Tuesday, 5 September 2017
वेद पढ़ा वे वेदीकहलाये ...
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ved and guru granth sahib
विक्रम सिंह
September 8, 2013 · Edited ·
·
|| गुरु ग्रन्थ साहब और वेद ||
१) ओंकार वेद निरमए – राग रामकली महला १, ओंकार शब्द १
अर्थात् ईश्वर ने वेद बनाए
२) हरि आज्ञा होए, वेद पाप पुन्न विचारिआ. – मारू डखणे, महला 5, शब्द-१
अर्थात् ईश्वर की आज्ञा से वेद हुए जिससे मनुष्य पाप-पुण्य का विचार कर सके.
३) सामवेद, ऋग जजुर अथर्वण. ब्रह्मे मुख माइया है त्रैगुण. ताकी कीमत कीत
कह न सकै को तिउ बोलै जिउ बोलाइदा. – मारू सोलहे महला-१, शब्द-१७
अर्थात् ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद परमात्मा की वाणी है. इनकी कीमत
कोई नहीं बता सकता. वे अमूल्य और अनन्त हैं.
४) ओंकार उत्पाती. किया दिवस सभ राती वन तृण त्रिभवन पाणी.
चार वेद चारे खानी. -राग मारू महला-5, शब्द-१७
अर्थात् ओंकार (परमात्मा) ने ही दिन-रात, वन, घास, तीनों लोक, पानी आदि को
बनाया और उसी ने चारों वेदों को बनाया, जो चार खानों (कोषों) के समान हैं.
५) वेद बखान कहहि इक कहिये. ओह बेअन्त अन्त किन् लहिये.
६) दिवा तले अँधेरा जाई. वेदपाठ मति पापा खाई.
उगवै सूर न जापै चन्द, जहाँ ज्ञान प्रकाश अज्ञान मिटन्त.
-वसन्त अष्टपदियाँ महला-१, अ.३
अर्थात् वेद से अज्ञान मिट जाता है, और उनके पाठ से बुद्धि शुद्ध होकर पापों का
नाश हो जाता है.
7) असन्ख ग्रन्थ, मुखि वेद पाठ. – जपुजी १७
अर्थात् असंख्य ग्रन्थों के होते हुए भी वेद का पढना मुख्य है.
8) स्मृति सासत्र (शास्त्र) वेद पुराण. पारब्रह्म का करहिं बखियाण.
– गौंड महला-5, शब्द-१७
अर्थात् स्मृति, शास्त्र, वेद और पुराण परमात्मा का ही वर्णन करते हैं.
[सर्वे वेदा यत्पदम् आमनन्ति]
स्मृति = मनुस्मृति,
शास्त्र = दर्शन = उपांग,
वेद = ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद
पुराण(ऐतरय, शतपथ, तांड्य, गोपथ)
9) वेद बखियाण करत साधुजन, भागहीन समझत नहीं. – टोडी महला-5, शब्द-26
अर्थात् साधु, सज्जन सदा वेद का व्याख्यान करते हैं, किन्तु भाग्यहीन मनुष्य कुछ
नहीं समझता.
10) कहन्त वेदा गुणन्त गुणिया, सुणत बाला वह विधि प्रकारा.
दृडन्त सुविद्या हरि हरि कृपाला. – सलोक सहस्कृति, महला-5, शब्द-14
अर्थात् वेदों के पढने से उत्तम विद्या परमात्मा की कृपा से बढती है.
11) वेद पुराण सासत्र (शास्त्र) विचारं, एकं कार नाम उरधारम्.
कुलह समूह सगल उधारं, बड़भागी नानक को तारम् –गाथा महला 5/20
अर्थात् वेद, पुराण शास्त्र के विचार करने से परमेश्वर का स्मरण होता है,
और सारा कुल तर जाता है.
12) कल में एक नाम कृपानिधि जाहि जपे गति पावै.
और धरम ताके सम नाहन इह विधि वेद बतावै. — राग सोरठ, महला-9, शब्द-5
अर्थात् वेदों में एक परमेश्वर के स्मरण करने का उपदेश है.
13) वेद कतेब कहहु मत झूठे, झूठा जो न विचारे. — राग प्रभाती कबीर जी, शब्द-३
अर्थात् वेदों को झूठा मत कहो. झूठा वह है जो विचार नहीं करता.
14) दशवें गुरु गोविन्द सिंह जी का वचन, विचित्र नाटक, अध्याय-4 निम्नलिखित है:
भुजंगप्रयात छन्द:-
जिनै वेद पठ्यो सुवेदी कहाये, तिने धरम के करम नीके चलाये.
पठे कागदं मद्र राजा सुधारं, आपो आप में वैरभावं विसारं.
नृपं मुकलियम् दूत सो कासी, आयं सभै वेदियम् भेद भाखे सुनायं.
सभे वेदपाठी चले मद्र देशे, प्रणामं कियो आन कै कै नरेसे
धुनं वेद की भूप ताते कराई, सभेपास बैठे सभा बीच भाई.
पढ़े सामवेदं युजुर्वेदकत्थं, ऋगम् वेद पाठ्यम् करे भाव हत्थं.
रसावल छन्द:-
अथर्ववेद पठयम्. सुनियो पाप नठियं. रहा रीझ राजा.
दीआ सरब साजा.
अर्थ: इस वर्णन में बताया गया है, की जिन्होंने वेद पढ़ा वे वेदी कहलाये.
(गुरु नानक जी का जन्म इसी वेदी परिवार में हुआ) उन्होंने उत्तम धर्म
के कर्म चलाये. वेदपाठी मद्र देश में गए. राजा ने उन्हें प्रणाम किया.
राजा ने उन वेदपाठियों से वेद की ध्वनि करवाई. सामवेद, यजुर्वेद, ऋग्वेद,
अथर्ववेद सब वेदों का पाठ करवाया गया जिसके सुनने से भी पाप नष्ट हो
गया. राजा अत्यन्त प्रसन्न हुआ. उसने उन वेदपाठियों को बहुत सी दक्षिणा
दी इत्यादि. इस प्रकार वेदों की पवित्रता और श्रेष्ठता का प्रतिपादन है.
15) चार दीवे चहु हथ दिए, एका एकी वारी. –वसन्त हिन्डोल महला-१, शब्द-१
अर्थात् चार दीपक (चार वेद), चार हृदयों में दिए, एक-एक ह्रदय में एक-एक वेद.
मनुष्य-सृष्टि के प्रारम्भ में (स्वायम्भुव-मन्वन्तर के प्रारम्भ में) अग्नि, वायु, आदित्य
और अंगिरा इन चार ऋषियों के हृदयों में समाधि की अवस्था परमात्मा ने चारों वेदों
का प्रकाश किया.
गुरु ग्रन्थ साहब में, जहाँ कहीं भी वेदों की निन्दा प्रतीत होती है, वह वेदों की निन्दा नहीं
किन्तु उनलोगों की है, जो केवल वेद का पाठ करते पर उनके अनुसार पवित्र आचरण नहीं
करते. इस प्रकार, गुरु ग्रन्थ साहब के अनेक वचनों द्वारा भी वेदों का महत्व तथा
ईश्वारीयत्व स्पष्टतया सूचित होता है.
October 5, 2015Leave a reply
shanka samadhan: ved mein aum shabd nahin hai
शंका— प्रथम ’ओम्’ के विषय में ये शंका होती है कि वेदों में ’ओम्’ शब्द का वर्णन कहाँ है ? वेदों के पढ़ने से विदित होता है कि अग्नि, वायु, इन्द्र, सविता, यम, अर्यमा, मरुत् आदिक ही ब्रह्म के नाम हैं, ’ओंकार’ नहीं, क्योंकि इसका पाठ चारों वेदों में कहीं नहीं मिलता । ऋग्वेद ’अग्नि’ शब्द से, यजुर्वेद ’इष्’ शब्द से, सामवेद ’अग्नि’ शब्द से और अथर्ववेद ’ये’ शब्द से प्रारम्भ हुआ है । यदि ब्रह्म का परमप्रिय नाम ’ओम्’ होता, तो वेदों में भी प्रथम उसका आना उचित था । अतः यह ईश्वर का नाम नहीं है,ऐसी प्रतीति होती है ।
२ —यह भी सुनते हैं कि ऐतरेय्, शतपथ, ताण्ड्य, गोपथ, जोकि क्रमशः चारों वेदों के चार ब्राह्मण हैं, उनमें भी ’ओंकार’ शब्द का विशेष वर्णन है ।
३ —जिस प्रकार सामगान में ’हाई’ ’हावू’ ’ओहोई’ ’आ’ ’ऊ’ प्रभृति शब्द केवल विश्राम के लिये आते हैं, उनका कुछ अर्थ नहीं होता, और जोकि ’साम-स्तोभ’ कहलाते है, वैसा ही यह ’ओंकार’ भी पूर्व समय में एक ’साम-स्तोभ था । गीत में विश्राम के लिये इसका उच्चारण करते थे, जैसे आजकल भी ’हो’ ’ओ’ ’हरे’ आदि असम्बद्ध शब्द लगा कर भजन गाते हैं । पीछे लोगों ने इस को पवित्र और ईश्वर का नाम मान लिया और इस शब्द के बहुत से मनमाने अर्थ किये, ऐसा भी कोई-कोई कहते हैं ।
समाधान— ओम् क्रतो स्मर क्लिबे स्मर&कृतस्मर ।। (यजु ४०-१५)
ओ३म् खं ब्रह्म (यजु ४० । १७)
यहां देखिये, यजुर्वेद के ४० वें अध्याय में साक्षात् ’ओम्’ शब्द का पाठ आया है । पुनः आप कैसे कहते हो कि वेदों में ’ओंकार’ शब्द का पाठ नहीं हैं ?
शंका— यजुर्वेद के ४० वें अध्याय को कतिपय विद्वान् उपनिषदों में ही गिनते हैं । वे कहते है कि सम्पूर्ण यजुर्वेद के मन्त्रों का विनियोग सर्वत्र कहा गया है; परन्तु इस अध्याय का विनियोग किसी भी ग्रन्थ में उक्त नहीं है और जिसका विनियोग नहीं, वह वेद नहीं, ऐसा मीमांसा का मत है, इस हेतु से इस को हम वेद नहीं कह सकते । इस कारण प्रथम इस अध्याय को छोड़ कर, वेदों के अन्य स्थानों से ’ओम्’ शब्द का उदाहरण वर्णन करें ।
*उत्तर- एवमस्तु । आप लोग सावधान होकर सुनें ।
ऋचो अक्षरे परमे व्योमन् यस्मिन् देवा अधि विश्वे निषेदुः ।
यस्तन्न वेद किमृचा करिष्यति य इत्तद्विदुस्त इमे समासते ।।
इस मन्त्र को लेकर यास्काचार्य निरुक्त में कई एक आचार्यों के सिद्धान्त प्रकाशित करते हैं । यथाः—
कतमत् तदेतदक्षरम् ?
ओमित्येषा वागिति शाकपूणिः ।। (निरुक्त १३ । १०)
इस मन्त्र में जो ’अक्षर’ शब्द आया है, उस का अर्थ क्या है ? (तत्+एतद्) वह यह (कतमद्+अक्षरम्) कौन-सा अक्षर है ? इतनी शंका करके शाकपूणि आचार्य कहते हैं कि (ओम्+इति) ओम् (एषा+वाग्) यह वाणी है । अर्थात् मन्त्र में जो अक्षर शब्द आया है, वह ’ओम्´ का ही वाचक है ।
शंका— इस में साक्षात् ओंकार शब्द तो नहीं; फिर शाकपूणि आचार्य का कथन हम कैसे मानें ? और जब निरुक्त में ही तीन आचार्य तीन अर्थ करते है, तब तो और भी सन्देह होता है । इस हेतु इस से शंका दून नहीं होती, कोई अन्य उदाहरण दें ।
समाधान— अच्छा, इस से यह तो सिद्ध होता है कि यास्काचार्य के पहले से ही इस का प्रचार था; क्योकि वे शाकपूणि आचार्य का व्याख्यान अपने ग्रन्थ में देते है । अतः शाकपूणि उनकी दृष्टि में प्राचीन है ।
मन्त्र में गुप्त ओंकार— अब इसी मन्त्र में गुप्त रूप से ओंकार शब्द विद्यमान है, सो देखिये । मन्त्र में ’व्योमन्’ शब्द है । इस में ’वि+ओम्+अन्’ ये तीन पद हैं । ’वि’ और ’अन्’ शब्दों के बीच में ’ओम्’ शब्द है । अब इस सम्पूर्ण मन्त्र का अर्थ सुनिये । मन्त्र के पद ये हैः-
ऋचः । अक्षरे । परमे । व्योमन् । यस्मिन् देवाः । अधि ।
विश्वे । निषेदुः । यः । तद् । न । वेद । किम् । ऋचा । करिष्यति ।
ये । इत् । तद् । विदुः । ते । इमे । समासते ।।
अर्थ— (ऋचः) ऋग्वेद के सारभूत (यस्मिन्) जिस (अक्षरे) क्षर = नाश, उससे रहित (परमे) परम = महान् (व्योमन् = वि+ओम्+अन्) वि = विशिष्ट = माया, प्रकृति । ओम् = परमेश्वर । अन् = जीवात्मा, इन तीनों में (विश्वा देवाः) सम्पूर्ण विश्व, विविध ब्रह्माण्ड, सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्रादि और प्राण सहित सकल इन्द्रिय (अधि निषेदुः) निविष्ट = समाये हुए है (यः) जो पुरुष (तत्) उस (व्योमन्) वि+ओम्+अन् को (न वेद) नहीं जानता है, वह (ऋचा) ऋग्वेद से (किं करिष्यति) क्या करेगा ? (ये) जो विद्वान् (तत्+इत्) इन ही तीनों को (विदुः) जानते हैं, (ते+इमे) वे ये विद्वान् (समासते) जगत् में अच्छी स्थिति को प्राप्त होते हैं और अन्त में ब्रह्म को भी पाते हैं ।
प्रकृति, जीव और ब्रह्म, ये तीनों अक्षर हैं, क्योंकि इनका विनाश नहीं होता । ये तीनों ही अक्षर महान् हैं इसी हेतु इन्हें ’परम’ कहा गया है । और ब्रह्म में तो यह सारा संसार ही है । ये सब कार्य प्रकृति के हैं । तथा जीवात्मा के आश्रय से ही सब इन्द्रियां कार्य करती है । अतः कहा गया है कि इन तीनों में ही (विश्वे देवा अधि निषेदुः) सब सूर्यादि देव निवास करते हैं । वेद इन ही तीनों का वर्णन करते है । इसलिये वेदों के ये ही तीन यथार्थ सारभूत पदार्थ है । जो इन तीनों को नहीं जानता, वह वास्तव में वेदों को भी नहीं जानता । केवल मन्त्रों को कण्ठस्थ कर लेने मात्र से क्या लाभ है ? जैसे परमात्मा सब के मध्य में गुप्तरीति से विराजमान है, वैसे ही यहां पर भी ’वि’ और ’अन्’ शब्दों के मध्य में ईश्वर वाचक ’ओम्’ शब्द सुशोभित है । उपनिषदों में कहा गया हैः—
अंगुष्ठमात्रः पुरुषोsन्तरात्मा सदा जनानां हृदये सन्निविष्टः ।।
(कठ उपनिष्द् ६ । १७)
वह अन्तर्यामी परमात्मा सबके हृदय में विराजता है ।
’वि’ और ’अन्’´ शब्दो की व्याख्या
शंका— ’वि’ और ’अन्’´ शब्दों से प्रकृति और जीव अर्थ का ग्रहण कैसे होता है ?
उत्तर— ’अन्’ शब्द का अर्थ जीव तो प्रत्यक्ष ही है । क्योंकि (अनिति, प्राणिति, जीवतीति = अन्) ’अन्’ धातु का अर्थ जीना है । ’जीव’ धातु का जो अर्थ है, वही अर्थ ’अन्’ धातु का भी है । अतः ’जीव’ और ’अन्’ शब्द एक ही अर्थ के प्रकाशक हैं । इसी ’अन्’ में ’प्र’ उपसर्ग जोड़ने से प्राण शब्द बनता है । इसी प्रकार अप+अन् = अपान्; सम+अन् = समान, उद्+आ+अनः = उदान, वि+आ+अन = व्यान शब्द बनते हैं । भेद इतना है कि अन् शब्द में नकार ’हल’ है । सो अन् धातु से ’क्विप्’ प्रत्यय करने पर हलन्त ’अन्’ शब्द सिद्ध होता है। ’अन्’ और ’अन’ में कोई भेद नहीं है । ऐसे प्रयोग संस्कृत में बहुत आते हैं । जैसे— ’तज्जलान्’ यह छांदोग्योपनिषद् तृतीय प्रपाठक चतुदर्शखण्ड प्रथमानुवाक का वचन है । इसमें ’तत्+ज+ल+अन्’ शब्द हैं । यहां पर भी अन् धातु से ’क्विप्’ प्रत्यय ही है । अतः ’अन्’ शब्द का अर्थ जीवात्मा सिद्ध हुआ । ’ओम्’ शब्द का अर्थ तो परमात्मा प्रसिद्ध ही है । अब रह गया ’वि’ शब्द । फलित से ही ’वि’ शब्द का अर्थ प्रकृति निकल आता है । क्योंकि परमात्मा और जीवात्मा के अर्थ को बताने-वाले शब्द तो इसमें विद्यमान ही हैं । अतः ’वि’ शब्द का अर्थ शेष प्रकृति के अतिरिक्त अन्य क्या होगा ? व्याकरण शास्त्र का एक नियम हैः—
सहचरितासहचरितयोः सहचरितस्यैव ग्रहणम् ।। (परिभाषा १११)
यहां इस हेतु परमात्मा जीवात्मा वाचक ओम्+अन् शब्दों के साथ पठित ’व’ शब्द का अर्थ प्रकृति ही होगा, अन्य नहीं ।
द्वीतीय अर्थ— अथवा (व्योमन्) शब्द में ’वि+ओम्+अन्’ जो तीन शब्द हैं, उनमें से (विशेषण+अनिति प्राणयति जीवान् यः स व्यन्) ’व्यन्’ (वि+अन्) ’ओम् शब्द का विशेषण भी हो सकता है । जो ’ओम्’ ब्रह्म सब प्रकार से जीवों को जीवित कर रहा है, वह ’व्यन्’ है । इस प्रकार इसके अनेक अर्थ होंगे ।
अब यह सुनिये कि यास्काचार्य ने भी इसके तीन ही अर्थ दिखलाये है । ब्रह्म, जीव और आदित्य इन तीनों पदार्थों में यह मन्त्र घटता है । ’आदित्य’ पद से प्रकृति का ग्रहण होता है । इससे भी सिद्ध होता है कि यह मन्त्र तीन पदार्थों का वर्णन कर रहा है । अतः यह स्पष्ट सिद्ध है कि ’व्योमन्’ शब्द में तीन पद है ।
’व्योमन्’ शब्द के निर्विभक्तिक होने का कारण
आप लोग यह भी जानते है कि ’व्योमन्’ शब्द में विभक्ति नहीं है । उसका लोप हो गया है । ’व्योमन्’ शब्द वेदों में जहां-जहां भी आता है, वहां-वहां प्रायः विभक्ति का लोप ही आप देखेंगे । क्यो ? उत्तर यह है कि इसका मध्यगत शब्द ’ओम्’ है और वह ’अव्यय’ है । अतः उसके योग से ये दोनों भी अव्ययवत् ही प्रयुक्त हुए हैं । यथाः—
देवा वा एतस्यामवदन्त पूर्वे सप्त ऋषयस्तपसे ये निषेदुः ।
भीमा जाया ब्राह्मणस्योपनीता दुर्धां दधाति ’परमे व्योमन्’ ।। (अथर्व॰ ५ । १७ । ६)
एवं सधस्थाः परि वो ददामि यं शेवधिमावहाज्जातवेदाः ।
अन्वागन्ता यजमानः स्वस्ति तं स्म जानीत् ’परमे व्योमन्’ ।।
(अथर्व ६ । १२३ । १)
यद्देवा देवान् हविषा यजन्तामर्त्यान् मनसा मर्त्येन ।
मदेम तत्र ’परमे व्योमन्’ पश्येम तदुदितौ सूर्यस्य ।। (अथर्व ७ । ५ । ३)
हमने आप लोगों के लिये केवल तीन उदाहरण दिये है । चारों वेदों में यह ’परमे व्योमन्’ शब्द अनेक बार आये है । वहां-वहां सर्वत्र ही सप्तमी विभक्ति का प्रायः लोप ही पाया जाता है ।
महर्षि पाणिनि का जो यहः—
सुपां सुलुक्पूर्वसवर्णाच्छेयाडाड्यायाजालः (अष्टाध्यायी ७/१/३९)
सूत्र है, वह वेद में ’सुप्’ की जगह ’सु’ और लोप आदि विधान करता है । सो केवल ’व्योमन्’ शब्द के लिये ही नही है । यह एक सामान्य सूत्र है । तब क्या कारण कि ’व्योमन्’ शब्द जहां-जहां भी आये हैं, वहां-वहां प्रायः सप्तमी का लोप ही पाया जाता है ? इससे वेद का कुछ गूढ़ तात्पर्य प्रतीत होता है । वेद का तात्पर्य अत्यन्त गूढ़ है । लाखों मनुष्यों में से कोई-कोई ही उसे जानते हैं । इसलिये यह कहना कि वेदों में ’ओम्’ शब्द नहीं है, ठीक नहीं है । जैसे प्रकृति और पुरुष के मध्य मं ही ब्रह्म विराजमान है; परन्तु किसी को दिखाई नही देता, उसी प्रकार ’ओम्’ शब्द भी सब वेदों में है, परन्तु सब मनुष्यों को दिखाई नहीं देता ।
वेदों में ओंकार शब्द का पाठ
ओमासश्चर्षणीधृतो विश्वे देवास आ गत ।
दाश्वांसो दाशुषः सुतम् ।। (ऋ॰ १/३/७)
पदः— ओमासः चर्षणीधृतः । विश्वे । देवासः । आ । गत । दाश्वांसः । दाशुषः । सुतम् ।
अर्थ- प्रथम यहाँ यह जानना चाहिये कि ’ओमासः’ यह एक समस्त पद है । अर्थात् ’ओम्+आसः’ ये दो पद हैं । ’ओम्’ नाम ब्रह्म का है ।’आस’´का अर्थ समीप बैठने वाला है । अर्थात् ब्रह्म के समीप बैठनेवाले ब्रह्मज्ञानी को ’ओमासः’ कहते है ।
अब सम्पूर्ण मन्त्र का अर्थ यह है— (विश्वे देवासः) हे सकल विद्वानो । (दाशुषः) सत्कार करनेवाले मेरे गृह पर (सुतम्) सोम रस युक्त विविध प्रकार के पदार्थों को ग्रहण करने के लिये (आ गत) आप लोग कृपा करके आवें । आप लोग कैसे हैं ? (ओमासः) ओम् =ब्रह्म के समीप आसः= बैठनेवाले अर्थात् ब्रह्मतत्व को जाननेवाले हैं । क्योंकि आप लोग ब्रह्मज्ञानी है, अतः मेरे घर पर पधार कर उसे पवित्र और सुशोभित करें ।फिर आप कैसे है ? (चर्षणीधृतः) चर्षणी = प्रजाओं को, धृतः= धारण करने वाले, भी आप है । अतः मुझे भी अपने उपदेशों से दृढ़ करें । पुनः आप कैसे हैं ? (दाश्वांसः) विविध प्रकार के विज्ञानों के देनेवाले है । यहाँ यह देखिये ’ओम्’ शब्द प्रत्यक्ष ही विद्यमान है । अब और भी देखें—
मनो जूतिर्जुषतामाज्यस्य बृहस्पतिर्यज्ञमिमं तनोत्वरिष्टं यज्ञं समिमं दधातु ।
विश्वे देवास इह मादयन्ताम् ओम् प्रतिष्ठ ।। (यजु॰ २ । १३)
पदः— मनः । जूतिः । जुषताम् । आज्यस्य । बृहस्पतिः । यज्ञम् । इमम् । तनोतु । अरिष्टम् । यज्ञम् । सम् । इमम् । दधातु । विश्वे । देवासः । इह । मादयन्ताम् । ओम् । प्रतिष्ठ ।
अर्थः— (जूतिः) अतिगमनशील, वेगवान् (मनः) मन (आज्यस्य) सर्वव्यापक ब्रह्म की (जुषताम्) सेवा करे और (बृहस्पतिः) बृहत् = वेदों का अधिपति वह परमेश्वर मेरे (इमम्) इस (यज्ञम्) यज्ञ को (अरिष्टम्) निरूपद्रव, छिद्र रहित करे । और वह ईश्वर (इमम्+यज्ञम्) मेरे इस यज्ञ को (सम्+दधातु) अच्छे प्रकार धारण करे, पुष्ट करे । और (विश्वे) आये हुए सब (देवासः) विद्वान् (इह) इस यज्ञ में (मादयन्ताम्) आनन्द का उपभोग करें । (ओम्) हे ईश्वर ! (प्रतिष्ठः) आप मेरे हृदय में प्रतिष्ठित हों ।
देखो इस मन्त्र में भी ’ओम्’ शब्द का पाठ साक्षात् आया है ।
वेदों मे जितने मन्त्र हैं, उन से दो गुणा ओम् का पाठ है
आप लोगों ने यह कहा है कि अग्नि, वायु, इन्द्र, आदिक शब्द ही ब्रह्म के प्रिय नाम प्रतीत होते है, क्योंकि वेदों में इन का ही पाठ है, ’ओंकार’ का नही । यह भ्रम आप को वेदों के न जानने से ही है। वेदों के जितने मन्त्र हैं, उन से दो गुणा ’ओंकार’ शब्द वेदों में आया है । उस को ध्यान देकर विचार करें । महर्षि पाणिनि कहते हैः—
प्रणवष्ठेः । (अष्टाध्यायी ५ । २ । ८९)
यज्ञकर्मणि टेरोममित्यादेशः स्यात् ।
अपां रेतांसि जिन्वतोम् ।।
जब वैदिक मन्त्र यज्ञ में पढ़े जायें, तो सब मन्त्रों के ’टि’ की जगह ’ओम्’ शब्द का पाठ किया जाये । क्योंकि ’टि’ के स्थान पर ’ओम्’ शब्द का आदेश व्याकरण के नियम से होता है । ’टि’ यह व्याकरण की एक संज्ञा है । यदि उस अन्तिम स्वर वर्ण के आगे व्यंजन भी हो, तो दोनों की ही ’टि’ संज्ञा हो जायेगी ।
अचोsन्त्यादि टि ।* (अष्टाधायी)
*शब्द के अन्त मे यदि व्यंजन वर्ण हो तो, उससे पूर्ववर्ती स्वर के साथ ’टि’ संज्ञा होती है । यथा ’प्रचोद्यात्’ में अन्तिम ’आत्’ की ’टि’ संज्ञा है । यदि अन्त में स्वर हो तो वह भी ’टि’ होता है जैसे ’जिन्वति’ में ’इ’´ —(सम्पादक)
उदाहरण से यह विस्पष्ट होगा । यथा—
अपां रेतांसि जिन्वति
यह वेद का मन्त्र है । इसका अन्तिम स्वरवर्ण कौन है ? ’ति’ में इकार अंतिम स्वर है ।अतः ’इकार’ के स्थान में ’ओम्’ यह आदेश हो जायेगा । अर्थात् ’जिन्वति’ के स्थान में ’जिन्वितोम्’ हो जायेगा । इसी प्रकारः—
अग्निमीडे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम् ।
होतारं रत्नधातमम् ।। (ऋ॰ १ । १ । १)
इस मन्त्र में अन्तिम स्वर ’धातमम्’ के मकार में अकार है । और इस अकार से परे व्यंजन वर्ण मकार है । इन दोनों के स्थान पर ’ओम्’ यह पद आदेश हो जायेगा । अर्थात् ’रत्नधातमोम्’ पाठ हो जायेगा ।
इसी प्रकार आप समझें कि जितने मन्त्र वेद के हैं, उनके अन्तिम ’टि’ ओम् ही हैं । इस से सिद्ध हुआ कि वेद के जितने मन्त्र हैं, उतने ही बार ’ओंकार’ शब्द का पाठ उनके अन्त में है । इस से यह भी जान लें कि यह ’ओंकार’ शब्द का पाठ उनके अन्त में है । इस से यह भी जान लें कि यह ’ओंकार’ मन्त्र के अन्त में नहीं लगाया जाता; किन्तु प्रत्येक मन्त्र को जो अन्तिम ’टि’ है वही ’ओम्’ स्वरूप है ।
शंका— वेदों में इस प्रकार ’ओम्’ शब्द का पाठ हमने तो कहीं नही देखा । ज्ञात होता है कि जिस समय यज्ञ का प्रचार बहुत बढ़ गया था, उस समय याज्ञिक लोगों ने वेद-पाठ की यह विशेष परिपाटी प्रचलित की होगी । तत्पश्चात् वैयाकरण पाणिनि ने भी वैसा ही सूत्र रच दिया होगा ।
समाधान— यह कथन ठीक नहीं है । क्योंकि याज्ञिक लोग वेदों में कोई शब्द मिला नही सकते । हां, अन्य शब्दों को ऊपर से जोड़ कर गा सकते है । जैसे आजकल तुलसीदास की रामायण को जब गाते है, ’रामा भजु रामा’ ’जय-जय राम हरे’ इत्यादि शब्द विश्राम के लिए जोड़ कर गाते है । परन्तु किसी चौपाई वा दोहे के किसी अक्षर को मिटा कर उस के स्थान पर ’ओम्’ शब्द जोड़ देते है । इस से यह स्पष्ट है कि ’ओम्’ शब्द प्रत्येक वेद मन्त्र का अवयव ही है । इसको भली प्रकार विचारिये । अब यह देखिये कि ब्रह्मवाणी को अन्यथा कोई भी नही कर सकता । अतः ’ओम्’ शब्द का उपदेश प्रत्येक वेद मन्त्र के साथ-साथ किया गया है । क्योंकि प्रत्येक मन्त्र का अन्तिम ’टि’ ’ओम्’ ही है । यही अनादि संकेत है ।
जिस हेतु अनादि काल से यह संकेत चला आता है और यह एक सार्वत्रिक नियम है, इसलिये यह मन्त्रों के अन्त में लिखा नहीं रहता है । ब्रह्मचारी से एक बार कह दिया गया कि वेद के प्रत्येक मन्त्र के ’टि’ भाग को ’ओम्’ जानो । पुनः-पुनः कहने वा लिखने की कोई आवश्यकता ही नहीं है । क्योंकि यह एक सार्वत्रिक नियम है । बालको के अध्ययन के समय तो इसकी आवश्यकता भी नही है; क्योंकि उनको तो प्रथम मन्त्रों का बोध होना चाहिए । इसके पश्चात् अर्थ का और तत्पश्चात् सम्पूर्ण वेदों के मुख्य तात्पर्य का बोध आवश्यक है ।
शंका— यह तो बोध हो गया कि जितने मन्त्र है, उतने ही बार उनके अन्त में ओंकार शब्द का पाठ भी है, अब कृपा कर के यह बतायें कि जब वेद मन्त्रों के अर्थ किये जाते हैं, तब ओंकार के कुछ भी अर्थ क्यों नहीं किये जाते ? इस से तो ’ओम्’ शब्द का प्रयोग निरर्थक ही प्रतीत होता है ।
उत्तर— ओम् शब्द का अन्वय— इसका जो गूढ़ तात्पर्य है वह सुनिये । वेद का अन्तिम तात्पर्य तो केवल ब्रह्म ही है, अन्य कुछ नहीं । इसी गूढ़ आशय को दर्शाने के लिये प्रत्येक मन्त्र के अन्त में ’ओम्’ शब्द का पाठ होता है । इसी विषय को कृष्णद्वैपायन वेदव्यास ने अपने वेदान्त-सूत्र में कहा हैः—
तत्तु समन्वयात् । (वेदान्त-सूत्र ३ । १ । १)
(तत्तु) वही ब्रह्म सम्पूर्ण वेदों का प्रतिपाद्य विषय है । अर्थात् उसी को वेद गाता है क्योंकि (समन्वयात्) जैसे ईश्वर का सम्बन्ध सम्पूर्ण विश्व से हैं, वैसे ही सम्पूर्ण वेदों के मन्त्रों से भी साक्षात् या परम्परा से ईश्वर का सम्बन्ध है । अतः यह कहना कि वेदों में ’ओम्’ शब्द का पाठ नहीं है, केवल भ्रम ही है ।
मन्त्रों के आदि में ओंकार
अब यह देखें कि प्रत्येक वेदमन्त्र के आरम्भ में भी ’ओम्’ शब्द का पाठ होता हैः—
ब्रह्मणः प्रणवं कुर्यादादावन्ते च सर्वदा ।
स्त्रवत्यनोंकृतं पूर्वं परस्ताच्च विशीर्यते ।। (मनु॰ २ । ७४)
अर्थः— (ब्रह्मणः) वेदमन्त्र के (आदौ) आरम्भ में (च) और (अन्ते) अन्त में (प्रणवम्+कुर्यात्) ओंकार का पाठ करना चाहिये । यदि वेद-पाठ के आरम्भ में और अन्त में ओंकार का पाठ न किया जाये, तो दोष होगा, यह आगे बताते है । (पूर्वं) मन्त्रोच्चारण से पहिले (अनोंकृतम्) यदि ओंकार का पाठ न किया जाये, तो (स्त्रवति) उसका फल धीरे-धीरे नष्ट हो जाता है । (परस्तात्+च) और यदि मन्त्र के अन्त में ओंकार का पाठ न किया जाये, तो (विशीर्यते) पाठकर्ता का पतन हो जाता है । अतः वेद-पाठ के आरम्भ और अन्त में भी ’ओंकार’ शब्द का पाठ बहुत ही आवश्यक है ।
महर्षि पाणिनि जी कहते हैः—
ओमभ्यादाने (अष्टा॰ ८/२/७)
ओम् शब्दस्य प्लुतः स्यादारम्भे ।
ओ३म् अग्निमीले पुरोहितम् ।।
आरम्भ में ’ओम्’ शब्द का ’लुप्त’ उच्चारण है अर्थात् जब ’ओम्’ शब्द किसी मन्त्र के आरम्भ में पढ़ा जायेगा तो ’ओम्’ का ओकार लुप्त हो जायगा । ’लुप्त’ तीन मात्रा का होता है ।इसीलिये ओ३म् के ’ओ’ के आगे ३ का अंक लिखा जाता है । अब आप मन में विचार करो कि मनु और पाणिनि कब हुए है । जबकि ये लोग भी इस नियम को गाते आते है, तब इस में भ्रम कैसे हो सकता है । धर्म-शास्त्र में कदाचित् सन्देह हो सकता है कि कभी किसी सम्प्रदायी ने यह श्लोक मिला दिया होगा । परन्तु व्याकरण के विषय में तो ऐसा सन्देह हो ही नहीं सकता । इससे सिद्ध है कि वेदों के जितने मन्त्र हैं, उनसे दुगनी बार ’ओम्’ शब्द का पाठ वेदों में है ।
पुनः पर्यालोचन और अन्वेषण कीजिये । सामवेद गान के पाँच विभाग होते है । जिन को संस्कृत में ’विभक्ति’ या ’भक्ति’ कहते है । उन के नाम ये हैः—
१. -हिंकार २ –प्रस्ताव ३ –उद्गीथ ४ –प्रतिहार ५ –निधन
उद्गोथ विभाग में प्रधानतया ओंकार का ही गान होता है । इन पांचों विभक्तियों की आज्ञा वेदों में भी पाई जाती है । यथा—
तस्मा उद्यन् सूर्यो हिं कृणोति संगवः प्र स्तौति ।। ४ ।।
मध्यन्दिन उद्भायति अपराह्णः प्रतिहरति अस्तं यन् निधनम् ।। ५ ।।
(अथर्व॰ ९ । ६ । ५)
अर्थ- (तस्मै) उस ब्रह्म ही महती कीर्ति को विस्तृत करने के लिये मानो (उदयन्) उदय होता हुआ (सूर्य) सूर्य (हिं करोति) हिंकार सामगान का अनुष्ठान करता है । (संगवः) प्रातः काल का उदित सूर्य (प्रस्तौति) मानो प्रस्ताव करता है । (मध्यन्दिन) मध्याह्न का सूर्य (उद्गायति) उद्गीथ विधि का गायन करता है ।(अपाह्नः) अपराह्न का सूर्य (प्रतिहरति) प्रतिहार करता है । (अस्तं+यन्) अस्त होता हुआ सूर्य मानो (निधनम्) निधन विधि का अनुष्ठान करता है ।
इससे यह सिद्ध होता है कि अनादि काल से ही हिंकार, प्रस्ताव, उद्गीथ, प्रतिहार और निधन का क्रम चला आ रहा है । और उद्गीथ में तो मुख्यतया ’ओंकार’ का ही गान होता है, जोकि ईश्वर का मुख्य नाम है । अतः यह सिद्ध है कि वेदों के जितने मन्त्र है, उनकी संख्या से दुगनी संख्या वेदों में ’ओम’ शब्द की है ।
November 17, 20141 Reply
Kung Fu and Its Origin in Vedic Hinduism – A Documentary
http://hitxp.wordpress.com/category/tenjiku-naranokaku/
https://www.youtube.com/watch?v=ukvIHyxkXjY
December 8, 2013Leave a reply
भाषा विज्ञान और वेद ( भाग १ )
भाषा विज्ञान और वेद ( भाग १ ) :-
प्रश्न :- अक्षर किसे कहते हैं ?
उत्तर :- जिनका कभी नाश न हो, आकाश देश जिनका वास हो । जो शब्दों के परमाणू अर्थात् अविभाजित
भाग हैं । आगे जिनको और नहीं तोड़ा जा सकता । इसी कारण इनको अ+ क्षयः = अक्षर । यानी कि
जिनका कभी क्षय ( नाश ) न हो ।
प्रश्न :- आकाश किसको कहते हैं ?
उत्तर :- आकाश खाली स्थान यानी कि अभाव को कहते हैं । जिसे अंग्रेज़ी में vaccum या ether नाम से
जाना जाता है । आकाश को शून्य ( nothing ) भी कहा जाता है ।
प्रश्न :- शब्द किसको कहते हैं ?
उत्तर :- अक्षरों का वह स्मूह जो कि किसी अर्थ को सम्बोधित करने के लिए व्यक्त किया गया हो ।
प्रश्न :- यह शब्द का निवास कहाँ है ?
उत्तर :-अक्षरों की भांती शब्दों का निवास भी आकाश देश में है । यानी कि सर्वत्र । क्योंकि अक्षर जो हैं वो
शब्दों के लघु रूप हैं । अक्षरों को मिला करके ही शब्द बनता है ।
प्रश्न :- शब्द कैसे बनते हैं ?
उत्तर :- स्वर और व्यञ्जन को मिला कर ही शब्द बनता है ।
प्रश्न :- स्वर और व्यञ्जन क्या होते हैं ?
उत्तर :- वर्णों को दो भागों में बाँटा गया है । (१) स्वर और (२) व्यञ्जन ।
वर्ण कहते हैं भिन्न भिन्न प्रकार के शब्दों को ।
प्रश्न :- स्वर किसे कहते हैं ?
उत्तर :- हमारे आत्मा की प्रेरणा से जब बुद्धि के द्वारा मन को ताड़ित करके नाभी में से जिस वायु को ऊपर की
ओर उठाया जाता है, उसको स्वर कहते हैं ।
प्रश्न :- व्यञ्जन किसको कहते हैं ?
उत्तर :- जब यह स्वर हमारे कंठ ( गले ) को प्राप्त होता है । तो बुद्धि सा प्रेरित मुख की भिन्न भिन्न प्रकार से
क्रिया होती है । तो वही भिन्न भिन्न प्रकार के वर्ण कहलाते हैं ।
प्रश्न :- स्वर और व्यञ्जन को और स्पष्ट करें ।
उत्तर :- जैसे हमारे पास ये व्यञ्जन हैं ( क ख ग घ ङ ) जिनको संक्षेप से कवर्ग कहा जाता है । इनमें से क वर्ण
का उदहारण लें । जिनमें मूल रूप से बारह स्वरों का संयोग सिखाया जा रहा है । बाकी वर्णों का भी
इसी प्रकार समझें :-
क् + अ = क
क् + आ= का
क् + इ = कि
क् + ई = की
क् + उ = कु
क् + ऊ = कू
क् + ए = के
क् + ऐ = कै
क् + ओ = को
क् + औ = कौ
क् + अः = कः
क् + ऋ = कृ
प्रश्न :- शब्दों को बनाने की प्रक्रिया क्या है ?
उत्तर :- व्यञ्जनों को स्वरों से युक्त करके विज्ञान पूर्वक शब्द बनाये जाते हैं ।
प्रश्न :- शब्दों से क्या बनता है ?
उत्तर :- शब्दों से धातूएँ बनती हैं ।
प्रश्न :- धातू किसे कहते हैं ?
उत्तर :- जब भी ब्रह्माण्ड में कोई क्रिया होती तो किसी न किसी शब्द की उत्पत्ति होती है । उस क्रिया का नाम
उसी शब्द के आधार पर रखा जाता है जिसे धातू कहते हैं ।
प्रश्न :- इसे स्पष्ट करें ।
उत्तर :- जैसे जब यह ब्रह्माण्ड में भूमी बनी । जो मनुष्यों के निवास का स्थान है । इसके बनते समय कई
असंख्य क्रियाएँ हुई होंगी परन्तु जो प्रथम क्रिया हुई उससे ” भू ! ” शब्द की उत्पत्ति हुई । इसी के
आधार पर संस्कृत की प्रथम धातू ( भू ) बनी । जिसका अर्थ हुआ सत्तायाम होना यानि कि अस्तित्व
में आना । जिसके कारण पृथिवी का नाम भूमी हुआ । जहाँ प्राणी निवास करते हैं ।
प्रथम :- शब्दों के व्यक्तव्य की क्या आवश्यकता है ?
उत्तर :- जिससे कि मनुष्य आपस में अपने विचारों और मनोभावों को समझ कर कार्य की सिद्धी कर सकें ।
प्रश्न :- शब्द कहाँ से आया और कहाँ जाता है ?
उत्तर :- बोलने वाला आकाश में व्यापत अक्षरों को संयुक्त करके आत्मा के द्वारा शब्द बनाता और वह सुनने
वाले की श्रोतेंद्रीयों ( कानों ) से ग्रहीत होता है । और फिर मन के द्वारा बुद्धि तक पहुँच कर बुद्धि द्वारा
आत्मा को अर्पित किया जाता है । जिससे कि मनुष्य उस कहे हुए शब्द को समझ पाता है ।
प्रश्न :- परन्तु ऊपर आपने कहा था कि अक्षर कभी नष्ट नहीं होता, तो फिर हम जो भी बोलते हैं ! वो क्यों
समाप्त हो जाता है ?
उत्तर :-हमने कहा शब्दों का जो मूल है वह अक्षर है जो सदा आकाश में व्याप्त है । इसी कारण शब्द नाश से
रहित है । पर जो यह शब्द है वह दो प्रकार का है,अक्षर और ध्वनि के रूप में । ध्वनि एक ऊर्जा है
जो परिवर्तित हो कर अन्य रूप में बदल जाती है वायु के अणुओं में जिसे हम शब्द का नाश समझ
बैठते हैं । ऐसा भाव न्याय दर्शन में भी आया है । जिसमें शब्द को अनित्य माना है । तो जो अक्षर है
वह अपने निवास स्थान आकाश में ही विलीन हो जाता है । तो जब हम बोलते हैं । वह शब्द राशी जो
ध्वनि से युक्त है प्रकट भाव में अर्थ का सम्बोधन कराने के लिए आकाश में से ही ली जाती है और
फिर आकाश में ही विलीन हो जाती है । और आकाश में ध्वनि किसी दूसरे प्रकार की ऊर्जा में परिवर्तित
हो जाती है क्योंकि जिस ऊर्जा को हमने भाषा को बनाने के लिये वातावरण से लिया था वही हमने
उसी को दिया है । जैसा कि विज्ञान का नियम है कि ऊर्जा न तो उत्पन्न की जा सकती है न ही नष्ट ।
प्रश्न :- धातुएँ कितनी हैं ?
उत्तर :- जितनी प्रकृति में क्रियाएँ हैं उतनी ही हैं यानि कि अनंत । क्योंकि हमें सारी क्रियाओं का तो पता नहीं है
। हाँ परन्तु जितनी क्रियाओं से जीवन निर्वाह से लेकर मोक्ष पर्यन्त हमें आवश्यक्ता है । उतनी ही
स्वीकरी जाती हैं । सो इनकी संख्या सीमित कर दी गई है । क्योंकि अनंत क्रीयाओं को हम जान नहीं
सकते हमारी सीमाएँ निर्धारित हैं हमारा ज्ञान सीमित है अनंत नहीं । क्रिया वाची शब्दों को ही धातु
कहा जाता है ।
प्रश्न :- तो यह सीमित संख्या कितनी है ?
उत्तर :- प्राचीन काल में तो सहस्त्रों धातुएँ भाषा वैज्ञानिकों को ज्ञात थीं क्योंकि यह वही वैदिक स्वर्ण काल था
। जब मनुष्यों की संख्या और आवश्यक्ताएँ कम थीं । और मनुष्य महाबुद्धिशाली थे । परन्तु समय के
साथ साथ परिस्थितीयों के बदलने से लोगों के आलस्य के कारण यह धातुएँ संक्षिप्त होती गईं । और
भाषा वैज्ञानिक ऋषियों को क्रियावाची धातुओं के सूक्ष्म भेद लुप्त करने पड़े क्योंकि भाषा का विकास
तब तक रहता है जब तक मानवों का नैतिक बल प्रबल रहता है । सो यह भाषा का ह्रास होते होते यह
पाणीनि ( व्याकरण आचार्य ) तक ये केवल 2014 तक सिमट गईं । तो पाणीनि के समय से लेकर के
अब तक यह 2014 धातुएँ संस्कृत भाषा में पाई जाती हैं ।
प्रश्न :- शब्द और धातु में भेद क्या है ?
उत्तर :- किसी भी प्राकृत पदार्थ के सम्बोधन को उसका शब्द कहा जाता है । जबकी धातु केवल क्रिया वाची
शब्दों को कहते हैं ।
प्रश्न :- भाषा किसे कहते हैं ?
उत्तर :- जिस माध्यम से मनुष्य अपने भाव व्यक्त कर संवाद करते हैं उसे भाषा कहते हैं । जिससे कि एक
दूसरे को समझ कर वे अपने प्रयोजन को सिद्ध करते हैं ।
प्रश्न :- भाषा को व्यक्त कैसे किया जाता है ?
उत्तर :- लिप्पी के द्वारा ।
प्रश्न :- लिप्पी किसे कहते हैं ?
उत्तर :- वह चिह्न जो कि किसी वस्तु पर बना कर किसी दूसरे मनुष्य को अपनी बात व्यक्त करने के लिये दिये
जाते हैं । जब वे मनुष्य, जिनका संवाद होना है वे एक दूजे के समीप न हो वर्तमान में । हर एक अक्षर
या वर्ण के लिए भिन्न भिन्न चिह्न किसी समाज में भाषा वैज्ञानिकों द्वारा निर्धारित किए जाते हैं । तो
उस समाज में वही भाषा को व्यक्त करने का माध्यम बन जाते हैं जिससे कि किसी व्यक्ति द्वारा कही
हुई बात को उन उन चिह्नों में व्यक्त कर किसी वस्तु ( कागज, लकड़ी, पत्थर, वृक्ष की खालें आदि )
पर अंकित करके किसी दूसरे तक पहुँचाया जाता है । तो वह व्यक्ति जो उन चिह्नों से परीचित होता है
वह उस बात को समझ लेता है । और इसी प्रकार अपनी बात को शब्द प्रमाण के रूप में सुरक्षित रखा
जाता है ।
प्रश्न :- भाषा और लिप्पी में भेद क्या है ?
उत्तर :- भाषा से बोलना आता है । लिप्पी से लिखना आता है ।
प्रश्न :- मानव की सर्वप्रथम भाषा कौन सी है ?
उत्तर :- प्रथम भाषा तो वही सम्भव है जो पूर्ण विकसित, पकिमार्जित की हुई । संस्कार से युक्त हो । जिसको
बोलने से प्रत्येक शब्द अति स्पष्ट रूप से उच्चारण ताकी सभी भाव पूर्ण रूप से व्यक्त होते हों । और
जिससे कि श्रोता ( सुनने वाले ) को मधुर लगे । वही मानुष भाषा है जो सर्वप्रथम मनुष्य ने प्रयोग की ।
उसी संस्कार से युक्त भाषा को संस्कृत कहा जाता है । जो अपने मूल शुद्ध स्वरूप में थी ।
प्रश्न :- संस्कृत कौन सी लिप्पी में लिखी जाती थी ? और लिप्पीयाँ कितने प्रकार की हैं ?
उत्तर :- इसमें मत भेद हो सकते हैं कि प्रथम लिप्पी क्या रही होगी परंतु इतिहासज्ञों का मानना है कि ब्राह्मी
लिप्पी ही वही है जिसमें संस्कृत लिखी जाती रही होगी । इस लिप्पी के आविष्कारक ब्रह्मा नाम के ऋषि
कहे जाते हैं । वैसे तो ब्रह्मा नाम के बहुत से महर्षि हो चुके हैं । और प्रथम तो मनुष्यों की बुद्धि बहुत तीव्र
होती थी । जिससे कि जिसने बोला और दूसरे ने तुरंत स्मरण कर लिया । सात्विक बुद्धि के मनुष्यों के
लिए यह सरल बात थी । जिस कारण कल्प के आदि से लेकर बहुत काल तक तो मनुष्य को लिप्पी की
आवश्यक्ता ही न हुई । परन्तु समय बीतने के साथ साथ जैसे जैसे मनुष्यों की संख्या बढ़ने लगी वैसे
वह पृथिवी पर फैलता चला गया । और समय के साथ तो मानवों के पौरूष में भी कमी आने लगी लोग
विलासी होने लगे और फिर कम बुद्धि के लोगों की भ्रष्ट मति को देख कर ऋषियों ने वैदिक ज्ञान को
बचाने का उपाय खोजा कि ज्ञान को चिह्नों के द्वारा सुरक्षित किया जाए । तो एतिहासिक साक्षियों और
परम्परा के आधार पर कहा जाता है कि सर्व प्रथम ब्रह्मा नामक महर्षि ने ऐसे चिह्नों का आविष्कार
विज्ञानपूर्वक किया था भाषा को प्रकट करने के लिए । क्योंकि जिस भाषा को अब तक कानों के द्वारा
ग्रहण किया जा रहा था वह अब आँखों के ग्रहण करने योग्य हो गई थी । ताकी ज्ञान को दीर्घ काल तक
सुरक्षित किया जा सके । और सभी मनुष्य अल्प यत्न से ही गुरू के उपदेशों को लिखित रूप में स्मर्ण
कर लाभान्वित हों । परन्तु बाद में इस ब्राह्मी लिप्पी में बहुत से परिवर्तन हुए जिससे कि इसका स्वरूप
बदल गया और देवों के द्वारा जो चिह्न निर्धारित किए गए, जिनका आधार ब्राह्मी लिप्पी ही था । उसी
को अब हम वर्तमान में देवनागरी लिप्पी कहते हैं । संस्कृत अब देवनागरी में लिखी जाती है । क्योंकि
ब्राह्मी लिप्पी को जानने वालों की संख्या अब कम है और एक मात्र लुप्त प्राय ही है । जिससे की अब
वर्तमान में इसका प्रचार नहीं है । तो संस्कृत भाषा को देवनागरी में ही लिखा पढ़ा जाता है ।
प्रश्न :-अब वर्तमान में जो पूरे संसार भर में भाषाएँ और लिप्पीयाँ प्रचलित हैं, वह कैसे बनीं ?
उत्तर :-जैसा कि पहले भी कहा गया है कि समृद्ध समाज में ही समृद्ध भाषा पलती है । तो कल्प के आदि से
अब तक भाषा का ह्रास इसी कारण हुआ क्योंकि एक तो मानवों की संख्या बढ़ते रहने से वह पूरे
भुगोल में फैल गया । और फिर देश देशान्तरों में बसने से आवश्यक्ताएँ भी भिन्न हो गईं । तो जिसके
कारण संस्कृतियाँ भिन्न होेने लगीं । और मूल संस्कृत भाषा से कुछ कुछ धातुएँ मनुष्यों ने सुरक्षित रखीं
और कुछ लुप्त कर दी गईं । जिसके कारण भौगोलिक स्थितियों के आधार पर भाषा में भिन्नताएँ आने
लगीं और मूल संस्कृत के पर्याय इतने विकृत होते चले गये कि उनको पहचान पाना ही कठिन हो गया,
अपनी संस्कृतिक भिन्नता को दूसरों से अलग दिखाने की होड़ मानव समाज में बढ़ने लगी । और नई
बनी हुई विकृत भाषाओं को अलग अलग लिप्पीयों में लिखा जाने लगा । भुगोल के अलग अलग क्षेत्रों
पर इतनी भिन्नताएँ आ गईं कि मानव समाजों में प्रतिस्पर्धा होने लगी । हर समाज अपनी भाषा को श्रेष्ठ
सिद्ध करने और दूसरों को निकृष्ठ सिद्ध करने पर तुल गया । इस प्रकार कभी एक भाषी रहा मानव
समाज बहुभाषी समाजों में बंट गया । जिस प्रकार हिमाल्य से गंगा निकलती है उसका जल अति स्वच्छ
और शुद्ध होता है । परन्तु जब वह नदियों में बंटता है तो उसमें मलीनताएँ आने लगती हैं । ठीक वैसे ही
वैदिक शब्द बहुला संस्कृत सर्वश्रेष्ठ थी परन्तु इतना बंटाधार होने पर बहुत सी मलेच्छ भाषाएँ बनीं कि
अब मानव यह पहचान ही नहीं पाते कि उनकी भाषाएँ एक ही मूल से निकली हैं ।
प्रश्न :- इस बात को कैसे सिद्ध करें कि संसार भर की भाषाएँ और बोलियाँ एक ही मूल से निकलीं ?
उत्तर :- क्योंकि अगर सूक्ष्म दृष्टि से देखें तो पता चलेगा कि जितनी भी संसार भर में भाषाएँ अब प्रचलित हैं ।
उनके बहुत से शब्द आपस में मिलते जुलते हैं । तो कुछ ऐसे हैं जो समान हैं । और कुछ बहुत सीमा तक
पास पास हैं । तो इससे यह सिद्ध होता है कि ये शब्द किसी एक ही मूल से निकले हैं । क्योंकि जैसा कि
संस्कृत में एक अर्थ को व्यक्त करने के लिए अनेक शब्द हैं । तो सभी भाषाओं ने कोई न कोई शब्द
जो कि संस्कृत में प्रायवाची हैं । उनको अपनी भाषाओं में प्रयोग किया है । उदहारण लें :- क्रम् धातु का
अभिप्राय है नियम पूर्वक । जिससे कि क्रमेल् शब्द बना है । वह जीव जो नियमपूर्वक चलता है उसे ही
क्रमेल् कहते हैं । तो इसी क्रमेल् से भ्रष्ट हो कर लैटिन में कैमेलस ( camellus ) बना है । जिससे कि
आगे जाकर यही कैमेल ( camel ) बना । अफ्रीका में पहुँच कर इसी का रूप ईब्रानी में बना जमल
फिर अरबी में यही और विकृत होकर जमल से गमल बना है । क्योंकि अरब वाले अधिकतर जीम ( ज )
को ग़ाफ ( ग ) कहना पसंद करते हैं । अब इसी का दूसरा पर्यायवाची लें उष्ट्र जिससे कि फारसी में
विकृत होकर उशतर बना, पंजाबी और राजस्थानी में उट्ठ बना, हिन्दी में ऊँट । तो इसी प्रकार संस्कृत
के अलग अलग पर्यायवाची शब्दों से या वही समान शब्द दूसरी अन्य भाषा में पाये जाते हैं । जिससे
एक ही मूल भाषा संस्कृत सिद्ध होती है । क्योंकि शब्द चाहे किसी भी भाषा का हो परन्तु उसका अर्थ
खोलने की कूंजी केवल संस्कृत के व्याकरण के पास ही है । जिससे स्पष्ट है कि जिस भाषा का व्याक
-रण अर्थ खोलने में सक्षम है वही समृद्ध और मूल भाषा है ।
प्रश्न :- मनुष्य ने सृष्टि के आदि में भाषा किस प्रकार बनाई ?
उत्तर :- भाषा का निर्माण मनुष्य ने नहीं किया, क्योंकि यह उसके सामर्थ्य में नहीं है । उसे भाषा दी गई है ।
प्रश्न :- भाषा का निर्माण करना मनुष्य के सामर्थ्य में क्यों नहीं है ?
उत्तर :- क्योंकि मनुष्य ही ऐसा प्राणी है जो बिना सिखाए कुछ भी सीख नहीं सकता है । व्हवहार के रूप में देखें
कि जैसे ब्राह्मण के घर पैदा हुआ बच्चा संस्कृत में नहीं रोता और न अंग्रेज़ के घर पैदा हुआ बच्चा कभी
अंग्रेज़ी में रोता है, दोनों के रोने का तरीका एक ही है । पर ब्राह्मण बच्चा अपनी भाषा संस्कृत को सीख
कर बोलने लगता है और अंग्रेज़ बच्चा अपनी अंग्रेज़ी को । तो इससे सिद्ध हुआ कि जिसे जो सिखाया
जाता है वही वह सीखेगा अन्यथा नहीं । तो भाषा को भी आदि काल में जब तक सिखाया न गया होगा
तब तक मनुष्यों ने बोलना न सीखा होगा । उदहारण लें कि कभी कभी जो बच्चे जंगल में भेड़ियों की
मांद के आसपास पाए जाते हैं , वे दो की बजाये चार पैरों पर चलते देखे गए हैं और बोलने की बजाये वे
भेड़ीयों की तरह गुर्राते देखे हैं ,दूसरा वे माँस के सिवाय कुछ नहीं खाते हैं । ऐसी घटनायें अफ्रीका के
जंगलों में पाई गई हैं । तो स्पष्ट है कि जब तक मनुष्य को व्यवहार न सिखाया जाये तब तक वो कुछ
नहीं सीख सकता । तो ऐसे में भाषा का निर्माण स्वयं कर लेना तो दूर की बात है । जब्की सामान्य
ज्ञान भी मनुष्य सिखाए बिना सीख नहीं सकता है ।
प्रश्न :- तो फिर भाषा मनुष्य को किसने और कैसे सिखाई ?
उत्तर :- प्रथम तो यह बात है कि मनुष्य जब आदि काल में समूह में एक ही स्थान पर आए थे । तो उनको ज्ञान
की आवश्यक्ता अधिक थी । जीवन निर्वाह करने के लिए, अपने आसपास के प्राकृतिक पदार्थों का ज्ञान
आवश्यक था । तो यह सब भाषा के द्वारा ही हो सकता था । सर्वप्रथम मनुष्यों में उच्च कोटी के प्रधी
मनीषियों का चयन किया गया परमात्मा के द्वारा जो उस ज्ञान को आत्मसात कर सकते हों । पश्चात
परमात्मा जो कि चेतन है जिसने इस सृष्टि को जीवात्माओं के लिए संयुक्त किया है, अपनी चेतना
से ऋषियों ( बुद्धिमान उच्च कोटी के मनुष्य ) के चेतना में समाधी अवस्था में ज्ञान को प्रकट किया ।
इसी ज्ञान को वेद कहते हैं । उससे ही जो शब्द रूप है वही भाषा के रूप प्रयोग हुआ । वहीं से इन
ऋषियों ने ज्ञान का प्रचार किया और मनुष्यों ने बोलना समझना सीखा । तो कह सकते हैं ईश्वर के द्वारा
ऋषियों ने फिर उनसे बाकी के मनुष्यों ने भाषा का सूक्ष्म ज्ञान सीखा ।
प्रश्न :- क्या ईश्वर ने बोल कर ऋषियों को भाषा या वेद ज्ञान सिखाया था ?
उत्तर :- नहीं ईश्वर बोलता नहीं क्योंकि उसके मूँह नहीं लगा बोलने को । वह निराकार है । बोलना केवल शरीर
वालों के लिए सम्भव है । ईश्वर चेतन है ,और मनुष्य का आत्मा भी चेतन है । तो ईश्वर ने अपनी चेतना
से ऋषियों की शुद्ध चेतना में ज्ञान को प्रकट किया । जैसे हमारे भीतर मान्सिक व्यापार होता रहता है
वैसे ही दो चेतनाओं के भीतर होता है । तो ऋषियों की जो समाधी अवस्था होती है वह परमात्मा से
आत्मा को जोड़ने की ही होती है । तो उस अवस्था में मनुष्य को ज्ञान का उत्कृष्ट स्वरूप प्रप्त होता है
। जिसको हम विज्ञान कहते हैं । तो वही वेद रूपी समग्र विज्ञान ऋषियों को मिला है । न की मौखिक
रूप से ।
प्रश्न :- तो उस ईश्वर ने सभी मनुष्यों को ही वेद ज्ञान क्यों नहीं दिया ? या सबको ही ऋषि क्यों नहीं बनाया ?
उत्तर :- क्योंकि ऋषि वही हुए जो पूर्व सृष्टि चक्रों को लांघते हुए मोक्ष की अवधी को पूरा करते हुए आए थे ।
जब उनके मोक्ष रूपी पुण्य की अवधी समाप्त हुई तो वे लोग इस सृष्टि के पूर्व में मानव योनी में पवित्र
आत्मा थे । तो पवित्र लोग ही सृष्टि ज्ञान को प्राप्त करने के अधिकारी होते हैं । सभी नहीं । तो इसी
कारण सभी मनुष्यों को ज्ञान से न युक्त करके ईश्वर को यही योग्य था कि पवित्र ऋषियों के हृदय मे
ज्ञान को अर्पित करता । जिससे की बाकी मनुष्यों ने ज्ञान को सीख जीवन निर्वाह और मोक्ष के लिए
शिक्षा आदि को सीखा ।
प्रश्न :- वह ऋषि कौन थे जिनको ज्ञान दिया गया था ?
उत्तर :- उनके नाम हैं :- आदित्य ,वायु, अंगिरा, अग्नि । ये चारों ही वे हैं जिनको उनकी योग्यता के अनुकूल
सूक्ष्म वैदिक ज्ञान से अलंकारित किया गया ।
प्रश्न :- वेद कितने हैं ?
उत्तर :- वेद ज्ञान को चार भागों में विभक्त किया गया है । विषयों के अनुसार अतः वेद चार हैं ।
प्रश्न :- चारों वेद कौन कौन से हैं ?
उत्तर :- वेद यह हैं :- (१) ऋग्वेद (२) यजुर्वेद (३) सामवेद (४) अथर्ववेद ।
प्रश्न :- वेदों के मुख्यतः विषय क्या क्या हैं ?
उत्तर :- प्रथम है ऋग्वेद जिसका मुख्य विषय है पदार्थ ज्ञान । यानि कि जो पदार्थ सृष्टि में ईश्वर ने हमारे लिए
रचे हैं उनका ज्ञान । ताकि हम उनसे उपकार ले कर अपना जीवन निर्वाह कर सकें । फिर ज्ञान को
सीखने के पश्चात हमें क्या क्या कर्म जीवन में करने हैं जन्म से लेकर मृत्यु तक वह हमें यजुर्वेद के द्वारा
ज्ञात होता है । अब जिसने यह जीवन दिया और सृष्टि की अद्भुत रचना हमारे लिए की है उस ईश्वर की
उपासना का विषय जो कि आता है सामवेद में । अन्तः जिस विज्ञान को हमें उपासना के फल रूप
प्राप्त करना है वह विषय आता है अथर्ववेद में । इसे ऐसे समझें :-
ऋग्वेद ( ज्ञान ) , यजुर्वेद ( कर्म काण्ड ), सामवेद ( उपासना ), अथर्ववेद ( विज्ञान ) ।
प्रश्न :- कौन कौन से वेद किस किस ऋषि को प्रकट किए गए ?
उत्तर :- यह इस प्रकार जानें :-
ऋग्वेद ( अग्नि )
यजुर्वेद ( वायु )
सामवेद ( आदित्य )
अथर्ववेद ( अंगिरा )
प्रश्न :- वेदों को जो छन्द, सूत्र या श्लोक आदि के रूप में हम अब देखते हैं तो केवल हमें अक्षरों की बनावट
ही प्रतीत होते हैं, इसे ज्ञान कैसे कह सकते हैं ?
उत्तर :- जैसे कि एक छोटी सी Microchip में बहुत ही भारी जानकारीयों को Upload किया जा सकता है ।
और उस Microchip को Decode करने के लिए हमें उत्तम Hardware की आवश्यक्ता होती है ।
ठीक वैसे ही एक एक वेद मन्त्र में बहुत ही विशाल ज्ञान संक्षिप्त रूप में भरे हुए हैं और उनके यथार्थ
अर्थ खोलने के लिए हमें उत्तम कोटी के मनुष्य ( ऋषि ) की आवश्यक्ता होती है । तो जैसे Hardware
जितना उत्तम Quality का होगा उतना ही बेहतर वो उस Microchip के Data को Run कर
सकता है । ठीक वैसे ही मनुष्य जितना उच्च कोटी का विद्वान होगा जैसे कि ऋषि कोटी का उतना ही
वह वेद के मन््त्रों के अर्थों को सूक्ष्मतर और स्पष्ट रूप से समझ सकेगा । वेद मन्त्रों में जो ज्ञान ईश्वर ने
हमें दिया है वह सब बीज रूप है । जिसे हम तपस्या और तर्क के द्वारा वृक्ष रूप कर सकते हैं । मनुष्य
जितना अधिक तपस्वी होता जायेगा उतना ही वह वेद को समझने में अधिक सक्षम होता जाएगा ।
और उतना ही वो ईश्वर के और निकट होता जाएगा । तो यह जो ज्ञान है उसे शब्दों से समझ कर हम
उसके मूल तक पहुँचते हैं । तो वेद ज्ञान अक्षर रूप ही न होकर ब्रह्माण्ड के रहस्यों की कूंजी है । जिसे
यह ज्ञान चाहिए वो तपस्वी हो और ऋषि शैली में जीवन यापन करना आरम्भ करे ।
प्रश्न :- वेदों का ज्ञान नित्य है या अनित्य ?
उत्तर :- नित्य है । क्योंकि जैसा कि कहा गया है कि शब्द नित्य हैं और उस प्रकार ही वेद ज्ञान जो शब्द रूप
में है वह भी नित्य हुआ क्योंकि शब्द का मूल परमाणू है वह अक्षर है । कभी नष्ट न होने वाला । तो वेद
भी नित्य ही हुआ ।
प्रश्न :- वेद ज्ञान और भाषा का क्या सम्बन्ध है ?
उत्तर :- यह कपल मुनि का सांख्य सूत्र है :-
लोके व्युत्पन्नस्य वेदार्थप्रतीतिः ( सांख्य ५/ ४० )
जो मनुष्य शब्द शक्ति का ज्ञान प्रप्त कर लेते हैं वे ही वेदार्थ करने में समर्थ हो जाते हैं ।
इसका अभिप्राय यह है कि जो शब्द हैं और उन्के जो अर्थ हैं जिन्हें वे सम्भोधित करते हैं । उनका जो
यथार्थ विज्ञान है कि अमुक शब्द किस विधी से किस पदार्थ के लिए प्रयुक्त हुआ है ? वे ही वेद जानने
में समर्थ हैं । अब जैसे हम पृथिवी के महान व्याकरण आचार्य महर्षि पाणीनि का उदहारण लें तो उन्होंने
भी समाधी की अवस्था में सूक्ष्म ज्ञान को साक्षात किया था और लोक कल्याण के लिए अष्ट अध्यायों
में अष्टाध्यायी की रचना की । जिससे कि साधारण मनुष्य उस शब्द विज्ञान को जान कर वेदार्थ को
जानने में लाभान्वित हों ।
https://www.facebook.com/Truth.Alone.Wins
October 12, 2013Leave a reply
Atma according to vedas.
1. Atma has little knowledge compared to AUM:
Yajurved ch 32 mantra 14
http://www.sacred-texts.com/hin/wyv/wyvbk32.htm
That wisdom which the Companies of Gods, and Fathers, recognize,
Even with that intelligence, O Agni, make me wise to-day. All-hail!
[Agni is another name for AUM the omniscient.]

yajurved rishi dayanand saraswati bhashya 32.14
rigved 1.164.6 http://www.sacred-texts.com/hin/rigveda/rv01164.htm
I ask, unknowing, those who know, the sages, as one all ignorant for sake of knowledge,
What was that ONE who in the Unborn’s image hath stablised and fixed firm these worlds’ six regions.
[AUM is omniscient.]
2. ATMA is very small as compared to AUM.
[AUM is omni present]
atharva veda 10.8.25
http://www.sacred-texts.com/hin/av/av10008.htm
One is yet finer than a hair, one is not even visible. And hence
the Deity who grasps with firmer hold is dear to me.
3. ATMA goes into the womb many times unlike AUM.
[AUM remains as chetan/consciousness always]
Rigved 1.164.32
http://www.sacred-texts.com/hin/rigveda/rv01164.htm
He who hath made him cloth not comprehend him: from him who saw him surely is he hidden.
He, yet enveloped in his Mother’s bosom, source of much life, hath sunk into destruction.
4. There are many ATMA unlike one AUM
[- ved uses plural for jiva-atma]
Rigveda 10.18.3
http://www.sacred-texts.com/hin/rigveda/rv10018.htm
Divided from the dead are these, the living: now be our calling on the Gods successful. [ime jeeva:]
We have gone forth for dancing and for laughter, to further times prolonging our existence.
Atharva ved 12.2.45 http://www.sacred-texts.com/hin/av/av12002.htm
Prolong the lives of those who live, O Agni, Let the dead go unto world of Fathers. [jeevanamaayu:]
As goodly household fire burn up Arāti; give this man dawn brighter than all the mornings.
rigveda 10.37.8
http://www.sacred-texts.com/hin/rigveda/rv10037.htm
Sūrya, may we live long and look upon thee still, thee, O Far-seeing One, bringing the glorious light, [vayam jeeva:]
The radiant God, the spring of joy to every eye, as thou art mounting up o’er the high shining flood.
Note : We endorse rishi dayanand saraswati bhashya only. Griffith has been quoted due to paucity of arya translations in english on the internet. Further, the present purpose is served.
October 5, 2013Leave a reply
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