Thursday, 13 July 2017

वीर, बलिष्ठ, पराक्रमी और तेजस्वी बनाने वाला प्राणायाम

awgp.org  Allow hindi Typing 🔍 PAGE TITLES October 1961 वीर, बलिष्ठ, पराक्रमी और तेजस्वी बनाने वाला प्राणायाम शरीर, विज्ञान के ज्ञाता प्राणायाम को फेफड़ों की कसरत मानते हैं और उसके लाभ, श्वास तथा क्षय सरीखे रोगों से छुटकारा मिलना समझते हैं। सीने की चौड़ाई बढ़ने और श्वास-प्रश्वास क्रिया में तीव्रता आने से हृदय तथा मस्तिष्क को बल मिलने एवं आयुष्य बढ़ने की बात भी डाक्टरों द्वारा स्वीकार की गई हैं। कितने ही चिकित्सक प्राणायाम की विभिन्न विधियों द्वारा नाना प्रकार के रोगों की चिकित्सा भी करने लगे हैं और उसके परिणाम भी आशाजनक हुए हैं। शारीरिक दृष्टि से प्राणायाम का बहुत महत्व हैं पर आध्यात्मिक दृष्टि से उसकी महत्ता अत्यधिक हैं। मन की चंचलता दूर करके उसमें एकाग्रता उत्पन्न करने के लिए प्राणायाम को एक अमोघ अस्त्र माना जाता हैं । योग का आधार ही चित्त वृत्तियों का निरोध अथवा एकाग्रता हैं। जिसका चित्त चंचलता को छोड़कर एक बिंदु पर एकाग्र हो गया उसे तुरन्त समाधि की स्थिति प्राप्त होती है और तत्क्षण आत्मा का दर्शन होने लगता है। सूक्ष्म शक्तियों के गुप्त केन्द्र मनुष्य के भीतर असीम सूक्ष्म शक्तियों के गुप्त-केन्द्र भरे पड़े हैं। इन्हें चक्र, ग्रन्थि एवं उपत्यिकाओं के नाम से पुकारा जाता हैं । प्राणशक्ति के प्रहार से ही इनमें भीतर सोई हुई सिद्धियाँ जाग्रत होती हैं। कुण्डलिनी जागरण से मनुष्य इसी शरीर में देवताओं जैसी सामर्थ्य का अनुभव करने लगता हैं। यह कुण्डलिनी जागरण प्राणायाम की सहायता से ही किया जाता हैं जिसने अपने बिखरे हुए प्राण को एकत्र कर लिया उस योगी के लिए कुछ भी असंभव नहीं है। जिसका प्राणतत्त्व पर जितना आधिपत्य है वह प्रकृति की सूक्ष्म शक्तियों को भी उतनी ही मात्रा में अपने वशवर्ती कर सकेगा। इन्द्रियों का नियंत्रण भी प्राण निरोध के साथ सम्बन्धित है दुष्प्रवृत्तियाँ भी इस प्राणग्निहोत्र ही अग्नि में जल कर भस्म होती हैं। प्राण-विद्या अध्यात्म क्षेत्र में एक स्वतन्त्र विद्या मानी जाती हैं। उसके अंतर्गत अनेक प्रयोजनों के लिए अनेक साधनाएँ की जाती हैं। 84 आसनों की तरह प्राणायाम भी 84 प्रकार के हैं। उनके उद्देश्य, प्रयोग, लाभ तथा उपयोग भी भिन्न-भिन्न प्रकार के हैं। उन सबका वर्णन इस लेख में करना अभीष्ट नहीं हैं। वह सब तो समयानुसार होगा। इस समय तो प्राणमय-कोश की साधना के लिए प्रथम वर्ष की प्राण प्रक्रिया का ही उल्लेख करना है। इसे बच्चे से लेकर बूढ़े तक सभी रोगी-निरोग नर-नारी बड़ी आसानी से कर सकते हैं। इसमें किसी को किसी प्रकार की हानि की आशंका नहीं हैं । सबको लाभ ही होगा। प्राणाकर्षण प्राणायाम (1) प्रातःकाल नित्यकर्म से निवृत्त होकर पूर्वाभिमुख, पालती मार कर आसन पर बैठिए । दोनों हाथों को घुटनों पर रखिए। मेरुदण्ड, सीधा रखिए। नेत्र बन्द कर लीजिए। ध्यान कीजिए कि अखिल आकाश में तेज और शक्ति से ओत-प्रोत प्राण-तत्त्व व्याप्त हो रहा हैं। गरम भाप के, सूर्य प्रकाश में चमकते हुए, बादलों जैसी शकल के प्राण का उफन हमारे चारों ओर उमड़ता चला आ रहा है। और उस प्राण-उफन के बीच हम निश्चिन्त, शान्तचित्त एवं प्रसन्न मुद्रा में बैठे हुए हैं। (2)नासिका के दोनों छिद्रों से धीरे-धीरे साँस खींचना आरंभ कीजिए और भावना कीजिए कि प्राणतत्त्व के उफनते हुए बादलों को हम अपनी साँस द्वारा भीतर खींच रहे हैं। जिस प्रकार पक्षी अपने घोंसले में, साँप अपने बिल में प्रवेश करता हैं उसी प्रकार वह अपने चारों ओर बिखरा हुआ प्राण-प्रवाह हमारी नासिका द्वारा साँस के साथ शरीर के भीतर प्रवेश करता हैं और मस्तिष्क छाती, हृदय, पेट, आँतों से लेकर समस्त अंगों में प्रवेश कर जाता हैं। (3)जब साँस पूरी खिंच जाय तो उसे भीतर रोकिए और भावना कीजिए कि −जो प्राणतत्त्व खींचा गया हैं उसे हमारे भीतरी अंग प्रत्यंग सोख रहे हैं। जिस प्रकार मिट्टी पर पानी डाला जाय तो वह उसे सोख जाता है, उसी प्रकार अपने अंग सूखी मिट्टी के समान हैं और जल रूप इस खींचे हुए प्राण को सोख कर अपने अन्दर सदा के लिए धारण कर रहें हैं। साथ ही प्राणतत्त्व में संमिश्रित चैतन्य, तेज, बल, उत्साह, साहस, धैर्य, पराक्रम, सरीखे अनेक तत्त्व हमारे अंग-अंग में स्थिर हो रहे हैं। (4) जितनी देर साँस आसानी से रोकी जा सके उतनी देर रोकने के बाद धीरे-धीरे साँस बाहर निकालिए। साथ ही भावना कीजिए कि प्राण वायु का सारतत्त्व हमारे अंग-प्रत्यंगों के द्वारा खींच लिए जाने के बाद अब वैसा ही निकम्पा वायु बाहर निकाला जा रहा है जैसा कि मक्खन निकाल लेने के बाद निस्सार दूध हटा दिया जाता है। शरीर और मन में जो विकार थे वे सब इस निकलती हुई साँस के साथ घुल गये हैं और काले धुँऐ के समान अनेक दोषों को लेकर वह बाहर निकल रहे हैं। (5) पूरी साँस बाहर निकल जाने के बाद कुछ देर साँस रोकिए अर्थात् बिना साँस के रहिए और भावना कीजिए कि अन्दर के दोष बाहर निकाले गये थे उनको वापिस न लौटने देने की दृष्टि से दरवाजा बन्द कर दिया गया है और वे बहिष्कृत होकर हमसे बहुत दूर उड़ें जा रहे हैं। इस प्रकार पाँच अंगों में विभाजित इस प्राणाकर्षण प्राणायाम को नित्य ही जप से पूर्व करना चाहिए। आरंभ 5 प्राणायामों से किया जाय । अर्थात् उपरोक्त क्रिया पाँच बार दुहराई जाय। इसके बाद हर महीने एक प्राणायाम बढ़ाया जा सकता है। यह प्रक्रिया धीरे-धीरे बढ़ाते हुए एक वर्ष में आधा घंटा तक पहुँचा देनी चाहिए। प्रातःकाल जप से पर्व तो यह प्राणाकर्षण प्राणायाम करना ही चाहिए। इसके अतिरिक्त भी कोई सुविधा का शान्त, एकान्त अवसर मिलता हो तो उस में भी इसे किया जा सकता हैं। प्राण-विद्या की विशिष्ट साधनाएँ प्राण विद्या के अंतर्गत अनेकों साधनाएँ हैं। तीन बन्ध,सात मुद्रायें एवं नौ प्राणायाम प्रमुख माने गये हैं। वैसे बंधों की संख्या 40, मुद्राओं की संख्या 64 और प्राणायामों की संख्या 54, योग ग्रन्थों में उपलब्ध होती हैं। उनमें से आज की परिस्थितियों में सभी तो आवश्यक नहीं हैं, पर उनमें से जो अधिक सरल, हानि रहित एवं उपयोगी हैं उन्हें अगले दश वर्ष में बताया जाता रहेगा। हठ योग के कई प्राणायाम ऐसे भी हैं जो अधिक शक्तिशाली तो है पर उनमें थोड़ी भूल होने से खतरा भी बहुत हैं। ऐसे विधानों को विशेष अधिकारी लोग ही अनुभवी गुरु की पास रहकर सीख सकते हैं । अपने परिवार के उन स्वजनों के लिए जो दूर रहने के कारण केवल अखंड-ज्योति द्वारा ही मार्ग-दर्शन प्राप्त करते हैं केवल ऐसी ही साधनाएँ उपयोगी हो सकती हैं जिनमें कोई भूल होने पर भी किसी प्रकार की हानि की संभावना न हो, किन्तु लाभ समुचित मात्रा में प्राप्त होता रहे। ऐसे चुने हुए प्राणायामों में से ही यह उपरोक्त प्राणाकर्षण प्रक्रिया हैं। इससे प्राण तत्त्व की मात्रा साधक में बढ़ेगी और वह शरीर एवं मन दोनों ही क्षेत्रों में अधिक वीर, बलिष्ठ, पराक्रमी एवं तेजस्वी बनेगा। दृढ़ निश्चय और धैर्य प्राणमय कोश के विकास के लिए प्राणायाम के साथ ही संकल्प साधना भी आवश्यक हैं। दृढ़ निश्चय और धैर्य के अभाव में हमारे कितने ही कार्य आज आरंभ होते और कल समाप्त हो जाते हैं,। जोश में आकर कोई काम आरंभ किया, जब तक जोश रहा तब तक बड़े उत्साह से वह काम किया गया, पर कुछ दिन में वह आवेश समाप्त हुआ तो मानसिक आलस्य ने आ घेरा और किसी छोटे-मोटे कारण के बहाने वह कार्य भी समाप्त हो गया। बहुधा लोग ऐसी ही बाल क्रीड़ाऐं करते रहते हैं। अध्यात्म मार्ग से तत्काल प्रत्यक्ष लाभ दिखाई नहीं पड़ता उसके सत्परिणाम तो देर में प्राप्त होने वाले तथा दूरवर्ती हैं। तब तक ठहरने लायक धैर्य और संकल्प बल होता नहीं इसलिए आध्यात्मिक योजनाएँ तो और भी जल्दी समाप्त हो जाती हैं। इस कठिनाई से छुटकारा पाने के लिए हमें संकल्प शक्ति का विकास करना आवश्यक हैं। जो कार्य करना हो उसकी उपयोगिता अनुपयोगिता पर गंभीरतापूर्वक विचार करें। ऐसा निर्णय किसी आवेश में आकर तत्क्षण न करें वरन् देर तक उसे अनेक दृष्टिकोणों से परखें। मार्ग में आने वाली कठिनाइयों को सोचें और उनका जो हल निकल सकता हो उसे पर सोचें। अन्त में बहुत सावधानी से ही यह निर्णय करें कि यह कार्य आरंभ करना या नहीं। यदि करने के पथ में मन झुक रहा हो तो उसे यह भी समझाना चाहिए कि बात को अन्त तक निबाहना पड़ेगा। कार्य को आरंभ करना और जरा-सा आलस या असुविधा आने पर उसे छोड़ बैठना विशुद्ध रूप से छिछोरापन हैं। हमें छिछोरा नहीं बनना हैं ।वीर पुरुष एक बार निश्चय करते हैं और जो कर लेते हैं उसे अन्त तक निबाहते हैं। अध्यात्म मार्ग वीर पुरुषों का मार्ग है। इस पर चलना हो तो वीर पुरुषों की भाँति, धुन के धनी महापुरुषों की भाँति की बढ़ना चाहिए। छिछोरपन की उपहासास्पद स्थिति बनने देना किसी भी भद्रपुरुष के लिए लज्जा और कलंक की बात ही हो सकती हैं। प्रतिज्ञा का प्राणपण से पालन जो निश्चय करना उसे निबाहना इसे नीति का, अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लेना चाहिए और यह मानकर कदम उठाना चाहिए कि हर कीमत पर इसे पूरा करना हैं। आलस्य और बहानेबाज़ी को अपने दृढ़ निश्चय के मार्ग में आड़े नहीं आने देना हैं। निश्चय करना हो कि एक या आधा घंटा रोज साधना में लगावेंगे तो फिर उसे उतना ही आवश्यक मान लेना चाहिए जितना कि शौच, स्नान, भोजन, नींद आदि नित्य कर्मों को आवश्यक माना जाता हैं कोई भी कठिनाई क्यों न आवें, कितना ही आलस क्यों न घेरे हम उपरोक्त नित्य कर्मों को कर ही लेते हैं, उनके लिए समय निकल ही आता है फिर साधना के लिए ही दुनियाँ भर की बहानेबाज़ी प्रस्तुत कर दी जाय, इसमें क्या तुक हैं। जो कार्य आवश्यक और उपयोगी जँचता है उसे मनुष्य प्राथमिकता देता हैं और उसके लिए न फ रता का बहाना करना पड़ता हैं और न समय का अभाव रहता हैं। साधनात्मक आध्यात्मिक कार्यक्रमों को भी उपयोगी और आवश्यक नित्य कर्म मानकर ही हमें इस दिशा में कोई कदम उठाना चाहिए। मनोबल की कमी के खतरे के कारण कार्यक्रम टूट न जाय इस खतरे को ध्यान में रखते हुए पहले से ही उसे किसी नित्य कर्म के साथ नत्थी कर देना चाहिए। जैसे जब तक साधना न कर लेंगे तब तक भोजन न करेंगे या सोयेंगे नहीं। भोजन या सोने में थोड़ा विलम्ब हो जाय तो उससे कोई विपत्ति नहीं आती। मान लीजिए आज बहुत व्यस्तता रही और साधना के लिए समय न मिल सका तो फिर भोजन को ही साधना से अधिक महत्व क्यों दिया जाय? उसे भी क्यों न स्थगित रखा जाए? दिन भर व्यस्त रहे तो रात को सोने के घंटों में आधा घंटे की कमी करके साधना को सोने से पूर्व पूरा किया जा सकता हैं। प्रतिज्ञा तोड़ने का दंड यदि भोजन न करना और न सोना निश्चित कर लिया जाय तो फिर आलस्य और बहानेबाज़ी की दाल न गलेगी। उन्हें परास्त होना पड़ता और संकल्प-बल दिन-दिन पुष्ट होता जाएगा । संकल्प-पूर्ति के लिए व्रत धारण कई व्यक्ति किन्हीं विशेष कार्यों की संकल्प-पूर्ति तक कुछ शारीरिक असुविधाओं का वरण कर लेते हैं, जैसे बाल न बनाना, जमीन पर सोना, ब्रह्मचर्य से रहना, नमक छोड़ देना, थाली के स्थान पर पत्तों पर भोजन करना आदि । इस प्रकार के व्रत लेने से अमुक कार्य को पूरा करने के लिए आकांक्षा प्रदीप्त रहती हैं, संकल्प याद रहता हैं और शिथिलता नहीं आने पाती। किसी संकल्प की पूर्ति में मानसिक शिथिलता ही प्रधान कारण होती हैं। उस पर नियन्त्रण करने के लिए इस प्रकार के व्रतों का कारण किया जा सकता हैं। एक के बाद एक संकल्प पूर्ण होते रहने से मनुष्य का साहस बढ़ता है और वह बड़े-बड़े कठिन काम दृढ़ता पूर्वक पूरा कर सकने वाले महापुरुषों की श्रेणी में जा पहुँचता हैं। इस पंचकोशी, साधना का कार्यक्रम जब तक ठीक प्रकार न चलने लगे तब तक भोजन में से नमक छोड़ देने या बाल न बनाने जैसी कोई प्रतिज्ञा हम भी ले सकते हैं और तब क्रम यथावत् एक महीने चलने लगे तो उस व्रत को पूर्ण मानकर समाप्त कर सकते हैं। पर नित्य कर्म को तो सदा के लिए ही भोजन या शयन के साथ जोड़ रखना चाहिए। ताकि वह सदैव नियमित रूप से ठीक प्रकार चलता रहे। मनोमयकोश का विकास मनोबल के साथ सुसम्बद्ध हैं। संकल्प साधना के आधार पर उसे बढ़ाया जाना चाहिए। हमें प्राणायाम के साथ-साथ संकल्प भी सक्रिय रखना है। इसी प्रकार हमारा मानसिक स्तर परिपुष्ट एवं विकसित होगा। Months January February March April May June July August September October November December अखंड ज्योति कहानियाँ समस्त मानवीय गलतियाँ अहंकार से उत्पन्न होती हैं आत्मज्ञान की प्राप्ति अनुवादकों का योगदान (kahani) आन्तरिक वरिष्ठता (Kahani) See More    13_July_2017_1_6238.jpg More About Gayatri Pariwar Gayatri Pariwar is a living model of a futuristic society, being guided by principles of human unity and equality. It's a modern adoption of the age old wisdom of Vedic Rishis, who practiced and propagated the philosophy of Vasudhaiva Kutumbakam. Founded by saint, reformer, writer, philosopher, spiritual guide and visionary Yug Rishi Pandit Shriram Sharma Acharya this mission has emerged as a mass movement for Transformation of Era.               Contact Us Address: All World Gayatri Pariwar Shantikunj, Haridwar India Centres Contacts Abroad Contacts Phone: +91-1334-260602 Email: shantikunj@awgp.org Subscribe for Daily Messages   Fatal error: Call to a member function isOutdated() on a non-object in /home/shravan/www/literature.awgp.org.v3/vidhata/theams/gayatri/magazine_version_mobile.php on line 551 All WorldGayatri Pariwar Books Magazine Language English Hindi Gujrati Kannada Malayalam Marathi Telugu Tamil Stories Collections Articles Open Pages (Folders) Kavita Quotations Visheshank

No comments:

Post a Comment