Tuesday, 7 November 2017

शाम्भवी मुद्रा का वर्णन भगवद्गीता, पातंजल योग सूत्र,

शाम्भवी मुद्रा क्या है | Best Astrologer 4 U | Gopal Raju | Best Astrologer in India | Best Astrologer in Uttarakhand     मुद्राओं में एक शाम्भवी मुद्रा का वर्णन भगवद्गीता, पातंजल योग सूत्र, अमनस्क योग, घेरण्ड संहिता, शिवसंहिता, गोरक्षा संहिता, हठयोग प्रदीपिका, योग चिंतामणि तथा अभिनव गुप्ताचार्य और योग के अनेक शास्वत ग्रंथों में आता है। शाम्भवी मुद्रा को आदिशक्ति उमा स्वरुपिणी, शिवप्रिया, शंभूप्रिया आदि मुद्रा भी कहते हैं। स्वयं बोध अमनस्क योग में स्पष्ट लिखा है कि यह विद्या अत्यन्त गुप्तादिगुप्त है और किसी विरले पुण्यआत्मा को ही सिद्ध होती है।     लाहिडी महाशय और महावतार बाबा के क्रिया योग में जो चित्र हम देखते हैं वह शाम्भवी मुद्रा में ही हैं। शाम्भवी सिद्ध मुद्रा वाले किसी संत, महात्मा के सानिध्य और यहाँ तक की उनके दर्शन मात्र से ही मुक्ति पद की प्राप्ति होती है। भूत, भविष्य की बातों का ज्ञाता बनना तो ऐसे महात्माओं के लिए बहुत ही साधारण सी बातें होती हैं।     मैडिकल रिसर्च के योग और अध्यात्मवादी जिज्ञासु वैज्ञानिकों ने एक मत से यह निष्कर्ष निकाला है कि एकाग्रता, भावनात्मक सन्तुलन, शरीर में ऊर्जा का स्तर, मानसिक शांति और आध्यात्मिक उपलब्धियों के साथ-साथ एलर्जी, दमा, अस्थमा, दिल के रोग, मधुमेह, अनिद्रा रोग, अवसाद आदि अनेकों शारीरिक रोगों में इस मुद्रा के सतत् अभ्यास से चमत्कारिक रूप से लाभ देखने को मिला है।     शाम्भवी मुद्रा साधकों के ई. ई.जी से प्राप्त निष्कर्षो में यह तथ्य सामने आया कि मस्तिष्क में बायें और दायें गोलार्ध के मध्य चमत्कारिक रूप से संतुलन बन जाता है और यह बुद्धि को प्रखर बनाता है।     यदि विद्यार्थी वर्ग को अथवा ऐसे व्यक्तियों को, जिनका कार्य शिक्षा अथवा अन्य बौद्धिक स्तर का है, इस मुद्रा का अभ्यास करवा कर सिद्धहस्त किया जाए तो उनसे मिलने वाले परिणाम और भी अधिक संतोषजनक होंगे।     कहीं शांतचित समतल स्थान पर किसी सरल, सुगम एवं सुखद आसन में बैठ जाएं। रीढ़ की हड्डी बिल्कुल सीधी रखें, बैठने वाले समतल स्थान के सापेक्ष ठीक 90 डिग्री पर अपना समस्त ध्यान दोनों भौवों के मध्य स्थित आज्ञा चक्र पर टिका लें। करना कुछ नहीं है न कोई मंत्र, न कोई कर्मकाण्ड और न ही कोई जप-तप आदि। बस ध्यान को इस एक स्थान पर टिकाए रखने का अभ्यास करना है। ऐसा प्रयास करते जाना है कि अर्धखुली अथवा पूर्णतया खुली आँखों से भी बाहर की किसी वस्तु पर ध्यान न जाए बिल्कुल विचार शून्य बन जाना है। बाह्य कोई वस्तु दिखलाई न दे, ध्यान में इतना रम जाना है। और इस क्रिया को त्राटक से सर्वथा भिन्न समझना है। अमनस्क योग में लिखा है कि यह शाम्भवी मुद्रा अन्तर्लक्षवाली, बहिर्दृष्टिवाली और निमेष-उन्मेष से शून्य है। अर्थात् इस मुद्रा में बहिर्दृष्टि होने पर भी अन्तर्लक्ष होता है और दृष्टि में निमेष और उन्मेष नहीं होते।     अभ्यास के मध्य प्रारम्भिक अवस्था में आँखों में खिचाव आता है, उनमें पीड़ा भी हो सकती है परन्तु धीरे-धीरे एक ऐसी अवस्था आने लगती है कि बन्द, खुली अथवा अर्धखुली आँखों से भी आँखों पर ही नहीं बल्कि भौतिक शरीर के किसी अंग पर ध्यान जाना ही बन्द हो जाता है। बाहरी विषयों को देखना, उनका ध्यान करना जब पूर्णतया समाप्त हो जाता है तब अन्तकरण की वृत्ति और विषय से अलग मन, प्राण और सुखद नींद की अवस्था में साधक पहुँच जाता हैं। साधारण नींद और शम्भवी साधक की निद्रा अवस्था में धरती और आकाश का अन्तर है। एक में मन अचेत अवस्था में पहुँच जाता हैं और एक में मन चैतन्य रहता है। बस वह सांसारिक समस्त विषय वस्तु से और विषयों में आसक्त मन से मुक्त रहता है। यही परम दिव्य शाम्भव तत्व है और यही अन्ततः परमात्मा की प्राप्ति का एक प्रशस्त मार्ग है। शाम्भवी मुद्रा सिद्ध हस्त साधक साक्षात् बह्म स्वरूप  हो जाता है।

No comments:

Post a Comment