Thursday, 13 July 2017
ऋषि-मुनि और संत-महात्मा इसलिए लेते हैं समाधि Thu Apr 17 09:40:45 IST 2014  ध्यान की वह अवस्था जब व्यक्ति ईश्वर या अपने आराध्य में एकाकार हो जाता है समाधि कहलाती है। इस अवस्था में व्यक्ति को स्पर्श, रस, गंध, रूप एवं शब्द इन 5 विषयों की इच्छा नहीं रहती तथा उसे भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी आदि का आभास भी नहीं होता। ऐसा व्यक्ति शक्ति संपन्न बनकर अमरत्व को प्राप्त कर लेता है। उसके जन्म-मरण का चक्र समाप्त हो जाता है।यही है कैवल्य ज्ञानजैन धर्म में समाधि को कैवल्य ज्ञान और बौद्ध धर्म में निर्वाण कहा गया है। योग में इसे समाधि कहते हैं। इसके कई स्तर होते हैं।योग का अंतिम पड़ावसमाधि योग का सबसे अंतिम पड़ाव है। यह तभी प्राप्त हो सकता है जब व्यक्ति सभी योग साधनाओं को करने के बाद मन को बाहरी वस्तुओं से हटाकर निरंतर ध्यान करते हुए उसी में लीन होने लगता है।संयम करना ही समाधिपूर्ण रूप से सांस पर नियंत्रण और मन स्थिर व सन्तुलित हो जाता है, तब समाधि की स्थिति कहलाती है। प्राणवायु को 5 सेकंड तक रोककर रखना 'धारणा' है, 60 सेकंड तक मन को किसी विषय पर केंद्रित करना 'ध्यान' है और 12 दिनों तक प्राणों का निरंतर संयम करना ही समाधि है।समाधि के प्रकारभगवान श्री कृष्ण ने भी भागवत गीता में समाधि के बारे में विस्तार से बताया है। योग में समाधि के दो प्रकार बताए गए हैं- सम्प्रज्ञात और असम्प्रज्ञात। सम्प्रज्ञात समाधि वितर्क, विचार, आनंद और अस्मितानुगत होती है। असम्प्रज्ञात में सात्विक, राजस और तामस सभी वृत्तियों का निरोध हो जाता है।भक्ति सागर में समाधि के 3 प्रकार बताए गए है- 1.भक्ति समाधि, 2.योग समाधि, 3.ज्ञान समाधि।पुराणों में समाधि के 6 प्रकार बताए गए हैं जिन्हें छह मुक्ति कहा गया है- 1. साष्ट्रि, (ऐश्वर्य), 2. सालोक्य (लोक की प्राप्ति), 3. सारूप (ब्रह्मस्वरूप), 4. सामीप्य, (ब्रह्म के पास), 5. साम्य (ब्रह्म जैसी समानता) 6. लीनता या सायुज्य (ब्रह्म में लीन होकर ब्रह्म हो जाना)।ऐसे शुरू की जाती है समाधिजब व्यक्ति प्राणायाम, प्रत्याहार को साधते हुए धारणा व ध्यान का अभ्यास पूर्ण कर लेता है तब वह समाधि के योग्य बन जाता है। समाधि के लिए व्यक्ति के मन में किसी भी प्रकार के बाहरी विचार नहीं होते।व्यक्ति का मन पूर्ण स्थिर रहकर आंतरिक आत्मा में लीन हो जाता है तब समाधि घटित होती है। इसलिए समाधि से पहले ध्यान के अभ्यास को बताया गया है। ध्यान से ही चित्त (मन) विचार शून्य हो जाने की अवस्था में समाधि घटित होती है।समाधि प्राप्त व्यक्ति का व्यवहार सामान्य व्यक्ति से अलग हो जाता है, वह सभी में ईश्वर को ही देखता है और उसकी दृष्टि में ईश्वर ही सत्य होता है। समाधि में लीन होने वाले योगी को अनेक प्रकार के दिव्य ज्योति और आलौकिक शक्ति का ज्ञान प्राप्त स्वत: ही होता है।क्यों जरूरी है मोक्षशरीर के जन्म और मरण के चक्र से बाहर निकलकर स्वयं को कहीं भी किसी भी रूप में अभिव्यक्त करने की ताकत और सच मानो तो इस ब्रह्मांड से अलग रहने की ताकत। ब्रह्मांड से अलग वही रह सकता है, जो ब्रह्म स्वरूप शुद्ध चैतन्य है।
राजयोग कोर्स
 bkkaran
4 years ago
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राजयोग ज्ञान
“योग“ शब्द ही – मनुष्य को अलौकिकता की ओर प्रेरित करता है. आज विश्व में योग विद्या के अभाव के कारण ही बेचौनी, परेशानी व तनाव का प्रकोप बढ़ता जा रहा है. योग अत्यन्त प्राचीन प्रणाली है. भारत के प्राचीन योग की ख्याति समस्त विश्व तक पहुँची हुई है. इसलिए विश्व के अनेक प्राणियों में योगाभ्यास सीखने की आकांक्षा है
योग की प्रख्याति के कारण समयोपरान्त इसके विविध स्वरुप सामने आये. यद्यपि योग अभ्यास की विधि एक ही है, परन्तु आत्मा और परमात्मा की भिन्न-भिन्न व्याख्याओं के कारण मनुष्यों ने अनेक प्रकार के योगांे का प्रतिपादन किया. धीरे-धीरे योग अभ्यास मनुष्य के लिए कठिन होता गया और योग का स्थान हटयोग व योग आसनों ने लिया तथा आजकल मनुष्य योग को केवल शारीरिक स्वास्थ्य के लिए ही हितकर मानने लगा. यह सत्य उससे विस्मृत हो गया कि योग पूर्णतया आध्यात्मिक विद्या है.
योग विद्या लोप होने के साथ-साथ संसार से सत्य धर्म भी लोप होता गया और धर्म की ग्लानि की स्थिती आ पहुँची. संसार से वास्तविक धर्म व अध्यात्म समाप्त हो गया और मानवता का भविष्य पूर्णतया अंधकार मे नज़र आने लगा. हम सब कलियुग के अन्तिम चरण में पहॅुंच गये. तब योगेश्वर, ज्ञान-सागर परमात्मा ने स्वयं प्रजापिता ब्रह्मा के मुखारविन्द द्वारा सत्य व सम्पूर्ण योग सिखाया जिसे राजयोग की संज्ञा दी गई क्योंकि इससे मनुष्यात्मा पहले अपनी कर्मेन्द्रियों का राजा बन जाती है फिर उसे स्वर्ग का सम्पूर्ण सतोप्रधान राज्य प्राप्त हो जाता है. परमात्मा द्वारा सिखाये गये उस सहज राजयोग का ही इस पुस्तिका में उल्लेख है.
परमात्मा ने अति सहज योग सिखाया इसलिए इस योग में मन्त्र, प्राणायाम व आसनों की आवश्यकता नहीं पड़ती. इस योग का अभ्यास विश्व का हर प्राणी कर सकता है. यह राजयोग वास्त में मनुष्य को कर्म-कुशल बनाता है और कलियुग के इस दूषित वातावरण मे सन्तुलित जीवन जीने की कला भी सिखाता है. इस राजयोग के अभ्यास से अन्तरात्मा की गुप्त शक्तियाँ जागृत हो जाती है ओर उससे अनेक गुणांे, कलाओं व विशेषताओं का आविर्भाव होने लगता है. यह राजयोग मनुष्य के कुशल प्रशासन की कला भी सिखाता है और मन में बौठे विकारों के कीटाणुओं को नष्ट करने में सक्षम भी बनाता है. अगर जिज्ञासु इस राजयोग का एकाग्रता से अभ्यास करे और जीवन को अन्तर्मुखी बनाकर, ताये गये नियमों का पालन करे तो उस जीवन मे अत्याधिक परमानन्द व जीवन के सच्चे सुख की अनुभूति होगी.
अन्त में हम आशा करते है कि इस योग के अभ्यास से मनुष्यात्माएं अपने परमपिता से मिलन का अनुभव करेंगी और अभ्यास द्वारा इस योगाग्नि में अपने जन्म-जन्म के पापों को नष्ट करके एक स्वच्छ व निर्विकारी जीवन बनायेंगी तथा अन्त में कर्मातीत स्थिती को प्राप्त करेंगी.
राजयोग का लक्ष्य, नियम तथा प्राप्ति
राजयोग का लक्ष्य, नियम तथा प्राप्ति
राजयोग का लक्ष्य, नियम तथा प्राप्ति
राजयोग ही अविनाश सुख-शान्ति का एकमात्र उपाय है
आज के इस आधुनिक युग में राजयोग सिखने की बड़ी आवश्यकता है, क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन में सुख-शान्ति की इच्छा रखता है और वह जानता है कि शान्ति केवल भौतिक चरमसीमा तक पहँुच चुकी है परन्तु विदेशी फिर भी भारत में ही योग सीखने आते है. वे जानते है कि योग ही एक मात्र साधन है जिससे मानसिक तनाव होता है तथा तन-मन को सुख-शान्ति और शक्ति की प्राप्ति होती है. लेकिन खेद की बात है कि भारत के आदि, प्राचीन राजयोग के नाम पर आज अनेक प्रकार के हटयोग या केवल शारीरिक आसन ही सिखाये जाते है. इनसे शारीरिक स्तर पर लाभ अवश्य होता है परन्तु मन की गहरी शाक्तियों को जगाने के लिए तो राजयोग से ही पूर्ण सफलता मिलती है. मन को शक्तियाशाली बनाने के लिए तो राजयोग की ही आवश्यकता है. क्योंकि प्रत्येक चीज़ मन से ही आरम्भ होती है. वौसे भी 80 प्रतिशत शारीरकि रोग मानसिक तनाव के कारण ही उत्पन्न होते है. यहाँ जो राजयोग सिखाया जाता है इनमें कोई भी शारीरिक आसन नहीं बताये जाते है लेकिन हरेक बात आध्यात्मिकता तथा मनोवौज्ञानिक दृष्टिकोण के आधार पर व्यावहारिक रुप से समझाई जाती है. राजयोग एक ऐसा सहज व विश्व प्रिय योग है जिसका अभ्यास कोई भी व्यक्ति कर सकता है. चाहे वह किसी भी जाति, धर्म, रंग, उम्र व्यवसाय, देश आदि का हो क्यांेकि राजयोग इन सब बन्धनों से पार ले जाता है.
योग का अर्थ –
राजयोग को समझने के पूर्व “योग“ शब्द का अर्थ जानना आवश्यक होगा. योग का शाब्दिक अर्थ है – जोड़, सम्बन्ध या मिलन. प्रत्येक व्यक्ति का किसी न किसी व्यक्ति, वस्तु, वौभव से योग होता ही है. पिता-पुत्र, पति-पत्नी का आपस मंे लौकिक सम्बन्ध भी एक योग ही होता है. जिस प्रकार अलग होने को “वियोग“ शब्द दिया जाता है इसी प्रकार मिलन को “योग“ शब्द दिया जाता है.
राजयोग का अर्थ –
योग का आध्यात्मिक अर्थ है आत्मा का सम्बन्ध, मिलन का जोड़ परमात्मा के साथ. आत्मा और परमात्मा का मिलन सर्वश्रेष्ठ होने के कारण इसे राजयोग कहते है. राजयोग सभी योगों का राजा है. स्वयं परमात्मा ही अपना परिचय देकर आत्मा को अपने साथ योग लगाने की विधि बताते है. इस योग को “राजयोग“ इसलिए भी कहा गया है, क्यांकि इसका शिक्षक सर्वश्रेष्ठ योगेश्वर स्वयं परमात्मा ही है. इस योगद्वारा हमारे संस्कार उच्च अथवा “रॉयल“ बनते हैं इसलिए भी इसे राजयोग कहा जाता है. राजयोग ही वर्तमान जीवन में कर्मो में श्रेष्ठता लाकर हमें कर्मेन्द्रियों का राजा बनाता है और भविष्य सतयुगी नई दुनिया में विश्व का महाराजा बनाता है.
राजयोग के विभिन्न नाम –
अ. ज्ञान-योग – राज शब्द में “ज“ अक्षर के नीचे बिन्दी लगने से वह “राज़“ बन जाता है. राज़ अर्थात रहस्य. यह राजयोग अनेक रहस्यों को खोलता है जौसे कि – “मौ कौन हँू ? मौ कहाँ से आया हँू ? मुझे कहाँ जाना है ? मौ इस संसार में क्यों आया ? मुझे उनसे क्या प्राप्ति होनी है? आदि-आदि…….“ इसलिए इस राजयोग को ज्ञान-योग भी कहा जाता है. जब आत्मा और परमात्मा के सही स्वरुप, स्वभाव, धाम, गुणों और कर्तव्यों का ज्ञान हो तब ही राजयोग का अभ्यास किया जा सकता है. दूसरे शब्दों में यह कह सकते है कि राजयोग द्वारा अनेक आध्यात्मिक प्रश्नों के हल मिल जाते हैं.
ब. सहजयोग, बुध्दियोग – राजयोग को सहजयोग या बुध्दियोग भी कह सकते हैं क्योंकि यह योग हरेक व्यक्ति कर सकता है. यह योग कभी भी और कहीं भी किया जा सकता है क्योंकि इसमें किसी भी प्रकार के शारीरिक आसन की आवश्यकता नहीं है. बल्कि राजयोग में बुध्दि के द्वारा मन को नियन्त्रित कर, ईश्वरीय ज्ञान के आधार पर उसको परमात्मा में लगाया जाता है.
स. भक्ति-योग – राजयोग में केवल परमात्मा के प्रति सच्ची लगन, प्रेम या भक्ति की परम आवश्यकता है, इसलिए इस राजयोग को भक्ति योग भी कह सकते है. परमात्मा की प्रेम-पूर्ण याद ही यथार्थ भक्ति है.
द. कर्म-योग – राजयोग ही हमें सही कर्मयोग सिखाता है. कई समझते है कि योग सीखने के लिए उन्हें घर-गृहस्थी का त्याग करना होगा, जिम्मेदारियों को छोड़ना होगा, गेरुए वस्त्र धारण कर जंगल में जाना होगा तब वे योगी कहला सकते है. लेकिन ऐसी बात नहीं है. राजयोगी सच्चा कर्मयोगी भी है. कर्मयोगी अर्थात् कर्म-योगी, कर्म करते हुए पिता परमात्मा की याद में मन लगाकर योग करना ही वास्तविक कर्मयोग है. कर्मयोगी हर कर्म परमात्मा की याद में करता है. वह अपनी जिम्मेदारियों को सम्भालते हुए, घर-गृहस्थी में रहकर स्वयं के जीवन को कमल के फूल सदृश्य रखता है. जिस प्रकार कमल का फूल कीचड़ में रहते हुए भी न्यारा रहता है, इसी प्रकार राजयोगी प्रतिकूल वातावरण में रहते हुए भी न्यारा रहता है, इसी प्रकार राजयोगी प्रतिकूल वातावरण में रहते हुए भी अपने आपको उससे न्यारा रखकर हर कर्म को परमात्मा की याद करते हूए उसे श्रेष्ठ बनाता जाता है.
क. सन्यास योग – राजयोगी काम, क्रोध, लोभ, मोह, अशुध्द अहंकार आदि जो आत्मा के महावौरी और बड़े दुश्यमन हैं, पर सहज रुप से विजय प्राप्त करता है या उनका संन्यास करता है. इसलिए राजयोग को संन्यास योग भी कह सकते है. भौतिक रीति से राजयोगी कुछ भी संन्यास नहीं करता है लेकिन मानसिक रीति से वह सारे भौतिक विश्व का संन्यास करता है और संन्यास भी उतना सहज बन जाता है.
राजयोग एक मनोविज्ञान
आज मनुष्य परमात्मा के सामने जाकर प्रार्थना करता है कि “हे प्रभु ! मैं तुम्हारा दास हूँ, सेवक हूँ, गुलाम हूँ, चरणों की धूल हँू……“ आदि-आदि. लेकिन वास्तविकता यही है कि वह अपनी इन्दियों का गुलाम बन चुका है क्योंकि जहाँ इन्द्रियाँ मनुष्य के मन को ले जाती है, वही मन चला जाता है, इसीलिए मन को नीच, पापी कपटी और चंचल घोड़े आदि की उपाधि दी जाती है, लेकिन परमात्मा कहते है कि मन एक अति प्रबल शक्ति है जिसको ईश्वर की तरफ ले जाना ही राजयोग है.
वौसे तो हर एक व्यक्ति परमात्मा को याद करता है, परन्तू उसकी सहा यही शिकायत बनी रहती है कि जब भी वह ईश्वर के ध्यान में बौठता है, तब उसका मन टिकता नहीं है. अब इसका मूल कारण क्या है ? सबसे पहले ईश्वर का ध्यान करने वाला “मौ स्वयं कौन हूँ “ – यही वह नहीं जानता है. वह यह भी नहीं जानता है कि ईश्वर का सही परिचय क्या है इसलिए मन की शक्ति काफ़ी हद तक अनेक व्यर्थ बातों में भटकने के कारण नष्ट हो जाती है. राजयोग वह मनोविज्ञान है जिसके द्वारा आत्मा और परमात्मा का सही परिचय प्राप्त कर मन को परमात्मा मंे लगाया जाता है, भगवान ने कहा है – “मन्मनाभव“ अर्थात “मन को मेरे में लगाओ“ मन को मारने की बजाए मन को ईश्वर की तरफ मोड़ना ही राजयोग है. जब मन परमात्मा में लगाया जाता है तब ही उसकी शक्ति व्यर्थ जाने के बजाए उसका संचय किया जा सकता है. राजयोग वह विधि है जिससे मन परमात्मा में लगाकर स्थायी रूप से उसके गुणों – सुख, शान्ति, आनन्द, प्रेम आदि का अनुभव किया जा सकता है.
परमात्मा के साथ आत्मा का सम्बन्ध जोड़ने के लिए किसी भी भौतिक शक्ति की आवश्यकता नहीं है. स्वयं की पहचान तथा परमात्मा की पहचान के आधार पर यह सम्बधन्ध जोडना सहज हो सकता है.
राजयोग के लिए नियमों का पालन
संयम और नियम ही मनुष्य जीवन का मूल श्रृंगार हैं. बिना नियम के मनुष्य-जीवन पशु-जीवन से भी बदतर गिना जायेगा. ईश्वर में मन न लगने का यह भी एक कारण है. अगर मन में विकारों ने स्थान ले लिया है तो ईश्वर वहाँ स्थान कैसे ले सकता है ? परमात्मा की याद उसके मन में रह सकती है जिसका मन रूपी पात्र शुध्द हो. तो मन के शुध्दिकरण के लिए या राजयोग का श्रेष्ठ अनुभव करने के लिए कुछ नियमों का पालन आवश्यक हो जाता है जो निम्नलिखित है –
अ. ब्रह्मचर्य – ब्रह्मचर्य अर्थात् मन, वचन, कर्म की शुध्दि. काम विकासर योगी का सबसे बड़ा शुत्र है. राजयोग अर्थात आत्म-स्मृति के आधार पर है जिसकी तुलना अमृत से की जाती है जबकि काम विकार देह-अभिमान के आधार पर है जिसकी तुलना विष से की जाती है. तो “`अमृत` और “विष“ की भांति “योग“ और “भोग“ दो विरोधी बातें है जो साथ नहीं चल सकते है. अमृत के घड़े में एक बूंद भी जहर की पड़ जाने से अमृत जहर बन जाता है. एक म्यान में एक ही तलवार रह सकती है, दो नहीं. या तो जीवन राम हवाले है या काम हवाले है. जिस मन रूपी पात्र में काम विकार घूम रहा है, वहा परमात्मा स्थान कैसे ले सकता है ! शुध्द वस्तु को स्थान देने के लिए पात्र भी इतना योग्य और शुध्द होना चाहिए. उक्ति प्रसिध्द है – “शेरणी का दूध सोने के पात्र में ही रह सकता है “ राजा और राजनौतिक नेता ब्रह्मचर्य का पालन करने वालों के आगे मस्तक झुकाते हैं छोटी कुमारियों की पूजा भी इसीलिए होती है क्योंकि वे पवित्र हैं देवता भी तन-मन से पवित्र हैं, इसलिए वे पूज्य हैं.
ब. शुध्द अन्न – मनुष्य जौसा भोजन करता है, उसका गहरा प्रभाव उसके मन की स्थिती पर पड़ता है. कहावत भी है – “`जौसा अन्न वौसा मन“ अत: राजयोगी के लिए भोजन की पवित्रता का नियम पालन आवश्यक है. उसका भोजन सात्विक अर्थात् शाकाहारी, सादा, ताजा और शुध्द होता है. उसमें तमोगुणी, मांसाहारी और रजोगुणी नशीले एवं उत्तेजक पदार्थ नहीं होते है. भोजन बनाने वाला भी ब्रह्मचर्य का पालन वाला हो. भोजन शुरु करने से पूर्व योग उस परमात्मा के प्रति अर्पित करता है और फिर प्रसाद के रुप में ग्रहण करता है जिससे उसकी मानसिक शुध्दि होती है. राजयोगी खाने के लिए नहीं जीता है, वह जीने के लिए खाता है वह तम्बाकू, शराब आदि नशीलंे पदार्थो के सेवन से भी दूर रहता है.
स. सत्संग – व्यक्ति की पहचान उसके संगी-साथियों से होती है. राजयोगी प्रतिदिन ईश्वरीय ज्ञान प्राप्त करता है. जौसे प्रात: स्नान करने के उपरान्त मनुष्य प्रफुल्लता का अनुभव करता है, वौसे ही आत्मा को बुरे संकल्पों से बचाये रखने एवं उमंग-उत्साह में रखने के लिए प्रतिदिन ज्ञानस्नान आवश्यक है. सत्संग का अर्थ है – सत्य का संग अर्थात् परमात्मा से मानसिक स्मृति द्वारा निरन्तर सम्पर्क बनाए रखना. पावन परमात्मा का संग करने से आत्मा पावन बन जाती है. राजयोगी अश्लील सिनेमा और उपन्यास की तरफ भी अपनी बुध्दि को नहीं ले जाता है.
द. दिव्य गुणों की धारणा – राजयोग का अन्तिम उद्देश्य देवत्व की प्राप्ति करना है. अत: राजयोगी अपने जीवन में सदगुणों की भी धारणा करता है. राजयोगी स्वयं को परमात्मा की सुयोग्य सन्तान समझकर अन्तर्मुखता, हर्षितमुखता, मधुरता, सहनशीलता, प्रसन्नता, सन्तुष्ठता, निर्भयता, धौर्य आदि गुणों की धारणा को सर्वोच्च प्राथमिकता देता है.
राजयोग द्वारा प्राप्ति
राजयोग से अनेक उपलब्ध्यिों की सहज प्राप्ति होती है जो और किसी योग से प्राप्त नहीं हो सकती है. यह सभी दु:खों की एकमात्र औषधी है जिससे कड़े संस्कार रुपी रोग नष्ट हो जाते है. राजयोग द्वारा मनुष्य अधिक क्रियाशील, कार्य-कुशल और जागरुक बन जाता है, क्योंकि उसकी एकाग्रता की शक्ति बढ़ जाती हैं. राजयोग मनुष्य में जीवन के प्रति मूलभूत परिवर्तन ला देता है. वह संसारी होते हुए भी विदेही होता है. वह कार्यरत होते हूए भी कर्मबन्धनों से मुक्त रहता है. वह गृहस्थ और समाज के कार्यो में सक्रिय भाग लेते हूए भी निर्लिप्त रहता है अर्थात परिस्थितीयों में तटस्थ रहकर कमल-फूल समान न्यारा और प्यारा जीवन व्यतीत करता है. इसी कारण वह समाज का भी एक लाभदायक अंग बन जाता है. संक्षेप में राजयोग उसको वह सब कुछ प्रदान करता है जो जीवन मेंे प्रापत करने योग्य है और वह अनुभव करता है कि वह सब कुछ पा रहा है. यही जीवन की पूर्णत है.
राजयोग अभ्यास
राजयोग के उपरान्त महत्व को देख हर मनुष्य में राजयोग अभ्यासी बनने के लिए रुची प्राप्त हो सकती है. अत: राजयोग की प्राथमिक अनूभूती हेतू निम्नलिखीत अभ्यास आवश्यक है.
कुल् समय के लिए परमात्म् याद – अखण्ड शान्ति की स्थिती में अपने – अपने ढ़ग से बौठेगे और प्रभू पिता के समक्ष राजयोग के अभ्यास निमित्त नियम पालन का श्रेष्ठ संकल्प रखेंगे ताकि वह मददगार बनकर हमें श्रेष्ठ प्राप्ति का अधिकारी बनाये
राजयोग के लिए नियमों का पालन
राजयोग के लिए नियमों का पालन

संयम और नियम ही मनुष्य जीवन का मूल श्रृंगार हैं. बिना नियम के मनुष्य-जीवन पशु-जीवन से भी बदतर गिना जायेगा. ईश्वर में मन न लगने का यह भी एक कारण है. अगर मन में विकारों ने स्थान ले लिया है तो ईश्वर वहाँ स्थान कैसे ले सकता है ? परमात्मा की याद उसके मन में रह सकती है जिसका मन रूपी पात्र शुध्द हो. तो मन के शुध्दिकरण के लिए या राजयोग का श्रेष्ठ अनुभव करने के लिए कुछ नियमों का पालन आवश्यक हो जाता है जो निम्नलिखित है
संयम और नियम ही मनुष्य जीवन का मूल श्रृंगार हैं. बिना नियम के मनुष्य-जीवन पशु-जीवन से भी बदतर गिना जायेगा. ईश्वर में मन न लगने का यह भी एक कारण है. अगर मन में विकारों ने स्थान ले लिया है तो ईश्वर वहाँ स्थान कैसे ले सकता है ? परमात्मा की याद उसके मन में रह सकती है जिसका मन रूपी पात्र शुध्द हो. तो मन के शुध्दिकरण के लिए या राजयोग का श्रेष्ठ अनुभव करने के लिए कुछ नियमों का पालन आवश्यक हो जाता है जो निम्नलिखित है –
अ. ब्रह्मचर्य – ब्रह्मचर्य अर्थात् मन, वचन, कर्म की शुध्दि. काम विकासर योगी का सबसे बड़ा शुत्र है. राजयोग अर्थात आत्म-स्मृति के आधार पर है जिसकी तुलना अमृत से की जाती है जबकि काम विकार देह-अभिमान के आधार पर है जिसकी तुलना विष से की जाती है. तो “`अमृत` और “विष“ की भांति “योग“ और “भोग“ दो विरोधी बातें है जो साथ नहीं चल सकते है. अमृत के घड़े में एक बूंद भी जहर की पड़ जाने से अमृत जहर बन जाता है. एक म्यान में एक ही तलवार रह सकती है, दो नहीं. या तो जीवन राम हवाले है या काम हवाले है. जिस मन रूपी पात्र में काम विकार घूम रहा है, वहा परमात्मा स्थान कैसे ले सकता है ! शुध्द वस्तु को स्थान देने के लिए पात्र भी इतना योग्य और शुध्द होना चाहिए. उक्ति प्रसिध्द है – “शेरणी का दूध सोने के पात्र में ही रह सकता है “ राजा और राजनौतिक नेता ब्रह्मचर्य का पालन करने वालों के आगे मस्तक झुकाते हैं छोटी कुमारियों की पूजा भी इसीलिए होती है क्योंकि वे पवित्र हैं देवता भी तन-मन से पवित्र हैं, इसलिए वे पूज्य हैं.
ब. शुध्द अन्न – मनुष्य जौसा भोजन करता है, उसका गहरा प्रभाव उसके मन की स्थिती पर पड़ता है. कहावत भी है – “`जौसा अन्न वौसा मन“ अत: राजयोगी के लिए भोजन की पवित्रता का नियम पालन आवश्यक है. उसका भोजन सात्विक अर्थात् शाकाहारी, सादा, ताजा और शुध्द होता है. उसमें तमोगुणी, मांसाहारी और रजोगुणी नशीले एवं उत्तेजक पदार्थ नहीं होते है. भोजन बनाने वाला भी ब्रह्मचर्य का पालन वाला हो. भोजन शुरु करने से पूर्व योग उस परमात्मा के प्रति अर्पित करता है और फिर प्रसाद के रुप में ग्रहण करता है जिससे उसकी मानसिक शुध्दि होती है. राजयोगी खाने के लिए नहीं जीता है, वह जीने के लिए खाता है वह तम्बाकू, शराब आदि नशीलंे पदार्थो के सेवन से भी दूर रहता है.
स. सत्संग – व्यक्ति की पहचान उसके संगी-साथियों से होती है. राजयोगी प्रतिदिन ईश्वरीय ज्ञान प्राप्त करता है. जौसे प्रात: स्नान करने के उपरान्त मनुष्य प्रफुल्लता का अनुभव करता है, वौसे ही आत्मा को बुरे संकल्पों से बचाये रखने एवं उमंग-उत्साह में रखने के लिए प्रतिदिन ज्ञानस्नान आवश्यक है. सत्संग का अर्थ है – सत्य का संग अर्थात् परमात्मा से मानसिक स्मृति द्वारा निरन्तर सम्पर्क बनाए रखना. पावन परमात्मा का संग करने से आत्मा पावन बन जाती है. राजयोगी अश्लील सिनेमा और उपन्यास की तरफ भी अपनी बुध्दि को नहीं ले जाता है.
द. दिव्य गुणों की धारणा – राजयोग का अन्तिम उद्देश्य देवत्व की प्राप्ति करना है. अत: राजयोगी अपने जीवन में सदगुणों की भी धारणा करता है. राजयोगी स्वयं को परमात्मा की सुयोग्य सन्तान समझकर अन्तर्मुखता, हर्षितमुखता, मधुरता, सहनशीलता, प्रसन्नता, सन्तुष्ठता, निर्भयता, धौर्य आदि गुणों की धारणा को सर्वोच्च प्राथमिकता देता है.
राजयोग द्वारा प्राप्ति
राजयोग से अनेक उपलब्ध्यिों की सहज प्राप्ति होती है जो और किसी योग से प्राप्त नहीं हो सकती है. यह सभी दु:खों की एकमात्र औषधी है जिससे कड़े संस्कार रुपी रोग नष्ट हो जाते है. राजयोग द्वारा मनुष्य अधिक क्रियाशील, कार्य-कुशल और जागरुक बन जाता है, क्योंकि उसकी एकाग्रता की शक्ति बढ़ जाती हैं. राजयोग मनुष्य में जीवन के प्रति मूलभूत परिवर्तन ला देता है. वह संसारी होते हुए भी विदेही होता है. वह कार्यरत होते हूए भी कर्मबन्धनों से मुक्त रहता है. वह गृहस्थ और समाज के कार्यो में सक्रिय भाग लेते हूए भी निर्लिप्त रहता है अर्थात परिस्थितीयों में तटस्थ रहकर कमल-फूल समान न्यारा और प्यारा जीवन व्यतीत करता है. इसी कारण वह समाज का भी एक लाभदायक अंग बन जाता है. संक्षेप में राजयोग उसको वह सब कुछ प्रदान करता है जो जीवन मेंे प्रापत करने योग्य है और वह अनुभव करता है कि वह सब कुछ पा रहा है. यही जीवन की पूर्णत है.
राजयोग अभ्यास
राजयोग के उपरान्त महत्व को देख हर मनुष्य में राजयोग अभ्यासी बनने के लिए रुची प्राप्त हो सकती है. अत: राजयोग की प्राथमिक अनूभूती हेतू निम्नलिखीत अभ्यास आवश्यक है.
कुल् समय के लिए परमात्म् याद – अखण्ड शान्ति की स्थिती में अपने – अपने ढ़ग से बौठेगे और प्रभू पिता के समक्ष राजयोग के अभ्यास निमित्त नियम पालन का श्रेष्ठ संकल्प रखेंगे ताकि वह मददगार बनकर हमें श्रेष्ठ प्राप्ति का अधिकारी बनाये.
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राजयोग के लिए स्वयं का परिचय
राजयोग के लिए स्वयं का परिचय

राजयोग की साधना करे वाला “मौ साधक कौन हँू ? “ – इसका परिचय प्राप्त करना राजयोगी के लिए परम आवश्यक है. “आप कौन है ? “ – यह प्रश्न जितना ही सरल है उतना ही गहन है. “आप कौन है ?“ प्रश्न पूछने पर प्रत्येक व्यक्ति अपना शारीरिक परिचय देगा. ह उत्तर में अपना नाम, लिंग, गुण, व्यवसाय बतलाता है तो यह निश्चित है कि किसी भी व्यवसाय को प्रारम्भ करने से पूर्व उस व्यक्ति का अस्तित्व होता है और व्यवसाय को छोड़ देने के बाद भी उसका अस्तित्व बना रहता है. तो केवल व्यवसाय वर्णन करना पूर्ण परिचय नहीं हुआ. इसी प्रकार सभी शारीरिक परिचय विनाशी है. क्योंकि वे विनाशी देह के साथ सम्बधित हैं. परन्तु जब यह कहा जाता है कि, “मौ परमात्मा के घर से आया हूँ और मुझे परमात्मा के घर जाना है“ तो यह कहने वाला “मौ“ कौन हँू ? शरीर न परमात्मा के घर से आया है, न परमात्मा के घर जायेगा. शरीर का पिता होते हुए भी शरीर के अन्दर वह कौन-सी सत्ता है जो परमात्मा को अपना पिता कहती है ?
राजयोग की साधना करे वाला “मौ साधक कौन हँू ? “ – इसका परिचय प्राप्त करना राजयोगी के लिए परम आवश्यक है. “आप कौन है ? “ – यह प्रश्न जितना ही सरल है उतना ही गहन है. “आप कौन है ?“ प्रश्न पूछने पर प्रत्येक व्यक्ति अपना शारीरिक परिचय देगा. ह उत्तर में अपना नाम, लिंग, गुण, व्यवसाय बतलाता है तो यह निश्चित है कि किसी भी व्यवसाय को प्रारम्भ करने से पूर्व उस व्यक्ति का अस्तित्व होता है और व्यवसाय को छोड़ देने के बाद भी उसका अस्तित्व बना रहता है. तो केवल व्यवसाय वर्णन करना पूर्ण परिचय नहीं हुआ. इसी प्रकार सभी शारीरिक परिचय विनाशी है. क्योंकि वे विनाशी देह के साथ सम्बधित हैं. परन्तु जब यह कहा जाता है कि, “मौ परमात्मा के घर से आया हूँ और मुझे परमात्मा के घर जाना है“ तो यह कहने वाला “मौ“ कौन हँू ? शरीर न परमात्मा के घर से आया है, न परमात्मा के घर जायेगा. शरीर का पिता होते हुए भी शरीर के अन्दर वह कौन-सी सत्ता है जो परमात्मा को अपना पिता कहती है ?
जब हम कहते है कि “हमे शान्ति चाहिए“, तो शान्ति की इच्छा रखने वाला मैं कौन हूँ ? अगर केवल शरीर को शान्ति चाहिए तो किसी की मृत्यु के बाद जब शरीर शान्त हो जाता है तब फिर आत्मा की शान्ति की कामना नहीं की जानी चाहिए. किसी की मृत्यु हो जाने पर अगर कोई रोता है तो उसे इसलिए रोका जाता है कि कहीं रोने से आत्मा अशान्त न हो जाए. परमात्मा से प्रार्थना में भी यही कहते है कि – “हे प्रभु ! इनकी आत्मा को शान्ति देना “ मृतक शरीर के आगे दीपक जगाकर रखते हैं ताकि आत्मा को सही दिशा प्राप्त हो.
इससे स्पष्ट है कि “मैं“ कहने वाली आत्मा है, न कि शरीर मैं आत्मा साधक हँू, और शरीर मेरा एक साधन है. शरीर और आत्मा के अन्तर का मूल भेद “मौ“ और “मेरा“ – इन दो सर्वनामों के प्रयोग से स्पष्ट किया जा सकता है, तो “आप कौन है ?“ का सही उत्तर यही है कि “मौ आत्मा हूँ और यह मेरा शरीर है.“ “मौ“ शब्द आत्मा की ओर इंगित करता है और “मेरा“ शब्द आत्मा के साधन शरीर की ओर संकेत करता है, इसी प्रकार शरीर के विभिनन अंगो के लिए भी “मेरा“ शब्द का प्रयोग किया जाता है, न कि “मौ“ शब्द, जौसे कि मेरा, मुख, मेरे हाथ, मेरी आँखे आदि, समूचे शरीर के लिए – मेरा शरीर.
आत्मा तथा शरीर का सम्बन्ध ड्राईवर और मोटर के समान है. जौसे मोटर में बौठकर ड्राईवर उसे चलाता है और अलग अस्तित्व रखता है, वौसे आत्मा भी शरीर में रहकर उसका संचालन करती है और शरीर से अलग अस्तित्व रखती है जब आत्मा और शरीर का सम्बन्ध हो तब ही आत्मा जीव-आत्मा कहलाती है, तब ही “मनुष्य“ शब्द कहने में आता है. आत्मा की देह की इन्द्रियों द्वारा कर्म करती है और उन्हीं कर्मो का फल सुख या दु:ख रुप में देह की इन्द्रियों द्वारा ही भोगती है इसलिए तो कहावत है कि “आत्मा अपना ही मित्र है और अपना ही शत्रु है“ आत्मा ही जीवात्मा के रुप में कर्मो के लेप – विक्षेप में आती है तब ही “महात्मा“, “पुण्यात्मा“, की संज्ञा का प्रयोग आत्मा के लिए होता है, न कि शरीर के लिए. शरीर का महत्व वा मूल्य तब तक है जब तक उसमें आत्मा का निवास है. जिस प्रकार बीज का महत्व ही तब है जब उसको धरती, जल, वायु या तेज दिया जाए, इसी प्रकार आत्मा का भी महत्व तभी है अथवा वह कर्म तब कर सकती है जब उसे शरीर प्रापत है. तो आत्मा और शरीर इस संसार रुपी कर्मक्षेत्र में एक दुसरें के लिए परम आवश्यक हैं, लेकिन अनुभव करने वाली आत्मा है और शरीर उसका साधन या माध्यम है.
प्रिय साधक, आध्यात्मिक ज्ञान इतना गहराई का होता है जिसे विस्तार स्पष्ट करने हेतू जिज्ञासा चाहिए, आपको भी आत्मा के बारें में विस्तार से जानने की जिज्ञासा अवश्य होगी तो इस editor@bkvarta.comईमेल पर अपना नाम, सम्पूर्ण पता, ईमेल अॅड्रेस आदि जानकारी भेजिए ताकि विस्तार से इस सत्र की जानकारी तथा उचित मार्गदर्शन आप प्राप्त कर सकतें है,
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* आत्मा क्या है ?
* आत्मा का स्वरुप – मन, बुध्दी तथा संस्कार
* शरीर में आत्मा का स्थान
* परमधाम का परिचय – परमधाम, मुक्तिधाम, निर्वाणधाम, शान्तिधाम, मूलवतन, निराकारी दुनिया, ब्रह्मलोक, परलोक
* आत्मा का कर्तव्य
* आत्मा का मूल स्वभाव
* राजयोग की प्रथम अवस्था – आत्म-स्थिती
* राजयोग के लिए श्रेष्ठ वातावरण
* स्व-स्वरुप में स्थित होने की विधी
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राजयोग का आधार और विधी
राजयोग का आधार और विधी
योग का अति सरल अर्थ है – किसी की याद. किसी भी याद आना या किसी को याद करना – यह मनुष्य का स्वाभाविक गुण है. मन जिस विषय पर सोचता है, उसी के साथ उस आत्मा का योग है. फिर वह चाहे व्यक्ति, वस्तु, वौभव या परिस्थिति हो या परमात्मा ही क्यों न हो. अब मन कहाँ-कहाँ जा सकता है, मन का कहीं भी जाने का आधार क्या हैं ? संसार में करोड़ो मनुष्य है लेकिन मन सभी के विषय में नहीं सोचता है. मन उसी के बारें में सोचेगा, जिसका उसे परिचय हो तो पहला आधार है परिचय. फिर जिसके साथ सम्बन्ध तीसरा आधार है स्नेह. जिससे स्नेह होता है उसके पास मन अपने आप चला जाता है
योग का अति सरल अर्थ है – किसी की याद. किसी भी याद आना या किसी को याद करना – यह मनुष्य का स्वाभाविक गुण है. मन जिस विषय पर सोचता है, उसी के साथ उस आत्मा का योग है. फिर वह चाहे व्यक्ति, वस्तु, वौभव या परिस्थिति हो या परमात्मा ही क्यों न हो. अब मन कहाँ-कहाँ जा सकता है, मन का कहीं भी जाने का आधार क्या हैं ? संसार में करोड़ो मनुष्य है लेकिन मन सभी के विषय में नहीं सोचता है. मन उसी के बारें में सोचेगा, जिसका उसे परिचय हो तो पहला आधार है परिचय. फिर जिसके साथ सम्बन्ध तीसरा आधार है स्नेह. जिससे स्नेह होता है उसके पास मन अपने आप चला जाता है. चौथा आधार है प्राप्ति. जहाँ से किसी को प्राप्ति होगी वहाँ से वह अपना मन हटाना ही नही चाहेंगा. तो किसी की भी याद के लिए मुख्य चार आधार है – परिचय, सम्बधन्ध, स्नेह और प्रापित. इनहीं चा आधारों के कारण मनुष्य की याद सदा बदलती ही रहती है या परिवर्तनशील होती है. एक बालक का योग अपनी माता के साथ है क्योंकि उसको केवल माँ का परिचय है. माँ से ही उसे स्नेह मिलता है, भोजन मिलता है. माँ को न देखने पर वह रोता है और माँ के उसे उठाने पर वह चुप हो जाता है. इससे सिध्द है कि उसका योग अपनी माता के साथ है. बालक थोड़ा बड़ा होने पर खेलकूद में रस लेने लगता है तब उसका योग माँ से परिवर्तित होकर अपने दोस्तों और खेल में जुट जाता है और माँ का बुलावा भी वह टालने की कोशिश करता है. विद्यार्थी जीवन में बच्चे का योग अपनी पढ़ाई, पाठशाला और शिखक से हो जाता है. व्यावहारिक जीवन में आने के बाद उसका योग – धन, सम्पत्ति, मर्तबा, इज्जत, अन्य सम्पर्क मंे आने वाले व्यक्तियों के साथ हो जाता है, विवाह होने पर कुछ समय के लिए उसका योग पत्नी के साथ हो जाता है. सन्तान होने पर पत्नी से भी योग हटकर सन्तान से हो जाता है. बीमारी के दिनों में पूरा ही योग डॉक्टर के साथ होता है. क्योंकि उससे ही इलाज होना है. इस प्रकार योग परिवर्तनशील है तो फिर देहधारियोंे से योग हटाकर परमात्मा से योग लगाना कठिन क्यों होना चाहिए, जहाँ परिचय, सम्बध, स्नेह और प्राप्ति है वहाँ योग लगाना बड़ा ही सहज है, अब ये चारों ही आधार परमात्मा से जोड़े जाएँ तो राजयोग कोई कठिन विधि नहीं है.
सबसे पहले राजयोग के लिए स्वयं का और परमात्मा का परिचय होना आवश्यक है. मौ कोन हॅूं और मुझे किसके साथ योग लगाना है ? अगर हम अपने-आपको देह समझेंगे तो हम परमात्मा के साथ कभी भी योगयुक्त नहीं हो सकेंगे. देह अभिमान समझने से यही संकल्प आयेगे – `मौ पिता हँू` तो बच्चे याद आयेंगे, “मौ शिक्षक हँू“ तो विद्यार्थी याद आयेगें “मौ व्यापारी हँू“ तो ग्राहक याद आयेंगे. लेकिन जब स्वयं को आत्मा निश्चय करेंगे तब ही परमात्मा याद आयेगा. इस प्रकार राजयोग की पहली सीढ़ी है – आत्मा और परमात्मा के पूर्ण परिचय के आधार पर दोनों मे निश्चय. दोनों का परिचय तो दूसरे और तीसरे सत्र मं मिला है,
अब परमात्मा के साथ आत्मा का किस प्रकार के सम्बन्ध और उसको याद करने की विधी क्या है इस पर विचार करेंेंगें –
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