Tuesday, 7 November 2017

नित्या-नित्य वस्तु विवेक :इहामुत्र फल भोग विराग :

।।दीक्षा प्राप्ति हेतु गुरू की शरण में उपस्थितहोना।।

शास्त्रों में उल्लेख किया गया है कि जिज्ञासु व्यक्तिको शिष्यत्व ग्रहण (दीक्षा प्राप्ति) करने हेतु श्रीगुरू के समक्ष उपस्थित होने से पहले सतत्अभ्यास करते हुए विभिन्न आघ्यात्मिक विचारोंएवं भावनाओं को हृदंयगम करना पड़ता है। इसविषय पर वेदान्त सूत्र का प्रथम सूत्र 'अथातो ब्रह्मजिज्ञासा' स्पष्ट रूप से बताता है कि अब इसकेपश्चात् ब्रह्म को जानने की जिज्ञासा (इच्छा)उत्पन्न होती है। जिन भावनाओं को हृदयंगम एवंअंगीकृत करने के पश्चात् ब्रह्मजिज्ञासा की पात्रताउत्पन्न होती है उनमें से प्रमुख है:-

(1)  नित्या-नित्य वस्तु विवेक : इस संसार मेंकौन सी वस्तु नित्य (अमर) है और कोन सी वस्तुअनित्य (क्षणभंगुर/अस्थिर)। ब्रह्म (आत्मा) नित्यहै। माया (संसार) अनित्य है।

(2)  इहामुत्र फल भोग विराग : यह ज्ञात होजाना कि न केवल पृथ्वीलोक वरन् स्वर्गादिउच्चलोकों के समस्त भोगेश्वर्य क्षणिक हैं। इनकेप्रति वैराग्य भाव  उत्पन्न हो जाना है।

(3) शम-दमादि 6-प्रकार की साधन-सम्पत्तिको अर्जित कर लेना :

इस विषय पर योग के 8 अंग नामक शीर्षक केअन्तर्गत पूर्व में लिखा गया है।

(4) मोक्ष प्राप्ति की प्रबल इच्छा जागृत करलेना :

यह संकल्प कर लेना कि इसी दुर्लभ मनुष्य जन्ममें ही अपने वास्तविक स्वरूप (आत्मलाभ) कोपहचान लेना है।

श्री गुरू सान्निध्य-प्राप्ति एवं ब्रह्मविद्या उपदेश कीआध्यात्मिक प्रणाली सृष्टि के आरम्भकाल से हीअनवरत चलती आ रही है। प्राचीनकाल मेंत्रिकालज्ञ गुरू (ऋषि, मुनि, सन्त) आश्रमों मेंरहकर, तपश्चर्या में संलग्न रहते थे। उस समयजिज्ञासु व्यक्ति दीक्षाप्राप्ति हेतु अपने हाथों मेंसमिधा (यज्ञ हेतु काष्ठादि) लेकर अत्यन्त विनम्रहोकर तथा हाथ जोड़कर किसी श्रोत्रिय तथाब्रह्मनिष्ठ गुरू की शरण में जाता था औरब्रह्मविद्या की याचना करता था।

''स गुरू मेवाभिगच्छेत्, समित्पाणि, श्रोत्रिय,ब्रह्मनिष्ठ:'' तब गुरूदेव उस शिष्य के समस्तलक्षणों तथा योग्यता का विचार करके उसेब्रह्मविद्या का उपदेश देते थे।

इस विषय पर आदिशंकराचार्य ने निर्देश दिया हैकि

''गुरू मेवाचार्य शम दमादि सम्पन्न मभिगच्छेत्

शास्त्रज्ञोपि स्वतंत्रेण-ब्रह्मज्ञानान्वेषणं न कुर्यात्''

(शिष्य को शम-दमादि गुणों से सम्पन्न होकर हीगुरूदेव के पास जाना चाहिए। शास्त्रों का ज्ञानप्राप्त करने के पश्चात भी शिष्य को ब्रह्मज्ञान कीमनमानी खोज नहीं करनी चाहिए।)

श्री वासुदेवानन्द सरस्वती अपने वेदान्त ग्रन्थ मेंसत्गुरू की शरण में जाने के विषय पर कहते हैं :-

''विशारदं ब्रह्मनिष्ठं-श्रोत्रियं गुरू माश्रयेत्''

(शिष्य को ऐसे गुरू की शरण में जाना चाहिए जोशब्द-ब्रह्म को जानने वाला हो तथा ब्रह्म-शाक्षात्कार करा सकने की क्षमता रखता हो।)                          🌹🌹🌹🌹श्री सीताराम गौ सेवा धाम🌹🌹🌹🌹

No comments:

Post a Comment