Thursday, 19 October 2017
सद्गुरू दत्तात्रेय और महासिद्ध योगी श्री गुरु गोरक्षनाथजी संवाद
Datta-Goraksha Sanvad
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- श्रीज्ञानदीप बोध - श्री सद्गुरू दत्तात्रेय और महासिद्ध योगी श्री गुरु गोरक्षनाथजी संवाद
(Illustrated by Siddha Abhednathji)
दत्तात्रेयो हरिः कृष्णो उन्मत्तानंददायकः | दिगम्बर मुनेर्बाल पिशाच ज्ञानसागर ||
- दत्तात्रेयोपनिषद् दत्तात्रेय मनको हरनेवाले आत्मज्ञान स्वरूप संपदा देनेवाले श्रीहरी, मनका कर्षण करनेवाले कृष्ण, उन्मनी अवस्थामें रहनेवाले उन्मत्त, सबको आनंद देनेवाले, दिशा स्वरूप वस्त्र है जिनके ऐसे दिगंबर तपस्वी मुनी , बालक के समान सरल, पिशाचसम सर्वत्र विचरनेवाले, ज्ञान के सागर है | पिशाचसम सर्वत्र विचरण कैसे करते हैं - वाराणसीपुरस्नायी कोल्हापूर जपादरः | माहुरीपूर भिक्षाशी सह्यशायी दिगंबरः || - श्री दत्तात्रेय वज्रकवच श्री दत्तात्रेय श्रीक्षेत्र काशीमे स्नान करते हैं , महाराष्ट्र के - कोल्हापूरमें जप करते हैं और श्रीक्षेत्र माहुरमें भिक्षाटन कर सह्याद्री पर्बत पर शयन करते हैं |
महासिद्ध योगी श्री गोरक्षनाथ उवाच -
स्वामी कि तुम्हें ब्रम्हा कि ब्रम्हचारी कि तुम्हें बाम्भण पुस्तक कि दंडधारी | कि तुम्हें जोगी कि जोगजुगता कौन प्रसादे रामौ छछंद मुक्ता || १ ||
अर्थात - इस चौपाई में गोरक्षनाथजी श्री सद्गुरू भगवान दत्तात्रेय को पुछते हैं - हे स्वामी! आप साक्षात श्री ब्रम्हदेव हैं या ब्रम्हचारी हैं? आप विद्वान ब्राम्हण हैं या दंडधारी संन्यासी हैं? आप योगी हैं या सदैव योगयुक्तिसे पूर्ण युंजान योगी हैं? किसके अनुग्रह प्रसाद के कारण आप स्वच्छंदतापूर्वक लीलया सर्वत्र मुक्त संचार करते हो?
श्री सद्गुरू भगवान दत्तात्रेय उवाच -
अवधु न अम्हे ब्रम्हा न ब्रम्हचारी न अम्हें बाम्भण पुस्तक न दंडधारी | न अम्हें जोगी न जोगजुगता आप प्रसादे रमैं छछंद मुक्ता || २ ||
अर्थात - इस चौपाई में श्री सद्गुरू भगवान दत्तात्रेय कहते है - हे अवधूत गोरक्षनाथ! हम ब्रम्हदेव नहीं और ब्रम्हचारी भी नहीं, हम विद्वान ब्राम्हण नहीं और काय, वाक, मन रुपी त्रिदंड त्यागी पूर्ण ज्ञान स्वरूप दंड धारी तुरीयातीत परमहंस संन्यासी भी नहीं | हम योगी नहीं और सदैव योगयुक्तिसे पूर्ण युंजान योगी भी नहीं; हमपर हमारे भीतर स्थित आत्मस्वरूप ईश्वर कि हि कृपा दृष्टी होने से हम जीवन्मुक्त -स्वच्छंद - आनंद पूर्वक - सर्वत्र संचार करते है | मन माला तन मेखला (कमर पट्टा), भय कि करी भभूत | अलख मिला सब देखता, सो जाणो अवधूत | दत्त अवधूत |
महासिद्ध योगी श्री गोरक्षनाथ उवाच -
आपा मेटणां सतगुरु थापणा अनपरचै जग खाया | गोरख कहै सुणौ हो स्वामी तुम्है कोण कहाँ थें आया || ३ ||
अर्थात - अब इस चौपाई में महासिद्ध योगी श्री गोरक्षनाथ श्री सदगुरु भगवान दत्तात्रेय से पूछते हैं - आपा याने अहंकार | अपना अहंकार छोड़कर सतगुरु थापना याने - अपने अन्तरंग में बैठे सत तत्त्व जिसे गुरु तत्व भी कहते हैं, जो इस देह में स्थित हम हैं और इस देह को ही हम खुद समझकर , हमारा स्व समझकर हम जी रहे हैं , जिससे हमारा खयाल हट गया है , उससे अपना होश पुनर्स्थापित करना | उसका परचा न हुआ , उससे परिचय न हुआ तो यह जगत हमें देह भाव में ही खा जाएगा अर्थात इस जगत में हम हमारे स्व को जाने बगैर हम याने यह देह हैं ऐसे देह भाव में ही मरेंगे | ऐसा न हो इस लिए हे अपने देह
इन्द्रियों के स्वामी क्रिपा कर आप मुझे यह बतायें की आप कौन ह���ं और कहाँ से आये हो ?
श्री सद्गुरू भगवान दत्तात्रेय उवाच -
अवधू होत गुपत गुपत थैं परगट रहेता पुरुष की काया | दत्त कहै सुणौ हों गोरख हम गैब थैं आया || ४ ||
अर्थात - इस चौपाई में श्री सद्गुरू भगवान दत्तात्रेय कहते है - हे अवधूत गोरख सुनो - हम परछाई की तरह याने छाव की तरह हैं - जो मनुष्य के साथ ही होती है और प्रकाश में दिखाई देती है वैसे ही हम कभी गुप्त रहते हैं तो कभी पुरुष काया के रूप में प्रगट होते हैं; हम गुप्त पुरुष हैं और गैब याने गुप्त या अज्ञात से आये हैं | अज्ञानी जिव के लिए परम पुरुष या परम तत्त्व नजदीक होते हुवे भी अगम्य ही है, गुप्त ही है | देखें कठोपनिषद में भी यही कहा है -
गुहाहितं गव्हरेष्ठं पुराणम् || १ / ०२/१२ || अर्थात - मैं पुराण याने अत्यंत पुरातन और गुहाहित याने अतिगुप्त पुरुष हूँ |
बाहर भीतर सर्व निरंतर, सबमें रह्या समाई | परगट गुपत गुपत पुनि परगट, अविगत लख्या न जाई || - संत दादू दयाल
अर्थात - देह के बहार भीतर, सर्वत्र, नित्य निरंतर, सबमे वही एक परम तत्व समाया है | देह रूप में प्रगट होता है, देह नष्ट होते ही गुप्त होता है | जिसकी कोई विगत याने खबर बता नहीं सकते वोह अविगत परम तत्व लख्या न जाई याने इन आँखोंसे नहीं देखा जा सकता |
महासिद्ध योगी श्री गोरक्षनाथ उवाच -
स्वामी अजर ब्यंद असाध वाही, अप्रबल विष्णु की माया | गोरख कहे सुणो हो दत्तात्रेयो, क्यूँ सिझंती जल ब्यंद की काया || ५ ||
अर्थात - इस चौपाई में महासिद्ध योगी श्री गोरखनाथजी श्री सदगुरु भगवान दत्तात्रेय से पूछते हैं - हे स्वामी! विश्वमें व्याप्त परमतत्व विष्णु की माया याने वीर्य की बूंद से बनी देह | वह अजर याने जरा रहित है याने वह नष्ट नहीं होंगी - ऐसी मान्यता अप्रबल है याने प्रबल नहीं, झूठ है, भ्रान्ति है, इलुजन है | वीर्य की बूंद से बनी इस देह को बचाना असाध्य है | तो हे दत्तात्रेय क्रिपा करके मुझे बताइए की जल बिंदु की काया याने रज और वीर्य से बनी यह देह सिद्धावस्था को क्यों प्राप्त कर सकती है? कैसे प्राप्त कर सकती है?
श्री सद्गुरू भगवान दत्तात्रेय उवाच -
अवधू कंद्रप न वाही अप्रबल न माया, आकार निराकार सूखिम निकाया | जलो न जलबिम्बो दरपनो न छाया, दत्ता न गोरख काया न माया || ६ ||
अर्थात - इस चौपाई में श्री सद्गुरू भगवान दत्तात्रेय कहते है - हे अवधूत गोरख सुनो - वह परमावस्था - कंद्रप याने कामविकार नहीं, अप्रबल झूठ मान्यता नहीं, भ्रान्ति नहीं, इलुजन नहीं, माया रूपी देह नहीं, वह साकार नहीं, वह अवस्था निराकार नहीं, सुक्ष्म नहीं स्थूल नहीं, जल नहीं, जल बिम्ब नहीं, दर्पण नहीं और छाया भी नहीं | वहाँ दत्त भी नहीं तो गोरख भी नहीं , दिखनेवाली काया भी नहीं, तो माया याने मान्यता की भ्रान्ति भी नहीं | जो कुछ है वह सिर्फ नित्यसिद्ध परमतत्त्व ही है |
देखें अवधूत गीता में भी कहा है न -
माया अमाया कथं तात छाया अछाया न विद्यते | तत्वमेकमिदं सर्वं व्योमकारं निरंजनम् ||
अर्थात - अवधूत गीता की इस चौपाई में भगवान श्री सद्गुरु दत्तात्रेय कहते हैं - यहाँ जड़ माया, चेतन अमाया, छाया, अछाया कुछ नहीं, यहाँ सर्वत्र वही व्योमाकार याने आकाशतुल्य, निरंजन याने कलंकरहित-शुद्ध परमतत्त्व ही है |
महासिद्ध योगी श्री गोरक्षनाथ उवाच -
कोण आवे कोण जाय जो बोले सो कहाँ समाय | जो आवागमी होई ताका कहिये भेद गोरख कहे सुणो दत्त देव || ७ ||
अर्थात - इस चौपाई में महासिद्ध योगी श्री गोरखनाथजी श्री सदगुरु भगवान दत्तात्रेय से पूछते हैं - हे ! दत्तदेव सुनिए - इस तन में कौन आता है, कौन जाता है और जो बोलता है वह इस तनमें कहाँ समाया है याने इस तन में कहाँ रहता है | इस तनमें जो आता जाता है उसका भेद बताइए, कहिए |
श्री सद्गुरू भगवान दत्तात्रेय उवाच -
अवधूत न कोई आवै न कोई जाई, शबद नादमें समाई | एकै सुतरै पिरोया हार, सुणो हौ गोरखराई || ८ ||
अर्थात - इस चौपाई में श्री सद्गुरू भगवान दत्तात्रेय कहते है - हे अवधूत इस तनमें कोई आता नहीं और कोई जाता नहीं, जो बोलनेसे उत्पन्न शब्द हैं वे सब नाद में याने अनहद नाद या स्वात्म ज्योति में समाजाते हैं | हे गोरख्रराय सुनो, जैसे एक ही सुत्रसे हार पिरोतें है वैसे ही यह तन, सो शबद उत्पन्न कर आती और हम शबद उत्पन्न कर जाती दिखाई देनेवाली साँस - सब सच्चिदानंद स्वात्म तत्व स्वरुप अखंड सूत्र में पिरोये हैं |
{ *** हमारे मणिपुर चक्र में याने नाभिकमल पर एकाग्र होकर ॐ का उच्चारण करनेसे मन का लय करनेमें सफलता प्राप्त होती है | }
महासिद्ध योगी श्री गोरक्षनाथ उवाच -
स्वामी कौण माता कौण पिता, कौणस्य गुरु उपदेस स्थिता | कौण आसन करौ बिसराम, कौण घर सू थाका ठाम || ९ ||
अर्थात - इस चौपाई में महासिद्ध योगी श्री गोरखनाथजी श्री सदगुरु भगवान दत्तात्रेय से पूछते हैं - हे स्वामी! आपकी माता और पिता कौन हैं? आपको कौन गुरुसे यह उच्च स्थिति प्राप्त है? आप बिसराम याने आराम के लिए कौन सा आसन प्रयोग करते हैं? कौन से घर आप का स्थान है?
श्री सद्गुरू भगवान दत्तात्रेय उवाच -
अवधू खमा माता सत् पिता, ज्ञान गुरु परचाया स्थिता | अलेख आसण तहां बिसराम, सुणौ गोरख हमरा ठाम || १० ||
अर्थात - इस चौपाई में श्री सद्गुरू भगवान दत्तात्रेय कहते है - हे अवधूत! खमा याने क्षमा स्वरुप धरती हमरी माता है और आकाश स्वरुप सत् तत्त्व हमरे पिता हैं | ज्ञान रूपी गुरु ने इस स्थिति से परचा करवाया; इस स्वात्म स्थिति से परिचय करवाया | गु याने अज्ञान स्वरूप अन्धकार और रु याने निज बोध स्वरुप प्रकाश | स्वात्म तत्व सम्बन्धित अज्ञान अन्धकार का नाश कर स्वात्म प्रकाश में स्थिर करनेवाले ज्ञान को श्री सद्गुरू भगवान दत्तात्रेय खुद का गुरु बताते हैं | अलेख याने जो लक्ष्यातीत है, मन-बुद्धि-आँखों की पकड़ में नहीं आ सकता, ऐसा निरावलम्ब ब्रम्ह का आसन उनके विश्राम के लिए है |
{ *** मेखला निवृत्तिर्नित्यम् स्वस्वरूपम् कटासनम् | निवृतिः षड् विकारेभ्यः स: अवधूत इत्यभिधीयते || सिद्ध सिद्धान्त पद्धति ६/८ नित्य निवृत्ति जिसकी मेखला याने कमरपट्टा है , स्वस्वरूप जिसका कटासन है षड् विकारों से जो निवृत्त है, उसीको अवधूत कहते हैं | }
महासिद्ध योगी श्री गोरक्षनाथ उवाच -
स्वामी कोण मुक्त कोण दुःख सहै, कोण विनसै कोण अजरामर रहै | जो गमी होईसू कहिये भेद गोरख कहे सुणो दत्त देव || ११ ||
अर्थात - इस चौपाई में महासिद्ध योगी श्री गोरखनाथजी श्री सदगुरु भगवान दत्तात्रेय से पूछते हैं - हे स्वामी इस जगत में कौन मुक्त है और कौन दुःख सहनेवाला बद्ध है? किसका विनाश होता है और कौन अजरामर याने अविनाशी है? हे दत्त देव! जो आपने जाना वो भेद याने रहस्य मुझे बताइए|
श्री सद्गुरू भगवान दत्तात्रेय उवाच -
अवधू ब्रम्ह मुक्त प्रक्रिति दुःख सहे प्रक्रिति विनसै ब्रम्ह अजरावर रहै | गुह्य ज्ञान कह्या है अपार सुणौ गोरख कहूँ बिचार || १२ ||
अर्थात - इस चौपाई में श्री सद्गुरू भगवान दत्तात्रेय कहते है - हे अवधूत गोरख! जो ब्रम्ह्भावापन्न हुए स्वात्म भावापन्न हुए वे मुक्त हैं, जो प्रक्रिति या देह भावापन्न हैं वे दुखी हैं | प्रक्रिति याने देह परिणामी हैं याने नष्ट होनेवाली है और ब्रम्ह चैतन्य याने तत्त्व अविनाशी याने शाश्वत हैं | हे गोरख सुनो इस गुह्य ज्ञान याने रहस्यमय ज्ञानका कोई पार नहीं इसे सोचो |
महासिद्ध योगी श्री गोरक्षनाथ उवाच -
स्वामी कोण सुषिम कोण अस्थूल कोण डाल कोण मूल | जो गमी होईसू कहिये भेद गोरख कहे सुणो दत्त देव || १३ ||
अर्थात - इस चौपाई में महासिद्ध योगी श्री गोरखनाथजी श्री सदगुरु भगवान दत्तात्रेय से पूछते हैं - हे स्वामी! इस जगत में क्या सूक्ष्म है और क्या स्थूल? इस जगत स्वरुप वृक्ष की शाखाएँ कौन सी हैं और इसका मूल कौन सा है? हे दत्त देव! जो आपने जाना वो भेद याने रहस्य मुझे बताइए |
श्री सद्गुरू भगवान दत्तात्रेय उवाच -
अवधू ब्रम्ह सूषिम तत् स्थूल पवन की डाला मन मूल गुरुहि ज्ञान अपार सुणौ गोरख कहूँ बिचार || १४ ||
अर्थात - इस चौपाई में श्री सद्गुरू भगवान दत्तात्रेय कहते है - हे अवधू! ब्रम्ह सूक्ष्म है, पञ्च महाभूत, पञ्च तन्मात्रा, पञ्च कर्मेन्द्रिय, पञ्च ज्ञानेन्द्रिय, मन, बुद्धि, अहंकार और आत्मा ऐसे पच्चीस तत्त्व स्थूल हैं | वासना का स्थान मन इस जगत स्वरुप वृक्ष का मूल है और वायु ही इस जगत स्वरुप वृक्ष की शाखाएँ हैं | सद्गुरु ही ज्ञान हैं जिनकी महिमा अपरम्पार है, अपार है | हे गोरख सुनो और सोचो |
महासिद्ध योगी श्री गोरक्षनाथ उवाच -
स्वामी कोण गुरु कोण चेला, किहि बिधि होय अनंत सिद्धां का मेला | ब्रम्हकमल का कहिये भेद, गोरख कहै सुनौ दत्तदेव || १५ ||
अर्थात - इस चौपाई में महासिद्ध योगी श्री गोरखनाथजी श्री सदगुरु भगवान दत्तात्रेय से पूछते हैं - हे स्वामी! कौन गुरु है और कौन चेला है? अनंत सिद्धों के मेलेके दर्शन याने सिद्धों की मुलाकात कैसे हो? हे दत्तदेव सुनो! मुझे आप ब्रम्हकमल का भेद याने रहस्य समझाएं |
श्री सद्गुरू भगवान दत्तात्रेय उवाच -
अवधू परमात्मा सो गुरु आतम चेला, सहज सुनी होइबा अनंत सिद्धां का मेला | ब्रम्हकमल उरधमुख खिला सुणो हो गोरख उन्मन कला || १६ ||
अर्थात - इस चौपाई में श्री सद्गुरू भगवान दत्तात्रेय कहते है - हे गोरख अवधूत! परमात्मा ही गुरु है और जीवात्मा चेला है | जीवात्मा को जब सहज शुन्य अवस्था प्राप्त होती है, तब उसे अनंत सिद्धों के दर्शन होते हैं | ब्रम्हकमल ऊर्ध्व मुख याने ऊपर की ओर खिला है जहाँ उन्मन कला स्थित है | जीवात्मा परमात्मा से भिन्न नहीं, वह परमात्मा का ही अंश है क्यों की परमात्मा अखंड और एक रस, याने सबमें एक समान बसा है | देखें गीता में भी कहा है -
ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातन || श्रीमद्भागवद्गीता
अर्थात - इस जीवलोकमें याने संसार में समस्त भूत याने प्राणीमात्रों के देह में कर्ता और भोक्ता मेरा याने परामात्मा का ही अंश है | इस परमात्मा की कृपा के बिना गु - याने अज्ञान स्वरुप अन्धकार का नाश नहीं होता और रु - याने तत्व ज्ञान का प्रकाश भी नहीं होता | इसलिए परमात्मा ही गुरु है | इस गुरु की जिस पर कृपा होती है वह जीवात्मा ही शिष्य है | गोरक्षनाथजी गोरखबानी में कहते हैं -
रहणी रहै सो गुरू हमारा । हम रहता का साथी ।। रहता हमारा गुरू बोलिये। हम रहता का चेला ।।
जो सत्य को जी रहा है, उन्मन है , प्रकाश स्वरुप है , जिसके कहने और करने में भेद नहीं है - जो अभेद है वही हमारा साथी है और वही हमारा गुरू भी है - चाहे वह पंडीत न हो, चाहे वह बड़ी बड़ी उपाधीयोंवाला - डिग्रीयोंवाला न हो । सत्य याने परमात्मा, परमतत्व, वैश्विक चैतन्य | तो गुरु परमात्मा है , परमात्मा ही गुरु है जिसके मर्जीके बगैर दुनिया में कुछ भी नहीं होता |
खुद चेला तो अभी वैश्विक चैतन्य याने परमात्मा के साथ समरस नहीं हुआ, स्थिर नहीं हुआ , अज्ञान अन्धकार में फंसा है | वह अभी मन और उसकी वासनाओं में ही गडा है इसलिए वह परम आत्मा नहीं सिर्फ जीवात्मा है | इस तरह परमात्मा गुरु और जीवात्मा चेला यह ज्ञानदीप बोध का वचन और गोरखबानी का बचन इनमें भेद नहीं |
सतगुरूजी का काम इतना ही है कि तुम्हारे भीतर जो तुम्हारा चैतन्य सोया पडा है, उसे जगा दे ।
भगवान दत्तात्रेय सहज सुनी याने सहज शुन्य होने को कहते हैं |
सहज याने इस देह के जन्म के साथ जो हमारे साथ है, ऐसी शून्य स्थिती जो इस देह के जन्म के साथ हमारे साथ है वह हमारी स्वभाव स्थिती है |
सहज शून्य अवस्था ही स्वात्मसंवित्ती याने स्वात्मासे एकरूप चैतन्य शक्ति है | यही सिद्ध सिद्धांत पद्धति में गोरखनाथजी ने भी कहा है देखें -
सहजं स्वात्म संवित्तिः || ५.३० ||
हमारे मस्तिष्क आकाश में मूर्धा स्थान में त्रिकूट शिखर पर जो अंगुष्ठ प्रमाण कूटस्थ प्रकाश ज्योति गहन ध्यान में हमें दिखाई देती है , वही हमारी सहज, स्वभाव स्थिति है |
उस पर स्थिर लक्ष होने से अनंत सिद्धों के दर्शन होते हैं |
पातंजल योग दर्शन में भी कहा है देखें -
मूर्ध ज्योतिषि सिद्धदर्शनम् || ३.३२ ||
सहत्रदल कमल और ब्रम्ह्कमल में कुछ भेद है| सहत्रदल कमल हमारे मस्तिष्क में है | वह अधोंन्मुख होता है और तब कुण्डलिनी शक्ति सुप्त अवस्था में होती है | इस वक्त समस्त विश्व विषयरूप प्रतिभासित होता है और विषयोंका अधिष्ठान मन है | इसलिए इसे समनावस्था भी कहते हैं |
जब कुण्डलिनी शक्ति जागृत होती है तब यह कमल ऊर्ध्वोंन्मुख होता है | तब इसे ब्रम्हदल कमल कहते हैं , जो सहस्त्रदल कमल के ऊपर बिचमें होता है |
इससे वासुदेवः सर्वमिति का आभास होता है अर्थात संसारमें सब तरफ वही तत्व भरा दिखाई पड़ता है |
तब फिर मन निर्विचार होता है इसलिए इसे उन्मनी अवस्था भी कहते हैं |
महासिद्ध योगी श्री गोरक्षनाथ उवाच -
स्वामी कोण उन्मन कोण कला किस बिधि छुटै त्रिकुटी ताला | नाद बिन्द का कहिये भेद गोरख कहै सुणो दत्तदेव || १७ ||
अर्थात - इस चौपाई में महासिद्ध योगी श्री गोरखनाथजी श्री सदगुरु भगवान दत्तात्रेय से पूछते हैं - हे दत्तदेव! हे स्वामी! सुनो! आप मुझे बताइए की - उन्मनी अवस्था क्या है? त्रिकुटी का ताला कैसे खुले? नाद और बिन्दू का क्या रहस्य है?
श्री सद्गुरू भगवान दत्तात्रेय उवाच -
अवधू उन्मनी ध्यान पवन बिधि कला नाभ दम छुटै त्रिकुटी ताला | दसवे द्वार ब्यन्दका बास सुणो गोरख नाद का प्रकास || १८ ||
अर्थात - इस चौपाई में श्री सद्गुरू भगवान दत्तात्रेय कहते है - हे गोरख अवधूत! ध्यान की परिपक्व अवस्था याने उन्मनी अवस्था | मन याने विचारों का संग्रह है, जब तक आँखें बंद करने पर भी भीतर बिचार शुरू रहते हैं तब तक वहाँ मन मौजूद है, उसे समन अवस्था कहते हैं | जब हम मंत्र जाप करते हैं तब हमारा मन उस मंत्र की देवता स्वरुप एक ही बिचार पर होने से उसे एकाग्रता कहते हैं और जब बिचार बंद हों तब उसे निर्विचार याने उन्मनी अवस्था कहते हैं | इस पर संत कबीरजी का एक बहुत अच्छा दोहा है -
सबद निरंतर से मन लागा मलिन बासना त्यागी | उठत बैठत कबहूँ न छुटै ऐसी तारी लागी | कहै कबीर यह उनमुनी रहनी सो परगट करी गायी | दुःख सुख से कोई परे परम पद तेहि पद रहा समायी ||
अर्थात - कबीरजी कहते हैं जब मलिन वासना त्यागी, कैसे? मलिन वासना - जब हम आंखें बंद कर ध्यान के लिए बैठते हैं तब हमारे चित्त से जो मन के बाद की पर्त हैं, जिसमें जनम जनम के कर्मों के संस्कारों का लेप चढ़ा हुआ है, उससे अनंत जन्मों के संस्कार बिचारों के रूपमें भीतर खड़े होतें हैं | बहोत लोग इसी वज��� से ध्यान छोड़ देते हैं की जब भी हम ध्यान के लिए बैठते हैं हमें भूत बिचार आते हैं, ध्यान तो लगता ही नहीं | पर वे सही रस्ते पर होते हैं | उन्हें सही मार्गदर्शन न होने की वजह से वे ध्यान की बैठक छोड़ देतें हैं | जब तक आपका चित्त का डिब्बा खाली न होगा तब तक चित्त के पीछे की चेतना की पर्त कैसे उघाड़ेगी ? चित्त का डिब्बा खाली होना है | अनंत जन्मोंके संस्कार ख़तम होने हैं | तो वे बिचार के रूप में ही बहार आएंगे | तब फिर उनसे मुक्त कैसे हो सकते हैं? तो उसका जवाब है साक्षी भाव | उन बिचारों से लड़ना नहीं है | बिचार आयेंगे तो उनका अच्छे बुरे वगैरह नामकरण करना नहीं | बस उन्हें सिर्फ साक्षी बनकर देखना है | साक्षी याने विटनेस बनना है | साक्षी वादी प्रतिवादी किसी का नहीं होता वह सिर्फ आँखों देखा हाल बताता है | इसे दुसरे शब्दों में तटस्थ होना कहते हैं | नदिया बहेती है , हम तट पर बैठें हैं, उसमें कभी मछली आती है , कभी मेंढक , कभी बगुला मछली को पकड़ लेता है , कभी तरंगें उठती हैं तो कभी कोई पानी में पत्थर फेंकता है तो छींटे उड़तें है, कहीं उसकी धारा तेजीसे बहेती है तो कहीं धीरे | हम सिर्फ नदिया के तट पर बैठकर - तटस्थ होकर द्रष्टा बनकर देखते हैं, वहाँ घटने वाली घटनाओं में हस्तक्षेप नहीं करते | वैसे ही अपने विचारों के प्रति साक्षी भावसे , तटस्थ बनकर, द्रष्टा बनकर देखनेसे कूछ ही क्षणों में वे विदा हो जाते हैं | तब उस अवस्था को निर्मन अवस्था कहते हैं और उसे ही शास्त्रों की भाषा में उन्मनी अवस्था कहते हैं | उस अवस्था में हमारे कानों में एक आवाज, ध्वनि सुनाई देती है | दो चीजें जब एकमेक पर टकराती हैं तब आवाज, ध्वनि या नाद पैदा होती है उसे ' आहत ध्वनि ' या ' आहत नाद ' कहते हैं | ताली दो हाथोंसे बजती है |
लेकिन उन्मनी अवस्था प्राप्त होतेही जो आवाज सुनाई देती है उसे ' अनाहत ध्वनि ' या ' अनाहत नाद ' कहते हैं | उसे संत कबीर ' एक हाथ की ताली ' कहते हैं | ऊपर कबीरजी के दोहे की बात - कभी न छुटने वाली कानों में ताली लगती हैं | और वह ध्यानी दुःख सुख से परे की स्थिति को जा पहुँचता है | वह परम याने श्रेष्ठ और पद याने स्थिति या अवस्था है |
ध्यानी को ऐसी आवाजें जब सुनाई देनी शुरू हो तो आज ज़माने की सुविधा उपलब्ध होने की वजह से और हमे अहंकार से बचने के लिए एक बार के नाक गले के स्पेशालिस्ट डाक्टर के पास से हमारे कानों की जाँच अवश्य करवानी चाहिए और फिजिशियन के पास से हमारी ब्लड प्रेशर की जाँच करवालेनी चाहिए | क्यों की वह ' टीनिटस ' नाम की बीमारी या ' हाई ब्लड प्रेशर ' नाम की बीमारी भी हो सकती है | जब ये सब नार्मल हो तब फिर अनाहत ध्वनि शुरू होगई समझना |
इस अनाहत ध्वनि पर जितना लिखें उतना कम है | इसके दस प्रकार हैं इसलिए उन्हें दशविध नाद भी कहते हैं | १) चिणी, २) चिणचिणी, 3) घंटानाद, ४) शंखनाद, ५) तंत्री नाद, ६) ताल नाद, ७) वेणु नाद , ८) मृदंग नाद, ९) भेरी तुतारी नाद, १०) मेघगर्जना का नाद | नाम से इनका अर्थ स्पष्ट है | चिणी, चिणचिणी - घुंघरू से उत्पन्न ध्वनि के समान हैं, घंटानाद - मंदिर के घंटे से उत्पन्न ध्वनि के समान है, शंख नाद - शंख फूंकने से उत्पन्न ध्वनि के समान है , तंत्री नाद - विणा के तारोंको छेड़ने से निकलनेवाली आवाज के समान है, ताल नाद - तबला बजने से उत्पन्न आवाज के समान है, वेणु नाद - बांसुरी बजने से निकलनेवाले स्वरों के समान है , मृदंग नाद - मृदंग बजाने से निकलनेवाली आवाज के समान है, भेरी तुतारी - पुरातन काल में इन्हें युद्ध में बजाते थे | रणभेरी और तुतारियों के बजने से उत्पन्न ध्वनि के समान यह नाद है | बारिश के मौसम में आसमान से मेघोंके गरजने की आवाज के समान यह नाद है | अनाहत नाद साधक आज्ञाचक्र पर पहुँच ने की गवाही देती है |
ब्यंद याने बिन्द, इस चौपाई में गोरखनाथजी बिन्द का स्थान दसवे द्वार पर बताते हैं | हमारे शरीर पर दो आँखों के २ छेद याने दरवाजे हैं, २ कानों के, नाक के २ छिद्र या द्वार, १ मुख का द्वार, १ मुत्रेंद्रिय या लिंग का द्वार और १ शौच विसर्जन का गुद द्वार ऐसे ९ दरवाजे याने द्वार हैं | दसवा द्वार कहाँ है ? हमारी दो भौओं के बिच - भृकुटी मध्य पर, जहाँ नाक जुडी हुई है, जहाँ बिंदिया लगाते हैं उसे त्रिकूट शिखर कहते हैं | वहीं तीसरी आँख है, जो गुप्त है | उस छिद्र को ही दंसवा दरवाजा या दशम द्वार कहते हैं | इस दशम दरवाजे के बारे में संत कबीर क्या लिखते हैं देखें -
मन मथुरा दिल द्वारिका काया कासी जानि | दसवां द्वार देहरा, तामें ज्योति पिछानि ||
उससे हम आम लोग कुछ देख नहीं सकते, इसलिए उसे ताला लागा है ऐसा कहते हैं | वह ताला जब साधना से खुलता है तब साधक को वहाँ अपने अंगुष्ठ प्रमाण बिंदी के जैसी एक ज्योति दिखाई देती है उसे ब्यंद याने बिन्द कहा है | उसे ही इस चौपाई में गोरखनाथजी नाद का प्रकाश कहते हैं | अनाहत नाद सुनाई देने के बाद धीरे धीरे, साधनामें अग्रेसर होने पर यह ज्योति का प्रकाश दिखाई पड़ता है | यही गोरखनाथजी आरती में भी कहते हैं -
नाथ निरंजन आरती साजै, गुरु के सबदु झालरी बाजै | अनहद नाद गगनमें गाजै, परम ज्योति तहां आप बिराजे ||
देखें बारिश के मौसम में आसमान से पहले आवाज सुनाई देती है और उसके पश्चात बिजली का प्रकाश दिखाई पड़ता है | इसलिए इसे नाद का प्रकाश कहा है |
वह तीसरा नेत्र कैसे खुलेगा , वह दशम द्वार का ताला कैसे खुलेगा ऐसा प्रश्न इस चौपाई में गोरखनाथजीने भगवान दत्तात्रेय को पुछा है | जिसका जवाब भगवान इस तरह देते हैं - नाभ दम छुटै त्रिकुटी ताला | इस चौपाई में ही पवन का बिधि याने वेध याने उसका लय करने को ' कला ' कहा है दत्तात्रेय भगवान ने | हमारी साँस हम जब लेतें हैं तब पेट और नाभि ऊपर उठते हैं और फिर साँस छोडते हैं तब पेट भीतर जाता है | यह साँस के वायु की आने और जाने की एक लय है रिदम है | इसे भगवान दत्तात्रेय नाभ दम कहके संबोधित करते हैं | यह नाभ दम की लय समाप्त करने को कहते हैं दत्तात्रेयजी | इसे ही परमहंस योगानंदजी उनके गुरूजी युक्तेश्वरगिरीजी, श्यामाचरण लाहिड़ीमहाशयजी, बाबाजी क्रियायोग Kriya Yoga कहते हैं | जिसके लिए महामुद्रा, ओमकार क्रिया, मूल बन्ध, उड्डियान बन्ध, मयूरासन, अग्निसार प्राणायाम का अभ्यास साधक को करना पड़ता है | हमारे देहमें श्वास सो आवाज करती हुई भीतर आती है, उसकी गति निचे याने अधः है इसलिए उसे ' अपान वायु ' कहते हैं | भीतरसे हम आवाज करती हुई श्वास बाहर आती है, उसकी गति ऊपर याने उर्ध्व है इसलिए उसे ' प्राण वायु' 'कहते हैं | श्वास बाहर जाने के पहले कुछ देर देह के भीतर रहती है उसे ज्यादा देर तक रुकाने को ' अंतर्कुम्भक ' कहते हैं | श्वास बाहर जाने के बाद कुछ देर बाहर ही रूकती है उसे ज्यादा देर तक देह के बाहर रुकाने को ' बहिर्कुम्भक ' कहते हैं | जब यह बहिर्कुम्भक जबरन करना ना पड़े आसानीसे हो, सहज हो तब उसे ' केवल कुम्भक ' कहते हैं | वही बाहर गयी हुई वायु याने प्राण का सहज लंबना याने प्राण का आयाम या प्राणायाम है |
पंढरपुर के नामदेव महाराज जिन्हें सिख्ख धर्म में भी बड़ा स्थान है, वे भी कहते हैं -
बेम्बिचा देठ तुटे, तेंव्हा विट्ठल सखा भेटे |
बेम्बी याने नाभि उसका देठ याने नाल याने सांसो की रस्सी जब टूटती है तब विट्ठल सखा से मिलना होवे है | पंढरपुर के भगवान विट्ठल का विग्रह एक प्रतिक है हमारे आत्म तत्त्व का - देह रूपी ईंट पर जो खड़े हैं वे विट्ठल पांच इन्द्रिय रूपी पांडवों के साथ रमनेवाले, रंगनेवाले उनके सखा पांडुरंग याने हमारी आत्मा, हमारी रूह, हमारे देहमें मैं मैं करनेवाला चैतन्य, हमारी देह रूपी पंढरपुर में बैठे पाडुरंग या विट्ठल | नाम कूछ भी दें भाषा का फर्क रहेगा | घटना तो एक ही होगी | तभी त्रिकुटी का ताला छुटे गा, खुले गा | हमारी तीसरी आँख खुले तभी यह सब घटित हो सके है |
महासिद्ध योगी श्री गोरक्षनाथ उवाच -
स्वामी कोण कंटक कोण उचाट किहि बिधि खुलै ब्रम्ह कपाट | अगम पंथ का कहिये भेद गोरख कहै सुणौ दत्त देव || १९ ||
अर्थात - अब इस चौपाई में महासिद्ध योगी श्री गोरक्षनाथजी श्री सदगुरु भगवान दत्तात्रेयजी से पूछते हैं - हे स्वामी दत्त देव सुनौ परमार्थ प्राप्ति की राह में कंटक याने बाधा कौनसी होती है ? स्वात्मानुभुती की राह पर चलते हमारी बुद्धि को उचाट कौन करता है ? कौनसी क्रिया करने से ब्रम्ह कपाट खुलता है ? इस अगम के पंथ का रहस्य मुझे समझायें |
श्री सद्गुरू भगवान दत्तात्रेय उवाच -
अवधू कंटक सोई जिहिं अतिवंत क्रोध उचाट सोई आत्म बिरोध | गुरुगमी खुले ब्रम्ह कपाट सुणो गोरख उरध बाट || २० ||
अर्थात - इस चौपाई में श्री सद्गुरू भगवान दत्तात्रेय कहते है - हे गोरख अवधूत ! अत्यंत क्रोध ही परमार्थ प्राप्ति की राह का कंटक याने कांटा याने बाधा है |
देखें श्रीमद्भगवद्गीता में भी यही कहा है -
क्रोधात् भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृति विभ्रमः | स्मृतिभ्रन्शात बुद्धिविनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति || २.६३ ||
अर्थात - क्रोध से सम्मोह याने अविवेक, भ्रम या मूढ़ता, मुर्खता उत्पन्न होती है | वास्तवमें काम, क्रोध लोभ और ममता इन चारों से सम्मोह होता है | काम से जो सम्मोह होता है उसमें विवेकशक्ति ढक जाने से मनुष्य कामके वशीभूत होकर न करने लायक कार्य कर बैठता है | क्रोधसे जो सम्मोह होता है उसमें मनुष्य अपने मित्र तथा अपने पूज्य जनों को उलटी-सीधी बातें कह बैठता है और ना करने लायक बर्ताव कर बैठता है | लोभसे जो सम्मोह होता है उसमे मनुष्य धर्म अधर्म, सत्य असत्य आदिका बिचार नहीं करत और वह कपट करके लोगों को ठग लेता है | ममता से जो सम्मोह होता है, उसमें समभाव नहीं रहता उससे इन्सान पक्षपात कर बैठता है | काम, लोभ और ममता से अपने सुख भोगने की और स्वार्थ की वृत्ति जाग्रत रहती है | पर क्रोधमें दुसरों का अनिष्ट करनेकी वृत्ति जाग्रत रहती है जो काम,लोभ और ममता से उत्पन्न सम्मोह से भयंकर है | इसलिए भगवान कृष्ण ने केवल क्रोधसे ही सम्मोह होना बताया है और भगवान दत्तात्रेय ने भी क्रोध को साधना मार्ग का कंटक याने कांटा याने बाधा बताया है | क्या करें क्या ना करें ऐसे सारासार विवेक नष्ट होने से, अविचार से स्मृति भ्रंश याने शास्त्रादि में कहे सदुपदेश का विस्मरण होता है, नया बिचार करने की शक्ति लुप्त हो जाती है | जिस से बुद्धिविनाश होता है जिससे कुण्डलिनी शक्ति सहस्त्रार की ओर न बढ़कर मूलाधार में सुप्त रह जाती है और उसेही पतन याने ध्येय का नाश कहा है |
देखें गोरखबाणी में भी यही कहते हैं गोरखनाथजी -
मन में रहिणां भेद न कहिणां, बोलिबा अमृत वाणी | अगिला अगनी होइबा अवधू, आपण होइबा पाणी ||
बस जब अगली व्यक्ति अग्नि समान क्रोधित हो तो हमें पानी समान ठण्डा होनेको कहते हैं नाथजी, अर्थात उसे क्षमा करने को कहते हैं नाथजी |
भगवान महावीर स्वामी भी कहते हैं नं -
क्षमा वीरस्य भूषणं |
अब दत्तात्रेय भगवान गोरखनाथजी के अगले सवाल का जवाब देते हैं - स्वात्मानुभुती की राह पर चलते हमारी बुद्धि को उचाट कौन करता है ? आत्म विरोध हमारी बुद्धि को उचाट कर देता है | मैं याने यह देह हूँ ऐसे मानना और मैं याने वैश्विक चैतन्य का हिस्सा हूँ, मैं याने चैतन्य हूँ ऐसा ना मानना , इसे आत्मविरोध कहते हैं , जिससे बुद्धि उचाट हो जाती है , कुंठित हो जाती है | मैं कौन हूँ ? मैं चैतन्य स्वरुप हूँ, मेरा चैतन्य स्वरुप ही दिव्य है इसलिए मै ही देव हूँ ; कैसे ? यह समझने से बुद्धि वंचित रहती है | वह बुद्धि अन्य देवी देवताओं की उपासनामें, अनित्य और असत् वस्तु में आत्मदृष्टि से देखने में ही समय व्यर्थ गमाती है | जो साधना में अग्रेसर नहीं होने देती, आगे बढ़ने नहीं देती | इसे ही बुद्धि पर चढ़ा अज्ञान का आवरण भी कहते हैं | इसके लिए ही एकान्त साधना चाहिए, संग का त्याग करना चाहिए, क्योंकि संगात जायते कामः | बहु संग से विषयोंमे राग याने आसक्ति पैदा होती है |
अब भगवान दत्तात्रेय कहते हैं गुरुगमी खुले ब्रम्ह कपाट | गुरु तत्त्व में गमन करने से अर्थात भृकुटी मध्यस्थित तीसरे नेत्र स्थित कुटस्थ चैतन्य प्रकाश में स्थिर होने से ब्रम्ह कपाट याने परमार्थ पथ खुलता है | देखें श्रीमद्भागवद्गीता में यही भगवान कृष्ण कहते हैं -
स्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्यां चक्षुश्चैवान्तरे भ्रुवोः | प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तर चारिणौ || श्रीमद्भगवद्गीता ५.२७ ||
इसे और आसान कर जानने की कोशिष करें तो इन सब तक पहुँचानेवाले गुरुदेव का सहवास करने से और उनके दर्शाए मार्ग पर चलने से परमार्थ पथ खुलता है | सिद्धसिद्धांत पद्धति में गोरखनाथजी यही कहते हैं -
दुर्लभा सहजावस्था सद्गुरोः करुणा विना |
इस चौपाई के अंत में दत्तात्रेयजी नें उरध बाट कहा है अर्थात परमार्थ का रास्ता ऊपर की ओर जाता है | ऊपर याने मूलाधार से सहस्त्रार की ओर From Alpha to Omega , मेरुदंड से होते हुए, जो की गुरूजी की कृपा बिना संभव नहीं |
महासिद्ध योगी श्री गोरक्षनाथ उवाच -
स्वामी कोण दया कोण धन कोण बूडण कोण तिरण | कोण ज्ञान कर्म का भेद | गोरख कहै सुणो दत्त देव || २१ ||
अर्थात - इस चौपाई में महासिद्ध योगी श्री गोरक्षनाथ श्री सदगुरु भगवान दत्तात्रेय से पूछते हैं - हे स्वामी दत्त देव दया किसे कहते हैं ? धन किसे कहते हैं ? बुडन याने डूबना किसे कहते हैं और तीरण याने तैरना किसे कहते हैं ? ज्ञान और कर्म का रहस्य क्या है ?
श्री सद्गुरू भगवान दत्तात्रेय उवाच -
अवधू ध्यान सोई दया धरम धन बुडण सोई जू कंटक खुन्दी | तीरण सोई जो निरमल बुधि ज्ञान सोई विवरजित करम || २२ ||
अर्थात - इस चौपाई में श्री सद्गुरू भगवान दत्तात्रेय कहते है - हे गोरख अवधूत ! ध्यान ही दया है | याज्ञवल्क्य संहिता में दया के बारे में याज्ञवल्क्य ऋषि लिखते हैं -
दया सर्वेषु भूतेषु सर्वत्रानुग्रह स्मृतः |
अर्थात समस्त प्राणीमात्र पर समदृष्टिपूर्ण अनुग्रह याने बर्ताव करना ही दया है | सिद्धसिद्धान्त पद्धति में गोरखनाथजी ध्यान के बारे में लिखते हैं -
सर्वभूतेषु समदृष्टिश्च इति ध्यान लक्षणं || २.३८ ||
अर्थात - सभी भूत मात्र याने प्राणीमात्रको समदृष्टिसे देखना ही ध्यान है | यह समदृष्टि क्या है ? जैसा परमतत्त्व, जैसी चेतना हमारे इस देहमें बसी है वैसी ही चेतना हरेक प्राणी या जिव में बसी है ऐसा देखना ही समदृष्टि है | ऐसा सोचकर किसीने हमारे साथ बुरा बर्ताव किया तो हमें जैसा दर्द होगा वैसे ही हमने किसीके साथ बुरा बर्ताव किया तो उसे भी वैसे ही दर्द होगा | कहने का तात्पर्य देहमें बसे प्राण या चेतना फिर वो हमारी हो या किसी और जिव की उसपर ही हमारा ध्यान, खयाल, लक्ष, होश होना चाहिए ना की देह पर | तो फिर यही तो ध्यान है नं और वही दया है |
देखें मलुकदासजी का वचन -
दया करै धरम मन राखै, घर में रहै उदासी | अपनासा दुःख सबका जानै, ताहि मिलै अविनासी ||
यही बात भगवान कृष्ण गीतामें कहते हैं -
सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानी चात्मनि |
ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः || श्रीमद्भागवद्गीता ६.२९ ||
यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति | तस्याहं न प्रणश्यामि स च में न प्रणश्यति || श्रीमद्भागवद्गीता ६.३० ||
सर्वभ���तस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थितः | सर्वथा वर्तमानो अपि स योगी मयी वर्तते || श्रीमद्भागवद्गीता ६.३१ ||
आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति य: अर्जुन | सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः || श्रीमद्भागवद्गीता ६.३२ ||
स्वात्म तत्वसे जुड़ने की कोशिश करने का नाम ही धर्म है और वह कोशिशें, वह धर्म ही द्रव्य या धन है | समस्त संसार में सिर्फ मनुष्य ही यह कर सकता है | इसलिए जो स्वात्म तत्व पहचानने की कोशिश नहीं करता, जो मैं कौन हूँ देह या देह में बसी चेतना , यह जानने की कोशिश नहीं करता उसका जीना पशुसमान ही है |
ज्ञानदीप बोध की २० वी चौपाई में क्रोध को परमार्थ पथ का काँटा कहा है दत्तात्रेय भगवान ने | इस क्रोध से भरी व्यक्ति को डूबा कहा है क्योंकि उसी क्रोध से शोक उत्पन्न होता है और फिर भीतर बसे चेतना से उसका ध्यान विचलित हो जाता है, और फिर क्रोध से उत्पन्न संसार की अनंत कड़ियों में जैसे द्वेष, घृणा, बदला आदि में वह फंसता जाता है | इसलिए क्रोधी व्यक्ति को भवसागर में डूबा जानना चाहिए |
जो निर्मल बुद्धि का है , जिस के मनमें औरों के प्रति द्वेष नहीं, घृणा नहीं जो अपने क्रोध के प्रति जागरुक है होशपूर्ण है, अपने अहंकार के प्रति होश पूर्ण है और उन्हें समझकर रूपांतरित कर सकता है संतोष पूर्ण हो सकता है और उससे वह अपनी चेतना से आसानी से जुड़ सकता है, इसलिए वही भवसागर पार कर सकता है, तैर सकता है |
विवर्जित करम याने काम, क्रोध, लोभ, मोह, मत्सर इनसे विवर्जित कर्म याने इनसे रहित कर्म और आत्म या निज तत्त्व को जानने की कोशिश के संस्कारों से युक्त कर्म कोही भगवान दत्तात्रेय ज्ञान कहते हैं |
महासिद्ध योगी श्री गोरक्षनाथ उवाच -
स्वामी कोण बंधा कोण मुक्ता कोण जोगी कोण जुगता | देवकला का कहिये भेद गोरख कहै सुणो दत्तदेव || २३ ||
अर्थात - अब इस चौपाई में महासिद्ध योगी श्री गोरक्षनाथजी श्री सदगुरु भगवान दत्तात्रेयजी से पूछते हैं - हे स्वामी दत्त देव सुनौ कौन बद्ध है और कौन मुक्त है ? योगी कौन है और युक्ति किसे कहते हैं? देव याने हे देव - कला याने इन सूक्ष्म विषयों का रहस्य कहिये|
श्री सद्गुरू भगवान दत्तात्रेय उवाच -
अवधू बन्धा सोई जू करमहि बन्ध्या मुकता सोई रहै निरदंद जोगी सोई जुगति मन रहै गोरख पुछै दत्तात्रेय कहै || २४ ||
अर्थात - इस चौपाई में श्री सद्गुरू भगवान दत्तात्रेय कहते है - हे गोरख अवधूत ! जो व्यक्ति कर्मों से बंधा है वही बद्ध है |
सिद्ध सिद्धान्त पद्धति में गोरखनाथजी भी यही कहतें हैं - यत्कर्मम् तद् बन्धनं || जो कर्म मनमें कामना रखकर किये जाते हैं वही हम मनुष्यों को बद्ध करते हैं |
जो निर्द्वन्द्व है वही मुक्त है | हर्ष - शोक, सुख - दुःख, राग - द्वेष, जड - चेतन, सत - असत इन्हें द्वंद्व कहते हैं |
देखें श्रीमद्भग्वद्गिता में भगवान कृष्ण कहते हैं -
निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन | निर्द्वन्द्वो नित्यसत्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान् || २.४५ || यहाँ सत्व, रज, तम इन तिन गुणों से बने कर्मरूप संसार की इच्छा का त्याग करने को कहते हैं | कैसे ? तो ऊपर बताये द्वन्द्वों का त्याग करके संसार की इच्छा का त्याग होगा क्योंकि उन द्वंद्वों से मोह उत्पन्न होता है और संसार में फंस जाता है मनुष्य | योग याने यहाँ अप्राप्त वस्तु की प्राप्ति और क्षेम याने प्राप्त वस्तु की रक्षा का भी त्याग करने को कहते है कृष्ण क्यों की योग और क्षेम भी द्वंद्व ही हैं | इन द्वंदों से हटने के लिए नित्य याने हमेशा सत्व में याने सर्वत्र व्याप्त परमात्मा में कहें या सर्वत्र व्याप्त चेतना में कहें स्थित होना है , आत्मवान याने निज तत्व में स्थित होना है |
आगे भगवान कहते हैं - योगस्थः कुरु कर्माणि संगम त्यक्त्वा धनञ्जय | सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्च्यते || २.४८ || अर्थात संग का त्याग कर याने किसी भी कर्ममें, किसी भी कर्म के फल में आसक्ति का त्याग कर, सिद्धि याने कर्म का पूरा होना और असिद्धि याने कर्मका पूरा न होना इन में सम होना अर्थात राग द्वेष रहित होना चाहिए क्योंकि समत्व को ही योग कहते हैं | राग द्वेष रहित, कामना रहित कर्म करनेवाला ही स्वात्म भाव में स्थिर हो सकता है |
देखें कृष्ण कहते हैं - श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला | समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि || २.५३ || अर्थात - जब शास्त्रीय मतभेदों से विचलित हुई तुम्हारी बुद्धि लोभ, लाभ को छोड़कर समाधौ याने परम याने श्रेष्ठ - आत्म तत्व या देह स्थित चेतना में, कूटस्थ ज्योति स्वरुप चैतन्य में - निश्चल याने स्थिर हो जाएगी तब तुम योग को प्राप्त हो जाओगे |
यदृच्छालाभसंतुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सरः| समः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते || ४.२२ || अर्थात - जो अपने आप जो कुछ मिल जाय उसमे संतुष्ट रहता है और राग द्वेष/मत्सर/इर्ष्या, सुख दुःख, हर्ष शोक आदि द्वंद्वों को छोड़कर, सिद्धि याने कर्म का पूरा होना और असिद्धि याने कर्मका पूरा न होना इन में सम होकर अर्थात राग द्वेष रहित होता है वह कर्म करते हुए भी कर्मों से बंधता नहीं |
योगसंन्यस्तकर्माणं ज्ञानसछिन्नसंशयम् | आत्मवन्तं न कर्माणि निबन्धन्ति धनञ्जय || ४.४१ || अर्थात - ऊपर समझाए समता रूपी योग के द्वारा जिसने संपूर्ण कर्मोंके फल का संन्यास याने त्याग किया हो, विवेक ज्ञानके द्वारा जिसके सम्पूर्ण संशयोंका नाश हो गया है ऐसे स्वरुप परायण मनुष्यको कर्म बांधते नहीं | इसे समझाने के लिए संत कबीर का भी एक दोहा है देखें -
दुःख सुख एक समान है, हरष शोक नहीं व्याप | उपकारी निःकामना, उपजै छोह न ताप ||
अर्थात - जिन्हें सुख दुःख सब एक समान हैं उन्हें हर्ष और शोक नहीं होता | जो कामनारहित और उपकारी होते हैं उन्हें मनमें ताप नहीं होता |
काग करम सब छांडी, होय हंसा गति | तृष्णा आस जलाय सोई साधू गति ||
अर्थात - जैसे कौवेने खुदके सब कर्म छोड़ दिए तो उसकी चाल हंस गति होगी वैसे ही मनुष्य ने आशा और तृष्णा को जला दिया तो वह साधू कहलाएगा |
जोगी सोई जुगति मन रहै अर्थात जिसके मनमें स्वस्वरुपानुसंधान की युक्ति अर्थात ज्ञान और क्रिया है वही जोगी याने योगी है |
महासिद्ध योगी श्री गोरक्षनाथ उवाच -
स्वामी कोण जुगति कोण जोग कोण काया व्यापै रोग | जो गमि होई सु कहिये भेद गोरख कहै सुणो दत्तदेव || २५ ||
अर्थात - इस चौपाई में महासिद्ध योगी श्री गोरक्षनाथजी श्री सदगुरु भगवान दत्तात्रेयजी से पूछते हैं - हे स्वामी दत्तदेव ! युक्ति किसे कहते हैं और योग किसे कहते हैं ? रोग कौनसी काया को व्यापते हैं ? रोग गमी याने रोग ग्रसित काया और स्वस्थ काया का भेद याने रहस्य मुझे समझाएं |
श्री सद्गुरू भगवान दत्तात्रेय उवाच -
अवधू जुगति सोई जो जोगी मन ताला रोग सोई जो विषय पियाला | जोगी सोई मन भ्रम न रहै गोरख पुछे दत्तात्रेय कहै || २६ ||
अर्थात - इस चौपाई में श्री सद्गुरू भगवान दत्तात्रेय कहते है - हे अवधू जोगी याने योगी ने अपने मन को ताला लगाना याने अपने मन का निरोध करना, हरेक क्रिया में अपने मन को अपने इन्द्रिय और उनके विषयों से अलिप्त रखना ही जुगति याने युक्ति है | देखें यही बात पतंजलि भी कहते हैं -
योगश्चित्तवृत्तिनिरोध: || समाधिपाद - योगसूत्र २ ||
अर्थात - मन की समाप्ति का नाम योग है | योग याने अमन होना | हमारा मन याने हमारी सोच, हमारी इच्छाएँ, हमारा अहंकार, हमारा जा���ना | मन एक क्रियाशील वृत्ति है, एक क्रिया मात्र है | जब मन सक्रिय न हो, सोचने विचारने की क्रिया न हो, विचार न हों तब मन की उस समाप्ति को योग कहते हैं | जब मन याने विचार रूपी बादल गायब हों, तिरोहित हों तब आकाश रूपी तुम्हारा होना, तुम्हारी स्वसत्ता वहाँ मौजूद ही है और उसे ही योग कहते हैं | आसन, मुद्राएँ, बन्ध लगाते वक्त, अगर हमारा मन कार्यरत है, सोच विचार शुरू है तो वहाँ तुम्हारा प्रगट नहीं होगा, मन ही प्रगट होगा और इसलिए उसे योग नहीं कहा सकते | ये मन कैसे अमन होगा ? मन की समाप्ति कैसे होगी ? क्या युक्ति है उसे समाप्त करने की ? मन को बहता देख कर, विचारों को देखकर उन्हें सहयोग न करें बल्कि उन्हें सिर्फ देखना, सोचना नहीं | विचारों को ऐसा देखकर अनदेखा कर उनकी उपेक्षा करते ही कुछ देर बहेकर वे स्वयं थम जायेंगे | बस मन समाप्त हो जाएगा | तब फिर द्रष्टा, साक्षी स्वयं में स्थापित हो जाएगा |
इन्द्रियों के विषयों में अटके रहनेसे याने उनमें आसक्त रहनेसे इस शरीर में और मन में रोग उत्पन्न होते हैं | तो जब तक विषयासक्त रहेंगे तब तक हम मनमें, विचारों में, संकल्प विकल्प में अटके रहने से हम हमारे अस्तित्व के बारे में भ्रमिष्ट रहेंगे | हम देह भाव में अटके रहेंगे | जो स्वयं को देह से अलग इस देहमें, इस तन में बसी चेतना या आत्मा या रूह स्वरुप देखता है, जानता है, ऐसे भ्रम रहित व्यक्ति को योगी कहते हैं भगवान दत्तात्रेय |
महासिद्ध योगी श्री गोरक्षनाथ उवाच -
स्वामी कोण भरम कोण धरम कोण निसचल कोण अधरम | अगम ग्यान का कहिये भेद गोरख कहै सुनौ दत्ता देव || २७ ||
अर्थात - अब इस चौपाई में महासिद्ध योगी श्री गोरक्षनाथजी श्री सदगुरु भगवान दत्तात्रेयजी से पूछते हैं - हे स्वामी ! भ्रम किसे कहते हैं ? धर्म क्या है ? निश्चल किसे कहते हैं ? अधर्म क्या है ? हे दत्त देव इस अगम्य ज्ञान का भेद याने रहस्य आप मुझे बताइए |
श्री सद्गुरू भगवान दत्तात्रेय उवाच -
अवधू भरम सोई जिहिं ब्यापै संसा धरम सोई दरसण आदेसा | निसचल सोई जो सत्य सू रहै अधरम सोई जो मिथ्या कहै || २८ ||
अर्थात - इस चौपाई में श्री सद्गुरू भगवान दत्तात्रेय कहते है - हे अवधू जब तक हम विषयासक्त रहेंगे तब तक हम मनमें, विचारों में, संकल्प विकल्प में अटके रहने से हम हमारे अस्तित्व के बारे में भ्रमिष्ट रहेंगे | हम देह भाव में अटके रहेंगे, जिसे भ्रम कहते हैं भगवान दत्तात्रेय | जब तक मनमें संसार व्याप्त है तब तक विचार, संकल्प, विकल्प चलते ही रहेंगे और तब तक हम देह भाव स्वरुप भ्रम में ही जियेंगे | संसा का दूसरा अर्थ संशय भी होता है | तो जब तक मन में स्वरुप के बारे में संशय है तब तक हम भ्रमित ही कहलायेंगे | यहाँ संसा की जगह सांसा शब्द पाठ भेद के स्वरुप लें तो वह क्या सूचित करता है देखें - सांसों से मन चंचल होता है और मन अस्थिर हो तो भी सांसे अस्थिर होती हैं देखें हठयोग प्रदीपिका में यही कहते हैं गोरक्षनाथजी - चले वाते चलं चित्तं , निश्चले निश्चलं भवेत || २.२ || तो सांसों से मन में विचार तरंगें और उनसे देहभाव स्वरुप भ्रम पैदा होता है | अब भगवान दत्तात्रेय धर्मं याने दर्शन आदेश कहते हैं | देखें धर्म की व्याख्या - धृ धारयति इति धर्म अर्थात स्व स्वरुप दर्शन के लिए जिस कर्म को धारण किया जाता है उसे धर्म कहते हैं | धर्मं के बारे में याज्ञवल्क्यजी कहते हैं -
अयं तु परमो धर्मो यद् योगेनात्मदर्शनम |
अर्थात - जिस कर्म की वजहसे स्वस्वरूप का दर्शन होता है उसे धर्म कहते हैं आदेश के बारे में सिद्धसिद्धांतपद्धति में गोरक्षनाथजी कहते हैं -
आदेश इति सद्वाणिं सर्वद्वंद्व क्षयापहाम् | आत्मेति परमात्मेति जिवात्मेती विचारणे | त्रयाणामैक्यसम्भूति: आदेश इति कीर्तित: ||
अर्थात - आदेश याने परमात्मस्वरूप का वर्णन करनेवाली सद्वाणी है, जिसके उच्चारण से राग द्वेष , सुख दुःख आदि समस्त प्रपंचात्मक द्वंद्वों का नाश होता है | आदेश शब्द के उच्चारण से आत्मा परमात्मा जिवात्मा की एकता के बोध की विचारणा का अर्थात स्वस्वरूप दर्शन का कर्म होता है | इसलिए धर्म को दर्शन आदेश कहा है | जो सत्य में स्थित है उसे ही निश्चल कहा है | जैसे संपूर्ण भरे हुए कुम्भ का पाणी स्थिर रहता है और अधुरा भरा घड़ा ज्यादा हिलता है वैसे ही सत्यानुभूती से पूर्ण ज्ञानी निराकार आत्मस्वरूप में स्थिर होता है | मिथ्या कथन करना याने जो खुद नहीं ऐसे देह इन्द्रियों को स्वस्वरूप बताना, उसे भगवान दत्तात्रेय अधर्म कहते हैं |
श्रेयान् स्वधर्मो विगुण: |
परधर्मात् सु अनुष्ठितात् | स्वधर्मे निधनं श्रेयः |
परधर्मो भयावह || ३५ / ३ ||
अर्थात - हमारी चेतना याने हमारा स्व और हमारी देह इन्द्रियां याने पर | स्वधर्म याने स्वस्वरुपानुसंधान स्वरुप धर्म कठिन लगता हो तो भी उसका अवलंबन करनेसे जन्म मरण के फेरेसे मुक्ति और परमानंद की प्राप्ति होती है इसलिए वही उचित या श्रेयस्कर है | देह इन्द्रिय के भोग स्वरुप पर धर्म कितना ही अच्छी तरह से आचरण में लायें पर वह भयकारक है क्योंकि उसमे इन्सान खुदकी पहचान खो देता है और दुःख, चिंता, शोक का भागी बनता है |
महासिद्ध योगी श्री गोरक्षनाथ उवाच -
स्वामी कोण मिथ्या कोण साचा कोण खरा कोण काचा | कोणसूं कहिये सबद का भेद गोरख कहै सुणो दत्त देव || २९ ||
अर्थात - इस चौपाई में महासिद्ध योगी श्री गोरक्षनाथजी श्री सदगुरु भगवान दत्तात्रेयजी से पूछते हैं - हे स्वामी दत्त देव ! क्या मिथ्या है और क्या सच याने सत्य है ? कौन खरा है और कौन काचा है ? शब्द का रहस्य क्या है या किसे कहते हैं ?
श्री सद्गुरू भगवान दत्तात्रेय उवाच -
अवधू माया मिथ्या ब्रम्ह साचा सबद तु खरा प्यंड सो काचा | सबद विचारी जहाँ मन रहै गोरख पुछै दत्तात्रेय कहै || ३० ||
अर्थात - इस चौपाई में श्री सद्गुरू भगवान दत्तात्रेय कहते है - हे अवधूत गोरक्षनाथ माया मिथ्या है और ब्रम्ह सत्य है | शब्द खरा है और पिण्ड खोटा है शब्द में विचरण से याने संचारसे मन धीरे धीरे स्थिर होता है और शब्द का रहस्य खुलता है | माया मात्रमिदं द्वैतमद्वैतं परमार्थत: || १.१७ || माण्डुक्यकारिका - गौडपादाचार्य अर्थात - यह द्रश्यमान द्वैत याने संसार, मैं, तूं, यह, वह सब माया है इल्युजन है | यह सब संसार नष्ट होने वाला है, इसलिए अभी अमर्त्य दिखता भले ही हो पर मिथ्या ही है | उसे प्रकृति कहते हैं | परमार्थत: सब के भीतर वही ब्रम्ह, वही अद्वैत भरा है | जगत में जो चेतना है जिसे ब्रम्ह कहते हैं वह कभी नष्ट न होनेवाला है इसलिए उसे सत्य कहा है | अवधूत गीता में भी यही कहा है -
नत्वं नाहं जगन्नेदं सर्वमात्मैव केवलम् || १.१५ ||
मैं, तु और यह दृश्यमान जगत सब एकमात्र आत्मस्वरूप ही हैं |
पातंजल योग दर्शन में माया शब्द का प्रयोग किया नहीं, उस माया के बजाय अविवेक शब्द का प्रयोग किया है | माया त्रिगुणात्मक, परिणामशील और नष्ट होनेवाली है इसलिए मिथ्या है उसे सत्य मान बैठना अविवेक ही तो है | ब्रम्ह या परमात्मा माया या प्रकृति का अधिष्ठान है | माया परमेश्वर की स्वतंत्र स्फुरण शक्ति है | जीवात्मा अल्पशक्ति, अल्पज्ञ, देश और काल से परिछिन्न याने मर्यादित है | जीवात्मा पर काल, कला, अशुद्ध विद्या, राग और नियति यह पांच आवरण हैं | यह पांचो आवरण दूर होने के बाद ही आत्मसाक्षात्कार होता है | आत्मा और परमात्मा या ब्रम्ह से ही देह का और प्रकृति या जगत का अस्तित्व है, अन्यथा वे नष्ट होने वाले हैं इसलिए देह याने पिण्ड को काचा याने नष्ट होनेवाला कहा है | अब शब्द को समझने की कोशिश करते हैं | परमात्मा, ब्रम्ह, सर्वव्याप्त चैतन्य की अनुभूति शब्द से ही होती है | शब्द का एक नाद होता है | ब्रम्हांड में ब्रम्ह के नाद से ही ब्रम्ह की प्रचिती होती है | ब्रम्हांड में जो प्राण है उस प्राण से उत्पन्न होने की वजह से उस नाद को प्रणव कहते हैं | वह नाद या शब्द ॐ याने अ ऊ म इन तिन अक्षरों के जुड़ने से बने शब्द के उच्चारण समान है | योगी जब सांसों पर खुद का लक्ष्य केन्द्रित करता है तब अन्दर आनेवाली सो ध्वनि युक्त और बाहर जानेवाली हम ध्वनि युक्त सांस सोऽहं स्वर कहलाती है; जिससे स और म का नाद समाप्त होते ही ॐ उच्चारण का नाद याने ध्वनि रह जाता है | उसे ही अक्षर याने जिसका क्षरण या क्षय नहीं होता कहते हैं | उस पर लक्ष्य केन्द्रित करते ही मन स्थिर होने लगता है जिसे मनोलय कहते हैं |
ॐ इत्येकाक्षरं ब्रम्ह व्याहरन् मामनुस्मरन् | य: प्रयाति त्यजन् देहं स याति परमां गतिम् || श्रीमद्भगवद्गीता १३/०८ ||
इस ॐ के ध्वनि पर सम्पूर्ण आयुष्य लक्ष्य केन्द्रित करने का अभ्यास करने से मृत्यु के समय उसका स्मरण होता है जिससे उस व्यक्ति को परम गति प्राप्त होती है |
अभ्यास योग युक्तेन चेतसा नान्यगामिना | परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन् || श्रीमद्भगवद्गीता ०८ /०८ ||
इस श्लोक में अभ्यास योग युक्त याने संसारसे मन हटाकर परमात्मा में बार बार मन लगाने का नाम अभ्यास है | अभ्यास में प्रसन्नता और खिन्नता दोनों ही ना हों और अगर हो भी जाये तो उनको महत्व न देकर केवल अपना लक्ष्य परमात्मामें लगाएं | चित्त अन्यगामी न हो याने चित्त एक परमात्माके सिवाय दूसरा कोई लक्ष्य न हो | ऐसे चित्तसे परम दिव्य पुरुषका अर्थात सगुण - निराकार परमात्माका चिंतन करते छोडनेवाला मनुष्य उसी परमात्माको प्राप्त हो जाता है | इस प्रणव को याने ओंकार को अनहद याने अनाहत कहते हैं क्योंकी वह ध्वनि किसी दो चीजों के टकरानेसे उत्पन्न नहीं होती |
महासिद्ध योगी श्री गोरक्षनाथ उवाच -
स्वामी कोण काया कोण माया कोण भ्रम जगदंद लाया | अपार दंद का कहियै भेद गोरख कहै सुणो दत्त देव || ३१ ||
अर्थात - इस चौपाई में महासिद्ध योगी श्री गोरक्षनाथजी श्री सदगुरु भगवान दत्तात्रेयजी से पूछते हैं - हे स्वामी दत्तदेव! काया किसे कहते हैं? माया किसे कहते हैं? कौनसे द्वंद्व से भ्रम होता है? अपार द्वंद्व का रहस्य मुझे समझाइये |
श्री सद्गुरू भगवान दत्तात्रेय उवाच -
अवधू मन कलपत लागै माया करम आचरै तहां ल्यूं काया | ध्यान बिना जगु दंद अपार सुणो गोरख कहूँ बिचार || ३२ ||
अर्थात - इस चौपाई में श्री सद्गुरू भगवान दत्तात्रेय कहते है - हे गोरख सुणो - यह संसार या सृष्टि या जगत ही माया है | माया सापेक्षता और द्वैत से निर्माण होती है | जब तक मन संकल्प विकल्प स्वरुप कल्पना करता है तब तक माया स्वरुप संसार का अस्तित्व और विस्तार है | परमात्मा या परमेश्वर या वैश्विक चैतन्य एक है | वह अविनाशी है | उसके स्फुरंणमात्र से उत्पन्न इस जगतकी, इस संसार की समस्त वस्तुओं में भिन्नता है और वे सदा बदलनेवाली और नष्ट होनेवाली हैं इसलिए इस जगत को मिथ्या या माया कहते हैं |
जब तक कर्म करते हो तब तक काया का अस्तित्व है | शुभ अशुभ कर्मों से वासना उत्पन्न होती है और वासना से कर्मों के फल का भोग भोगनेवाली काया याने देह पैदा होती है , देह बार बार जन्म मरण के चक्कर में पड़ता है | अन्ते मति सा गति | अन्त समय याने मरते वक्त वासनावश जो मति याने बुद्धि होगी वैसा जन्म या वैसी काया या देह प्राप्त होगा |
मन निर्विकल्प होते ही माया का अस्तित्व ख़तम होता है | मन निर्विकल्प होने के लिए ध्यान जरुरी है | ध्यान द्वारा निज स्वरुप में जब तक प्रवेश नहीं होता तब तक मैं और तु , शुभ और अशुभ , भक्त और भगवान , सुख और दुःख ये द्वंद्व बने रहते हैं | ध्यान का अंतिम साध्य समाधि याने निजस्वरूप में स्थिति है और निजस्वरूप में स्थिति होते ही मैं याने देह हूँ , मैं और तु , भक्त और भगवान, चैतन्य और संसार ऐसे द्वंद्व स्वरुप भ्रम या माया ख़त्म हो जाते हैं |
महासिद्ध योगी श्री गोरक्षनाथ उवाच -
स्वामी कौण ध्यान कौण ग्यान कौण मन कौण आसन | ग्यान ध्यान का कहिये भेद गोरख कहै सुणो दत्तदेव || ३३ ||
अर्थात - इस चौपाई में महासिद्ध योगी श्री गोरक्षनाथजी श्री सदगुरु भगवान दत्तात्रेयजी से पूछते हैं - हे दत्तदेव! ध्यान क्या है? ज्ञान क्या है? मन और आसन किसे कहते हैं? ज्ञान और ध्यान का रहस्य क्या है? यह मुझे कृपया समझाएं |
श्री सद्गुरू भगवान दत्तात्रेय उवाच -
अवधू ध्यान सोही ब्रम्हसूं रहै ग्यान सोही जो सब गामी कहै | मन सोही जहँ मनही समान | आपण जाणौ सोही आसन || ३४ ||
अर्थात - इस चौपाई में श्री सद्गुरू भगवान दत्तात्रेय कहते है - हे अवधूत गोरक्षनाथ जिस स्थिति में चित्त ब्रम्हाकार याने स्वरूपमें स्थित हो जाता है उस स्थिति को ध्यान कहते हैं | देखें भगवान पतंजलि ध्यान की व्याख्या क्या करते हैं -
तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानं || २ || पतंजल योगदर्शन , योगसूत्र विभुतिपाद ||
अर्थात - एक विषय की ओर मन का अविच्छिन्न, अखंड, सतत प्रवाह याने ध्यान | तत्वमीमांसा, दर्शन शास्त्रोंसे सोच विचार में उलझ जाता है इन्सान | उससे चैतन्य के प्रति जागरूक होने के लिए कोई मदद नहीं मिलती | वही चैतन्य जो मन में आते जाते भाव, सोच, विचार सब को देख सकता है , मन के सतत बहने वाले प्रवाह को देख सकता है , उसके प्रति मन जागरूक हो जाये, उसका मन द्रष्टा बने, उसमें मन स्थिर हो जाये, फिर उसमें कोई सोच विचार पैदा ना हों उसे ही ध्यान कहते हैं | इस प्रक्रिया के तीन चरण हैं -
पहला चरण है एकाग्रता - मन में जो सोच विचार की भीड़ है उसे एक एक कर गिरा देना और मन को एक विषय पर सिकोड़ लेना याने एकाग्रता | पूरा का पूरा मन एक ही जगह , एक ही विचार पर केन्द्रित कर लेना ही एकाग्रता कॅानसन्ट्रेशन है |
फिर दूसरा चरण है धारणा - धारणा केवल एकाग्रता नहीं है | धारणा याने धारण करने की क्षमता, गर्भ बनने की पात्रता | जब हम प्राणायाम के साथ लयबद्ध हो जाते हैं, तब हममें समग्र को, परमात्मा को, स्वयं को धारण करने की विशेष क्षमता याने तीव्र आकांक्षा प्राप्त होती है | उस समग्र पर, परमात्मा पर याने स्वयं पर मन को अखण्ड सीमित कर देंना सिर्फ उस समग्र की ही आकांक्षा करना और समग्र काही संकल्प करना याने धारणा है |
( समग्र याने समस्त विश्व में भरा चैतन्य या चेतना उसीका अंश हमारे देह में स्थित चैतन्य या चेतना भी समग्र ही हुआ, जो हमारी सांसो की डोरीसे जुड़े होते हैं | हम याने देह नहीं तो इस देह में स्थित वह चैतन्य या चेतना या आत्मा हैं जो मरते वक्त इस देह को छोड़ कर निकल जाती है | हमारे देह में स्थित आत्मा याने चैतन्य या चेतना ही हम स्वयं हैं और वही हमारे लिए परम याने श्रेष्ठ है याने परम आत्मा या परमात्मा है | )
तीसरा चरण है ध्यान - ध्यान याने होश, लक्ष्य, ख्याल | इस देह में स्थित चेतना के प्रति होश पूर्ण होते याने उसकी ओर हमारा लक्ष्य या ख्याल जाते ही उस चेतना की गुणवत्ताएं प्रगट होती हैं और हमारी व्यक्ति गत याने व्यष्टि याने हमारी देह स्थित चेतना समष्टि याने समस्त विश्व में व्याप्त ���ेतना से एकरूप है यह हमें पता चलता है , यही ध्यान है |
जब मन ध्यान का विषय हमारी चेतना से एकरूप हो जाता है अर्थात द्रष्टा, दृश्य और दर्शन जब एक हो जाते हैं, तब न तो कोई देखने वाला बचता है, ना कोई देखे जानेवाला बचता है और न देखने की प्रक्रिया बचती है, अद्भुत शांति और मौन छा जाता है तब उसे समाधि कहते हैं |
जिस स्थिति में सब याने सत्य या समग्र या चेतना के विषय में अबाध गति होती है याने चेतना को समझना आसान होता हैं वह स्थिति ज्ञान है | इसे भगवान पतंजलि ऋतम्भरा प्रज्ञा कहते हैं |
निर्विचार वैशारद्ये अध्यात्म प्रसाद: || ४७ ||
ऋतम्भरा तत्र प्रज्ञा || ४८ ||
|| पातंजल योगसूत्र - समाधिपाद ||
ऋत याने हमारा याने व्यष्टि का और सृष्टि याने समष्टि का अंतरतम अस्तित्व से समस्वरता | समाधिमें निर्विचार अवस्था की परम शुध्दता उपलब्ध होने से, चैतन्य आपूरित होता है -ब्रम्हांड की समस्वरता से, जिसे ऋतम्भरा कहते हैं। तब जो प्रगट होता है उसे आध्यात्मिक प्रसाद कहते हैं | जिस समस्वरता को सम्पूर्ण ब्रम्हांड या सम्पूर्ण अस्तित्व में भरा गहन अदृश्य प्रेम या हार्मोनी कहते हैं | उससे पूर्ण बुद्धि को ऋतम्भरा प्रज्ञा कहते हैं |
मन सोही जहँ मनही समान
अर्थात जो चिंतन और मनन के समान है वह मन | मन याने याने विचारों का संग्रह, जिससे मनुष्य संकल्प और विकल्प करता है | मन के संकल्प विकल्प से ही कर्म होता है | मन को कई जगह चित्त भी कहते हैं पर चित्त मन की गहराई है जहाँ जन्म जन्मान्तर के कर्मों से उत्पन्न राग द्वेष मोह घृणा स्वरुप संस्कार सुप्त अवस्था में पड़े रहते हैं और वे ही फिर से नये कर्मों का बंधन करवाते हैं | और आसानी से समझना हो तो - मन कम्प्यूटर के डेस्कटॉप पर खुली फाइलें हैं तो चित्त उसके हार्ड डिस्क में बंद पड़ी फाइलें हैं |
यहाँ भगवान दत्तात्रेयजी स्वरुप का ज्ञान होने को ही आसन कहते हैं | देखें भगवान गोराक्षनाथजी सिद्धसिद्धान्त पद्धति ग्रंथमें कहते हैं -
आसनमिति स्वस्वरूपे समासन्नता ||
अर्थात स्वस्वरुपमें सम याने स्थिर रहना ही आसन है | देखें गोरक्षनाथजी के कोण आसन कोण विश्राम इस सवाल का जवाब भगवान दत्तात्रेयजी क्या देते हैं ?
अलेख आसन तहाँ विश्राम |
अर्थात - अल्लख याने लक्ष्यातित याने हमारे लक्ष्य से परे जो निरंजन याने कलंक रहित एवं पवित्र परम तत्व है उसमें स्थिति ही आसन है और उस तत्वमें ही विश्राम है | यही आसन के बारे में दुसरे शब्दों में भगवान पतंजलि क्या कहते हैं देखें -
स्थिर सुखम् आसनम् || ४६ ||
प्रयत्नशैथिल्यानन्तसमापत्तिभ्याम् || ४७ ||
ततो द्वन्द्वानभिघातः|| ४८ || || पातंजल योगसूत्र - साधनपाद ||
अर्थात - स्थिर और सुखपूर्वक बैठना आसन है | प्रयत्न की शिथिलता और असीम पर ध्यान से आसन सिद्ध होता है, तब द्वंद्वों से उत्पन्न अशांति की समाप्ति होती है | यहाँ पतंजलि आसन याने कोई व्यायाम नहीं सिखा रहे हैं | शरीर स्थिर और सुख पूर्वक अवस्था में हो, प्रयत्न की शिथिलता याने कोई खींचातानी न हो और असीम याने सीमारहित तत्व, चेतना या परमात्मा पर हमारा ध्यान या लक्ष्य केन्द्रित हो तब आसन सिद्ध होता है |
महासिद्ध योगी श्री गोरक्षनाथ उवाच -
स्वामी कोण मानै कोण जानै ससिहर सूर कोण समि ठाणै | परकास अगोचर का कहिये भेद गोरख कहै सुणो दत्त देव || ३५ ||
अर्थात - इस चौपाई में महासिद्ध योगी श्री गोरक्षनाथजी श्री सदगुरु भगवान दत्तात्रेयजी से पूछते हैं - हे दत्तदेव! माननेवाला कौन और जाननेवाला कौन है? ससिहर याने शाशियर याने चन्द्र और सूर याने सूरज इनसे कौन से स्थान पर नाथ याने स्वामी याने परमात्मा या उसका प्रकाश रहते हैं? उनसे अगोचर प्रकाश याने परम तत्त्व को कैसे जाना जाये इसका रहस्य मुझे बताइये |
श्री सद्गुरू भगवान दत्तात्रेय उवाच -
अवधू मानै सोही परचै जग नाथ न जाणै सोही विषयारत | ससिहर सूर अगोचर बासा सुणो गोरख कहूँ प्रकासा || ३६ ||
अर्थात - इस चौपाई में श्री सद्गुरू भगवान दत्तात्रेय कहते है - हे अवधूत गोरक्षनाथ ! जो मनुष्य अपने मनमें परमतत्व का वैश्विक चेतना का अस्तित्व श्रद्धा पूर्वक मानता है उसेही जगत का परचा होता है याने वाही जगत का सच्चा स्वरुप जान सकता है | जो इन्द्रिय विषयों में आसक्त है याने जो जितेन्द्रिय नहीं वह नाथ याने संसार के स्वामी, जगन्नियंता परमात्मा को नहीं जान सकता | देखें श्रीमद्भगवद्गीता में यही भगवान कृष्ण कहते हैं -
श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्पर: संयतेन्द्रिय: | ज्ञानम् लब्ध्वा परां शांतिमचिरेणाधिगच्छति || ३९/ ४ श्रीमद्भगवद्गीता ||
अर्थात - जो जीतेंन्द्रिय है और जो तत्पर है , साधना में तत्परता से लागा है याने जिसे आलस्य नहीं ऐसा ही व्यक्ति श्रद्धावान हो सकता है | जो जितेन्द्रिय नहीं उसकी इन्द्रियां विषय भोगों की ओर ही जाती हैं | संसार प्रतिक्षण आगे सरक रहा है पल पल वहाँ उत्पत्ति और विनाश है , इसलिए उसे स्वतंत्र सत्ता नहीं है | केवल परमात्मा की सत्तासेही यह संसार, यह जगत सत्तावन दिखता है | इस तरह संसार की स्वतंत्र सत्ता को न मानकर एक परमात्मा की सत्ता को मानना ही श्रद्धा है | श्रद्धा होनेपर तत्काल जगत में व्याप्त परम चैतन्य या चेतना या परमात्मा का ज्ञान हो जाता है और तब परम शान्ति प्राप्त होती है | जो इस परमात्मा में जगत को चलानेवाले चैतन्य में जगन्नियंता के होने में शंका करता है, उसके होने में श्रद्धा याने विश्वास नहीं रखता उसका साधना से पतन हो जाता है | उसके लिए इस भूलोकमें याने पृथ्वीपर और परलोक में सुख नहीं है |
अज्ञश्चाश्रद्धानश्च संशयात्मा विनश्यति | नायं लोको अस्ति न परो न सुखं संशयात्मन: || ४० / ४ श्रीमद्भगवद्गीता ||
ससिहर याने शाशियर याने चन्द्र और सूर याने सूरज इनसे कौन से स्थान पर नाथ याने स्वामी याने परमात्मा या उसका प्रकाश रहते हैं? उनसे अगोचर प्रकाश याने परम तत्त्व को कैसे जाना जाये? इस प्रश्न का उत्तर भगवान दत्तात्रेयजी आगे देते हैं - हे गोरख! ससिहर याने शाशियर याने चन्द्र याने इडा स्वर या नाडी और सूर याने सूरज याने पिंगला स्वर या नाडी इनसे परमात्मा अगोचर हैं | अर्थात - इन स्वर पर परमात्मा का ज्ञान नहीं हो सकता | उन्हें सम कर उसमें याने सुषुम्ना स्वर या नाडी में परम आत्मा के याने निज तत्त्व के ध्यान के लिए बैठने पर ही वह चैतन्य प्रकाश स्वरुप में गोचर होता है, दिखायी देता है |
कभी हमारे बाएँ left नाथुनेंसे सांस चलती है अर्थात कभी हमारा बायाँ स्वर चलता है और कभी हमारे दाएँ right नाथुनेंसे सांस चलती है अर्थात कभी हमारा दायाँ स्वर चलता है | बाएँ स्वर को चन्द्र स्वर या चन्द्र नाडी या इडा नाडी कहते हैं और दाएँ स्वर को सूर्य स्वर या सूर्य नाडी या पिंगला नाडी कहते हैं | जब दोनों नथुनों से साँस चलता है उसे सुषुम्ना स्वर कहते हैं | इस सुषुम्ना स्वर पर जप ध्यान धारणा सफल होते हैं संसार के दुसरे कर्म इस स्वर पर करनेसे नष्ट या विफल हो जाते हैं | यह सुषुम्ना स्वर चालू करने के लिए अनुलोम विलोम प्राणायाम, भस्त्रिका प्राणायाम, कपालभाती प्राणायाम अर्थात रेचन क्रियाएं या कुबड़ी या आधारी का सहारा लिया जाता है | जब इस सुषुम्ना स्वर पर भृकुटी मध्य में दृष्टी स्थिर हो जाती है तब पहले ब्रम्हाण्ड में व्याप्त चेतना की अनाहत ध्वनि सुनाiई देती है और तत्पश्चात भृकुटी मध्य में परम चेतना का प्रकाश दृष्टी गोचर होता है | उसेही त्रिकूट शिखर पर दिखनेवाला कूटस्थ चैतन्य या अंगुष्ठ प्रमाण ज्योति स्वरुप भी कहा जाता है |
महासिद्ध योगी श्री गोरक्षनाथ उवाच -
कोण अगोचर कोण परकास कोण घरि खेलै निरास | कोण सिद्धांका कहीए भेद गोरख कहै सुणो दत्तदेव || ३७ ||
अर्थात - इस चौपाई में महासिद्ध योगी श्री गोरक्षनाथजी श्री सदगुरु भगवान दत्तात्रेयजी से पूछते हैं - हे दत्तदेव ! कौन अगोचर है और कौन परकास याने गोचर है ? कोण घरि याने कौनसी स्थितीमें पहुंचने पर मनुष्य आशा आकांक्षाओं से मुक्त होता है | सिद्धों के स्थान का रहस्य क्या है अर्थात सिद्धोंका स्थान कौनसा है ?
श्री सद्गुरू भगवान दत्तात्रेय उवाच -
अवधू ब्रह्म अगोचर मन परकास परिचय घरी खेलै निरास | परम ज्योति जिहँ सिद्ध गहि रहै गोरख पुछै दत्तात्रेय कहै || ३८ ||
अर्थात - इस चौपाई में श्री सद्गुरू भगवान दत्तात्रेय कहते है - हे अवधूत गोरक्षनाथ ! ब्रम्ह अगोचर है | जिसका प्रकाश हुआ है याने जो गोचर है वह है मन, याने मन प्रगट है | निज तत्व का परिचय होने पर मनुष्यका मन आशा आकांक्षाओं से मुक्त होता है | भृकुटी मध्य जहाँ नाक का जोड़ है जिसे त्रिकुटी शिखर भी कहते हैं, वहाँ जो परम ज्योति का दर्शन होता है उसीमें सिद्ध विलीन हो जाते हैं |
महासिद्ध योगी श्री गोरक्षनाथ उवाच -
स्वामी कोणसूं परिचय कोण प्रतीत कैसे स्थिर चंचल चित्त | मन पवन का कहिये भेद गोरख कहै सुणो दत्त देव || ३९ ||
अर्थात - इस चौपाई में महासिद्ध योगी श्री गोरक्षनाथजी श्री सदगुरु भगवान दत्तात्रेयजी से पूछते हैं - हे दत्तदेव! तत्व का परिचय कौन करवाता है? प्रतीत याने प्रचिती किसे होती है याने कौन तत्व को समझ लेता है और ग्रहण करता है? यह चंचल चित्त स्थिर कैसे होगा? मन और पवन का रहस्य मुझे समझाईये |
श्री सद्गुरू भगवान दत्तात्रेय उवाच -
अवधू गुरु परिचय मन प्रतीत निसचल अस्थिर चंचल चित | पवन थिरन्ता मन स्थिर रहै गोरख पुछै दत्तात्रेय कहै || ४० ||
अर्थात - इस चौपाई में श्री सद्गुरू भगवान दत्तात्रेय कहते है - हे अवधूत गोरक्षनाथ! सद्गुरु शिष्य को तत्व का परिचय करवाते हैं | मन तत्व को समझ लेता है और ग्रहण करता है | अस्थिर चंचल चित्त परम तत्व में निश्चल याने स्थिर होता है | पवन याने वायु स्थिर होते ही मन स्थिर होता है |
देखें गोरक्ष बोध - उत्तर भाग सूत्र में मत्स्येन्द्रनाथजी गोरक्षनाथजी को समझाते हैं -
कथनी मथनी सब है झूठी प्रत्यक्ष देखना आतम द्रिष्टि || ७ || देखत मन उन्मन होवै सद्गुरु मिलै तो तुरंत दिखावै || ८ || गोरक्ष बोध - उत्तर भाग सूत्र ||
अर्थात - कथनी मथनी याने किसीका कहना मानना असत्य है, झूठ है, काल्पनिक है और उससे भ्रम होता है | जिसे देखने से मन उन्मन याने निर्विचार और स्थिर होता है उस आत्म दर्शन याने निज तत्व का दर्शन तो प्रत्यक्ष ही करना चाहिए | सद्गुरुजी के मिलते ही जो इन चर्मचक्षुओं को दृश्य नहीं उस अलक्ष्य और निरंजन याने शुद्ध, कलंक रहित, पवित्र तत्व से शिष्य का परिचय होता है |
देखें सिद्ध सिद्धांत पद्धति में गोराक्षनाथजी कहते हैं -
दुर्लभा सहजावस्था सद्गुरो: करुणां विना ||
अर्थात - सहजावस्था दुर्लभ है | वह सद्गुरुजी की करुणा से ही प्राप्त होती है |
दक्षिणामूर्ति स्तोत्र में सद्गुरु महात्म्य में यही कहा है -
गुरोस्तु मौनं व्याख्यानं शिष्यस्तु छिन्न संशया: || अर्थात - श्री सद्गुरुजी का प्रभाव इतना बड़ा होता है की उनके मौन होने पर भी उनकी कृपा दृष्टी मात्र से शिष्य के सब संशय समाप्त हो जाते हैं |
चित्त स्वभावत: चंचल है, अस्थिर है |
यही श्रीमद्भग्वद्गीतामें अर्जुन भगवान श्रीकृष्णसे पूछते हैं -
चंचलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद् दृढम् | तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम् || ३४ / ०६ - श्रीमद्भग्वद्गीता ||
अर्थात - अर्जुन कहते हैं, हे कृष्ण! मन बड़ा ही चंचल, प्रमाथि याने साधक को अपनी स्थिति से विचलित करनेवाला, बलवद् याने बलवान और दृढ याने जिद्दी है | मनका निग्रह करना याने मनको रोकना आकाशमें स्थित वायु को रोकने की तरह सुदुष्कर याने अत्यंत कठिन है ऐसा मैं मानता हूँ |
तब भगवान कृष्ण कहते हैं -
असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम् | अभ्यासेन तु कौन्तेयं वैराग्येण च गृह्यते || ३५ / ०६ - श्रीमद्भग्वद्गीता ||
अर्थात - हे महाबाहो अर्जुन! यह मन बड़ा चंचल है और उसका दुर्निग्रह याने निग्रह करना बहुत कठिन है इसमें कोई संशय नहीं, परन्तु हे कौन्तेय! अभ्याससे और वैराग्य धारण करनेसे इस मनका निग्रह किया जा सकता है अर्थात उसे रोका जा सकता है |
देखें हठयोग प्रदीपिका में गोरक्षनाथजी कहते हैं -
चले वाते चलं चित्तं, निश्चले निश्चलं भवेत | योगी स्थाणुत्वम् आप्नोति ततो वायुं निरोधयेत् || २.२ - हठयोग प्रदीपिका ||
अर्थात - वायु के चलते याने सांसों से मन चंचल या अस्थिर होता है और वायु के निश्चल याने स्थिर होते ही मन भी स्थिर होता है | तो सांसों से मन में विचार तरंगें और उनसे देहभाव स्वरुप भ्रम पैदा होता है | साँस और मन दोनों ही स्थिर होते ही योगी को स्थाणु याने खम्भे की तरह स्थिरता प्राप्त होती है | इसलिए वायु का निरोध करें याने प्राण का आयाम करें, प्राण को लम्बायें, बहिर्कुम्भक साधें | प्राण वायु की गति ऊर्ध्व होती है और अपान वायु की अधोगति होती है | प्राणों को लम्बाते ही याने दीर्घ बहिर्कुम्भक या केवल कुम्भक साधते ही मन स्थिर होता है | देखें योगबीज ग्रन्थ में गोरक्षनाथजी यही कहते हैं -
चित्तं प्राणेन सन्नद्धं सर्व जीवेषु संस्थितम् | रज्जोर्यद्वत परिबद्धा रज्जो तद्वदिमे मते || योग बीज ||
अर्थात - जैसे रज्जू याने रस्सी रस्सी ही में संव्याप्त होती है अर्थात गुंथी होती है वैसे सब जीवों में चित्त याने मन प्राणों से रस्सिकी तरह संबद्ध होता है |
इसलिए वैराग्य द्वारा याने राग, लोभ, मनो कामनाएँ, द्वेष इनको छोड़कर प्राणों को स्थिर करने की या दीर्घ, लंबा बहिर्कुम्भक करने की कोशिश करें, तब मन या चित्त का भी लय होता है या मन अथवा चित्त स्थिर होता है |
वैराग्य याने राग, लोभ, मनो कामनाएँ, द्वेष इनको छोड़ना यह अर्थ बहुत ऊपर का है, उसके लिए सर्वसंग परित्याग, गेरुआ वस्त्र धारण करना, मनुष्य बसती से दूर जंगल में जाकर रहना वगैरह सिर्फ बाहर का दिखावा होगा | गहरा अर्थ तो साधना से जुडा है | वैराग्य बाहर से नहीं भीतर से होना चाहिए,मन से होना चाहिए | हमारा मन याने हमारे विचार, हमारे संकल्प विकल्प, हमारी धारणाएँ जिनकी सहायता से हम साक्षी नहीं बन पाते | हर चिज को, हर विचार को हम यह भला यह बुरा, हमें यह चाहिए यह नहीं चाहिए ऐसा लेबल लगाते हैं, निर्णय लेते हैं और फिर उनके प्रति आसक्त होते हैं या उनका द्वेष या घृणा करते हैं और अन्तमें उस निर्णय के मुताबिक कर्म कर उस कर्मसे बन्ध जाते हैं | यह पूरी शृंखला गिराने के लिए हमें साक्षीभाव की साधना करनी होगी | हमें साक्षी बनना पड़ेगा हमारे विचारों का | विचारों की जो धारा चित्त में चलती है उसे बगैर कोई निर्णय लिए साक्षी बनकर देखनें मात्र से वे चले जाएंगे , तब वे तुम्हे पकड़ेंगे नहीं | तब भीतर वैराग्य प्राप्त होगा और फिर वायु या प्राणोंको स्थिर करने से उसका आयाम अभ्यास से साधनेसे या बहिर्कुम्भक साधानेसे कुछ लाभ होगा | भीतरी वैराग्य के बगैर प्राणों की साधना कुछ काम न देगी |
महासिद्ध योगी श्री गोरक्षनाथ उवाच -
कोण निसचल ले बंधे बन्ध जरा मरण अजरामर कंध | गगनपद का कहिये भेद गोरख कहै सुणो दत्त देव || ४१ ||
अर्थात - इस चौपाई में महासिद्ध योगी श्री गोरक्षनाथजी श्री सदगुरु भगवान दत्तात्रेयजी से पूछते हैं - हे दत्तदेव ! कौनसे निश्चल से यह देह बंधता है और जरा मरण युक्त यह कंध याने देह अजरामर कैसे होती है ? गगनपद याने परमपद या निरालम्बपद का रहस्य क्या है ? कृपा करके मुझे समझाएं |
श्री सद्गुरू भगवान दत्तात्रेय उवाच -
अवधू निश्चल सोही ज्यूँ न पड़े काया त्रिगुण रहित सो गगन समाया | सहजपद परम निर्वाण सुणो गोरख ये प्रमाण || ४२ ||
अर्थात - इस चौपाई में श्री सद्गुरू भगवान दत्तात्रेय कहते है - हे अवधूत गोरक्षनाथ ! जिसकी काया याने लिंग या आकार न पड़े याने नष्ट न हो वही निश्चल है और वह त्रिगुण रहित है तथा गगनमें समाया हुआ है | वह सहज पद ही परम निर्वाण पद है |
यह जो हमारा देह याने स्थूल शरीर जो है उसे एक आकार है जिसे लिंग कहते हैं जिसके बारे में गुरू गोरखनाथजी गोरखबानी में कहते हैं -
सप्तधात का काया पिंजरा तह माहीं जुगति बिन सुवा | सतगुरु मिलै तो उबरै बाबु नहीं तो परलय हुआ ||
अर्थात - रस, रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा, वीर्य इन सात धातुओं से बना यह शरीर एक पिंजरे समान है | जिसके भीतर बैठे हम तोते समान है, जिसे इस पिंजरे से बहार निकलने की जुगति याने युक्ति या उपाय पता नहीं | व्रत, उपवास, तप, शीर्षासन आदि उपायों से इस पिजरेसे बाहर निकला नहीं जा सकता है | कोई जो बाहर है वोह सतगुरु ही वह द्वार खोल सकता है | अगर सतगुरु मिले तो ही हम उबर सकते हैं, संसार सागर तैर सकते हैं अन्यथा प्रलय याने इस देह के नाश तक हम वाही जप,तप,उपवास,शीर्षासन करते रहेंगे |
यह सतगुरूजी की परीक्षा कैसे करें - यह गोरक्षनाथ जी के गोरखबानी के वचनसे जानेंगे -
कथनी कथै सो शिष्य बोलिये, वेद पढ़े सो नाती | रहणी रहै सो गुरू हमारा, हम रहता का साथी || रहता हमारे गुरु बोलिये, हम रहता के चेला | मन मानै तो संगी फिरै, नहींतर फिरै अकेला ||
अर्थात - जो सिर्फ शास्त्रों में कही और किताबों में पढ़ी बातें कह सुनाता है वोह तो शिष्य है और अभी जो वेद शास्त्र पढ़ रहा है वोह तो नाती याने शिष्य से भी गया गुजरा है | पर जो हमेशा मुलस्तोत्र का स्वाद ले रहा है, हमेशा निजतत्व से एकाकार रहता है, ऐसा सिर्फ बातें न बनाते हुए बातों में बताए स्वरुप में रहता है वोही हमारा गुरु है | तो ऐसा सतगुरु हमें हमारे शरीर में बसे तत्व की पहचान करा देता है | वह तत्व हमारी नांक और दोनों भृकुटियो के जोड़ स्वरुप त्रिकूट शिखर पर ज्योति स्वरुप ज्योति की काया के रूप में स्थिर स्थित है जिसे ज्योति लिंग या कूटस्थ चैतन्य भी कहते हैं | वह परम ज्योति बिन बाती बिन तेल के जल रही है और वह सहज याने हमारे जन्म के साथही हमारे इस देह के साथ निश्छल याने स्थिर है | इसलिए उसे सहज पद भी कहते है | उस ज्योतिर्लिंग ज्योति स्वरुप काया को जरा याने बुढ़ापा और मरण याने मृत्यु या विनाश नहीं है | वह सत्व, रज, तम स्वरुप तिन गुणोंसे रहित है और गगन याने हमारे मस्तिश्काकाश में स्थित है | उस सहजपद में याने हमारे जन्म के साथ हमारे इस तनमें स्थित हमारे उस स्वरुप में स्थिर होना ही परम निर्वाण है, मनसे मुक्ति के बाद बचा सदा मुक्त परम याने श्रेष्ठ निर्वाण पद है |
महासिद्ध योगी श्री गोरक्षनाथ उवाच -
स्वामी कोण सकती कोण सिव कोण तिन भवन का जिव | कोण आस पूरै ताका कहिये भेद गोरख कहै सुणो दत्तदेव || ४३ ||
अर्थात - इस चौपाई में महासिद्ध योगी श्री गोरक्षनाथजी श्री सदगुरु भगवान दत्तात्रेयजी से पूछते हैं - हे स्वामी दत्तदेव ! शक्ति कौन और शिव कौन है ? तिन भवन का जिव कौन है ? उस जिव की आशा कौन पूरी करता है ? कृपा करके मुझे समझाएं |
श्री सद्गुरू भगवान दत्तात्रेय उवाच -
अवधू सकती सोही जो सबहीं सोखै सिव सोही जो सबको पोसै जिव ही तिन भुवन जगन्नाथ संग सोही पूरै आस || ४४ ||
अर्थात - इस चौपाई में श्री सद्गुरू भगवान दत्तात्रेय कहते है - जो सबका शोषण करती है वह शक्ति कहलाती ही और जो सबका पोषण करता है उसे शिव कहते हैं | तीनों भुवन के स्वामी जगन्नाथ याने समष्टि परमात्मा ही हर देहमें बसकर व्यष्टि जिव बनाते हैं | इस तरह सत्संग से जीवात्मा और परमात्मा में भेद नहीं ऐसा समझमें आनेसे जो ज्ञान प्राप्त होता है उसीसे आशा पूरी होती हैं |
सिद्धसिद्धान्त पद्धातिमें शिव शक्ति के बारे में गोरखनाथजी कहते हैं -
शिवस्याभ्यंतरे शक्ति: शक्तेरभ्यंतर: शिव: | अन्तरं नैव जानीयात् चन्द्र चन्द्रिकायोरिव ||
अर्थात - जैसे चन्द्र और उसकी चन्द्रिका या उसका प्रकाश अलग नहीं वैसेही शिव याने कल्याण करनेवाला परम तत्त्व और उसके भीतर की शक्ति में भेद नहीं | चाहे शिव में शक्ति बसी है कहो चाहे शक्ति शिव है कहो |
देखें शिव को पूनम या पौर्णिमा कहते हैं और शक्ति को अमावस या अमावस्या कहते हैं | जैसे अमावस तक चन्द्र की कलाओं का शोषण होता है वैसे ही शक्ति सबका शोषण करती है | जैसे चन्द्र की कलाओं की पोषण स्वरुप वृद्धि पूनम को पूर्ण होती है वैसे ही शिव सबका पोषण करते हैं |
जिसका संकोच और विकास होता है उसे चितरुपा शक्ति कहते हैं | इस शक्ति से युक्त शिव पूर्ण है, नित्य शुद्ध, बुद्ध और मुक्त हैं | शक्ति से युक्त शिव कर्तुम् अकर्तुम् अन्यथाकर्तुम् सामर्थ्यवान हैं | व्यवहार में समझने के हेतु शिव और शक्ति भिन्न कहे और पूजे जाते हैं पर अध्यात्म की दृष्टी से दोनों सम्बद्ध हैं | तीनों भुवन के याने समस्त जगत के नाथ याने स्वामी जगन्नाथ समस्त जगत का कल्याण करनेवाले शिव समग्र सृष्टि के भूतमात्रमें याने सृष्टि के समस्त प्राणीयोंमें या समस्त जीवोंमें विद्यमान हैं | इसीलिए तो उन्हें भूतनाथ कहते हैं |
यही जीवन्मुक्त गीता में कहा है -
जीव: शिव: सर्वमेव भुतेश्वेवेवं व्यवस्थित: ||
अर्थात सर्व भूतोंमें याने प्राणीमात्र में व्यवस्थित याने विद्यमान शिव ही जिव हैं | सत्संग से जीवात्मा और परमात्मा में भेद नहीं ऐसा समझकर जो ज्ञान प्राप्त होता है उसीसे आशा पूरी होती हैं | कौनसी आशा ? देखें राष्ट्रसंत तुकडोजी महाराज के शब्दों में -
मज नाहीं कुणाची आशा एका जगादिशा वाचोनी |
अर्थात - जगदीश याने जगत के स्वामी , परम आत्मा , परम तत्व को जानने के सिवा मुझे कोई आशा याने इच्छा नहीं | यह इच्छा सत्संगसे जीवात्मा और परमात्मा में भेद नहीं ऐसा समझमें आनेसे जो ज्ञान प्राप्त होता है उसीसे ही पूरी होती है |
महासिद्ध योगी श्री गोरक्षनाथ उवाच -
स्वामी कोण कथा लै कथिबा ग्यान कोण तत लै धरिबा ध्यान | कोण समाधि तुम्ह लागै गोरख कहै सुणो दत्त देव || ४५ ||
अर्थात - इस चौपाई में महासिद्ध योगी श्री गोरक्षनाथजी श्री सदगुरु भगवान दत्तात्रेयजी से पूछते हैं - हे स्वामी दत्तदेव ! कोण कथा लै याने किसका आधार लेकर ज्ञान हुवा कहते हैं, याने ज्ञान किसे कहते हैं?किसके अवलम्बनसे किसके आधार से ध्यान धरना है ? आप कौनसी समाधिमें मगन रहते हैं?
श्री सद्गुरू भगवान दत्तात्रेय उवाच -
अवधू आत्मा चेतन्ते कथिबा ग्यान परमतत विचारि धरिबा ध्यान | दत्त कहै हम सहज समाध सुणो गोरख पद निरबाण || ४६ ||
अर्थात - इस चौपाई में श्री सद्गुरू भगवान दत्तात्रेय कहते है - आत्मा चेतन्ते याने आत्मा का परिचय ही ज्ञान कहलाता है | परम तत्व के विचार के आधार से ध्यान धरें | दत्तात्रेय भगवान् कहते हैं हम सहज समाधिमें मगन रहते हैं | उसेही निर्वाण पद कहते हैं | आत्मसाक्षात्कार याने निजतत्व की सिर्फ एक झलक है और आत्म परिचय ही पूर्ण ज्ञान है | एक झलक याने एक मुलकात म���ं हम व्यक्ति पहचान तो लेंगे पर उसके बारे में जादा कुछ बता न पाएंगे | पर उससे बातचीत, उठना बैठना होने पर ही उससे नजदिकी हो पाएगी | वैसे ही निजतत्व की झलक से उसके बारे में हमारे मनमें बहोत से विकल्प बने रहते हैं | निज तत्व की सिर्फ झलक याने नाम मात्र की समाधि-सूक्ष्म और शुद्ध मन वाली समाधि को भगवान् पतंजलि ' सम्प्रज्ञात समाधि ' कहते हैं | यह समाधि वितर्क, विचारणा, आनंद और अस्मिता के भाव से युक्त होती है | बगैर ध्येय या रुख का तर्क सीधा तर्क, निषेधात्मक रुखवाला तर्क है कुतर्क और विधायक रुखवाला तर्क सम्यक तर्क है वितर्क |
समग्र जागरूकता के साथ उठ खड़े होते ही जो प्रत्युत्तर प्राप्त होता है जिसे विचारशीलता या विचारणा कहते हैं |
अस्मिता याने द्वैत या किसी और के विरुद्ध होनेकी अनुभूति रहित स्वयं का होना याने अहंकार विहीन स्वयं का होना, हूँ पन की अनुभूति | पर जब उससे घनिष्ट परिचय होता है तब सब विकल्प गिर जाते हैं, तब उसके बारे में हुए परिचय को,अनुभूति को, निजतत्व और वैश्विक परम तत्व में अभेद जानने को ज्ञान कहते हैं |
तब फिर उस परम याने श्रेष्ठ निज तत्व को आधार बनाकर उसकी ओर हमारा ध्यान याने लक्ष्य या होश करना चाहिए | यह जो सहज याने जन्म के सह याने जन्म के साथ हमारे देह में बसे निज तत्व में बालक के समान सरल बनकर सभी पाण्डित्य, चतुराई छोड़कर, आधि याने हमारी तृष्णा आशा आकांक्षाओं में सम रहकर, रमण करना ही सहज समाधि है | इस अमन की समाधि को जिसमें कोई विचार न बचे हों, जिसमें मन की शुद्धता भी तिरोहित हो उसे भगवान् पतंजलि ' असम्प्रज्ञात समाधि ' कहते है | श्रद्धा, वीर्य, स्मृति एकाग्रता और प्रज्ञा से इस समाधि को योगीजन उपलब्ध होतें हैं | विश्वास याने बाहर से माँ बाप समाज से मिला अँधा विश्वास या मान्यताएं है | पर श्रद्धा व्यक्तिगत अनुभूति से स्वयं के विकसित होने से प्राप्त होती है | श्रद्धा अंध नहीं होती वह अनुभूति से आती है | श्रद्धा विद्रोह है | तथा कथित हिन्दू, मुस्लिम, इसाई, जैन, बौद्ध ये सभी धर्म विश्वास पर आधारित होतें हैं | परन्तु अध्यात्मिक होना, स्वभाव को जानने की कोशिश करते रहना याने धार्मिक होना - श्रद्धा में होना है | विश्वास टूट भी सकता है | व्यक्तिगत अनुभूति याने श्रद्धा टूटती नहीं |
विश्वास विवाह की तरह होता है | श्रद्धा जो जाती भेद को नहीं जानता ऐसे प्रेम की भांति होती है |
विश्वास याने धर्म में तुम्हारा पैदा होना है और श्रद्धा याने तुम में धर्म पैदा होना है |
वीर्य याने समग्र उर्जा युक्त प्रयास |
स्मृति याने आत्मस्मरण |
एकाग्रता याने आत्मतत्व के प्रति जागरुक होना |
विवेक युक्त याने बोध पूर्ण जागरूकता याने प्रज्ञा | उसी सहज समाधि में हम याने भगवान् दत्तात्रेय समरस रहते हैं और उस निज तत्व को ही परम पद याने प्राप्त करने लायक श्रेष्ठ पद या निर्वाण पद अर्थात जिसके आगे निवृत्ति है, प्राप्त करने को कुछ बचता नहीं ऐसा पद कहते हैं |
महासिद्ध योगी श्री गोरक्षनाथ उवाच -
स्वामी कौन तत तुम रहौ समाई कौन तत तुम मधे आई | कौन परिचय तुम्ह कहिये भेद गोरख कहै सुणो दत्त देव || ४७ ||
अर्थात - इस चौपाई में महासिद्ध योगी श्री गोरक्षनाथजी श्री सदगुरु भगवान दत्तात्रेयजी से पूछते हैं - हे स्वामी दत्तदेव! आप कौनसे तत्व में समाधिस्थ रहते हैं? आप के भीतर कौनसा तत्व समाया हुआ है | आपको किसका परिचय हुआ है? क्रिपा कर के मुझे इनका भेद याने राज बताइये |
श्री सद्गुरू भगवान दत्तात्रेय उवाच -
अवधू दत्त जू लागा तत्त सो तत्त दत्त ही माहिं | दत्त तत्त परिचय भया तब दूजा कहणा नाहिं || ४८ ||
अर्थात - इस चौपाई में श्री सद्गुरू भगवान दत्तात्रेय कहते है - हे अवधूत गोरखनाथ! दत्त जिस तत्व में समाधिस्थ रहते हैं वही तत्व दत्त के अन्तर में है | एकबार दत्त तत्व का परिचय होने के बाद कहने लायक दूजा कुछ बचता ही नहीं | ४६ वी चौपाई में भगवान दत्तात्रेय कहते हैं - दत्त कहै हम सहज समाध | तब गोरखनाथजी और अधिक जानने के लिए ४७ वी चौपाई में पुछते हैं - स्वामी कौन तत तुम रहौ समाई अर्थात हे दत्त स्वामी आप सहज समाधि में कौनसे तत्व में समाधिस्थ रहते हो? तब भगवान दत्तात्रेय कहते हैं - दत्त जिस तत्व में समाधिस्थ रहते हैं वह उनके अन्तर में ही है | उनकी समाधि स्वभाव याने निजतत्व सिद्ध है | यहाँ वे यही जताते हैं की जब दत्तात्रेय निज अन्तर में याने उनके देह के भीतर जो निज तत्व है उसीमें समाधिस्थ होते हैं तब द्रष्टा दत्त और दृश्य निज तत्व भिन्न नहीं रह जाते | हमारे निज तत्व से परिचित होकर उसमें समरस होने के बाद फिर कहने को कुछ बचता ही नहीं क्योंकि देखने और कहने वाला ही बचता नहीं |
महासिद्ध योगी श्री गोरक्षनाथ उवाच -
स्वामी तुमही दत्त तुमही देव आद मध्य अन्ते तुम्ही जाण्यो भेद | तुमही नारायण तुमही किरपाल तुमही सकल बिस्व के पाल || ४९ ||
अर्थात - इस चौपाई में महासिद्ध योगी श्री गोरक्षनाथजी श्री सदगुरु भगवान दत्तात्रेयजी से कहते हैं - हे स्वामी आपही दत्त याने परम निजसत्ता हो और आपही देव याने दिव्य हो | आपही जगत के आदि मध्य और अंत हो | अब मुझे आपके रहस्य का पता चल चूका है | आपही नारायण याने परम नर - परम पुरुष हो, आपही क्रिपानिधान हो | आप ही सकल विश्व के पालन कर्ता हो | अर्थात यहाँ गोरखनाथजी भगवान दत्तात्रेय का गुणगान स्तवन कर रहे हैं |
श्री सद्गुरू भगवान दत्तात्रेय उवाच -
स्वामी तुमेव गोरख तुमेव रछिपाल अनन्त सिद्धां माहिं तुमही भू पाल | तुमही स्वयंभू नाथ निरवाण प्रणव दत्त गोरख प्रणाम || ५० ||
अर्थात - इस चौपाई में श्री सद्गुरू भगवान दत्तात्रेय महासिद्ध गोरक्षनाथजी का अभेद भावनासे गुणगान करते हुए कहते हैं - हे स्वामी आपही गो नाम इन्द्रियों के रक्षक तत्व गोरक्ष हो | अनंत सिद्धों में आपही भू याने धरती स्वरुप काया के रक्षक सम्राट भूपाल हो | आपही स्वयंभू नाथ याने स्वामी हो | जन्म देनेवाले माता पिता होते हैं पर जगत के स्वामी परमतत्व और उसके अंश देह के स्वामी निजतत्व स्वयंभू हैं अर्थात उन्हें किसीने पैदा नहीं किया | इस तरह प्रणव याने ओंकार स्वरुप हे गोरख दत्तात्रेय का प्रणाम स्वीकार करें |
महासिद्ध योगी श्री गोरक्षनाथ उवाच -
स्वामी दरसण तुम्हरा देव आदि अन्ते मधे पाया भेद | गोरख भणई दत्त प्रणाम भोग जोग परम निधान || ५१ ||
अर्थात - इस चौपाई में महासिद्ध गोरक्षनाथजीनें पूछी हुई समस्त शंकाओं का भगवान दत्तात्रेयजी ने समाधान करने पर संतुष्ट हो कर गोरक्षनाथजी फिर से एक बार भगवान दत्तात्रेयजी को प्रणाम वंदना करते हैं और कहते हैं हे स्वामी! दत्त देव मुझे आपके स्वरुप का दर्शन हुआ और आपके जगत के आदि मध्य अंत होने का रहस्य भी पता चला | आप ही भोग और जोग याने योग दोनों के आधार याने परम आश्रय हो | दत्तात्रेय वज्र कवच में यही कहा है देखें -
कदा योगी कदा भोगी कदा नग्न पिशाचवत् | दत्तात्रेयो हरि: साक्षात् भुक्ति मुक्ति प्रदायक: ||
हे दत्त प्रभु आपसे भणई याने यह सब सिखकर जानकार मैं धन्य हुआ, कृतकृत्य हुआ मुझ गोरक्ष का प्रणाम स्वीकार करें |
ग्यानदीप बोध ग्रन्थ जोग सास्त्र पढन्ते हरन्ते पापं श्रुत्वा मुक्ति लभन्ते | जोगारम्भे भवन्ते सिद्धां आवागमन निवरतन्ते || ५२ || इति दत्त गोरक्ष संवादे ज्ञान दीप बोध, योग शास्त्रं सम्पूर्णं | ॐ नमो सिवाये ॐ नमो सिवाये | गुरू मछिन्द्र पादुकाय नमोस्तुते ||
अर्थात - यह चौपाई इस महान ग्रन्थ की फलश्रुति बताती है | इस चौपाई में महासिद्ध गुरु गोरक्षनाथजी नाथ सम्प्रदाय के आराध्य भगवान शिवजी और उनके गुरू मत्स्येन्द्रनाथजी की पादुकाओं को नमन याने प्रणाम कर कहते हैं - यह ज्ञानदीप बोध ग्रन्थ योगशास्त्र का ग्रन्थ है, जिसे पढ़ने से सभी पापों का नाश होता है और सुनाने से मुक्ति का लाभ होता है | इस योग का आरंभ करने से सिद्धत्व प्राप्त होता है और इस जगत में आवागमन का याने पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननी जठरे शयनं का, जन्म मरण का, चक्कर ख़त्म होता है |
- कल्याणमस्तु -
( क्रमशः )
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