Wednesday, 29 March 2017
असम्भव कुछ नहीं


Mantra Tantra Yantra Vigyan:#3 PART(NARAYAN / PRACHIN / NIKHIL-MANTRA SADHANA VIGYAN) Rejuvenating Ancient Indian Spiritual Sciences - Narayan | Nikhil Mantra Vigyan formerly Mantra Tantra Yantra Vigyan is a monthly magazine containing articles on ancient Indian Spiritual Sciences viz. Nothing impossible असम्भव कुछ भी नही बस आप में इच्छा शक्ति होनी चाहिए। आप में कुछ खास है बस आप को उसे बहार निकलना है। आप एक आम इंसान से महान बन सकते है। सोचना अभी से शुरू करे कल बहुत देर हो जायेगी|निखिलेश्वरनंद)
 ▼
Friday, April 25, 2014
sadhan saflta rahsya गुरु-पुष्य नक्षत्र योग क्या है
जब भी गुरु पुष्य नक्षत्र हो ,उस अवसर पर पाठकों के लिए प्रस्तुत है
गुरु-पुष्य नक्षत्र कि महत्वता को दर्शाता ये महत्वपूर्ण लेख -
क्या ऐसा कोई योग है जिसमें किसी भी साधना में निश्चित सफलता मिलती ही है ? क्या ऐसा कोई दिन है जब व्यापार/शुभ कार्यादी करें तो उसमें हर हाल में उन्नति होती है ?? क्या ऐसा भी कोई अवसर है, जो अक्षय तृतीय एवं धनतेरस के बराबर महत्व रखता है ?
गुरु-पुष्य नक्षत्र योग क्या है
‘पाणिनी संहिता’ में “पुष्य सिद्धौ नक्षत्रे” के बारे में यह लिखा है-
सिध्यन्ति अस्मिन् सर्वाणि कार्याणि सिध्यः | पुष्यन्ति अस्मिन् सर्वाणि कार्याणि इति पुष्य ||
अर्थात पुष्य नक्षत्र में शुरू किये गए सभी कार्य सिद्ध होते ही हैं.. फलीभूत होते ही हैं | पुष्य शब्द का अर्थ ही है कि जो अपने आप में परिपूर्ण है.. सबल है.. पूर्ण सक्षम और पुष्टिकारक है..| हिंदी शब्दकोष में ‘पुष्टी’ शब्द का निर्माण संस्कृत के इसी पुष्य शब्द से हुआ | २७ नक्षत्रों में से एक ‘पुष्य नक्षत्र’ है, और इस दिन जब गुरुवार भी हो तो उसे गुरु पुष्य नक्षत्र या ‘गुरु पुष्यामृत योग’ कहते हैं | इस दिन कोई भी साधना अवश्य शुरू करें, और आँख मूँद कर उसकी सिद्धि का यकीन करें और पूर्ण तन्मयता के साथ सहना संपन्न करें | गरूर साधना और गुरु पूजन तो प्रत्येक शिष्य को इस दिन करना अनिवार्य ही है |
पूज्य गुरुदेव ने गुरु पुष्य की विशेषता स्पष्ट करते हुए कहा है, कि सभी योग विरुद्ध हों, तो भी पुष्य नक्षत्र में किया गया कार्य सिद्ध हो जाता है | पुष्य नक्षत्र अन्य सभी योगों के दोषों को दूर कर देता है, और पुष्य के गुण किसी भी दुर्योग द्वारा नष्ट नहीं हो सकते !
गुरु पुष्य में कौन सी साधना संपन्न करें ?
सामान्य लोग इस दिन स्वर्ण खरीदते हैं, यदि धनतेरस के दिन स्वर्ण/रजत नहीं खरीद पाए तो इस दिन खरीद सकते हैं, इससे भी निरंतर श्री वृद्धि होती रहती है | इसके साथ ही कोई नई वस्तु, नया कारोबार, वाहन गृह प्रवेश आदि कर सकते हैं, इस दिन जो भी खरीदते हैं वह स्थायी संपत्ति सिद्ध होती है |
साधकों को इस दिन लक्ष्मी या श्री से सम्बंधित साधना करनी चाहिए | साथ ही किसी भी प्रकार की साधना चाहे सौन्दर्य से सम्बंधित हो, कार्य सिद्धि हो, विद्या प्राप्ति के लिए हो, कर सकते हैं | इस दिन आप किसी भी यन्त्र का लेखन करके उसको प्राण-प्रतिष्ठित कर सकते हैं | इस दिन आप किसी भी रत्न को सिद्ध कर सकते हैं |
शिष्यों को इस दिन गुरु पूजन और गुरु मंत्र का जप अवश्य करना चाहिए |
गुरु पुष्य में क्या ‘नहीं’ करना चाहिए ?
सभी शुभ कार्यों को इस दिन संपन्न किया जा सकता है, केवल एक को छोड़कर..... ‘विवाह संस्कार’.. शाश्त्रों में उल्लेखित है कि एक श्राप के अनुसार इस दिन किया हुआ विवाह कभी भी सुखकारक नहीं हो सकता | माता सीता का प्रभु राम से विवाह इसी योग में हुआ था |
आखिर इस योग के सिद्धिदायक होने के पीछे रहस्य क्या है ??
इसका कारण यह है कि इस विशेष योग में जो नक्षत्र आकाश मंडल में मौजूद होता है, पुष्य नक्षत्र, इसके स्वामी ग्रह शनि हैं | शनि ग्रह स्थायित्व प्रदान करने वाले हैं.. इनकी चाल अत्यंत धीमी होती है, जो भी Astronomical Science के student हैं वे इस बात को भली प्रकार से जानते ही होंगे | और इस दिन गुरुवार हो, तो, गुरु जो स्वर्ण, धन, ज्ञान के प्रतीक हैं, और सर्व सिद्धिदायक हैं, जो सभी ग्रहों में सर्वाधिक शुभ फल दी वाले हैं, इनके प्रभाव से प्रत्येक कार्य सिद्ध भी होता है.. और शनि के कारण स्थायी भी होता है | शनि एकांत प्रदान करते हैं, जो कि साधना के लिए आवश्यक अंग है |
Hirendra Pratap Singh at 5:36 PM No comments:
Share

युद्धम् देहि yuddham dehi

सद्गुरुदेव ने यह साफ़ कहा था की मैंने तुम्हे अपने खून से इसलिए सींचा है क्योंकि आने वाले समय में समाज में छल , जूठ ,पाखंड अपनी पराकाष्ठा पर होगा, उस समय तुम्हे सिंह वत उस पाखंड पर प्रहार करना है और समाज में फिर से सनातन धर्म को अपनी भव्यता के साथ स्थापित करना है।
इस वीडियो में सद्गुरुदेव ने स्वयं यह आदेश दिए है की अगर कोई भी निखिल नाम के आड़ में व्यवसाय करे तो यह आपका कर्तव्य है की ऐसे व्यक्तियों को मुह तोड़ जवाब दीजिये.....
मैं गीदड़ो की तरह भेर चाल चलने का आदि नहीं हूँ मेरे रक्त में सद्गुरुदेव का लहू दौड़ रहा है ..... मैंने यह लड़ाई अकेले ही अपने दम पर प्रारम्भ की थी, अगर इस लड़ाई में कोई मेरा साथ दे तो उसका स्वागत है अगर नहीं दे तो मै अकेले ही इन पाखंडियो को उनकी औकात दिखने में सक्षम हूँ। ...
इस वीडियो को एक बार जरूर सुन ले ताकि अगर आपके अन्दर पाखंड के विरुद्ध आवाज उठाने की छमता नहीं है तो कम से कम आप पाखंडियो का साथ न दें
पर मै सनातन धर्म की पुनर्स्थापन लिए यह लड़ाई अपने अंतिम सांस तक लड़ता रहूँगा....
http://www.youtube.com/watch?v=gun1RfAXos0&feature=share&list=PLo6ZpeYNN6rKhy-fFodAw7aaUdQFJCdDx&index=4
युद्धम् देहि
जय निखिलेश्वर जय महाकाल
Hirendra Pratap Singh at 5:25 PM No comments:
Share

Meet and would miss the compulsion of life

मिलना और बिछुड़ना दोनों जीवन की मजबूरी है।
उतने ही हम पास रहेंगे, जितनी हममें दूरी है।
शाखों से फूलों की बिछुड़न, फूलों से पंखुड़ियों की
आँखों से आँसू की बिछुड़न, होंठों से बाँसुरियों की
तट से नव लहरों की बिछुड़न, पनघट से गागरियों की
सागर से बादल की बिछुड़न, बादल से बीजुरियों की
जंगल जंगल भटकेगा ही जिस मृग पर कस्तूरी है।
उतने ही हम पास रहेंगे, जितनी हममें दूरी है।
सुबह हुए तो मिले रात-दिन.. माना रोज बिछुड़ते हैं
धरती पर आते हैं पंछी.. चाहे ऊँचा उड़ते हैं
सीधे सादे रस्ते भी तो ..कहीं कहीं पर मुड़ते हैं
अगर हृदय में प्यार रहे तो..टूट टूटकर जुड़ते हैं
हमने देखा है बिछुड़ों को मिलना बहुत जरूरी है।
उतने ही हम पास रहेंगे, जितनी हममें दूरी है।
hirendra jay sadgurudev
Hirendra Pratap Singh at 5:14 PM No comments:
Share

Must ask you this coming time

आने वाला समय तुमसे ये अवश्य पूछेगा Must ask you this coming time
जीवन में ऊंचा उठना हैं और यदि नहीं उठते हैं तो यह जीवन व्यर्थ हैं, क्योंकि ऊंची सीढ़ी पर चढ़ना बहुत कठिन हैं, नीचे फिसलना बहुत आसान हैं ! दस सीढियों से नीचे उतरने में एक सेकंड लगता हैं, परन्तु दस सीढ़ी चढ़ने में आपको बीस सेकंड लगेंगे ! एक-एक सीढ़ी चढ़नी पड़ेगी, आपको नित्य बार-बार सोचना पड़ेगा कि :-
मैं शिष्य बन रहा हूँ या नहीं बन रहा हूँ ! क्या मेरे अन्दर राक्षस वृत्ति पनप रही हैं या सदगुणों का विकास हो रहा हैं? मेरा जीवन कैसा व्यतीत हो रहा हैं – अपने आप में विश्लेषण करना जीवन की श्रेष्ठता हैं, महानता हैं, और यह वह व्यक्ति कर सकता हैं, जो अपने आप में बिल्कुल शिष्यवत बनकर गुरु के पास रहने का सामर्थ्य रखता हैं, और शंकराचार्य कहते हैं, ऐसे ही व्यक्ति गुलाब के फूल बनते हैं, जो सही अर्थों में गुरु के लिए अपने आपको समर्पित कर देते हैं !
शंकराचार्य कहते हैं जीवन का श्रेष्ठतम शब्द “शिष्य” हैं और शिष्य वह होता हैं जो अपनी जान को हथेली पर लेकर चलता हैं ! दो तरह के व्यक्ति होते हैं – एक व्यक्ति सदगुणों का आगार होता हैं, भंडार होता हैं, एक व्यक्ति षडयंत्र का भंडार होता हैं ! जो कि चौबीसों घंटे यही सोचता कि मैं कैसे छल करूँ? कैसे झूठ बोलूं? कैसे प्रपंच रचूं, कैसे इनको फुसलाऊं? कैसे इनमें फ़ुट डालूं? कैसे इन दोनों को लडाऊं? कैसे अपने आप को श्रेष्ठ सिद्ध करूँ?
परन्तु शिष्य के चित्त पर इन सबका प्रभाव नहीं पड़ता, वे समझते हैं कि मैं क्या हूँ ! जो सही अर्थों में शिष्य हैं और जिनके अन्दर सदगुण हैं, वे असदगुणों को तुंरत भांप लेते हैं, जो गुलाब के फूलों के बीच रहते हैं, जब थोडी सी भी नाली कि दुर्गन्ध आती हैं तो वे भांप लेते हैं कि यहाँ दुर्गन्ध हैं, कहाँ से नाली बह रही हैं, यह मालूम नहीं, पर दुर्गन्ध हैं अवश्य, और उन्हें एहसास होता हैं कि उन्हें दुर्गन्ध से दूर हट जाना हैं !
ऐसा शिष्य या तो किनारा करके खड़ा हो जाता हैं या फिर उस सुगंध में स्वयं को व्याप्त करने के लिए तैयार हो जाता हैं ! मगर वह नाली का कीडा नहीं बनता, और नाली का कीडा बनकर हज़ार साल भी जीवित रहने की अपेक्षा दो दिन जीवित रहना ज्यादा अच्छा हैं ! वह अपने गुरु की रक्षा करने के लिए उनकी आज्ञा पालन करने के लिए, अपने जीवन को भी आत्मोत्सर्ग करने के लिए, वह तैयार रहता हैं – यही जीवन की श्रेष्ठता का एक मापदंड हैं !
यदि हमने गुरु के लिए अपने आप को न्यौछावर ही नहीं किया, तो जीवन व्यर्थ हैं ! जीवन में एक तरफ ऐसे व्यक्ति हैं जो गुरु हैं और जीवन में गुलाब के फूल तो चार पॉँच ही खिलेंगे और यदि चार पॉँच फूल भी टूट गए तो फिर कांटे ही जीवन में रह जायेंगे ! जहाँ भी जाओगे, तुम्हें कांटे ही मिलेंगे ! उन काँटों के बीच जीवित नहीं रहना हैं, क्योंकि अगर उन फूलों को जीवित रखना हैं तो उन काँटों को तोड़ना ही पड़ेगा, उन काँटों को तोडेंगे तो फूल विकसित होंगे, आसपास की घास खोदेंगे तो फूल का विकास होगा !
और हमने जीवन में काँटों का विकास किया, या फूलों का विकास किया, काँटों की रक्षा के लिए अपने क्षणों को व्यतीत किया या फूलों की रक्षा के लिए अपने क्षणों को व्यतीत किया, यह चिंतन का विषय हैं ! हमने अपने जीवन के कितने क्षण उस गुरु को दिए? कितना समय उनके लिए दिया? किस प्रकार से उनको बचाया? किस प्रकार से उनकी सेवा की, यह जीवन का एक उच्च स्तरीय सोपान हैं ! यह जीवन का एक उच्च स्तरीय मापदंड हैं, अपने आपको नापने की एक क्रिया हैं, और यही स्थिति शिष्यता कहलाती हैं ! शिष्य शब्द से ही सेवा शब्द बना हैं और सेवा का मतलब हैं उन गुलाब के फूलों को विकसित करने में सहयोग देना और सहयोग देने के लिए तूफ़ान आंधी के बीच में तन कर के खड़े हो जाना, क्योंकि अगर वे ही गिर गए तो चारों तरफ़ नाली के कीड़े बहने लग जायेंगे ! फिर हमारा जीवन अपने आप में व्यर्थ हो जाएगा, फिर हमारे जीवन का कोई अर्थ नहीं रह पायेगा !
मैंने तो सैकडों प्रकार के जीवन जीये हैं, गृहस्थ शिष्यों के बीच में भी रहा हूँ, सन्यासी शिष्यों के बीच भी रहा हूँ ! सन्यासियों में भी कई हलके स्तर के भी होंगे, कुछ बहुत अच्छे स्तर के भी हैं, जिनके नाम आज भी मेरे चित्त पर बहुत गहरी स्याही से लिखे हैं और और आज भी मैं उनके संपर्क में हूँ !
कृष्ण के भी तीर लगा तो उनको भी खून निकला ही निकला, राम को भी अगर रावण के तीर लगे तो उनके शरीर में भी कम से कम 108 छेद हो ही गए थे ! वह तो एक शरीर हैं, उस शरीर के अन्दर ईश्वरत्व हैं, उस शरीर के अन्दर गुरुत्व हैं, उस शरीर के अन्दर शिष्यत्व हैं !
आपने अपना जीवन किस तरीके से व्यतीत किया हैं और गुरु ने अपना जीवन किस तरीके से व्यतीत किया यह महत्वपूर्ण हैं ! क्या गुरु तुम्हारे बराबर सहयोगी रहे? क्या गुरु तुम्हें बार-बार प्रेम से बोलते रहे? क्या गुरु ने तुम्हें कभी गालियाँ दी? क्या गुरु ने तुमसे कभी षड़यंत्र किया? नहीं किया! तो तुम्हें भी कोई अधिकार नहीं हैं कि उनके प्रति षडयंत्र करें, उनके प्रति झूठ बोलें, या उनके प्रति छल करें, उनके प्रति तूफ़ान को आने दें ! गुरु को मानसिक शांति मिले, यही हमारा धर्म काल गणना हो ! इसलिए शंकराचार्य कहते हैं कि जन्म से लेकर मृत्यु तक चाहे आप व्यापारी हैं, चाहे नौकरी पेशा हैं, चाहे आप किसी भी क्षेत्र में हैं, आप शिष्य हैं !
मृत्यु के क्षण तक भी शिष्य हैं, शिष्य का अर्थ हैं कि आप क्या जीवन में सीख रहे हैं? आप क्या कर रहे हैं और आप किसके लिए क्या कर रहे हैं? क्या अपने लिए? हमने दूसरों के लिए क्या किया वह महत्वपूर्ण हैं !
अपने आपको बलिदान नहीं कर दिया तो शिष्य कैसे हुए? आगे भी चाहे गुरु तुम्हारे पास नहीं होगा, परन्तु वह सुगंध तुम्हारे पास व्याप्त होगी कि हमने कुछ क्षण ऐसे व्यक्ति के साथ बिताये हैं जिनमें ज्ञान था, चेतना थी, जो सही अर्थों में व्यक्तित्व था, मगर जिसे तूफानों के बीच धकेल दिया हमने !
और तूफ़ान के बीच तो अच्छे से अच्छा गुलाब भी मुरझाकर के टूटकर गिर जाता हैं, अच्छे से अच्छा राम भी बाणों का शिकार होकर गिर जाता हैं, अच्छे से अच्छा कृष्ण भी एक तीर लगने से मृत्यु को प्राप्त हो जाता हैं, लेकिन – नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि… ! !
शंकराचार्य ने इस श्लोक में दूसरा शब्द लिया हैं प्रेम ! कि जिसके हृदय में प्रेम हैं वह गलती कर ही नहीं सकता ! और प्रेम केवल एक के साथ ही हो सकता हैं, दस लोगों के साथ नहीं हो सकता ! दस के साथ सहानुभूति हो सकती हैं, दस लोगों के साथ अटैचमेंट हो सकता हैं, चालीस लोगों के साथ परिचय आपका हो सकता हैं, प्रेम नहीं हो सकता ! प्रेम तो केवल एक व्यक्ति से होगा – या तो ईश्वर से होगा या गुरु से होगा या किसी से भी होगा और जिसके प्रति प्रेम हैं उसके प्रति जान न्यौछावर होती हैं ! भक्त अपने आपको पूर्ण रूप से समर्पित कर देता हैं !
आपका प्रेम केवल एक के साथ हो सकता हैं – या तो काँटों के साथ हो सकता हैं या गुलाब के फूलों के साथ हो सकता हैं ! दोनों से एक साथ नहीं हो सकता ! यह आप पर निर्भर हैं कि आप काँटों के साथ प्रेम करते कि आप गुलाब के साथ प्रेम करते हैं ! मगर शंकराचार्य कहते हैं कि अपने जीवन को उच्चता तक पहुचाने के लिए आपको इसी क्षण से परिवर्तित होना पड़ेगा या तो आप नीचे धरातल पर चले जायेंगे, या फिर ऊंचाई पर चले जायेंगे ! यह फिर आपके हाथ में हैं या तो आप षडयंत्रकारी बन जायेंगे या गुलाब के फूल बन जायेंगे या तो कांटे बन जायेंगे !
यह अपने आप में भगवान को धोखा देने की क्रिया हैं, अपने आप को धोखा देने की क्रिया हैं ! यदि आपके शरीर में सुगंध हैं आप में यदि प्रेम हैं तो आप वास्तव में उच्चता पर स्थित हैं ! प्रेम का अर्थ हैं अपने आप को मिटा देने की, फ़ना कर देने की क्रिया, उसके लिए अपने आपको न्यौछावर कर देने की क्रिया, तिल-तिल कर के जल जाने की क्रिया ! यदि ऐसा हैं तो जीवन की सार्थकता हैं !
इतिहास नहीं क्षमा करेगा, फिर तुम्हारे जीवन का अर्थ क्या रहेगा? यदि तुम्हारे जीवन का मूल्य क्या रहेगा? फिर तुम शिष्य कैसे बनोगे? शिष्य वह तो हैं ही नहीं कि दीक्षा दी वही शिष्य हैं ! यह तो जन्म से लगाकर के मृत्यु तक की सारी क्रिया शिष्यता हैं, आप सीढियों पर चढ़ रहे हैं या उतर रहे हैं – यह शिष्यता हैं, आप तूफानों से टक्कर ले रहे हैं या तूफानों का शिकार हो रहे हैं – यह शिष्यता हैं, आप मन्दिर को गिरता देख रहे हैं या मन्दिर को बचाने में तत्पर हैं, यह शिष्यता हैं ! आपने गिरजाघर को गिरने दिया या बचाया, आपने गुरुद्वारे को समाप्त किया या बचाया, यह शिष्यता हैं !
और गुरु की पहिचान तो अपने आप में मन की आंखों से ही सम्भव हैं ! अगर प्रेम का अंकुर फुटा ही नहीं, तो आपने गुरु को पहचाना ही नहीं ! पहचान ले जिससे प्रेम का वह अंकुर तेजी से बढ़ने लगे क्योंकि तुम्हारे अन्दर प्रेम हैं तो परन्तु तुमने उसे जागने नहीं दिया हैं ! इसलिए जागने नहीं दिया कि उसके ऊपर घृणा, बहार की हवा, तूफ़ान हावी हो गए ! तुम भाग बन गए उसके, और उस प्रेम को तुमने दबा दिया ! ज्योंही अंधेरे को हटाया, छल को हटाया तो प्रेम का अंकुर फूटा, फूटा और तुम्हारा चेहरा मुस्कराहट से खिल गया, तुम्हारे शरीर से सुगंध निकलने लगी, तुम्हारा शरीर सुगन्धित, सुवासित होने लगा, एक महक आने लगी, एक आंखों में सुरूर पैदा हुआ, एक जिंदगी की धड़कन पैदा हुयी और उसकी रक्षा के लिए अपने आप को तैयार कर दिया, उसके लिए अपने आपको न्यौछावर कर दिया, उसके लिए अपने आपको आत्मोत्सर्ग कर दिया !
आपने क्या दिया, यह आपका अपना गणित हैं ! मैं आशीर्वाद देता हूँ कि आपके हृदय में प्रेम का अंकुर फूटे, आप किसी की ढाल बन सकें, आपके मन में जो घृणा दूसरो ने भर दी हैं, जो षडयंत्र, डर, भय, आतंक हैं उनको आप हटा कर निर्भीक हों ! आप निर्भीक है तो जीवित हैं, जाग्रत हैं, डरे हुए हैं तो आप अधम, गये बीते हैं ! जब भय रहित होंगे तब प्रेम व्याप्त हो पायेगा ! ऐसे ही आप भय रहित, निर्भय होकर के अपने अन्दर के गुलाब को, प्रेम को विकसित करें और आप आत्मोत्सर्ग हो सकें और एक ज्ञान के दीप को, एक गुलाब के फूल को जीवित, जाग्रत, चैतन्य बनाएं रख सकें, जिससे कि वह सुगंध चारों तरफ फ़ैल सकें ! यही आपके जीवन की क्रिया बने, ऐसे ही मैं हृदय से आशीर्वाद देता हूँ, कल्याण कामना करता हूँ !
गुरु वाणी, परमपूज्य गुरुदेव निखिलेश्वरानंद, Mantra Tantra Yantra Vigyan by Gurudev Dr. Narayan Dutt Shrimaliji

4/23, 1:39pm
Hirendra Pratap Singh
जीवन में तुम्हें रुकना नहीं है, निरंतर आगे बढ़ना है क्यूंकि जो साहसी होते हैं, जो दृढ़ निश्चयी होते हैं जिनके प्राणों में गुरुत्व का अंश होता है, वही आगे बढ़ सकता है.. और इस आगे बढ़ने में जो आनंद है, जो तृप्ति है, वह जीवन का सौभाग्य है.
***
गृहस्थ से भागने की जरुरत नहीं है, जरुरत है, एक तरफ खड़े होकर देखने की, तुम्हारी एक आँख गृहस्थ में हो, तो दूसरी आँख गुरु चरणों में नमन युक्त होनी चाहिए. तब तुम्हारे जीवन में कोई न्यूनता रहेगी ही नहीं क्यूंकि वह नमन युक्त आँख तुम्हारे जीवन को पूरी तरह से संवार देगी, सजग कर देगी, प्रकाशित कर देगी.
***
उन सन्यासी शिष्यों ने मेरे आनंद का अमृत चखा है, और इसलिए वो मेरी उपस्थिति के बिना भी मस्त हैं, चैतन्य हैं, नृत्य युक्त हैं, और मैं वही अमृत बांटने आया हूँ, तुम इस अमृत को तृप्ति के साथ चखो, और तुम्हें एहसास होगा की तुम्हारा जीवन संवर गया है, तुम्हारा जीवन जगमगाहट देने लगा है.
***
पिछले जीवन में तुम्ही तो थे, जो मुझसे अलग हुए थे, मैं तुम्हें आवाज़ दे रहा था और तुम नकली स्वप्नों के पीछे पीठ मोड़कर भाग रहे थे, और तुमने अपने कान मेरी आवाज़ सुनने के लिए बंद कर दिए थे, और उसी का परिणाम तुम्हारी ये चिंताएं हैं, ये परेशानियाँ हैं, ये जीवन की बाधाएं हैं.
***
तुम्हें जीवन में कुछ भी विचार करने की जरुरत नहीं है, क्यूंकि मैं प्रतिक्षण प्रतिपल तुम्हारे साथ हूँ, मुझे मालुम है की तुम्हें किस लक्ष्य तक पहुँचाना है, तुम्हें तो चुपचाप अपना हाथ मुझे सौंप देना है आगे का कार्य तो मेरा है.
***
तुम्हें साधना के और सिद्धियों के मोती नहीं मिल रहे हैं, तो यह कसूर तो तुम्हारा ही है, क्यूंकि तुम्हें समुद्र में गहरायी के साथ उतरने की क्रिया नहीं आई, तुममे पूर्ण रूप से डूबने का भाव नहीं आया, गुरु के ह्रदय सागर में निश्चिंत होकर दुबकी लगाने की क्षमता नहीं आई, और जिस दिन तुम गहराई के साथ गुरु के ह्रदय में डूब सकोगे, तब वापिस बाहर आते समय तुम्हारी दोनों हथेलियाँ “सिद्धि” के मोतियों से भरी होंगी.
***
शिष्य का तात्पर्य नजदीक आना है, और ज्यादा नजदीक, इतना नजदीक, कि गुरु के प्राणों में समा जाये, एकाकार हो जाये, गुरु की धड़कनों में अपनी धडकनें मिला ले, और जब ऐसा होगा तो तुम्हारे अन्दर स्वतः गुरुत्व प्रारम्भ हो जायेगा, स्वतः दिव्यत्व प्रारम्भ हो जाएगा, और स्वतः सिद्धियाँ तुम्हारे सामने नृत्य करती सी प्रतीत होंगी.
".पहाड़ चढ़ने का एक उसूल है....झुक के चलो , दौड़ो मत ..... ज़िंदगी भी बस इतना ही मांगती है......... "ठोकरे खा कर भी ना संभले तो, मुसाफिर का नसीब। वरना पत्थरों ने तो, अपना फ़र्ज़ निभा दिया।
" तेरा इंतजार, किसी मुकदमें से कम नहीं... हर बार नई तारीख मिलती हो जैसे ========== ना डूबने देता है, ना उबरने देता है, उसकी आँखों का वो समंदर अजीब है... ..! "
खुशियां कम और अरमान बहुत हैं, जिसे भी देखिए यहां हैरान बहुत हैं,,
करीब से देखा तो है रेत का घर, दूर से मगर उनकी शान बहुत हैं,,
कहते हैं सच का कोई सानी नहीं, आज तो झूठ की आन-बान बहुत हैं,,
मुश्किल से मिलता है शहर में आदमी, यूं तो कहने को इन्सान बहुत हैं,,
तुम शौक से चलो राहें-वफा लेकिन, जरा संभल के चलना तूफान बहुत हैं,,
वक्त पे न पहचाने कोई ये अलग बात, वैसे तो शहर में अपनी पहचान बहुत हैं।।।
"कभी किसी दूसरे की मुस्कान की वजह भी बन कर देखें, ज़िन्दगी में कभी निराशा और उदासी आपके आस पास भी नहीं आ पाएगी.. "
Hirendra Pratap Singh at 5:03 PM No comments:
Share

Saturday, April 19, 2014
tantrot guru pojan nikhil jan utsav sadhana

-- तांत्रोक्त गुरु पूजन --निखिल जन्म उत्सव साधना
इस साधना के लिए प्रातः ब्रह्म मुहूर्त में उठ कर, स्नानादि करके, पीले या सफ़ेद आसन पर पूर्वाभिमुखी होकर बैठें| बाजोट पर पीला कपड़ा बिछा कर उसपर केसर से “ॐ” लिखी ताम्बे या स्टील की प्लेट रखें| उस पर पंचामृत से स्नान कराके “गुरु यन्त्र” व “कुण्डलिनी जागरण यन्त्र” रखें| सामने गुरु चित्र भी रख लें| अब पूजन प्रारंभ करें|
-- पवित्रीकरण --
बायें हाथ में जल लेकर दायें हाथ की उंगलियों से स्वतः पर छिड़कें -
ॐ अपवित्रः पवित्रो व सर्वावस्थां गतोऽपि वा |यः स्मरेत् पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यन्तरः शुचिः ||
-- आचमन --
निम्न मंत्रों को पढ़ आचमनी से तीन बार जल पियें -
ॐ आत्म तत्त्वं शोधयामि स्वाहा |
ॐ ज्ञान तत्त्वं शोधयामि स्वाहा |
ॐ विद्या तत्त्वं शोधयामि स्वाहा |
१ माला जाप करे अनुभव करे हमरे पाप दोस समाप्त हो रहे है। .
ॐ ह्रौं मम समस्त दोषान निवारय ह्रौं फट
संकल्प ले फिर पूजन आरम्भ करे ।
-- सूर्य पूजन --
कुंकुम और पुष्प से सूर्य पूजन करें -
ॐ आकृष्णेन रजसा वर्तमानो निवेशयन्नमृतं मर्त्यं च |हिरण्येन सविता रथेन याति भुनानि पश्यन ||
ॐ पश्येन शरदः शतं श्रृणुयाम शरदः शतं प्रब्रवाम शरदः शतं |जीवेम शरदः शतमदीनाः स्याम शरदः शतं भूयश्च शरदः शतात ||
-- ध्यान --
अचिन्त्य नादा मम देह दासं, मम पूर्ण आशं देहस्वरूपं |न जानामि पूजां न जानामि ध्यानं, गुरुर्वै शरण्यं गुरुर्वै शरण्यं ||
ममोत्थवातं तव वत्सरूपं, आवाहयामि गुरुरूप नित्यं |स्थायेद सदा पूर्ण जीवं सदैव, गुरुर्वै शरण्यं गुरुर्वै शरण्यं ||
-- आवाहन --
ॐ स्वरुप निरूपण हेतवे श्री निखिलेश्वरानन्दाय गुरुवे नमः आवाहयामि स्थापयामि |
ॐ स्वच्छ प्रकाश विमर्श हेतवे श्री सच्चिदानंद परम गुरुवे नमः आवाहयामि स्थापयामि |
ॐ स्वात्माराम पिंजर विलीन तेजसे श्री ब्रह्मणे पारमेष्ठि गुरुवे नमः आवाहयामि स्थापयामि |
-- स्थापन --
गुरुदेव को अपने षट्चक्रों में स्थापित करें -
श्री शिवानन्दनाथ पराशक्त्यम्बा मूलाधार चक्रे स्थापयामि नमः |
श्री सदाशिवानन्दनाथ चिच्छक्त्यम्बा स्वाधिष्ठान चक्रे स्थापयामि नमः |
श्री ईश्वरानन्दनाथ आनंद शक्त्यम्बा मणिपुर चक्रे स्थापयामि नमः |
श्री रुद्रदेवानन्दनाथ इच्छा शक्त्यम्बा अनाहत चक्रे स्थापयामि नमः |
श्री विष्णुदेवानन्दनाथ क्रिया शक्त्यम्बा सहस्त्रार चक्रे स्थापयामि नमः |
-- पाद्य --
मम प्राण स्वरूपं, देह स्वरूपं समस्त रूप रूपं गुरुम् आवाहयामि पाद्यं समर्पयामि नमः |
-- अर्घ्य --
ॐ देवो तवा वई सर्वां प्रणतवं परी संयुक्त्वाः सकृत्वं सहेवाः |अर्घ्यं समर्पयामि नमः |
-- गन्ध --
ॐ श्री उन्मनाकाशानन्दनाथ – जलं समर्पयामि |
ॐ श्री समनाकाशानन्दनाथ – स्नानं समर्पयामि |
ॐ श्री व्यापकानन्दनाथ – सिद्धयोगा जलं समर्पयामि |
ॐ श्री शक्त्याकाशानन्दनाथ – चन्दनं समर्पयामि |
ॐ श्री ध्वन्याकाशानन्दनाथ – कुंकुमं समर्पयामि |
ॐ श्री ध्वनिमात्रकाशानन्दनाथ – केशरं समर्पयामि |
ॐ श्री अनाहताकाशानन्दनाथ – अष्टगंधं समर्पयामि |
ॐ श्री विन्द्वाकाशानन्दनाथ – अक्षतां समर्पयामि |
ॐ श्री द्वन्द्वाकाशानन्दनाथ – सर्वोपचारां समर्पयामि |
-- पुष्प, बिल्व पत्र --
तमो स पूर्वां एतोस्मानं सकृते कल्याण त्वां कमलया सशुद्ध बुद्ध प्रबुद्ध स चिन्त्य अचिन्त्य वैराग्यं नमितांपूर्ण त्वां गुरुपाद पूजनार्थंबिल्व पत्रं पुष्पहारं च समर्पयामि नमः |
-- दीप --
श्री महादर्पनाम्बा सिद्ध ज्योतिं समर्पयामि |
श्री सुन्दर्यम्बा सिद्ध प्रकाशम् समर्पयामि |
श्री करालाम्बिका सिद्ध दीपं समर्पयामि |
श्री त्रिबाणाम्बा सिद्ध ज्ञान दीपं समर्पयामि |
श्री भीमाम्बा सिद्ध ह्रदय दीपं समर्पयामि |
श्री कराल्याम्बा सिद्ध सिद्ध दीपं समर्पयामि |
श्री खराननाम्बा सिद्ध तिमिरनाश दीपं समर्पयामि |
श्री विधीशालीनाम्बा पूर्ण दीपं समर्पयामि |
-- नीराजन --
ताम्रपात्र में जल, कुंकुम, अक्षत अवं पुष्प लेकर यंत्रों पर समर्पित करें -
श्री सोममण्डल नीराजनं समर्पयामि |
श्री सूर्यमण्डल नीराजनं समर्पयामि |
श्री अग्निमण्डल नीराजनं समर्पयामि |
श्री ज्ञानमण्डल नीराजनं समर्पयामि |
श्री ब्रह्ममण्डल नीराजनं समर्पयामि |
-- पञ्च पंचिका --
अपने दोनों हाथों में पुष्प लेकर निम्न पञ्च पंचिकाओं का उच्चारण करते हुए इन दिव्य महाविद्याओं की प्राप्ति हेतु गुरुदेव से निवेदन करें -
-- पञ्चलक्ष्मी --
श्री विद्या लक्ष्म्यम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |
श्री एकाकार लक्ष्मी लक्ष्म्यम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |
श्री महालक्ष्मी लक्ष्म्यम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |
श्री त्रिशक्तिलक्ष्मी लक्ष्म्यम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |
श्री सर्वसाम्राज्यलक्ष्मी लक्ष्म्यम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |
-- पञ्चकोश --
श्री विद्या कोशाम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |
श्री परज्योति कोशाम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |
श्री परिनिष्कल शाम्भवी कोशाम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |
श्री अजपा कोशाम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |
श्री मातृका कोशाम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |
-- पञ्चकल्पलता --
श्री विद्या कल्पलताम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |
श्री त्वरिता कल्पलताम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |
श्री पारिजातेश्वरी कल्पलताम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |
श्री त्रिपुटा कल्पलताम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |
श्री पञ्च बाणेश्वरी कल्पलताम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |
-- पञ्चकामदुघा --
श्री विद्या कामदुघाम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |
श्री अमृत पीठेश्वरी कामदुघाम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |
श्री सुधांशु कामदुघाम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |
श्री अमृतेश्वरी कामदुघाम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |
श्री अन्नपूर्णा कामदुघाम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |
-- पञ्चरत्न विद्या --
श्री विद्या रत्नाम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |
श्री सिद्धलक्ष्मी रत्नाम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |
श्री मातंगेश्वरी रत्नाम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |
श्री भुवनेश्वरी रत्नाम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |
श्री वाराही रत्नाम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |
श्री मन्मालिनी रत्नाम्बा प्राप्तिम् प्रार्थयामि |
-- श्री मन्मालिनी --
अंत में तीन बार श्री मन्मालिनी का उच्चारण करना चाहिए जिससे गुरुदेव की शक्ति, तेज और सम्पूर्ण साधनाओं की प्राप्ति हो सके -
ॐ अं आं इं ईं उं ऊं ऋं ॠं लृं ल्रृं एं ऐँ ओं औं अं अः |
कं खं गं घं ङं |
चं छं जं झं ञं |
टं ठं डं ढं णं |
तं थं दं धं नं |
पं फं बं भं मं |
यं रं लं वं शं षं सं हं क्षं हंसः सोऽहं गुरुदेवाय नमः |
-- मूल मंत्र --
ॐ निं निखिलेश्वरायै ब्रह्म ब्रह्माण्ड वै नमः |
इस मंत्र का मूंगा माला से १०१, ५१ माला जप करें |
-- प्रार्थना --
लोकवीरं महापूज्यं सर्वरक्षाकरं विभुम् |शिष्य हृदयानन्दं शास्तारं प्रणमाम्यहं ||
त्रिपूज्यं विश्व वन्द्यं च विष्णुशम्भो प्रियं सुतं |क्षिप्र प्रसाद निरतं शास्तारं प्रणमाम्यहं ||
मत्त मातंग गमनं कारुण्यामृत पूजितं |सर्व विघ्न हरं देवं शास्तारं प्रणमाम्यहं ||
अस्मत् कुलेश्वरं देवं सर्व सौभाग्यदायकं |अस्मादिष्ट प्रदातारं शास्तारं प्रणमाम्यहं ||
यस्य धन्वन्तरिर्माता पिता रुद्रोऽभिषक् तमः |तं शास्तारमहं वंदे महावैद्यं दयानिधिं ||
-- समर्पण --
ॐ सहनावतु सह नौ भुनत्तु सहवीर्यं करवावहै,तेजस्विनां धीतमस्तु मा विद्विषावहै |
ॐ ब्रह्मार्पणं ब्रह्महविः ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतं |
ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्म कर्म समाधिना |
ॐ शान्तिः | शान्तिः || शान्तिः |||
सौजन्य – श्री राम चैतन्य शास्त्री कृत तांत्रोक्त गुरु पूजन
Hirendra Pratap Singh at 7:21 PM No comments:
Share

Tuesday, April 15, 2014
Master interaction of pupil गुरु - शिष्य का पारस्परिक संबंध


गुरु - शिष्य का पारस्परिक संबंध
अयोग्य व्यक्ति ( दुर्गुणों से युक्त ) न तो गुरु से दीक्षा पाने का अधिकारी है और न ही वह दीक्षित होने पर साधना के क्षेत्र में कोई उपलब्धि ही हासिल कर पाता है । यही कारण है कि प्रायः संत - महात्मा हरेक किसी को शिष्य नहीं बनाते । कुपात्रजनों को दिया जाने वाला ज्ञानोपदेश , आध्यात्मिक - संकेत , साधना - परामर्श और मंत्र - दीक्षा आदि सब निरर्थक होते हैं ।
गुरु और शिष्य के बीच पारस्परिक संबंध बहुत शुचिता और परख के आधार पर स्थापित होना चाहिए , तभी उसमें स्थायित्व आ पाता है । इसलिए गुरुजनों को भी निर्दिष्ट किया गया है कि वे किसी को शिष्य बनाने , उसे दीक्षा देने से पूर्व उसकी पात्रता को भली - भांति परख लें । शास्त्रों का कथन हैं -
मंत्री द्वारा किए गए दुष्कृत्य का पातक राजा को लगता है और सेवक द्वारा किए गए पाप का भागी स्वामी बनता है । स्वयंकृत पाप अपने को और शिष्य द्वारा किए गए अपराध का पाप गुरु को लगता है ।
दीक्षा और साधना के लिए अयोग्य व्यक्तियों के लक्षणों को शास्त्रकारों ने इस प्रकार स्पष्ट किया है -
ऐसा व्यक्ति जो अपराधी - मनोवृत्ति का हो अथवा क्रूर , पापी , हिंसक हो , वह न तो दीक्षा पाने का अधिकारी है और न वह साधना में ही सफल हो सकता है । कारण कि उसकी तामसिक - मनोवृत्ति उसे सदैव अस्थिर और असंतुलित बनाए रखती है ।
इसी प्रकार बकवादी , कुतर्क करने वाला , मिथ्याभाषी , अहंकारग्रस्त , लोभी , लम्पट , विषयी , चोर , दुर्व्यसनी , परस्त्रीगामी , मूर्ख , जड़ - बुद्धि , क्रोधी , द्वेषलु , ईर्ष्या अथवा अतिमोह से ग्रस्त , शास्त्र निंदक , आस्थाहीन , दुराचारी , वंचक , पाखंडी और न साधना करने योग्य । ऐसे लोगों को जन्मजात पापी , अपवित्र , दुर्भाग्यग्रस्त और कुपात्र माना गया है
Hirendra Pratap Singh at 6:01 PM No comments:
Share

Specific Siddhian by sadguru

These powers can be achieved even stronger इन सिद्धियों को हासिल कर आप भी बन सकते हैं शक्तिमान - परमहंस स्वामी निखिलेश्वरानन्द जी
हमारे पूर्वजों और ऋषियों के पास विशिष्ट सिद्धियां थी, परन्तु उनमें से काल के प्रवाह में बहु कुछ लुप्त हो गईं| उनमें भी बारह सिद्धियां तो सर्वथा लोप हो गईं थी, जिनका केवल नामोल्लेख इधर उधर पढ़ने को मिल जाता था पर उसके बारे में न तो किसी को प्रामाणिक ज्ञान था और न उन्हें ऐसी सिद्धि प्राप्त ही थी| ये इस प्रकार हें -
१.परकाया सिद्धि
२.आकाश गमन सिद्धि
३.जल गमन प्रक्रिया सिद्ध
४.हादी विद्या - जिसके माध्यम से साधक बिना कुछ आहार ग्रहण किये वर्षों जीवित रह सकता है|
५. कादी विद्या- जिसके माध्यम से साधक या योगी कैसी भी परिस्थिति में अपना अस्तित्व बनाए रख सकता है| उस पर सर्दी, गर्मी, बरसात, आग हिमपात आदि का कोई प्रभाव नहीं होता|
६.काली सिद्धि- जिसके माध्यम से हजारों वर्ष पूर्व के क्षण को या घटना को पहिचाना जा सकता है, देखा जा सकता है और समझा जा सकता है| साठ ही आने वाले हजार वर्षों के कालखण्ड को जाना जा सकता है कि भविष्य में कहां क्या घटना घटित होगी और किस प्रकार से घटित होगी इसके बारे में प्रामाणिक ज्ञान एक ही क्षण में हो जाता है| यही नहीं अपितु इस साधना के माध्यम से भविष्य में होने वाली घटना को ठीक उसी प्रकार से देखा जा सकता है, जिस प्रकार से व्यक्ति टेलेवीजन पर कोई फिल्म देख रहा हों|
७. संजीवनी विद्या, जो शुक्राचार्य या कुछ ऋषियों को ही ज्ञात थी जिसके माध्यम से मृत व्यक्ति को भी जीवन दान दिया जा सकता है|
८. इच्छा मृत्यु साधना- जिसके माध्यम से काल पर पूर्ण नियंत्रण प्राप्त किया जा सकता है और साधक चाहे तो सैकड़ो-हजारों वर्षों तक जीवित रह सकता है|
९. काया कल्प साधना - जिसके माध्यम से व्यक्ति के शरीर में पूर्ण परिवर्तन लाया जा सकता है और ऐसा परिवर्तन होने पर वृद्ध व्यक्ति का भी काया कल्प होकर वह स्वस्थ सुन्दर युवक बन सकता है, रोग रही ऐसा व्यक्तित्व कई वर्षों तक स्वस्थ रहकर अपने कार्यों में सफलता पा सकता है|
१०. लोक गमन सिद्धि-जिसके माध्यम से पृथ्वी लोक में ही नहीं अपितु अन्य लोकों में भी उसी प्रकार से विचरण कर सकता है जिस प्रकार से हम कार के द्वारा एक स्थान से दुसरे स्थान या एक नगर से दुसरे नगर जाते हें| इस साधना के माध्यम से भू लोक, भुवः लोक, स्वः लोक, महः लोक, जनलोक, तपलोक, सत्यलोक, चंद्रलोक, सूर्यलोक और वायु लोक में भी जाकर वहां के निवासियों से मिल सकता, वहां की श्रेष्ठ विद्याओं को प्राप्त कर सकता है और जब भी चाहे एक लोक से दुसरे लोक तक जा सकता है|
११. शुन्य साधना - जिसके माध्यम से प्रकृति से कुछ भी प्राप्त किया जा सकता है| खाद्य पदार्थ, भौतिक वस्तुएं और सम्पन्नता अर्जित की जा सकती है|
१२. सूर्य विज्ञान- जिसके माध्यम से एक पदार्थ को दुसरे पदार्थ में रूपांतरित किया जा सकता है|
अपने तापोबल से पूज्य निखिलेश्वरानन्द जी ने इन सिद्धियों को उन विशिष्ट ऋषियों और योगियों से प्राप्त किया जो कि इसके सिद्ध हस्त आचार्य थे| मुझे भली भांति स्मरण है कि परकाया प्रवेश साधना, इन्होनें सीधे विश्वामित्र से प्राप्त की थी| साधना के बल पर उन्होनें महर्षि विश्वामित्र को अपने सामने साकार किया और उनसे ही परकाया प्रवेश की उन विशिष्ट साधनाओं सिद्धियों को सीखा जो कि अपने आप में अन्यतम है| शंकराचार्य के समय तक तो परकाया प्रवेश की एक ही विधि प्रचिलित थी जिसका उपयोग भगवदपाद शंकराचार्य ने किया था परन्तु योगिराज निखिलेश्वरानन्द जी ने विश्वामित्र से उन छः विधियों को प्राप्त किया जो कि परकाया प्रवेश से सम्बंधित है| परकाया प्रवेश केवल एक ही विधि से संभव नहीं है अपितु कई विधियों से परकाया प्रवेश हो सकता है|
यह निखिलेश्वरानन्द जी ने सैकड़ो योगियों के सामने सिद्ध करके दिखा दिया| परमहंस स्वामी निखिलेश्वरानन्द जी इन बारहों सिद्धियों के सिद्धहस्त आचार्य है| कभी कभी तो ऐसा लगता है कि जैसे यह अलौकिक और दुर्लभ सिद्धियां नहीं उनके हाथ में खिलौने हें, जब भी चाहे वे प्रयोग और उपयोग कर लेते हें| इन समस्त विधियों कों उन्होनें उन महर्षियों से प्राप्त किया है जो इस क्षेत्र के सिद्धहस्त आचार्य और योगी रहे हें|उन्होनें हिमालय स्थित योगियों, संन्यासियों और सिद्धों के सम्मलेन में दो टूक शब्दों में कहा था कि तुम्हें इन कंदराओं में निवास नहीं करना हें और जंगल में नहीं भटकना हें, इसकी अपेक्षा समाज के बीच जाकर तुम्हें रहना है| उनके दुःख दर्द कों बांटना है, समझना है और दूर करना है|
मैंने कई बार अनुभव किया है, कि उनके दरवाजे से कोई खाली हाथ नहीं लौटा| जिस शिष्य, साधक, योगी या संन्यासी ने जो भी चाहा है उनके यहां से प्राप्त हुआ| गोपनीय से गोपनीय साधनाएं देने भी वे हिचकिचाये नहीं| साधना के मूल रहस्य स्पष्ट करते, अपने अनुभवों कों सुनाते, उन्हें धैर्य बंधाते, पीठ पर हाथ फेरते और उनमें जोश तथा आत्मविश्वास भर देते, कि वह सब कुछ कर सकता है और यही गुण उनकी महानता का परिचय है| सूर्य सिद्धांत के आचार्य पतंजलि ने अपने सूत्रों में बताया है, कि सूर्य की किरणों में विभिन्न रंगों की रश्मियों हें और इनका समन्वित रूप ही श्वेत है| इन्हीं रश्मियों के विशेष संयोजन से योगी किसी भी पदार्थ कों सहज ही शुन्य में से निर्मित कर सकता है, या एक पदार्थ कों दुसरे पदार्थ में परिवर्तित कर सकता है| मैंने स्वयं ही गुरुदेव कों अपने संन्यास जीवन में चौबीस वर्तुल वाले एक स्फटिक लेंस से प्रकाश रश्मियों कों परिवर्तित करते देखा है| और पुनः उस स्फटिक वर्तुल हीरक खण्ड कों शुन्य में वापस कर देते हुए देखा है, क्योंकि ये उन्हीं का कथन है, कि योगी अपने पास कुछ भी नहीं रखता| जब जरूरत होती है, तब प्रकृति से प्राप्त कर लेता है और कार्य समाप्त होने पर वह वस्तु प्रकृति कों ही लौट देता है|शिष्य ज्ञान मैंने स्वयं ही उन्हें अनेक अवसरों पर अपने पूर्व जन्म के शिष्य-शिष्याओं कों खोजकर पुनः साधनात्मक पथ पर सुदृढ़ करते हुए देखा है| एक बार नैनीताल के किसी पहाड़ी गाँव के निकट हम कुछ शिष्य जा रहे थे|
गुरुदेव हम सभी कों लेकर गाँव के एक ब्राह्मण के छोटे से घर में पहुंचे और ब्राह्मण से बोले - 'क्या आठ साल पहले तुम्हारे घर में किसी कन्या ने जन्म लिया था? ब्राह्मण ने आश्चर्यचकित होकर अपनी पुत्री सत्संगा को बुलाया, जिसे देखकर हम सभी चौंक गए| उसका चेहरा थी मां अनुरक्ता की तरह था| यद्यपि मां के चहरे पर झुर्रियां पड़ गई थी और यह अभी बालिका थी, परन्तु चेहरे में बहुत कुछ साम्य साफ-साफ दिखाई दे रहा था| सत्संगा ने गुरुदेव के सामने आते ही दोनों हाथ जोड़ लिए और ठीक मां की तरह चरणों में झुक गई|गुरुदेव ने बताया कि किस तरह उनकी शिष्या मां अनुरक्ता ने अपने मृत्यु के क्षणों में उनसे वचन लिया था, कि अगले जन्म में बाल्यावस्था होते ही गुरुदेव उसे ढूंढ निकालेंगे और साधनात्मक पथ पर अग्रसर कर देंगे| यह कन्या सत्संगा वही मां अनुरक्ता हें| गुरुदेव ने उसे दीक्षा प्रदान की, अपने गले की माला उतार कर उसे दी और गुरु मंत्र दे कर वहां से पुनः रवाना हो गए| अपने प्रत्येक शिष्य-शिष्याओं का उन्हें प्रतिपल जन्म से लेकर मृत्यु तक ध्यान रहता हें और उनका प्रत्येक क्षण ही शिष्य के कल्याण के चिन्तन में ही बीतता हें| धन्य हें वे जिनको कि उनका शिष्यत्व प्राप्त हुआ है|तंत्र मार्ग का सिद्ध पुरुष सही अर्थों में देखा जाय तो तंत्र भारतवर्ष का आधार रहा है| तंत्र का तात्पर्य व्यवस्थित तरीके से कार्य संपन्न होना|
प्रारम्भ में तो तंत्र भारतवर्ष की सर्वोच्च पूंजी बनी रही बाद में धेरे-धीरे कुछ स्वार्थी और अनैतिक तत्व इसमें आ गए, जिन्हें न तो तंत्र का ज्ञान था और न इसके बारे में कुछ विशेष जानते ही थे| देह सुख और भोग को ही उन्होनें तंत्र मां लिया था| तंत्र तो भगवान् शिव का आधार है| उन्हें द्वारा तंत्र का प्रस्फुटन हुआ| जो कार्य मन्त्रों के माध्यम से संपादित नहीं हो सकता, तंत्र के द्वारा उस कार्य को निश्चित रूप से स्पष्ट किया जा सकता है|
मंत्र का तात्पर्य है प्रकृति की उस विशेष सत्ता को अनुकूल बनाने के लिए प्रयत्न करना और अनुकूल बनाकर कार्य संपादित करना| पर तंत्र के क्षेत्र में यह स्थिति सर्वथा विपरीत है| यदि सीधे-सीधे तरीके से प्रकृति वशवर्ती नहीं होती, तो बलपूर्वक उसे वश में किया जाता है और इसी क्रिया को तंत्र कहते हैं| तंत्र तलवार की धार की तरह है| यदि इसका सही प्रकार से प्रयोग किया जाय, तो प्रांत अचूक सिद्धाप्रद है पर इसके विपरीत यदि थोड़ी भी असावधानी और गफलत कर दी जाय तो तंत्र प्रयोग स्वयं करता को ही समाप्त कर देता है| ऐसी कठिन चुनौती को निखिलेश्वरानन्द ने स्वीकार किया और तंत्र के क्षेत्र में उन स्थितियों को स्पष्ट किया जो कि अपने-आप में अब तक गोपनीय रही है|उन्होनें दुर्गम और कठिन साधनाओं को तंत्र के माध्यम से सिद्ध करके दिखा दिया कि यह मार्ग अपेक्षाकृत सुगम और सरल है|
स्वामी निखिलेश्वरानन्द जी तंत्र के क्षेत्र की सभी कसौटिया में खरे उतारे तथा उनमें अद्वितीयता प्राप्त की| त्रिजटा अघोरी तंत्र का एक परिचित नाम है| पर गुरुदेव का शिष्यत्व पाकर उसने यह स्वाकार किया कि यदि सही अर्थों में कहा जाय तो स्वामी निखिलेश्वरानन्द तंत्र के क्षेत्र में अंतिम नाम है| न तो उनका मुकाबला किया जा सकता है और न ही इस क्षेत्र में उन्हें परास्त किया जा सकता है| एक प्रकार से देखा जाय तो सही अर्थों में वह शिव स्वरुप हैं, जिनका प्रत्येक शब्द अपनी अर्थवत्ता लिए हुई है, जिन्होनें तंत्र के माध्यम से उन गुप्त रहस्यों को उजागर किया है जो अभी तक गोपनीय रहे है|
---योगी विश्वेश्रवानंद
Hirendra Pratap Singh at 5:56 PM No comments:
Share

‹
›
Home
View web version

Powered by Blogger.

No comments:
Post a Comment