पोस्ट सं. 171
शाकद्वीपीय एवं अन्य ब्राह्मणो पर एक परिचर्चा : जड़ों से जुड़ने का एक लघु प्रयास ।
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'वसुधैव कुटुम्बकम्' की अवधारणा को संरक्षित करने वाला भारतवर्ष अपनी बहुविध संस्कृति के कारण विश्व में अनुपम है। यहाँ न सिर्फ भाषा- वेश-भूषा या खान-पान में वैविध्य है अपितु धर्म-जाति-उपजाति व गोत्र इत्यादि के दृष्टिकोण से भी अनेक वैचारिक धाराएँ अस्तित्त्व में हैं किन्तु फ़क्र की बात यह है कि ये सभी धाराएँ अंततः 'वृहत्भारतसमुद्र' में समाहित होकर अखण्ड 'भारत-चित्र' की रचना करती हैं ।
जिस प्रकार शरीर को व्याधिमुक्त रखने के लिए इसके अंग-प्रत्यंग का सम्यक् ज्ञान वांछित होता है उसी प्रकार भारतीय वर्ण व्यवस्था रुपी शरीर के मुख्य अंग अर्थात 'ब्राह्मण' एवं इनके प्रकारों की जानकारी आज अपनी जड़ों से जुड़ने की चाह रखने वालों के लिए प्रासंगिक है।
ब्राह्मण :::
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यास्क ने निरुक्त में कहा है - " ब्रह्म जानाति इति ब्राह्मण:" । 'वज्रसूचिकोपनिषद' कहता है कि " ....यः कश्चितात्मानमद्वितीयं जातिगुणक्रियाहीनं षडूमीषड्भावेत्यादि सर्वदोषरहितं ... ब्राह्मण इति ।" अर्थात, जो आत्मा के द्वैत भाव से युक्त न हो, जाति, गुण व क्रिया से भी युक्त न हो,षट् ऊर्मियों व षड् भावों आदि समस्त दोषों से मुक्त हो,...... वही ब्राह्मण है ।
'बुद्ध' के शब्दों में ---" ब्राह्मणं अकिंचनं अनादानं तमहं ब्रूहि ब्राह्मणम् ।" अर्थात् जो अकिंचन व अपरिग्रही है वही ब्राह्मण है ।
ब्राह्मणों के प्रकार :::
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'भविष्य पुराण' के अनुसार महर्षि कश्यप के पुत्र कण्व की आर्यावती नाम की देवकन्या पत्नी हुई । सरस्वत्यराधना के फलस्वरूप कण्व के आर्य बुद्धि वाले 10 पुत्र हुए ।पुनः इन पुत्रों की आराधना के फलस्वरूप भक्तवत्सला शारदा देवी ने अपनी कन्याएँ इन्हें दीं ।वे क्रमशः उपाध्यायी, दीक्षिता, पाठकी, शुक्लिका, मिश्राणी, अग्निहोत्त्रिणी, द्विवेदिनी,त्रिवेदिनी, पाण्ड्यायनी व चतुर्वेदिनी कहलायीं । फिर उन कन्याओं के भी पुत्र हुए जो 'गोत्रकार' कहलाये । कश्यप, भारद्वाज, गौतम, पराशर, गर्ग, अत्रि, जमदग्रि,वशिष्ठ,वत्स,श्रृंगी,कात्यायन व याज्ञवल्क्य ।
यद्यपि ब्राह्मणों के मुख्यतः दो प्रकार ही हैं -- 1.. द्रविण ( तैलंगा, महार्राष्ट्रा , गुर्जर,द्रविण व कर्णटिका ) एवं --2.. गौड़ ( सारस्वत, कान्यकुब्ज,गौड़, मैथिल व उत्कल ) ; किन्तु , शाखा-उपशाखा भेद के कारण लगभग 300 प्रकार के ब्राह्मण पाये जाते हैं ।
शाकद्वीपीय ब्राह्मण ::::
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नंदवंशनाशक- अर्थशास्त्ररचयिता व चन्द्रगुप्त मौर्य के महामंत्री 'चाणक्य', आर्कमीडिज से भी पहले 'पाई' को जानने वाले ज्योतिषज्ञ-गणितज्ञ 'आर्यभट्ट', आइंस्टीन से भी पहले गुरुत्त्वाकर्षण को समझ जाने वाले खगोलविद् 'वाराहमिहिर', न्यूटन से भी पहले धरती की गुरुत्त्वाकर्षण-शक्ति के रहस्य को जानने वाले सिद्धांतशिरोमणिरचयिता 'भस्कराचार्य', चिकत्साशास्त्र को अमूल्यनिधि ( चरकसंहिता ) देने वाले 'चरक' , 'कादम्बरी' के रचनाकार 'वाणभट्ट' एवं पंचतंत्ररचयिता 'विष्णुशर्मा' ------ इत्यादि कालजयी व्यक्तित्त्वों में यदि कोई खास समानता है तो वो यह है कि ये सभी 'शाकद्वीपी ब्राह्मणकुल 'में उत्पन्न हुए ।
'शाकद्वीपीय ब्राह्मण' हिन्दू ब्राह्मणों का एक ऐसा वर्ग है जो मुख्यतः पूजा-पाठ, आध्यात्मिक एवं विशिष्ट आयुर्वेदिक चिकित्सा से जुड़ा है । इस वर्ग के लोग संस्कृत के प्रकांड विद्वान् हैं ।ये मुख्यतः पश्चिमी व उत्तर भारत में हैं । इनका प्रादुर्भाव सूर्य से हुआ । 'शारङ्गधरसंहिता' एवं 'भावप्रकाश' इत्यादि परंपरागत ग्रंथों पर यह जाति दावा करती है। वेद व पुराणों के अनुसार ये शाकद्वीप में निवास करते थे तथा योनिज न होने से 'दिव्य' कहलाए ।
'मनुस्मृति' के अनुसार सूर्यास्त के पश्चात् श्राद्धकर्म निषिद्ध है किन्तु किसी शाकद्वीपीय ब्राह्मण को एक 'सूर्य' वरण कर श्राद्ध संपन्न किया जा सकता है ।यह बात इस जाति की दिव्यता की सूचक है । इनके गोत्र भी कश्यप- भारद्वाज आदि होते हैं ।
शाकद्वीपी ब्राह्मणों के पूर्ण शरीर में नवग्रह का वास होता है।
"शीर्षे सूर्यो विधु नेत्रि मुखे सोमो हच्पिसर्बुधः नाभिभिश्दे देशे गुरुश्चैव पृष्ठदेशे च भार्गवः ।
शनि जेहनुधितिश्चैव राहुकेतो पदद्वये । ग्रहविप्रशरीरेषु ग्रहाः स्यु: सुविराजिताः ।।"
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'शाक' नामक द्वीप ::::
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भारतीय प्राक् भौगोलिक वर्णन में सात द्वीपों का उल्लेख है - जम्बू , प्लक्ष, शाल्मली, कुश, क्रौञ्च, पुष्कर व शाक द्वीप । इन द्वीपों के अलग-2 वर्ण, उपद्वीप, पर्वत ,सागर, नदियाँ,इष्टदेव व शासक हैं । इनमे 'शाक' द्वीप दिव्य द्वीप है जहाँ के निवासी भी दिव्य हैं । यह द्वीप क्षीरसागर से परिवृत्त है । इसका विस्तार 32 लाख योजन है । इसके चारो ओर 'शाक' नामक विशाल वृक्ष हैं । इस 'शाक' द्वीप का स्वामी प्रियवर्तपुत्र 'मेधातिथि' था इस द्वीप को अपने पुत्रों के समान नाम वाले सात भागों में बाँट कर एक-2 में एक-2 पुत्र को राजा बनाया । उन पुत्रों का नाम पुरोजन , मनोजन, पवमान, धूम्रानीक , चित्ररेफ, बहुरूप व विश्वाधार थे । इनकी सीमा में सात पर्वत( ईशान उरुशृंग, बलभद्र, शतकेशर , सहस्त्रस्रोत,देवमाल व मानस ) और सात नदियाँ ( अनघा, आयुर्दा, उभयस्मृष्टि , अपराजिता , पंचपदी ,
सहस्त्रश्रुति और महानस) है । सर्वप्रथम मेरु का स्थान , सर्वप्रथम सृष्टि का स्थान एवं वर्णक्रमों में प्रथम 'ब्राह्मण' की उत्पत्ति का स्थान 'शाकद्वीप' है । महाभारत के भीष्मपर्व व वायुपुराण में भी क्षीरसागर से शाकद्वीप का सम्वन्ध दिखाया गया है । वस्तुतः वृहत्तर 'ईरान'
के ही अर्थ में शाकद्वीप का सम्वन्ध दिखाया गया है ।
शाकद्वीपीय ब्राह्मणों की पृष्ठभूमि ::::
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पुराणों के अनुसार शाकद्वीपीय ब्राह्मणों का जम्बूद्वीप में आगमन द्वापर में (लगभग 5000 वर्ष पूर्व) हुआ ।महाभारत युद्ध' के उपरांत कृष्णपुत्र 'शाम्ब' जो बहुत आकर्षक था दुर्वाशा ऋषि को देख कर हस पड़ा ।दुर्वाशा के शाप से उसे 'कुष्ट रोग' हुआ । पता चला कि शाकद्वीप में रहने वाली एक विप्रजाति इस रोग को ठीक करने में दक्ष है तो शाम्ब ने आदरपूर्वक गरुण पर सवार कर 'शाक द्वीप' से 18 परिवारों को लाया ।
"शाकद्वीपात् सुपर्णेन चानीतो द्विजःपुंगवः । शाकद्वीपी द्विजो सो$भूत विख्यातो धरणीतले ।।"
सूर्योपाशक वे 'मग' ब्राह्मण आध्यात्मिक चिकित्सा से साम्ब को रोगमुक्त कर दिए । कालान्तर में मगध नरेश के आग्रह पर उन 18 परिवारों के 72 लोगों को विभिन्न पुरों (ग्राम) में बसा दिया ताकि उनके दिव्यज्ञान का लाभ चहुंओर हो सके ।
शाकद्वीपीयों के 72 पुर :::
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1 उरवार 2 मखपवार 3 देवकुलियार 4 पडरीयार 5 अदइयार 6 पवइयार 7 क्षत्रवार 8 जम्मुवार
9 भड़रियार 10 खंटवार 11 केरियार 12 छेरियार 13 कुरईचियार 14 भलुनियार 15 डुमरियार
16 बाड़वार 17 सरइयार 18 योतियार 19 शिकरौरियार 20 मोलियार 21 ऐआर 22 रहदौलीयार
23 अवधियार 24 पुतियार 25 उल्लार्क.26 लोलार्क.27 बालार्क 28 कोणार्क 29 पुण्डार्क 30 चारणार्क
31 मार्कंडेय 32 देवडीहा 33 गुन्सइयाँ 34 महुरसिया 35 डूमरौरी 36 सपहा पाठक 37 गुलसैया
38 मल्लौर्क 39 हरहसिया 40 देवलसिया 41 वरुणार्क 42 कुण्डार्क 43 विलसैया 44 श्वेतभद्र
45 पंचकंठी 46 डूडरियार 47 पठकौलियार 48 पंचहाय 49 सियरी 50 कुकरौंधा 51 मोरियार
52 मिहिर/मिहीमगौरियार 53 वेरियार 54 मेहोशवार 55 सौरियार 56 पुनरखिया 57 देवहाय
58 शुंडार्क 59 यत्थय 60 ठकुर मेराँव 61 डिहिक 62 भड़रियार 63 चंडरोह 64 खजुरहा
65 पट्टिश 66 काझ 67 कपिश्य 68 परसन 69 खंडसूपक 70 बालिबाघ 71 पिपरोहा 72 बड़सापी
इसप्रकार मगद्विजों से उपकृत होकर साम्ब को स्वप्न में भगवान भास्कर की तैरती हुई मूर्ति चंद्रभागा नदी में दिखाई दी । अगले ही दिन उसी तरह की मूर्ति साक्षात् देख उन्होंने चंद्रभागा के तट पर एक सूर्यमंदिर का निर्माण कराकर मगद्विजों से पूजा-अर्चना करवायी ।
"ततो गच्छेम महादेवि मूलस्थानममिति श्रुतम् । देवीकायास्तटरम्ये भास्करं वारितस्करम् ।"
अन्य साक्ष्यों के अनुसार शाकद्वीपीय ब्राह्मण ईरान के भी सबसे पुराने 'मेंदेश साम्राज्य' के पुजारी थे। मेदेशों के इतिहास से पता चलता है कि वे पारसी धर्म के भी पुजारी थे। यहूदी धर्म के 'मागी' और 'मागुस' ब्राह्मण पुरोहित थे । यहूदियों के शासन में ज्योतिष का बड़ा महत्त्व था । बाइबल ( matt.2:1) के अनुसार तत्कालीन मग ब्राह्मणों ने ईसामसीह के जन्म पर उनका ईश्वर होना पुष्ट किया था ।
मगों को जोरोस्टर ( जिसका जन्म पर्शिया में हुआ था ) का अनुयायी भी बताया जाता है । भविष्यपुराण के अनुसार 'मग ब्राह्मण' 'जरसस्त' के वंशज थे । प्रसिद्द इतिहासकार Dr. Bhandarkar (1911) के अनुसार मगब्राह्मणों ने शक् संवत (78 ई.) चलाने वाले कुषाणसम्राट 'कनिष्क' के समय में ही सूर्य एवं अग्नि के उपासक के रूप में भारत में प्रवेश किया । इसके लिए तर्क यह है कि शाकद्वीपी प्रधानता वाले इलाके में अधिकांश सूर्य-मूर्तियाँ द्विभुज मिलती हैं । इनके कंधे पर सूर्यमुखी के फूल असाधारण हैं । सूर्य के पैरों में बूट मिलते हैं जबकि बूटधारी हिन्दू देवता नहीं मिलते । वही बूट हमें मथुरा से मिली कनिष्क की प्रतिमा के पैरों में दिखाई पड़ते हैं ।
मग व भोजक शाकद्वीपीय ::::
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शाकद्वीप से भारत आये सूर्योपासक पुरोहित मग एवं भोजक श्रेणियों में वर्गीकृत हैं ।पुराणों के आतंरिक साक्ष्यानुसार मग- भोजक में अंतर केवल इतना ही है कि सूर्य का ध्यान करने वाले मग ( म = मन्त्र + ग = गुरु मन्त्र गान ) कहलाये ( सूर्यो गायन्ति इति मगाः) एवं धूप-दीप-माला एवं विभिन्न उपहारों से सूर्य को भोग लगाने वाले 'भोजक' कहलाये ।
" धूपमाल्यैर्मताश्चापि उपहारैस्तथैव च। भोजयन्ति सहस्रांशुं तेन ते भोजकाः स्मृताः ।।"
शाकद्वीपीय ब्राह्मण व सूर्यमंदिर :::
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भोजक पुरोहित ही सूर्य का निर्माण कर अपनी पद्धति से सूर्योपासना करते आये हैं । शाम्ब ने देश के 12 स्थानों पर भव्य सूर्य मंदिर बनवाये । उलार्क, पुण्यार्क, देवार्क, औंगार्क, लोलार्क, चाणार्क एवं कोणार्क उन मंदिरों में से ही हैं । इनके अतिरिक्त भी कई सूर्यमंदिर देशभर में हैं जिनसे शकद्वीपियों का गहरा नाता है ।
शाकद्वीपीय ब्राह्मण व भारतीय राजवंश की अन्य जातियाँ :::
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'शुंग ' राजाओं (जो मगी ब्राह्मण थे ) का काल वैदिक अथवा ब्राह्मण धर्म का पुनर्जागरण काल था । श्रीमती देबाला मित्रा के अनुसार --" Magas did not confine themselves to Shambputra .They soon spread over parts of India .They contributed much more to India ."
ईसा पूर्व पहली शताब्दी से तीसरी शताब्दी तक भारत का बहुत बड़ा हिस्सा 'शकों' के हाथ में था । एक अध्ययन के अनुसार शकों से शाकद्वीपीय ब्राह्मण, चौहान, बनाफर, जाट एवं कुछ अन्य भारतीय जातियों का सम्बन्ध रहा है ।
गोबी से वोल्गा और पश्चिमी कारपाथिया तक शकों का निवास था ।दक्षिण की ओर भारत तक आये 'शक' 'पूर्वी शाक द्वीप' के थे ।
Dr K.R.Kama ( Institute Journal) के अनुसार -" King 'Harshvardhan' ( AD 606- 648) , his father :Prabhakarvardhan' and his father ' Rajyavardhan' were all Sun- Worshippers and descendants of Mag Brahmins."
रूस(Russia), सूर्य , संस्कृत व शाकद्वीपीय..
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आज भी रूसी लोग जाड़ों में उसी तरह के जूतों को पहनते हैं जो कनिष्क और सूर्य की प्रतिमाओं में मिले हैं । ईसाई होने से पहले रूसी भी सूर्य- पूजा करते थे और आज भी घी में पके फल 'लाल चीले' खाते हैं जो ठीक उसी प्रकार के होते हैं जैसे पूर्वांचली व्रत 'छठ' के अवसर पर बनने वाले 'ठेकुआ' होते हैं । रूसी भाषा में अनेक शब्द ऐसे हैं जो संस्कृत से प्रभावित लगते हैं ; जैसे-- बोग(भग), बोगाच(भगक), विक( वृष), वोल्क( वृक), दात(दान), दवात(दाति),द्वेर(द्वार), व देन(दिन) इत्यादि ।
निष्कर्ष :::
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इस प्रकार ब्राह्मण का इतिहास इतना बड़ा व गहरा है कि एक बार डुबकी लगाई तो निकलना मुश्किल । सिर्फ शाकद्वीपीय ब्राह्मण को ही देख लें, भारत से लेकर आर्याण (ईरान) और ग्रीक से शुरू कर रूस तक चले गए ।इसी प्रकार 'पुष्करणा ब्राह्मण' भारत से शुरू होकर पारस ( पर्शिया ) तक, 'दाधीच ब्राह्मण' का इतिहास भारत से अरब तक, 'सारस्वत ब्राह्मणों'का इतिहास सरस्वती नदी से मध्य एशिया तक , 'श्रीमाली ब्राह्मणों ' का इतिहास रेगिस्तान से श्रीलंका तक , 'सरयूपारीण' का इतिहास सुवर्णद्वीप( सुमात्रा) तक एवं भूमिहार ब्राह्मणों का इतिहास मगध से सुमेर (कम्बोडिया) तक चला जाता है ।
इसीलिए कहते हैं पृथ्वी गोल हैं । अंततः सारी जातियाँ व उपजातियाँ कहीं न कहीं से संवद्ध हैं । अर्थात् "बसुधैव कुटुम्बकम् " ।
धन्यवाद !
स्रोत/आभार
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