Thursday, 19 October 2017

गोरख योग

All World Gayatri Pariwar 🔍 PAGE TITLES September 1961 महायोगी गोरखनाथ और उनका योग-मार्ग ( श्री0 कल्याणचन्द्र ) महात्मा गोरखनाथ अपने समय के एक बहुत प्रसिद्ध योगी हो गये हैं। वैसे योनाभ्यास करने वालों की भारतवर्ष में कभी कमी नहीं रही, अब भी हजारों योगविद्या के जानकर और अभ्यासी इस देश में मिल सकते हैं, पर गोरखनाथ योगविद्या के बहुत बड़े आचार्य और सिद्ध थे और अपनी शक्ति द्वारा बड़े-बड़े असंभव समझे जाने वाले कामों को भी कर सकते थे। गोरखनाथ का समय खोज करने वाले विद्वानों के-विक्रम संवत् 1100 के लगभग माना है। कहा जाता है कि एक बार उनके भावी गुरु मत्स्येन्द्रनाथ फिरते-फिरते अयोध्या के पास “जयश्री” नाम के नगर में पहुँचे। वहाँ एक ब्राह्मणी के घर जाकर भिक्षा माँगी ओर उसने बड़े आदर सम्मान से उनको भिक्षा दी। ब्राह्मणी का भक्तिभाव देखकर मत्स्येन्द्र नाथ बड़े प्रसन्न हुये और उसके चेहरे पर उदासीनता का चिह्न देखकर कारण पूछने लगे। ब्राह्मणी ने बतलाया कि उसके कोई सन्तान नहीं है, इसी से वह उदासीन रहती हैं। यह सुन योगीराज ने अपनी झोली से जरा-सी भभूत निकाली और उसे देकर कहा कि “इसको खा लेना, तेरे पुत्र हो जायेगा।" उनके चले जाने पर उसने इस बात की चर्चा एक पड़ोसिन से कीं। पड़ोसिन ने कहा “कहीं इसके खाने से कोई नुकसान न हो जाय?" इस बात से डरकर भभूत नहीं खाई ओर गोओं के बाँधने के स्थान के निकट एक गोबर के गड्ढे में उसे फेंक दिया। इस बात को बारह वर्ष बीत गए ओर एक दिन मत्स्येन्द्रनाथ फेरी लगाते उस ब्राह्मणी के यहाँ पहुँचे। उन्होंने उसके द्वार पर ‘अलख’ जगाया। जब ब्राह्मणी बाहर आई तो उन्होंने पूछा-अब तो तेरा पुत्र 12 वर्ष का हो गया होगा, देखूँ तो वह कैसा हे यह सुनकर वह स्त्री घबड़ा गई और डर कर उसने समस्त घटना उनको सुना दी। मत्स्येन्द्रनाथ ने भभूत को फेंकने का स्थान पूछा ओर वहाँ जाकर “अलख” की ध्वनि की। उसे सुनते ही एक बारह वर्ष का तेजपुत्र बालक बाहर निकल आया ओर उसने योगीराज के चरणों में मस्तक नवाया। यही बालक आगे चलकर “गोरखनाथ” के नाम से प्रसिद्ध हुआ। मत्स्येन्द्रनाथ ने उसे शिष्य बना कर योग की पूरी शिक्षा दी। गोरखनाथ ने गुरु की शिक्षा से और स्वानुभव से भी योग-मार्ग में बहुत अधिक उन्नति की और उसमें हर प्रकार से पारंगत हो गए। लोगों की तो धारणा है कि योग की सिद्धि के प्रभाव से उन्होंने “अमर स्थिति” प्राप्त की थी और आज भी वे कभी किसी भाग्यशाली को दर्शन दे जाते हैं। अनेक विद्वानों का मत है कि गोरखनाथ ने भारतीय संस्कृति के संरक्षण में बहुत अधिक सहयोग दिया है और शंकराचार्य और तुलसीदास के मध्यकाल में इतना प्रभावशाली और महिमान्वित व्यक्ति भारत वर्ष में, कोई नहीं हुआ था। उनके विषय में गोरक्ष-विजय ग्रन्थ में लिखा है- ए बलिया जतिनाथ आसन वरिल। लंग महालंग दुई संहति लाईल ॥ आसन करिया नाथ शून्ये केल भरा साचन उड़अ जेन गगन ऊपर आडे-आडे चहे नाथ शून्धे भर करि। “गोरखनाथ योगासन लगाकर आकाश मार्ग में पहुँच गए और बाज़ की तरह उड़ते हुए एक देश से दूसरे देश को जाने लगे।” बंगाल के राजा गोपीचन्द की माता मथनावती गोरखनाथ की शिष्या थी और योग साधन तथा तपस्या द्वारा महान् ज्ञान की अधिकारिणी बन गई थी। उसने अपनी विद्या के बल से देखा कि उसके पुत्र के भाग्य में थोड़ी ही अवस्था लिखी है और वह उन्नीस वर्ष की अवस्था में ही मर जायेगा। इससे बचने का एक मात्र उपाय है कि वह किसी महान् योगी से दीक्षा लेकर योग साधन करके मृत्यु पर विजय प्राप्त करे। इस लिये उसने जालंघरनाथ से गोपी चन्द को योग-मार्ग का शिक्षा दिला कर इसे उस कोटि का योगी बनाया। गोरखनाथ योग-विद्या के आचार्य थे। वर्तमान समय में जो हठ योग विशेष रूप से प्रचलित है उसका उन्होंने अपने अनुयायियों में बहुत प्रचार किया और उनके लिए गुप्त शारीरिक तथा मानसिक शक्तियों का मार्ग खोल दिया। इस सम्बन्ध में उन्होंने गोरख-संहिता “गोरख विजय “ अम-राधे शासन” “ काया बोध” आदि बहुत से ग्रंथ रचे थे जिनमें से कुछ अब भी प्राप्त है। उन्होंने स्पष्ट कहा है कि अगर तुम शरीर ओर मन पर अधिकार प्राप्त करना चाहते हो तो इसका एक मात्र यही मार्ग हैं। यदि मनुष्य सोचे कि वह धन सम्पत्ति द्वारा समस्त अभिलाषाओं को पूरा कर लेगा अथवा जड़ी-बूटी रसायनों की सहायता से शरीर को सुरक्षित रख सकेगा तो यह उसका भ्रम है- सोनै रुपै सीझै काल। तौ कत राजा छाँड़े राज-जड़ी-बूटी भूले मत कोई। पहली राँड वैद की होई॥ अमर होने का उपायनों योग का पंथ ही है जिसमें अमृत प्राप्त करने का मार्ग बतलाया गया है- गगन मंडल में औंधा कुँवा, तहाँ अमृत का वासा। सगुरा होइ सुभर-भर पीया, निगुरा जाय पियासा॥ शून्य गगन अथवा मनुष्य के ब्रह्म रंध्र में औंधे मुँह का अमृत कूप है, जिसमें से बराबर अमृत निकलता रहता है। जो व्यक्ति सतगुरु के उपदेश से इस अमृत का उपयोग करना जान लेता है वह अक्षरामर हो जाता है, और जो बिना गुरु से विधि सीखे केवल मन के लड्डू खाया करता है, उसका अमृत सूर्य तत्व द्वारा सोख लिया जाता है और वह साधारण मनुष्य की तरह आधि-व्याधि का ही शिकार बना रहता है। योग द्वारा इस अमृत को प्राप्त करने का सर्व प्रथम उपाय ब्रह्मचर्य-साधन या वीर्य-रक्षा (बिन्दु की साधना) है - व्यंदहि जोग, व्यंद ही भोग। व्यंदहि हरै जे चौंसठि रोग॥ या व्यंद का कोई जाणै भेव। से आपै करता आपै देव॥ बिन्दु (वीर्य) का रहस्य समझकर उसकी पूर्ण रूप से रक्षा करने पर मनुष्य सर्व शक्तिशाली और देव स्वरूप बन जाता है। इस प्रकार का साधन कर लेने से मनुष्य स्वयं शक्ति और शिव स्वरूप हो जाता है, और उसे तीनों लोक का ज्ञान प्राप्त हो जाता है- यहु मन सकती यहु मन सीव। यहु मन पंच तत्व का क्षीव॥ यहु मन लै जो उन्मन रहै। तौ तीनों लोक की बाथैं कहै॥ गोरखनाथ का मत समन्वयवादी है। वे स्वयं बाल योगी थे और यह भी कहते थे कि जो वास्तव में योग में सिद्धि प्राप्त करना चाहता है उसे युवावस्था में ही कामदेव को वश करना चाहिये। पर वह अन्य कितने साधना-मार्गों की तरह शरीर को अनावश्यक कष्ट देने, दिखावटी तपस्या करने के पक्ष में नहीं थे। उनका कहना था- देव-कला ते संजाम रहिबा-भूत-काल आहार। मन पवन ले उनमन धरिया। ते जोगी ततसारं॥ “साधक को देव-कला (आध्यात्मिक मार्ग) पर चल कर आत्म शक्ति प्राप्त करनी चाहिये और भूत-कला पार्थिव-विधि से आहार की व्यवस्था करनी चाहिये ऐसा करने पर ही वह योगाभ्यास में सफलता प्राप्त कर सकेगा।” इस प्रकार साधना मार्ग में अग्रसर होते रहने पर अंग में साधक “निष्पत्ति” अवस्था में पहुँच जाता है, जिससे उसकी समदृष्टि की जाती है, राग द्वेष का अन्त हो जाता है, साँसारिक माया-मोह सर्वथा नष्ट हो जाते हैं और वह काल से भी छूट कर जीवनमुक्त हो जाता है- निसपति जोगी जाणिवा कैसा। अगनी पाणी लोहा जैसा॥ राजा परजा सम कर देख। तब जानिवा जोगी निसपति का भैख॥ गोरखनाथ की अध्यात्म ज्ञान सम्बन्धी अनेक बाते प्राप्त होती हैं जिनकी भाषा काल-के साथ बहुत बदल गई है। उनमें से कुछ कबीर की उलटवांसियों की तरह हैं। यहाँ पर उनमें से कुछ ही नमूने के तौर पर दी जा रही हैं। वाणी वाणी रे मेरे सत गुरु की वाणी, जोती परणवी बापे मुआ घर आनी॥1॥ खीला दूझे रे मारे भैस विलौवै। सासुजी परण श्री बहु झुलावै॥2॥ खेत पक्यौ तो रखवाण कूँ बाँधौ॥3॥ नीचे हाँड़ी ऊपर चूल्हौ चढियों। जल में की मछली बगुलाकू निगालियो॥4॥ आभ परसे रे जीम बरसे। नेवानाँ नीर मोभेज चड़शे॥5॥ बाबा बोल्या रे मछन्दर को पूत। छाँड़ी ममता औ भयो अवधूत॥6॥ अर्थात् “सतगुरु कहते हैं कि गोरखनाथ जब माया रूपिणी नारी के संपर्क में आया तब वह जीवित थी, पर उसने माया को वशीभूत करके उसे मृत (नष्ट) कर दिया॥ 2॥ पहले तो माया रूपी भैंस संसारी सुख रूप दूध देती थी, जिससे उसका मान होता था। पर जब साधना द्वारा उसका आवरण अलग कर दिया तो उलटी स्थिति हो गई । तब भैंस को बाँध रखने वाला खोला (खूँटा) तो अपार्थिव आनन्द रूपी दूध देने लगा और माया रूपी भैंस ज्ञान की दासी बनकर उस दूध को बिलोने लगी जिसके द्वारा ब्रह्मानन्द रूपी मक्खन प्राप्त हुआ। माया सास है और मानवीय इच्छा बहु है। यही इच्छा माया का पालन करती है (अर्थात् उसे पालने में झुलाती है)॥ 2॥ मनुष्य के काया रूपी खेत में साधन रूपी खेती की जाती है और परिवक हो जाती है तब वह अहंकार को खा जाती है (नष्ट कर देती है)। इसी प्रकार काम-क्रोध रूपी पारधी (शिकारी) पहले मन शिकार करता रहता है अर्थात् उससे इच्छानुसार अनुचित कार्य कराता है। पर जब मन जागृत हो जाता है, साधना में सफलता प्राप्त कर लेता वह उल्टा इस शिकारी को ही बाँध लेता है॥ 3॥ पहले कुंडलिनी शक्ति रूप हाँडी नीचे (नाभिकमल) में सुप्त अवस्था में पड़ी थी, पर जब वह जागृत होकर चैतन्य हो गई तो ऊपर चढ़ती गई। पहले मन रूपी मछली को माया रूपी बगला खाता रहता था, जब मन अपने स्वरूप को समझ कर सावधान हो गया तो वह उल्टा माया को ही निगलने लग गया॥4॥ आरम्भ में मिथ्या जगत रूपी आकाश क्षणिक आनन्द की वर्षा करता था, पर जब (परब्रह्म का) ज्ञान हृदय रूपी धरती पर जागृत हुआ तो भूमि तो वर्षा करने लगी और आत्मा स्पर्श करने लगा, इस प्रकार यह जल ऊपर की तरफ चढ़ने लगा। इसका आशय यह कि पहले माया का प्रभाव अधोगामी था पर कुण्डलिनी शक्ति के जागृत होने से साधना उध्र्वगामी होने लग गई॥5॥ मत्स्येन्द्रनाथ नाथ का पुत्र (शिष्य) गोरखनाथ कहता है कि अब में ममता माया-मोह को त्याग कर अवधूत हो गया हूँ ॥6॥” इस प्रकार गोरखनाथजी ने एक अगम-अगोचर परमात्मा की अनुभूति का मार्ग दिखलाकर लोगों में फैले अनेक भ्रांत मतों का निराकरण किया और साधना की एक ऐसी स्पष्ट विधि बतलाई जिससे साधारण जन भी आत्मोन्नति के उच्च शिखर पर पहुँच सकते हैं। gurukulamFacebookTwitterGoogle+TelegramWhatsApp Months January February March April May June July August September October November December अखंड ज्योति कहानियाँ त्यागी तपस्वी को राज दरबार से क्या मतलब पाप सबके सामने प्रकट करो (kahani) श्रद्धा और प्रतिष्ठा (kahani) श्रेय पथ पर चल सका (kahani) See More 18_Oct_2017_1_6705.jpg More About Gayatri Pariwar Gayatri Pariwar is a living model of a futuristic society, being guided by principles of human unity and equality. It's a modern adoption of the age old wisdom of Vedic Rishis, who practiced and propagated the philosophy of Vasudhaiva Kutumbakam. Founded by saint, reformer, writer, philosopher, spiritual guide and visionary Yug Rishi Pandit Shriram Sharma Acharya this mission has emerged as a mass movement for Transformation of Era. Contact Us Address: All World Gayatri Pariwar Shantikunj, Haridwar India Centres Contacts Abroad Contacts Phone: +91-1334-260602 Email:shantikunj@awgp.org Subscribe for Daily Messages

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