मुख्य मेनू खोलें  खोजें संपादित करेंइस पृष्ठ का ध्यान रखें आत्मपूजोपनिषद् पेज समस्याएं आत्मपूजोपनिषद्, एक उपनिषद है. उपनिषद वेदों का अत्यधिक दार्शनिक और आध्यात्मिक हिस्सा हैं। वेदों का निर्णायक हिस्सा होने के नाते, उपनिषद को वैदिक का संपूर्ण पदार्थ कहा जा सकता है मुक्तािका उपनिषद के अनुसार कुल 108 उपनिषद हैं। इनमें से 12 उपनिषदों को प्रधान माना जाता है। वो हैं: ईशा उपनिषद केन उपनिषद कथा उपनिषद तात्यार्य उपनिषद ऐतेरेया उपनिषद प्रश्न उपनिषद मुंडका उपनिषद मंडुक्य उपनिषद चांदोजा उपनिषद स्वेतश्वर उपनिषद बृहद-अरण्यक उपनिषद महा-नारायण उपनिषद और अन्य 8 हैं: कैवल्य उपनिषद कौशिटकी उपनिषद आत्मा उपनिषद अमृतबिंदु उपनिषद ब्रह्मा उपनिषद परमहंस उपनिषद सर्व उपनिषद अरूनी (अरुनीय) उपनिषद ब्रह्मविद्या-खन्ड-1 के उपनिषद [1] संपादित करें १. अथर्वशिर उपनिषद् , २. अध्यात्मोपनिषद् , ३. अवधूतोपनिषद् , ४. आत्मपूजोपनिषद् , ५. आत्मबोधोपनिषद् , ६. आत्मोपनिषद् , ७. आरुण्युपनिषद् , ८. आश्रमोपनिषद् , ९. कठरुद्रोपनिषद् , १०. कुण्डिकोपनिषद् ,११. कैवल्योपनिषद् ,१२. कौषीताकि ब्राह्मणोपनिषद् , १३. क्षुरिकोपनिषद् ,१४. जाबालदर्शनोपनिषद् ,१५. जाबालोपनिषद् , १६. जाबाल्युपनिषद् ,१७. तुरीयातीतोपनिषद् ,१८. द्वयोपनिषद् , १९. नारदपरिव्राजकोपनिषद् . ब्रह्मविद्या-खन्ड-1 के उपनिषद संपादित करें २०. निर्वाणोपनिषद् ,२१. पंच ब्रह्मोपनिषद् ,२२. परब्रह्मोपनिषद् ,२३ .परमहंस परिव्राजकोपनिषद् ,२४ . परमहंसोपनिषद् ,२५ . पैङ्गलोपनिषद् ,२६ . ब्रह्मबिन्दूपनिषद् ,२७ . ब्रह्मविद्योपनिषद् ,२८ . ब्रह्मोपनिषद् ,२९ . भिक्षुकोपनिषद् ,३० . मण्डलब्राह्मणोपनिषद् ,३१ . महावाक्योपनिषद् ,३२ . मैत्रेय्युपनिषद् ,३३ . याज्ञवल्क्योपनिषद् ,३४ . योगतत्त्वोपनिषद् ,३५ . वज्रसूचिकोपनिषद् ,३६ . शाट्यायनीयोपनिषद् ,३७ . शाण्डिल्योपनिषद् , आत्मपूजोपनिषद् [2] एवं भाषांतर संपादित करें आत्मपूजोपनिषद् भाषांतर ॐ तस्य निश्चिन्तनं ध्यानम् । सर्वकर्मनिराकरणमावाहनम् । निश्चलज्ञानमासनम् । समुन्मनीभावः पाद्यम् । सदामनस्कमर्घ्यम् । सदादीप्तिराचमनीयम् । वराकृतप्राप्तिः स्नानम् । सर्वात्मकत्वं दृश्यविलयो गन्धः । दृगविशिष्टात्मानः अक्षताः । चिदादीप्तिः पुष्पम् । सूर्यात्मकत्वं दीपः । परिपूर्णचन्द्रामृतरसैकीकरणं नैवेद्यम् । निश्चलत्वं प्रदक्षिणम् । सोऽहम्भावो नमस्कारः । परमेश्वरस्तुतिर्मौनम् । सदासन्तोषो विसर्जनम् । एवं परिपूर्णराजयोगिनः सर्वात्मकपूजोपचारः स्यात् । सर्वात्मकत्वं आत्माधारो भवति । सर्वनिरामयपरिपूर्णोऽहमस्मीति मुमुक्षूणां मोक्षैकसिद्धिर्भवति । ॥इत्युपनिषत् ॥ ॥इति आत्मपूजोपनिषत् समाप्ता॥ उस आत्मा का निरन्तर चिन्तन ही उसका ध्यान है l सभी कर्मो का त्याग ही आवाहन है l निश्चल (स्थिर) ज्ञान ही आसन है l उनके प्रति सदा उन्मन रहना ही पाद्य है l उसकी ओर मन लगाये रखना ही अर्ध्व है l सदा आत्माराम की दीप्ति ही आचमनीय है l वर प्राप्ति ही स्नान है l सर्वात्मक रूप दृश्य का विलय (शून्य लय समाधि) ही गंध है l अन्तः ज्ञान चक्षु ही अक्षत है l चिद् का प्रकाश ही पुष्प है l सूर्यात्मक ही दीप है l परिपूर्ण जो चन्द्र उसके अमृतरस का एकीकरण ही नैवेद्य है l निश्चलता (स्थिरता) प्रदक्षिणा है l सोsहं यह भाव ही नमस्कार है l परमेश्वर की स्तुति ही मौन है l सदा सन्तुष्ट रहना ही विसर्जन है l इस प्रकार परिपूर्ण राजयोगी का सर्वात्मक रूप जो पूजा उसका उपचार (सामग्री) सर्वात्मकता ही आत्मा का आधार है l सर्व आधिव्याधिरहित निरामय ब्रहा से मैं परिपूर्ण हूँ-यही भावना मोक्ष के इच्छुकों की मोक्ष की सिद्धि है l अर्थात् जैसे देवताओं की पूजा के लिए ध्यान, आवाहन, गन्ध, नैवेद्य आदि चाहिये ऐसे ही आत्म-पूजा के लिए उपयुँक्त सामग्री चाहिए अर्थात वैसे करने से ही आत्मा की पूजा होती है l ll आत्मपूजोपनिषद् समाप्त ll सन्दर्भ संपादित करें ↑ http://literature.awgp.org/book/upanishad_bahma_vidhya_khand/v2 ↑ http://www.transliteral.org/pages/z140114221324/view Last edited 2 months ago by SM7 RELATED PAGES उपनिषद् सूची द्रोणपर्व परमहंस परिव्राजक उपनिषद  सामग्री CC BY-SA 3.0 के अधीन है जब तक अलग से उल्लेख ना किया गया हो। गोपनीयताडेस्कटॉप
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