Wednesday, 12 July 2017

कुण्‍डलिनी जागरण

ⓘ Optimized just nowView original http://spiritualsys.com/%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%A3%E0%A5%8D%E2%80%8D%E0%A4%A1%E0%A4%B2%E0%A4%BF%E0%A4%A8%E0%A5%80-%E0%A4%9C%E0%A4%BE%E0%A4%97%E0%A4%B0%E0%A4%A3/#comment-18 Menu Skip to content Meditation ,Tratak , Healing , Mantra Science at one place  कुण्‍डलिनी जागरण March 26, 2015 by Neeraj Mittal भाइयों जबरदस्‍ती कुण्‍डलिनी जागरण का प्रयास भी परमाणु विस्‍फोट की तरह एक खतरनाक प्रकिया है इसी लिये इण्‍टरनेट पर सिर्फ कोई लेख पढ कर कुण्‍डलिनी जागरण का प्रयास ना करे व किसी जानकार की छत्रछाया में ही कुण्‍डलिनी जागरण का प्रयास करे ।। परन्‍तु यदि आप साधारण ध्‍यान साधना करते रहेंगे तो स्‍वत ही अापकी कुण्‍डलिनी जाग जायेगी व इस अवस्‍था में कोई खतरा भी नही है।। इस लेख में सभी चक्रो पर यही बताया गया है कि श्‍वास प्रश्‍वास रूप साधना से ये जाग जाती है।। यानि जागरण के लिये जबरदस्‍ती प्रयास नही करना है सिर्फ किसी भी प्रकार के ध्‍यान अभ्‍यास से एकाग्रता बढने पर ये जाग जायेगी। ये मेरा खुद का भी अनुभव है मैने सिर्फ एकाग्रता का ही अभ्‍यास किया उसी से सारी क्रियायें सम्‍पन्‍न हो गयी।। मुझे भूत भविष्‍य वर्तमान स्‍पष्‍ट दिखने लगा दूसरों के विचार पता चलने लगे तथा प्रक्रति में होने वाली घटनाओं के पीछे छुपे कारण मुझे नजर आने लगे।। मगर उसके बाद प्रयास छोड देने पर मुझे प्राप्‍त हुई समस्‍त शक्तियॉ सुप्‍तावस्‍था मे चली गयी मगर कुछ शक्ति अब भी थोडी मात्रा में बाकी है। ये मेरे जीवन की तीस साल पुरानी घटना है।। उस समय मेरी उम्र 17 वर्ष थी।। उस समय हमारा जीवन बर्बाद करने के लिये फेसबुक कम्‍प्‍यूटर और टीवी नही थे ।। मै उस समय पन्‍द्रह बीस घण्‍टे प्रतिदिन हर समय कोई ना कोई प्रयास करता था अपने मन को शान्‍त करने के लिये। कभी त्राटक कभी शवासन कभी कभी ध्‍यान। मैने सिर्फ एकाग्रता पर ही ध्‍यान दिया व सिर्फ चार महीने में ही मै ध्‍यान की अन्तिम अवस्‍था में पहुच गया।। अपने शरीर का एहसास एकदम समाप्‍त हो गया। चलते समय महसूस होता था कि मै उड रहा हॅू।। अंदर से हर समय शांति की आवाज सुनाई देती रहती थी।। हर समय ध्‍यान अपने ही अंदर रहता था।। मगर इस विषय में कुछ जानकारी ना होने की वजह से मैने उस प्रयास को लापरवाही की वजह से छोड दिया।। मगर अब भी थोडे प्रयास से मै बहुत शीघ्रता से मार्ग पर बढने लगता हॅॅू लेकिन ग्रुप के तमाम सदस्‍यों की तरह मै भी खुद साधना के प्रति लापरवाह हूॅ व दिन भर फेसबुक पर ही साधना करता रहता हॅॅू ये मेरी सबसे बडी कमी है।। मै अपने अनुभव के आधार पर आप सबका मार्गदर्शन कर रहा हॅू मगर खुद प्रयास नही कर रहा जबकि मै आगे जाना चाहता हॅू।। जल्‍दी ही ध्‍यान की शुरूआत से लेकर अंत तक की पूरी जानकारी एक पी डी एफ फाइल में अपलोड करके मै यहॉ से सन्‍यास लेना चाहता हॅू जिससे कि आगे के साधना मार्ग पर चल सकूॅ।। फाइल से आपको ध्‍यान की पूरी प्रक्रिया व उसके वैज्ञानिक पहलू व सिद्धांत की पूर्ण जानकारी मिल जायेगी।। आप सब भाईयों ने इतना प्‍यार व सम्‍मान दिया उसके लिये मै ह्रदय से आपका आभारी हूॅ। ये लेख मेरा नही है इण्‍टर नेट से कापी किया हुआ है मगर इसमें कुण्‍डलिनी व चक्रों के सभी तथ्‍यों पर प्रकाश डाला गया है इसलिये जानकारी के लिये इसको यहॉ पर पोस्‍ट कर दिया है।। ये लेख उन लोगों का मार्गदर्शन करने में समर्थ होगा जो कि ध्‍यान साधना को निम्‍न व कुण्‍डलिनी जागरण को ही सब कुछ समझते है।। इसमें स्‍पष्‍ट किया गया है कि साधारण ध्‍यान अथवा श्‍वास ध्‍यान के माध्‍यम से ही कुण्‍डलिनी जागरण होता है।। इस लेख के आखिरी भाग में ये भी बताया गया है कि आजकल के गुरू किस प्रकार किसी शिष्‍य को आज्ञा चक्र में ज्‍योति के दर्शन करवा कर उसको परमात्‍मा बता कर बेवकूफ बनाते है।। आदमी उसी को परमात्‍मा मानकर पूरी जिन्‍दगी खाली हाथ भटकता रहता है अपने ग्रुप में भी कई लोग हेै जो कि उसी ज्‍योति को परमात्‍मा मान कर मगन हो रहे है। आशा है कि वो अपने भ्रम को त्‍याग कर परमात्‍मा की तरफ आगे बढने में सफल हो सकेंगे।। +++++++++ मूलाधार-चक्र ======== मूलाधार-चक्र वह चक्र है जहाँ पर शरीर का संचालन वाली कुण्डलिनी-शक्ति से युक्त ‘मूल’ आधारित अथवा स्थित है। यह चक्र शरीर के अन्तर्गत गुदा और लिंग मूल के मध्य में स्थित है जो अन्य स्थानों से कुछ उभरा सा महसूस होता है। शरीर के अन्तर्गत ‘मूल’, शिव-लिंग आकृति का एक मांस पिण्ड होता है, जिसमें शरीर की संचालिका शक्ति रूप कुण्डलिनी-शक्ति साढ़े तीन फेरे में लिपटी हुई शयन-मुद्रा में रहती है। चूँकि यह कुण्डलिनी जो शरीर की संचालिका शक्ति है और वही इस मूल रूपी मांस पिण्ड में साढ़े तीन फेरे में लिपटी रहती है इसी कारण इस मांस-पिण्ड को मूल और जहाँ यह आधारित है, वह मूलाधार-चक्र कहलाता है। मूलाधार-चक्र अग्नि वर्ण का त्रिभुजाकार एक आकृति होती है जिसके मध्य कुण्डलिनी सहित मूल स्थित रहता है। इस त्रिभुज के तीनों उत्तंग कोनों पर इंगला, पिंगला और सुषुम्ना आकर मिलती है। इसके अन्दर चार अक्षरों से युक्त अग्नि वर्ण की चार पंखुणियाँ नियत हैं। ये पंखुणियाँ अक्षरों से युक्त हैं वे – स, ष, श, व । यहाँ के अभीष्ट देवता के रूप में गणेश जी नियत किए गए हैं। जो साधक साधना के माध्यम से कुण्डलिनी जागृत कर लेता है अथवा जिस साधक की स्वास-प्रस्वास रूप साधना से जागृत हो जाती है और जागृत अवस्था में उर्ध्वगति में जब तक मूलाधार में रहती है, तब तक वह साधक गणेश जी की शक्ति से युक्त व्यक्ति हो जाता है। जब साधक-सिद्ध व्यक्ति सिद्धियों के चक्कर अथवा प्रदर्शन में फँस जाता है तो उसकी कुण्डलिनी उर्ध्वमुखी से अधोमुखी होकर पुनः शयन-मुद्रा में चली जाती है जिसका परिणाम यह होता है की वह सिद्ध-साधक सिद्धि का प्रदर्शन अथवा दुरुपयोग करते-करते पुनः सिद्धिहीन हो जाता है। परिणाम यह होता है कि वह उर्ध्वमुखी यानि सिद्ध योगी तो बन नहीं पाता, सामान्य सिद्धि से भी वंचित हो जाता है। परन्तु जो साधक सिद्धि की तरफ ध्यान न देकर निरन्तर मात्र अपनी साधना करता रहता है उसकी कुण्डलिनी उर्ध्वमुखी के कारण ऊपर उठकर स्वास-प्रस्वास रूपी डोरी (रस्सी) के द्वारा मूलाधार से स्वाधिष्ठान-चक्र में पहुँच जाती है। स्वाधिष्ठान-चक्र ======== यह वह चक्र है जो लिंग मूल से चार अंगुल ऊपर स्थित है। स्वाधिष्ठान-चक्र में चक्र के छः दल हैं, जो पंखुणियाँ कहलाती हैं। यह चक्र सूर्य वर्ण का होता है जिसकी छः पंखुनियों पर स्वर्णिम वर्ण के छः अक्षर होते हैं जैसे- य, र, य, म, भ, ब । इस चक्र के अभीष्ट देवता इन्द्र नियत हैं। जो साधक निरन्तर स्वांस-प्रस्वांस रूपी साधना में लगा रहता है, उसकी कुण्डलिनी ऊर्ध्वमुखी होने के कारण स्वाधिष्ठान में पहुँचकर विश्राम लेती है। तब इस स्थिति में वह साधक इन्द्र की सिद्धि प्राप्त कर लेता है अर्थात सिद्ध हो जाने पर सिद्ध इन्द्र के समान शरीर में इन्द्रियों के अभिमानी देवताओं पर प्रशासन करने लगता है, इतना ही नहीं सिद्ध-पुरुष में प्रबल अहंकार रूप में अभिमानी होने लगता है जो उसके लिए बहुत ही खतरनाक होता है। यदि थोड़ी सी भी असावधानी हुई तो चमत्कार और अहंकार दोनों में फँसकर बर्बाद होते देर नहीं लगती क्योंकि अहंकार वष यदि साधना बन्द हो गयी तो आगे का मार्ग तो रुक ही जाएगा, वर्तमान सिद्धि भी समाप्त होते देर नहीं लगती है। इसलिए सिद्धों को चाहिए कि सिद्धियाँ चाहे जितनी भी उच्च क्यों न हों, उसके चक्कर में नहीं फँसना चाहिए लक्ष्य प्राप्ति तक निरन्तर अपनी साधना पद्धति में उत्कट श्रद्धा और त्याग भाव से लगे रहना चाहिए। मणिपूरक-चक्र ========= नाभि मूल में स्थित रक्त वर्ण का यह चक्र शरीर के अन्तर्गत मणिपूरक नामक तीसरा चक्र है, जो दस दल कमल पंखुनियों से युक्त है जिस पर स्वर्णिम वर्ण के दस अक्षर बराबर कायम रहते हैं। वे अक्षर – फ, प, न, ध, द, थ, त, ण, ढ एवं ड हैं। इस चक्र के अभीष्ट देवता ब्रह्मा जी हैं। जो साधक निरन्तर स्वांस-प्रस्वांस रूप साधना में लगा रहता है उसी की कुण्डलिनी-शक्ति मणिपूरक-चक्र तक पहुँच पाती है आलसियों एवं प्रमादियों की नहीं। मणिपूरक-चक्र एक ऐसा विचित्र-चक्र होता है; जो तेज से युक्त एक ऐसी मणि है, जो शरीर के सभी अंगों-उपांगों के लिए यह एक आपूर्ति-अधिकारी के रूप में कार्य करता रहता है। यही कारण है कि यह मणिपूरक-चक्र कहलाता है। नाभि कमल पर ही ब्रह्मा का वास है। सहयोगार्थ-समान वायु – मणिपूरक-चक्र पर सभी अंगों और उपांगों की यथोचित पूर्ति का भार होता है। इसके कार्य भार को देखते हुये सहयोगार्थ समान वायु नियत की गयी, ताकि बिना किसी परेशानी और असुविधा के ही अतिसुगमता पूर्वक सर्वत्र पहुँच जाय। यही कारण है कि हर प्रकार की भोग्य वस्तु इन्ही के क्षेत्र के अन्तर्गत पहुँच जाने की व्यवस्था नियत हुई है ताकि काफी सुविधा-पूर्वक आसानी से लक्ष्य पूर्ति होती रहे। मणिपूरक-चक्र के अभीष्ट देवता ब्रह्मा जी पर ही सृष्टि का भी भार होता है अर्थात गर्भाशय स्थित शरीर रचना करना, उसकी सामग्रियों की पूर्ति तथा साथ ही उस शरीर की सारी व्यवस्था का भार जन्म तक ही इसी चक्र पर रहता है जिसकी पूर्ति ब्रह्मनाल (ब्रह्म-नाड़ी) के माध्यम से होती रहती है। जब शरीर गर्भाशय से बाहर आ जाता है तब इनकी जिम्मेदारी समाप्त हो जाती है। अनाहत्-चक्र ======= हृदय स्थल में स्थित स्वर्णिम वर्ण का द्वादश दल कमल की पंखुड़ियों से युक्त द्वादश स्वर्णाक्षरों से सुशोभित चक्र ही अनाहत्-चक्र है। जिन द्वादश(१२) अक्षरों की बात काही जा रही है वे – ठ, ट, ञ, झ, ज, छ, च, ड़, घ, ग, ख और क हैं। इस के अभीष्ट देवता श्री विष्णु जी हैं। अनाहत्-चक्र ही वेदान्त आदि में हृदय-गुफा भी कहलाता है, जिसमें ईश्वर स्थित रहते हैं, ऐसा वर्णन मिलता है। ईश्वर ही ब्रह्म और आत्मा भी है। क्षीर सागर – सागर का अर्थ अथाह जल-राशि से होता है और क्षीर का अर्थ दूध होता है। इस प्रकार क्षीर-सागर क अर्थ दूध का समुद्र होता है। इसी क्षीर-सागर में श्री विष्णु जी योग-निद्रा में सोये हुये रहते हैं। नाभि-कमल स्थित ब्रह्मा जी जब अपनी शरीर रचना की प्रक्रिया पूरी करते हैं उसी समय क्षीर सागर अथवा हृदय गुफा अथवा अनाहत् चक्र स्थित श्री विष्णु जी अपनी संचालन व्यवस्था के अन्तर्गत रक्षा व्यवस्था के रूप में आवश्यकता अनुसार दूध की व्यवस्था करना प्रारम्भ करने लगते हैं और जैसे ही शरीर गर्भाशय से बाहर आता है वैसे ही माता के स्तन से दूध प्राप्त होने लगता है और आवश्यकतानुसार दूध उपलब्ध होता रहता है। यहाँ पर कितना दूध होता है, उसका अब तक कोई आकलन नहीं हो सका है। सन्तान जब तक अन्नाहार नहीं करने लगता है, तब तक दूध उपलब्ध रहता है, इतना ही नहीं जितनी सन्तानें होंगी सबके लिए दूध मिलता रहेगा। ऐसी विधि और व्यवस्था नियत कर दी गयी है। दूसरे शब्दों में ब्रह्मा जी का कार्य जैसे ही समाप्त होता है, श्री विष्णु जी का कार्य प्रारम्भ हो जाता है और श्री विष्णु जी का कार्य जैसे ही समाप्त होता है, शंकर जी का कार्य वैसे ही प्रारम्भ हो जाता है। माता के दोनों स्तनों में तो क्षीर (दूध) रहता है परन्तु दोनों स्तनों के मध्य में ही हृदय-गुफा अथवा अनाहत्-चक्र जिसमें श्री विष्णु जी वास करते हैं, होता है। अर्थात् जो क्षीर-सागर है, वही हृदय गुफा है और जो हृदय गुफा है वही अनाहत्-चक्र है और इसी चक्र के स्वामी श्री विष्णु जी हैं। विशुद्ध-चक्र ====== कण्ठ स्थित चन्द्र वर्ण का षोडसाक्षर अः, अं, औ, ओ, ऐ, ए, ऊ, उ, लृ, ऋ, ई, इ, आ, अ वर्णों से युक्त षोडसदल कमल की पंखुड़ियों वाला यह चक्र विशुद्ध-चक्र है, यहाँ के अभीष्ट देवता शंकर जी हैं। जब कुण्डलिनी-शक्ति विशुद्ध-चक्र में प्रवेश कर विश्राम करने लगती है, तब उस सिद्ध-साधक के अन्दर संसार त्याग का भाव प्रबल होने लगता है और उसके स्थान पर सन्यास भाव अच्छा लगने लगता है। संसार मिथ्या, भ्रम-जाल, स्वप्नवत् आदि के रूप में लगने लगता है। उस सिद्ध व्यक्ति में शंकर जी की शक्ति आ जाती है। आज्ञा-चक्र ====== भू-मध्य स्थित लाल वर्ण दो अक्षरों हं, सः से युक्त दो पंखुड़ियों वाला यह चक्र ही आज्ञा-चक्र है। इसका अभीष्ट प्रधान आत्मा (सः) रूप शब्द-शक्ति अथवा चेतन-शक्ति अथवा ब्रह्म-शक्ति अथवा ईश्वर या नूरे-इलाही या चाँदना अथवा दिव्य-ज्योति अथवा डिवाइन लाइट अथवा भर्गो-ज्योति अथवा सहज-प्रकाश अथवा परमप्रकाश अथवा आत्म ज्योतिर्मय शिव आदि-आदि अनेक नामों वाला परन्तु एक ही रूप वाला ही नियत है। यह वह चक्र है जिसका सीधा सम्बन्ध आत्मा (सः) रूप चेतन-शक्ति अथवा शब्द-शक्ति से और अप्रत्यक्ष रूप अर्थात् शब्द-शक्ति के माध्यम से शब्द-ब्रह्म रूप परमेश्वर से भी होता है। दूसरे शब्दों में आत्मा का उत्पत्ति स्रोत तो परमेश्वर होता है और गन्तव्य-स्थल आज्ञा-चक्र होता है। ध्यान केन्द्र और दिव्य-दृष्टि अथवा तीसरी आँख ========================== ध्यान केंद्र ———- शंकर जी से लेकर वर्तमान कालिक जितने भी योगी-महात्मा, ऋषि-महर्षि आदि थे और हैं, चाहे वे योग-साधना करते हों या मुद्राएँ, प्रत्येक के अन्तर्गत ध्यान एक अत्यन्त आवश्यक योग की क्रिया है जिसके बिना सृष्टि का कोई साधक-सिद्ध, ऋषि-महर्षि, योगी, अथवा सन्त-महात्मा ही क्यों न हो आत्मा को देख ही नहीं सकते अथवा आत्मा का दर्शन या साक्षात्कार हो ही नहीं सकता है। दूसरे शब्दों में योग-साधना के अन्तर्गत ध्यान का वही स्थान है जो शरीर के अन्तर्गत ‘आँख’ का। जिस प्रकार शरीर या संसार को देखने के लिए सर्वप्रथम आँख का स्थान है उसी प्रकार आत्मा-ईश्वर-ब्रह्म को देखने और पहचानने के लिए ध्यान का स्थान है। ध्यान का केंद्र आज्ञा-चक्र ही होता है। यही स्थान त्रिकुटि-महल भी है। योगी-साधकों के आदि प्रणेता श्री शंकर जी कहलाते हैं। योग-साधना की क्रियाओं अथवा मुद्राओं का सर्वप्रथम शोध शंकर जी ने ही किया था। ध्यान आदि मुद्राओं के सर्वप्रथम शोधकर्ता होने के कारण ही सोsहं के स्थान पर कुछ योगी-महात्मा शिवोsहं तथा मूलाधार स्थित मूल शिवलिंग और शम्भू भी हंस स्वरूप ही कहलाने लगे। दिव्य-दृष्टि अथवा तीसरी आँख —————————— दिव्य-दृष्टि वह दृष्टि होती है जिसके द्वारा दिव्य-ज्योति का दर्शन किया जाता है| दिव्य-दृष्टि को ही ध्यान केंद्र भी कहा जाता है। शरीर के अन्तर्गत यह एक प्रकार की तीसरी आँख भी कहलाती है। इसी तीसरे नेत्र वाले होने के कारण शंकर जी का एक नाम त्रिनेत्र भी है। यह दृष्टि ही सामान्य मानव को सिद्ध-योगी, सन्त-महात्मा अथवा ऋषि-महर्षि बना देती है बशर्ते कि वह मानव इस तीसरी दृष्टि से देखने का भी बराबर अभ्यास करे। योग-साधना आदि क्रियाओं को सक्षम गुरु के निर्देशन के बिना नहीं करनी चाहिए अन्यथा विशेष गड़बड़ी की सम्भावना बनी रहती है। सहस्रार-चक्र ======== सहस्र पंखुणियों वाला यह चक्र सिर के उर्ध्व भाग में नीचे मुख करके लटका हुआ रहता है, जो सत्यमय, ज्योतिर्मय, चिदानंदमय एवं ब्रह्ममय है, उसी के मध्य दिव्य-ज्योति से सुशोभित वर और अभय मुद्रा में शिव रूप में गुरुदेव बैठे रहते हैं। यहाँ पर गुरुदेव सगुण साकार रूप में रहते हैं। सहस्रार-चक्र में ब्रह्ममय रूप में गुरुदेव बैठकर पूरे शरीर का संचालन करते हैं। उन्ही के इशारे पर भगवद् भक्ति भाव की उत्प्रेरणा होती है। उनके निवास स्थान तथा सहयोग में मिला हुआ दिमाग या मस्तिष्क भी उन्ही के क्षेत्र में रहता है जिससे पूरा क्षेत्र एक ब्रह्माण्ड कहलाता है, जो शरीर में सबसे ऊँचे सिर उसमें भी उर्ध्व भाग ही ब्रह्माण्ड है। योगी-यति, ऋषि-महर्षि अथवा सन्त-महात्मा आदि जो योग-साधना तथा मुद्राओं से सम्बंधित होते हैं, वे जब योग की कुछ साधना तथा कुछ मुद्रा आदि बताकर और कराकर गुरुत्व के पद पर आसीन हो जाते हैं उनके लिए यह चक्र एक अच्छा मौका देता है, जिसके माध्यम से गुरुदेव लोग जितने भी योग-साधना वाले हैं अपने साधकों को पद्मासन, स्वास्तिकासन, सहजासन, वीरासन आदि आसनों में से किसी एक आसान पर जो शिष्य के अनुकूल और आसान पड़ता हो, पर बैठा देते हैं और स्वांस-प्रस्वांस रूप प्राणायाम के अन्तर्गत सोsहं का अजपा जाप कराते हैं। आज्ञा-चक्र में ध्यान द्वारा किसी ज्योति को दर्शाकर तुरन्त यह कहने लगते हैं कि यह ज्योति ही परमब्रह्म परमेश्वर है जिसका नाम सोsहं तथा रूप दिव्य ज्योति है। शिष्य बेचारा क्या करे ? उसको तो कुछ मालूम ही नहीं है, क्योंकि वह अध्यात्म के विषय में कुछ नहीं जानता। इसीलिए वह उसी सोsहं को परमात्मा नाम तथा ज्योति को परमात्मा का रूप मान बैठता है। खेचरी मुद्रा से जिह्वा को जिह्वा मूल के पास ऊपर कण्ठ-कूप होता है जिसमें जिह्वा को मूल से उर्ध्व में ले जाकर क्रिया कराते हैं, जिसे खेचरी मुद्रा कहते हैं, इसी का दूसरा नाम अमृत-पान की विधि भी बताते हैं। साथ ही दोनों कानों को बंदकर अनहद्-नाद की क्रिया कराकर कहा जाता है कि यही परमात्मा के यहाँ खुराक है, जिससे अमरता मिलती है और यही वह बाजा है जो परमात्मा के यहाँ सदा बजता रहता है। योग की सारी जानकारी तो आज्ञा-चक्र में आत्मा से मूलाधार स्थित जीव पुनः मूलाधार स्थित जीव से आज्ञा-चक्र स्थित आत्मा तक ही होती है। NEERAJ MITTAL  Categories साधना सूत्र Post navigation सौ ऊंट आनापानसति ध्यान प्रयोग पे कुछ जरूरी जानकारीयाँ Search for: Search  Search … Latest questions दीपक त्राटक में क्या सावधानियां रखनी चाहिए ? asked by Anonymous, 2 years ago इस केटेगरी के पोस्ट फेसबुक के ध्यान व कुण्डलिनी के अनुभव ग्रुप से लिए गये हैं . यहाँ पे महत्वपूर्ण बातों का संकलन है जो आपको ध्यान की शुरुआत करने से लेकर उच्चतम अवस्था तक पहुचने की प्रमाणिक विधि बताएगी . सारी बातें उच्च अवस्था को पहुचे साधकों के अनुभव से प्रमाणित हैं . आप अपने जीवन में आज से ही इनका प्रयोग कर आत्म साक्षातकार की ओर अग्रसर हों . अगले मिनट का कोई भरोसा नहीं तो फिर संन्यास आश्रम की प्रतीक्षा छोड़ आज और अभी से ही लगन पूर्वक प्रयास करें . हमारी शुभकामनायें और मार्गदर्शन आपके साथ हैं . साधना सम्बन्धी कोई भी प्रश्न हो तो कमेंट में पूछ सकते हैं .इस ग्रुप के अनुभवी साधक लोग आपका मार्गदर्शन जरूर करेंगे . 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