Balramshukla's Blog व्याकरणिक कोटियों का अभिनवकृत दार्शनिक उपयोग-  Balram shukla 7 महीना ago Advertisements   व्याकरणिक कोटियों का अभिनवकृत दार्शनिक उपयोग[1] -डा. बलराम शुक्ल सूत्राम्भसं पदावर्तं पारायणरसातलम् । धातूणादिगणग्राहं ध्यानग्रहबृहत्प्लवम् धीरैरालोकितप्रान्तं अमेधोभिरसूयितम् । सदोपभुक्तं सर्वाभिरन्यविद्याकरेणुभिः ॥ नापारयित्वा दुर्गाधममुं व्याकरणार्णवम्। शब्दरत्नं स्वयंगम्यम् अलं कर्तुमयं जनम्[2] ॥ भारतीय ज्ञान परम्परा में असंख्य विद्वानों की शृंखला के मध्य अनेक महान् विद्वान् प्रकाश स्तम्भ की भाँति विद्यमान हैं जिनकी आभा, सहस्राब्दियों का समय बीत जाने के बाद भी; उनके स्थानों में आमूलचूल सामाजिक परिवर्तन हो जाने के बावजूद, मन्द नहीं पड़ सकी है। महर्षि वेदव्यास, आचार्य पाणिनि तथा भगवान् शंकराचार्य के साथ महामाहेश्वर अभिनवगुप्तपादाचार्य ऐसे ही महापुरुषों में से एक हैं। आचार्य पाणिनि सीमान्त प्रान्त के शलातुर ग्राम (सम्भवतः आधुनिक लाहौर) के निवासी थे। उन्होंने अष्टाध्यायी की रचना की जो भारत की सांस्कृतिक एकता की मूल भाषा संस्कृत को ठीक ठीक समझने में हजारों साल तक उपयुक्त होती रही है। लाहौर अब हमारे पास नहीं है लेकिन अष्टाध्यायी अब भी हमें अपनी सांस्कृतिक निधि को सुरक्षित करने में निरन्तर सहयोग कर रही है। अभिनव गुप्त आज से लगभग एक हजार वर्ष पहले कश्मीर में वर्तमान थे। उन्होंने अद्वैत दर्शन के जिस काश्मीर संस्करण का व्याख्यान किया वह भारत की दार्शनिक स्मृति में अमिट है। उनके द्वारा काव्यशास्त्रीय सिद्धान्तों के बारे दी गयी व्याख्यायें आज तक अन्तिम मानी जा रही हैं। आज शारदादेश कश्मीर का पर्याय नहीं है। भारत की अखण्ड सांस्कृतिक भावना भी वहाँ धूमिल हो रही है, लेकिन वहाँ से उपजे अभिनवगुप्त और उनके सिद्धान्त अब भी अक्षुण्ण हैं। यह दुस्संयोग ही है कि प्रस्तुत पत्र में चर्चा के विषय पाणिनि तथा अभिनव दोनों ही अपनी ज़मीन पर अपदस्थ हो चुके हैं। वहाँ उनको समझने की बात छोड़ दें उनका नामलेवा कोई नहीं रहा। लेकिन फिर भी, राजनैतिक कुचक्र सरस्वतीपुत्रों के माहात्म्य को ऐकान्तिक रूप से समाप्त नहीं कर पाये हैं।  अभिनवगुप्त शैवदर्शन, तन्त्र तथा काव्यशास्त्र की परम्परा के अपूर्व व्याख्याकार हैं। वे सुदीर्घ कालावधि में फैली चिन्तन परम्पराओं को समग्रता में देखकर समेकित रूप में व्याख्या करते हैं, इसलिए उनके दर्शन एवं तन्त्र से सम्बद्ध ग्रन्थ, टीकाग्रन्थ व स्तोत्र तथा फुटकर काव्य आदि मिलाकर परम्परा की व्याख्या का महावाक्य बनता है (त्रिपाठी २०१६:४)। अभिनव का जो भी अभिनवत्व है वह उनकी व्याख्या का ही है। उन्होंने व्याख्याओं के द्वारा परम्परा को जो योगदान दिया वह मूल ग्रन्थों के प्रणयन से कम नहीं है। उन्होंने अपनी व्याख्याओं से कश्मीर के त्रिक दर्शन को एक समन्वित रूप दिया, नाट्यशास्त्र की महावाक्यात्मक कृति के रूप में सप्रमाण विवेचना प्रस्तुत की (त्रिपाठी २०१६:७), ध्वनि तत्त्व को पुनरुज्जीवित किया तथा वैष्णव आधारकारिकाओं का शैवीकृत रूप परमार्थसार भी प्रस्तुत किया[3]। अपने विशिष्ट व्याख्यान प्रकार में अभिनव ने व्याकरण शास्त्र का अद्भुत तथा अपूर्व उपयोग किया है। व्याकरणशास्त्र सामान्यतः सभी शास्त्रों का उपकारक है इसलिए कोई भी व्याख्या व्याकरण की सहायता के बिना असम्भव है। लेकिन अभिनव के व्याख्या ग्रन्थों में हम व्याकरण शास्त्र की कोटियों का असाधारण उपयोग पाते हैं। प्रकृति तथा प्रत्यय के ज्ञान से शब्द के बाह्य स्वरूप की वास्तविक पहचान हो पाती है तथा इसी कारण किसी भी ग्रन्थ की गुत्थियाँ सुलझाने के लिए टीकाकार व्याकरण की सहायता लेते हैं। लेकिन व्याकरणशास्त्र का उपयोग अभिनव व्याख्येय ग्रन्थ के केवल बाह्य शब्द स्वरूप को स्पष्ट करने के लिए नहीं करते बल्कि इसका प्रयोग वह अपनी दार्शनिक मान्यताओं के प्रतिपादन तथा स्पष्टीकरण में भी करते हैं। व्याकरण शास्त्र के इस विशिष्ट उपयोग से अभिनव का सम्पूर्ण व्याकरण तन्त्र पर असाधारण अधिकार द्योतित होता है। अभिनव व्युत्पत्त्यै सर्वशिष्यता[4] तथा बहुभिर्बहु बोद्धव्यं[5] के मूर्तिमान् उदाहरण थे। ज्ञान के प्रति अपनी प्रगाढ पिपासा के चलते अभिनव ने प्रायः सभी शास्त्रों का अध्ययन उस समय के विद्वानों के पास जाकर किया था। परन्तु व्याकरण शास्त्र तो उनके घर की विद्या थी। व्याकरण के उनके गुरु स्वयं उनके पिता नरसिंह गुप्त (चखुल अथवा चुखुलक) थे जिनसे उन्होंने महाभाष्य का अध्ययन किया था। कश्मीर में पाणिनीय व्याकरण, विशेषतः महाभाष्य के अध्ययन की समृद्ध परम्परा रही है। व्याख्यान के क्रम में अभिनव में नूतन आयामों को प्रकट करने की जो क्षमता दिखायी पड़ती है, उसमें महाभाष्यकार पतञ्जलि का बहुत बड़ा योगदान देखा जा सकता है। उनके नाम के विषय में परम्परा में जो व्याख्यायें मिलती हैं उसमें एक के अनुसार उन्हें महाभाष्यकार पतञ्जलि का अवतार बताया जाता है। अभिनवगुप्तपाद शब्द में गुप्तपाद का अर्थ सर्प अथवा शेषनाग है। इस प्रकार इनके नाम का अर्थ होगा– शेषनाग अर्थात् पतञ्जलि के नवीन अवतार[6]। इस व्याख्या से पता चलता है कि उस समय उनकी प्रसिद्धि एक प्रख्यात वैयाकरण के रूप में थी। जब हम उनके ग्रन्थों का अध्ययन करते हैं तो पदे पदे उनके व्याकरण ज्ञान तथा उसके अपूर्व उपयोग से चकित रह जाते हैं। आगे के पृष्ठों में हम उनके व्याकरण ज्ञान के तत्त्वशास्त्रीय उपयोग के कुछ प्रमुख बिन्दुओं की ओर ध्यान आकृष्ट करेंगे। अभिनवगुप्त व्याकरण के प्रक्रिया तथा दर्शन दोनों पक्षों से सुपरिचित थे तथा उन्होंने दोनों का अपनी व्याख्याओं में यथास्थान उपयोग किया। व्याख्येय ग्रन्थों के सम्प्रत्ययात्मक बीजशब्दों के दार्शनिक तात्पर्य को स्पष्ट करने के लिए वे उन शब्दों की व्युत्पतियाँ प्रस्तुत करते हैं। सामान्यतः, वे व्याकरण शास्त्र की प्रविधियों का उपयोग करते हुए एक शब्द की अनेकानेक व्युत्पत्तियाँ देते हैं। प्रत्येक व्युत्पत्ति से उनका तात्पर्य उस सम्प्रत्यय विशेष के किसी नये आयाम को सुस्पष्ट करना होता है। परात्रिंशिका (या परात्रीशिका) ग्रन्थ की अपनी व्याख्या के प्रारम्भ में ही वे देवी शब्द की व्युत्पत्ति के लिए पाणिनि के धातुपाठ में स्थित दिव्[7] धातु के सभी अर्थों को अपने दर्शन के आयाम में घटा कर प्रदर्शित करते हैं। शिवाद्वैत दर्शन के अनुसार शिव प्रकाशात्मक तथा उनकी शक्ति विमर्शात्मिका है। सम्पूर्ण सृष्टि इस प्रकाशात्मा का विमर्श ही है। उपर्युक्त प्रसंग में अभिनव के अनुसार जब परा वाणी, पश्यन्ती तथा मध्यमा के स्वरूप में आकर जब पर संविद् के रूप में स्वयं अपना ही विमर्श करती है तो वह देवी शब्द से कही जाती है– तत्पश्यन्तीमध्यमात्मिका स्वात्मानमेव वस्तुतः परसंविदात्मकं यदा विमृशति परैव च संविद् देवीत्युच्यते[8]। उसे देवी इस कारण से कहा गया है कि वह देव अर्थात् भैरवनाथ[i] की शक्ति है (भैरवनाथस्यैव देवत्वमिष्यते तच्छक्तेरेव भगवत्या देवीरूपता)। भैरव अर्थात् सबको व्याप्त करने वाला समष्टि चैतन्य देव इसलिए हैं क्योंकि– वह पश्यन्ती आदि शक्तियों के माध्यम से बाह्य जगत् की सृष्टि तक अपने विमर्श रूपी आनन्द में क्रीडा करते हैं। (क्रीडा) विश्व को अतिक्रान्त करने के कारण सबसे उत्कृष्ट स्थिति वाले भगवान् भैरव उसी अवस्था में स्थित रहने की इच्छा से युक्त हैं। (विजिगीषा) संसार में, जो असंख्य प्रकार के ज्ञान, स्मृति, संशय तथा निश्चय आदि व्यवहार हैं, वह सब वस्तुतः वही करते हैं । (व्यवहार) बाह्यरूप में भासित जगत् में जगत् के स्वरूप में भासित होने के कारण (द्युति) उनके प्रकाश के वश में आये हुए उन्मुख सभी लोगों के द्वारा उसकी स्तुति की जाती है। (स्तुति) अपनी इच्छापूर्वक सभी स्थानों तथा सभी कालों में उनकी गति सम्भव है। (गति) इसी प्रकार क्रम दर्शन के एक पारिभाषिक शब्द चक्र को उन्होंने चार धातुओं से निष्पन्न बताया है ताकि दार्शनिक दृष्टि से इस शब्द के प्रकार्यों को स्पष्ट किया जा सके[9]– यह चमकता है। (कसि विकासे) यह आत्मिक तृप्ति देता है।(चक तृप्तौ) यह बन्धन को काटता है (कृती छेदने) इसमें क्रियाशक्ति है। (डुकृञ् करणे) वे यह भी दिखाते हैं कि अर्थ के निम्नोक्त आयाम क्रम सम्प्रदाय में किस प्रकार सुसंगत हैं और शरीर में विभिन्न चक्रों पर एकाग्रता के द्वारा इनका साक्षात्कार भी किया जा सकता है। अभिनव अपने अनुभव द्वारा उपार्जित रहस्यों का समर्थन पारम्परिक शास्त्रीय ज्ञान द्वारा करते हैं। इसलिए उनका शास्त्रीयज्ञान पाण्डित्य प्रदर्शन मात्र नही रह जाता। देशपाण्डे (१९९५ ६) का उत्प्रेक्षण है– उन (अभिनव) के मत में, आध्यात्मिक ज्ञान की पूर्णता क्रमशः तीन अवस्थाओं से प्राप्त होती है–गुरुतः, शास्त्रतः, स्वतः, अर्थात् गुरु से, शास्त्र की युक्ति से और स्वानुभव से। अपने निजी अनुभवों के कारण ही अभिनव गुप्त को शिवाद्वय दर्शन का श्रेष्ठतम आचार्य माना जाता है[10][ii]। अभिनव कुल सम्प्रदाय के विविध पक्षों को स्पष्ट करने के लिए कुल शब्द के व्याकरणात्मक व्युत्पत्ति का सहारा लेते हैं। वे इस शब्द को कुल संस्त्याने बन्धुषु च धातु से निष्पन्न करते हैं– कोलति इति कुलम्। इसका अर्थ वे करते हैं – स्थूल–सूक्ष्मपर प्राण–इन्द्रिय–भूत–आदि। क्योंकि वे समूह में रहते हैं तथा उनका कार्यकारण सम्बन्ध होता है[11]। इसी प्रकार कुल सम्प्रदाय एवं प्रत्यभिज्ञा दर्शन के प्रसंग देवी के लिए प्रयुक्त महाभागा के विविध अर्थों को स्पष्ट करने के लिए वे इसके चार अलग अलग विग्रह देते हैं[12] तथा इन विग्रहों द्वारा इस शब्द को त्रिक दर्शन की अवधारणा में सम्मत पराभट्टारिका शक्ति के स्वरूप वर्णन में उपयुक्त करते हैं– महान् भागो यस्याः महान् (शिवः) भागो यस्याः महान् (बुद्ध्यादिः) भागो यस्याः महस्य–सर्वतोऽखण्डितपरिपूर्णनिरर्गलनिरपेक्षस्वातन्त्र्यजगदानन्दमयस्य आ–ईषत् भागाः–सुखांशलक्षणा यतः। संस्कृत के सभी व्याख्याकार सामान्यतः व्याकरणात्मक व्युत्पत्तियों का उपयोग अपने अपने शास्त्रीय सिद्धान्तों को सुस्पष्ट करने के लिए करते रहे हैं लेकिन अभिनव यहीं तक सीमित नहीं हैं। वे भाषिक प्रयोगों को दार्शनिक तत्त्वमीमांसा की व्याख्या के लिए कुंजी के रूप में प्रयोग करते हैं क्योंकि उनके अनुसार सारे भाषिक प्रयोग इन तत्त्वों के क्रम में ही विकसित हुए हैं– न तैर्विना भवेच्छब्दो नार्थो नापि चितेर्गतिः॥ (परात्रिंशिका पृ॰८०) (जड–शक्ति–शिव के त्रिक के बिना शब्द, अर्थ अथवा चेतना की गति सम्भव नहीं है) परात्रिंशिका के प्रारम्भ में ही देवी शब्द की निरुक्ति प्रदर्शित करने के बाद अभिनव प्रश्न उठाते हैं कि देवी के साथ सामानाधिकरण्य में उवाच क्रिया कैसे संगत हो सकती हैं[13]? त्रिक दर्शन में देवी (शक्ति) चिदात्मक शिव के साथ एकाकार हैं। वह सभी वस्तुओं के हृदय में रहती हैं। वह न केवल प्रत्येक सत्ता में प्रत्यक्षतः अनुभव योग्य हैं अपितु प्रत्येक मानवीय अनुभव की आधार भी हैं। उनके लिए परोक्ष, अनद्यतन[14] भूतकाल के अर्थ में प्रयुक्त उवाच क्रिया कैसे लग सकती है? (काल्पनिकं च अनद्यतनत्वम् अकाल्पनिके संविद्वपुषि कथम्)। उवाच का अर्थ यहाँ वस्तुतः पप्रच्छ (पूछा) है, इसलिए यह प्रश्न भी उठता है कि ज्ञान तथा चैतन्य की सम्पूर्णता का प्रतिनिधित्व करने वाली देवी को पूछने की आवश्यकता कैसे पड़ सकती है। पूछना एक ऐसी क्रिया है जो ज्ञान की अल्पता के कारण उद्भूत होती है, जो देवी में सम्भव नहीं है। अनेक शैव दार्शनिकों ने विभिन्न ग्रन्थों में इस विचित्र प्रश्न के उत्तर देने के प्रयत्न किये हैं, लेकिन अभिनवगुप्त का समाधान अधिक सूक्ष्म और व्याकरणिकता से युक्त है। उनके अनुसार देव्युवाच में उवाच पद प्रथम पुरुष का नहीं अपितु उत्तम पुरुष का है। इसका अर्थ है – मैं, जो कि देवी हूँ, उसने पूछा । लेकिन प्रश्न की क्रिया में कर्ता इस तरह से शामिल रहता है कि वह क्रिया उसके लिए परोक्ष नहीं हो सकती, फिर उसके लिए उत्तम पुरुष का प्रयोग सुसंगत नहीं हो सकता। अभिनव के पास इसका व्याकरणिक उपाय है। कात्यायन का एक वार्तिक है जिसके अनुसार लिट् लकार उत्तम पुरुष का प्रयोग वक्ता अपने शयन तथा नशे की स्थिति का वर्णन करते हुए कर सकता है[15]। पतञ्जलि इसमें जोड़ते हैं कि जागृत अवस्था में भी यदि व्यक्ति का मन उस जगह अवस्थित नहीं है तो वहाँ भी लिट् लकार का उत्तम पुरुष में प्रयोग हो सकता है। अभिनव कहते हैं कि देवी उवाच में देवी का तात्पर्य है पश्यन्ती तथा मध्यमा। वे अपने आप के बारे में विमर्श करती हैं– परा वाक् स्वरूपिणी मैंने ही इस प्रकार कहा था। पश्यन्ती तथा मध्यमा की स्थिति वहाँ है जहाँ मायिक जगत् की उत्पत्ति प्रारम्भ हो चुकी है। उस धरातल पर स्थित होकर जब वह परा का परामर्श करती है तो परा को भूत (सामान्य) की तरह मानती है। केवल भेदावभास के द्वारा उज्जीवित होने वाले आन्तरिक तथा बाह्य इन्द्रियों के मार्ग से परे है–परा, इसलिए उसे वे परोक्ष की तरह मानती हैं। अद्यतन की धारणा एक काल्पनिक धारणा है अतः वह अकाल्पनिक परा के विषय में संगत नहीं है, इस कारण वह अनद्यतन भी है। इस प्रकार लिट् लकार के तीनों शर्तों के पूरे हो जाने के कारण यहाँ लिट् लकार उत्तम पुरुष एकवचन का प्रयोग किया गया है। इस प्रसंग में उत्तम पुरुष इसलिए संगत है क्योंकि परा की अवस्था में ज्ञेय वस्तु का नितान्त अभाव रहता है इसलिए वह वक्ता के लिए परोक्ष है[16]। लिट् लकार के ये तीन अभिलक्षण इस प्रसंग में वस्तुतः धात्वर्थ से सम्बद्ध न होकर इसके बहु आयामी तथा समकेन्द्रित कर्ता से सम्बन्धित हैं[17]। इस प्रकार व्याकरण के नियम विशेष का आधार लेकर अभिनव ने यहाँ त्रिक दर्शन की एक बड़ी गुत्थी ही नहीं सुलझायी, बल्कि इस दर्शन में वास्तविकता के विभिन्न स्तरों तथा उनके पारस्परिक सम्बन्धों की भी अच्छी तरह से व्याख्या कर दी।  अभिनव ने भाषा के वैखरी रूप के द्वारा सम्बद्ध होने सकने वाले प्रथम, मध्यम तथा उत्तम पुरुष को त्रिक दर्शन के तीन तत्त्वों–नर, शक्ति तथा शिव का वाचक माना है। उनके अनुसार जो केवल जड प्रकाश्य है, जिसे इस दर्शन में नर या अणु भी कहते हैं, वह प्रथम पुरुष का विषय है। उदाहरण के लिए– घटः तिष्ठति (घड़ा पड़ा है)। अभिनव इसे अपरा शक्ति का नाम देते हैं[18]। जो वस्तु इदंतया (यह है इस रूप में) भासित होते हुए भी सम्बोधन के योग्य हो, वह मध्यम पुरुष का विषय होता है। उस वस्तु का इदंभाव, सम्बोधित करने वाले के अहं भाव से आच्छादित हो जाता है। उदाहरण के लिए त्वं तिष्ठसि (तुम स्थित हो)। अभिनव इसे शक्ति का परापर स्वरूप कहते हैं। अहं तिष्ठामि (मैं रुकता हूँ।) इत्यादि प्रयोगों में जो स्वतन्त्रता का विमर्श होता है वह शिव की परा शक्ति का विमर्श है जो वस्तुतः शिव से भिन्न नहीं है। शिव सबसे उत्कृष्ट है इसी कारण इसका वाचन करने वाले भाषिक पुरुष को उत्तम पुरुष कहते हैं। अभिनव इस प्रसंग में रोचक रीति से भगवद्गीता का एक श्लोक उद्धृत करते हैं तथा व्याकरण और दर्शन के उत्तम पुरुष की एकता सिद्ध कर देते हैं[19]– यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तमः। अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः॥ (भगवद्गीता १५.१८) अभिनव कहते हैं कि स्वयं श्रीकृष्ण ने अस्मद् (अहम्) के सामानाधिकरण्य वाले अस्मि का प्रयोग करके अपने को क्षर तथा अक्षर दोनों से उत्तम बताया है, इसलिए यहाँ स्पष्ट है कि उत्तम पुरुष का वाच्य उत्तम शिव ही है। आगे अभिनवगुप्त युष्मद् तथा अस्मद् के भाषिक प्रयोग की विशिष्टताओं का दार्शनिक उपयोग करते हैं, अथवा यह कहें कि वे भाषिक प्रयोगों की उपपत्ति दार्शनिक रहस्यों को समझा कर करते हैं। वे बताते हैं कि वैयाकरणों के निकाय में प्रसिद्ध ‘अलिङ्गे युष्मदस्मदी (अर्थात् युष्मद् तथा अस्मद् में लिङ्ग नहीं होते)’ का कारण क्या है[20]? अनुत्तर तत्त्व त्रिक दर्शन में भैरववाची है जिससे परे कोई नहीं है। परात्रिंशिका में अभिनव ने इस शब्द की १६ प्रकार से व्याख्या की है[21]।अन्तिम व्याख्या में उन्होंने व्याकरण शास्त्र की सूक्ष्मताओं का सहारा लेकर समझाने का प्रयत्न किया है कि तरप् प्रत्यय का प्रयोग होने पर भी यह शब्द सर्वोत्कृष्ट का वाची कैसे बनता है[22]। अभिनव का दर्शन शिवाद्वैत है। शिव तथा शक्ति परस्पर भिन्न नहीं हैं[23] तथा उनसे सृष्ट जगत् भी उनसे वस्तु भिन्न नहीं है। एक से ही अनेक का आभास हुआ है– एकं वस्तु द्विधा भूतं द्विधा भूतमनेकधा[24]। इसलिए इस दर्शन में सिद्धान्त है – सर्वं हि सर्वात्मकम् (सभी वस्तुएँ सभी वस्तुओं की स्वरूप हैं)। अभिनव गुप्त इस सिद्धान्त का उपयोग भाषिक प्रयोगों में होने वाले प्रथम–मध्यम–उत्तम पुरुषों के पारस्परिक व्यत्यय को समझाने में करते हैं[25]। हम देखते हैं कि भाषा में जहाँ प्रथम पुरुष का प्रयोग करना होता है वहाँ मध्यम या उत्तम पुरुष का प्रयोग कर दिया जाता है, तथा इसी तरह अन्यत्र भी होता है। अभिनव कहते हैं यह तो इष्टापत्ति है। इसी से तो प्रकट होता है कि सभी वस्तुएँ सर्वात्मक हैं और एक दूसरे का स्वरूप धारण कर लेती हैं– नर–शक्ति–शिव के त्रिक में तात्त्विक भेद नहीं है इसीलिए तो प्रथम पुरुष के द्वारा उक्त होने वाले नर (जड) के लिए हम मध्यम तथा उत्तम पुरुष का प्रयोग भी देख पाते हैं– जैसे शृणुत ग्रावाणः[26] (ऐ पत्थरो, सुनो) या मेरुः शिखरिणाम् अहम्[27] (पर्वतों के बीच मैं मेरुपर्वत हूँ)। इसके साथ ही भाषा में अहं चैत्रो ब्रवीमि (मैं चैत्र बोल रहा हूँ) यह प्रतीतिपूर्वक प्रयोग भी होता है जिसका तात्पर्य है कि अस्मत् का अर्थ शिव जड वस्तु के साथ तादात्म्य प्राप्त करता है। युष्मद् की प्रतीति का विषय शक्ति तत्त्व भी अनेक बार जडात्मकता को प्राप्त करता है। अभिनव का उदाहरण है त्वं गतभयधैर्यशक्तिः (तुम भय तथा धैर्य की शक्ति से रहित हो)[28]। इसके अतिरिक्त सम्मानसूचक भवान् शब्द अथवा गुरवः, पादाः इन विशेष शब्दों से द्योतित तो युष्मद् द्वारा बोधित अर्थ (शक्ति) होता है परन्तु इनका प्रयोग प्रथम पुरुष में होता है। भाषिक प्रयोगों में जब हम अपने किसी प्रिय के लिए कहते हैं– प्रिये मैं तुम ही हूँ, तो उसे सम्बोधित करके उसके शरीर से तादात्म्य स्थापित करने के कारण शिव तत्त्व (अस्मदर्थ) ऐसा लगता है कि अपने स्वरूप को छोड़कर जड (इदमर्थ) तथा शक्ति (युष्मदर्थ) की कोटि तक उतर आता है। इसके अलावा, मैं कौन हूँ, यह मैं हूँ, अरे वाह मैं, मुझे धिक्कार है, इत्यादि भाषिक अभिव्यक्तियों में भी अस्मदर्थ (शिव) अपने अप्रतिहत स्वातन्त्र्य को गौण बनाकर इदन्तया प्रतीत होता है। हे मैं इस अभिव्यक्ति में हम देख सकते हैं कि शिव परापर शाक्त (सम्बोधनात्मक युष्मदर्थ) का स्पर्श कर रहा है। संस्कृत अथवा किसी भी भाषा के प्रयोग में हम देखते हैं कि प्रथम तथा मध्यम पुरुष एक साथ आयें तो मध्यम पुरुष, मध्यम तथा उत्तम एक साथ आयें तो उत्तम पुरुष, तथा सभी एक साथ आयें तो उत्तम पुरुष अवशिष्ट रहता है तथा उसी को द्योतित करने वाली क्रिया का प्रयोग होता है। पाणिनि ने भी एक विशेष प्रविधि से इसकी व्यवस्था दी है[iii]। अभिनव इस भाषिक परिघटना का दार्शनिक रहस्य बताते हैं–। एकात्मक होने के कारण परमतत्त्व प्रतिपक्षविहीन होता है। जब वह शक्ति स्वरूप में होता है तब शिव ही उसका प्रतियोगी होता है। एक ही शिवतत्त्व जड रूप में आकर अनेक रूपों में भासित होने लगता है। इसीलिए तो घटः, घटौ तथा घटाः के लिए प्रयुक्त तिष्ठति, तिष्ठतः तथा तिष्ठन्ति क्रियाएँ एक–एक क्रियाएँ ही प्रयुक्त होती हैं। ये क्रियाएँ एक ही शिव तत्त्व की क्रिया शक्ति के द्वारा सम्पादित की जाती हैं[29]। जब नर, शक्ति तथा शिव का एकसाथ परामर्श होता है तो वे बाद बाद वाले के स्वरूप में विलीन हो जाते हैं। इसका कारण यह है कि पूर्व पूर्व वालों (जड तथा शक्ति) का वास्तविक रूप बाद बाद वाला (शक्ति तथा शिव) ही है। इसलिए, स च त्वं च के साथ तिष्ठथः (मध्यम पुरुष) क्रिया का प्रयोग होता है तथा स च त्वं च अहं च के साथ तिष्ठामि (उत्तम पुरुष) की क्रिया का प्रयोग होता है। संस्कृत के वैयाकरणों ने तो इसका अनुशासन किया है, लेकिन पालि, आन्ध्र तथा अन्य द्राविड भाषायें जहाँ व्याकरण नहीं है वहाँ भी इसी प्रकार की भाषिक परिघटना देखी जाती है[30]।  उपर्युक्त प्रकार का अपूर्व शास्त्र–समन्वय हमें अभिनव के यहाँ ही देखने को मिलता है[iv]। अन्यत्र भी वे काव्यशास्त्र के सिद्धान्तों की व्याख्या अपने दार्शनिक चिन्तन के प्रकाश में करते हैं वैसे ही दर्शन को भी काव्य के उदाहरणों से स्पष्ट करते हैं। अनेक स्थलों पर उन्होंने नाटकों से मनोवैज्ञानिक प्रवृत्ति वाले पद्य उद्धृत किये हैं तथा और उनका उपयोग दार्शनिक सूक्ष्मताओं को स्पष्ट करने में किया है (देशपाण्डे १९९५१:४)। व्याकरण तथा दर्शन को तो उन्होंने परस्पर एक दूसरे के यमल के रूप में ही ग्रहण किया है। तोरेला (१९९९ :१३२) ने अभिनव की इस विशेषता के सम्बन्ध में ठीक ही कहा है– “Such a kind of sophisticated operation – to translate grammatical paradigms into Theological ones, and vice versa- is not new to him. He moves with elegance and suppleness between two factually different dimensions, nourishing one through the other thus pointing, through the liberty of his exegeses, to the unpredictability of the paths of supreme consciousness[31].” भाषा दर्शन में प्रत्यभिज्ञा दार्शनिकों का बहुत बड़ा योगदान है। वे भाषा की विभिन्न अवस्थाओं परा–पश्यन्ती–मध्यमा तथा वैखरी को परमशिव के जागतिक विमर्श की अवस्थाओं के साथ समान्तर तथा पर्याय के रूप में ग्रहण करते हैं अतः उनके मत में परस्पर द्वारा एक दूसरे की व्याख्या स्वाभावतः सम्भव है। अभिनव भाषिक व्यवहार को आन्तरिक वस्तुसत्ता की प्रतीति का सच्चा अनुसरणकर्ता मानते हैं तथा इसी कारण वे वस्तु तत्त्व को परिभाषित करने के लिए भाषिक व्यवहारों तथा उसके व्युत्पादक–व्याकरण शास्त्र का प्रचुर उपयोग करते हैं– वचनक्रमश्च हार्दीमेव प्रतीतिं मूलतोऽनुसरन् तत्प्रतीतिरसरूपतया प्रतीतेरपि एवंरूपत्वमवगमयेत्। (परात्रिंशिका पृ॰ ८०)। सन्दर्भ ग्रन्थ सूची मूल ग्रन्थ परात्रिंशिका अभिनवगुप्तकृततत्त्वविवेकटीकोपेता. (सं॰) मुकुन्दरामशास्त्री. कश्मीर सिरीज आ̆फ़ टेक्स्ट एंड स्टडीज़-18, १९१८,(पुनः॰) अरोमा पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली १९९१. श्रीमद्भगवद्गीता अभिनवगुप्ताचार्यव्याख्योपेता. (सं॰) वासुदेवलक्ष्मण पणशीकर. (पुनः॰) श्रीलालबहादुरशास्त्रीसंस्कृतविद्यापीठम्. नवदेहली–२००९ परमार्थसारः अभिनवगुप्तपादानाम्.भाष्यकृत् योगराजाचार्यः. श्रीरणवीरकेन्द्रीयसंस्कृतविद्यापीठम्. जम्मूपुरम्. १९८१ Isvarapratyabhijnakarika of Utpaldeva with the Author’s Vrtti, Critical edition and annotated translation by Raffele Torella. Motilal Banarasidass Publishers Private Limited, Delhi. 2002. Paratrishika (trans) Jaidev Singh. Motilal banarasidas- Delhi अध्ययन रस्तोगी, नवजीवन (२०१३) काश्मीर शिवाद्ववाद में प्रमाणचिन्तन. लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामन्दिर, अहमदाबाद। देशपाण्डे, ग॰ त्र्य॰ (१९९५) अभिनवगुप्त. (हिन्दी अनु॰) मिथिलेश चतुर्वेदी. साहित्य अकादमी, नई दिल्ली Torrella, Raffele (1999) “Devī Uvāca”, or Theology of the Perfect Tense. Journal of Indian Philosophy 27: (Pp)129-138. त्रिपाठी, राधावल्लभ (२०१६) अभिनव हैं अभिनव–दसवीं सदी के सौन्दर्यशास्त्री का संसार. प्रतिमान. सी एस डी एस (प्रकाश्यमान)। http://www.sanskrit-sanscrito.com.ar/pt_br/escrituras-escrituras-do-trika-par%C4%81tr%C4%AB%C5%9Bik%C4%81vivara%E1%B9%87a-portugues-6/795 (4.07.2016 को देखा गया) Endnotes– [1] इस पत्र की विषय वस्तु के लिए मैं प्रो॰ अरिन्दम चक्रवर्ती, आचार्य–दर्शन विभाग, हवाई विश्वविद्यालय; का कृतज्ञ हूँ। [2] व्याकरणशास्त्र अगाध समुद्र की तरह है जिसे पार किये बिना व्यक्ति शब्द रूपी रत्नों को प्राप्त नहीं कर सकता। इस व्याकरण रूपी समुद्र में सूत्र ही जल है, पद ही भँवर है, पारायण ही इसका धरातल है, धातुपाठ तथा उणादिपाठ आदि मगरमच्छ की तरह हैं, अवधान ही इसे पार करने के लिए बड़ी नाव है, समस्त शास्त्रविद्यारूपी हथिनियों के द्वारा इसका निरन्तर सेवन किया जाता है। धैर्यशाली विद्वान् इसके दूसरे किनारे को देख पाते हैं जबकि धारणा शक्ति से रहित मूर्ख व्यक्ति इससे ईर्ष्या करते रह जाते हैं। —-काव्यालंकार (भामह) ६.१–३ [3] आधारं भगवन्तं शिष्यः पप्रच्छ परमार्थम्॥ आधारकारिकाभिस्तं गुरुरभिभाषते स्म तत्सारम्। कथयत्यभिनवगुप्तः शिवशासनदृष्टियोगेन॥ (परमार्थसार २.३) [4] विशिष्ट ज्ञान के लिए सबकी शिष्यता स्वीकार कर लेनी चाहिए। [5] बहुत लोगों से बहुत चीज़ों का ज्ञान प्राप्त कर लेना चाहिए। (सभारञ्जनशतक–नीलकण्ठदीक्षित) [6] देशपाण्डे (१९९९ : २) [7] दिवु क्रीडाविजिगीषाव्यवहारद्युतिस्तुतिगतिषु (धातुपाठ दिवादि १) [8] परात्रिंशिका पृ॰ ८ [9] देशपाण्डे (१९९५ :१२०) [10] परात्रिंशिका व्याख्या (पृ॰३७–३८) तथा तन्त्रालोक (२.४९) में अभिनवगुप्त ने इन तीनों साधनों के विकल्प को भी बताया है– एकवारं प्रमाणेन शास्त्राद् वा गुरुवाक्यतः। ज्ञाते शिवत्वे सर्वस्थे प्रतिपत्त्या दृढात्मना॥ करणेन नास्ति कृत्यं क्वापि भावनयापि वा॥ तथा, तन्त्रालोक– गुरोर्वाक्याद्युक्तिप्रचयरचनोन्मार्जनवशात् समाश्वासाच्छास्त्रं प्रति समुदिताद्वापि कथितात्। विलीने शङ्काभ्रे हृदयगगनोद्भासिमहसः प्रभोः सूर्यर्स्येव स्पृशत चरणान् ध्वान्तजयिनः॥ [11] कुलं स्थूलसूक्ष्मपरप्राणेन्द्रियभूतादि समूहात्मतया कार्यकारणभावाच्च। (परात्रिंशिका पृ॰ ३२) [12] परात्रिंशिका पृ॰ ६६–६९ [13] इस समस्या का सूक्ष्म विवेचन राफ़ेल तोरेला (1999) ने अपने पत्र “ Devī Uvāca”, or Theology of the Perfect Tense में कुशलता पूर्वक किया है। [14] परोक्ष अर्थात् वह क्रिया जो वक्ता ने न देखी हो। अनद्यतन वह क्रिया जो आज न हुई हो। [15] सुप्तमत्तयोरुत्तमः। महाभाष्य २ [16] एवं भगवती पश्यन्ती मध्यमा च स्वात्मानमेव यदा विमृशति अहमेव परावाग्देवतामयी एवमवोचमिति तदा तेन रूपेणोल्लसन्मायारम्भतया स्वात्मापेक्षतया तन्मायीयभेदानुसारात्तामेव पराभुवं स्वात्ममयीं भूतत्वेनाभिमन्वाना भेदावभासप्राणनान्तर्बहिष्करणपथव्यतिवर्तिनीयत्वात्परोक्षतया…….इत्यनवस्थितं काल्पनिकं चाद्यतनत्वमकाल्पनिके संविद्वपुषि कथमिति न्यायाद्भूतानद्यतनपरोक्षार्थपरिपूरणात्परोक्षोत्तमपुरुषक्रमेण विमृशेद् अहमेव सा परावाग्देवीरूपैव सर्ववाच्यवाचकाविभक्ततयैवमुवाचेति तात्पर्यम्। सुप्तोऽहं किल विललाप इति ह्येवमेवोपपत्तिः। तथाहि — तामतीतामवस्थां न स्मरति प्रागवेद्यत्वादिदानीं पुरुषान्तरकथितमाहात्म्यादतिविलापगानादिक्रियाजनितगद्गदिकादिदेहविक्रियावेशेन वा तदवस्थां चमत्कारात्प्रतिपद्यते नह्यप्रतिपत्तिमात्रमेवैतन्मत्तः सुप्तो वाहं किल विललाप इति मदस्वप्नमूर्छादिषु हि वेद्यविशेषानवगमात्परोक्षत्वं परावस्थायां तु वेद्यविशेषस्याभाव एव — इति केवलमत्र वेदकवेद्यतादात्म्यप्रतिपत्त्या तुर्यरूपत्वान्मदादिषु तु मोहावेशप्राधान्यात् — इतीयान् विशेषः परोक्षता तु समानैव। (परात्रिंशिका पृ॰ ८–९) [17] “The three features of the perfect do not concern action but its stratified or concentric agent” (Torrella 1999: 134) [18] मुख्यतया तु विच्छिन्नैव इदन्ता प्रतीयते यत्र भगवत्या अपराया उदयः। (परात्रिंशिका पृ॰ ७८) [19] नरशक्तिशिवात्मकं हीदं सर्वं त्रिकरूपमेव। तत्र यत् केवलं स्वात्मन्यवस्थितं तत् केवलं जडरूपयोगि मुख्यतया नरात्मकं घटस्तिष्ठतीतिवदेष एव प्रथमपुरुषविषयः शेषः। यत् पुनरिदमित्यपि भासमानं यदामन्त्र्यमाणतया आमन्त्रकाहम्भावसमाच्छादिततद्भिन्नेदम्भावं युष्मच्छब्दव्यपदेश्यं तच्छाक्तं रूपं त्वं तिष्ठसीत्यत्र ह्येष एव युष्मच्छब्दार्थ आमन्त्रणतत्त्वं च। तथाहि यथाहं तिष्ठामि तथैवायमपीति। तस्याप्यस्मद्रूपावच्छिन्नाहम्भावचमत्कारस्वातन्त्र्यमविच्छिन्नाहञ्चमत्कारेणैवाभिमन्वान आमन्त्रयते यथार्थेन मध्यमपुरुषेण व्यपदिशति सेयं हि भगवती परापरा। सर्वथा पुनरविच्छिन्नचमत्कारनिरपेक्षस्वातन्त्र्याहंविमर्शेऽहं तिष्ठामीति पराभट्टारिकोदयो यत्रोत्तमत्वं पुरुषस्य। (परात्रिंशिका ७३–७५) [20] परात्रिंशिका पृ॰ ७६ [21] तद् व्याख्यातमिदमनुत्तरं षोडशधा। (परात्रिंशिका पृ॰ ३१) [22] वही पृ॰ २९–३० [23] शक्तिशक्तिमतोरभेदात्। [24] एक वस्तु (शिव) दो (शिव–शक्ति) में विभाजित हुआ तथा वही बहुतों (आभासरूप संसार) में प्रकट हुआ। (परात्रिंशिका पृ॰ ७९) [25] सर्वं हि सर्वात्मकमिति नरात्मानो जडा अपि त्यक्ततत्पूर्वरूपाः शाक्तशैवरूपभाजो भवन्ति — शृणुत ग्रावाणः मेरुः शिखरिणामहं भवाम्यहं चैत्रो ब्रवीमीत्यपि प्रतीतेः। शाक्तमपि युष्मदर्थरूपमपि नरात्मकतां भजत एव शाक्तरूपमुज्झित्वा त्वं गतभयधैर्यशक्तिरित्यनामन्त्रणयोगेनापि प्रतिपत्तेः। भवानित्यनेन पादा गुरव इत्यादिप्रत्ययविशेषैश्चापरावस्थोचितनरात्मकप्रथमपुरुषविषयतयापि प्रतीतिसद्भावात्। त्यक्तशाक्तरूपस्यापि चाहंरूपशिवात्मकत्वमपि स्याद्वयस्ये दयिते त्वमेवाहं भवामीति प्रत्ययात्। शिवस्वरूपमपि चोज्झितचिद्रूपमिव नरशक्त्यात्मकं वपुराविशत्येव। कोऽहमेषोऽहमहो अहं धिग् माम् अहो मह्यमित्यादौ ह्यहमिति गुणीकृत्याविच्छिन्नं स्वातन्त्र्यं मुख्यतया तु विच्छिन्नैवेदन्ता प्रतीयते यत्र भगवत्या अपराया उदयः। हे अहमित्यादौ परापरशाक्तस्पन्दस्पर्श एव शिवस्य। (परात्रिंशिका पृ॰ ७७–७८) [26] महाभाष्य ३.१.१ [27]भगवद्गीता १०.२३ [28] इस उदाहरण में चूँकि सम्बोधन अभिप्रेत नहीं है इसलिए अभिनव इस युष्मद (त्वम्=तुम) को जड भाव में आपन्न मान रहें हैं। [29] एकात्मकत्वे ह्यप्रतियोगित्वात् शिवताप्रतियोगिसम्भवे शाक्तत्वमनेकतायां भेद एव नरात्मभाव एकस्यैव घटो घटौ घटा घटपटपाषाणा इत्यपि हि तिष्ठति तिष्ठतस्तिष्ठन्तीति चैकेनैव क्रियाशक्तिस्फुरितमेवैतद्। (परात्रिंशिका ७९) [30] अत एव नरशक्तिशिवात्मनां युगपदेकत्र परामर्श उत्तरोत्तरस्वरूपानुप्रवेश एव — तस्यैव वस्तुतस्तत्परमार्थरूपत्वात्स च त्वं च तिष्ठथः स च त्वं चाहं च तिष्ठाम इति प्रतीतिक्रम एवाकृतकसंस्कारसारः शाब्दिकैर्लक्षणैरनुगम्यते तथा च निजभाषापदेष्वपि संस्कारस्य यत्र नामापि नावशिष्यते बौद्धान्ध्रद्रविडादिषु तत्राप्ययमेव वाचनिकः क्रमो वचनक्रमश्च हार्दीमेव प्रतीतिं मूलतोऽनुसरन् तत्प्रतीतिरसरूपतया प्रतीतेरप्येवंरूपत्वमवगमयेत्। (परात्रिंशिका पृ॰ ७९–८०) [31] व्याकरणिक कोटियों का दार्शनिक कोटियों में और दार्शनिक कोटियों का व्याकरणिक कोटियों में अनूदित कर देने का विशिष्ट व्यापार अभिनव के लिए नया नहीं है। वे इन दो, सूचनात्मक दृष्टि से भिन्न, आयामों में से सुन्दर सहज रीति से एक से दूसरे का पोषण करते हुए चलते हैं। अनेकशः व्याख्याओं की छूट लेते हुए अभिनव, परम चैतन्य के मार्ग की पूर्वानुमान–भिन्नता को प्रकट करते हैं। [i] पर्यन्तपञ्चाशिका नामक ग्रन्थ में कुलमत के अनुसार तथा प्रत्यभिज्ञा के विपरीत अभिनव गुप्त ने ३७ तत्त्व गिनाये हैं। सैतीसवाँ तत्त्व उन्होंने भैरव को बताया है जिसे कुल सम्प्रदाय में अनुत्तर भी कहा गया है। …. सर्वाभिव्यापक समष्टि चैतन्य अनुत्तर (परतत्त्व अथवा परा संविद) कहलाता है। (देशपाण्डे १९९५ : १३ एवं २४) [ii] तुलना करें– अनपेक्षितगुरुवचना सर्वान् ग्रन्थीन् विभेदयति सम्यक्। प्रकटयति पररहस्यं विमर्शशक्तिर्निजा जयति॥ (गुरु के वचनों की अपेक्षा किये बिना जो सभी गाँठों को ठीक तरह से खोल कर गम्भीर रहस्यों का उद्घाटन कर देती है वह अपनी विमर्श शक्ति सर्वोत्कृष्ट है। ) [iii] अष्टाध्यायी १.२.७२ त्यदादीनि सर्वैर्नित्यम् सूत्र के अनुसार त्यदादिगण में पढ़े गये शब्द जब वाक्य में किसी भी अन्य के साथ पढ़े जाते हैं तो वे ही शेष बचते हैं बाक़ी लुप्त हो जाते हैं। त्यदादिगण सर्वादिगण के अन्तर्गत पढ़ा गया एक अन्तर्गण है जिसमें त्यद्, तद्, यद्, एतद्, इदम्, अदस्, एक, द्वि, युष्मद्, अस्मद्, भवतु, किम्, इतने शब्द समाहित होते हैं। इनके शेष बचने का उदाहरण है– रामः च स च = तौ, रामः च स च सा च = ते। अब प्रश्न यह है कि त्यदादि गण के ही शब्द अगर एक साथ पढ़े जायें तो कौन शेष बचे? इस प्रश्न के समाधान के रूप में महाभाष्य में एक वार्तिक आया है त्यदादीनां मिथः सहोक्तौ यत् परं तच्छिष्यते (वार्तिक सं॰ ८०१)। अर्थात्, जब त्यदादिगण में पढ़े गये शब्द एक साथ आ जायें तो उन में जो शब्द गण में बाद में पढ़े गयें हैं वे शेष रहते हैं। उदाहरण के लिए स च यश्च = यौ। प्रथमपुरुष के लिए प्रयुक्त हो सकने वाले जितने भी शब्द हैं युष्मद् सबके बाद है इसलिए इनके साथ युष्मद् शेष रहता है। युष्मद् के भी बाद अस्मद् है इसलिए अस्मद् किसी के साथ भी प्रयुक्त हो शेष बचता है। [iv] यद्यपि शंकराचार्य ने भी व्याकरण की कोटियों का अनेक स्थानों पर अपने मत को प्रकट करने में उपयोग किया है लकिन इस विषय में उदाहरणों की जितनी प्रचुरता अभिनव गुप्त में है सम्भवतः उतनी अन्य किसी में नहीं। उदाहरणके रूप में प्रस्तुत है भगवद्गीता २.१६ में आये तत्त्वदर्शिनः शब्द की व्याख्या– तदिति सर्वनाम् सर्वं च ब्रह्म तस्य नाम तदिति तद्भावः तत्त्वम् ब्रह्मणो याथात्म्यम्। तत् द्रष्टुं शीलं येषां ते तत्त्वदर्शिनः तैः तत्त्वदर्शिभिः। Advertisements  श्रेणियाँ: Uncategorized टिप्पणी करे Balramshukla's Blog Back to top
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