Wednesday, 12 July 2017

अवतार दर्शन - श्रीरामानुजाचार्य

अवतार दर्शन - श्रीरामानुजाचार्य सत् साहित्य को अल्प मूल्य पर उपलब्ध कराने के लिए विख्यात है गोरखपुर की गीता प्रेस। गीता प्रेस की नियमित रूप से प्रकाशित होने वाली पत्रिका कल्याण में धर्म संबंधी साहित्य प्रचुर मात्रा में मिलता है। अपने प्रकाशन के 81वें वर्ष का प्रथम अंक "कल्याण" ने अवतारों को समर्पित किया गया है। कल्याण के इस "अवतार कथांक" में यद्यपि सतयुग, द्वापर एवं त्रेतायुग के अवतारों का भी जीवन चरित्र प्रस्तुत किया गया है, किन्तु यहां हम केवल आधुनिक युग के अवतारों के विवरण क्रमश: प्रस्तुत कर रहे हैं। -सं. श्रीरामानुजाचार्य बड़े ही विद्वान, सदाचारी, धैर्यवान, सरल एवं उदार थे। ये आचार्य आलवन्दार (यामुनाचार्य) की परम्परा में थे। इनके पिता का नाम केशव भट्ट था। ये दक्षिण के तिरुकुदूर नामक क्षेत्र में रहते थे। जब इनकी अवस्था बहुत छोटी थी तभी इनके पिता का देहान्त हो गया और इन्होंने काञ्ची जाकर यादव प्रकाश नामक गुरु से वेदाध्ययन किया। इनकी बुद्धि इतनी कुशाग्र थी कि ये अपने गुरु की व्याख्या में भी दोष निकाल दिया करते थे। इसलिए गुरुजी इनसे बड़ी ईष्र्या करने लगे। विद्या, चरित्र बल और भक्ति में रामानुज अद्वितीय थे। इन्हें कुछ योगसिद्धियां भी प्राप्त थीं। जब महात्मा आलवन्दार मृत्यु की घड़िया गिन रहे थे, उस समय उन्होंने अपने शिष्य के द्वारा रामानुजाचार्य को अपने पास बुलवा भेजा। परन्तु रामानुज के श्रीरंगम् पहुंचने के पहले ही आलवन्दार (यामुनाचार्य) भगवान् नारायण के धाम में पहुंच चुके थे। रामानुज ने देखा कि श्री यामुनाचार्य के हाथ की तीन अंगुलियां मुड़ी हुई हैं। इसका कारण कोई नहीं समझ सका। रामानुज तुरंत समझ गए कि यह संकेत मेरे लिए है। उन्होंने यह जान लिया कि श्री यामुनाचार्य मेरे द्वारा ब्राह्मसूत्र, विष्णु सहस्रनाम और आलवन्दारों के "दिव्य प्रबन्धम्" की टीका करवाना चाहते हैं। उन्होंने आलवन्दार को प्रणाम किया और कहा -"भगवान्! मुझे आपकी आज्ञा शिरोधार्य है, मैं इन तीनों ग्रन्थों की टीका अवश्य लिखूंगा अथवा लिखवाऊंगा।" रामानुज के यह कहते ही आलवन्दार की तीनों अंगुलियां सीधी हो गईं। इसके बाद श्रीरामानुज ने आलवन्दार के प्रधान शिष्य पेरियनाम्बि से विधिपूर्वक वैष्णव दीक्षा ली और भक्तिमार्ग में प्रवृत्त हो गए। रामानुज गृहस्थ थे, परन्तु जब उन्होंने देखा कि गृहस्थी में रहकर अपने उद्देश्य को पूरा करना कठिन है, तब उन्होंने गृहस्थी का परित्याग कर दिया और श्रीरंगम् जाकर यतिराज नामक संन्यासी से संन्यास की दीक्षा ले ली। इनके गुरु यादव प्रकाश को अपनी करनी पर बड़ा पश्चाताप हुआ और वे भी संन्यास लेकर श्रीरामानुज की सेवा करने के लिए श्रीरंगम् चले आये। उन्होंने संन्यास-आश्रम का अपना नाम गोविन्द योगी रखा। आचार्य रामानुज तिरुकोट्टियूर के महात्मा नाम्बि से अष्टाक्षर मन्त्र "ॐ नमो नारायणाय" की दीक्षा ली थी। नाम्बि ने मंत्र देते समय कहा था "तुम इस मंत्र को गुप्त रखना।" परन्तु रामानुज ने सभी वर्ण के लोगों को एकत्र कर मन्दिर के शिखर पर खड़े होकर सब लोगों को वह मंत्र सुना दिया। गुरु ने जब रामानुज की इस धृष्टता का विवरण सुना तो वे बड़े रुष्ट हुए और कहने लगे-"तुम्हें इस अपराध के बदले नरक भोगना पड़ेगा।" श्रीरामानुज ने इस पर बड़े विनयपूर्वक कहा कि "भगवन्! यदि इस महामंत्र का उच्चारण करके हजारों आदमी नरक की यन्त्रणा से बच सकते हैं तो मुझे नरक भोगने में आनन्द ही मिलेगा।" रामानुज के इस उत्तर से गुरु का क्रोध जाता रहा। उन्होंने बड़े प्रेम से इन्हें गले लगाया और आशीर्वाद दिया। इस प्रकार रामानुज ने अपनी समदर्शिता और उदारता का परिचय दिया। रामानुज के आलवन्दार की आज्ञा के अनुसार आलवारों के "दिव्य प्रबन्धम्" का कई बार अनुशीलन किया और उसे कण्ठ कर डाला। उनके कई शिष्य हो गए और उन्होंने इन्हें आलवन्दार की गद्दी पर बिठाया। रामानुज ने आलवारों के भक्तिमार्ग का प्रचार करने के लिए सारे भारत की यात्रा की और गीता तथा ब्राह्मसूत्र पर भाष्य लिखे। वेदान्त सूत्रों पर इनका भाष्य "श्रीभाष्य" के नाम से प्रसिद्ध है और इनका सम्प्रदाय भी "श्रीसम्प्रदाय" कहलाता है; क्योंकि इस सम्प्रदाय की आद्य प्रवर्तिका श्रीमहालक्ष्मी जी मानी जाती हैं। यह ग्रन्थ पहले-पहल कश्मीर के विद्वानों को सुनाया गया था। इनके प्रधान शिष्य का नाम कूरत्तालवार (कूरेश) था। कूरत्तालवार के पाराशर और पिल्लन नामक दो पुत्र थे। श्री रामानुज ने पराशर के द्वारा विष्णु सहस्रनाम की और पिल्लन से "दिव्य प्रबन्धम्" की टीका लिखवाई। इस प्रकार उन्होंने आलवन्दार की तीनों इच्छाओं को पूर्ण किया। उन दिनों श्रीरंगम् पर चोल देश के राजा कुलोत्तुंग का अधिकार था। ये बड़े कट्टर शैव थे। इन्होंने श्रीरंगजी के मंदिर पर एक ध्वजा टंगवा दी थी, जिस पर लिखा था- "शिवात्परं नास्ति" (शिव से बढ़कर कोई नहीं है)। जो कोई इसका विरोध करता, उसके प्राणों पर आ बनती थी। कुलोत्तुंग ने रामानुज ने शिष्य कूरत्तालवार को भी बहुत पीड़ा दी। इस समय आचार्य रामानुज मैसूर राज्य के शालग्राम नामक स्थान में रहने लगे थे। वहां के राजा भिट्टिदेव वैष्णव धर्म के सबसे बड़े आग्रही थे। आचार्य रामानुज ने वहां बारह वर्ष तक रहकर वैष्णव धर्म की बड़ी सेवा की। सन् 1099 में उन्हें नम्मले नामक स्थान में एक प्राचीन मंदिर मिला और राजा ने उसका जीर्णोद्धार करवाकर पुन: नये ढंग से निर्माण करवाया। वह मंदिर आज भी तिरुनारायणपुर के नाम से प्रसिद्ध है। राजा कुलोत्तुंग का देहान्त हो जाने पर आचार्य रामानुज श्रीरंगम् चले आये। वहां उन्होंने एक मंदिर बनवाया, जिसमें नम्मालवार और दूसरे आलवार संतों की प्रतिमाएं स्थापित की गईं और उनके नाम से कई उत्सव भी प्रारंभ किये। उन्होंने तिरुपति के मंदिर में भगवान् गोविन्दराज पेरुमल की पुन: स्थापना करवाई और मंदिर का पुन: निर्माण करवाया। उन्होंने देशभर में भ्रमण करके हजारों नर नारियों को भक्तिमार्ग में लगाया। आचार्य रामानुज के चौहत्तर शिष्य थे, ये सब-के-सब संत हुए। इन्होंने कूरत्तालवार के पुत्र महात्मा पिल्ललोकाचार्य को अपना उत्तराधिकारी बनाकर एक सौ बीस वर्ष की अवस्था में इस असार संसार को त्याग दिया। रामानुज के सिद्धान्त के अनुसार भगवान् ही पुरुषोत्तम हैं। वे ही प्रत्येक शरीर में साक्षी रूप में विद्यमान हैं। वे जगत् के नियन्ता, शेषी (अवयवी) एवं स्वामी हैं और जीव उनका नियम्य, शेष तथा सेवक है। अपेन व्यष्टि अहंकार को सर्वथा मिटाकर भगवान् की सर्वतोभावेन शरण ग्रहण करना ही जीव का परम पुरुषार्थ है। भगवान् नारायण ही सत् हैं, उनकी शक्ति महालक्ष्मी चित् हैं और यह जगत् उनके आनन्द का विलास है, रज्जू में सर्प की भांति असत् नहीं है। भगवान् लक्ष्मीनारायण जगत् के माता-पिता और जीव उनकी संतान हैं। माता-पिता का प्रेम और उनकी कृपा प्राप्त करना ही संतान का धर्म है। वाणी से भगवान् नारायण के नाम का ही उच्चारण करना चाहिए और मन, वाणी, शरीर से उनकी सेवा करनी चाहिए। श्रीरामानुजाचार्य जी के सिद्धान्त के अनुसार ब्राह्म सगुण और सविशेष है। ब्राह्म की शक्ति माया है। ब्राह्म अशेष कल्याणकारी गुणों के आलय हैं। जीवन और जगत् उनका शरीर है। भगवान् ही आत्मा हैं। उनके गुणों की संख्या नहीं है। वे गुणों में अद्वितीय हैं। ईश्वर सृष्टिकर्ता, कर्मफलदाता, नियन्ता तथा सर्वान्तर्यामी हैं। नारायण विष्णु ही सबके अधीश्वर हैं। वे पर, व्यूह, विभव, अन्तर्यामी और अर्चावतार- भेद से पांच प्रकार के हैं। वे शंख, चक्र, गदा, पद्मधारी, चतुर्भुज हैं। श्री, भू और लीला सहित हैं, किरीटादि भूषणों से अलंकृत हैं। अवतार दस प्रकार हैं- मत्स्य, कूर्म, नृसिंह, वराह, वामन, परशुराम, श्रीराम, बलभद्र, श्रीकृष्ण और कलि। इनमें मुख्य, गौण, पूर्ण और अंशभेद से और भी अनेक भेद हैं। अवतार हेतु इच्छा है, कर्म प्रयोजन हेतु नहीं है। दुष्कृतों के विनाश तथा साधुओं के परित्राण के लिए अवतार होता है। NEWS

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