Saturday, 9 September 2017
सरयूपारीण ब्राह्मण -शुद्ध आर्यवंशी षट्कर्मा वेदपाठी

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सरयूपारीण ब्राह्मण
सरयूपारीण ब्राह्मण या सरवरिया ब्राह्मण या सरयूपारी ब्राह्मण सरयू नदी के पूर्वी तरफ बसे हुए ब्राह्मणों को कहा जाता है। ऋग्वेद मे सिर्फ़ तीन नदियो का उल्लेख ही है। इनमे सरस्वती, सिंधु और सरयू नदी का ज़िक्र है। कई लोगो का मानना है कि सरयूपारीण ब्राह्मण उन्ही मूल कान्य्कुब्ज ब्राह्मणों का दल है जिन्होने भारतीय सभ्यता की नीव पूर्वी उत्तर प्रदेश और उत्तरी बिहार मे रखी। ये शुद्ध आर्यवंशी षट्कर्मा वेदपाठी आदिकालिक समूह है जो की आदिकाल से ही ब्राह्मण धर्म का अधिष्ठाता रहा है।
सरयूपारीण ब्राह्मण उत्पत्ति संपादित करें
भ्रांतियाँ संपादित करें
सरयूपारीण ब्राह्मण की उत्पत्ति एवं इसकी वंशावली को लेकर आठ पंडितो ने किताबे लिखी हैं परन्तु सभी ने जो तर्क दिए, उनमें विरोधाभाष दिखता हैं। उदाहरण के लिए सन १९१४ में प्रयाग के पंडित भोलाराम अग्निहोत्री ने अपने किताब "सरयूपारीण ब्राह्मण द्वीजोत्पत्तिः" में सरयूपारीण ब्राह्मण की उत्पत्ति को लेकर कथा लिखी हैं उसके अनुसार- जब श्री रामचन्द्र जी के अश्वमेध यज्ञ हेतु कान्यकुब्ज प्रदेश से १६ ब्राम्हणों को बुलाया गया, यज्ञ के संपन्न होने के बाद वे जब अपने प्रदेश वापस जाने लगे तो श्रीराम ने उनसे वही बस जाने की विनती की और अपने धनुष से एक बाण चलाया जो २५ योजन दूर सरयू और घाघरा नदी संगम में जा गिरा और इस पच्चीस योजन की भूमि उन्होंने ब्राम्हणों की दान में दे दी। शर (बाण) और वार (निशाना) किये जाने के कारण इस भूमि क्षेत्र को शरवार या सरवार कहा जाने लगा और वहाँ के रहने वाले ब्राम्हण सरवरिया कहलाने लगे। अब इस कहानी पर गौर करे तो यह वाल्मीकि रामायण में वर्णित हैं की गोमती नदी के किनारे यह यज्ञ संपन्न हुआ था। जिसमे वशिष्ठ, वामदेव और जाबालि आदि ऋषियों ने भाग लिया था। परन्तु सरयूपारीण ब्राम्हणों में वामदेव और जाबालि के ब्राम्हण नहीं मिलते। अत: इसे भ्रमपूर्ण ही माना जायेगा की सरयूपारीण ब्राम्हणों के पूर्वज इस यज्ञ में सम्मलित थे। इसके अलावा इसमें जो वार (निशाना) शब्द का उपयोग किया गया हैं, उसका किसी भी संस्कृत ग्रंथो में उल्लेख नहीं हैं।
अंग्रेज इतिहासकार सर एस एलियट के अपने एक लेख के अनुसार कन्नौज के रहने वाले कान्यकुब्ज की ही पांच शाखाओ में से एक सरयू के आस पास फैल गए। इसके अलावा अन्य अंग्रेज लेखकों सर जॉन वोम्स, डब्लू क्रूक के अनुसार कान्य और कुब्जा दो भाई थे जिनकी संताने ही आगे जाकर कान्यकुब्ज कहलाई। और इन्ही की एक शाखा राजा अज के समय सरयू नदी किनारे आ कर बस गए और सरवरिया ब्रम्हाण कहलाने लगे। इस कहानी में भी कई मतभेद देखे जा सकते हैं। जैसे की वायु पुराण के भुवन विन्यास प्रसंग में ब्रम्हाजी के जन्म से लेकर ब्राम्हण तक के जन्म तक की कथा हैं। परन्तु राजा अज के समय में ब्राम्हणो के वहाँ आकर बसने या उनका शाखाओ में विरक्त होने का कोई सन्दर्भ नहीं हैं।
उत्पत्ति संपादित करें
पुराणों से पता चलता हैं की देवगण हिमालय पर्वत (पामीर का पठार) के आस-पास रहा करते थे तथा उसी के निकट ही महानतम ऋषियों के आश्रम हुआ करते थे। चुकि पुराणों में हिमालय पर्वत श्रंखला को बहुत ही पवित्र माना गया हैं अतः ऋषियों का वहाँ रहना सम्भव लगता हैं। यदि पौराणिक संदर्भो की ओर देख जाए तो जब देवराज इंद्र की आतिथ्य स्वीकार कर अपने राजधानी को लौटते हुए राजा दुष्यंत ने ऋषियों के परम क्षेत्र हेमकूट पर्वत की ओर देखा था जिसका वर्णन पद्म पुराण में आया हैं :
दक्षिणे भारतं वर्ष उत्तरे लवणोदधेः । कुलादेव महाभाग तस्य सीमा हिमालयः ।।
ततः किंपुरषं हेमकुटादध: स्थितम । हरि वर्ष ततो ज्ञेयं निवधोबधिरुच्यते ।।
इसी प्रकार बाराह पुराण के एक प्रसंग में महर्षि पुलस्त्य, धर्मराज युधिष्ठिर से यात्रा के सन्दर्भ में बताते हैं की:
ततो गच्छेत राजेंद्र देविकं लोक विश्रुताम । प्रसूतिर्यत्र विप्राणां श्रूयते भारतषर्भ ।।
देविकायास्तटे वीरनगरं नाम वैपुरम । समृदध्यातिरम्यान्च पुल्सत्येन निवेशितम ।।
अर्थात- हे राजेन्द्र लोक विश्रुत देविका नदी को जाना चाहिए जहा ब्राम्हणों कि उत्पत्ति सुनी जाती है। देविका नदी के तट पर वीरनगर नामक सुन्दर पुरी है जो समृद्ध और सुन्दर हैं।
एक अन्य पुराण के सन्दर्भ से निश्चित होता हैं की देविका नदी के किनारे हेमकूट नामक किम्पुरुष क्षेत्र में ऋषि-मुनि रहा करते थे।
"देविकायां सरय्वाचं भवेदाविकसरवौ"
अर्थात- देविका और सरयू क्षेत्र के रहने वाले आविक और सारव कहे जाते हैं।
अनुमान हैं, की सारव और अवार (तट) के संयोग से सारववार बना होगा, और फिर समय के साथ उच्चारण में सरवार बन गया होगा। इसी सरवार क्षेत्र के रहने वाले सरवरिया कहे जाने लगे होंगे।
इस सम्बन्ध में मत्स्य पुराण में निम्न सन्दर्भ मिलता हैं:
अयोध्यायां दक्षिणे यस्याः सरयूतटाः पुनः । सारवावार देशोयं तथा गौड़ः प्रकीर्तितः ।।
अर्थात- अयोध्या के दक्षिण में सरयू नदी के तट पर सरवावार देश हैं उसी प्रकार गोंडा देश भी मानना चाहिए।
सरयू नदी कैलाश पर्वत से निकल कर विहार प्रदेश में छपरा नगर के समीप नारायणी नदी में मिल जाती हैं। देविका नदी गोरखपुर से ६० मील दूर हिमालय से निकल कर ब्रम्हपुत्र के साथ गण्डकी में मिलती हैं। गण्डकी नदी नेपाल की तराई से निकल कर सरवार क्षेत्र होता हुआ सरयू नदी में समाहित होता हैं। सरयू, घाघरा, देविका (देवहा) ये तीनो नदियाँ एक ही में मिल कर कही-कही प्रवाहित होती हैं। महाभारत में इसका उल्लेख हैं की सरयू, घाघरा और देविका नदी हिमालय से निकलती हैं, तीनो नदियों का संगम पहाड़ में ही हो गया था। इसीलिए सरयू को कही घाघरा तो कही देविका कहा जाता हैं।
पुराणों के अनुसार यही ब्रम्ह क्षेत्र हैं, जहाँ पर ब्राम्हणों की उत्पत्ति हुई थी यथासमय ब्रम्ह देश से जो ब्राम्हण अन्य देश में गए, वे उस देश के नाम से अभिहित हुए। जो विंध्य के दक्षिण क्षेत्र में गए वे महाराष्ट्रीय, द्रविड़, कर्नाटक और गुर्जर ब्राम्हण के रूप में प्रतिष्ठित हुए। और जो विंध्य के उत्तर देशो में बसे, वे सारस्वत, कान्यकुब्ज, गोंड़, उत्कल, मैथिल ब्राम्हण के रुप में प्रतिष्ठित हुए। इस तरह दशविध ब्राम्हणों के प्रतिष्ठित हो जाने पर ब्रम्हदेश के निवासी ब्राम्हणों की पहचान के लिए उनकी सर्वार्य संज्ञा हो गई। वही आगे चल कर सर्वार्य, सरवरिया, सरयूपारीण आदि कहे जाने लगे।
अतः जो लोग सरयूपारीण ब्राम्हणों को कान्यकुब्ज की ही एक शाखा कहते हैं, यह एक भ्रांति मात्र हैं।
स्मृतियों में पंक्ति पावन ब्राम्हणों का उल्लेख मिलता हैं। पंक्ति पावन ब्राम्हण सर्यूपारिणो में ही होते हैं। जो आज भी पंतिहा या पंक्तिपावन के रूप में विद्द्मान हैं।
सरयूपारीण ब्राम्हणों कि वंशावली संपादित करें
वैसे तो भारतवर्ष में ऋषियों की संख्या बहुत रही हैं, पर मात्र ४९ ऋषि ही गोत्रकार हुए हैं। ऋषियों के शिष्य प्रवरकार माने जाते थे तथा उस ऋषियों के आश्रम में जो वेद, शाखा आदि पढाई जाती थी वही वेद, उपवेद शाखा सूत्र उस गोत्र की मानी जाने लगी, जो वर्तमान तक चलती आ रही हैं। वर्तमान में सरयूपारीण ब्राम्हणों में ३, १३, १६ घर जो कहे जाते हैं उसके पीछे एक पौराणिक सन्दर्भ हैं जिसके अनुसार वेदो की रक्षा एवं उसे अगली पीढ़ी तक पहुंचने के लिए ऋषि गर्ग के आश्रम में शुक्ल यजुर्वेद के पठन-पाठन की प्रक्रिया आरंभ हुई। अतः ऋषि गर्ग को प्रथम गोत्रकार माना जाता हैं। ऋषि गर्ग के बाद गौतम फिर शाण्डिल्य ऋषि के आश्रम में यजुर्वेद और सामवेद के अध्ययन की परम्परा आरम्भ हो गई। और फिर यही तीन आश्रम आगे चल कर प्रथम कोटि के गर्ग, गौतम और शाण्डिल्य घर माने जाने लगे। उसके बाद १३ अन्य ऋषियों के आश्रमों में वेदो की अन्य शाखाओं का पठन-पाठन आरम्भ हो गया। जो आज १३ घर (आश्रम) माने जाते हैं। चुकि इन तरह ऋषियों के कोई क्रम नहीं मिलते हैं, अतः इन्हें एक ही श्रेणी में माना जाने लगा। चुकि इन ऋषियों के आश्रमों में अथर्ववेद एवं धनुर्वेद आदि भी पढ़ाया जाता था जिसे उस समय श्रेयस्कर नहीं माना जाता था। अतः गर्ग, गौतम और शाण्डिल्य ऋषि आध्यातिमक शिक्षा दे रहे ऋषियों के श्रेणी में नहीं आ सके।
सरयूपारीण ब्राम्हणों में प्राप्त गोत्र संपादित करें
एक मत-
गर्ग
गौतम
शाण्डिल्य
परासर
सावर्ण्य
कश्यप
भारद्धाज
कौशिक
भार्गव
वत्स
कात्यायन
सांकृत
अत्रि
गालव
अंगिरा
जमदग्नि
दूसरा मत-
गर्ग
गौतम
शाण्डिल्य
परासर
सावर्ण्य
कश्यप
भारद्धाज
कौशिक
भार्गव
वत्स
कात्यायन
सांकृत
वशिष्ठ
गर्दभीमुख
अगस्त्य
भृगु
घृत कौशिक
गार्ग्य
कौडिन्य
उपमन्यु
पहले मत के अंतिम चार दूसरे मत में नहीं हैं, तथा दूसरे मत के अंतिम आठ पहले मत में नहीं हैं।
दोनों मतों में पहले के १२ गोत्र एक समान हैं अतः १२ समान, अतरिक्त चार पहले मत से एवं अतरिक्त आठ दूसरे मत से कुल २४ ऋषि हुए।
गर्दभीमुख, शाण्डिल्य गोत्र के अंतर्गत अत हैं।
1. चांद्रायण, 2. वरतन्तु, 3. मौनस, 4. कण्व, 5. उद्वाह- ये गोत्र सरयूपारीण में अतिरिक्त हैं इस तरह कुल २८ गोत्र मिलते हैं।
गौत्र में प्राप्त वंश संपादित करें
गौत्र प्राप्त वंश
1. गर्ग शुक्ल, तिवारी पाण्डेय (इटिया)
2. गौतम मिश्र, दुबे, पांडे, उपाध्याय
3. शाण्डिल्य मिश्र, तिवारी, कीलपुर के दीक्षित
4. परासर पांडे, शुक्ल, उपाध्याय
5. भारद्धाज पांडे, दुबे, पाठक, चौबे, मिश्र, तिवारी, उपाध्याय
6. कश्यप पांडे, दुबे, पाठक, चौबे, मिश्र, तिवारी, उपाध्याय, शुक्ल, ओझा
7. अत्रि या कृष्णात्रि दुबे, शुक्ल
8. वत्स पांडे, दुबे, मिश्र, तिवारी, उपाध्याय, ओझा
9. अगस्त्य तिवारी
10. कात्यायन चौबे
11. सांकृत पांडे, चौबे, तिवारी
12. सावर्ण्य पांडे, मिश्र
13. भार्गव तिवारी
14. उपमन्यु पाठक, ओझा
15. वशिष्ठ मिश्र, तिवारी, चौबे
16. कौडिन्य मिश्र, शुक्ल,
17. घृतकौशिक मिश्र
18. कुशिक चौबे
19. कौशिक दुबे, मिश्र
20. चांद्रायण पांडे
21. वरतन्तु तिवारी
गौत्र के अनुसार जानकारी संपादित करें
गर्ग गौत्र संपादित करें
गौत्र - गर्ग
वेद - यजुर्वेद
उपवेद - धनुर्वेद
शिखा - दाहिन
पाद - दाहिन
शाखा - माध्यन्दिनी
सूत्र - कात्यायन
देवता - शिव
प्रवर - पञ्च (पांच)
गर्ग गौत्र मे मुख्यत: तीन वंश पाये जाते है।
१ शुक्ल २ तिवारी ३ भारद्वाज
शुक्ल वंश संपादित करें
गर्ग गौत्र मे मुख्यत: शुक्ल वंश होता है। शुक्ल वंश का आदि स्थान भेड़ी को माना जाता है स्थानों के आधार पर इन्हैं आगे दो श्रेणियों में रखा गया हैं
जिनकी पंक्ति सुरक्षित हैं-
- ममखोर
- वाकरुआ
- महसो
- लखनौर
जिनकी पंक्ति नही हैं-
- करंजही
- कनईल
- मझगवां
- वहेरी
- बहरुचिया
आगे चलकर स्थान भेद से निम्न शुक्ल वंश प्रसिध्द हुए :-
१ ममखोर
जिनकी पंक्ति है:- १- मामखोर, २- खखाइज खोर, ३- भेड़ी, ४- वाकरुआ, ५-रुदाइन
जिनकी पंक्ति टूट गई है:- १- बरहुचिया, २- सीपर, ३- सरांव, ४- छोटका सरांव, ५- कनइल, ६- भंटोली, ७- बहेरी तलहा
२ महसों
जिनकी पंक्ति है:- १- कटारी, २- झौवा, ३- रुद्रपुर, ४- मेहरा, ५- सिलहटा
जिनकी पंक्ति टूट गई है:- १- मुंडेरा, २- बकैना, ३- बसौढ़ी, ४- खोरी पकरि, ५- गोपालपुर, ६- अकौलिया
३ लखनौर
जिनकी पंक्ति है:- १- भेलरवा
जिनकी पंक्ति टूट गई है:- १- तुरकहिया, २- कसैला, ३- हटवा, ४- आमचौर, ५- वाईखोर, ६- लोहलौरी, ७- जिगिना, ८- जिगनी, ९- सिटकिहा, १०- झरकटिया, ११- चिनगहिया, १२- भादी, १३- छोटकी भादी, १४- हथरसा, १५- नवागांव, १६- पैड़ी, १७- गौबरहियाइ
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