Sunday, 31 December 2017

सर्वश्रेष्ठ भक्ति निष्काम प्रेम

[18/12/2017, 2:51 PM] VedantS: Mind Positive = Life positive

Shiv Yog Sanatan: FOR SHIV YOGIS, EVERY DAY AUSPICIOUS, EVERY MOMENT RIGHT FOR MEDITATION, EVERY DIRECTION POSITIVE FOR MEDITATION

Shiv Yog Guru says: "Meditate anytime, meditate anywhere (even moving car or aeroplane) meditate every day, meditate in any direction, every day auspicious, inner self the best place to meditate"
[19/12/2017, 3:18 PM] VedantS: दृष्टान्तो नैव दृष्टस्त्रिभुवनजठरे सद्गुरोर्ज्ञानदातु:स्पर्शश्चेत्तत्र कल्प्य:स नियति यदहो  स्वर्णातामश्मसारम्।
नो स्पर्शत्वं तथापि श्रितचरणयुगे सदगुरु:स्वीयशिष्ये स्वीयं साम्यं दधाति क्षितिनिरुपमस्तेन वाऽलौकिकोऽपि।।
[31/12/2017, 9:18 AM] VedantS: नवधा भगति कहउँ तोहि पाहीं।
सावधान सुनु धरु मन माहीं॥
प्रथम भगति संतन्ह कर संगा।
दूसरि रति मम कथा प्रसंगा॥1॥

मैं तुझसे अब अपनी नवधा भक्ति कहता हूँ। तू सावधान होकर सुन और मन में धारण कर। पहली भक्ति है संतों का सत्संग। दूसरी भक्ति है मेरे कथा प्रसंग में प्रेम॥1॥

Now I tell you the nine forms of Devotion; please listen attentively and cherish them in your mind. The first in order is fellowship with the saints and the second is marked by a fondness for My stories.

गुर पद पंकज सेवा तीसरि भगति अमान।
चौथि भगति मम गुन गन करइ कपट तजि गान॥2॥

तीसरी भक्ति है अभिमानरहित होकर गुरु के चरण कमलों की सेवा और चौथी भक्ति यह है कि कपट छोड़कर मेरे गुण समूहों का गान करें॥2॥

Humble service of the lotus feet of ones preceptor is the third form of Devotion, while the fourth type of Devotion consists in singing My praises with a guileless purpose.

मंत्र जाप मम दृढ़ बिस्वासा। पंचम भजन सो बेद प्रकासा॥
छठ दम सील बिरति बहु करमा। निरत निरंतर सज्जन धरमा॥3॥

मेरे (राम) मंत्र का जाप और मुझमें दृढ़ विश्वास- यह पाँचवीं भक्ति है, जो वेदों में प्रसिद्ध है। छठी भक्ति है इंद्रियों का निग्रह, शील (अच्छा स्वभाव या चरित्र), बहुत कार्यों से वैराग्य और निरंतर संत पुरुषों के धर्म (आचरण) में लगे रहना॥3॥

Muttering My Name with unwavering faith constitutes the fifth form of adoration revealed in the Vedas. The sixth variety consists in the practice of self-control and virtue, desisting from manifold activities and ever pursuing the course of conduct prescribed for saints.

सातवँ सम मोहि मय जग देखा। मोतें संत अधिक करि लेखा॥
आठवँ जथालाभ संतोषा। सपनेहुँ नहिं देखइ परदोषा॥4॥

सातवीं भक्ति है जगत्‌ भर को समभाव से मुझमें ओतप्रोत (राममय) देखना और संतों को मुझसे भी अधिक करके मानना। आठवीं भक्ति है जो कुछ मिल जाए, उसी में संतोष करना और स्वप्न में भी पराए दोषों को न देखना॥4॥

He who practices the seventh type sees the world full of Me without distinction and reckons the saints as even greater than Myself. He who cultivates the eighth type of Devotion remains contented with whatever he gets and never thinks of detecting others' faults.

नवम सरल सब सन छलहीना। मम भरोस हियँ हरष न दीना॥
नव महुँ एकउ जिन्ह कें होई। नारि पुरुष सचराचर कोई॥5॥

नवीं भक्ति है सरलता और सबके साथ कपटरहित बर्ताव करना, हृदय में मेरा भरोसा रखना और किसी भी अवस्था में हर्ष और दैन्य (विषाद) का न होना। इन नवों में से जिनके एक भी होती है, वह स्त्री-पुरुष, जड़-चेतन कोई भी हो-॥5॥

The ninth form of Devotion demands that one should be guileless and straight in one?s dealings with everybody, and should in his heart cherish implicit faith in Me without either exultation or depression. Whoever possesses any one of these nine forms of Devotion, be he man or woman or any other creature, sentient or insentient.
[31/12/2017, 10:58 AM] VedantS: *योगाचे प्रकार*

अष्टांग योगामध्ये योगाचे विविध प्रकार सांगितले आहेत. मात्र काही योग प्रकारांचा आरोग्य, साधना किंवा मोक्ष प्राप्त करण्‍यासाठीही केला जाऊ शकतो. योगाचे सहा प्रकार मानले जातात.

१)राजयोग २) हठयोग ३) लययोग ४) ज्ञानयोग ५) कर्मयोग व ६) भक्तियोग. ज्या क्रमाने त्यांना योगशास्त्रात लिहिण्यात आले आहे, त्या क्रमाने त्यांना दर्जा व महत्व प्राप्त झाले आहे.

१)राजयोग-यम, नियम, आसन, प्राणायम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान व समाधी, हे पतंजली राजयोगाचे आठ अंग आहेत. त्यांना अष्टांग योग ही म्हटले जाते.

२)हठयोग -षट्कर्म, आसन, मुद्रा, प्रत्याहार, ध्यान व समाधी, हे हठयोगाचे सात अंग आहेत. मात्र हठयोगीचा जोर आसन किंवा कुंडलिनी जागृतीसाठी आसन, बंध, मुद्रा व प्राणायमावर अधिक असतो. यालाच क्रियायोग म्हटले जाते.

३)लययोग -यम, नियम, स्थूल क्रिया, सूक्ष्म क्रिया, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान व समाधी असे लययोगाचे आठ अंग आहेत.

४)ज्ञानयोग -अशुध्द आत्म्याचे ज्ञान प्राप्त करणे, हाच ज्ञानयोग आहे. याला ध्यानयोग असे ही म्हटले जाते.

५)कर्मयोग -कर्म करणेच कर्मयोग आहे. कर्माने आल्यात कौशल्य आत्मसात करणे, हा त्यामागील खरा उद्देश आहे. याला सहजयोगही म्हटले जाते.

६)भक्तियोग -भक्ति, कीर्तन, स्मरण, पादसेवन, अर्चन, वंदन, दास्य, सौख्य व आत्मनिवेदन असे नऊ गुण असणार्‍या व्यक्तीला भक्त म्हटले जाते. व्यक्ती त्याची आवड, प्रकृत्ती व साधना यांच्या योग्यतानुसार त्याची निवड करू शकतो. भक्ती योगानुसार सौख्य, समन्वय, आपुलकी असे गुण निर्माण होतात.

योगाची संक्षिप्त रूपे आपण पाहिलीत. या व्यतिरिक्त ध्यानयोग, कुंडलिनी योग, साधना योग, क्रिया योग, सहज योग, मुद्रायोग, मंत्रयोग व तंत्रयोग आदी अनेक प्रकार आहेत. मा‍त्र वरील सहा प्रकार मुख्य असून योगाचे अनेक प्रकार त्यात समाविष्ठ आहेत.
[31/12/2017, 10:58 AM] VedantS: *शान्तितुल्यं तपो नास्ति*
           *न संतोषात्परं सुखम्*।
*न तृष्णया: परो व्याधिर्न*
           *च धर्मो दया परा:*।।

    शान्ति के समान कोई तप नही है, संतोष से श्रेष्ठ कोई सुख नही, तृष्णा से बढकर कोई रोग नही और दया से बढकर कोई धर्म नहीं।
   
        *सुप्रभातम्*
आपका दिन  मंगलमय हो।।
[31/12/2017, 1:20 PM] VedantS: भगवत्कृपा से हम 5 फरवरी 2018 से भगवद्गीता श्लोक प्रति श्लोक फिर से शुरू करेंगे
कृपया स्वयं भी भाग लें एवं अपने मित्रों को भी बतायें
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आज का श्लोक : श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप --९.२२
अध्याय 9 : परम गुह्य ज्ञान
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अनन्याश्र्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते |
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् || २२ ||
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अनन्याः– जिसका कोई अन्य लक्ष्य न हो, अनन्य भाव से; चिन्तयन्तः– चिन्तन करते हुए; माम्– मुझको; ये– जो; जनाः– व्यक्ति; पर्युपासते– ठीक से पूजते हैं; तेषाम्– उन; नित्य– सदा; अभियुक्तानाम्– भक्ति में लीन मनुष्यों की; योग– आवश्यकताएँ; क्षेमम्– सुरक्षा, आश्रय; वहामि– वहन करता हूँ; अहम्– मैं |
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किन्तु जो लोग अनन्यभाव से मेरे दिव्यस्वरूप का ध्यान करते हुए निरन्तर मेरी पूजा करते हैं, उनकी जो आवश्यकताएँ होती हैं, उन्हें मैं पूरा करता हूँ और जो कुछ उनके पास है, उसकी रक्षा करता हूँ |
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तात्पर्य : जो एक क्षण भी कृष्णभावनामृत के बिना नहीं रह सकता, वह चौबीस घण्टे कृष्ण का चिन्तन करता है और श्रवण, कीर्तन, स्मरण पादसेवन, वन्दन, अर्चन, दास्य, सख्यभाव तथा आत्मनिवेदन के द्वारा भगवान् के चरणकमलों की सेवा में रत रहता है | ऐसे कार्य शुभ होते हैं और आध्यात्मिक शक्ति से पूर्ण होते हैं, जिससे भक्त को आत्म-साक्षात्कार होता है और उसकी यही एकमात्र कामना रहती है कि वह भगवान् का सान्निध्य प्राप्त करे | ऐसा भक्त निश्चित रूप से बिना किसी कठिनाई के भगवान् के पास पहुँचता है | यह योग कहलाता है | ऐसा भक्त भगवत्कृपा से इस संसार में पुनः नहीं आता | क्षेम का अर्थ है भगवान् द्वारा कृपामय संरक्षण | भगवान् योग द्वारा पूर्णतया कृष्णभावनाभावित होने में सहायक बनते हैं और जब भक्त पूर्ण कृष्णभावनाभावित हो जाता है तो भगवान् उसे दुखमय बद्धजीवन में फिर से गिरने से उसकी रक्षा करते हैं |
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प्रश्न १ : भगवान् की सेवा में रत रहने के लिए कौन-कौन से भक्तिमय कार्यों का इस श्लोक में उल्लेख हुआ है ? यह किस प्रकार भक्त को भगवान् के पूर्ण संरक्षण में ले जाते हैं ?

स्वामी अड़गड़ानंद जी महाराज के बारे में

 NAVIGATE स्वामी अड़गड़ानंद जी महाराज  स्वामी अड़गड़ानंद जी महाराज के बारे में वर्तमान में बहुत प्रसिद्ध और धार्मिक व्यक्तित्व, स्वामी अड़गड़ानंद जी महाराज, ने “यथार्थ गीता” को साधारण शब्दों में व्याख्यान किया है, जिसका प्रसार बहुत समय पहले भगवान श्री कृष्ण ने किया था। यह माना जाता है कि स्वामी अड़गड़ानंद जी अपने गुरु जी “संत परमानंद जी” के पास वर्ष 1955 के नवम्बर महिने में सत्य की खोज में आए थे, उस समय इनकी आयु 23 वर्ष की थी। स्वामी परमानंद जी का आश्रम चित्रकूट अनुसूया, सतना, मध्य प्रदेश, भारत के घने जंगलों में स्थित था। वह जंगली जानवरों के घने जंगलों में बिना किसी भी सुविधा के रहते थे। इस तरह का रहने का तरीका दिखाता है कि, वह वास्तविक संत थे।  वह इनके वहाँ पहुँचने के बारे में पहले से ही जानते थे और उन्होंने अपने शिष्यों मे यह घोषणा कर दी थी कि एक किशोर व्यक्ति सत्य की खोज में यहाँ कभी भी किसी भी समय पहुँच सकता है। इनका उत्साह जीवन की अवधि की तुलना में आगे जाने की चाह में थे। स्वामी अड़गड़ानंद जी महाराज का लेखन की ओर बहुत अधिक ध्यान नहीं था। धार्मिक दिशाओं के माध्यम से धर्म के भाषणों में इनकी अधिक रुचि थी। इन्होंने धार्मिक भाषणों और उपदेशों के माध्यम से सामाजिक भलाई के कार्यों में योगदान देना शुरु किया। इनके गुरु की प्रसिद्ध किताब “जीवनदर्श और आत्मानुभूति” इनके गुरु के धार्मिक जीवन और विचारों पर आधारित है। इस तरह के संग्रह इनके जीवन की रुपरेखा के संकेतक है, जिसमें बहुत सी आश्चर्यजनक घटनाएं भी शामिल है। वह एक महान संत है, जिन्होंने कभी भी अपनी प्राप्त दैवियता या देवत्व के बारे में कोई घोषणा नहीं की। इन्होंने स्वंय को समाज के लोगों की भलाई के लिए प्रस्तुत किया है और वास्तविक सत्य की सच्चाई जानने में उनकी मदद की है। यह माना जाता है कि, इन्होंने अपने गुरु के सामीप्य में 15 वर्षों तक (बिना भोजन, पानी और आराम के) गहरा ध्यान किया था। यथार्थ गीता क्या है गीता का सबसे पहला व्याख्यान भगवान श्री कृष्ण के द्वारा अर्जुन को महाभारत के युद्ध (कौरवों और पांडवों के बीच युद्ध) के दौरान दिया गया था, जिसे धार्मिक मंत्रों का आध्यात्मिक ग्रंथ के रुप में वर्णित किया जा सकता है। यह एक दिव्य शिक्षक और उसके शिष्य के बीच तालबद्ध बातचीत है। गीता का व्याख्यान युद्ध के दौरान सबसे पहले भगवान श्री कृष्ण के द्वारा अर्जुन को प्रदान किया गया था। लेकिन इसे बहुत दूरी पर स्थित संजय के द्वारा भी सुना गया था। संजय को यह दिव्य दृष्टि ऋषि वेद व्यास सजी के द्वारा प्रदान की गई थी। गीता वह सब कुछ है, जिसे याद नहीं किया जा सकता है; जिसे केवल महसूस किया जा सकता है और भक्ति के माध्यम से अनुभव किया जा सकता है। यह जीवन का सही रास्ता हमें दिखाती है, जो हमें ज्ञान के प्रकाश की ओर ले जाती है। परमहंस आश्रम तक कैसे पहुँचा जाए स्वामी अड़गड़ानंद जी महाराज का अश्रम मिर्जापुर जिले (वाराणसी के पास), उत्तर प्रदेश राज्य, भारत में स्थित है। आश्रम का पता: श्री परमहंस आश्रम शक्तिषगढ, चुनार-राजघाट रोड, जिला मिर्जापुर (यूपी), भारत आश्रम तक पहुँचना बहुत आसान है, कोई भी व्यक्ति आश्रम तक सड़क यात्रा, रेल मार्ग या वायु मार्ग किसी के भी द्वारा पहुँच सकता है। सड़क मार्ग से कैसे पहुँचें आश्रम चुनार से 17 किमी. दूर स्थित है। मुगल सराय से आश्रम की दूरी 50 किमी. ही। आश्रम की दूरी मिर्जापुर से 50 किमी. है। ट्रेन या रेलगाड़ी से कैसे पहुँचें आश्रम आसानी से पहुँचें जी सकने वाले स्थान पर स्थित है। वाराणसी में बहुत से रेलवे स्टेशन है; जैसे- वाराणसी जंक्शन रेलवे स्टेशन, वाराणसी सिटी रेलवे स्टेशन, नमदुआदिन रेलवे स्टेशन और भुलनपुर रेलवे स्टेशन, जहाँ से कोई भी व्यक्ति ऑटो रिक्शा, टैक्सी या अन्य साधनों से आसानी से आश्रम तक पहुँच सकता है। वायुमार्ग एरोप्लेन से कैसे पहुँचें इस आश्रम के सबसे पास एअरपोर्ट लाल बहादुर शास्त्री एअरपोर्ट, वाराणसी है, जो भारत के सभी प्रमुख शहरों को जाने वाली सड़कों से जुड़ा हुआ है।  आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी » « डॉ संपूर्णानंद admin:  Related Post एनी बेसेंट आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी डॉ संपूर्णानंद Top All Rights Reserved  

Saturday, 9 December 2017

सोऽहम् कर अजपा जाप

All World Gayatri Pariwar 🔍 PAGE TITLES December 1947 सोऽहम् कर अजपा जाप नासिका द्वारा श्वाँस भीतर से बाहर और बाहर से भीतर आती जाती रहती है। जब वायु भीतर जाती है- पूरक होता है- तो उस समय “सो” की सूक्ष्म ध्वनि की झंकार होती है। थोड़ी देर जब तक साँस भीतर रुकती है- कुँभक होता है- उतनी देर ‘अ’ शब्द की झंकार रहती है। इसके पश्चात जब वायु लौट कर बाहर आता है- रोचक होता है- उस समय ‘हम्’ शब्द प्रतिध्वनित होता है। इस प्रकार एक पूरी श्वाँस के आवागमन में ‘सोऽहम्’ का एक पूरा उच्चारण प्रकृति द्वारा शरीर में स्वयमेव निरन्तर होता रहता है। इसे ‘अजपा जाप’ भी कहते हैं। यों अनेकों मंत्र हैं उनके फल अनेक हैं, उनकी साधना विधियाँ भी पृथक-पृथक हैं। इन मंत्रों का विनियोग अनुष्ठान, जागरण, उत्थापन विभिन्न प्रकार से होता है। जिसकी शिक्षा अनुभवी गुरु द्वारा होनी चाहिए। अविधिपूर्वक जपे हुए मंत्र कई बार उल्टा परिणाम उपस्थित करते हैं। अजपा जाप की ‘सोऽहम्’ साधना में इस प्रकार की कठिनाई नहीं है। इस साधना के लिए जब भी अवसर और अवकाश हो। शान्त चित्त से मन को एकाग्र करना चाहिए। आँखें बन्द करके हृदय कमल में स्थित सूर्यचक्र का ध्यान करना चाहिए, यह चक्र सूर्य के समान प्रकाशवान है। ध्यान करने से धीरे-धीरे उसकी ज्योति बढ़ती हुई ध्यान में दृष्टि गोचर होती जाती है। मन को हृदय स्थान पर एकाग्र करने से श्वाँस भीतर जाने के साथ ‘सो, की, रुकने के साथ ‘अ’ की बाहर निकले के साथ ‘हम’ की ध्वनि होती है। इन तीनों ध्वनियों को ध्यानपूर्वक सूक्ष्म कर्णेंद्रियों से सुनने का प्रयत्न करना चाहिए। आरंभ में यह शब्द अति बहुत ही मंद अस्थिर और न्यूनाधिक होता है। कभी बीच 2 में बन्द भी हो जाती है। पर लगातार ध्यान एकाग्र करने से फुफ्फुसों में वायु के आकुँचन प्रकुँचन के साथ-साथ ‘सोऽहम्’ की ध्वनि स्पष्ट रूप से ध्वनित होती हुई सुनाई पड़ती है। इस श्रवण से अपने आप प्रकृति द्वारा होने वाले अजपा जाप में साधक सम्मिलित हो जाता है। और उसे किसी विशेष विधि विधान या अनुष्ठान के करने की आवश्यकता नहीं होती। इस निरीक्षण में जैसे-जैसे चित्त की स्थिरता होती है वैसे ही वैसे आत्मिक शक्तियों का जागरण होता चलता है। चित्तवृत्तियों के निरोध को योग कहते हैं, यह निरोध इस अजपा जाप द्वारा बड़ी उत्तमनता से होता है और स्वल्प श्रम से योग साधना के महा लाभों की प्राप्ति होती है। ‘सोऽहम्’ का अर्थ है- ‘वह आत्मा - परमात्मा मैं हूँ अपने में ईश्वरीय भाव की प्रतिष्ठा करने से आत्मा में परमात्मा की झाँकी होने लगती है और आत्म दर्शन का समाधि सुख प्राप्ति होने लगता है। अजपा जाप जितना सुगम है उतना ही उत्तम भी है। इसका आश्रय लेने वाले साधक की आत्मोन्नति बड़ी शीघ्रता से होती है। gurukulamFacebookTwitterGoogle+TelegramWhatsApp Months  अखंड ज्योति कहानियाँ See More About Gayatri Pariwar Gayatri Pariwar is a living model of a futuristic society, being guided by principles of human unity and equality. It's a modern adoption of the age old wisdom of Vedic Rishis, who practiced and propagated the philosophy of Vasudhaiva Kutumbakam. Founded by saint, reformer, writer, philosopher, spiritual guide and visionary Yug Rishi Pandit Shriram Sharma Acharya this mission has emerged as a mass movement for Transformation of Era. Contact Us Address: All World Gayatri Pariwar Shantikunj, Haridwar India Centres Contacts Abroad Contacts Phone: +91-1334-260602 Email:shantikunj@awgp.org Subscribe for Daily Messages

 गायत्री और उनकी महिमा

होम »  ज्योतिष जीवन में किसी भी समस्या से परेशान हैं तो करें गायत्री मंत्र का जाप, जरूर होगा लाभ Posted By: Ankur Sharma Published: Wed, May 20, 2015, 16:54 [IST] हिंदू धर्म में मां गायत्री को वेदमाता कहा जाता है अर्थात सभी वेदों की उत्पत्ति इन्हीं से हुई है। गायत्री को भारतीय संस्कृति की जननी भी कहा जाता है। धर्म शास्त्रों के अनुसार ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की दशमी को मां गायत्री का अवतरण माना जाता है। इस दिन को हम गायत्री जयंती के रूप में मनाते है। इस बार गायत्री जयंती का पर्व 28 मई, 2015 (गुरुवार) को है।मां गायत्री को हमारे वेद शास्त्रों में वेदमाता कहा गया है। नाम, दौलत और रूतबा पाना है तो अपनाइये यह फेंगशुई टिप्स धर्म ग्रंथों में यह भी लिखा है कि गायत्री उपासना करने वाले की सभी मनोकामनाएं पूरी होती हैं तथा उसे कभी किसी वस्तु की कमी नहीं होती। गायत्री से आयु, प्राण, प्रजा, पशु, कीर्ति, धन एवं ब्रह्मवर्चस के सात प्रतिफल अथर्ववेद में बताए गए हैं, जो विधिपूर्वक उपासना करने वाले हर साधक को निश्चित ही प्राप्त होते हैं। विधिपूर्वक की गयी उपासना साधक के चारों ओर एक रक्षा कवच का निर्माण करती है व विपत्तियों के समय उसकी रक्षा करती है। मां गायत्री और उनकी महिमा के बारे में जानने के लिए नीचे की स्लाइडों पर क्लिक कीजिये... हिंदू धर्म में मां गायत्री को पंचमुखी माना गया है जिसका अर्थ है यह संपूर्ण ब्रह्माण्ड जल, वायु, पृथ्वी, तेज और आकाश के पांच तत्वों से बना है। संसार में जितने भी प्राणी हैं, उनका शरीर भी इन्हीं पांच तत्वों से बना है। इस पृथ्वी पर प्रत्येक जीव के भीतर गायत्री प्राण-शक्ति के रूप में विद्यमान है। यही कारण है गायत्री को सभी शक्तियों का आधार माना गया है इसीलिए भारतीय संस्कृति में आस्था रखने वाले हर प्राणी को प्रतिदिन गायत्री उपासना अवश्य करनी चाहिए। गायत्री साधक के रूप में सामान्य जन को अमृत,पारस,कल्पवृक्ष रूपी लाभ सुनिश्चित रूप से आज भी मिल सकते है, पर उसके लिए पहले ब्राह्मण बनना होगा। गुरुवर के शब्दों में " ब्राह्मण की पूँजी है- विद्या और तप। अपरिग्रही ही वास्तव में सच्चा ब्राह्मण बनकर गायत्री की समस्त सिद्धियों का स्वामी बन सकता है, जिसे ब्रह्मवर्चस के रूप में प्रतिपादित किया गया है।" युगऋषि ने लिखा है कि परब्रह्म निराकार, अव्यक्त है। अपनी जिस अलौकिक शक्ति से वह स्वयं को विराट रूप में व्यक्त करता है, वह गायत्री है। इसी शक्ति के सहारे जीव मायाग्रस्त होकर विचरण करता है और इसी के सहारे माया से मुक्त होकर पुनः परमात्मा तक पहुँचता है। गायत्री मंत्र को जगत की आत्मा माने गए साक्षात देवता सूर्य की उपासना के लिए सबसे सरल और फलदायी मंत्र माना गया है. यह मंत्र निरोगी जीवन के साथ-साथ यश, प्रसिद्धि, धन व ऐश्वर्य देने वाली होती है। लेकिन इस मंत्र के साथ कई युक्तियां भी जुड़ी है. अगर आपको गायत्री मंत्र का अधिक लाभ चाहिए तो इसके लिए गायत्री मंत्र की साधना विधि विधान और मन, वचन, कर्म की पवित्रता के साथ जरूरी माना गया है। वेदमाता मां गायत्री की उपासना 24 देवशक्तियों की भक्ति का फल व कृपा देने वाली भी मानी गई है। इससे सांसारिक जीवन में सुख, सफलता व शांति की चाहत पूरी होती है। खासतौर पर हर सुबह सूर्योदय या ब्रह्ममुहूर्त में गायत्री मंत्र का जप ऐसी ही कामनाओं को पूरा करने में बहुत शुभ व असरदार माना गया है। मंत्र: ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्। अर्थात् 'सृष्टिकर्ता प्रकाशमान परमात्मा के प्रसिद्ध वरण करने योग्य तेज़ का (हम) ध्यान करते हैं, वे परमात्मा हमारी बुद्धि को (सत् की ओर) प्रेरित करें। गायत्री मंत्र जप किसी गुरु के मार्गदर्शन में करना चाहिए। गायत्री मंत्र जप के लिए सुबह का समय श्रेष्ठ होता है। किंतु यह शाम को भी किए जा सकते हैं। गायत्री मंत्र के लिए स्नान के साथ मन और आचरण पवित्र रखें। किंतु सेहत ठीक न होने या अन्य किसी वजह से स्नान करना संभव न हो तो किसी गीले वस्त्रों से तन पोंछ लें। साफ और सूती वस्त्र पहनें। कुश या चटाई का आसन बिछाएं। पशु की खाल का आसन निषेध है। तुलसी या चन्दन की माला का उपयोग करें। ब्रह्ममूहुर्त में यानी सुबह होने के लगभग 2 घंटे पहले पूर्व दिशा की ओर मुख करके गायत्री मंत्र जप करें। शाम के समय सूर्यास्त के घंटे भर के अंदर जप पूरे करें। शाम को पश्चिम दिशा में मुख रखें। इस मंत्र का मानसिक जप किसी भी समय किया जा सकता है। शौच या किसी आकस्मिक काम के कारण जप में बाधा आने पर हाथ-पैर धोकर फिर से जप करें। बाकी मंत्र जप की संख्या को थोड़ी-थोड़ी पूरी करें। साथ ही अधिक माला कर जप बाधा दोष का शमन करें। गायत्री मंत्र जप करने वाले का खान-पान शुद्ध और पवित्र होना चाहिए। किंतु जिन लोगों का सात्विक खान-पान नहीं है, वह भी गायत्री मंत्र जप कर सकते हैं। क्योंकि ऐसा माना जाता है कि इस मंत्र के असर से ऐसा व्यक्ति भी शुद्ध और सद्गुणी बन जाता है। गायत्री की उपासना तीनों कालों में की जाती है, प्रात: मध्याह्न और सायं। तीनों कालों के लिये इनका पृथक्-पृथक् ध्यान है। प्रात:काल ये सूर्यमण्डल के मध्य में विराजमान रहती है। उस समय इनके शरीर का रंग लाल रहता है। ये अपने दो हाथों में क्रमश: अक्षसूत्र और कमण्डलु धारण करती हैं। इनका वाहन हंस है तथा इनकी कुमारी अवस्था है। इनका यही स्वरूप ब्रह्मशक्ति गायत्री के नाम से प्रसिद्ध है। इसका वर्णन ऋग्वेद में प्राप्त होता है। मध्याह्न काल में इनका युवा स्वरूप है। इनकी चार भुजाएँ और तीन नेत्र हैं। इनके चारों हाथों में क्रमश: शंख, चक्र, गदा और पद्म शोभा पाते हैं। इनका वाहन गरूड है। गायत्री का यह स्वरूप वैष्णवी शक्ति का परिचायक है। इस स्वरूप को सावित्री भी कहते हैं। इसका वर्णन यजुर्वेद में मिलता है। सायं काल में गायत्री की अवस्था वृद्धा मानी गयी है। इनका वाहन वृषभ है तथा शरीर का वर्ण शुक्ल है। ये अपने चारों हाथों में क्रमश: त्रिशूल, डमरू, पाश और पात्र धारण करती हैं। यह रुद्र शक्ति की परिचायिका हैं इसका वर्णन सामवेद में प्राप्त होता है। हम नित्य गायत्री मंत्र का जाप करते हैं। लेकिन उसका पूरा अर्थ नहीं जानते। गायत्री मंत्र की महिमा अपार हैं। गायत्री, संहिता के अनुसार, गायत्री मंत्र में कुल 24 अक्षर हैं। ये चौबीस अक्षर इस प्रकार हैं- 1। तत् 2.स 3। वि 4। तु 5। र्व 6। रे 7। णि 8। यं 9। भ 10। गौं 11। दे 12। व 13। स्य 14। धी 15। म 16। हि 17। धि 18। यो 19। यो 20। न: 21। प्र 22। चो 23। द 24। यात् वृहदारण्यक के अनुसार हम उक्त शब्दावली का भाव इस प्रकार समझते हैं। तत्सवितुर्वरेण्यं: अर्थात् मधुर वायु चलें, नदी और समुद्र रसमय होकर रहें। औषधियां हमारे लिए मंगलमय हों। भूलोक हमें सुख प्रदान करें। भर्गो देवस्य धीमहि:अर्थात् रात्रि और दिन हमारे लिए सुखकारण हों। पृथ्वी की रज हमारे लिए मंगलमय हो। धियो यो न: प्रचोदयात्: अर्थात् वनस्पतियां हमारे लिए रसमयी हों। सूर्य हमारे लिए सुखप्रद हो, उसकी रश्मियां हमारे लिए कल्याणकारी हों। सब हमारे लिए सुखप्रद हों। मैं सबके लिए मधुर बन जाऊं। उत्साह एवं सकारात्मकता, त्वचा में चमक आती है, तामसिकता से घृणा होती है, परमार्थ में रूचि जागती है, पूर्वाभास होने लगता है, आर्शीवाद देने की शक्ति बढ़ती है, नेत्रों में तेज आता है, स्वप्र सिद्धि प्राप्त होती है, क्रोध शांत होता है, ज्ञान की वृद्धि होती है। विद्यार्थीयों के लिए---- गायत्री मंत्र का जप सभी के लिए उपयोगी है किंतु विद्यार्थियों के लिए तो यह मंत्र बहुत लाभदायक है। रोजाना इस मंत्र का एक सौ आठ बार जप करने से विद्यार्थी को सभी प्रकार की विद्या प्राप्त करने में आसानी होती है। विद्यार्थियों को पढऩे में मन नहीं लगना, याद किया हुआ भूल जाना, शीघ्रता से याद न होना आदि समस्याओं से निजात मिल जाती है। दरिद्रता के नाश के लिए---- यदि किसी व्यक्ति के व्यापार, नौकरी में हानि हो रही है या कार्य में सफलता नहीं मिलती, आमदनी कम है तथा व्यय अधिक है तो उन्हें गायत्री मंत्र का जप काफी फायदा पहुंचाता है। शुक्रवार को पीले वस्त्र पहनकर हाथी पर विराजमान गायत्री माता का ध्यान कर गायत्री मंत्र के आगे और पीछे श्रीं सम्पुट लगाकर जप करने से दरिद्र का नाश होता है। इसके साथ ही रविवार को व्रत किया जाए तो ज्यादा लाभ होता है। संतान संबंधी परेशानियां दूर करने के लिए... किसी दंपत्ति को संतान प्राप्त करने में कठिनाई आ रही हो या संतान से दुखी हो अथवा संतान रोगग्रस्त हो तो प्रात: पति-पत्नी एक साथ सफेद वस्त्र धारण कर यौं बीज मंत्र का सम्पुट लगाकर गायत्री मंत्र का जप करें। संतान संबंधी किसी भी समस्या से शीघ्र मुक्ति मिलती है। शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने के लिए--- यदि कोई व्यक्ति शत्रुओं के कारण परेशानियां झेल रहा हो तो उसे प्रतिदिन या विशेषकर मंगलवार, अमावस्या अथवा रविवार को लाल वस्त्र पहनकर माता दुर्गा का ध्यान करते हुए गायत्री मंत्र के आगे एवं पीछे क्लीं बीज मंत्र का तीन बार सम्पुट लगाकार एक सौ आठ बार जाप करने से शत्रुओं पर विजय प्राप्त होती है। मित्रों में सद्भाव, परिवार में एकता होती है तथा न्यायालयों आदि कार्यों में भी विजय प्राप्त होती है। विवाह कार्य में देरी हो रही हो तो--- यदि किसी भी जातक के विवाह में अनावश्यक देरी हो रही हो तो सोमवार को सुबह के समय पीले वस्त्र धारण कर माता पार्वती का ध्यान करते हुए ह्रीं बीज मंत्र का सम्पुट लगाकर एक सौ आठ बार जाप करने से विवाह कार्य में आने वाली समस्त बाधाएं दूर होती हैं। यह साधना स्त्री पुरुष दोनों कर सकते हैं। यदि किसी रोग के कारण परेशानियां हो तो---- यदि किसी रोग से परेशान है और रोग से मुक्ति जल्दी चाहते हैं तो किसी भी शुभ मुहूर्त में एक कांसे के पात्र में स्वच्छ जल भरकर रख लें एवं उसके सामने लाल आसन पर बैठकर गायत्री मंत्र के साथ ऐं ह्रीं क्लीं का संपुट लगाकर गायत्री मंत्र का जप करें। जप के पश्चात जल से भरे पात्र का सेवन करने से गंभीर से गंभीर रोग का नाश होता है। यही जल किसी अन्य रोगी को पीने देने से उसके भी रोग का नाश होता हैं। Read More About: ज्योतिषहिंदूजीवनपैसा Published On May 20, 2015 English Summary Gayatri Mantra has been chronicled in the Rig Veda, which was written in Sanskrit about 2500 to 3500 years ago, and the mantra may have been chanted for many centuries before that. It is a boon for human life. About • Terms of Service • Privacy Policy • Contact • Advertise • Jobs • Apps © 2017 Greynium Information Technologies Pvt. Ltd.

उपनयन संस्कार

रुहेलखण्ड Rohilkhand उपनयन संस्कार इस संस्कार में आचार्य शिष्य से कहता है कि -'तू ईश्वर का ब्रह्मचारी है। वस्तुतः ईश्वर ही तेरा आचार्य है। मैं तो उसकी ओर से तेरा आचार्य हूँ।' इस का यह अर्थ है कि आचार्य कहता है कि ईश्वर कृपा से जो ज्ञान मैंने प्राप्त किया है, वही मैं तुझे दूंगा। उपनयन का शाब्दिक अर्थ है - बालक की शिक्षा पर उसके भावी जीवन का अच्छा या बुरा होना निर्भर था। उसके भावी जीवन पर ही समाज की उन्नति या अवनति निर्भर थी। गृह्यसूत्रों के अनुसार ब्राह्मण बालक का उपनयन संस्कार आठ वर्ष की क्षत्रिय का ग्यारह वर्ष की और वैश्य का बारह वर्ष की अवस्था में किया जाता था। तीव्र बुद्धि वाले ब्राह्मण का पाँच, बलवान क्षत्रिय का छः और कृषि आदि करने की इच्छा वाले वैश्य का आठ वर्ष की अवस्था में भी यह संस्कार किया जा सकता था। अधिकतम निर्धारित आयु तक जिन उच्च वर्ण के बालकों का उपनयन नहीं जाता था। अधिकतम निर्धारण आयु तक जिन उच्च वर्ण के बालकों का उपनयन नहीं होता था, उन्हें व्रात्य कहा जाता था और शिष्ट समाज में उनको निंदनीय समझा जाता था। मनु ने ब्राह्मण बालक के लिए चौबीस वर्ष लिखी है। तीनों वणाç के बालकों की अवस्थाओं में अंतर का कारण यह प्रतीत होता है कि ब्राह्मण बालक के घर में सदा ही पढ़ने- पढ़ाने का वातावरण रहता था। क्षत्रिय के परिवार में इससे कुछ कम और वैश्य के परिवार में उससे भी कम। ब्राह्मण को वैसे भी क्षत्रिय और वैश्य की अपेक्षा अध्ययन में कम समय लगाना पड़ता था। गृह्यसूत्रों और स्मृतियों में उपनयन संस्कार का पूरा विवरण मिलता है। इस समय बालक एक मेखला धारण करता था, जो तीनों वणाç के लिए अलग- अलग निर्धारित की गई थीं। ब्राह्मण बालक मूंज की, क्षत्रिय धनुष की डोरी की और वैश्य ऊन के धागे की कोंधनी धारण करता था। उनके डंडे भी अलग- अलग लकड़ियों के होते थे। ब्राह्मण ढाक या बेल का, क्षत्रिय बरगद का और वैश्य उदुंबर का डंडा धारण करता था। वह यज्ञोपवीत भी धारण करता था। आचार्य इसके बाद बालक से पूछता था कि क्या वह वास्तव में अध्ययन करने का इच्छुक है और ब्रह्मचर्य पालन की प्रतिज्ञा करता है। बालक के इन दोनों बातों का पूर्ण आश्वासन देने पर ही आचार्य उसे अपना शिष्य बनाता था और कहता था कि तू आज से मेरे कहने के ही अनुसार कार्य करेगा। इसके बाद आचार्य गायत्री मंत्र का अर्थ शिष्य को समझाता था। इस संस्कार के बाद बालक "द्विज' कहलाता था, क्योंकि इस संस्कार को बालक का दूसरा जन्म समझा जाता था। इस संस्कार के बाद बालक का उत्तरदायित्व बहुत बढ़ जाता था। इसी कारण इस संस्कार का बहुत महत्व था। बालक को इस बात की अनुभूति कराई जाती थी कि वह अपने परिवार और समुदाय के प्रति अपने कर्तव्य को भली- भांति समझने के लिए ब्रह्मचर्य आश्रम में रहकर अभीष्ट योग्यता प्राप्त करें। इसके बाद बालक भिक्षा माँगता था, जिससे कि उसमें अहम्यन्यता न रहे। भिक्षा में प्राप्त भोजन वह गुरु को देता था और गुरु के भोजन कर लेने के बाद उसमें से जो भोजन शेष बचता था, उसे वह स्वयं खाता था। उपनयन संस्कार की पृष्ठभूमि :- "उपनयन' वैदिक परंपरा की अनुयायी आर्य संस्कृति का एक महत्वपूर्ण संस्कार था। यह एक प्रकार का शुद्धिकरण ( संस्करण ) था, जिसे करने से वैदिक वर्णव्यवस्था में व्यक्ति द्विजत्व को प्राप्त होता था ( जन्मना जायते शूद्रः संस्काराद् द्विज उच्यते ),अर्थात् वह वेदाध्ययन का अधिकारी हो जाता था। उपनयन का शाब्दिक अर्थ होता है "नैकट्य प्रदान करना', क्योंकि इसके द्वारा वेदाध्ययन का इच्छुक व्यक्ति वेद- शास्रों में पारंगत गुरु/ आचार्य की शरण में जाकर एक विशेष अनुष्ठान के माध्यम से वेदाध्ययन की दीक्षा प्राप्त करता था, अर्थात् वेदाध्ययन के इच्छुक विद्यार्थी को गुरु अपने संरक्षण में लेकर एक विशिष्ट अनुष्ठान के द्वारा उसके शारीरिक एवं जन्म- जन्मांतर दोषों/ कुसंस्कारों का परिमार्जन कर उसमें वेदाध्ययन के लिए आवश्यक गुणों का आधार करता था, उसे एतदर्थ आवश्यक नियमों ( व्रतों ) की शिक्षा प्रदान करता था, इसलिए इस संस्कार को "व्रतबन्ध' भी कहा जाता था। फलतः अपने विद्यार्जन काल में उसे एक नियमबद्ध रुप में त्याग, तपस्या और कठिन अध्यवसाय का जीवन बिताना पड़ता था तथा श्रुतिपरंपरा से वैदिक विद्या में निष्णात होने पर समावर्तन संस्कार के उपरांत अपने भावी जीवन के लिए दिशा- निर्देश ( दीक्षा ) लेकर ही अपने घर आता था। उत्तरवर्ती कालों में यद्यपि वैदिक शिक्षा- पद्धति की परंपरा के विच्छिन्न हो जाने से यह एक परंपरा का अनुपालन मात्र रह गया है, किंतु पुरातन काल में इसका एक विशेष महत्व था। उपनयन की अनिवार्यता :- इस संदर्भ में यह भी उल्लेख्य है कि आप० गृ० सू० ( 1/1/1/19 ) के अनुसार संस्कार केवल उन्हीं व्यक्तियों के लिए आवश्यक था, जो कि गुरुजनों के आश्रम में जाकर उनके सान्निध्य में रहकर ब्रह्मचर्यादि व्रतों का पालन करते हुए गुरुमुख से वैदिक विद्याओं को प्राप्त करना चाहते थे। इसमें प्रत्येक वैदिक शाखा के अध्ययन के लिए उपनयन का पृथक्- पृथक् विधान हुआ करता था। अतः उपनयन उन लोगों के लिए अनिवार्य नहीं था, जो कि गुरुओं के आश्रमों में जाकर उनके नैकट्य में रहते हुए वेदाध्ययन के इच्छुक नहीं होते थे। उपनयन के इस पक्ष का संकेत उस आख्यान से मिलता है, जिसमें कि आरुणि अपने पुत्र श्वेतकेतु को यह परामर्श देते हैं कि उसे ब्रह्मचर्य ( विद्यार्थी ) का व्रत धारण करना चाहिए, क्योंकि उसके परिवार के सदस्यों ने जन्म के आधार पर ब्राह्मणत्व ( द्विजत्व ) का दावा नहीं किया है ( छांदोग्य० उप० 6.1.9 )। अतः वैदिक परंपरा में दीक्षित होने, स्वशाखीय वेदों का अध्ययन करने के लिए गुरु/ आचार्य के सान्निध्य में रहना तथा वहाँ रहते हुए अध्ययन के साथ- साथ विभिन्न व्रतों का सम्यक् रुप से पालन करना, नित्य प्रातः सायं संध्या- हवन करना, भिक्षाचरण के द्वारा अपना तथा गुरु का पोषण करना एवं वैदिक विद्याओं में पारंगत होने पर गुरु से अंतिम दीक्षा लेकर वापस आना ही, उपनयन संस्कार का प्रमुख लक्ष्य था। ब्राह्मण ग्रंथों में प्राप्त "अंतेवासी' एवं "ब्रह्मचारी' के विवरणों से ज्ञात होता है कि वैदिक काल में "उपनयन' अर्थात् विद्याध्ययनार्थ गुरु के पास जाने का आनुष्ठानिक कृत्य पर्याप्त सरल था। विद्याध्ययन का इच्छुक ब्रह्मचारी ( शिक्षार्थी ) हाथ में समिधा, काष्ठ लेकर गुरु के आश्रम में जाता था और उनका शिष्य ( ब्रह्मचारी ) बनकर शिक्षा प्राप्त करने की आकांक्षा व्यक्त करता था। गुरु उसके संबंध में गोत्रादि की जानकारी लेकर उसे शिष्यत्व के लिए स्वीकार कर लेता था। शतपथ ब्राह्मण ( 11/4/5 ) में इसका जो रुप प्राप्त होता है, वह कुछ इस प्रकार है - बालक आचार्य के पास जाकर कहता है "मैं ब्रह्मचर्य के लिए आया हूँ' मुझे ब्रहृमचारी हो जाने दीजिए।' इस पर गुरु पूछते हैं - "तुम्हारा नाम क्या है ?' (नाम जानने के उपरांत ) गुरु उसे अपने पास ले लेते हैं (उपनयति) और उसका हाथ अपने हाथ में लेकर कहते हैं - "तुम इंद्र के ब्रह्मचारी हो, अग्नि तुम्हारे गुरु हैं, मैं तुम्हारा गुरु हूँ।' ( गुरु उसका नाम लेकर संबोधित करता है )। गुरु शिक्षा देता है "जल पिओ, काम करो ( अभिप्रेत है गुरु का ) , अग्नि में समिधाएँ डालो,( दिन में ) मत सोओ।' तब वह उसे "सावित्री' का मंत्र देता था। उपनिषद् काल में भी उपनयन संस्कार इतना ही सरल था, इसके उदाहरण पुरातनतम उपनिषदों - छांदोग्य एवं वृहदारण्यक में पाये जाते हैं। छांदोग्य के एक संदर्भ ( 5/11/7 ) में आता है कि जब औपमन्यव तथा अन्य चार विद्यार्थी अपने हाथों में समिधाएँ लेकर अश्वपति केकय के पास पहुँचे, तो वे उनसे बिना उपनयन की क्रियाएँ किये ही बात करने लगे। जब सत्यकाम जाबाल ने अपने गोत्र का वास्तविक परिचय दिया, तो गौतम हारिद्रुत ने कहा - हे प्रिय बालक जाओ समिधाएँ ले आओ, मैं तुम्हें दीक्षित कर्रूँगा। तुम सत्य पर स्थिर रहे। (छान्दोग्य 4/4/5 )। उद्दालक आरुणि ने जो स्वयं ब्रह्मचारी एवं उद्भट विद्वान थे, अपने पुत्र श्वेतकेतु को ब्रह्मचारी के रुप में विद्याध्ययन के लिए गुरु के पास भेजा था, ( छान्दोग्य० 6/1/1/1- 2 )। आयु निर्धारण :- उपनयन संबंधी आयु निर्धारण के संबंध में यद्यपि वैदिक संहिताओं में कोई उल्लेख नहीं मिलता, किंतु गृह्यसूत्रों तथा स्मृतिग्रंथों में इसका स्पष्ट निर्देश पाया जाता है। तदनुसार वर्णभेद से ब्राह्मण बटुक का उपनयन आठवें वर्ष में, क्षत्रिय का ग्यारवें वर्ष में तथा वैश्य का बारहवें वर्ष में किया जाना चाहिए। पर साथ ही पार० गृ० सू० "यथा मंगलं वा सर्वेषाम्' की व्यवस्था भी देता है। उधर अभिप्राय विशेष के आधार पर मनु इसे क्रमशः पांच, छः तथा आठ वर्ष में किये जाने की व्यवस्था भी देते हैं। आश्व० के अनुसार यह क्रमशः 16, 22, 24 वर्ष तक भी हो सकता है जैसा कि ऊपर कहा गया है। वैदिक साहित्य में उपनयन का सर्वप्रथम उल्लेख श० ब्रा० (11.5.4 ) में पाया जाता है। प्रारम्भ में इसका स्वरुप अति संक्षिप्त एवं सरल था। शिक्षार्थी हाथ में कुश एवं समिधाएं लेकर आचार्य के पास जाता था तथा प्रणाम पूर्वक अपने कुल तथा गोत्र का परिचय देकर उनसे अपना शिष्य स्वीकार करने के लिए विनम्र अनुरोध करता था। उसके परिचय तथा उपयुक्त पात्रता से सन्तुष्ट होकर आचार्य उसे अपना शिष्य स्वीकार कर, अपने सान्निध्य में रखने तथा वैदिक ज्ञान में दीक्षित करने का आश्वासन देकर उसे अपने पास रख लेता था, तथा वैदिक विद्याओं में पारंगत होने पर उसका समावर्तन संस्कार करके गृहस्थ धर्म में प्रवेश करने के लिए यथावश्यक दीक्षा देकर उसे अपने घर वापस भेज देता था। उपनयन का बदलता स्वरुप किन्तु अथर्व० एवं ब्राह्मणकाल तक आते-आते इसमें कतिपय अन्य अनुष्ठानों का समावेश हो गया, जो कि गृह्यसूत्र काल में आकर और अधिक जटिल हो गया तथा इसमें अनेक कर्मकाण्डीय अनुष्ठानों का समावेश हो गया, जो कि उत्तरवर्ती कालों में बढ़ता गया एवं स्मृतिका में आकर तो वर्णव्यवस्था के अधीन इसे सभी वणाç तथा व्यक्तियों के लिए एक अनिवार्य द्विजातीय संस्कार का रुप दे दिया गया। फलतः यह एक विशिष्ट शिक्षासंस्कार के स्थान पर द्विजत्व प्राप्ति का एक सर्वसामान्य संस्कार बन कर रह गया तथा इसके सम्पादन में मूल संस्कार का नाट्याभिनय प्रारम्भ हो गया। इतना ही नहीं विवाह संस्कार से पूर्व इसकी अनिवार्यता घोषित कर दिये जाने से उन सभी लोगों का उपनयन संस्कार किया जाने लगा, जिनका शिक्षा के साथ दूर का भी सम्बन्ध नहीं हो सकता था, अर्थात् अन्ध, बहिर, कुब्ज, वामन, षंढ (नपुंसक) आदि सभी का उपनयन किया जाने लगा, तथा इसके साथ यज्ञोपवीत (जनेऊ) धारण करने का विधान भी कर दिया गया, या यों कहें कि यज्ञोपवीत धारण करना ही इसका मुख्य अनुष्ठान हो जाने से यज्ञोपवीत संस्कार तथा उपनयन संस्कार दोनों परस्पर पर्यायवाची हो गये। उल्लेख्य है कि गृह्यसूत्रों में उपनयन संस्कार के साथ अथवा अन्य किसी स्वतंत्र संस्कार के रुप में यज्ञोपवीत संस्कार अथवा उपवीत सूत्र धारण करने का कहीं कोई उल्लेख या विवरण प्राप्त नहीं होता है। वस्तुतः इसके नाम, यज्ञोपवीत, से ही व्यक्त है कि इसका सम्बन्ध यज्ञ में यजमान के द्वारा धारण किये जाने वाले उत्तरीय से था, जो कि गोभिल के अनुसार सूत्र, वस्र या कुशरज्जु कुछ भी हो सकता था। कुश के यज्ञोपवीत (यज्ञोत्तरीय) के सम्बंध में देवल का कहना है कि इसे वस्र के अभाव में धारण किया जा सकता है। आप० घ० सू० (2/2/4/22-23 ) का भी कहना है कि यज्ञ कार्य उत्तरीय के साथ किया जाना चाहिए। उसके अभाव में केवल सूत्र से भी काम चलाया जा सकता है। किन्तु आधुनिक युग तक आते-आते उपनयन संस्कार का रुप इतना बदल गया कि जनेऊ धारण करना ही उपनयन हो गया। इससे सम्बद्ध वैदिक अनुष्ठान बिल्कुल पीछे छूट गये और यह एक परम्परा का अनुपालन मात्र बन कर रह गया। यहां तक कि आधुनिक काल में लोग बिना किसी अनुष्ठान के हरिद्वार आदि तीर्थ स्थलों में जाकर गंगा स्नान करके एक बाजारु यज्ञोपवीत (जनेऊ) खरीदकर गले में डाल लेते हैं और इससे ही समझ लिया जाता है कि उसका उपनयन या यज्ञोपवीत संस्कार सम्पन्न हो गया तथा इस संस्कार की अनिवार्यता में आस्था रखने वाले कुछ लोग विवाह के दिन पूर्वांग पूजा के साथ इसकी कतिपय आनुष्ठानिक औपचारिकताओं को संक्षिप्त रुप से पूरा करके यज्ञोपवीत को धारण कर इससे निवृत्त हो जाते हैं। जहां इसे एक पृथक् संस्कार के रुप में सम्पन्न किया जाता है वहां भी उपनयन एक नाटकीय प्रदर्शन ही होता है। विहाह से पूर्व यज्ञोपवीत आनुष्ठानिक विस्तार : - इसके ऐतिहासिक विकास क्रम की उपर्युक्त पृष्ठभूमि में अब इसके आनुष्ठानिक विकास के स्वरुप पर भी किंचित विचार कर लेना अनुचित न होगा। इसका सर्वप्रथम विवरण हमें पार० गृ० सू० में देखने का मिलता है। तदनुसार बटुक का पिता उसे लेकर आचार्य के पास जाता था तथा बटुक आचार्य के पास जाकर विनीत भाव से कहता था, "मैं आपका ब्रह्मचारी हूं' अर्थात् मैं आपका शिष्य बनना चाहता हँ। गुरु वैदिक मंत्र के साथ उसे नवीन वस्र धारण कराता था। तदनन्तर उसकी कटि में मेखला बन्धन करता था। फिर यज्ञोपवीत, अजिन व दण्ड प्रदान करता था और बटुक उसे स्वीकार कर धारण करता था। इसे अनन्तर अपनी अंजलि में जल लेकर उसकी अंजलि में डालता था। फिर सूर्य का दर्शन करा कर उसके दाहिने कन्धे के ऊपर से हाथ ले जाकर उसके हृदय देश का स्पर्श (हृदयालभन) करता था। इसके बाद उसका दाहिना हाथ पकड़ कर पूछता था "तुम्हारा क्या नाम है ? वह अपना नाम लेकर कहता था, मैं अमुक ( नामोच्चार करके ) नाम वाला हूँ'। यह आचार्य पुनः प्रश्न करता था "तुम किसके ब्रह्मचारी ( शिष्य ) हो ? 'इस पर वह उत्तर देता था, "आपका ब्रह्मचारी हूँ।' इस पर वह कहता था - "हे बेटा ! तुम इन्द्र परमैश्वर्य संपन्न के ब्रह्मचारी हो,तुम्हारा प्रथम आचार्य अग्नि है, दूसरा आचार्य मैं हूँ।' मैं तुम्हें प्रजापति, सकवता, औषधि, द्यावापृथिवी, विश्वेदेवा एवं सम्पूर्ण भूतों के लिए रक्षार्थ समर्पित करता हूँ।'' इसके साथ ही उपनयन संस्कार का अनुष्ठान पूरा हो जाता था   | विषय सूची | Content Prepared by Dr. Rajeev Pandey Copyright IGNCA© 2004 सभी स्वत्व सुरक्षित । इस प्रकाशन का कोई भी अंश प्रकाशक की लिखित अनुमति के बिना पुनर्मुद्रित करना वर्जनीय है ।

सनातन धर्म के संस्कार

मुख्य मेनू खोलें खोजें 3 संपादित करेंध्यानसूची से हटाएँ। सनातन धर्म के संस्कार हिन्दू धर्म में सोलह संस्कारों (षोडश संस्कार) का उल्लेख किया जाता है जो मानव को उसके गर्भ में जाने से लेकर मृत्यु के बाद तक किए जाते हैं। [1]इनमें से विवाह, यज्ञोपवीत इत्यादि संस्कार बड़े धूमधाम से मनाये जाते हैं। वर्तमान समय में सनातन धर्म या हिन्दू धर्म के अनुयायी गर्भधान से मृत्यु तक १६ संस्कारों में से पसार होते है।[2] इस संदूक को: देखें • संवाद • संपादन हिन्दू धर्म पर एक श्रेणी का भाग इतिहास · देवता सम्प्रदाय · आगम विश्वास और दर्शनशास्त्र पुनर्जन्म · मोक्ष कर्म · पूजा · माया दर्शन · धर्म वेदान्त ·योग शाकाहार  · आयुर्वेद युग · संस्कार भक्ति {{हिन्दू दर्शन}} ग्रन्थ वेदसंहिता · वेदांग ब्राह्मणग्रन्थ · आरण्यक उपनिषद् · श्रीमद्भगवद्गीता रामायण · महाभारत सूत्र · पुराण शिक्षापत्री · वचनामृत सम्बन्धित विषय दैवी धर्म · विश्व में हिन्दू धर्म गुरु · मन्दिर देवस्थान यज्ञ · मन्त्र शब्दकोष · हिन्दू पर्व विग्रह प्रवेशद्वार: हिन्दू धर्म हिन्दू मापन प्रणाली इतिहास संपादित करें मुख्य लेख :  हिन्दू संस्कार का इतिहास प्राचीन काल में प्रत्येक कार्य संस्कार से आरम्भ होता था। उस समय संस्कारों की संख्या भी लगभग चालीस थी। जैसे-जैसे समय बदलता गया तथा व्यस्तता बढती गई तो कुछ संस्कार स्वत: विलुप्त हो गये। इस प्रकार समयानुसार संशोधित होकर संस्कारों की संख्या निर्धारित होती गई। गौतम स्मृति में चालीस प्रकार के संस्कारों का उल्लेख है। [3]महर्षि अंगिरा ने इनका अंतर्भाव पच्चीस संस्कारों में किया। व्यास स्मृति में सोलह संस्कारों का वर्णन हुआ है। हमारे धर्मशास्त्रों में भी मुख्य रूप से सोलह संस्कारों की व्याख्या की गई है। इनमें पहला गर्भाधान संस्कार और मृत्यु के उपरांत अंत्येष्टि अंतिम संस्कार है। गर्भाधान के बाद पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण ये सभी संस्कार नवजात का दैवी जगत् से संबंध स्थापना के लिये किये जाते हैं। नामकरण के बाद चूड़ाकर्म और यज्ञोपवीत संस्कार होता है। इसके बाद विवाह संस्कार होता है। यह गृहस्थ जीवन का सर्वाधिक महत्वपूर्ण संस्कार है। हिन्दू धर्म में स्त्री और पुरुष दोनों के लिये यह सबसे बडा संस्कार है, जो जन्म-जन्मान्तर का होता है। विभिन्न धर्मग्रंथों में संस्कारों के क्रम में थोडा-बहुत अन्तर है, लेकिन प्रचलित संस्कारों के क्रम में गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, चूड़ाकर्म, विद्यारंभ, कर्णवेध, यज्ञोपवीत, वेदारम्भ, केशान्त, समावर्तन, विवाह तथा अन्त्येष्टि ही मान्य है। गर्भाधान से विद्यारंभ तक के संस्कारों को गर्भ संस्कार भी कहते हैं। इनमें पहले तीन (गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन) को अन्तर्गर्भ संस्कार तथा इसके बाद के छह संस्कारों को बहिर्गर्भ संस्कार कहते हैं। गर्भ संस्कार को दोष मार्जन अथवा शोधक संस्कार भी कहा जाता है। दोष मार्जन संस्कार का तात्पर्य यह है कि शिशु के पूर्व जन्मों से आये धर्म एवं कर्म से सम्बन्धित दोषों तथा गर्भ में आई विकृतियों के मार्जन के लिये संस्कार किये जाते हैं। बाद वाले छह संस्कारों को गुणाधान संस्कार कहा जाता है। संस्कार संपादित करें गर्भाधान संपादित करें हमारे शास्त्रों में मान्य सोलह संस्कारों में गर्भाधान पहला है। गृहस्थ जीवन में प्रवेश के उपरान्त प्रथम क‌र्त्तव्य के रूप में इस संस्कार को मान्यता दी गई है। गार्हस्थ्य जीवन का प्रमुख उद्देश्य श्रेष्ठ सन्तानोत्पत्ति है। उत्तम संतति की इच्छा रखनेवाले माता-पिता को गर्भाधान से पूर्व अपने तन और मन की पवित्रता के लिये यह संस्कार करना चाहिए। वैदिक काल में यह संस्कार अति महत्वपूर्ण समझा जाता था। पुंसवन संपादित करें गर्भस्थ शिशु के मानसिक विकास की दृष्टि से यह संस्कार उपयोगी समझा जाता है। गर्भाधान के दूसरे या तीसरे महीने में इस संस्कार को करने का विधान है। हमारे मनीषियों ने सन्तानोत्कर्ष के उद्देश्य से किये जाने वाले इस संस्कार को अनिवार्य माना है। गर्भस्थ शिशु से सम्बन्धित इस संस्कार को शुभ नक्षत्र में सम्पन्न किया जाता है। पुंसवन संस्कार का प्रयोजन स्वस्थ एवं उत्तम संतति को जन्म देना है। विशेष तिथि एवं ग्रहों की गणना के आधार पर ही गर्भधान करना उचित माना गया है। सीमन्तोन्नयन संपादित करें सीमन्तोन्नयन को सीमन्तकरण अथवा सीमन्त संस्कार भी कहते हैं। सीमन्तोन्नयन का अभिप्राय है सौभाग्य संपन्न होना। गर्भपात रोकने के साथ-साथ गर्भस्थ शिशु एवं उसकी माता की रक्षा करना भी इस संस्कार का मुख्य उद्देश्य है। इस संस्कार के माध्यम से गर्भिणी स्त्री का मन प्रसन्न रखने के लिये सौभाग्यवती स्त्रियां गर्भवती की मांग भरती हैं। यह संस्कार गर्भ धारण के छठे अथवा आठवें महीने में होता है। जातकर्म संपादित करें नवजात शिशु के नालच्छेदन से पूर्व इस संस्कार को करने का विधान है। इस दैवी जगत् से प्रत्यक्ष सम्पर्क में आनेवाले बालक को मेधा, बल एवं दीर्घायु के लिये स्वर्ण खण्ड से मधु एवं घृत वैदिक मंत्रों के उच्चारण के साथ चटाया जाता है। यह संस्कार विशेष मन्त्रों एवं विधि से किया जाता है। दो बूंद घी तथा छह बूंद शहद का सम्मिश्रण अभिमंत्रित कर चटाने के बाद पिता यज्ञ करता है तथा नौ मन्त्रों का विशेष रूप से उच्चारण के बाद बालक के बुद्धिमान, बलवान, स्वस्थ एवं दीर्घजीवी होने की प्रार्थना करता है। इसके बाद माता बालक को स्तनपान कराती है। नामकरण संपादित करें जन्म के ग्यारहवें दिन यह संस्कार होता है। हमारे धर्माचार्यो ने जन्म के दस दिन तक अशौच (सूतक) माना है। इसलिये यह संस्कार ग्यारहवें दिन करने का विधान है। महर्षि याज्ञवल्क्य का भी यही मत है, लेकिन अनेक कर्मकाण्डी विद्वान इस संस्कार को शुभ नक्षत्र अथवा शुभ दिन में करना उचित मानते हैं। नामकरण संस्कार का सनातन धर्म में अधिक महत्व है। हमारे मनीषियों ने नाम का प्रभाव इसलिये भी अधिक बताया है क्योंकि यह व्यक्तित्व के विकास में सहायक होता है। तभी तो यह कहा गया है राम से बड़ा राम का नाम हमारे धर्म विज्ञानियों ने बहुत शोध कर नामकरण संस्कार का आविष्कार किया। ज्योतिष विज्ञान तो नाम के आधार पर ही भविष्य की रूपरेखा तैयार करता है। निष्क्रमण संपादित करें दैवी जगत् से शिशु की प्रगाढ़ता बढ़े तथा ब्रह्माजी की सृष्टि से वह अच्छी तरह परिचित होकर दीर्घकाल तक धर्म और मर्यादा की रक्षा करते हुए इस लोक का भोग करे यही इस संस्कार का मुख्य उद्दे निष्क्रमण का अभिप्राय है बाहर निकलना। इस संस्कार में शिशु को सूर्य तथा चन्द्रमा की ज्योति दिखाने का विधान है। भगवान भास्कर के तेज तथा चन्द्रमा की शीतलता से शिशु को अवगत कराना ही इसका उद्देश्य है। इसके पीछे मनीषियों की शिशु को तेजस्वी तथा विनम्र बनाने की परिकल्पना होगी। उस दिन देवी-देवताओं के दर्शन तथा उनसे शिशु के दीर्घ एवं यशस्वी जीवन के लिये आशीर्वाद ग्रहण किया जाता है। जन्म के चौथे महीने इस संस्कार को करने का विधान है। तीन माह तक शिशु का शरीर बाहरी वातावरण यथा तेज धूप, तेज हवा आदि के अनुकूल नहीं होता है इसलिये प्राय: तीन मास तक उसे बहुत सावधानी से घर में रखना चाहिए। इसके बाद धीरे-धीरे उसे बाहरी वातावरण के संपर्क में आने देना चाहिए। इस संस्कार का तात्पर्य यही है कि शिशु समाज के सम्पर्क में आकर सामाजिक परिस्थितियों से अवगत हो। अन्नप्राशन संपादित करें इस संस्कार का उद्देश्य शिशु के शारीरिक व मानसिक विकास पर ध्यान केन्द्रित करना है। अन्नप्राशन का स्पष्ट अर्थ है कि शिशु जो अब तक पेय पदार्थो विशेषकर दूध पर आधारित था अब अन्न जिसे शास्त्रों में प्राण कहा गया है उसको ग्रहण कर शारीरिक व मानसिक रूप से अपने को बलवान व प्रबुद्ध बनाए। तन और मन को सुदृढ़ बनाने में अन्न का सर्वाधिक योगदान है। शुद्ध, सात्विक एवं पौष्टिक आहार से ही तन स्वस्थ रहता है और स्वस्थ तन में ही स्वस्थ मन का निवास होता है। आहार शुद्ध होने पर ही अन्त:करण शुद्ध होता है तथा मन, बुद्धि, आत्मा सबका पोषण होता है। इसलिये इस संस्कार का हमारे जीवन में विशेष महत्व है। हमारे धर्माचार्यो ने अन्नप्राशन के लिये जन्म से छठे महीने को उपयुक्त माना है। छठे मास में शुभ नक्षत्र एवं शुभ दिन देखकर यह संस्कार करना चाहिए। खीर और मिठाई से शिशु के अन्नग्रहण को शुभ माना गया है। अमृत: क्षीरभोजनम् हमारे शास्त्रों में खीर को अमृत के समान उत्तम माना गया है। चूड़ाकर्म संपादित करें चूड़ाकर्म को मुंडन संस्कार भी कहा जाता है। हमारे आचार्यो ने बालक के पहले, तीसरे या पांचवें वर्ष में इस संस्कार को करने का विधान बताया है। इस संस्कार के पीछे शुाचिता और बौद्धिक विकास की परिकल्पना हमारे मनीषियों के मन में होगी। मुंडन संस्कार का अभिप्राय है कि जन्म के समय उत्पन्न अपवित्र बालों को हटाकर बालक को प्रखर बनाना है। नौ माह तक गर्भ में रहने के कारण कई दूषित किटाणु उसके बालों में रहते हैं। मुंडन संस्कार से इन दोषों का सफाया होता है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार इस संस्कार को शुभ मुहूर्त में करने का विधान है। वैदिक मंत्रोच्चारण के साथ यह संस्कार सम्पन्न होता है। विद्यारंभ संपादित करें विद्यारम्भ संस्कार के क्रम के बारे में हमारे आचार्यो में मतभिन्नता है। कुछ आचार्यो का मत है कि अन्नप्राशन के बाद विद्यारम्भ संस्कार होना चाहिये तो कुछ चूड़ाकर्म के बाद इस संस्कार को उपयुक्त मानते हैं। मेरी राय में अन्नप्राशन के समय शिशु बोलना भी शुरू नहीं कर पाता है और चूड़ाकर्म तक बच्चों में सीखने की प्रवृत्ति जगने लगती है। इसलिये चूड़ाकर्म के बाद ही विद्यारम्भ संस्कार उपयुक्त लगता है। विद्यारम्भ का अभिप्राय बालक को शिक्षा के प्रारम्भिक स्तर से परिचित कराना है। प्राचीन काल में जब गुरुकुल की परम्परा थी तो बालक को वेदाध्ययन के लिये भेजने से पहले घर में अक्षर बोध कराया जाता था। माँ-बाप तथा गुरुजन पहले उसे मौखिक रूप से श्लोक, पौराणिक कथायें आदि का अभ्यास करा दिया करते थे ताकि गुरुकुल में कठिनाई न हो। हमारा शास्त्र विद्यानुरागी है। शास्त्र की उक्ति है सा विद्या या विमुक्तये अर्थात् विद्या वही है जो मुक्ति दिला सके। विद्या अथवा ज्ञान ही मनुष्य की आत्मिक उन्नति का साधन है। शुभ मुहूर्त में ही विद्यारम्भ संस्कार करना चाहिये। कर्णवेध संपादित करें हमारे मनीषियों ने सभी संस्कारों को वैज्ञानिक कसौटी पर कसने के बाद ही प्रारम्भ किया है। कर्णवेध संस्कार का आधार बिल्कुल वैज्ञानिक है। बालक की शारीरिक व्याधि से रक्षा ही इस संस्कार का मूल उद्देश्य है। प्रकृति प्रदत्त इस शरीर के सारे अंग महत्वपूर्ण हैं। कान हमारे श्रवण द्वार हैं। कर्ण वेधन से व्याधियां दूर होती हैं तथा श्रवण शक्ति भी बढ़ती है। इसके साथ ही कानों में आभूषण हमारे सौन्दर्य बोध का परिचायक भी है। यज्ञोपवीत के पूर्व इस संस्कार को करने का विधान है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार शुक्ल पक्ष के शुभ मुहूर्त में इस संस्कार का सम्पादन श्रेयस्कर है। यज्ञोपवीत संपादित करें यज्ञोपवीत अथवा उपनयन बौद्धिक विकास के लिये सर्वाधिक महत्वपूर्ण संस्कार है। धार्मिक और आधात्मिक उन्नति का इस संस्कार में पूर्णरूपेण समावेश है। हमारे मनीषियों ने इस संस्कार के माध्यम से वेदमाता गायत्री को आत्मसात करने का प्रावधान दिया है। आधुनिक युग में भी गायत्री मंत्र पर विशेष शोध हो चुका है। गायत्री सर्वाधिक शक्तिशाली मंत्र है। यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं अर्थात् यज्ञोपवीत जिसे जनेऊ भी कहा जाता है अत्यन्त पवित्र है। प्रजापति ने स्वाभाविक रूप से इसका निर्माण किया है। यह आयु को बढ़ानेवाला, बल और तेज प्रदान करनेवाला है। इस संस्कार के बारे में हमारे धर्मशास्त्रों में विशेष उल्लेख है। यज्ञोपवीत धारण का वैज्ञानिक महत्व भी है। प्राचीन काल में जब गुरुकुल की परम्परा थी उस समय प्राय: आठ वर्ष की उम्र में यज्ञोपवीत संस्कार सम्पन्न हो जाता था। इसके बाद बालक विशेष अध्ययन के लिये गुरुकुल जाता था। यज्ञोपवीत से ही बालक को ब्रह्मचर्य की दीक्षा दी जाती थी जिसका पालन गृहस्थाश्रम में आने से पूर्व तक किया जाता था। इस संस्कार का उद्देश्य संयमित जीवन के साथ आत्मिक विकास में रत रहने के लिये बालक को प्रेरित करना है। वेदारंभ संपादित करें ज्ञानार्जन से सम्बन्धित है यह संस्कार। वेद का अर्थ होता है ज्ञान और वेदारम्भ के माध्यम से बालक अब ज्ञान को अपने अन्दर समाविष्ट करना शुरू करे यही अभिप्राय है इस संस्कार का। शास्त्रों में ज्ञान से बढ़कर दूसरा कोई प्रकाश नहीं समझा गया है। स्पष्ट है कि प्राचीन काल में यह संस्कार मनुष्य के जीवन में विशेष महत्व रखता था। यज्ञोपवीत के बाद बालकों को वेदों का अध्ययन एवं विशिष्ट ज्ञान से परिचित होने के लिये योग्य आचार्यो के पास गुरुकुलों में भेजा जाता था। वेदारम्भ से पहले आचार्य अपने शिष्यों को ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने एवं संयमित जीवन जीने की प्रतिज्ञा कराते थे तथा उसकी परीक्षा लेने के बाद ही वेदाध्ययन कराते थे। असंयमित जीवन जीने वाले वेदाध्ययन के अधिकारी नहीं माने जाते थे। हमारे चारों वेद ज्ञान के अक्षुण्ण भंडार हैं। केशांत संपादित करें गुरुकुल में वेदाध्ययन पूर्ण कर लेने पर आचार्य के समक्ष यह संस्कार सम्पन्न किया जाता था। वस्तुत: यह संस्कार गुरुकुल से विदाई लेने तथा गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने का उपक्रम है। वेद-पुराणों एवं विभिन्न विषयों में पारंगत होने के बाद ब्रह्मचारी के समावर्तन संस्कार के पूर्व बालों की सफाई की जाती थी तथा उसे स्नान कराकर स्नातक की उपाधि दी जाती थी। केशान्त संस्कार शुभ मुहूर्त में किया जाता था। समावर्तन संपादित करें गुरुकुल से विदाई लेने से पूर्व शिष्य का समावर्तन संस्कार होता था। इस संस्कार से पूर्व ब्रह्मचारी का केशान्त संस्कार होता था और फिर उसे स्नान कराया जाता था। यह स्नान समावर्तन संस्कार के तहत होता था। इसमें सुगन्धित पदार्थो एवं औषधादि युक्त जल से भरे हुए वेदी के उत्तर भाग में आठ घड़ों के जल से स्नान करने का विधान है। यह स्नान विशेष मन्त्रोच्चारण के साथ होता था। इसके बाद ब्रह्मचारी मेखला व दण्ड को छोड़ देता था जिसे यज्ञोपवीत के समय धारण कराया जाता था। इस संस्कार के बाद उसे विद्या स्नातक की उपाधि आचार्य देते थे। इस उपाधि से वह सगर्व गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने का अधिकारी समझा जाता था। सुन्दर वस्त्र व आभूषण धारण करता था तथा आचार्यो एवं गुरुजनों से आशीर्वाद ग्रहण कर अपने घर के लिये विदा होता था। विवाह संपादित करें प्राचीन काल से ही स्त्री और पुरुष दोनों के लिये यह सर्वाधिक महत्वपूर्ण संस्कार है। यज्ञोपवीत से समावर्तन संस्कार तक ब्रह्मचर्य व्रत के पालन का हमारे शास्त्रों में विधान है। वेदाध्ययन के बाद जब युवक में सामाजिक परम्परा निर्वाह करने की क्षमता व परिपक्वता आ जाती थी तो उसे गृर्हस्थ्य धर्म में प्रवेश कराया जाता था। लगभग पच्चीस वर्ष तक ब्रह्मचर्य का व्रत का पालन करने के बाद युवक परिणय सूत्र में बंधता था। हमारे शास्त्रों में आठ प्रकार के विवाहों का उल्लेख है- ब्राह्म, दैव, आर्ष, प्रजापत्य, आसुर, गन्धर्व, राक्षस एवं पैशाच। वैदिक काल में ये सभी प्रथाएं प्रचलित थीं। समय के अनुसार इनका स्वरूप बदलता गया। वैदिक काल से पूर्व जब हमारा समाज संगठित नहीं था तो उस समय उच्छृंखल यौनाचार था। हमारे मनीषियों ने इस उच्छृंखलता को समाप्त करने के लिये विवाह संस्कार की स्थापना करके समाज को संगठित एवं नियमबद्ध करने का प्रयास किया। आज उन्हीं के प्रयासों का परिणाम है कि हमारा समाज सभ्य और सुसंस्कृत है। अन्त्येष्टि संपादित करें अन्त्येष्टि को अंतिम अथवा अग्नि परिग्रह संस्कार भी कहा जाता है। आत्मा में अग्नि का आधान करना ही अग्नि परिग्रह है। धर्म शास्त्रों की मान्यता है कि मृत शरीर की विधिवत् क्रिया करने से जीव की अतृप्त वासनायें शान्त हो जाती हैं। हमारे शास्त्रों में बहुत ही सहज ढंग से इहलोक और परलोक की परिकल्पना की गयी है। जब तक जीव शरीर धारण कर इहलोक में निवास करता है तो वह विभिन्न कर्मो से बंधा रहता है। प्राण छूटने पर वह इस लोक को छोड़ देता है। उसके बाद की परिकल्पना में विभिन्न लोकों के अलावा मोक्ष या निर्वाण है। मनुष्य अपने कर्मो के अनुसार फल भोगता है। इसी परिकल्पना के तहत मृत देह की विधिवत क्रिया होती है। सन्दर्भ संपादित करें ↑ http://hindi.webdunia.com/sanatan-dharma-niti-niyam/%E0%A4%9C%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A5%87%E0%A4%82-%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%82%E0%A4%A6%E0%A5%82-%E0%A4%B8%E0%A4%82%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B0-111022300061_1.htm ↑ http://hindi.webdunia.com/article/hindu-religion/%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A5%82-%E0%A4%A7%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AE-%E0%A4%95%E0%A5%87-%E0%A4%AA%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B0-%E0%A4%B8%E0%A5%8B%E0%A4%B2%E0%A4%B9-%E0%A4%B8%E0%A4%82%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B0-112043000025_1.htm ↑ गौतम स्मृति से उद्धरण बाहरी कड़ियाँ संपादित करें बालसंस्कार (हिन्दी तथा मराठी में बालकों के संस्कार को समर्पित जालस्थल) संवाद Last edited 5 months ago by अनुनाद सिंह RELATED PAGES केशांत संस्कार वेदारंभ संस्कार समावर्तन संस्कार सामग्री CC BY-SA 3.0 के अधीन है जब तक अलग से उल्लेख ना किया गया हो। गोपनीयताडेस्कटॉप

Friday, 8 December 2017

यज्ञोपवीत संस्कार विवेचन

लेखक प्रकाशक English ISBN,शीर्षक, लेखक या कीवर्ड खोजें MENU आचार्य श्रीराम शर्मा यज्ञोपवीत संस्कार विवेचन श्रीराम शर्मा आचार्य मूल्य:$ 1.95 प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश यज्ञोपवीत संस्कार विवेचन शिखा और सूत्र यह दो हिन्दू धर्म के सर्वमान्य प्रतीक है। सुन्नत होने से किसी को मुसलमान ठहराया जा सकता है, सिख धर्मानुयायी पंच-केशों के द्वारा अपनी धार्मिक मान्यता प्रकट करते हैं। पुलिस, फौज, जहाज और रेल आदि विभागों के कर्मचारी अपनी पोशाक से पहचाने जाते हैं। इसी प्रकार हिन्दू धर्मानुयायी अपने इन दो प्रतीकों को अपनी धार्मिक निष्ठा को प्रकट करते हैं। शिखा का महत्त्व कानट्रेक्ट में लिखेंगे, यह यज्ञोपवीत की ही विवेचना की जा रही है। उपयोगिता और आवश्यकता यज्ञोपवीत के धागों में नीति का सारा सार सन्निहित कर दिया गया है। जैसे कागज और स्याही के सहारे किसी नगण्य से पत्र या तुच्छ-सी लगने वाली पुस्तक में अत्यन्त महत्वपूर्ण ज्ञान-विज्ञान भर दिया जाती है, उसी प्रकार सूत के इन नौ धागों में जीवन विकास का सारा मार्गदर्शन समाविष्ट कर दिया गया है। इन धागों को कन्धों पर, हृदय पर, कलेजे पर, पीठ पर प्रतिष्ठापित करने का प्रयोजन यह है कि सन्निहित शिक्षाओं का यज्ञोपवीत के ये धागे हर समय स्मरण करायें और उन्हीं के आधार पर हम अपनी रीति-नीति का निर्धारण करते रहें। जन्म से मनुष्य भी एक प्रकार का पशु ही है। उसमें स्वार्थपरता की प्रवृत्ति अन्य जीव-जन्तुओं जैसी ही होती है, पर उत्कृष्ट आदर्शवादी मान्यताओं द्वारा वह मनुष्य बनता है। जब मानव की आस्था यह बन जाती है कि उसे इंसान की तरह ऊँचा जीवन जीना है और उसी आधार पर वह अपनी कार्य पद्धति निर्धारित करता है, तभी कहा जाता है कि इसने पशु-योनि छोड़कर मनुष्य योनि में प्रवेश किया अन्यथा नर-पशु से तो यह संसार भरा ही पड़ा है। स्वार्थ संकीर्णता से निकल कर परमार्थ की महानता में प्रवेश करने को, पशुता को त्याग कर मनुष्यता ग्रहण करने को दूसरा जन्म कहते हैं। शरीर-जन्म माता-पिता के रज-वीर्य से वैसा ही होता है जैसा अन्य जीवों का। आदर्शवाद जीवन लक्ष्य अपना लेने की प्रतिज्ञा लेना ही वास्तविक मनुष्य जन्म में प्रवेश करना है। इसी को द्विजत्व कहते हैं। द्विजत्व का अर्थ है-दूसरा जन्म। हर हिन्दू धर्मानुयायी को आदर्शवादी जीवन जीना चाहिए, द्विज बनना चाहिए। इस मूल तत्व को अपनाने की प्रक्रिया को समारोहपूर्वक यज्ञोपवीत संस्कार के नाम से सम्पन्न किया जाता है। इस व्रत-बंधन को आजीवन स्मरण रखने और व्यवहार में लाने की प्रतिज्ञा तीन लड़ों वाले यज्ञोपवीत की उपेक्षा करने का अर्थ है- जीवन जीने की प्रतिज्ञा से इनकार करना। ऐसे लोगों का किसी जमाने में सामाजिक बहिष्कार किया जाता था, उन्हें लोग छूते तक भी नहीं थे, अपने पास नहीं बिठाते थे। इस सामाजिक दण्ड का प्रयोजन यही था कि वे प्रताड़ना-दबाव में आकर पुन: मानवीय आदर्शों पर चलने की प्रतिज्ञा-यज्ञोपवीत धारण को स्वीकार करें। आज जो अन्त्यज, चाण्डाल आदि दीखते हैं, वे किसी समय के ऐसे ही बहिष्कृत व्यक्ति रहे होंगे। दुर्भाग्य से उनका दण्ड कितनी ही पीड़ियाँ बीत जाने पर भी उनकी सन्तान को झेलना पड़ रहा है। कितनी बड़ी विडम्बना है कि जिन्हें यज्ञोपवीत धारी बनाने के लिए कोई दण्ड व्यवस्था की गई थी, उनकी सन्तानें अब यदि यज्ञोपवीत पहनने को इच्छुक एवं आतुर हैं, तो उन्हें वैसा करने से रोका जाता है। शास्त्रों के अभिवचन यज्ञोपवीत द्विजत्व का चिन्ह है। कहा भी है- मातुरग्रेऽधिजननम् द्वितीयम् मौञ्जि बन्धनम्। अर्थात्-पहला जन्म माता के उदर से और दूसरा यज्ञोपवीत धारण से होता है। आचार्य उपनयमानो ब्रह्मचारिणम् कृणुते गर्भमन्त:। त रात्रीस्तिस्र उदरे विभत्ति तं जातंद्रष्टुमभि संयन्ति देवा:।। अथर्व 11/3/5/3 अर्थात्-गर्भ में रहकर माता और पिता के संबंध से मनुष्य का पहला जन्म होता है। दूसरा जन्म विद्या रूपी माता और आचार्य रूप पिता द्वारा गुरुकुल में उपनयन और विद्याभ्यास द्वारा होता है। ‘‘सामवेदीय छान्दोग्य सूत्र’’ में लिखा है कि यज्ञोपवीत के नौ धागों में नौ देवता निवास करते हैं। (1) ओउमकार (2) अग्नि (3) अनन्त (4) चन्द्र (5) पितृ (6) प्रजापति (7) वायु (8) सूर्य (9) सब देवताओं का समूह। वेद मंत्रों से अभिमंत्रित एवं संस्कारपूर्वक कराये यज्ञोपवीत में 9 शक्तियों का निवास होता है। जिस शरीर पर ऐसी समस्त देवों की सम्मिलित प्रतिमा की स्थापना है, उस शरीर रूपी देवालय को परम श्रेय साधना ही समझना चाहिए। ‘‘सामवेदीय छान्दोग्य सूत्र’’ में यज्ञोपवीत के संबंध में एक और महत्वपूर्ण उल्लेख है- ब्रह्मणोत्पादितं सूत्रं विष्णुना त्रिगुणी कृतम्। कृतो ग्रन्थिस्त्रनेत्रेण गायत्र्याचाभि मन्त्रितम्।। अर्थात्-ब्रह्माजी ने तीन वेदों से तीन धागे का सूत्र बनाया। विष्णु ने ज्ञान, कर्म, उपासना इन तीनों काण्डों से तिगुना किया और शिवजी ने गायत्री से अभिमंत्रित कर उसे ब्रह्म गाँठ लगा दी। इस प्रकार यज्ञोपवीत नौ तार और ग्रंथियों समेत बनकर तैयार हुआ। यज्ञोपवीत के लाभों का वर्णन शास्त्रों में इस प्रकार मिलता है- येनेन्द्राय वृहस्पतिवृर्व्यस्त: पर्यद धाद मृतं नेनत्वा। परिदधाम्यायुष्ये दीर्घायुत्वाय वलायि वर्चसे।। पारस्कर गृह सूत्र 2/2/7 ‘‘जिस प्रकार इन्द्र को वृहस्पति ने यज्ञोपवीत दिया था उसी तरह आयु, बल, बुद्धि और सम्पत्ति की वृद्धि के लिए यज्ञोपवीत पहना जाय।’’ देवा एतस्यामवदन्त पूर्वे सप्तत्रपृषयस्तपसे ये निषेदु:। भीमा जन्या ब्राह्मणस्योपनीता दुर्धां दधति परमे व्योमन्।। ऋग्वेद 10/101/4 अर्थात-तपस्वी ऋषि और देवतागणों ने कहा कि यज्ञोपवीत की शक्ति महान है। यह शक्ति शुद्ध चरित्र और कठिन कर्त्तव्य पालन की प्रेरणा देती है। इस यज्ञोपवीत को धारण करने से जीव-जन भी परम पद को पहुँच जाते हैं। यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं प्रजापतेर्यत्सहजं पुरस्तात्। आयुष्यमग्रयं प्रति मुञ्च शुभ्रं यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेज:।। -ब्रह्मोपनिषद् अर्थात- यज्ञोपवीत परम पवित्र है, प्रजापति ईश्वर ने इसे सबके लिए सहज बनाया है। यह आयुवर्धक, स्फूर्तिदायक, बन्धनों से छुड़ाने वाला एवं पवित्रता, बल और तेज देता है। त्रिरस्यता परमा सन्ति सत्या स्यार्हा देवस्य जनि मान्यग्ने:। अनन्ते अन्त: परिवीत आगाच्छुचि: शुक्रो अर्थो रोरुचान:।। -4/1/7 अर्थात- इस यज्ञोपवीत के परम श्रेष्ठ तीन लक्षण है। 1. सत्य व्यवहार की आकांक्षा 2. अग्नि जैसी तेजस्विता 3. दिव्य गुणों से युक्त प्रसन्नता इसके द्वारा भली प्रकार प्राप्त होती है। नौ धागों में नौ गुणों के प्रतीक हैं। 1.    अहिंसा 2.    सत्य 3.    अस्तेय 4.    तितिक्षा 5.    अपरिग्रह 6.    संयम 7.    आस्तिकता 8.    शान्ति 9.    पवित्रता। 1.    हृदय से प्रेम 2.    वाणी में माधुर्य 3.    व्यवहार में सरलता 4.    नारी मात्र में मातृत्व की भावना 5.    कर्म में कला और सौन्दर्य की अभिव्यक्ति 6.    सबके प्रति उदारता और सेवा भावना 7.    गुरुजनों का सम्मान एवं अनुशासन 8.    सद्ग्रन्थों का स्वाध्याय एवं सत्संग 9.    स्वच्छता, व्यवस्था और निरालस्यता का स्वभाव। यह भी नौ गुण बताये गये हैं। अभिनव संस्कार पद्धति में श्लोक भी दिये गये हैं। यज्ञोपवीत पहनने का अर्थ है-नैतिकता एवं मानवता के पुण्य कर्तव्यों को अपने कन्धों पर परम पवित्र उत्तरदायित्व के रूप में अनुभव करते रहना। अपनी गतिविधियों का सारा ढाँचा इस आदर्शवादिता के अनुरुप ही खड़ा करना। इस उत्तरदायित्व के अनुभव करते रहने की प्रेरणा का यह प्रतीक सत्र धारण किये रहने प्रत्येक हिन्दू का आवश्यक धर्म-कर्तव्य माना गया है। इस लक्ष्य से अवगत कराने के लिए समारोहपूर्वक उपनयन किया जाता है। विधि व्यवस्था बालक जब थोड़ा सदाचार हो जाय और यज्ञोपवीत के आदर्शों को समझने एवं नियमों को पालने योग्य हो जाय तो उसका उपनयन संस्कार कराना चाहिए। साधारणतया 12 से 13 वर्ष की आयु इसके लिए ठीक है। जिनका तब तक न हुआ हो तो वे कभी भी करा सकते हैं। जिन महिलाओं की गोदी में छोटे बच्चे नहीं वे भी उसे धारण कर सकती है। जो पहने उन्हें 1.    मल-मूत्र त्यागते समय जनेऊ को कान पर चढ़ाना 2.    गायत्री की प्रतिमा यज्ञोपवीत की पूजा प्रतिष्ठा के लिए एक माला (108 बार) गायत्री मंत्र का नित्य जप करना, 3.    कण्ठ से बिना बाहर निकाले ही साबुन आदि से उसे धोना, 4.    एक भी लड़ टूट जाने पर उसे निकाल कर दूसरा पहनना, 5.    घर में जन्म-मरण, सूतक, हो जाने या छ: महीने बीत जाने पर पुराना जनेऊ हटाकर नया पहनना, 6.    चाबी आदि कोई वस्तु उसमें न बाँधना-इन नियमों का पालन करना चाहिए। प्रकाशक: युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष:2005 आईएसबीएन : 0000 पृष्ठ : 24 मुखपृष्ठ : पेपरबैक To give your reviews on this book, Please Login मुख पृष्ठ   |   खोजें   |   परिचय   |   समाचार   |   संपर्क करें   |   मेरी पसंद   |   Terms of Service Copyright © 2004 Pustak.org. 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मनुवाद

ⓘ Optimized 11 minutes agoView original http://hindi.webdunia.com/sanatan-dharma-article/what-is-manuwad-manusmriti-116030800024_1.html Menu मनुवाद क्या है और क्या है मनुस्मृति? -आचार्य डॉ. संजय देव मनु कहते हैं- जन्मना जायते शूद्र: कर्मणा द्विज उच्यते। अर्थात जन्म से सभी शूद्र होते हैं और कर्म से ही वे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र बनते हैं। वर्तमान दौर में ‘मनुवाद’ शब्द को नकारात्मक अर्थों में लिया जा रहा है। ब्राह्मणवाद को भी मनुवाद के ही पर्यायवाची के रूप में उपयोग किया जाता है। वास्तविकता में तो मनुवाद की रट लगाने वाले लोग मनु अथवा मनुस्मृति के बारे में जानते ही नहीं है या फिर अपने निहित स्वार्थों के लिए मनुवाद का राग अलापते रहते हैं। दरअसल, जिस जाति व्यवस्था के लिए मनुस्मृति को दोषी ठहराया जाता है, उसमें जातिवाद का उल्लेख तक नहीं है।    क्या है मनुवाद :जब हम बार-बार मनुवाद शब्द सुनते हैं तो हमारे मन में भी सवाल कौंधता है कि आखिर यह मनुवाद है क्या? महर्षि मनु मानव संविधान के प्रथम प्रवक्ता और आदि शासक माने जाते हैं। मनु की संतान होने के कारण ही मनुष्यों को मानव या मनुष्य कहा जाता है। अर्थात मनु की संतान ही मनुष्य है। सृष्टि के सभी प्राणियों में एकमात्र मनुष्य ही है जिसे विचारशक्ति प्राप्त है। मनु ने मनुस्मृ‍ति में समाज संचालन के लिए जो व्यवस्थाएं दी हैं, उसे ही सकारात्मक अर्थों में मनुवाद कहा जा सकता है।    मनुस्मृति :समाज के संचालन के लिए जो व्यवस्थाएं दी हैं, उन सबका संग्रह मनुस्मृति में है। अर्थात मनुस्मृति मानव समाज का प्रथम संविधान है, न्याय व्यवस्था का शास्त्र है। यह वेदों के अनुकूल है। वेद की कानून व्यवस्था अथवा न्याय व्यवस्था को कर्तव्य व्यवस्था भी कहा गया है। उसी के आधार पर मनु ने सरल भाषा में मनुस्मृति का निर्माण किया। वैदिक दर्शन में संविधान या कानून का नाम ही धर्मशास्त्र है। महर्षि मनु कहते है- धर्मो रक्षति रक्षित:। अर्थात जो धर्म की रक्षा करता है, धर्म उसकी रक्षा करता है। यदि वर्तमान संदर्भ में कहें तो जो कानून की रक्षा करता है कानून उसकी रक्षा करता है। कानून सबके लिए अनिवार्य तथा समान होता है।   जिन्हें हम वर्तमान समय में धर्म कहते हैं दरअसल वे संप्रदाय हैं। धर्म का अर्थ है जिसको धारण किया जाता है और मनुष्य का धारक तत्व है मनुष्यता, मानवता। मानवता ही मनुष्य का एकमात्र धर्म है। हिन्दू मुस्लिम, ईसाई, बौद्ध, सिख आदि धर्म नहीं मत हैं, संप्रदाय हैं। संस्कृत के धर्म शब्द का पर्यायवाची संसार की अन्य किसी भाषा में नहीं है। भ्रांतिवश अंग्रेजी के ‘रिलीजन’ शब्द को ही धर्म मान लिया गया है, जो कि नितांत गलत है। इसका सही अर्थ संप्रदाय है। धर्म के निकट यदि अंग्रेजी का कोई शब्द लिया जाए तो वह ‘ड्यूटी’ हो सकता है। कानून ड्‍यूटी यानी कर्तव्य की बात करता है।   मनु ने भी कर्तव्य पालन पर सर्वाधिक बल दिया है। उसी कर्तव्यशास्त्र का नाम मानव धर्मशास्त्र या मनुस्मृति है। आजकल अधिकारों की बात ज्यादा की जाती है, कर्तव्यों की बात कोई नहीं करता। इसीलिए समाज में विसंगतियां देखने को मिलती हैं। मनुस्मृति के आधार पर ही आगे चलकर महर्षि याज्ञवल्क्य ने भी धर्मशास्त्र का निर्माण किया जिसे याज्ञवल्क्य स्मृति के नाम से जाना जाता है। अंग्रेजी काल में भी भारत की कानून व्यवस्था का मूल आधार मनुस्मृति और याज्ञवल्क्य स्मृति रहा है। कानून के विद्यार्थी इसे भली-भांति जानते हैं। राजस्थान हाईकोर्ट में मनु की प्रतिमा भी स्थापित है।    मनुस्मृति में दलित विरोध :मनुस्मृति न तो दलित विरोधी है और न ही ब्राह्मणवाद को बढ़ावा देती है। यह सिर्फ मानवता की बात करती है और मानवीय कर्तव्यों की बात करती है। मनु किसी को दलित नहीं मानते। दलित संबंधी व्यवस्थाएं तो अंग्रेजों और आधुनिकवादियों की देन हैं। दलित शब्द प्राचीन संस्कृति में है ही नहीं। चार वर्ण जाति न होकर मनुष्य की चार श्रेणियां हैं, जो पूरी तरह उसकी योग्यता पर आधारित है। प्रथम ब्राह्मण, द्वितीय क्षत्रिय, तृतीय वैश्य और चतुर्थ शूद्र। वर्तमान संदर्भ में भी यदि हम देखें तो शासन-प्रशासन को संचालन के लिए लोगों को चार श्रेणियों- प्रथम, द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ श्रेणी में बांटा गया है। मनु की व्यवस्था के अनुसार हम प्रथम श्रेणी को ब्राह्मण, द्वितीय को क्षत्रिय, तृतीय को वैश्य और चतुर्थ को शूद्र की श्रेणी में रख सकते हैं। जन्म के आधार पर फिर उसकी जाति कोई भी हो सकती है। मनुस्मृति एक ही मनुष्य जाति को मानती है। उस मनुष्य जाति के दो भेद हैं। वे हैं पुरुष और स्त्री।     मनु कहते हैं-‘जन्मना जायते शूद्र:’ अर्थात जन्म से तो सभी मनुष्य शूद्र के रूप में ही पैदा होते हैं। बाद में योग्यता के आधार पर ही व्यक्ति ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अथवा शूद्र बनता है। मनु की व्यवस्था के अनुसार ब्राह्मण की संतान यदि अयोग्य है तो वह अपनी योग्यता के अनुसार चतुर्थ श्रेणी या शूद्र बन जाती है। ऐसे ही चतुर्थ श्रेणी अथवा शूद्र की संतान योग्यता के आधार पर प्रथम श्रेणी अथवा ब्राह्मण बन सकती है। हमारे प्राचीन समाज में ऐसे कई उदाहरण है, जब व्यक्ति शूद्र से ब्राह्मण बना। मर्यादा पुरुषोत्तम राम के गुरु वशिष्ठ महाशूद्र चांडाल की संतान थे, लेकिन अपनी योग्यता के बल पर वे ब्रह्मर्षि बने। एक मछुआ (निषाद) मां की संतान व्यास महर्षि व्यास बने। आज भी कथा-भागवत शुरू होने से पहले व्यास पीठ पूजन की परंपरा है। विश्वामित्र अपनी योग्यता से क्षत्रिय से ब्रह्मर्षि बने। ऐसे और भी कई उदाहरण हमारे ग्रंथों में मौजूद हैं, जिनसे इन आरोपों का स्वत: ही खंडन होता है कि मनु दलित विरोधी थे।   ब्राह्मणोsस्य मुखमासीद्‍ बाहु राजन्य कृत:। उरु तदस्य यद्वैश्य: पद्मयां शूद्रो अजायत। (ऋग्वेद)  अर्थात ब्राह्णों की उत्पत्ति ब्रह्मा के मुख से, भुजाओं से क्षत्रिय, उदर से वैश्य तथा पांवों से शूद्रों की उत्पत्ति हुई। दरअसल, कुछ अंग्रेजों या अन्य लोगों के गलत भाष्य के कारण शूद्रों को पैरों से उत्पन्न बताने के कारण निकृष्ट मान लिया गया, जबकि हकीकत में पांव श्रम का प्रतीक हैं। ब्रह्मा के मुख से पैदा होने से तात्पर्य ऐसे व्यक्ति या समूह से है जिसका कार्य बुद्धि से संबंधित है अर्थात अध्ययन और अध्यापन। आज के बुद्धिजीवी वर्ग को हम इस श्रेणी में रख सकते हैं। भुजा से उत्पन्न क्षत्रिय वर्ण अर्थात आज का रक्षक वर्ग या सुरक्षाबलों में कार्यरत व्यक्ति। उदर से पैदा हुआ वैश्य अर्थात उत्पादक या व्यापारी वर्ग। अंत में चरणों से उत्पन्न शूद्र वर्ग।    यहां यह देखने और समझने की जरूरत है कि पांवों से उत्पन्न होने के कारण इस वर्ग को अपवित्र या निकृष्ट बताने की साजिश की गई है, जबकि मनु के अनुसार यह ऐसा वर्ग है जो न तो बुद्धि का उपयोग कर सकता है, न ही उसके शरीर में पर्याप्त बल है और व्यापार कर्म करने में भी वह सक्षम नहीं है। ऐसे में वह सेवा कार्य अथवा श्रमिक के रूप में कार्य कर समाज में अपने योगदान दे सकता है। आज का श्रमिक वर्ग अथवा चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी मनु की व्यवस्था के अनुसार शूद्र ही है। चाहे वह फिर किसी भी जाति या वर्ण का क्यों न हो।   वर्ण विभाजन को शरीर के अंगों को माध्यम से समझाने का उद्देश्य उसकी उपयोगिता या महत्व बताना है न कि किसी एक को श्रेष्ठ अथवा दूसरे को निकृष्ट। क्योंकि शरीर का हर अंग एक दूसरे पर आश्रित है। पैरों को शरीर से अलग कर क्या एक स्वस्थ शरीर की कल्पना की जा सकती है? इसी तरह चतुर्वण के बिना स्वस्थ समाज की कल्पना भी नहीं की जा सकती।    ब्राह्मणवाद की हकीकत :ब्राह्मणवाद मनु की देन नहीं है। इसके लिए कुछ निहित स्वार्थी तत्व ही जिम्मेदार हैं। प्राचीन काल में भी ऐसे लोग रहे होंगे जिन्होंने अपनी अयोग्य संतानों को अपने जैसा बनाए रखने अथवा उन्हें आगे बढ़ाने के लिए लिए अपने अधिकारों का गलत इस्तेमाल किया होगा। वर्तमान संदर्भ में व्यापम घोटाला इसका सटीक उदाहरण हो सकता है। क्योंकि कुछ लोगों ने भ्रष्टाचार के माध्यम से अपनी अयोग्य संतानों को भी डॉक्टर बना दिया। हमारे संविधान में कहीं नहीं लिखा भ्रष्ट तरीके अपनाकर अपनी अयोग्य संतानों को आगे बढाएं। इसके लिए तत्कालीन समाज या फिर व्यक्ति ही दोषी हैं। उदाहरण के लिए संविधान निर्माता बाबा साहेब अंबेडकर ने संविधान में आरक्षण की व्यवस्था 10 साल के लिए की थी, लेकिन बाद में राजनीतिक स्वार्थों के चलते इसे आगे बढ़ाया जाता रहा। ऐसे में बाबा साहेब का क्या दोष?    मनु तो सबके लिए शिक्षा की व्यवस्था अनिवार्य करते हैं। बिना पढ़े लिखे को विवाह का अधिकार भी नहीं देते, जबकि वर्तमान में आजादी के 70 साल बाद भी देश का एक वर्ग आज भी अनपढ़ है। मनुस्मृति को नहीं समझ पाने का सबसे बड़ा कारण अंग्रेजों ने उसके शब्दश: भाष्य किए। जिससे अर्थ का अनर्थ हुआ। पाश्चात्य लोगों और वामपंथियों ने धर्मग्रंथों को लेकर लोगों में भ्रांतियां भी फैलाईं। इसीलिए मनुवाद या ब्राह्मणवाद का हल्ला ज्यादा मचा।   मनुस्मृति या भारतीय धर्मग्रंथों को मौलिक रूप में और उसके सही भाव को समझकर पढ़ना चाहिए। विद्वानों को भी सही और मौलिक बातों को सामने लाना चाहिए। तभी लोगों की धारणा बदलेगी। दाराशिकोह उपनिषद पढ़कर भारतीय धर्मग्रंथों का भक्त बन गया था। इतिहास में उसका नाम उदार बादशाह के नाम से दर्ज है। फ्रेंच विद्वान जैकालियट ने अपनी पुस्तक ‘बाइबिल इन इंडिया’ में भारतीय ज्ञान विज्ञान की खुलकर प्रशंसा की है।    पंडित, पुजारी बनने के ब्राह्मण होना जरूरी है :पंडित और पुजारी तो ब्राह्मण ही बनेगा, लेकिन उसका जन्मगत ब्राह्मण होना जरूरी नहीं है। यहां ब्राह्मण से मतलब श्रेष्ठ व्यक्ति से न कि जातिगत। आज भी सेना में धर्मगुरु पद के लिए जातिगत रूप से ब्राह्मण होना जरूरी नहीं है बल्कि योग्य होना आवश्यक है। ऋषि दयानंद की संस्था आर्यसमाज में हजारों विद्वान हैं जो जन्म से ब्राह्मण नहीं हैं। इनमें सैकड़ों पूरोहित जन्म से दलित वर्ग से आते हैं।    शूद्रो ब्राह्मणतामेति ब्राह्मणश्चैति शूद्रताम। क्षत्रियाज्जातमेवं तु विद्याद्वैश्यात्तथैव च। (10/65) महर्षि मनु कहते हैं कि कर्म के अनुसार ब्राह्मण शूद्रता को प्राप्त हो जाता है और शूद्र ब्राह्मणत्व को। इसी प्रकार क्षत्रिय और वैश्य से उत्पन्न संतान भी अन्य वर्णों को प्राप्त हो जाया करती हैं। विद्या और योग्यता के अनुसार सभी वर्णों की संतानें अन्य वर्ण में जा सकती हैं।   (वैदिक विद्वान आचार्य संजय देव से वृजेन्द्रसिंह झाला की बातचीत पर आधारित)     SORRY! This device/browser does not support the playback of this media format. विज्ञापन विवाह प्रस्ताव की तलाश कर रहे हैं? भारत मैट्रीमोनी में निःशुल्क रजिस्टर करें! मुख पृष्ठ | हमारे बारे में | विज्ञापन दें | अस्वीकरण | हमसे संपर्क करें Copyright 2016, Webdunia.com 0:00 Englishதமிழ்मराठीతెలుగుബസിൽಕನ್ನಡગુજરાતી खबर-संसारगुजरात चुनाव 2017ज्योतिषबॉलीवुडधर्म-संसारक्रिकेटलाइफ स्‍टाइलवीडियोसामयिकफोटो गैलरीअन्यProfessional Courses

ब्राह्मणवाद

मुख्य मेनू खोलें खोजें 3 संपादित करेंध्यानसूची से हटाएँ। ब्राह्मणवाद ब्राह्मणवाद एक ऐसी विचारधारा है जो हिंदू धर्म में प्रचलित वर्ण- व्यवस्था में विश्‍वास करते हुए जन्म आधारित वंश, जाति तथा वर्ण श्रेष्‍ठता को समीचीन मानती है। इसका आधार हिंदू-ग्रंथ मनुस्मृति को माना जाता है। आधुनिक तथा प्रगतिशील विचारधारा के अनुसार यह एक नकारात्मक अभिवृत्ति है। इन्हें भी देखें संपादित करें विचारधारा जातिवाद वर्ण-व्‍यवस्‍था बाहरी कड़ियाँ संपादित करें ब्राह्मणवाद पर हिंदी पुस्‍तकें संवाद Last edited 2 years ago by an anonymous user RELATED PAGES वर्णाश्रम धर्म हिन्दू वर्ण व्यवस्था वर्ण (बहुविकल्पी शब्द) सामग्री CC BY-SA 3.0 के अधीन है जब तक अलग से उल्लेख ना किया गया हो। गोपनीयताडेस्कटॉप

तुलसी ने रामानंद की भक्ति तथा अद्वैत वेदांत का समन्वय कर सगुण रामभक्ति का पाठ विश्व को पढ़ाया

मुख्य मेनू खोलें खोजें 3 संपादित करेंध्यानसूची से हटाएँ।किसी अन्य भाषा में पढ़ें रामानन्द Ramanand रामानन्द सम्प्रदाय के प्रवर्तक समी रामानन्दाचार्य का जन्म सम्वत् 1236 में हुआ था। जन्म के समय और स्थान के बारे में ठीक-ठीक जानकारी उपलब्ध नहीं है। शोधकर्ताओं ने जो जानकारी जुटाई है उसके अनुसार रामानन्द जी के पिता का नाम पुण्यसदन और माता का नाम सुशीला देवी था। उनकी माता नित्य वेणीमाधव भगवान की पूजा किया करती थीं। एक दिन वे मन्दिर में दर्शन करने गईं तो उन्हें दिव्योणी सुनाई दी - हे माता पुत्रवती हो। उनके आँचल में एक माला और दाहिनार्त शंख प्रकट हुआ। वह प्रसाद पाकर बहुत खुश हुईं और पतिदेव को सारी बात बताई। एक दिन माता ने देखा- आकाश से प्रकाश पुंज आ रहा है। वह प्रकाश उनके मुख में समा गया। माता डरकर बेहाश हो गईं। थोड़ी देर बाद उन्हें जब होश आया तो वे उठकर बैठ गई। उस दिन से उनके शरीर में एक शक्ति का संचार होने लगा। शुष्लग्न में प्रात:काल आचार्य प्रकट हुए। उनके प्रकट होने के समय माता को बिल्कुल पीड़ा नहीं हुई। पुण्यसदन जी के घर बालक पैदा होने की खबर पाकर पूरा प्रयाग नगर उमड़ पड़ा। कुलपुरोहित ने उनका नाम रामानन्द रखा। बालक के लिए सोने का पालना लगाया गया। उनके शरीर पर कई दिव्य चिन्ह थे। माथे पर तिलक का निशान था। बालक के खेलने के समय एक तोता रोजाना उसके पास आ जाता और ‘राम-राम‘ का शब्द करता। यह ‘राम-राम‘ का शब्द उनके जीन का आधार बन गया। इस बालक के पास एकोनर और कौआ भी रोजाना आता था। वह कौआ बालक के खिलौने लेकर उड़ जाता और बालक के मचलने परोपस दे जाता। भादों के महीने में ऋषि-पंचमी के दिन अन्न प्रक्षालन का उत्सव मनाया गया। थाल में पकान, खीर और लड्डू रखे गए लेकिन बालक रामानन्द ने केल खीर को उंगली लगाई। माता ने थोड़ी-सी खीर मुख में खिला दी। उसके अलावा बालक को कुछ नहीं खाया। यह खीर ही आजीन उनका आहार था। एक दिन बालक रामानन्द खेलते हुए पूजा के मन्दिर में जा पहुंचे। उन्होंने दाहिना्रत शंख उठा लिया और बजाने लगे। पिता ने शंख को हाथ से छीन लिया और क्रोधित होने लगे। बालक रामानन्द बाहर भाग गया। बाद में उनके पिता को स्वप्न में वेणीमाधव भगवान ने शंख बालक को देने की आज्ञा की। प्रात:काल बालक को शंख बजाने को कहा। उस दिन से बालक रामानन्द दिन में तीन बार उस शंख को बजाते थे। पांच साल की उम्र में पिता ने कुछ ग्रन्थों के श्लोक सिखाए तो बालक ने तुरन्त याद कर लिए। एक साल में ही बालक रामानन्द ने कई ग्रन्थों को कण्ठस्थ कर लिया। प्रयाग कुम्भ में विद्वानों की एक सभा हुई। इसमें बालक रामानन्द को भी बुलाया गया। सभी विद्वानों ने इसमें अपने-अपने मत रखे। बालक रामानंद ने कहा- जसे कमल के दल पर पानी की बूंद लटकती है वैसे ही जी इस पृथ्वी पर हैं। पता नहीं कब उसके जाने का समय आ जाए? इसलिए बाद-विवाद छोड़ कर भगवान की भक्ति करनी चहिए। इस पर सभी विद्वानों और भक्तों ने उनकी प्रशंसा तथा आरती की। आठ साल की अवस्था में बालक का यज्ञोपवीत कराया गया। माघ शुक्ला द्वादशी के दिन विद्वानों ब्राह्मणों नें पलास का डंडा देकर काशी पढ़ने चलने के लिए कहा और कुछ देर बाद लौटने के लिए कहने लगे। लेकिन बालक रामानन्द लौटकर आने के लिए तैयार न हुए। तो उनको उनके पिता पंडित औंकार शर्मा के घर लेकर आए। पंडित औंकार शर्मा रामानन्द जी के मामा लगते थे। शर्मा जी उनकी बुद्धि चातुर्य को देखकर आनन्दित थे। कुमार ने कुछ ही दिनों में चारों वेद उपवेद को कण्ठस्थ कर उनके रहस्यों को समझ लिया। उनकी प्रसिद्धि सुनकर नित्य-प्रति अनेकों लोग बालक को देखने आते। एक दिन सिद्ध देवी आई। उन्होंने कहा- मैं कालीखोह से आई हूं। उन्होंने बालक से संस्कृत में पूछा- हे कुमार, कौनसी स्त्री है जो बड़ी चंचल है और चित्त में छुपी रहती हैं? वह नए-नए पदार्थ लाकर व्यक्तियों के सामने रखती है। परन्तु एक बार कोई उसे देख लेता है तो वह सदा के लिए लुप्त हो जाती है। इस पर बालक रामानन्द ने उत्तर दिया- उस स्त्री का नाम माया है। तब वृृद्धा ने कहा- उससे ब्याह कर लो। तब कुमार ने कहा- उसकी इच्छा करते ही मुँह काला हो जाता है। ब्याह के समय मनुष्य लंगड़ा हो जाता है। वह माया अन्धी भी है। मैं तो ब्रह्मचारी हूं। सारे जगत का कल्याण करूंगा। वृद्धा ने आशीर्वा दिया- ऐसा ही होगा और अपने स्थान पर चली गई। वह माता साक्षात् कालिका देवी थीं। यह समद सुनकर उनके पिता को बड़ा दुख हुआ। वह शांडिल्य गोत्र के एक ब्राह्मण की कन्या माधवी से वो विवाह तय कर चुके थे। इस बात को सुनकर वे कुमारिल भट्ट की मीमांसा लेकर आए। इसमे लिखा था- ‘‘एक बार विवाह अवश्य करना चाहिए।‘‘विवाह न करने से अनेकों पाप लगते हैं। इस पर रामानन्द जी ने कहा- यह कर्मकाण्ड की बात है। जिसे ज्ञान और भक्ति की सिद्धि बाल्यकाल में ही हो जाए उसे कोई पाप नहीं लगता। ऐसा कहकर वह चुप हो गए। पिता ने समझा कि वे हंसी में ऐसा कह रहे हैं और विवाह की तैयारी में लग गए। कन्या माधवी ने स्वप्न में देखा- कोई देवता कह रहा है कि तूने रामानन्द से विवाह किया तो विधवा हो जाएगी। यह सुनकर उसके माता-पिता का उत्साह नष्ट हो गया। कन्या ने जीवन भर अविवाहित रहने की ठान ली और कठोर तप करने लगी। अन्न त्याग कर केवल लौंग खाकर रहने लगी। उसे दूसरा स्वप्न हुआ- जिससे तुम्हारा विवाह होने वाला था, जाकर उसी से उपदेश लो तो तुम्हारा शीघ्र कल्याण होगा। दूसरे दिन प्रात:काल ही वह अपने परिवाार के साथ रामानन्द जी के सामने प्रस्तुत हुई और मन्त्र दीक्षा लेने की मांग करने लगी। रामानन्द जी के मना करने पर दूसरे लोग भी उसका समर्थन करने लगे। ज्यादा जिद करने पर रामानन्द जी ने अपने शंख को बजा दिया। शंख ध्वनि सुनते ही उनकी समाधि लग गई। समाधि में उसे दस जन्मों का स्मरण हो आया। उसने कहा- मुझे भगवान से दिव्य ज्ञान मिल गया है मैं अभी भगान के धाम में जा रही हूं। यह कहते ही एक दिव्य विमान वहाँ प्रकट हुआ और वह विमान पर बैठ कर चली गई। इस पर लोगों को बड़ा आश्चर्य हुआ। उनके माता-पिता ने भी दीक्षा लेने की बात कही। इस पर रामानन्दाचार्य बहुत लज्जित महसूस करने लगे। वे वहीं बैठे-बैठे अन्तर्ध्यान हो गए। माता-पिता मूर्छित होकर गिर पड़े। उन्हें दिव्य धाम के दर्शन हुए। जहाँ कुमार रामानन्द दिव्य सिंहासन पर बैठे थे। बड़े-बड़े देता और ऋषि उनकी स्तुति कर रहे थे। जन्म में उन्हें भगवान ने जो आशीर्वाद दिया था ह भी उन्हें ज्ञात हो गया। मोह माया का बंधन छूट गया। माता-पिता ने उठ कर देखा, सभी लोग विलाप कर रहे थे। चारो ओर पित्ति देखकर पुण्य सदन जी ने शरीर त्यागने की इच्छा की लेकिन लोगों ने उन्हें धैर्य बंधाया। उसी समय योग बल से महर्षि राघानन्द हाँ प्रकट हुये। शिष्ठ मुनि के अतार राघानन्द जी के प्रकट होते ही समस्त नर नारी उनके चरणों में जा पड़े। उन्होने समाधि लगाकर लोगों की समस्या को समझा। वे पुण्य सदन जी को सम्बोधित कर कहने लगे- आपका पुण्य महान है। आपको प्रभु ने रदान दिया था कि ह बारह साल तक वे आपके घर में बाल लीला का आनन्द देंगे। अब ह समय पूरा हो गया है और प्रभु अपने लोक को चले गये हैं। इस पर लोगो ने महर्षि राघानन्द जी से एक बार दर्शन कराने की बात की तो राघानन्द जी ने बड़े राम यज्ञ की आश्यकता बताई। उस यज्ञ के बाद कुमार रामानन्द प्रकट हुये। महíष राघानन्द जी ने कुमार से कहा- आपने दर्शन देकर हमारे यज्ञ को सफल किया। अब आप इस भूमि पर धर्म में आई गिराट को मिटाने के लिए और यनों के अत्याचार को खत्म करने के लिए यहीं रहो। महर्षि राघवानन्द जी ने उन्हें राम मंत्र की दीक्षा देकर विधिवत वैष्णव संन्यास दिया। रामानन्द जी पंच गंगा घाट पर तपस्या करने लगे। लोगों के ज्यादा आग्रह पर वह शंख बजाकर लोगों की समस्या का समाधान कर देते। एक मुर्दा उनकी शंख ध्वनि सुनकर जीवित् हो गया था। उन्हें जब ज्यादा विक्षोभ होने लगा तो उन्होंने शंख बजाना बंद कर दिया। वे लोगों के आग्रह पर दिन में सिर्फ एक बार शंख बजाने लगे। आधी रात के पश्चात एक दिन जब वे गंगा स्नान के लिए गये तो कलयुग राज उनके सामने प्रकट हुये। उनका पंच पात्र सोने का था। कलयुग राज उसमें जा बैठे। लेकिन आचार्य को इसका पता चल गया। जब आचार्य ने उनसे पूछा कि आप मेरी पूजा में विघ्न क्यों डालते हो तो कलयुग राज प्रत्यक्ष होकर राम मंत्र की दीक्षा मांगने लगे। रामानन्दाचार्य जी ने अपना स्वभाव छोड़ उन्हें मंत्र दीक्षा दी। रामानन्द जी ने अपने जीन काल में अनेकों दुखियों और पीड़ितों को अपने आर्शीाद से ठीक किया जिनमें राजकुमार का क्षय रोग, रैदास को दीक्षा, कबीर को आशीर्वाद, नये योगी श्री हरि नाथ की पीड़ा, ब्राह्मण कन्या बीनी का उद्धार जसी अनेकों चमत्कारिक घटनायें शामिल थीं। गगनौढ़गढ़ के राजा पीपाजी को मंत्र दीक्षा देकर उन्होंने वैष्णब सन्त बना दिया। उन्होंने अपने जीन काल में यवनों से हिन्दुओं की रक्षा की। उनके अत्याचारों को रुकाने के लिए दिल्ली के बादशाह से सन्धि की। आचार्य ने धर्म प्रचार के लिए काशी से चलकर गगनौरगढ़, चित्रकूट, जनकपुर, गंगासागर, जगन्नाथपुरी आदि स्थानों की यात्रा की। आज उन्हीं के तपोबल से रामानन्द सम्प्रदाय का विशाल पंथ चल रहा है। श्री रामानंदाचार्य : कबीर तथा तुलसी के प्रेरक संपादित करें श्री रामानंद मध्ययुगीन उदार चेतना के जन्मदाता, भक्ति आंदोलन के प्रवर्तक, तथा तत्कालीन धार्मिक तथा समाजिक चेतना के मार्गदर्शक थे। उन्होंने भारत की सांस्कृतिक जीवन धारा को अक्षुण्य प्रवाहित करने में महत्वपूर्ण योगदान किया। वे वास्तव में कबीर तथा तुलसी के प्रेरणास्रोत थे। श्री रामानंद जिस युग में हुए वह भारत के इतिहास में धर्म, संस्कृति तथा समाज के ह्रास का काल था। इस्लाम की आंधी से भारतीय समाज अभी संभल न पाया था। तैमूर के आक्रमण से लेकर बाबर के आक्रमण तक समूचे समाज में राजनीतिक और सांस्कृतिक पराभव का काल था। श्री रामानंद की एक महत्वपूर्ण देन रामभक्ति को एक व्यापक सांस्कृतिक आंदोलन का आधार बनाकर राष्ट्रीय जागरण करना था। यद्यपि अलवार साहित्य में रामभक्ति का वर्णन दक्षिण भारत में ९वीं शताब्दी के प्रारंभ में हो गया था। परंतु उत्तर भारत में इसका प्रचार मुख्यत: ग्यारहवीं शताब्दी में हुआ। रामानुज ने ग्यारहवीं शताब्दी में कृष्ण भक्ति की उपासना का प्रचलन किया, वहां श्री रामानंद को आगे चलकर उत्तरी भारत में रामभक्ति का श्रेय प्राप्त है। शीघ्र ही रामभक्ति की गंगा देश के एक कोने से दूसरे कोने तक प्रवाहित होने लगी। राम के नाम ने अनेक सामाजिक और सांस्कृतिक व्याधियों के लिए रामबाण औषधि का काम किया। रामभक्ति उत्तर तथा दक्षिण में सम्पूर्ण देश की एकता को आबद्ध करने में सहायक सिद्ध हुआ। इसने समाज में आशा, आत्म विश्वास तथा स्वाभिमान का भाव जाग्रत किया। श्री रामानंद ने रामभक्ति के माध्यम से एक सामाजिक क्रांति का सूत्रपात किया। सामाजिक विषमताओं और बाहरी आडम्बरों में जकड़े समाज में पुनरुत्थान की ओर पहला कदम बढ़ाने वाले रामानंद थे। रामभक्ति के माध्यम से उन्होंने समाज के विभिन्न वर्गों में सामाजिक समरसता तथा समन्वय की भावना पैदा करने का एक सफल प्रयास किया। श्री रामानंद ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ श्री वैष्णवमताज भास्कर में प्रचलित ऊंच-नीच की भावना पर क्रूर प्रहार किया। श्री रामानंद की कथनी और करनी के एकात्मक भाव के प्रभाव से जहां एक ओर कबीर तथा अनेकानेक शिष्य रामानंद जी की वाणी के संदेशवाहक बने, वहीं दूसरी ओर रामभक्ति के महान उपासक तुलसी उनके प्रचारक बने। एक ओर कबीर ने ‘जात-पांत‘ पूछे न कोई, हरि को भजे सो हरि का होई‘ का दिव्य संदेश दिया, तो तुलसी ने दूसरी ओर ‘सिया राम मय सब जग जानी‘ का अमृत वचन बोला। वस्तुत: रामानंद वह कर पाये जो भारत के अनेक विद्वान तथा अनेक संत महापुरुष न कर सके। रामभक्ति का यह दिव्य शंखनाद समूचे समाज को जोड़ने का मंत्र बन गया। साथ ही श्री रामानंद ने एक प्रभावी तथा अद्भुत शिष्य परंपरा का निर्माण किया। विश्व के समूचे इतिहास में किसी भी व्यक्ति ने उतने श्रेष्ठ तथा समर्पित शिष्यों का निर्माण नहीं किया जितना रामानंद ने। रामानंद के बारह प्रसिद्ध शिष्य भक्ति आंदोलन के मुख्य प्रचारक बने। उनकी रामभक्ति की धारा दो प्रवाहों में विभाजित हुई थी। एक निराकार निर्गुण रामभक्ति में तथा दूसरी साकार सगुण अवतारी रामभक्ति में। एक का प्रतिनिधित्व किया कबीर ने तथा दूसरे को व्यापक स्वरूप प्रदान किया तुलसी ने। क्रांतिकारी कबीर ने रामानंद से निर्गुण राम तथा भक्ति का रहस्य सीखा। यद्यपि राम की अवतारवाद की धारणा को उन्होंने स्वीकार नहीं किया, परंतु ईश्वर को व्रह्म के रूप में स्वीकार किया। इसके प्रमाण श्री गुरूग्रंथ साहब में उनके एक पद से होता है जो उसमें दिया गया है। कबीर पर रामानंद का प्रभाव प्राय: सभी विद्वानों ने स्वीकार किया है कि उन्होंने भक्ति के लिए अभय का पाठ रामानंद से ही सीखा। कबीर ग्रंथावली में राम का नाम २१७ बार आया है, कबीर की भक्ति रामानंद की भांति जाति भेद अथवा वर्ग भेद से ऊपर है। इसमें तनिक भी संदेह नहीं है यदि रामानंद व कबीर हिन्दू समाज के उपेक्षित जनों में एक आशा और भरोसे की नींव न डालते तो उनमें से अधिकतर मुसलमान हो गए होते। महाकवि तुलसी ने रामानंद की भक्ति तथा अद्वैत वेदांत का समन्वय कर सगुण रामभक्ति का पाठ विश्व को पढ़ाया। वस्तुत: समाज के प्रबुद्ध विचार तथा जन सामान्य के विचारों का अद्भुत समन्वय तुलसी के दर्शन में दृष्टिगोचर होता है। जहां शंकर का अद्वैतवाद प्रबुद्ध विचार का परिचायक है, वहां रामानंद के भक्ति संबंधी विचारों में जन सामान्य की भावना का प्रतिनिधित्व है। दोनों का अद्भुत समन्वय तुलसी में दिखलाई देता है। इसी कारण उनका प्रसिद्ध ग्रंथ रामचरितमानस विश्व के महानतम ग्रंथों में माना जाता है। धर्म की मर्यादा को महत्व देते हुए उन्होंने भक्ति की धारा प्रभावित की। अत: निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि श्री रामानंदाचार्य को ही यह श्रेय है कि उन्होंने प्रेम और रामभक्ति को उत्तर भारत में जनव्यापी एक सांस्कृतिक आंदोलन का स्वरूप प्रदान किया। रामभक्ति के माध्यम से उन्होंने देश में नव जागरण किया। उन्होंने भारतीय समाज में आत्मविश्वास व सामाजिक चेतना जगाई। इसके फलस्वरूप धर्म मत परिवर्तन की प्रक्रिया अवरुद्ध हुई। जन भाषा के माध्यम से उनके द्वारा फैला यह आंदोलन शीघ्र ही भक्ति आंदोलन के रूप में व्यक्त हुआ और जिसे कबीर तथा तुलसी ने रक्षात्मक के साथ-साथ आक्रामक स्वरूप प्रदान किया। वही रामभक्ति की अविरल धारा आज भी भारतीय समाज को समेटे हुए प्रेरणा व राष्ट्रीय जागरण का स्रोत बनी हुई है। संवाद RELATED PAGES स्वामी रामानन्दाचार्य भक्ति आन्दोलन रामनाम Last edited 9 months ago by NehalDaveND सामग्री CC BY-SA 3.0 के अधीन है जब तक अलग से उल्लेख ना किया गया हो। गोपनीयताडेस्कटॉप