ⓘ Optimized just nowView original https://neelvarna.wordpress.com/2013/11/08/%E0%A4%95%E0%A5%88%E0%A4%B8%E0%A5%87-%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%A7%E0%A5%87-%E0%A4%85%E0%A4%9C%E0%A4%AA%E0%A4%BE-%E0%A4%9C%E0%A4%AA-%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%A3-%E0%A4%85/ Menu Search  Search Neelvarna | A Desire to Learn ancient Indian knowledge Share Experience With Yoga, Meditation, Tantra & Mantra कैसे साधे अजपा जप: प्राण – अपान और जप  बहुत से योगी अपान वायु में प्राणवायु को हवन करते हैं और उसी प्रकार प्राणवायु में अपान वायु को हवन करते हैं इससे सूक्ष्म अवस्था हो जाने पर अन्य योगीजन प्राण और अपान दोनों की गति रोककर प्राणायामपरायण हो जाते हैं। जिसे श्रीकृष्ण प्राण – अपान कहते हैं, उसी को महात्मा बुद्ध ‘अनापान’ कहते हैं। इसी को उन्होंने श्वास – प्रश्वास भी कहा है। प्राण वह श्वास है जिसे आप भीतर खींचते हैं अपान वह श्वास है जिसे आप बाहर छोड़ते हैं। योगियोँ की अनुभूति है कि आप श्वास के साथ बाह्य वायुमंडल के संकल्प भी ग्रहण करते हैं और प्रश्वास में इसी प्रकार आंतरिक भले – बुरे चिंतन की लहर फेंकते रहते हैं। बाह्य किसी संकल्प का ग्रहण न करना प्राण का हवन है तथा भीतर संकल्पों को न उठने देना अपान का हवन है। न भीतर से किसी संकल्प का स्फुरण हो और न ही बाह्य दुनिया में चलनेवाले चिंतन अंदर क्षोभ उत्पन्न कर पायेँ, इस प्रकार प्राण और अपान दोनों की गति सम हो जाने पर प्राणों का याम अर्थात् निरोध हो जाता है, यही प्राणायाम है। यह मन की विजितावस्था है। प्राणों का रुकना और मन का रुकना एक ही बात है। प्रत्येक महापुरुष ने इस प्रकरण को लिया है। “जप, एक ही नाम चार श्रेणियों से जपा जाता है – बैखरी, मध्यमा, पश्यन्ती और परा। बैखरी उसे कहते हैं जो व्यक्त हो जाय। नाम का इस प्रकार उच्चारण हो कि आप सुनेँ और बाहर कोई बैठा हो तो उसे भी सुनायी पड़े। मध्यमा अर्थात् मध्यम स्वर में जप, जिसे केवल आप ही सुनेँ, बगल में बैठा हुआ व्यक्ति भी उस उच्चारण को सुन न सके। यह उच्चारण कंठ से होता है। धीरे – धीरे नाम की धुन बन जाती है, डोर लग जाती है। साधना और सूक्ष्म हो जाने पर पश्यन्ती अर्थात् नाम देखने की अवस्था आ जाती है। फिर नाम को जपा नहीं जाता, यही नाम श्वास में ढल जाता है। मन को द्रष्टा बनाकर खड़ा कर दें, देखते भर रहें कि साँस आती है कब? बाहर निकलती है कब? कहती है क्या?” महापुरुषों का कहना है कि यह साँस नाम के सिवाय और कुछ कहती ही नहीं। साधक नाम का जप नहीं करता, केवल उससे उठनेवाली धुन को सुनता है। साँस को देखता भर है, इसलिये इसे पश्यन्ती कहते हैं। पश्यन्ती में मन को द्रष्टा के रूप में खड़ा करना पड़ता है; किन्तु साधन और उन्नत हो जाने पर सुनना भी नहीं पड़ता। एक बार सुरत लगा भर दें, स्वतः सुनायी देगा। ‘जपे न जपावै, अपने से आवै।’ – न स्वयं जपे, न मन को सुनने के लिए बाध्य करें और जप चलता रहे, इसी का नाम है अजपा। ऐसा नहीं कि जप प्रारंभ ही न करें और आ गयी अजपा। यदि किसी ने जप नहीं आरंभ किया, तो अजपा नाम कोई भी वस्तु उसके पास नहीं होगी। अजपा का अर्थ है, हम न जपेँ किन्तु जप हमारा साथ न छोड़े। एक बार सुरत का काँटा लगा भर दें तो जप प्रवाहित हो जाय और अनवरत चलता रहे। इस स्वाभाविक जप का नाम है अजपा और यही है ‘परावाणी का जप’ । यह प्रकृति से परे तत्त्व परमात्मा में प्रवेश दिलाती है। इसके आगे वाणी में कोई परिवर्तन नहीं है। परम का दिग्दर्शन कराके उसी में विलीन हो जाती है, इसीलिये इसे परा कहते हैं। योगेश्वर श्रीकृष्ण ने केवल श्वास पर ध्यान रखने को कहा, जबकि आगे स्वयं ॐ के जप पर बल देते हैं। गौतम बुद्ध भी ‘अनापान सती’ में श्वास – प्रश्वास की ही चर्चा करते हैं। अंततः वे महापुरुष कहना क्या चाहते हैं? वस्तुतः प्रारंभ में बैखरी, उससे मध्यमा और उससे उन्नत होने पर जप को पश्यन्ती अवस्था में श्वास पकड़ में आता है। उस समय जप तो श्वास में ढला मिलेगा, फिर जपेँ क्या? फिर तो केवल श्वास को देखना भर है। इसलिये प्राण – अपान मात्र कहा, ‘नाम जपो’ – ऐसा नहीं कहा, कारण कि कहने की आवश्यकता नहीं है। यदि कहते हैं, तो गुमराह होकर नीचे की श्रेणियों में चक्कर काटने लगेगा। महात्मा बुद्ध, ‘गुरुदेव भगवान’ तथा प्रत्येक महापुरुष जो इस रास्ते से गुजरे हैं, सभी एक ही बात कहते हैं। बैखरी और मध्यमा नाम – जप के प्रवेश द्वार मात्र हैं। पश्यन्ती से ही नाम में प्रवेश मिलता है। परा में नाम धारावाही हो जाता है, जिससे जप साथ नहीं छोड़ता। मन श्वास के साथ जुड़ा है। जब श्वास पर दृष्टि है, श्वास में नाम ढल चुका है, भीतर से न तो किसी संकल्प का उत्थान है और न बाह्य वायुमंडल के संकल्प भीतर प्रवेश कर पाते हैं, यही मन पर विजय की अवस्था है Advertisements Share this: Twitter Facebook Google Related सप्त चक्र भेदन - एक सहज, सरल तथा सुरक्षित तांत्रिक योग विधि In "Meditation" सप्त चक्र भेदन - एक सहज, सरल तथा सुरक्षित तांत्रिक योग विधि -2 In "Meditation" अघोर - अर्थात जो घोर न हो, सरल हो, सहज हो In "Tantra - Mantra" November 8, 2013 Leave a reply « Previous Next » Leave a Reply Your email address will not be published. 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