ⓘ Optimized just nowView original http://maghaa.com/tag/0011/ मघाMenu 'ख'मध्य का ककहरा TAG ARCHIVES: 0011 सनातन बोध: प्रसंस्करण, नये एवं अनुकृत सिद्धांत – 5 3 Replies दुःख-सुख का उल्टा नहीं। उपलब्ध विकल्पों में हम उनको चुनते हैं जिसमें लाभ भले कम हो पर हानि होने के आसार ना हो। हम लाभ से ज्यादा हानि के प्रति सचेत होते हैं। (decision making economics behavioural science) सनातन बोध : प्रसंस्करण, नये एवं अनुकृत सिद्धांत – 1 , 2, 3 और 4 से आगे … व्यावहारिक अर्थ शास्त्र का विकास पिछली अर्द्धसदी में में तेजी से हुआ। पचास वर्षों से भी कम समय में मनोवैज्ञानिकों ने सैकड़ों संज्ञानात्मक पक्षपातों (cognitive biases) का खोज किया। मनोविज्ञान, अर्थशास्त्र के साथ साथ आधुनिक उपभोक्ता प्रवृत्ति अध्ययन, निर्णय सर्जन और नियोजन, नीति निर्माण जैसे कई क्षेत्रो में हो रहा है। ये खोज मनोविज्ञान के लिए और खासकर अर्थशास्त्र के लिए क्रांतिकारी हैं। परन्तु साथ में ये भी सत्य है कि इन सिद्धांतों का इतनी तेजी से खोज होने का एक बड़ा कारण यही है कि ये नए खोज नहीं है उनका अर्थ शास्त्र की दृष्टि से इस्तेमाल जरूर नया है। अर्थशास्त्र की दृष्टि से ये इतने महत्त्वपूर्ण होते गये क्योंकि अर्थशास्त्र का अध्ययन ही एक गलत सिद्धांत के साथ होता रहा है – और ये सिद्धांत है कि मनुष्य सारे निर्णय विवेकपूर्ण और तर्कसंगत (rational) करता है। अर्थशास्त्र के मूल सिद्धांत (rational choice theory) के अनुसार हर मनुष्य सीमित संसाधनों के बीच रहता है और अनेक विकल्पों में से वो विकल्प चुनता है जो उसकी उपयोगिता (utility) में सर्वाधिक वृद्धि करता है। यानी हर संभव विकल्प को न्यायसंगत तर्क की कसौटी पर परखने के बाद निर्णय लेता है। व्यक्तिगत स्तर से ऊपर समाज के स्तर पर यही निर्णय सामाजिक कल्याण की वृद्धि के लिए होता है। वर्षों से अर्थशास्त्र के अध्ययन का अर्थ ही रहा मनुष्य के हितों और सामाजिक कल्याण की वृद्धि करने वाले कारको का आदर्श आकलन (optimization)। संसाधनों का आदर्श वितरण (Pareto optimal) ये मानते हुए कि मनुष्य सारे फैसले अपना लाभ हानि सोचकर तर्कसंगत तरीके से करता है।  मनोवैज्ञानिकों ने मानव व्यवहार का अध्ययन करने के बाद अर्थशास्त्र के इस मूल सिद्धांत को नकार दिया। इस नए सिद्धांत के अनुसार मनुष्य पूर्व अनुभवों से बने अचेतन (cognitive heuristics) और अंतर्ज्ञान (intuition) से प्रभावित पक्षपातों से फैसले लेता है जो हमेशा न तो तर्कसंगत ही होते हैं न उनसे समाज कल्याण या स्वयं के हितों की वृद्धि ही होती है। इस सिद्धांत को मान्यता मिली १९७९ में डेनियल काहनेमैन और अमोस ट्वेरस्की के प्रॉस्पेक्ट थिओरी के प्रकाशन के बाद। जिसमें उन्होंने कहा कि हानि या हार का दुःख, लाभ और जीतने की ख़ुशी से ज्यादा होता है। दुःख सुख का उल्टा नहीं होता। इस सिद्धांत के अनुसार लाभ से होने वाले सुख का फलन अवतल होता है और हानि से होने वाले दुःख का उत्तल अर्थात हानि को हम बढ़ा कर देखते हैं। हानि से होने वाले दुःख उसी परिणाम में होने वाले फायदे से होने वाले सुख के उलटे से ज्यादा होता है। इस सिद्धांत का निष्कर्ष ये होता है कि निर्णय लेते समय हम लाभ से ज्यादा हानि को लेकर सचेत होते हैं – हमारी प्रकृति है हानि प्रतिकूल (loss aversion)। उपलब्ध विकल्पों में से हम उन्हें चुनते हैं जिसमें लाभ भले कम हो पर हानि होने के आसार ना हो। प्रोफ़ेसर लाज्लो जॉलनाइ इस सिद्धांत के बारे में लिखते हैं कि मनुष्य की प्रवृत्ति है ‘हानि प्रतिकूल’ होना तो लाभ की वृद्धि की जगह हानि को कम (minimization of loss) करने की बात अर्थशास्त्र में होनी चाहिए। फिर हानि का अर्थ सिर्फ मौद्रिक ही तो नहीं है और न ही ये सिद्धांत सिर्फ मनुष्यों तक सीमित है। अगर इस बात को सार्वभौमिक तरीके से देखें तो फिर ये संसार के दुःख से पीड़ित होने और बुद्ध के दुःख के निवारण की बात प्रतीत होती है। इस दृष्टि से देखें तो अर्थशास्त्र की संकीर्णता को दूर करने वाले प्रॉस्पेक्ट थियोरी का सिद्धांत बुद्ध के दर्शन की विशेष स्थिति (special case) प्रतीत होता है। बात फिर वहीँ आ जाती है – खुश रहने का अर्थशास्त्र – माध्यमिक मार्ग। सुख की खोज के साथ इच्छा की कमी का ऑप्टिमिजेशन। ‘स्मॉल इज ब्यूटीफुल’ में प्रोफ़ेसर शूमाकर इसी बात को अलग तरीके से बौद्ध सिद्धांतों का उदहारण देते हुए कहते हुए कहते हैं कि हमने अब तक अर्थशास्त्र को समझा ही गलत है। सुख की खोज और बड़े लाभ की जगह समाज कल्याण के लिए लक्ष्य दुःख का निवारण होना चाहिए। प्रॉस्पेक्ट थिओरी के सिद्धांत के बाद सिलसिला सा चल पड़ा संज्ञानात्मक पक्षपातों (cognitive biases) के अध्ययन का। यहाँ ध्यान देने की बात ये है कि जितने नए सिद्धांत आये वो इसलिए आये की अर्थशास्त्र की शुरूआती अवधारणा ही गलत थी। जैसे जब ये अवधारणाएं थी कि धरती समतल है या सूर्य पृथ्वी की परिक्रमा करता है तब कई सिद्धांत थे पर जैसे ही ये अवधारणायें गलत साबित हुई हजारों नए सिद्धांत आते गए। अगर हम शुरू ही सही अवधारणाओं से करें तो ये नित नए आने वाले सिद्धांत ही अर्थहीन हैं। अर्थशास्त्र का नीति और मानव व्यवहार से साथ अध्ययन शुरू से हुआ होता तो ये अविष्कार अलग से पैबंद की तरह नहीं आते। व्यवहारिक अर्थशास्त्र के आलोचक ये भी कहते हैं कि गलत सिद्धांत को सही कर देने के लिए एक-एक कर सैकड़ों सिद्धांतों को देने की जगह एक नए सिरे से मानव व्यवहार को समझना बेहतर तरीका होगा। इस नए विषय का सबसे प्रसिद्ध नाम नोबेल पुरस्कार से सम्मानित प्रोफ़ेसर डेनियल काहनेमैन।  अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘थिंकिंग फ़ास्ट एंड स्लो’ के सार के रूप में वो कहते हैं- “हम अपने अंधेपन के बारे में अंधे होते हैं। हम अपनी अज्ञानता के बारे में अनभिज्ञ हैं। हमें इस बात के बारे में बहुत कम पता है कि हम कितना कम जानते हैं। हमें उसके लिए डिजाइन ही नहीं किया गया। अर्थात अक्सर हमें नहीं पता होता कि हम क्या कर रहे होते हैं।” अर्थशास्त्र और मनोविज्ञान में क्रांति लाने वाले शोध का ये सार आपको पहचाना नहीं लगता? सांख्य की त्रिगुणात्मक प्रकृति हो या भ्रम में डालती माया। अचेतन व्यवहार के सिद्धांतों की व्याख्या विकासवाद से तो जुड़ती है। विकासवाद से भ्रमित जल जा रहा पतंगा हो या भर्तृहरि का अज्ञान – अजानन्दाहात्भ्यं पततु शालभे दीपदहने स मीनोऽप्यज्ञानाद्वडियुतमश्नातु पिशितम्। सनातन बोध में न सिर्फ इस अज्ञानता का वर्णन है इसके निवारण का भी वर्णन है। जहाँ आधुनिक अर्थशास्त्र इस अज्ञानता को समझ उसके दोहन की बात करता है वहीँ प्राचीन मनीषा ने इसके निवारण की बात की। अगले अंक में चर्चा करेंगे प्रोफ़ेसर काहनेमैन के मनुष्य के सोचने के तरीके के सिद्धांत और कुछ संज्ञानात्मक पक्षपातों की। This entry was posted in बौद्ध धम्म, भारत, भारत विद्या, विमर्श, हिंदी and tagged 0011, Abhishek Ojha, behavioural economics, Cause and effect, cognitive bias, Daniel Kahneman, decision making, rational choice theory, अभिषेक ओझा, अर्थशास्त्र, आषाढ़-अमावस्याङ्क-2074-वि.-[वर्ष-2-अङ्क-11]-शनिवार, डेनियल काहनेमैन on June 24, 2017 by अभिषेक ओझा. उपनयन संस्कार Leave a reply उपनयन की पद्धतियों के ४ भाग दीखते है। विद्यारम्भ, वेदारम्भ, ब्रह्मचर्य व्रत, उपनयन।  Source of Image: https://commons.wikimedia.org/wiki/File:Upanayanam.jpg (१) विद्यारम्भ इसका एक लौकिक रूप है- खली छुआना। खली से स्लेट पर लिखते हैं। सबसे पहले वर्णमाला सीखते हैं। देवों का चिह्न रूप में नगर देवनागरी लिपि है। इसमें ३३ देवों के चिह्न क से ह तक स्पर्श वर्ण हैं। १६ स्वर मिलाने पर ४९ मरुत् हैं। अ से ह तक पूर्ण विश्व या उसकी प्रतिमा मनुष्य शरीर है। अतः शरीर या क्षेत्र अ से ह = अहम् है। इसका क्षेत्रज्ञ आत्मा है। उस चेतन तत्त्व क्षेत्रज्ञ का प्रतीक क्ष, त्र, ज्ञ-तीन अक्षर जोड़ ते हैं नहीं तो प्रायः ४०० प्रकार के संयुक्ताक्षर सम्भव हैं। शरीर और चेतना मिला कर ५२ अक्षर हुये जो शक्तिपीठों की भी संख्या है। अतः ५२ अक्षरों को सिद्धक्रम की वर्णमाला कहते हैं। पुस्तकीय ज्ञान के अतिरिक्त चेतन तत्त्व का विकास भी करने के लिये सिद्ध क्रम की वर्णमाला है, जिसे स्मरण करने के लिये-ॐ नमः सिद्धम्-य ओनामासीढम् कहते हैं। (२) वेदारम्भ वेद पढ़ने के लिये गायत्री मन्त्र से आरम्भ किया जाता है। गायत्री से वेद में प्रवेश होता है जैसे आजकल +२ पास करने पर इंजीनियरिंग या मेडिकल में प्रवेश की योग्यता होती है। गायत्री से वेद का प्रवेश होने के कारण तथा २४ तत्त्वों और पुरुष रूप ॐ से सृष्टि होने के कारण गायत्री वेदमाता है। अथर्ववेद में एक वेदमाता सूक्त भी है। गायत्री मन्त्र में वेद पढ़ने की विधि के कई पकार निहित हैं- (क) ॐ से सृष्टि और ज्ञान का आरम्भ, (ख) ३ व्याहृति-कई प्रकार की त्रयी माध्यम से अध्ययन। प्रायः ५० त्रयी के उदाहरण तैत्तिरीय ब्राह्मण में हैं। (ख) ३-३ के संयोग से ७ भेद रूप ७ लोक हैं। बीच के २-२ भेद समान हैं। अतः सभी प्रकार के शास्त्रों का आधार ७-७ के विभाजन हैं-राज्य के ७ तत्त्व (मार्क्स आदि ने केवल ४ का विचार किया अतः वे अपूर्ण हैं), ७ कारक, ७ धातु आदि। ३ और ७ भेद सभी ज्ञान के आधार हैं, यह मूल वेद अथर्व का प्रथम मन्त्र है-ये त्रिषप्ताः परियन्ति विश्वाः। (ग) सभी छन्दों के ४ पाद होते हैं। पर अर्थ के अनुसार कम या अधिक पाद हो सकते हैं। जैसे गायत्री छन्द में ६-६ अक्षरों के ४ पाद होते हैं। पर अर्थ के लिये गायत्री मन्त्र में ८-८ अक्षरों के ३ पाद हैं। प्रति पाद के अर्थ जोड़ कर पूर्ण अर्थ होता है। मीमांसा सूत्र (१/२३) के अनुसार ऋक् मन्त्रों की अर्थ व्यवस्था छन्द और पाद के अनुसार है। पादों को तोड़ मरोड़ कर अन्वय नहीं हो सकता। (घ) गायत्री मे प्रथम पाद में १ अक्षर कम है (निचृद् छन्द) अतः उसे थोड़ा फैला कर पढ़ते हैं-’तत्स्सवितुर्वरिण्यम्’ को ’तत् सवितुर्वरेणियम्’ जैसा। (ङ) गायत्री का प्रथम पाद आधिदैविक, द्वितीय आधिभौतिक और तृतीय आध्यात्मिक है। सभी वेद मन्त्रों के इसी प्रकार ३ अर्थ होंगे (गीता ८/१-४, सांख्य का तत्त्व समास ७)। तैत्तिरीय उपनिषद् के अनुसार ५ प्रकार के अर्थ हैं जो गायत्री मन्त्र के ॐ और व्याहृति को मिलाने पर होते हैं। कुल भेद १५ होंगे-यानि पञ्चधा त्रीणि त्रीणि तेभ्यो न ज्यायः परमन्यदस्ति (छान्दोग्य उपनिषद् २/२१/३)। (३) ब्रह्मचर्य व्रत ब्रह्मचर्य व्रत से ही ज्ञान होता है जिसके बाद मनुष्य गृहस्थाश्रम के योग्य होता है। ब्रह्मचारि व्रते स्थितः (गीता ६/१४)। ब्रह्मचर्येण ह्येवात्मनमनुविन्दते। (छान्दोग्य उपनिषद् ८/५/१) ब्रह्मचर्यं परिसमाप्य गृही भवेत् (जाबालोपनिषद् ४) ब्रह्मचारी ज्ञानवान् भवति (नारायण उत्तरतापिनी उपनिषद् ३/१) (४) उपनयन गुरु के निकट जाना (उप = निकट, नयन = ले जाना)। वहां अपना काम करने से और गुरु सेवा से स्वयं और दूस्रों की जिम्मेदारी लेने का अभ्यास होता है। तभी वह गृहस्थाश्रम का दायित्व सम्भाल सकता है। घर पर रहने से वह बाहर जाने में डरेगा और केवल माता पिता पर आश्रित रह जायेगा। ब्रह्मचर्याश्रमे क्षीणे गुरुशुश्रूषणे रतः। वेदानधीत्यानुज्ञात उच्यते गुरुणाश्रमी (कुण्डिकोपनिषद् १/६)। ब्रह्मचर्ये भगवति यत्स्याम्युपयां भगवन्तमिति। (छान्दोग्य उपनिषद् ४/४/३) This entry was posted in भारत, भारत विद्या, हिंदी and tagged 0011, arun upadhyay, arunupadhyay30, अरुण उपाध्याय, आषाढ़-अमावस्याङ्क-2074-वि.-[वर्ष-2-अङ्क-11]-शनिवार, उपनयन संस्कार on June 24, 2017 by अरुण उपाध्याय. Post navigation ← Older posts सम्पर्क CONTACT:  मघा लेख फीड ‘मघा’ में प्रकाशित सभी लेखों और उनमें प्रयुक्त मौलिक चित्रादि सामग्री के सर्वाधिकार (Copyright) प्रकाशक के पास सुरक्षित हैं। प्रकाशक से बिना लिखित पूर्वानुमति प्राप्त किये सामग्री कॉपी न करें और न ही कहीं प्रयोग करें। लिङ्क के साथ सन्दर्भ दिये जा सकते हैं Search for: Search  [वर्ष 2, अङ्क 12] में अपनी बात July 9, 2017 यहूदियों के भारतीय मूल पर अरस्तू : संभावनाओं के सूत्र July 9, 2017 अवधी चिरइयाँ : घोंघिल ( Anastomus ositans ) July 9, 2017 संज्ञानात्मक पक्षपात inattentional blindness (सनातन बोध: प्रसंस्करण, नये एवं अनुकृत सिद्धांत – 6) July 9, 2017 इस्राएल के अनुभवों से भारत क्या सीख सकता है? 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