Tuesday, 24 October 2017
क्षत्रिय
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क्षत्रिय
क्षत्रिय[1] (पाली रूप : क्खत्रिय), (बांग्ला रुप:ক্ষত্রিয়), क्षत्र, राजन्य - ये चारों शब्द सामान्यतः हिंदू समाज के द्वितीय वर्ण और जाति के अर्थ में व्यवहृत होते हैं किंतु विशिष्ठ एतिहासिक अथवा सामाजिक प्रसंग मे पारिपाश्वों से संबंध होने के कारण इनके अपने विशेष अर्थ और ध्वनियाँ हैं। 'क्षेत्र' का अर्थ मूलतः 'वीर्य' अथवा 'परित्राण शक्ति' था।[2] किंतु बाद में यह शब्द उस वर्ग को अभिहित करने लगा जो शास्त्रास्त्रों के द्वारा अन्य वर्णों का परिरक्षण करता था।[3] वेदों तथा ब्राह्मणों में क्षत्रीय शब्द राजवर्ग के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है जातकों[4] और रामायण, महाभारत में [5] क्षत्रीय शब्द से सामंत वर्ग और अनेक युद्धरत जन अभिहित हुए हैं।
संस्कृत शब्द "क्षत्रिय" वैदिक समाज के सदस्यों के एक वर्ग के लिए प्रयुक्त होता था, जहाँ पूरा समाज ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र नामक चार वर्गों में विभक्त था।[6] स्मृतियों में कुछ युद्धपरक जनजातियाँ जैसे कि किरात, द्रविड़, आभीर, सबर, मालव, सिवी, त्रिगर्त, यौद्धेय, खस तथा तंगण आदि, व्रात्य क्षत्रीय वर्ग के अंतर्गत अनुसूचित की गई।[7]
पारंपरिक रूप से शासक व सैनिक क्षत्रिय वर्ग का हिस्सा होते थे, जिनका कार्य युद्ध काल में समाज की रक्षा हेतु युद्ध करना व शांति काल में सुशासन प्रदान करना था। पाली भाषा में "खत्रिय" क्षत्रिय शब्द का पर्याय है।[8]
उत्पत्ति संपादित करें
प्रारंभिक ऋगवेदिक आदिम जाति मुख्यधारा संपादित करें
ऋग्वैदिक कालीन शासन प्रणाली में सम्पूर्ण कबीले का प्रमुख "राजन" कहलाता था व राजन की पदवी वंशानुगत नहीं होती थी। कबीले की समिति जिसमें महिलाएं भी भागीदार होती थीं, राजा का सर्व सहमति से चयन करती थी। कबीले के जन व पशुधन (गाय) की रक्षा करना राजन का कर्तव्य था। राजपुरोहित राजन का सहयोगी होता था। प्रारंभिक दौर में अलग से कोई सेना नहीं होती थी परंतु कालांतर में शासक व सैनिकों के एक पृथक वर्ग का उदय हुआ। उस समय समाज के चार वर्णों में विभाजन की प्रणाली नहीं थी।[9]
उत्तर वैदिक काल संपादित करें
ऋग्वेद के "पुरुषसूक्त" में चार वर्णों के पौराणिक इतिहास का वर्णन है। कुछ विद्वान पुरुषसूक्त को ऋग्वेद में अंतःप्रकाशित मानते हैं, जो कि वैदिक साहित्य की मूल संरचना के मुक़ाबले नवीन तर्कों पर ज्यादा आधारित है। चूंकि वैदिक समाज के वर्णों में सभी भारतीय जातियों का उल्लेख नहीं है[10] अर्थात पुरुष सूक्त को वंशानुगत जाति व्यवस्था की वकालत हेतु लिखा गया था। वैकल्पिक व्याख्या यह भी है कि पुरुषसूक्त के अलावा ऋग्वेद में अन्य कहीं भी "शूद्र" शब्द का प्रयोग ही नहीं हुआ है, अतः कुछ विद्वानों का मानना है कि पुरुष सुक्त उत्तर- ऋग्वैदिक काल का एक संयोजन था, जो एक दमनकारी और शोषक वर्ग संरचना को पहले से ही अस्तित्व में होने को निरूपित व वैध बनाने हेतु लिखा गया था.[11]
हालांकि, पुरुषसूक्त में "क्षत्रिय" शब्द प्रयुक्त नहीं हुआ है, "राजन" शब्द हुआ है, फिर भी वैदिक ग्रंथावली में यह पहला अवसर माना जाता है जहाँ समाज के चारों वर्ण एक समय में व एक साथ प्रयुक्त हुये हैं।[12] "राजन्य" शब्द का प्रयोग संभवतः उस समय राजा के संबधियों हेतु प्रयुक्त हुआ माना जाता है, जबकि यह समाज के एक विशिष्ट वर्ग के रूप में स्थापित हो चुके थे। वैदिक काल के अंतिम चरणों "राजन्य" शब्द को "क्षत्रिय" शब्द से प्रतिस्थापित कर दिया गया, जहाँ "राजन्य" शब्द राजा से संबंध होना इंगित करता है तथा "क्षत्रिय" शब्द किसी विशेष क्षेत्र पर शक्ति प्रभाव या नियंत्रण को।[12] "राजन्य" शब्द प्रमुख रूप से एक ही वंशावली के तहत प्रमुख स्थान को प्रदर्शित करता है जबकि "क्षत्रिय" शब्द शासन या शासक को।[13]
जयसवाल का तर्क है कि ऋग्वेद में "ब्राह्मण" शब्द भी दुर्लभ प्रतीत होता है, यह सिर्फ "पुरुषसूक्त" में ही आया है तथा संभवतः पुरोहित वर्ग विशेष के लिए नहीं प्रयुक्त हुआ है।[12] पाणिनी, पतंजलि, कात्यायन व महाभारत के आधार पर जयसवाल मानते हैं कि राजनैतिक वर्ग को राजन्य नाम से संबोधित किया जाता था तथा राजन्य लोकतान्त्रिक रूप से चुने हुये शासक थे।[14] लोकतान्त्रिक प्रक्रिया से चुने हुये शासक जैसे कि अंधक व वृष्णि इत्यादि इस संदर्भ में उदाहरण माने जाते हैं।[12]
राम शरण शर्मा दर्शाते हैं कि "राजन्य (राज सहयोगी वर्ग)" व "विस (वंश का कृषक वर्ग)" के मध्य बढ़ते हुये ध्रुवीकरण के उपरांत कैसे विभिन्न वंश प्रमुखों द्वारा एक सर्वमान्य मुखिया का चयन होता था जिसके फलस्वरूप एक तरफ शासक वर्ग (राजा, राजन्य, क्षत्र, क्षत्रिय) तथा दूसरी तरफ "विस" (उसी वंश के कृषक) जैसे पृथक वर्गों का विभेदीकरण उत्पन्न होता गया।[15]
Gautama Buddha was born into a kshatriya family.
क्षत्रिय शब्द का उद्गम "क्षत्र" से है जिसका अर्थ लौकिक प्राधिकरण और शक्ति है, इसका संबंध युद्ध में सफल नेता से कम तथा एक क्षेत्र पर संप्रभुता का दावा करने की मूर्त शक्ति पर अधिक है। यह आनुवांशिक कबीले की भूमि पर स्वामित्व का प्रतीक है।[16]
सामाजिक स्थिति संपादित करें
ब्राह्मण काल में क्षत्रियों की सामाजिक स्थिति पर मतभेद है। "पंचविंश ब्राह्मण (13,4,7)" के अनुसार राजन्य का स्थान सर्वोच्च है तथा ब्राह्मण व वैश्य उससे नीचे की श्रेणी में हैं। "शतपथ ब्राह्मण 13.8.3.11" के अनुसार ब्राह्मण राजन्य के बाद दूसरे क्रम पर आते हैं। शतपथ ब्राह्मण में वर्ण क्रम -राजन्य, ब्राह्मण, वैश्य व शूद्र है। वर्तमान ब्राह्मणवादी परंपरा का क्रम - ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र, धर्मशास्त्र काल के बाद स्थिर हो गया।[17] बौद्ध काल में प्रायः क्षत्रिय उत्कृष्ट वर्ग माना गया।[18] हिन्दू समाज में क्षत्रिय व ब्राह्मण के मध्य प्रधानता को लेकर प्रतिद्वंद रहा है परंतु क्षत्रिय वर्ग को ही उच्चतम वर्ण की मान्यता प्राप्त है।[18]
सन्दर्भ संपादित करें
↑ Editors, The. "Kshatriya | Hindu caste" ((अंग्रेजी) में). Britannica.com. https://www.britannica.com/topic/Kshatriya. अभिगमन तिथि: 2017-05-09.
↑ ऋग्वेद,१,१५७,२
↑ ('क्षतात्किल त्रायत इत्युदग्र, रघुवंश)
↑ रीज़ डेविड्स, बुधिस्ट इंडिया, पृ. ५२, डायलाग्स् ऑव द बुद्ध, १.पृ. ९५
↑ हाप्किंस, जरनल ऑव अमेरीकन औरियंटल सोसाइटी, १३, पृ. ७३
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संवाद
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