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संत सावता माली
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संत सावता माली
May 7, 2013
संत सावता माली संत ज्ञानदेवके समयके एक प्रसिद्ध संत थे । उनका जन्म इ. स. १२५० का है तथा उन्होंने इ. स. १२९५ में देह त्यागी । अरण-भेंड यह सावतोबाका गांव है । सावता मालीके दादाजीका नाम देवु माली था, वे पंढरपुरके वारकरी थे ।उनके पिता पूरसोबा तथा माता धार्मिक वृत्तिके थे, पूरसोबा खेतीके व्यवसायके साथ ही भजन-पूजन करते । पंढरपुरकी वारी करते ।
कर्म करते रहना यही खरी ईश्वर सेवा है एसी सीख सावता मालीने दी । वारकरी संप्रदायके एक ज्येष्ठ संतके रूपमें उनकी कीर्ति है । वे विट्ठलके परम भक्त थे । वे कभी भी पंढरपुर नहीं गए । ऐसा कहा जाता है कि स्वयं विट्ठल ही उनसे मिलने उनके घर जाते थे । प्रत्यक्ष पांडूरंग ही उनसे मिलने आए । वे कर्ममार्गी संत थे ।
उन्होंने अध्यात्म तथा भक्ति, आत्मबोध तथा लोकसंग्रह, कर्तव्य तथा सदाचारका हूबहू संबंध जोडा । उनका ऐसा विचार था कि ईश्वरको प्रसन्न करना हो तो जप, तपकी आवश्यकता नहीं तथा कहीं भी दूर तीर्थयात्राके लिए जानेकी आवश्यकता नहीं; केवल अंत:करणसे ईश्वरका चिंतन करने तथा श्रद्धा हो तो ईश्वर प्रसन्न होते हैं एवं दर्शन देते हैं ।
सावता मालीने ईश्वरके नामजपपर अधिक बल दिया । ईश्वरप्राप्तिके लिए संन्यास लेने अथवा सर्वसंगपरित्याग करनेकी आवश्यकता नहीं है । प्रपंच करते समय भी ईश्वर प्राप्ति हो सकती है ऐसा कहनेवाले सावता महाराजजीने अपने बागमें ही ईश्वरको देखा ।
कांदा मुळा भाजी । अवघी विठाबाई माझी ।।
लसूण मिरची कोथिंबिरी । अवघा झाला माझा हरी ।।
सावता महाराजजीने पांडूरंगको छुपानेके लिए खुरपीसे अपनी छाती फाडकर बालमूर्ति ईश्वरको हृदयमें छुपाकर ऊपर उपरनेसे बांधकर भजन करते रहे । आगे संत ज्ञानेश्वर एवं नामदेव पांडूरंगको ढूंढते सावता महाराजजीके पास आए, तब उनकी प्रार्थनाके कारण पांडूरंग सावतोबाकी छातीसे निकले । ज्ञानेश्वर एवं नामदेव पांडूरंगके दर्शनसे धन्य हो गए । सावता महाराज कहते हैं – भक्तिमें ही खरा सुख तथा आनंद है । वहीं विश्रांति है ।
सांवता म्हणे ऐसा भक्तिमार्ग धरा ।
जेणे मुक्ती द्वारा ओळंगती ।।
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संत सावता माली
श्री वासुदेवानंद सरस्वती (१८५४-१९१४)
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