Thursday, 9 November 2017
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श्री अरविन्द की सावित्री-गायत्री: कुछ संदर्भ, अशोक ‘मनीष’
‘तत्’ शब्द - 4 (Post-35)
#924 by Ashok Srivastava published on Tuesday, May 26th 2015, 3:10:00 am
तत् कहते हैं ‘उस’ या ‘वह’ को। तत् शब्द किसी की ओर संकेत करने के अर्थ में प्रयुक्त होता है- गायत्री में यह शब्द परमात्मा को संकेत करता है। परमात्मा की ओर ध्यान आकर्षित करता है। केवल संकेत मात्र इसलिए किया गया है कि परमात्मा के विषय में जितना जो वर्णन किया जाता है वह पूर्ण नहीं वरन् सर्वथा अपूर्ण है। कोई भी परमात्मा का वर्णन चाहे वह कितने ही विस्तार से क्यों न किया हो अपूर्ण ही रहेगा, क्योंकि उसकी महिमा मानव बुद्धि की सीमा के बाहर है, यह सब वर्णन केवल मात्र परमात्मा की ओर एक संकेत मात्र है, जैसे उँगली का इशारा करके किसी दूरस्थ वस्तु को दिखाते हैं कि देखो वह वस्तु कहाँ है।....... वह परमात्मा कैसा है उसका ज्ञान शब्द, रुप, रस, गन्ध, स्पर्श की पञ्चभौतिक तन्मात्राओं से नहीं वरन् देखने वालों की अन्तरात्मा द्वारा ही हो सकता है। आत्मा जब परमात्मा के समीप पहुँचता है तभी उसे उसका रुप प्रतीत होता है। भाषा और लिपि की असमर्थता को, सीमितता को ध्यान में रखते हुए गायत्री ने परमात्मा को ‘तत्’ शब्द से अँगुली निर्देश किया है।...
नीचे के प्रमाणों में ‘तत्’ शब्द ईश्वर के लिये प्रयुक्त हुआ है। इससे जाना जा सकता है कि यहाँ ‘तत्’ शब्द का संकेत ईश्वर की ओर है-
तच्छब्देन प्रत्यग्भूतं स्वतः सिद्धं परं ब्रह्योच्यते।
-शङ्कर भाष्य
‘तत्’ शब्द से प्रत्यक्ष तथा स्वतः सिद्ध ब्रह्म कहा जाता है।
तदति अव्ययं परोक्षार्थे।
-संध्या भाष्य
‘तत्’ शब्द परोक्षार्थ में अव्ययवाची है। परोक्षार्थ में उसे कहते हैं जो दृष्टिगोचर न हो।
तच्छब्दः स्वबुद्धिभेदकृतः अतिदूरतमे
अत्युत्कर्षाख्येऽर्थे वर्तते।
-विष्णु भाष्य
‘तत्’ शब्द बुद्धिकृत अर्थ से अति दूर और अति श्रेष्ठ अर्थ वाला है।
ओं तत्सदिति निर्देशो ब्रह्मस्त्रिविध स्मृतः।
-गीता अ० १७/३
‘ॐ तत् सत्’ ये तीन ब्रह्म नाम परब्रह्म के कहे गये हैं अतः तत् ब्रह्मस्वरुप हैं।
तत्, तस्य सर्वाषु श्रुतिषु प्रसिद्ध।
‘तत्’ उसका नाम है, जो समस्त श्रुतियों में प्रसिद्ध है।
तदित्यनभिसन्ध्याय फलं यज्ञ तपः क्रियाः।
दानक्रियाश्च विविधाः क्रियन्ते मोक्षकांक्षिभिः।
यज्ञ, तप, दान, इत्यादिक क्रियाओं के फल की आशा से रहित हो ‘तत्’ पदार्थ परमात्मा को लक्ष्य करके मुमुक्षुगण कार्य करते हैं।
तद़्बुद्धयस्तदात्मानस्तन्निष्ठास्तत्परायणः।
गच्छत्यपुनरावृत्तिं ज्ञाननिधूर्त कल्मषाः।।
-गीता अ० ५/१७
‘तत्’ अर्थात् इस परमात्मा के रुप में जिसकी बुद्धि, आत्मा, प्रतिष्ठा और परायणता है वह ज्ञान द्वारा पाप रहित हुआ मनुष्य परम गति को प्राप्त होता है।
तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञान ज्ञानिनस्तत्वदर्शिनः।।
-गीता अ० ४/३४
‘तत्’ अर्थात् उस ईश्वरीय ज्ञान का, प्रणाम, प्रश्न तथा सेवा द्वारा ज्ञान। वे ज्ञानीजन तुझे उस ज्ञान का उपदेश करेंगे।
गायत्री मन्त्र ‘तत्’ शब्द से प्रारम्भ होता है। इस प्रारम्भिक शब्द में ईश्वर की ओर संकेत किया गया है, ताकि इस परब्रह्म परमात्मा की सर्वव्यापकता को ध्यान में रखकर साधक उसी प्रकार बुराईयों से बचे जैसे पुलिस को सामने खड़े देखकर चोर को भी दुष्कर्म करने का साहस नहीं होता। उस परमात्मा को इसलिए भी याद रखना आवश्यक है कि प्रत्येक जड़ चेतन के साथ सद़्भावना पूर्ण सद़्व्यवहार करने का साधक को ध्यान रहे। तत् (उस) परमात्मा की ओर गायत्री के प्रथम पद में इसलिये संकेत किया है।
Link: www.gayatri.awgp.org
(Updated on:- Wednesday, June 10th 2015, 3:17:31 pm)
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