Thursday, 13 July 2017

प्राण-विद्या

 All World Gayatri Pariwar  Allow hindi Typing 🔍 PAGE TITLES October 1968 शक्ति एवं सन्देश सञ्चार की प्राण-विद्या राजा दिवोदास के पुत्र प्रतर्दन को एक बार स्वर्ग डडडड देखने की इच्छा हुई। पिता की आज्ञा लेकर वे स्वर्ग गये। प्रतर्दन के पुरुषार्थ और रण-चातुर्य से- इन्द्र अत्यन्त प्रभावित थे। उन्होंने प्रतर्दन का आदर-सत्कार किया और कहा- ‘‘मैं आपको क्या वर दूँ?” प्रतर्दन ने कहा- ‘‘भगवन्! मैं धन-धान्य, प्रजा-पुत्र, यश-वैभव-सब प्रकार से परिपूर्ण हूँ। आपसे क्या माँगू मुझे कुछ नहीं चाहिये।” इन्द्र विहँस कर बोले- ‘‘वत्स, यह मैं जानता हूँ कि पुरुषार्थी व्यक्ति को संसार में कोई अभाव नहीं रहता। अपने सुख-समृद्धि के साधन वह आप जुटा लेता है तो भी उसे विश्व-हित की कामना करनी चाहिये। लोक-सेवा के पुण्य से बढ़कर पृथ्वी में और कोई सुयश नहीं तुम उससे ब्रह्म को प्राप्त होंगे। इसलिये मैं तुम्हें लोक का कल्याण करने वाली प्राण विद्या सिखाता हूँ।” इसके बाद इन्द्र ने प्रतर्दन को प्राण तत्व का उपदेश दिया। उन्होंने कहा- ‘‘प्राण की ब्रह्म है। साधनाओं द्वारा योगी, ऋषि-मुनि अपनी आत्मा में प्राण धारण करते और उससे विश्व का कल्याण करते हैं।” ‘कौषीतकि ब्राह्मणोपनिषद्’ के दूसरे अध्याय में भगवान् इन्द्र ने प्रतर्दन को यह प्राण विद्या सिखाई है, उसका बड़ा ही मार्मिक एवं महत्त्वपूर्ण उल्लेख है। इसी संदर्भ में इन्द्र ने, एक व्यक्ति अपनी असीम प्राण-शक्ति को दूसरों तक कैसे पहुँचाता है, प्राण-शक्ति के माध्यम से दूसरों तक अंतःप्रेरणायें और विचार किस तरह पहुँचाता है, इस रहस्य का उद्घाटन करते हुए बताया है- अथ खलु तस्मा देतमेदोक्य मुपासीत। यो वै प्राणः सा प्रज्ञा या वा प्रज्ञा स प्राणः- स यदा प्रतिबुध्यते यथ ऽग्नेर्विस्फुलिंग। विप्रतिष्ठन्ते प्राणेभ्यो देवा देवेभ्यो लोका। अर्थात्- जब मन विचार करता है, तब अन्य सभी प्राण उसके सहयोगी होकर विचारवान् हो जाते हैं, नेत्र किसी वस्तु को देखने लगते हैं तो अन्य प्राण उनका अनुसरण करते हैं। वाणी जब कुछ कहती है, तब अन्य प्राण उसके सहायक होते हैं। मुख्य प्राण के कार्य में अन्य प्राणों का पूर्ण सहयोग होता है। अन्यत्र श्लोक में बताया है कि मन सहित सभी इन्द्रियों को निष्क्रिय करके आत्म-शक्ति (संकल्प-शक्ति) को प्राणों में मिला देते हैं। ऐसा पुरुष ‘दैवी परिमर’ का ज्ञाता होता है। वह अपनी प्राण-शक्ति से किसी को भी प्रभावित और प्रेरित कर सकता है। उसके संदेश को कहीं भी सुना और हृदयंगम किया जा सकता है। उसके प्राणों में अपने प्राण जागृत कर सकते हैं। जिस पुरुष को दैवी परिमर का ज्ञान होता है। उसकी आज्ञा को पर्वत भी अमान्य नहीं कर सकते। उससे द्वेष रखने वाले सर्वथा नष्ट हो जाते हैं। इसी उपनिषद् में यह भी निर्देश है कि जब पिता को अपने अन्तकाल का निश्चय हो जाय तो पुत्र (अथवा गुरु, शिष्य या शिष्यों) में अपनी प्राण-शक्ति को प्रतिष्ठित कर दे। वह वाक् प्राण, धारण, चक्षु, क्षोभ, गतिशक्ति, बुद्धि आदि प्रदान करें और पुत्र उसे ग्रहण करे। इसके बाद पिता या गुरु संन्यासी होकर चला जाये और पुत्र या शिष्य उसका उत्तराधिकारी हो जाये। प्राचीनकाल में यह परम्परा आधुनिक सशक्त यन्त्रों की बेतार-के-तार की भाँति प्रचलित थी। प्राण विद्या के ज्ञाता गुरु अपने प्राण देकर शिष्यों के व्यक्तित्व और उनकी क्षमतायें बढ़ाया करते थे। इसी कारण श्रद्धा विनत होकर लोग ऋषि आश्रमों में जाया करते थे। ऋषि अपने प्राण देकर उन्हें तेजस्वी, मेधावान् और पुरुषार्थी बनाया करते थे। महर्षि धौम्य ने आरुणी को, गौतम ने जाबालि को, इन्द्र ने अर्जुन को, यम ने नचिकेता को, शुक्राचार्य ने कच का इसी तरह उच्च स्थिति में पहुँचाया था। योग्य गुरुओं द्वारा यह परम्परायें, अब भी चलती रहती हैं। परमहंस स्वामी रामकृष्ण ने विवेकानन्द को शक्तिपात किया था। स्वामी विवेकानन्द ने सिस्टर निवेदित में प्राण प्रत्यार्पित किये थे। महर्षि अरविन्द ने प्राण शक्ति द्वारा ही सन्देश भेजकर पाँडिचेरी आश्रम की संचालिका मदिति-सह भारत-माता की सम्पादिका ‘श्री यज्ञ शिखा पां’ को पेरिस से बुलाया था और उन्हें योग विद्या देकर भारतीय दर्शन का निष्णात बनाया था। कहते हैं जब राम वनवास में थे, तब लक्ष्मण अपने तेजस्वी प्राणों का संचालन करके प्रत्येक दिन की स्थिति के समाचार अपना धर्मपत्नी उर्मिला तक पहुँचा देते थे। उर्मिला उन सन्देशों को चित्रबद्ध करके रघुवंश परिवार में प्रसारित कर दिया करती थी और बेतार-के-तार की तरह के सन्देश सबको मिल जाया करते थे। अनुसुइया आश्रम में अकेली थीं। भगवान् ब्रह्मा, विष्णु और महेश वेष बदलकर परीक्षार्थ आश्रम में पहुँचे। अत्रि मुनि बाहर थे। उन्होंने ही भगवान् के त्रिकाल रूप को पहचाना था और वह गुप्त सन्देश अनुसुइया को प्राण-शक्ति द्वारा ही प्रेषित किया था। ऐसी कथा-गाथाओं से सारा हिन्दू-शास्त्र भरा पड़ा है। आज का विज्ञान सुखी समाज इन उपाख्यानों की तर्क की दृष्टि से देखता है। लोग शक और सन्देह करते हैं, कहते हैं, ऐसा भी कहीं सम्भव है कि एक मनुष्य दूसरे मनुष्य को बिना किसी उपकरण या माध्यम के सन्देश पहुँचा सके। यदि विचारपूर्वक देखें तो विज्ञान भी इसकी पुष्टि ही करेगा। बेतार-के-तार के सिद्धान्त को कौन नहीं जानता? शब्द को विद्युत तरंगों में बदल देते हैं। यह विद्युत तरंगें ईथर तत्त्व में धारायें बनकर प्रवाहित होती हैं। ट्रान्समीटर जितना शक्तिशाली होता है, विद्युत तरंगें उतनी ही दूर तक दरदराती चली जाती हैं। उसी फ्रीक्वेंसी में लगे हुये दूसरे वायरलेस या रेडियो उन ध्वनि तरंगों को पकड़ते हैं और पुनः शब्दों में बदल देते हैं, जिससे वे पास बैठे हुए लोगों को सुनाई देने लगती हैं। अब इस बात में तो कोई अविश्वास कर ही नहीं सकता। जो बात बोली जाती है, वह पहले विचार रूप में आती है, अर्थात् विचारों का अस्तित्व संसार में विद्यमान है। ऊपर के श्लोक में बताया गया है कि मन या विचार शक्ति प्राण में मिल जाती है तो सभी प्राण उसके सहायक हो जाते हैं, अर्थात् प्राणों के माध्यम से अपने शरीर की संपूर्ण चेतना को जिसमें हाव-भाव, क्रिया-कलाप, विचार भावनायें सम्मिलित होती हैं, किसी भी दूरस्थ व्यक्ति तक पहुँचाया जा सकता है। 19 जुलाई 1964 धर्मयुग के पेज 20 में श्री अजीतकृष्ण वसु ने अपने जीवन की एक घटना का उल्लेख किया है। वे लिखते हैं- ‘‘हमारे एक मित्र के घर पार्टी थी। उसमें हमारे अनेक मित्र सम्मिलित थे। हमारे साथ एक जादूगर भी थे। संयोगवश टेलीपैथी पर बात चल पड़ी। गृहस्वामी ने बताया कि उनका टेलीपैथी में कोई विश्वास नहीं। एक साथी ने कहा कि भाई दूर बैठे व्यक्ति को केवल मानसिक शक्ति द्वारा ही संदेश दिया जा सकता है, उन्होंने ईथर में तरंगों वाली बात भी बताई तो भी कोई उसे मानने को तैयार न हुआ। इसी बची जादूगर मित्र ने कहा- क्यों न प्रत्यक्ष देख लिया जाये कि विचार संचालन और प्रेषण संभव है क्या? उसके लिये सब लोग तैयार हो गये। पहला प्रयोग गृहस्वामी और उक्त मित्र ने किया जो काफी दिनों से विचार प्रेषण का अभ्यास कर रहे थे। उन्होंने अपने प्रयोग के लिये अपना एक साथी भी चुना था पर वे उस समय उपस्थित न थे। जादूगर ने कहा- ‘‘मैं अपने मन में एक रंग निश्चित करूंगा, फिर संकल्प द्वारा उसे मन-ही-मन में तुम्हें बताऊँगा। मेरा प्रसारण इतना तीव्र होगा कि तुम्हारे मन में भी उसी रंग का नाम और छाया-चित्र आयेगा।” इसके बाद उन्होंने एक चिट में कुछ लिखा और उसे एक मित्र की जेब में डाल दिया। दोनों व्यक्ति 50 गज के फासले पर बैठे। जादूगर ने ध्यान-मग्न होकर सन्देश भेजा। इसके बाद गृहस्वामी से पूछा गया तुम्हारे मन में कौन-सा रंग आया तो उन्होंने कहा- ‘‘हरा” इसके बाद वह चिट निकालकर देखी गई तो लोग आश्चर्य चकित रह गये कि उसमें भी ‘हरा’ ही लिखा है। इतने पर भी गृहस्वामी सन्तुष्ट न हुये उन्होंने कहा- ‘‘संयोग से ही ऐसा हुआ।” इस पर जादूगर ने कहा- ‘‘अब आप लोग मुझे कोई भी गिनती दीजिये। मैं उसे अपने ‘प्रयोग वाले मित्र’ को प्रेषित करूंगा, आप फोन पर पता लगाइये, वह घर हैं या नहीं।” संयोग से वह घर पर ही थे। 9 की संख्या दी गई। इधर जादूगर ने ध्यान मग्न होकर अपने मित्र को वह संख्या विचार संचालन द्वारा मन-ही-मन सुनाई। जब वे उठ बैठे तो फोन से पूछा गया, आपने कौन-सी संख्या सुनी तो उधर से उत्तर आया- ऐसा लगता है 9 की संख्या भेजी गई है। इस पर सभी लोग दंग रह गये और उपस्थित सभी व्यक्तियों ने यह मान लिया कि विचार संचालन विद्या गलत नहीं है। एक ही समय में परस्पर उन्मुख या याद करते हुए व्यक्ति को चलते-फिरते कितनी ही दूरी पर प्राण प्रेषित करने का एक उदाहरण मालवीय जी के परिवार में घटित हुआ। “एक दिन स्वर्गीय मदनमोहन मालवीय जी के पुत्र श्री गोविन्द मालवीय एकाएक बेचैन हो उठे। सर्दी के दिन थे पर उनका शरीर एकाएक आग की तरह गर्म हो उठा। बहुत जाँच की गई पर पता न चला ऐसा क्यों हो रहा है? रात के नौ बजे तक उनकी बेचैनी बढ़ती ही गई।” मालवीय जी की धर्मपत्नी इलाहाबाद में थीं। रात नौ बजे यहाँ से टेलीफोन गया और तब पता चला कि वे (श्री गोविंद मालवीय की माताजी) आग सेंकते हुये बुरी तरह जल गई हैं। दादी जी उन्हें बहुत प्यार करती थीं। इसलिये जलने के बाद से ही वे बराबर इन्हीं का ध्यान करती रहीं। उनकी मृत्यु भी तभी हुई जब श्री गोविन्द मालवीय प्रयाग आ गये। जैसे ही उनकी मृत्यु हुई उनकी जलन और बुखार एकदम समाप्त हो गया। इस घटना से यह पुष्टि होती है कि तीव्र स्मृति किंवा ध्यान के माध्यम से अपने समीपवर्ती वातावरण तक चित्रण किया जा सकता है। अंग्रेज आविष्कारक चार्ल्स बैवेज ने इसी सिद्धान्त के आधार पर एक यन्त्र बनाने का भी प्रयत्न किया, जिसमें कोई ऐसा ‘क्रिस्टल’ फिट किया जा सके, जिससे स्वेच्छा से मनुष्य के मस्तिष्क की तरह ही काम लिया जा सके। उन्होंने एक यंत्र बनाया भी उसका नाम ‘इलेक्ट्रानिक’ या यान्त्रिक मस्तिष्क रखा गया। यद्यपि वह स्मरण शक्ति वाला प्रयोग तो सफल नहीं कर सके पर विचारों की मस्तिष्क में सूक्ष्म कार्य-विधि को अच्छी प्रकार समझा सके। यह यंत्र जोड़ बाकी के छोटे-छोटे प्रश्नों का उत्तर तत्काल गणना करके दे देता था, उससे यह सिद्ध होता था कि यदि मस्तिष्क के तमाम यंत्रों का पूर्ण विश्लेषण प्राप्त किया जा सके तो ऐसी मशीन भी बनाना सम्भव हो सकता है, जिससे दूरवर्ती प्रसारणों को ही नहीं पूर्व जन्मों एवं अतीतकाल की स्मृतियों को भी रिकार्ड किया जा सकता है। वैसा तो तभी सम्भव है, जब कोई बिल्कुल मनुष्य शरीर के कलेवर जैसा ही शरीर बन सके पर अध्यात्म विज्ञान में ऐसी सम्भावनायें बहुत अधिक हैं, जिनसे यंत्रों की क्षमता को और भी अधिक सूक्ष्म और प्रभावशाली ढंग से अन्तरंग शरीर द्वारा किया जा सके। जो ऐसी विद्यायें जानते हैं, वह दूर के सन्देश प्राप्त भी कर सकते हैं और लोगों को दे भी सकते हैं। यह तब ध्यान और प्राण विद्या के छोटे-छोटे चमत्कार हैं। उसकी संपूर्ण और अगाध जानकारी तो किन्हीं योग और साधना-निष्ठ व्यक्तियों को होती है। ऐसे महापुरुष का सान्निध्य उनके समीप्य और ध्यान का लाभ उठाव कोई प्राणवान बन सकता है। gurukulamFacebookTwitterGoogle+TelegramWhatsApp Months January February March April May June July August September October November December अखंड ज्योति कहानियाँ समस्त मानवीय गलतियाँ अहंकार से उत्पन्न होती हैं आत्मज्ञान की प्राप्ति अनुवादकों का योगदान (kahani) आन्तरिक वरिष्ठता (Kahani) See More    12_July_2017_1_6233.jpg More About Gayatri Pariwar Gayatri Pariwar is a living model of a futuristic society, being guided by principles of human unity and equality. It's a modern adoption of the age old wisdom of Vedic Rishis, who practiced and propagated the philosophy of Vasudhaiva Kutumbakam. Founded by saint, reformer, writer, philosopher, spiritual guide and visionary Yug Rishi Pandit Shriram Sharma Acharya this mission has emerged as a mass movement for Transformation of Era.               Contact Us Address: All World Gayatri Pariwar Shantikunj, Haridwar India Centres Contacts Abroad Contacts Phone: +91-1334-260602 Email:shantikunj@awgp.org Subscribe for Daily Messages   Fatal error: Call to a member function isOutdated() on a non-object in /home/shravan/www/literature.awgp.org.v3/vidhata/theams/gayatri/magazine_version_mobile.php on line 551

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