Thursday, 19 October 2017
श्रीवल्लभाचार्य
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श्रीवल्लभाचार्य
May 9, 2013
भक्तिकालीन सगुणधाराकी कृष्णभक्ति शाखाके आधारस्तंभ तथा पुष्टिमार्गके प्रणेता श्रीवल्लभाचार्यजीका जन्म संवत १५३५, वैशाख कृष्ण एकादशीके दिन काशीके निकट दक्षिण भारतके कांकरवाडग्रामवासी तैलंग ब्राह्मण श्रीलक्ष्मणभट्टजीकी पत्नी इलम्मागारूकी कोखसे हुआ । उन्हें वैश्वनरावतार (अग्निका अवतार) कहा गया है । वे वेदशास्त्रोंमें प्रवीण थे ।
दीक्षा
श्रीरुद्रसंप्रदायके श्रीविल्वमंगलाचार्यजी द्वारा उन्हें अष्टदशाक्षर गोपालमंत्रकी दीक्षा दी गई । त्रिदंड संन्यासकी दीक्षा स्वामी नारायणेन्द्रतीर्थजीसे प्राप्त हुई । विवाह पंडित श्री देवभट्टजीकी कन्या – महालक्ष्मीसे हुआ, तथा यथा समय दो पुत्र हुए – श्री गोपीनाथ एवंश्रीविट्ठलनाथ । भगवत्प्रेरणावश व्रजमें गोकुल पहुंचे, तथा तदनन्तर व्रजक्षेत्रस्थित गोवर्धनपर्वतपर अपनी यात्राको विराम दे कर शिष्य पूरनमल खत्रीजीके सहयोगसे संवत १५७६ में श्रीनाथजीका भव्य मंदिर निर्माण किया । वहां विशिष्ट सेवा-पद्धतिके साथ लीला-गानांतर्गत श्रीराधाकृष्णकी मधुरातिमधुरलीलाओंसे संबंधित रसमय पदोंकी स्वर-लहरियोंका अवगाहन कर भक्तजन मंत्र-मुग्ध हो जाते थे ।
मत
श्रीवल्लभाचार्यजीके मतानुसार तीन स्वीकार्य तत्त्व हैं -ब्रह्म, जगत और जीव । ब्रह्मके तीन स्वरूप वर्णित हैं -आधिदैविक, आध्यात्मिक एवं अंतर्यामी रूप। अनंत दिव्य गुणोंसे युक्त पुरुषोत्तम श्रीकृष्णको ही परब्रह्म स्वीकार कर उनके मधुर रूप तथा लीलाओंको जीवमें आनंदके आविर्भावका स्त्रोत माना है । जगत ब्रह्माकी लीलाका विलास है । संपूर्ण सृष्टि लीलाके निमित्त ब्रह्माकी आत्म-कृति है ।
सिद्धांत
जीवके तीन प्रकार हैं – पुष्टि जीव, जो भगवानके अनुग्रहपर निर्भर रहकर नित्यलीलामें प्रवेशके अधिकारी होते हैं । मर्यादा जीव, जो वेदोक्त विधिका अनुसरण कर भिन्न-भिन्न लोक प्राप्त कर लेते हैं तथा प्रवाह जीव जो जागतिक-प्रपंचमें ही निमग्न रहकर सांसारिक सुखोंकी प्राप्तिहेतु सतत चेष्टारत रहते हैं ।
भगवान श्रीकृष्ण भक्तोंके निमित्त व्यापी बैकुंठमें (जो विष्णुके बैकुंठके ऊपर स्थितहै । ) नित्य क्रीडा करते हैं । इसी व्यापी बैकुंठका एक खण्ड है – गोलोक, जिसमें यमुना, वृंदावन, निकुंज तथा गोपी नित्य विद्यमान हैं । भगवद्सेवाके माध्यमसे वहां भगवंतकी नित्य लीला-सृष्टिमें प्रवेशही जीवकी सर्वोत्तम गति है ।
प्रेमलक्षणाभक्ति उक्त मनोरथोंकी पूर्तिका मार्ग है, जिसकी ओर जीवकी प्रवृत्ति मात्र भगवदानुग्रहद्वारा ही संभव है । श्री मन्महाप्रभुवल्लभाचार्यजीके पुष्टिमार्गका (अनुग्रह मार्ग) ही आधारभूत सिद्धांत है । पुष्टि-भक्तिकी तीन उत्तरोत्तर अवस्थाएं हैं ।प्रेम, आसक्ति तथा व्यसन। मर्यादा-भक्तिमें भगवद्प्राप्ति शमदमादि साधनोंसे होती है, किंतु पुष्टि-भक्तिमें भक्तको किसी भी साधनकी आवश्यकता न होकर केवल भगवद्कृपाका आश्रय होता है । मर्यादा-भक्ति स्वीकार करते हुए पुष्टि-भक्ति ही श्रेष्ठ मानी गई है । पुष्टिमार्गी जीवकी सृष्टि भगवत्सेवार्थ ही है । – भगवद्रूपसेवार्थ तत्सृष्टिर्नान्यथाभवेत्। प्रेमपूर्वक भगवत्सेवा ही भक्तिका यथार्थ स्वरूप है । भक्तिश्च प्रेमपूर्विकासेवा। भागवतीय आधारपर (कृष्णस्तु भगवान् स्वयं) भगवान कृष्ण ही सदा सर्वदासेव्य, स्मरणीय तथा कीर्तनीय हैं ।
सर्वदा सर्वभावेनभजनीयोब्रजाधिप:।..
तस्मात्सर्वात्मना नित्यंश्रीकृष्ण: शरणंमम ।
ब्रह्मके साथ जीव-जगतके संबंध स्पष्ट करते हुए , उन्होंने कहा कि जीव ब्रह्मका सदंश डसद् अंश है । जगत भी ब्रह्मका सदंश है । अंश तथा अंशीमें भेद न होनेका कारण जीव-जगत तथा ब्रह्ममें परस्पर अभेद है । अंतर केवल इतना ही है कि जीवमें ब्रम्हका आनन्दांश आवृत्त होता है , तथा जड जगतमें इसके आनन्दांश एवं चैतन्यांश दोनों ही आवृत्त होते हैं ।
श्रीशंकराचार्यजीके अद्वैतवाद केवलाद्वैतके विपरीत श्रीवल्लभाचार्यके अद्वैतवादमें मायाका संबंध अस्वीकार करते हुए ब्रह्मको कारण तथा जीव-जगतको उसके कार्य रूपमें वर्णित कर तीनों शुद्ध तत्वोंका ऐक्य प्रतिपादित करनेसे उक्त मतको शुद्धाद्वैतवाद कहा गया है । (जिसके मूल प्रवर्तकाचार्य श्री विष्णुस्वामीजी हैं । )
शिष्य परंपरा
वल्लभाचार्यजीके ८४ शिष्योंमें अष्टछापकविगण- भक्त सूरदास, कृष्णदास, कुम्भनदास तथा परमानन्द दास प्रमुख हैं । श्री अवधूतदासनामक परमहंस शिष्य ही थे । सूरदासजीकी सच्ची भक्ति तथा पद-रचनाकी निपुणता देखकर अति विनयी सूरदासजीको भागवत कथा श्रवण करवा कर भगवत्लीलागानकी ओर उन्मुख किया तथा उन्हें श्रीनाथमंदिरकी कीर्तन-सेवा दी । तत्व ज्ञान एवं लीला भेद भी बताया –
श्रीवल्लभगुरु तत्त्व सुनायो लीला-भेद बतायो (सूरसारावली) गुरुके प्रति सूरदासजीकी निष्ठा दृष्टव्य है ।
भरोसो दृढ इन चरननकेरो ।
श्रीवल्लभ-नख-चन्द-छटा बिनुसब जग मांझ अंधेरो ?
श्रीवल्लभके प्रतापसे उत्साहित कुम्भनदास तो सम्राट अकबरका भी मान-मर्दन करनेसे घबराए नहीं । परमानन्ददासका भावपूर्ण पद श्रवण करके महाप्रभु कितने दिन संज्ञाहीन पडे रहे । मान्यता यह है कि उपास्य श्रीनाथने कलि-मल-ग्रसित जीवोंके उद्धार हेतु श्रीवल्लभाचार्यका दुर्लभ आत्म-निवेदन-मन्त्र प्रदान किया तथा गोकुलके ठकुरानी घाटपर यमुना महारानीने दर्शन देकर कृतार्थ किया । उनकी शुद्धद्वैतका प्रतिपादक प्रधान दार्शनिक ग्रन्थ है-अणुभाष्य ब्रह्मसूत्र भाष्य अथवा उत्तरमीमांसा अन्य प्रमुख ग्रन्थ हैं – पूर्वमीमांसाभाष्य, भागवतके दशम स्कंधपर सुबोधिनी टीका, तत्त्वदीप निबन्ध एवं पुष्टि -प्रवाह-मर्यादा । संवत् १५८७ आषाढ शुक्ल तृतीयाको उन्होंने अलौकिक रीतिसे इहलीला संवरण करके सदेह प्रयाण किया । वैष्णव समुदाय उनका सदा ऋणी रहेगा ।
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