्तार होगा। जो जानते हैं उनके लिए ओम में सब कह दिया गया। जो नहीं जानते, उनके लिए बात फैलाकर कहनी होगी। अन्यथा शास्त्र पूरा हो गया ओंकार पर।
ओंकार बनता है तीन ध्वनियों से : अ, उ, म। ये तीन मूल ध्वनिया है;शेष सभी ध्वनियां इन्हीं ध्वनियो के प्रकारातर से भेद हैं। यही असली त्रिवेणी है—अ, उ, म। यही त्रिमूर्ति है। यही शब्दब्रह्म के तीन चेहरे हैं।
सब शास्त्र अ, उ, म में समाहित हो गये। हिंदुओं के हों, कि मुसलमानो के, कि ईसाइयों के, कि बौद्धों के, कि जैनों के— भेद नहीं पड़ता। जो भी कहा गया है अब तक और जो नहीं कहा गया, सब इन तीन ध्वनियों में समाहित हो गया है। ओम कहा, तो सब कहा। ओम जाना, तो सब जाना।
इसलिए वेद घोषणा करते हैं कि जिसने ओंकार को जान लिया, उसे जानने को कुछ और शेष नहीं रहा। निश्चित ही यह उस ओंकार की बात नहीं है, जो तुम अपने पूजागृह में बैठकर दोहरा लेते हो। यह ओंकार तो तुम्हारे पूरे जीवन की सुगंध की तरह प्रकट होगा, तो समझोगे।
तुम्हारे जीवन में बड़ी छंदहीनता है। तुम्हारा जीवन टूटा—फूटा हुआ सितार है, जिसके तार या तो बहुत ढीले हैं या बहुत कसे हैं; और जिस तार पर कैसे अंगुलियां रखें, उसका शास्त्र ही तुम भूल गए हो; और जिस सितार को कैसे बजाएं, कैसे निनादित करें, उसकी भाषा ही तुम्हें नहीं आती। तुम सितार लिए बैठे हो, सितार में छिपा संगीत तुम्हारी प्रतीक्षा करता है, और जीवन बड़ी पीड़ा से भरा है। यह सारी पीड़ा रूपांतरित हो सकती है : तुम गाओ, तुम गुनगुनाओ; तुम्हारे भीतर की सरिता बहे; तुम नाचो। औम औम औम औम औम औम औम बस गाते जाओ आनंद मैं बहते जाओ बस और सिर्फ औम औम औम औम औम औम औम
भक्ति जीवन का परम स्वीकार है। इसलिए शुभ ही है कि महर्षि शांडिल्य अपने इस अपूर्व सूत्र—ग्रंथ का उदघाटन ओम से करते हैं। ठीक ही है, क्योंकि भक्ति जीवन में संगीत पैदा करने की विधि है। जिस दिन तुम संगीतपूर्ण हो जाओगे; जिस दिन तुम्हारे भीतर एक भी स्वर ऐसा न रहेगा जो व्याघात उत्पन्न करता है; जिस दिन तुम बेसुरे न रहोगे, उसी दिन प्रभु मिलन हो गया। प्रभु कहीं और थोड़े ही है—छंदबद्धता में है, लयबद्धता मे है। जिस दिन नृत्य पूरा हो उठेगा, गान मुखरित होगा, तुम्हारे भीतर का छंद जिस क्षण स्वच्छंद होगा, उसी क्षण परमात्मा से मिलन हो गया।
इसलिए तो कहते हैं वेद कि ओम को जिन्होंने जान लिया, उन्हें जानने को कुछ शेष न रहा। यह शास्त्र में लिखे हुए ओम की बात नहीं है, यह जीवन में अनुभव किए गए, अनुभूत छंद की बात है।
गायत्री तुम्हारे भीतर छिपी है, भगवद गीता भी। तुम्हारे भीतर मचल रही हैं, तडप रही है—मुक्त करो! तुम्हारे भीतर बड़ा रुदन है; जैसे किसी वृक्ष मे हो, जिसके फूल नहीं खिले; जैसे किसी नदी में हो, चट्टानों के कारण जो बह न सकी और सागर से मिल न सकी।
जिस वृक्ष में फूल नहीं आते, उसकी पीड़ा जानते हो? है और नहीं जैसा। जब तक फूल न आएं और जब तक सुगंध छिपी है जो पड़ी प्राणों में, जड़ों से जो मुक्त होना चाहती है, जो पक्षी बनकर उड़ जाना चाहती है। आकाश में, जो पंख फैलाना चाहती है, जो पक्षी बनकर उड़ जाना चाहती है आकाश में, जो पंख फैलाना चाहती है, जो चांद—तारो से बात करना चाहती है—बहुत दिन हो गये कारागृह में जड़ों की पड़े—पड़े—जों छूट जाना चाहती है सब जंजीरों से, जब तक वह सुगंध फूलों से मुक्त न हो जाए, तब तक वृक्ष तृप्त कैसे हो! तब तक कैसी तृप्ति, कैसा संतोष, कैसी शांति, कैसा आनंद! तब तक वृक्ष उदास है। ऐसे ही वृक्ष तुम हो।
तुम्हारे भीतर ओंकार पड़ा है—बंधन में, जंजीरों में। मुक्त करो उसे कहते जाओ.
औम औम औम औम औम औम औम औम औम औम औम औम औम औम औम औम
उस क्षण नाचो! ऐसे नाचो कि नाचने वाला मिट और नाच ही रह जाए—उस क्षण पहचान होगी ओंकार से। ऐसे गाओ कि गायक न बचे; गीत ही रह जाए—उस क्षण तुम भगवदगीता हो गये। जिस क्षण गाने वाला भीतर न हो और गान अपनी सहज स्फुरणा से बहे, उस क्षण तुम कुरान हो गये। उस दिन तुम्हारे भीतर परम काव्य का जन्म हुआ। उस दिन जीवन साधारण न रहा, असाधारण हुआ। उस दिन जीवन में दीप्ति आयी, आभा उपजी। इसलिए ओम से प्रारंभ है।
इस ओम में इशारा है कि तुम अभी ऐसे वृक्ष हो जिसके फूल नहीं खिले हैं। और बिना फूल खिले कोई संतुष्टि नहीं है, कोई परितोष नहीं है।
ओम् अथातोभक्तिजिज्ञासा।
और यह तुम्हें खयाल में आ जाए कि मेरे फूल अभी खिले नहीं, कि मेरे फल अभी लगे नहीं; कि मेरा वसंत आया नहीं है; कि मैं जो गीत लेकर आया था, मैंने अभी गाया नहीं; कि जो नाच मेरे पैरों में पड़ा है, मैंने घूंघर भी नहीं बाधे, वह नाच अभी उन्मुक्त भी नहीं हुआ—यह तुम्हें समझ में आ जाए तो, अथातोभक्तिजिज्ञासा’ फिर भक्ति की जिज्ञासा। उसके पहले भक्ति उसके पहले भक्ति की कोई जिज्ञासा नहीं हो सकती।
भक्ति की जिज्ञासा का अर्थ ही यह है। कि मैं टूटा—फूटा हूं अभी, मुझे जुड़ना है; मैं अधूरा—अधूरा हूं अभी, मुझे पूरा होना है; कमियां हैं, सीमाएं हैं हजार मुझ पर, सब सीमाओं को तोड़ कर बहना है; बूंद हूं अभी और सागर होना है।… अथातोभक्तिजिज्ञासा!… तभी तो तुम जिज्ञासा में लगोगे।
बस लगे रहो एक ही धुन बजानी है मन की विणा से नाद निकलना चाहिऐ औम औम औम औम औम औम औम औम औम औम औम औम औम औम औम औम औम औम औम औम दावा है मेरा सम्पुर्ण आनंद मिलेगा आज आपको बस गुनगुनाते जाओ.
औम औम औम औम औम औम औम औम औम औम औम औम औम औम औम औम औम औम औं औम औंम
औम सिद्धा औम सिद्धा औम सिद्धा.
औम सिद्धा

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मैं तेरा स्वामी हूं
1 तत्व हमारे भीतर है, जिसको प्रीति कहें। यह जो तत्व हमारे भीतर है— प्रीति—इसी के आधार पर हम जीते है। चाहे हम गलत ही जीएं, तो भी हमारा आधार प्रीति ही होता है। कोई आदमी धन कमाने में लगा है; धन तो ऊपर की बात है, भीतर तो प्रीति से ही जी रहा है— धन से उसकी प्रीति है। कोई आदमी पद के पीछे पागल है; पद तो गौण है, प्रतिष्ठा की प्रीति है। जंहा भी खोजोगे, तो तुम प्रीति को ही पाओगे। कोई वेश्यालय चला गया है और किसी ने किसी की हत्या कर दी—पापी में और पुण्यात्मा में, तुम एक ही तत्व को एक साथ पाओगे, वह तत्व प्रीति है। फिर प्रीति किससे लग गयी, उससे भेद पड़ता है। धन से लग गयी तो तुम धनी होकर रह जाते हो। ठीकरे हो जाते हो। कागज के सड़े—गले नोट होकर मरते हो। जिससे प्रीति लगी, वही हो जाओगे; यह बड़ा बुनियादी सत्य है; इसे हृदय में सम्हालकर रखना।
प्रीति महंगा सौदा है, हर किसी से मत लगा लेना। जिससे लगायी वैसे ही हो जाओगे —वैसा होना हो तो ही लगाना। प्रीति का अर्थ ही यही होता है कि मैं यह होना चाहता हूं। राजनेता गांव में आया और तुम भीड़ करके पहुंच गये, फूलमालाएं सजाकर—किस बात की खबर है? तुम गहरे में चाहते हो कि मेरे पास भी पद हो, प्रतिष्ठा हो; इसलिए पद और प्रतिष्ठा की पूजा है। कोई फकीर गांव मे आया और तुम पहुंच गये; उससे भी तुम्हारी प्रीति की खबर मिलती है कि तडूफ रहे हो फकीर होने को—कि कब होगा वह मुक्ति का क्षण, जब सब छोड़—छाड़… जब किसी चीज पर मेरी कोई पकड़ न रह जाएगी। कोई संगीत सुनता है तो धीरे—धीरे उसकी चेतना में संगीत की छाया पड़ने लगती है।
तुम जिससे प्रीति करोगे, वैसे हो जाओगे : जिनसे प्रीति करोगे वैसे हो जाओगे। तो प्रीति का तत्व रूपातरकारी है। प्रीति का तत्व भीतरी रसायन है। और बिना प्रीति के कोई भी नहीं रह सकता। प्रीति ऐसी अनिवार्य है जैसे श्वास। जैसे शरीर श्वास से जीता, आत्मा प्रीति से जीती। इसलिए अगर तुम्हारे जीवन मे कोई प्रीति न हो, तो तुम आत्महत्या करने को उतारू हो जाओगे। या कभी तुम्हारी प्रीति का सेतु टूट जाए, तो आत्महत्या करने को उतारू हो जाओगे। घर में आग लग गयी। और सारा धन जल गया और तुमने आत्महत्या कर ली; क्या तुम कह रहे हो? तुम यह कहते हो : यह घर ही मैं था, यह मेरी प्रीति थी। अब यही न रहा तो मेरे रहने का क्या अर्थ! तुम्हारी पत्नी मर गयी और तुमने आत्महत्या कर ली;तुम क्या कह रहे हो? तुम यह कह रहे हो : यह मेरी प्रीति का आधार था। जब मेरी प्रीति उजड़ गयी, मेरा संसार उजड़ गया। अब मेरे रहने में कोई सार नहीं।… हम प्रीति के साथ अपना तादात्म्य कर लेते है।
बिना प्रीति के कोई भी नहीं जी सकता। जीना संभव ही प्रीति के सहारे है। जैसे बिना श्वास लिए शरीर नहीं रहेगा, वैसे बिना प्रीति के आत्मा नहीं टिकेगी। प्रीति है तो आत्मा टिकी रहती है—फिर प्रीति गलत से भी हो तो भी आत्मा टिकी रहती है। मगर चाहिए, प्रीति तो चाहिए—गलत हो कि सही।
इसमें बहुत मूल्य नहीं है, मूल्य इस बात में है कि तुमने श्रद्धा का कोई पात्र चुना। तुमने कोई चुना जो तुमसे पार है। तुमने कोई चुना जो आकाश में है— धवल शिखरों की भांति। उस चुनाव में ही यात्रा शुरू हो गयी—तुम्हारी आखें ऊपर उठने लगीं। तुमने जमीन पर गड़े—गड़े चलना बंद कर दिया। तुमने जमीन पर सरकना बंद कर दिया। तुम्हारे पंख फड़फड़ाने लगे, आज नहीं कल तुम उड़ोगे। क्योंकि जिससे श्रद्धा लग गयी है, उस तक जाना होगा। यात्रा कठिन होगी तो भी जाना होगा। लाख कठिनाइयां होंगी। तो भी जाना होगा। प्रीति लग जाए तो कठिनाइयों का पता नहीं चलता।
तो एक प्रीति है : श्रद्धा। अपने से ऊपर। वह ऊर्ध्वगामी है। एक प्रीति है : प्रेम अपने से समतुल। उससे तुम कहीं जाते—आते नहीं; कोस्कू के बैल की तरह चक्कर काटते हो। पत्नी भी तुम जैसी, पति भी तुम जैसा, मित्र भी तुम जैसे—लोग अपने जैसे ही तो चुनते हैं, लोग अपने जैसो मे ही तो आकर्षित होते है। अपने से बड़े में आकर्षित होने में ही खतरा मालूम होता है। क्यों? क्योंकि पहले तो किसी को अपने से बड़ा मानना अहंकार के प्रतिकूल है। किसी को गुरु मानना अहंकार के प्रतिकूल है—अहंकारी किसी को गुरु नहीं मान सकता। वह हजार बहाने खोजता है सिद्ध करने के कि कोई गुरु है ही नहीं। अब कहां गुरु! सतयुग मे होते थे, यह कलियुग है! अब कहा गुरु! यह पंचम काल है, अब कहा गुरु! सब कहानियां हैं, कपोल—कल्पनाएं हैं। बचाता है अपने को, क्योंकि गुरु चुनने में ही तुमने एक बात जाहिर कर दी कि अब तुम्हें चुनौती स्वीकार करनी पड़ेगी। तुम जंहा हो, वहीं समाप्त नहीं हो सकते हो, ऊपर जाना है।
इसलिए लोग अपने ही समान व्यक्तियो को चुनते हैं। उनके साथ कहीं जाना नहीं;यहीं झगड़ना है। पति—पत्नी यहीं लड़ते रहेंगे;कोल्ह के बैल की तरह रोज वही दोहराते रहेंगे जो कल भी किया था, परसों भी किया था; कल भी करेंगे, परसों भी करेंगे;पूरा जन्म निकल जाएगा और वही पुनरुक्ति, पुनरुक्ति। नहीं कोई गति होती। हो नहीं सकती।
तीसरा प्रेम है, प्रीति है, जिसे हम स्नेह कहते हैं; वह अपने से छोटों के प्रति। पुत्र, कन्यादिक या शिष्य। जो अपने से छोटे के प्रति होती है। अपने से छोटे के प्रति भी हम आसानी से राजी हो जाते हैं। सच तो यह है, हम बड़े आह्लादित होते हैं। इसलिए तो तुम आह्लादित होते हो जब तुम्हारे घर में बेटा पैदा होता है। तुम्हारा आहाद क्या है? तुम्हारा आह्लाद यही है कि इसकी तुलना में तुम बड़े हो गये.
तुम अपने पुत्र में, पुत्रियों में इतना जो रस लेते हो उसका कारण क्या है? चलो, कोई तो है जो तुम्हारी तरफ देखता है और तुम्हें बड़ा मानता है! तुम्हारे अहंकार को तृप्ति मिलती है। इसलिए शिष्य होना कठिन है, गुरु होना आसान मालूम पड़ता है।
एक शिष्य गुरु के पास पहुंचा। उसने पूछा कि मुझे स्वीकार करेंगे? मैं दीक्षित होने आया हूं। गुरु ने कहा : कठिन होगा मामला। यात्रा दुर्गम है, सम्हाल सकोगे? पात्रता है? पूछा उस युवा ने : क्या करना होगा? ऐसी कौन—सी कठिनाई है? गुरु ने कहा : जो मैं कहूंगा, वही करना पड़ेगा। वर्षो तक तो जंगल से लकड़ी काटना, आश्रम के जानवरों को चरा आना, बुहारी लगाना, भोजन पकाना—इसमें ही लगना होगा। फिर जब पाऊंगा कि अब तुम्हारा समर्पण ठीक—ठीक हुआ, तार ठीक—ठीक बंधे, तब तुम्हारे ऊपर सत्य के प्रयोग शुरू होंगे, तब ध्यान और तप।
उस युवक ने पूछा : यह तो बड़ी झंझट की बात है। कितने वर्ष लगेंगे यह जंगल जाना, लकड़ी काटना, भोजन बनाना, सफाई करना, जानवर चराना? गुरु ने कहा : कुछ कहा नहीं जा सकता। निर्भर करता है कि कब तुम तैयार होओगे। जब तैयार हो जाओगे, तभी—वर्ष भी लग सकते हैं, कभी—कभी जन्म भी लग जाते है।
उस युवक ने कहा, चलिए, यह तो जाने दीजिए, यह मुझे जंचता नहीं। गुरु होने में क्या करना पड़ता है? तो उस गुरु ने कहा : गुरु होने में कुछ नहीं। जैसे मैं यहा बैठा हूं ऐसे बैठ जाओ और आशा देते रहो। तो उसने कहा : फिर ऐसा करिए, मुझे गुरु ही बना लीजिए। यह जंचता है।
गुरु कौन नहीं बन जाना चाहता! तुम भी कोई मौका नहीं खोते जब गुरु बनने का मौका मिले। किसी को अगर तुम पा लो किसी हालत में कि सलाह की जरूरत है, तो तुम्हें चाहे सलाह देने योग्य पात्रता हो या न हो, तुम जरूर देते हो। तुम चूकते नहीं मौका। कोई मिल भर जाए मुसीबत में, तुम उसकी गर्दन पकड़ लेते हो। तुम उसको सलाह पिलाने लगते हो। और ऐसी सलाहें, जो तुमने जीवन में खुद भी कभी स्वीकार नहीं कीं; जिन पर तुम कभी नहीं चले; जिन पर तुम कभी चलोगे भी नहीं। लेकिन किसी और ने तुम्हारी गर्दन पकड़कर तुम्हें पिला दी थीं, अब तुम किसी और के साथ बदला ले रहे हो।
दुनिया में सलाहें इतनी दी जाती हैं, मगर लेता कौन! कोई किसी की सलाह लेता है! तुमने कभी किसी की ली? और खयाल रखना, जिसने भी तुम्हारी असहाय अवस्था का मौका उठाकर सलाह दी है, उससे तुम नाराज हो, अभी भी नाराज हो, तुम उसे क्षमा नहीं कर पाए हो। क्योंकि तुम असमय में थे और दूसरे ने फायदा उठा लिया। तुम्हारे घर में आग लग गयी थी और कोई ज्ञानी तुमसे कहने लगा : क्या रखा है; यह संसार तो सब जल ही रहा है; सब जल ही जाएगा, सब पड़ा रह जाएगा—सब ठाठ पड़ा रह जाएगा जब बांध चलेगा बंजारा—अरे, यहा रखा क्या है! यह बाते तो तुम्हें भी मालूम हैं, लेकिन तुम्हारा घर जल रहा है और इन सज्जन को सलाह देने की सूझी है! तुम्हारी पत्नी मर गयी और कोई कह रहा है कि आत्मा तो अमर है। तुम्हारी तबियत होती है कि इसको यहीं दुरुस्त कर दो इस आदमी को! मेरी पत्नी मर गयी है, इसे ज्ञान सूझ रहा है! और तुम भलीभांति जानते हो कि इसकी पत्नी जब मरी थी तब यह भी रो रहा था—और कल जब इसका बेटा मरेगा तो फिर यह जार—जार रोका। तब तुम्हारे हाथ में एक मौका होगा कि तुम भी बदला ले लोगे, तुम भी सलाह दे दोगे।
सलाहें एक—दूसरे का अपमान हैं। सलाह का मतलब यह होता है, तुम सिद्ध कर रहे हो; मैं जानता हूं तुम नहीं जानते; मैं तानी, तुम अज्ञानी। तुम मौका पाकर गुरु बन रहे हो। जांचना। अपने जीवन को जरा परखना। हर किसी को सलाह देने को तैयार हो! कोई सिगरेट पी रहा है और तुम्हारे भीतर एकदम खुजलाहट होती है कि इसको सलाह दो कि सिगरेट पीना बुरा है—और तुम पान चबा रहे हो! मगर पान चबाना बात और! —लेकिन तुम सलाह देने का मौका नहीं छोड़ोगे। तुम्हारे बाप ने तुम्हें सलाह दी थी और तुमने एक न मानी। और वे ही सलाहें तुम अपने बेटों को पिला रहे हो। वे भी नहीं मानेगे। तुमने नहीं मानी थी। कौन मानता है सलाह! क्यों सलाहें नहीं मानी जातीं? कारण है। देने वाला अहंकार का मजा लेता है, लेने वाले के अहंकार को चोट लगती है।
तुम्हारे घर बेटे—बेटियां पैदा हो जाते हैं, तुम बड़े खुश होते हो। तुमको यह असहाय प्राणी मिल गये, जिनको अब तुम जैसा चाहो बनाओ; जंहा चाहो भेजो; जो आशा दो, इन्हें मानना ही पड़े।
यह तो अपरा हुई। यह तो इस जगत की बातें हुइ —प्रेम, स्नेह, श्रद्धा। इनके पार भी एक शुद्ध रूप है प्रीति का। उस रूप को परा अनुरक्ति, ऐसा महर्षि शांडिल्य कहते है। उस परा अनुरक्ति का जो पात्र है, वही ईश्वर है।
अब तुम यह मत समझना कि कोई ईश्वर है, जिस पर तुम अपनी अनुरक्ति को ढालोगे, जिस पर तुम अपनी अनुरक्ति को केंद्रित करोगे। नहीं, अगर तुमने कोई ईश्वर मान लिया और फिर उस पर अपनी अनुरक्ति को केंद्रि त किया तो श्रद्धा हो गयी। जिस दिन तुम्हारी अनुरक्ति सभी पात्रों से मुक्त हो जाएगी—न स्नेह रही, न प्रेम रही, न श्रद्धा रही; जिस दिन तुम्हारी प्रीति शुद्ध प्रीति हो गयी; मात्र प्रीति हो गयी; तुम्हारे चित्त की सहज दशा हो गयी, उस दिन जिस तरफ तुम बहोगे, वही ईश्वर है। सब तरफ ईश्वर है।
सापरानुरक्तिरीश्वरे। परा अनुरक्ति संपूर्ण होती है। बच्चे से प्रेम होता है, लेकिन इतना नहीं होता कि अगर मरने का वक्त आ जाए और चुनाव करना पड़े कि दो में से कोई एक ही जी सकता है। तुम या तुम्हारा बेटा—तो बहुत संभावना यह है कि तुम अपने को बचाओगे। तुम कहोगे : बेटे तो और भी पैदा हो सकते हैं। प्रेम था, लेकिन इतना नहीं था कि अपने को गंवा दो।
पत्नी से प्रेम है; तुम कहते हो कि तेरे बिना मर जाऊंगा। मगर अगर आज ऐसा मौका आ जाए कि एक हत्यारा आ जाए और कहे कि दो में से कोई भी एक मरने को तैयार हो जाओ, तो तुम अपनी पत्नी को कहोगे—क्या बैठी देख रही हो, तैयार हो! मैं तेरा स्वामी हूं! पति तो परमात्मा है! तू बैठी क्या देख रही है? तब तुम मरने को राजी न होओगे। यह कहने की बातें हैं!
फिर संपूर्ण अनुरक्ति का क्या अर्थ होता है? संपूर्ण अनुरक्ति का अर्थ होता है—अब तुम अपने को छोड़ने को राजी हो। अपरा अनुरक्ति में तुम रहते हो। तुम्हारे रहते, सब ठीक; लेकिन अगर तुम्हें स्वयं को दाव लगाना पड़े तो फिर तुम हट जाते हो। परा अनुरक्ति में तुम अपने को दाव पर लगा देते हो। तुम कहते हो—मैं तो बूंद हूं, जो सागर मे खो जाना चाहती है। मैं तो बीज हूं जो भूमि में खो जाना चाहता है। तुम परमात्मा और अपने बीच परमात्मा को चुनते हो, सर्व को चुनते हो; तुम अपनी सारी सीमाएं छोड़कर छलांग लगा जाना चाहते हो।
जब तक हमने शरीर के साथ अपने को एक समझा है, तभी तक सब भय हैं—बीमारी के, बुढ़ापे के, मृत्यु के। जिसकी आखें सब जगह छिपे हुए परमात्मा को खोजने लगीं, जिसमें भक्ति की जिज्ञासा उठी, जिसने जानना चाहा है कि जीवन का परम सार क्या है, जीवन की परम बुनियाद क्या है; जो जानना चाहता है कि अब मैं तरंगों से नहीं, सागर से मिलना चाहता हूं; अब मैं अभिव्यक्ति से नहीं, अभिव्यक्तियों के भीतर जो छिपा है, अदृश्य, उसको जानना चाहता हूं; जिसने अपने भीतर देखा कि एक तो देह है जो दिखायी पड़ती है और एक मैं हूं जो दिखायी नहीं पड़ता…।
तुम आज तक किसी को दिखायी नहीं पड़े हो, इस पर तुमने कभी विचार किया? न तुम्हारी पत्नी ने तुम्हें देखा, न तुम्हारे बेटे ने, न तुम्हारे मित्रों ने—न तुमने अपनी पत्नी को देखा है। जो देखा है वह देह है—तुम अनदेखे रह गए हो। तुम जरा कभी बैठकर सोचना। तुम्हें आज तक किसी ने भी नहीं देखा। तुम्हारी आंखों में भी कोई आखें डाल दे, तो भी तुम्हें नहीं देख सकता। फिर भी तुम हों—आंखों से अलग, कानों से अलग, हाथ—पैरों से अलग तुम हो; इस देह से अलग तुम हो। तुम भलीभांति जानते हो, वह तुम्हारा सहज अनुभव है कि मैं इससे पृथक हूं। तुम्हारा हाथ कट जाए तो भी तुम नहीं कट जाते। तुम आखें बंद कर लो तो भी भीतर तुम देखते हों—बिना आंख के देखते हो। तुम भीतर हो। तुम चैतन्य हो। तुम अदृश्य हो।
जैसे तुम्हारे भीतर यह छोटा सा अदृश्य छिपा है, ऐसा ही इस सारे जगत के भीतर भी अदृश्य छिपा है। दृश्य दिखायी पड़ रहा है, अदृश्य से पहचान नहीं हो रही है।
उस अदृश्य की प्रीति में पड़ जाने का नाम भक्ति है।
फिर भ…
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