Tuesday 25 July 2017

(श्रीरामचरितमानस/बालकाण्ड)दोहा :39 चौपाई : * जौं करि कष्ट जाइ पुनि कोई। जातहिं नीद जुड़ाई होई॥ जड़ता जाड़ बिषम उर लागा। गएहुँ न मज्जन पाव अभागा॥1॥ भावार्थ:-यदि कोई मनुष्य कष्ट उठाकर वहाँ तक पहुँच भी जाए, तो वहाँ जाते ही उसे नींद रूपी ज़ूडी आ जाती है। हृदय में मूर्खता रूपी बड़ा कड़ा जाड़ा लगने लगता है, जिससे वहाँ जाकर भी वह अभागा स्नान नहीं कर पाता॥1॥ * करि न जाइ सर मज्जन पाना। फिरि आवइ समेत अभिमाना। जौं बहोरि कोउ पूछन आवा। सर निंदा करि ताहि बुझावा॥2॥ भावार्थ:-उससे उस सरोवर में स्नान और उसका जलपान तो किया नहीं जाता, वह अभिमान सहित लौट आता है। फिर यदि कोई उससे (वहाँ का हाल) पूछने आता है, तो वह (अपने अभाग्य की बात न कहकर) सरोवर की निंदा करके उसे समझाता है॥2॥ * सकल बिघ्न ब्यापहिं नहिं तेही। राम सुकृपाँ बिलोकहिं जेही॥ सोइ सादर सर मज्जनु करई। महा घोर त्रयताप न जरई॥3॥ भावार्थ:-ये सारे विघ्न उसको नहीं व्यापते (बाधा नहीं देते) जिसे श्री रामचंद्रजी सुंदर कृपा की दृष्टि से देखते हैं। वही आदरपूर्वक इस सरोवर में स्नान करता है और महान्‌ भयानक त्रिताप से (आध्यात्मिक, आधिदैविक, आधिभौतिक तापों से) नहीं जलता॥3॥ * ते नर यह सर तजहिं न काऊ। जिन्ह कें राम चरन भल भाऊ॥ जो नहाइ चह एहिं सर भाई। सो सतसंग करउ मन लाई॥4॥ भावार्थ:-जिनके मन में श्री रामचंद्रजी के चरणों में सुंदर प्रेम है, वे इस सरोवर को कभी नहीं छोड़ते। हे भाई! जो इस सरोवर में स्नान करना चाहे, वह मन लगाकर सत्संग करे॥4॥ * अस मानस मानस चख चाही। भइ कबि बुद्धि बिमल अवगाही॥ भयउ हृदयँ आनंद उछाहू। उमगेउ प्रेम प्रमोद प्रबाहू॥5॥ भावार्थ:-ऐसे मानस सरोवर को हृदय के नेत्रों से देखकर और उसमें गोता लगाकर कवि की बुद्धि निर्मल हो गई, हृदय में आनंद और उत्साह भर गया और प्रेम तथा आनंद का प्रवाह उमड़ आया॥5॥ *चली सुभग कबिता सरिता सो। राम बिमल जस जल भरित सो। सरजू नाम सुमंगल मूला। लोक बेद मत मंजुल कूला॥6॥ भावार्थ:-उससे वह सुंदर कविता रूपी नदी बह निकली, जिसमें श्री रामजी का निर्मल यश रूपी जल भरा है। इस (कवितारूपिणी नदी) का नाम सरयू है, जो संपूर्ण सुंदर मंगलों की जड़ है। लोकमत और वेदमत इसके दो सुंदर किनारे हैं॥6॥ * नदी पुनीत सुमानस नंदिनि। कलिमल तृन तरु मूल निकंदिनि॥7॥ भावार्थ:-यह सुंदर मानस सरोवर की कन्या सरयू नदी बड़ी पवित्र है और कलियुग के (छोटे-बड़े) पाप रूपी तिनकों और वृक्षों को जड़ से उखाड़ फेंकने वाली है॥7॥ दोहा : श्रोता त्रिबिध समाज पुर ग्राम नगर दुहुँ कूल। संतसभा अनुपम अवध सकल सुमंगल मूल॥39॥ भावार्थ:-तीनों प्रकार के श्रोताओं का समाज ही इस नदी के दोनों किनारों पर बसे हुए पुरवे, गाँव और नगर में है और संतों की सभा ही सब सुंदर मंगलों की जड़ अनुपम अयोध्याजी हैं॥39॥

(श्रीरामचरितमानस/बालकाण्ड)दोहा :39
चौपाई :
* जौं करि कष्ट जाइ पुनि कोई। जातहिं नीद जुड़ाई होई॥
जड़ता जाड़ बिषम उर लागा। गएहुँ न मज्जन पाव अभागा॥1॥
भावार्थ:-यदि कोई मनुष्य कष्ट उठाकर वहाँ तक पहुँच भी जाए, तो वहाँ जाते ही उसे नींद रूपी ज़ूडी आ जाती है। हृदय में मूर्खता रूपी बड़ा कड़ा जाड़ा लगने लगता है, जिससे वहाँ जाकर भी वह अभागा स्नान नहीं कर पाता॥1॥
* करि न जाइ सर मज्जन पाना। फिरि आवइ समेत अभिमाना।
जौं बहोरि कोउ पूछन आवा। सर निंदा करि ताहि बुझावा॥2॥
भावार्थ:-उससे उस सरोवर में स्नान और उसका जलपान तो किया नहीं जाता, वह अभिमान सहित लौट आता है। फिर यदि कोई उससे (वहाँ का हाल) पूछने आता है, तो वह (अपने अभाग्य की बात न कहकर) सरोवर की निंदा करके उसे समझाता है॥2॥
* सकल बिघ्न ब्यापहिं नहिं तेही। राम सुकृपाँ बिलोकहिं जेही॥
सोइ सादर सर मज्जनु करई। महा घोर त्रयताप न जरई॥3॥
भावार्थ:-ये सारे विघ्न उसको नहीं व्यापते (बाधा नहीं देते) जिसे श्री रामचंद्रजी सुंदर कृपा की दृष्टि से देखते हैं। वही आदरपूर्वक इस सरोवर में स्नान करता है और महान्‌ भयानक त्रिताप से (आध्यात्मिक, आधिदैविक, आधिभौतिक तापों से) नहीं जलता॥3॥
* ते नर यह सर तजहिं न काऊ। जिन्ह कें राम चरन भल भाऊ॥
जो नहाइ चह एहिं सर भाई। सो सतसंग करउ मन लाई॥4॥
भावार्थ:-जिनके मन में श्री रामचंद्रजी के चरणों में सुंदर प्रेम है, वे इस सरोवर को कभी नहीं छोड़ते। हे भाई! जो इस सरोवर में स्नान करना चाहे, वह मन लगाकर सत्संग करे॥4॥
* अस मानस मानस चख चाही। भइ कबि बुद्धि बिमल अवगाही॥
भयउ हृदयँ आनंद उछाहू। उमगेउ प्रेम प्रमोद प्रबाहू॥5॥
भावार्थ:-ऐसे मानस सरोवर को हृदय के नेत्रों से देखकर और उसमें गोता लगाकर कवि की बुद्धि निर्मल हो गई, हृदय में आनंद और उत्साह भर गया और प्रेम तथा आनंद का प्रवाह उमड़ आया॥5॥
*चली सुभग कबिता सरिता सो। राम बिमल जस जल भरित सो।
सरजू नाम सुमंगल मूला। लोक बेद मत मंजुल कूला॥6॥
भावार्थ:-उससे वह सुंदर कविता रूपी नदी बह निकली, जिसमें श्री रामजी का निर्मल यश रूपी जल भरा है। इस (कवितारूपिणी नदी) का नाम सरयू है, जो संपूर्ण सुंदर मंगलों की जड़ है। लोकमत और वेदमत इसके दो सुंदर किनारे हैं॥6॥
* नदी पुनीत सुमानस नंदिनि। कलिमल तृन तरु मूल निकंदिनि॥7॥
भावार्थ:-यह सुंदर मानस सरोवर की कन्या सरयू नदी बड़ी पवित्र है और कलियुग के (छोटे-बड़े) पाप रूपी तिनकों और वृक्षों को जड़ से उखाड़ फेंकने वाली है॥7॥
दोहा : श्रोता त्रिबिध समाज पुर ग्राम नगर दुहुँ कूल।
         संतसभा अनुपम अवध सकल सुमंगल मूल॥39॥
भावार्थ:-तीनों प्रकार के श्रोताओं का समाज ही इस नदी के दोनों किनारों पर बसे हुए पुरवे, गाँव और नगर में है और संतों की सभा ही सब सुंदर मंगलों की जड़ अनुपम अयोध्याजी हैं॥39॥“सकल सुमंगल दायक रघुनायक गुण गान ।
सादर सुनहि ते तरहि भव सिंधु बिना जलजान ।।“

मानस-महिमा

गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा ईश्वरीय प्रेरणा से रचित “श्रीरामचरितमानस” एक दिव्य महाकाव्य है | इसके श्रवणमात्र से जीव का परम कल्याण निश्चित है | इस महाकाव्य में कुछ दस बीस चौपाइयों को छोड़कर सम्पूर्ण ग्रन्थ में प्रत्येक पंक्ति में अखिल ब्रह्माण्डनायक भगवान् श्रीराम के नाम के बीजाक्षर “र” और “म” का समावेश है | इसी लिए ग्रन्थ के प्रारम्भ में ही लिखा है कि इसमें श्रीराम जी का उदार नाम “राम” है –

“एहि महँ रघुपति नाम उदारा | अति पावन पुरान उदारा ||”....... (१.९.१)

इस प्रकार से श्रीराम नाममय होने के कारण “श्रीरामचरितमानस” श्रीराम जी का ठीक उसी तरह ग्रन्थावतार है, जैसे श्रीमद्भागवत भगवान् श्रीकृष्ण का ग्रन्थावतार माना जाता है | मन लगाकर श्रीरामचरितमानस के श्रवणमात्र से संसृति-क्लेश दूर होता है, ऐसा सन्तों का दृढ विश्वास है | सुनने का विशेष महत्त्व है | यह प्राकृतिक नियम है कि जो कुछ हम कानों से ग्रहण करते हैं, वह मुख से निकलता है | कानों से भगवान् का गुणगान सुनने से जब मुख से वहीं निकालेंगे तो जीवन धन्य हो जाएगा | “श्रीरामचरितमानस” के चार वक्ता-श्रोता हैं—गोस्वामी तुलसीदास जी अपने मन को सुनाते हैं, याज्ञवल्क्य मुनि भारद्वाज को, शिवजी पार्वती जी को और काकभुशुंडि जी पक्षिराज गरुड़ जी को यह कथा सुनाते हुए कथा-श्रवण पर विशेष जोर देते हैं | “श्रीरामचरितमानस” में यह वर्णन क्रमश: इस प्रकार से है :-

१. गोस्वामी जी अपने मन से कहते हैं :-

“सुख भवन संसय समन दवन विषाद रघुपति गुन गना ||
तजि सकल आस भरोस गावहि सुनहि सन्तत सठ मना ||”.....(५.६० छंद)

२. याज्ञवल्क्यजी, भारद्वाज मुनि से कहते हैं :-

“ तात सुनहु सादर मनु लाई | कहउँ राम कै कथा सुहाई ||”.....(१.४७.५)

३. भगवान् शंकर,माता पार्वती जी से कहते हैं:-

“ सुनु सुभ कथा भवानि रामचरितमानस बिमल |
कहा भुसुंडी बखानि सुना बिहग नायक गरुड़ ||”......(१.१२०-ख)

४. काकभुशुंडि जी पक्षिराज गरुड़ जी से कहते हैं :-

“ सुनु खगपति यह कथा पावनी | त्रिविध ताप भव भय दाविनी ||”.....(७.१५.१)

(कल्याण-वर्ष ८८,संख्या ४)

अहमदावाद के सुप्रसिद्ध हनुमानजी के दर्शन दभोड़ा |

Monday 24 July 2017

इस एक मंत्र से मिलते हैं दस लाभ, होने लगता है पूर्वाभास


इस एक मंत्र से मिलते हैं दस लाभ, होने लगता है पूर्वाभास

By: Nimu Jani

मंत्र जप, एक ऐसा उपाय है जिससे किसी भी प्रकार की समस्या को दूर किया जा सकता है। सभी शास्त्रों में मंत्रों को बहुत शक्तिशाली और चमत्कारी बताया है। यानी मंत्रों से मनचाही वस्तु प्राप्त की जा सकती है और सभी इच्छाओं की पूर्ति की जा सकती है। सबसे ज्यादा प्रभावी मंत्रों में से एक मंत्र है गायत्री मंत्र। इसके जप से बहुत जल्दी शुभ फल प्राप्त हो सकते हैं। इसके नियमित जप से पूर्वाभास हो सकता है।

 

 

गायत्री मंत्र

 

ऊँ भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि। धियो यो न: प्रचोदयात्।।

 

इस मंत्र के जप के 10 लाभ

 

यदि कोई व्यक्ति इस मंत्र का जप नियमित रूप से करता है तो उसे उत्साह एवं सकारात्मकता, त्वचा में चमक आती है, तामसिकता से घृणा होती है, परमार्थ में रुचि जागती है, पूर्वाभास होने लगता है, आशिर्वाद देने की शक्ति बढ़ती है, नेत्रों में तेज आता है, स्वप्र सिद्धि प्राप्त होती है, क्रोध शांत होता है, ज्ञान की वृद्धि होती है।

 

मंत्र विद्या का प्रयोग

 

मंत्र विद्या का प्रयोग भगवान की भक्ति, ब्रह्मज्ञान प्राप्ति के लिए किया जाता है। साथ ही, सांसारिक एवं भौतिक सुख-सुविधाओं, धन प्राप्त करने की इच्छा के लिए भी मंत्रों का जप किया जा सकता है।

 

मंत्र जप के लिए समय

 

शास्त्रों के अनुसार गायत्री मंत्र को सर्वश्रेष्ठ मंत्र बताया गया है। इस मंत्र जप के लिए तीन समय बताए गए हैं। इन तीन समय को संध्याकाल भी कहा जाता हैं। गायत्री मंत्र का जप का पहला समय है प्रात:काल, सूर्योदय से थोड़ी देर पहले मंत्र जप शुरू किया जाना चाहिए। जप सूर्योदय के पश्चात तक करना चाहिए।

 

मंत्र जप के लिए दूसरा समय है दोपहर मध्यान्ह का। दोपहर में भी इस मंत्र का जप किया जाता है। इसके बाद तीसरा समय है शाम को सूर्यास्त के कुछ देर पहले मंत्र जप शुरू करके सूर्यास्त के कुछ देर बाद तक जप करना चाहिए।

 

इन तीन समय के अतिरिक्त यदि गायत्री मंत्र का जप करना हो तो मौन रहकर या मानसिक रूप से जप करना चाहिए। मंत्र जप अधिक तेज आवाज में नहीं करना चाहिए।

 

Share

Recommended section

सरल विश्वास और निष्कपट भाव से ही ईश्वर की प्राप्ति होती है

अन्न जल दूषित कैसे होता है?!!-सुभाष बुड़ावन वाला

क्या है शिव का रहस्य?

निष्ठा योग व प्राणायाम में फर्क

ज्ञान के समान पवित्र करने वाला कुछ भी नहीं

Popular section

पेट होगा अंदर, कमर होगी छरहरी अगर अपनायेंगे ये सिंपल नुस्खे

किन्नरों की शव यात्रा के बारे मे जानकर हैरान हो जायेंगे आप

एक ऋषि की रहस्यमय कहानी जिसने किसी स्त्री को नहीं देखा

कामशास्त्र के अनुसार अगर आपकी पत्नी में हैं ये 11 लक्षण तो आप वाकई सौभाग्यशाली हैं

ये चार राशियां होती हैं सबसे ताकतवर, बचके रहना चाहिए इनसे

Go to hindi.speakingtree.in

ब्रह्मगायत्री

 Optimized 3 hours ago

View original

http://hindi.speakingtree.in/allslides/brahma-gayatri-mantra-ke-labh

hindi.speakingtree.in

Feb 23, 2016       देखें स्लाइड शो

ब्रह्मा गायत्री मंत्र के लाभ

स्लाइड शो द्वारा Sathya Narayanan

6K 

व्यूज

कमेंट

1. गायत्री का ऋग्वेद में प्रयोग

गायत्री शब्द से आमतौर पर सभी वाकिफ हैं। ऋग्वेद में गायत्री नामक छन्द है, जिसको गायत्री यानि सवितृ की उपासना के लिए प्रयुक्त किया गया। गायत्री मंत्र का चरम लक्ष्य मोक्ष प्राप्ति है, हालांकि इसका प्रयोग किसी भी भौतिक उपलब्धि के लिए भी किया जाता है। ठीक इसी प्रकार ब्रह्म गायत्री मंत्र का लक्ष्य है – ब्रह्म की उपासना से सभी प्रकार के विकारों से मुक्ति सहित भौतिक उपादानों की प्राप्ति।

2. समस्त ब्रहाण्ड के सृजनकर्ता

भगवान ब्रह्मा सारे ब्रह्माण्ड के जनक कहे जाते हैं एवं उनको प्रजापति ब्रह्मा के नाम से भी जाना जाता है। संसार में पूजित तीनों देवों (ब्रह्मा, विष्णु और महेश) में सर्वश्रेष्ठ माना जाता है और वयोवृद्ध होने के कारण सब देवों में पिता के रूप में पूजा जाता है। अत: इसलिए इनको परमपिता ब्रह्मा भी कहा जाता है। भगवान ब्रह्मा को चार मुख होने के कारण चतुर्मुखी ब्रह्मा के नाम से भी जाना जाता है।

3. सृष्टिकर्ता ब्रह्मा

शास्त्रों के अनुसार तीनो देवों (ब्रह्मा, विष्णु और महेश) के अलग अलग कार्य हैं। भगवन ब्रह्मा को सृष्टिकर्ता के रूप में जाना जाता है तो भगवान विष्णु को पालनकर्ता एवं भगवान शिव को संहारकर्ता के रूप में पूजा जाता है। भगवान ब्रह्मा का पूरे विश्व में एकमात्र मंदिर भारत में राजस्थान राज्य के अजमेर जिले के पुष्कर नामक स्थान में स्थित है। यहां की दिव्य छटा देखते ही बनती है।

4. भोले और उदार भगवान ब्रह्मा

भगवान ब्रह्मा भी भगवान शिव जैसे ही भोले और उदार स्वभाव के हैं और भक्त की भक्ति से प्रसन्न होकर वो भक्त के लिए कुछ भी करने को तत्पर हो जाते हैं। भगवान ब्रह्मा ने ही चारों वेदों की रचना की थी और भगवान ब्रह्मा ही सारे ब्रह्माण्ड के रचयिता है।

5. ब्रह्म गायत्री मंत्र

ब्रह्म गायत्री मंत्र कुछ इस प्रकार से है: ॐ वेदात्मने विद्महे, हिरण्यगर्भाय धीमहि, तन्नो ब्रह्म प्रचोदयात्॥ ॐ चतुर्मुखाय विद्महे, कमण्डलु धाराय धीमहि, तन्नो ब्रह्म प्रचोदयात्॥ ॐ परमेश्वर्याय विद्महे, परतत्वाय धीमहि, तन्नो ब्रह्म प्रचोदयात्॥

6. ब्रह्म गायत्री मंत्र के लाभ

ब्रह्म गायत्री मंत्र की उपासना करने से यश-धन-सम्पत्ति तथा भौतिक पदार्थों की प्राप्ति तो होती ही है। इसके साथ ही ये मंत्र चारो पुरुषार्थों की प्राप्ति करवाने वाला भी सिद्ध होता है। इस मंत्र के उपासकों को इसका सबसे बड़ा लाभ ये मिलता है कि ये साधनारत मनुष्य को दुनियावी चिंताओं से मुक्त कर मृत्यु पश्चात ब्रह्मलोक गमन का मार्ग प्रशस्थ करता है।

}

0

कमेंट

सबसे प्रसिद्ध

ताकि मुक्त हो सकें सभी पापों से

आश्चर्यचकित करती है कामाख्या मंदिर की ये सच्चाई

संशययुक्त मनुष्य जीवन को व्यर्थ ही खो देता है....

निष्ठा योग व प्राणायाम में फर्क

ज्ञान के समान पवित्र करने वाला कुछ भी नहीं

क्या है शिव का रहस्य?

ज्ञान की तीसरी आंख

विचार की शक्ति उच्च है

हमारी ये कमजोरियां रोकती हैं हमें आगे बढ़ने से

कल्पना ज्ञान का मूल है ध्यान की विधियों का विकास करना

और देखें

समग्र

स्पीकिंग ट्री

मेरी प्रोफाइल

आज

विगत सप्ताह

विगत माह

Navjot Mehta

SILVER

1
क्रम

1000
प्वाइंट

Apail Kapoor

SILVER

2
क्रम

622
प्वाइंट

Ps Murthy

SILVER

3
क्रम

546
प्वाइंट

Dinesh

SILVER

4
क्रम

515
प्वाइंट

Jyoti

SILVER

5
क्रम

515
प्वाइंट

Nihar Ranjan Pradhan

SILVER

6
क्रम

513
प्वाइंट

Abhinav Agrawal

SILVER

7
क्रम

512
प्वाइंट

Tejveer Yadav

SILVER

8
क्रम

512
प्वाइंट

Paresh Redkar

SILVER

9
क्रम

510
प्वाइंट

Akash Roy

SILVER

10
क्रम

1163
प्वाइंट

और जानें

संबंधित लेख

वास्तु की ये बातें आपके जीवन को बनाएंगी खुशहाल

हर मुसीबत का हल निकाल सकता है तुलसी का पौधा, अपनाएं तुलसी के ये टोटके

सपने में झूला झूलना

सपने में स्त्री लड़की देखना

कर्क वार्षिक राशिफल 2017

शमी के वृक्ष के ये महत्व जानकर हैरान रह जाएंगे आप

शत्रुओं पर विजय पाने के लिए हनुमान जी के अचूक मंत्र

अल्लाह की इबादत से मिलेगा सवाब, रमजान से जुड़ी है और भी कई खास बातें

ये काला जादू आपको बना सकता है धनवान, इन मंत्रों का करें जाप

इलायची खाकर भी कर सकते हैं गैस की समस्या को दूर!

और देखें

 कमेंट

 फेसबुक कमेंट

 स्पीकिंग ट्री कमेंट

कोई टिप्पणी जोड़े

 

अन्य रोचक कहानियां

दाम्पत्य जीवन में खुशहाली कैसे लाई जाए, कामसूत्र ग्रंथ में दर्ज है इसके रहस्य...

ताजमहल से जुड़ा है एक हैरान करता सच

लाल कपड़े का यह टोटका करने से दूर होगी पैसों की किल्लत

अपने पति पर हावी रहती हैं इस राशि से जुड़ी महिलाएं

तो इसलिए कुरुक्षेत्र युद्ध के एक भी योद्धा का शव नहीं मिला आज तक....

चाणक्य वचन: प्रेम के मामले में कभी असफल नहीं होते ये 4 पुरुष

Home   |   About Us   |   Terms of Use   |   Privacy Policy   |  FAQ   |   English Site   |   Sitemap   |  Speaking Tree Print Articles   |   Contact Us

© 2017 Times Internet Limited. All rights reserved

  Optimized just now

http://brahmagayatri.org/index.php?id=pages/ujnDarshan.php
brahmagayatri.orgMenu
महाकालेश्वर
भगवान महाकालेश्वर का द्वादश ज्योर्तिलिंगोें मेे तृतीय स्थान है। केदारनाथ उत्तर में स्थित हैं तो रामेश्वर दक्षिण में सोमनाथ पश्चिम में हैं तो मल्लिकार्जून दक्षिण पूर्व के आन्ध्र में। इसी प्रकार अन्य ज्योर्तिलिंग भी भारत की प्रमुख दिशाओं के कोण भागों पर विराजमान हैैं। ज्योर्तिलिंग प्रकाश और ज्ञान को प्रतीक हैं। ज्योर्तिलिंग ज्योतिष का चिन्ह भी हैं। ज्योर्तिगणना के केन्द्र महाकाल हैं। ज्योर्तिलिंगो की संख्या बारह है, और आदित्य भी बारह हैं, ये सभी मिलकर भारत के द्वादष(भाव) स्थान में हैं। इस प्रकार ये पूज्य तो होने ही चाहिए। आदि काल से ये पूजे भी जा रहे हैं। ज्योतिष की किसी विस्मृत गणना पद्धति के ये प्रतीक हो सकते हैं। ये द्वादश स्थान कुण्डली के द्वादश भावों के समान विशेष फलदायी होंगे। 
महाकाल के उल्लेख महाभारत सहित विविध पूराणों में प्राप्त होते हैं। स्कन्दपुराण के अवन्तीखण्ड मेें विशेष हैं। महाकाल वन की पुराणों में अत्यधिक महत्ता हैं। वह एक योजन विस्तृत बताया गया है।
;पाप नष्ट होने से क्षेत्र मातृदेवियोंका स्थान होने से पीठ मृत्यु के बाद उत्पन्न न होने से ‘ऊषर‘ शिवप्रिय होने से ‘गुय‘ तथा भूतों का प्रिय स्थान होने से ‘श्मशान‘ कहलाता है।
महाकाल के सिवाय ये पाँच कहीं एकत्र नहीं पाये जाते। श्रद्धा–भक्ति से यहाँ किया गया निवास मोक्षदायी माना गया है। यहाँ असंख्य शिवलिंग हैं। यह पौराणिक मांन्यता है कि यहाँ चाहे इच्छा से उत्पन्न हुआ या अनिच्छा से, उसे शिवलोक तो मिलता ही है। महाकाल –वन में अधिकमास में निवास व पूजन का विशेष महत्व बताया गया है। यह महाकाल मन्दिर वास्तव में देवकुल है। इस मंदिर के परिसर में अनेक देवी देवता हैं। सरोवर हैं, शक्तिपीठ है तथा वे सभी साधना–उपासना के उपकरण हैं, जिनसे इस क्षेत्र की गरिमा निरन्तर बढ़ रही है। 
वेदोें मेें शिव का महत्व अनेक रुपों में वर्णित है तथा ‘रुद्र‘ को देवाधिदेव, सर्वदेव–स्वरुप एवं सर्वमनोरथ के दाता कहते हुए विशिष्ट स्तुतियाँ की गई है। भगवान् शिव ही कालखण्ड, कालसीमा, काल–विभाजन आदि के प्रथम उपदेशक हैं। जो काल–सीमा, मुक्त हैं, उनके गुरुओं के भी गुरु हैं तथा कालावच्छेद से वर्जित सभी के सर्वेश हैं। इससे शिव के ज्योति:स्वरुप और ‘महाकाल‘–स्वरुप का निर्दशन भी स्पष्ट हो गया है। ज्योति का तात्पर्य यहाँ ‘तेजोमयी ज्वाला‘ है। यह ज्वाला ही ‘लिंग‘ के रुप मेें पूज्य है और हुई है। 
‘विद्येश्वर–संहिता‘ के अनुसार शिव एक होते हुए भी दो प्रकार के कहे गये हैं एक ‘निष्कल‘ और अन्य ‘सकल‘। इनमें निष्कलरुप शिव का कोई आकार नहीं होने से ‘निराकार लिंग–चिन‘ और सकल–शिव का आकार होने से ‘प्रतिमा‘ पूज्य हुई। शिव ब्रह्यरुप हैं इसलिये उनकी पूजा लिंग के रुपमें होती हैं, और वे जीवरुप भी हैं अत: उनकी पूजा प्रतिमा में भी की जाती हैं। इस प्रकार वे ‘उभयरुप‘ हैं पुष्टि स्वयं शिव ने भी की है। 
ब्रााण्ड के तीनों लोको में तीन शिवलिंग्गो को सर्वपूज्य माना गया है, उनमें भूलोक– पृथ्वी पर भगवान् महाकाल को ही प्रधानता मिली है:–
आकाशे तारकं लि पाताले हाटेकेश्वरम् । मृत्युलोक च महाकालो: लि त्रय ! नमोस्तुते ।।

आकाश मे तारालिंग पताल में हाटकेश्वर तथा भू में महाकाल के रुप में विराजमान है । लिंगत्रय ! आपको नमस्कार है । 
नाभि देश उज्जैन में भगवान महाकाल महाराज भूलोक के प्रधान पूज्य देव विराजमान है कालचक्र के प्रर्वतक महाकाल प्रतापशाली है और इस कालचक्र की प्रर्वतना के कारण ही भगवान् शिव ‘‘महाकाल ‘‘ के रुप सर्वमान्य हुये है । पश्चिम परंपरा में ‘‘काल – प्रलंब ‘‘ दण्डवत् एक ही दिशा में जानेवाला माना जाता है परंतु भारतीय परंपरा में काल का एक वृत्त है जिस पर वह सदा गोलाकार गतिशिल रहता है जैसे ऋतु और मास लोट लोट कर आते है, उनकी बार–बार उसी तरह अवृत्ति होती है,इसी लिए काल के ही समान महाकाल का प्रतिक शिव लिंग भी गोल निराकार है । 
काल गणना के शंड्कुयन्त्र का स्थान महाकाल शिवलिंग है । अनादि काल से इस स्थान से समूची पृथ्वी की कालगणना होती रही है। वर्तमान में समय का आधार ग्रीन वीच रेखा को माना गया है । किन्तु आज तक भी समस्त पंचागों का निर्माण इसी काल गणना केन्द्र को आधार मानकर अनादि काल से किया जाता रहा है। खगोलीय घटना क्रमो के फलस्वरुप आज इसका केन्द्र महाकालेश्वर उज्जैन से थोडा सा हट कर पास के ही ग्राम डाेंगला में हो गया है जहाँ खगोल विज्ञान का बडा शोध केन्द्र बन कर तैयार है। इसलिये भी काल की द्वष्टि से महाकाल की विशेष महत्ता है ।
हरसिद्धि–देवी
महाकाल मन्दिर से पश्चिम की ओर प्रचीन हरसिद्धि माता का मंदिर 51 शक्ति पीठो में से एक है । यह स्थान सती के विग्रह से गिरे ‘कुहनी‘ रुप अंग के कारण एक सिद्ध शक्तिपीठ माना गया है। तन्त्रचूडामणि और ज्ञानार्वण के अनुसार यहाँ सती/शक्ति का नाम मागंल्य–चण्डिका और शिव का नाम कपिलाम्बर है। योगिनीहृदय और ज्ञानार्णव के अनुसार जहाँ–जहाँ सती के देह के अंश गिरे वहाँ–वहाँ एक एक अक्षर की उत्पत्ति हुई और वह शक्तिपीठ के रुप में मान्य हो गया। इस प्रकार वामजानु जहाँ गिरा वहाँ ‘उज्जयिनी पीठ‘ बना। यहाँ थकार वर्ण हुआ। इस पीठ पर कवच–मन्त्रों की सिद्धि होकर रक्षण होता है। अत: इसका नाम ‘अवन्ती‘ है। पीठ की प्रमुख शक्ति–देवी ‘हरसिद्धी है। ‘शिवपुराण‘ के अनुसार यहाँ ‘श्रीयन्त्र‘ की पूजा होती थी। गर्भगृह में एक शिला पर श्रीयन्त्र उत्कीर्ण है। कालान्तर में गर्भमन्दिर में प्रतिष्ठित हरसिद्धी देंवी की पूजा भी आरम्भ हो गई जो यथावत् चल रही है। यहाँ अन्नपूर्णा, कालिका, महालक्ष्मी, महासरस्वती एवं महामाया की प्रतिमाएँ भी है। हरसिद्धी देवी उज्जयिनी के वीरनृपति विक्रमादित्य की आराध्या थीं और वे प्रतिदिन माता की पूजा/उपासना किया करते थे। महाकाल–संहिता के अनुसार उज्जयिनी की ‘हरसिद्धी देवी‘ का स्थान सिद्ध स्थान है। 
शक्ति उपासना में श्रीचक्र–श्रीयन्त्र की उपासना का महत्व सर्वाधिक माना गया है। श्रीचक्र को ही परदेवता का स्वरुप बतलाया गया है। यह चक्र बिन्दु, त्रिकोण, अष्टकोण,अन्तर्दशार, बहिर्दशार, चतुर्दशार,अश्टदल, शोडशदल, वृत्तत्रय एवं भूपुरत्रय से बनता है। इन नौ त्रिकोणों में चार शिवात्मक तथा पाँच शक्त्यात्मक हैं। सब ​ि़त्रकोणों की संख्या 43 है। श्रीयन्त्र का पूजा–विधान आचार–क्रम से सम्पन्न होता है। यह ब्रह्याण, भारतदेश और मानवशरीर सभी श्रीयन्त्ररुप है। इसलिए जो साधक समयाचार से उपासना करते हैं वे शरीर में ही श्रीयन्त्र की भावना विराजमान करके मानसपूजा करते हैं और बाह्यपूजा करने वाले साधक पद्धतियों मेंं वर्णित स्थानों पर परिवार–देवता की पूजा के साथ भगवती त्रिपुरसुन्दरी कीपूजा करते है। इसमेें न्यास और पात्रासदन का क्रम भी महत्वपूर्ण हैं। उज्जयिनी में श्रीविद्योपासक भी थे और विधि–पूर्वक नित्य एवं नैमित्तिक अर्चन करते थे, यह यहाँ के हरसिद्ध–पीठ एवं गढ़कालिका–पीठ पर स्थित श्रीयन्त्रों से तथा यहाँ के प्राचीन विद्वानों के विवरणों से प्रमाणित होता है। आज भी यहाँ कई विद्वान् साधक इस साधना में रत रहते हुए कल्याण–मार्ग पर अग्रसर हो रहे हैं। 
उक्त स्थान पर दुर्गापाठ करने की परम्परा प्राचीन काल से चली आ रही है । दुर्गापाठी साधक तान्त्रिक क्रम से यहॉ पाठ करते हैं और भगवती की कृपा प्राप्त करते हैे। विशेषत: नवरात्रि (चैत्र और आश्विन) के पर्वो पर यहॉ विशेष पूजाएॅ तथा पाठादि होते हैं।
गढ़कालिका
कामधेनु–तन्त्र के अनुसार भगवती काली परब्रा स्वरुपिणी अरुपा है और वह कालसंकलनात् काली कालग्रासं करोत्यत: इस वचन से काल का संकलन करने से तथा काल का ग्रसन करने से काली कहलाती है। साधक भक्तगण जिस भावना से उपासना करते हैं देवता उसी भावना के अनुरुप स्वरुप धारण कर उनकी कामना पूर्ण करते हैं । इस दृष्टि से जब किसी रुप की कल्पना की जाती है तो ‘काली‘ पद के साथ कोई उपाधि रखकर सम्बोधित किया जाता हे । यथा–‘दक्षिणकाली, गुाकाली, भद्राकाली आदि । महाकाल–संहिता में मुख्यत: काली के नौ भेद बतलाये है । इनके अतिरिक्त ‘नीलकाली–तारा, रक्तकाली–महात्रिपुरा सुन्दरी और कुब्जाकाली–कुब्जिका‘ भी सर्वमान्य हैं। 
उज्जयिनी में गढ़कालिका का स्थान भगवती ‘दक्षिणकालिका‘ का माना जाता है। दक्षिणकालिका की उपासना दक्षिणाचार से ढइतध्झहोती है जिसे पाशवकल्प कहते हैं। दक्षिणमार्ग पाशवकल्प तो है ही किन्तु इसके भी तीन प्रकार बताये गये हैं। 
दक्षिणकाली के सम्बन्ध में एक रहस्य यह भी ज्ञातव्य है कि ‘काली‘ के उपधिभेद के अतिरिक्त काल–क्रम के अनुसार ‘सृष्टिकाली (प्रात:), स्थितिकाली (मध्यान), संहारकाली (सायं), अनाख्याकाली(प्रदोश–कालोततरकाल) तथा भाषा–भासाकाली (मध्यरात्रि के पश्चात् का काल) जैसे स्वरुप से भी साधना होती है । और आम्नाय–भेद से जो काली की उपासना की जाती है, उसमें प्राधान्येन दक्षिणाम्नायी के लिए ‘कामकला दक्षिणकाली‘ तथा उत्तराम्नायो के लिए ‘कामकला–गुाकाली‘ की उपासना विहित है और यह इहलोक एवं परलोक दोनों के लिए श्रेयस्कर है । अत: गढ़कालिका का स्थान ‘दक्षिणाम्नाायानुसारी कामकला दक्षिणकाली: का पीठ है ऐसा हमारा मत है । कामकला–काली को ही ‘अनिरुद्धसरस्वती‘ तथा ‘विद्याराज्ञी‘ भी कहते हैं। जिसकी पूर्णकृपा कालिदास को प्राप्त थी । इनका मन्त्र 22 अक्षरों का है तथा ध्यान इस प्रकार है– 
करालवदनां घोरां मुक्तकेषीं चतुभु‍र्जाम्। 
कालिकां दक्षिणां दिव्यां मुण्डमाला–विभूषणाम्।। 
करालमुख घोर, मुक्तकेशी, चतुर्भुजा और मुण्डमाला के आभूशण वाली दिव्यस्वरुप दक्षिणकालिका का (हम ध्यान करते हैं) । कामकला दक्षिणकाली के ही भैरव ‘महाकाल‘ हैं, यह पहले लिखा जा चुका है । स्कन्दपुराण के ‘अवन्ती–खण्ड‘ के अनुसार महाकालवन में जब अन्धकासुर से शिव का युद्ध था, तब काली एवं महाकाली ने शिव को सहयोग दिया था । मार्कण्डेय–पुराणोक्त ‘दुर्गासप्तषती‘ में महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वती का चरित वर्णित है तदनुसार गढ़कालिका के मन्दिर में भगवती कालिका के आसपास महालक्ष्मी और महासरस्वती की प्रतिमाएॅ भी विराजमान हैं। 
उक्त स्थान पर दुर्गापाठ करने की परम्परा प्राचीन काल से चली आ रही है । दुर्गापाठी साधक तान्त्रिक क्रम से यहॉ पाठ करते हैं और भगवती की कृपा प्राप्त करते हैे। विशेषत: नवरात्रि (चैत्र और आश्विन) के पर्वो पर यहॉ विशेष पूजाएॅ तथा पाठादि होते हैं।
महागणपति–आराधना
शास्त्रकारों की आज्ञा के अनुसार गृहस्थ–मानव को प्रतिदिन यथा सम्भव पंचदेवों की उपासना करनी ही चाहिए। ये पंचदेव पंचभूतों के अधिपति हैैं। इन्हीं में महागणपति की उपासना का भी विधान हुआ है। गणपति को विध्नों का निवारक एवं ऋद्धि–सिद्धि का दाता माना गया है। ऊँकार और गणपति परस्पर अभिन्न हैं अत: परब्रह्यस्वरुप भी कहे गये हैं। पुण्यनगरी अवन्तिका में गणपति उपासना भी अनेक रुपों में होती आई है। शिव–पंचायतन में 1. शिव, 2. पार्वती, 3. गणपति, 4. कातकेय और 5. नन्दी की पूजा–उपासना होती है और अनादिकाल से सर्वपूज्य, विघ्ननिवारक के रुप में भी गणपतिपूजा का महत्वपूर्ण स्थान है। गणपति के अनन्तनाम है। तन्त्रग्रन्थों में गणपति के आम्नायानुसारी नाम, स्वरुप, ध्यान एवं मन्त्र भी पृथक–पृथक दशत हैं। पौराणिक क्रम में षड्विनायकों की पूजा को भी महत्वपूर्ण दिखलाया है। उज्जयिनी में षड्विनायक–गणेष के स्थान निम्नलिखित रुप में प्राप्त होते है– 
1. मोदी विनायक – महाकालमन्दिरस्थ कोटितीर्थ पर इमली के नीचे। 
2. प्रमोदी ;लड्डूद्ध विनायक – विराट् हनुमान् के पास रामघाट पर। 
3. सुमुख–विनायक ;स्थिर–विनायकद्ध– स्थिरविनायक अथवा स्थान–विनायक गढकालिका के पास। 
4. दुमु‍र्ख–विनायक – अंकपात की सडक के पीछे, मंगलनाथ मार्ग पर। 
5. अविघ्न–विनायक – खिरकी पाण्डे के अखाडे के सामने। 
6. विघ्न–विनायक – विध्नहर्ता ;चिन्तामण–गणेशद्ध । 
इनके अतिरिक्त इच्छामन गणेश(गधा पुलिया के पास) भी अतिप्रसिद्ध है। यहाँ गणपति–तीर्थ भी है जिसकी स्थापना लक्ष्मणजी द्वारा की गई है ऐसा वर्णन प्राप्त होता है। 
तान्त्रिक द्ष्टि से साधना–क्रम से साधना करते हैं वे गणपति–मन्त्र की साधना गौणरुप से करते हुए स्वाभीष्ट देव की साधना करते है। परन्तु जो स्वतन्त्र–रुप से परब्र–रुप से अथवा तान्त्रिक–क्रमोक्त–पद्धित से उपासना करते हैं वेश्गणेश–पंचांग में दशत पटल, पद्धित आदि का अनुसरण करते है। मूत–विग्रह–रचना वामसुण्ड, दक्षिण सुण्ड, अग्रसुण्ड और एकाधिक सुण्ड एवं भुजा तथा उनमें धारण किये हुए आयुधों अथवा उपकरणों से गणपति के विविध रुपों की साधना में यन्त्र आदि परिवतत हो जाते हैं। इसी प्रकार कामनाओं के अनुसार भी नामादि का परिवर्तन होता हैं। ऋद्धि–सिद्धि (शक्तियाँ), लक्ष–लाभ(पुत्र) तथा मूशक(वाहन) के साथ समष्टि–साधना का भी तान्त्रिक विधान स्पृहणीय है।
कालभैरव–विक्रांतभैरव
पौराणिक अष्टभैरव में कालभैरव प्रमुख हैं। कहा जाता है कि इनके विशाल मन्दिर का निर्माण भद्रसेन राजा ने करवाया था। वर्तमान मन्दिर राजा जयसिंह के समय निमत हुआ था, प्रतिवर्ष भैरव अष्टमी को यहाँ मेला लगता है। इस मन्दिर के कारण ही निकट की बस्ती ‘भैरवगढ ‘ कहलाती है। मुख में छिद्र न होने पर भी भैरव की यह प्रतिमा मदिरापान करती हैं जिसका प्रत्यक्ष दर्शन किया जाता है। यह क्षिप्रातट स्थित है। यहीं विक्रांत–भैरव का मन्दिर भी है। यहाँ पर साढे तैराह श्मशान होने के कारण यहाँ पर विशेष प्रकार के तंत्र अनुष्ठान किये जाते हैं। कालभैरव तथा विक्रांतभैरव के मंदिर में देश के कई विख्यात तांत्रिक आकर तंत्र सिद्धि हेंतु अनुष्ठान करते हैं। यहाँ उसका विशेष फल प्राप्त होता है।
मंगलनाथ
मंगलो भूमिपुत्रश्च ऋणहर्ता धनप्रद:। 
स्थिरासनो महाकाय: सर्वकर्म विरोधक।। 
शिवलिंग के रुप में ग्रहराज अंगारक(मंगल) की रक्तवर्ण रुप में इनकी उत्पत्ति हुई है इसलिए मंगल को भूमि पुत्र कहा जाता है। चूँकि इनका वर्ण रक्त होने से इनका स्वभाव उग्र बताया जाता है। नौ ग्रह में मंगल को मुख्यमंत्री का पद प्राप्त है। यह जातक कि कुण्डली के जीवन में कई उतार चडाव दिखाता है। भारतीय ज्योतिष के अनुसार जिन जातकों कि कुण्डली में 1,4,7,8,12, स्थान में मंगल हो तो उस जातक की कुण्डली मांगलिक मानी जाती है। ग्रहराज के पास मुख्यमंत्री का पद होने से इनके पास 21 विभाग है जो इस प्रकार है– 1. भूमि प्राप्ति हेत ु। 2. धन प्राप्ति हेतु। 3. ऋणमुक्ति हेतु। 4. पुत्र प्रप्ति हेतु। 5. शत्रुओ पर विजय प्रप्ति हेतु। 6. अविवाहित कन्याओं को अच्छे वर हेतु। 7. अविवाहित युवको के लिये विवाह हेतु। 8. शीघ्र विवाह हेतु। 9. व्यापार वृ​ि़द्ध हेतु। 10. नौकरी में पदौन्नति हेतु। 11. राज्यपद एवं उच्च पदवी प्राप्ति हेतु। 12. समस्त रोगो के नाथ हेतु। 13. जन्मपत्रिका में 1,4,7,8,12, इन स्थानों पर मंगली दोष निवारण हेतु। 14. दरिद्रता दोष नाथ हेतु। 15. ग्रह शांति एवं सुख सौभाग्य हेतु। 16. भय(डर) मुक्ति हेतु। 17. मानसिक एवं ग्रह क्लेश निवारण हेतु। 18. मृत्यु तुल्य संकट से निवारण हेतु। 19. अच्छी वर्षा, अन्न, धन प्रप्ति हेतु। 20. अति वृष्टि व अनावृष्टी रोकने हेतु। 21. धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष चतुवद पुरुषार्थ प्राप्ति के लिए मंगल ग्रह शांति पूजन किया जाता हैं। क्षिप्रातट के निकट एक ऊँचे टीले पर स्थित मंगलनाथ के मंदिर पर प्रति मंगलवार दर्शकों का समूह उमड पडता है। मत्स्यपुराण के अनुसार मंगलवार का यहाँ जन्मस्थान है। अवन्त्यां च कुजो जात:। क्या यह माना जा सकता है कि मंगल ग्रह के अध्ययन के लिए यह सर्वाधिक उपयुक्त स्थान है ? मंगल की अनुकम्पा के लिए तथा भगवान् शिव की कृपा से अपने कल्याण के लिए यहाँ दही–भात की पूजा और रुद्राभिशेक का बडा माहात्म्य है। मंगल की आराधना–पूजा ‘मंगलो भूमिपुत्रश्च ऋणहर्ता धनप्रद:‘ के अनुसार ऋण–निवारण और धनप्राप्ति के लिए भी की जाती है।
सिद्धवट
प्रयाग के अक्षयवट तथा गया के वट के समान उज्जैन के सिद्धवट की भी महत्ता है। यह क्षिप्रातट पर विभिन्न पक्के घाटों से सम्पन्न है। यह पिन्डतपर्ण का प्रमुख स्थान है। यहाँ कई देवालय है। कहते है। मध्यकाल में इस वट को नष्ट करने के निष्फल प्रयास भी हुये थे। स्कन्दपुराण में इसे ‘प्रेतशिला–तीर्थ‘ कहा गया है। यह नाथों का भी पूजा स्थान रहा है। यहाँ वस्त्रों पर सुन्दर छपाई करनेवालों की प्रमुख बस्ती है।
ऋण–मुक्तेश्वर
क्षिप्रा तट पर वर्तमान इन महादेव के विषय में प्रसिद्धि है कि ‘विक्रमादित्य ने प्रजा को उऋ‍र्ण कर नये संवत्–प्रवर्तन किया तभी से यहाँ ऋण–मुक्तेष्वर का वह शिवलिंग स्थापित है।
© Copyright 2009-2015 - Brahmagayatri
This site is designed by APlite Technologies Pvt. L Optimized just now
http://brahmagayatri.org/index.php?id=pages/mantraShakti.php
brahmagayatri.orgMenu
मंत्रो की शक्ति एवं प्रभाव
जो लोग जप के यथार्थ रुप को नहीं जानते और जिन्होने इसका अनुभव नहीं किया है, वह गायत्री मन्त्र की महत्ता और उसकी शक्ति को समझ नहीं सकते । क्याेंकि उन्होने अनुभव नहीं किया है । यथार्थ ही है, जप यज्ञ रीति, नीति, श्रद्धा और प्रीति से अर्थ की भावना को समझकर सत्कर्मों को करते हुए, ज्ञानयुक्त उपासना से किया जाय तो उसका पूर्ण फल प्राप्त होता है । इन बातों में जितनी कमी हो जाती है उसका उतना ही फल कम होगा । परन्तु जप निष्फल नहीं हो सकता प्रत्येक जप का फल अवश्य ही मिलता है । फल चाहे जल्दी मिले या देरी से , लगातार साधना से अन्त में समस्त पापों से मुक्ति होकर मोक्ष की प्राप्ति होती है ।
शवेताशवतरताम्बर
उपनिशद् में इस तरह बताया गया है । ‘‘अपनी देह को अरनी (नीचे की लकड़ी ) बनाकर ऊँ को उपर की अरनी बनाओं और ध्यानरुपी रगड़ के अभ्यास से अपने इष्टदेव परमात्मा के दर्शन कर लो । जैसे छिपी हुई अग्नि के दर्शन लकडि़यों के परस्पर घर्शण (रगड़) से होते है उसी प्रकार ऊँ कार एवं गायत्री मन्त्र के जप से परशक्ति के दर्शन होते है परम शान्ति एवं मुक्ति प्राप्त होती है ।
‘‘मन एव मनुश्याणां कारणं बन्धमोक्षयो: ।।‘‘
इस मन को वश में करना, मन को शुद्ध रखना तथा मन को सन्मार्ग में प्रेरित करना ही हमारा लक्ष्य होना चाहिये । चिकित्सा की अन्यान्य पद्तियों में मानसिक चिकित्सा पद्धति सबसे महत्वपूर्ण कही गई है । इससे यह समझा जा सकता है कि मनुष्य में एक ऐसी गुप्त शक्ति है जिसका विकास करने से मनुष्य सदानन्द, सदाजयी, सदाशिव और जीवन्मुक्त हो सकता है । यह मानसिक शक्ति आत्म विश्वास है । वेदों में इस शक्ति का भी सम्यक वर्णन किया गया है:–
ऊँ आवात वाहि भेशजं विवात वाहि यद्रूप:। त्वं हि विष्वभेशजो देवानां दूत ईयसे । (ऋग्वेद 10/137/3)
अर्थात्– हे प्राण, हे वायु! तुम सर्व औषधि रुप हो, तुम में ही सब रोगों की औषधियॉ विद्यमान हैं । अत: जब भी कोई मानसिक चिकित्सक प्राण शक्ति, देव शक्ति को विश्वास के साथ नि:स्वार्थ भाव से रोगी के हित साधन के लिये स्वभावत: प्रेरित एवे उत्साहित होकर रोगी के शरीर अथवा किसी अंग या उपांग पर अपना हाथ फिरा देता है, फूंक मार देता है, आंख भरकर देख लेता है या किसी और रुप से छू लेता है तो उस रोगी के शरीर अथवा अंग में चिकित्सक की प्राण–शक्ति प्रवेश करके उसे अपने शक्तिप्रद प्रभाव से प्रभावित करने लगती है और धीरे–धीरे या तत्काल ही वह निरोगी हो जाता है । इसीलिये इस शक्ति को दूसरे में भरनेे के लिये अपनी मानोवृत्ति तथा संकल्प–शक्ति को इस ओर लगाने की परम आवश्यकता है । ऋग्वेद में स्पष्ट रुप से यह आदेश है–
‘‘ अयं मे हस्तो विष्वभेशजम्।‘‘
अर्थात् यह मेरा हाथ संसार भर की औषधि है । शास्त्रों में कहा है:– ध्यानावस्थिततद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिन: । अर्थत्: योगिजन ध्यानद्वारा स्थिर किए हुए मन से जिसको देखते है । ध्यान के लिए मुख्य स्थान हृदय है । मन्त्रयोग की साधना करते समय साधक को चाहिए कि वह शब्द ज्योति और रुप का अनुभव करने का प्रयत्न करे । बालक ध्रुव ने ईश्वर प्राप्ति के लिए योगाभ्यास द्वारा एकाग्र की हुई बुद्धि से अपने हृदय कमल में भगवान् की बिजली के समान चमकती हुई मूर्ति का ध्यान किया । जब इस प्रकार ध्यान करते हुए उसे ऐसा भास हुआ कि वह मूर्ति लुप्त हो गई है, तो उसने घबराकर नेत्र खोले और भगवान उसे उसी रुप में सामने खड़े दिखाई दिये ।
स वै धिया योगविपाकतीव्रया, हृत्पद्मकोषे सुुरितं तडित्पभम् । तिरोहितं सहसैवोपलक्ष्य बहि: स्थितं तदवस्थं ददर्ष ।।4।9।2।।
बालक ध्रुव ने नारद जी के द्वारा बतलाये गये द्वादशाक्षर मंत्र का ध्यान पूर्वक जपकर छ: मास में भगवान् का साक्षात्कार किया । यही मंत्रयोग का सर्वश्रेष्ठ फल है। इस जगत् में प्रत्येक मनुष्य को अपनी सब प्रकार की इच्छाएॅं पूर्ण करने के लिए मन्त्रजप के समान सरल, सुलभ, अमोघ एवं सर्वश्रेष्ठ दूसरा कोई साधन नहीं है जप से रोगनाश, लक्ष्मी प्राप्ति, आयुष्य वृद्धि, सम्मान प्राप्ति, बुद्धि, विद्या, ज्ञान वृद्धिं स्मरणशक्ति तीव्र होती है , एवं ईश्वर प्राप्ति होती है । इस प्रकार मंत्रयोग सर्वश्रेष्ठ साधन है । जप के भेद तीन प्रकार से बताये गये है:– (1) वाचिक (2) उपांशु और (3) मानस। (1) वाचिक– जो जप मुॅह से स्पष्ट उच्चारण कर किया जाता है, वह ‘वाचिकजप‘ कहलाता है । इस प्रकार के जप से इहलोक में भोगों की प्राप्ति होती है । (2) उपांशु– जो जप मन्द स्वर से मुॅह के अन्दर ही किया जाय उसे ‘उपांशुजप‘ कहते है। इस विधि से जप करने से स्वर्ग लोक की प्राप्ति होती है । (3) जो जप जीभ व होठों को न हिलाकर मन ही मन किया जाता है उसे ‘मानसजप‘ कहते हैं। इस प्रकार के जप करने से मोक्षप्राप्ति होती हैं और यह अधिक फलदायक होता है । मनुजी ने कहा है :–
विधियज्ञाज्जपयज्ञो, विषिष्टो दशभिगु‍र्णै: । उपांशु: स्याच्छतगुण:, सहस्त्रो मानस:स्मृत: ।।
अर्थात्:– विधिपूर्वक किये जानेवाले यज्ञ की अपेक्षा जपयज्ञ (वाचिक जप) दस गुना श्रेष्ठ है और वाचिक जप से उपांशु जप सौ गुना श्रेष्ठ है तथा इससे मानस जप हजार गुना श्रेष्ठ है । अत: साधक को मानस जप करने का प्रयत्न करना चाहिए । मंत्र लेखन:– इसके महत्व को समझते हुए ब्रलोक वासी परम् पुज्य गुरुवर आचार्य पंडित रामचन्द्र जी शास्त्री ने भक्तों के हितांत मंत्र लेखन के सिद्धांत को प्रतिपादित करते हुए मंत्र लेखन के दौरान साधक के स्वयमेव होते जाने वाले मानस जपो को स्थायित्व प्रदान कर दिया। श्री ब्रशक्ति गायत्री सिद्धपीठ की तपोभूमि स्वयं पुज्यनीय गुरुवर के द्वारा लिखित 39,31,227 पंचप्रणव गायत्री मंत्रो की शक्ति का ही दिव्य प्रताप है। तपोभूमि में आस्था रखने वाले प्रत्येक भक्त कोे अनिवार्य रुप से अपने इष्टदेव के मंत्रोे के लेखन का आदेश उनके द्वारा दिया गया है जिसके फलस्वरुप आज लगभग 25 अरब हस्तलिखित मंत्रो के संग्रहण ने तपोभूमि को तीर्थ का स्वरुप प्रदान कर दिया है।
© Copyright 2009-2015 - Brahmagayatri
This site is designed by APlite Technologies Pvt. Ltd.
http://brahmagayatri.org/index.php?id=pages/guruMahima.php
brahmagayatri.orgMenu
श्री गुरु–वंदना
गुरुब्र‍र गुरुवश्णुगु‍र्रुर्देवो महेष्वर:। गुरु: साक्षात् परं ब्र, तस्मै श्री गुरवे नम: ।। ध्यानमूलं गुरोमू‍र्त: पूजामूलं गुरो: पदम्। मन्त्रमूलं गुरोर्वाक्यं, मोक्षमूलं गुरो: कृपा ।। चैतन्यं षाष्वतं षान्तं, व्योमातीतं निरंजनम्। नादबिन्दुकलातीतं, तस्मै श्रीगुरवे नम:।। अखण्डमण्डलाकारं, व्याप्तं येन चराचरम्। तत्पंद दषतं येन, तस्मै श्रीगुरवे नम: ।। अज्ञानतिमिरान्धस्य, ज्ञानाजनषलाकया। चक्षुरुन्मीलितं येन, तस्मै श्रीगुरवे नम:।। वन्दे बोधमयं नित्यं, गुरु षड्कररुपिणम्। यमाश्रितो हि वक्रोपि, चन्द्र: सर्वत्र वन्द्यते ।। श्री गुरु–वन्दना का अर्थ:– 1– गुरु ब्रा है, गुरु विश्णु है, गुरु महेष्वर (षिव) है और गुरु साक्षात् परब्र है– ऐसे श्री गुरु को नमस्कार। 2– गुरु की मूत ध्यान का कारण है, गुरु के चरण पूजा के कारण हैं, गुरु का वाक्य मन्त्र का करण है और गुरु की कृपा मोक्ष का कारण है। 3– चैतन्य–स्वरुप, षाष्वत, षान्त आकाष से परे, निरअंजन और नाद, बिन्दु तथा कला से परे (गुरु हैं)– उन श्री गुरु को नमस्कार। 4– अखण्ड मण्डल आकारवाले, चराचर को जिसने व्याप्त किया है– ऐसे स्थान को दिखानेवाले श्रीगुरु को नमस्कार। 5– अज्ञानरुपी मोतियाबिन्द से अन्ध मेरी आँख को ज्ञान रुनी सुरमा की सलाई से जिसने खोल दिया। उन श्रीगुरु को नमस्कार। 6– जिसका आश्रय पाकर टेढ़ा चन्द्र भी सर्व़ वन्दनीय बनता है उस ज्ञानमय नित्य और षंकररुपी गुरु को मैं वन्दन करता हूँ। दीक्षा:– श्री गुरुदेव की कृपा और षिश्य की श्रद्धा, इन दो पवित्र धाराओं का संगम ही दीक्षा है। गुरु का आत्मदान और षिश्य का आत्मसमर्पण, एक की कृपा और दूसरे की श्रद्धा के अतिरेक से ही सम्पन्न होती है। दान और क्षय–यही दीक्षा का अर्थ हैं। ज्ञान, षक्ति और सिद्धि का दान एवं अज्ञान, पाप और दारिद्रय का क्षय, इसी का नाम दीक्षा हैै। दीक्षा एक दृश्टि से गुरु की और से आत्मदान, ज्ञानसंचार अथवा षक्तिपात है तो दुसरी दृश्टि से षिश्य में सुप्त ज्ञान और षक्तियों का उद्बोधन है। दीक्षा से षरीर की समस्त अषुद्धियाँ मिट जाती हैं और देहषुद्धि होने से देव–पूजा का अधिकार मिल जाता हैैै। अत: सभी साधकों के लिये दीक्षा अनिवार्य है। चाहे जन्मों की देर लगे, परन्तु जब तक दीक्षा नहीं होगी तब तक सिद्धि का मार्ग रुका ही रहेगा। सदगुरुकृपा के बिना साधना–राज्य में कोई व्यक्ति प्रवेष नहीं कर सकता। जिस विधि से सद्गुरु षिश्य को साधना–राज्य में प्रवेष करने का अधिकार देते हैै, उसी को दीक्षा कहते है। जप–तप सबका मूल दीक्षा हैै जहाँ कहीं जिस किसी आश्रम में भी दीक्षा का आश्रय करके ही रहना चाहिये। दीक्षा के बिना सिद्धि नहीं मिलती, सद्गति नहीं प्राप्त होती। इसलिये हर उपाय से गुरु के द्वारा दीक्षित होना चाहिये। विधिपूर्वक दीक्षा होने से वह दीक्षा एक क्षण में लाखों उपपातक और करोड़ों महापातक जला डालती है। यह सत्य है कि वर्तमान समय में दीक्षा एक प्रथामात्र रह गयी है। न षिश्य में साधना की ओर प्रवृत्ति है और न गुरु में साधना की षक्ति। फिर दीक्षा का उज्जवल रहस्य लोगो की विशयोन्मुख बुद्धि में किस प्रकार आ सकता परन्तु इससे यह नहीं समझ लेना चाहिये कि अब कोई योग्य सद्गुरु है ही नहीं। जो अधिकारी पुरुश उनकी खोज करता हैै उसे वे मिलते है और वैसी ही दीक्षा सम्पन्न होती है जैसी कि प्राचीन समय में होती थी। लेकिन ध्यान रहे! आदर्ष गुरु मिलने के पूर्व अपने आपको आदर्ष षिश्य बनना पड़ता हैै। यहाँ एक प्रष्न उठता है कि क्या कोई नाम सद् गुरु से ही लेना आवष्यक है़? अथवा वह हम अपनी रुचि के अनुसार लें तब भी काम चल सकता हैै? सच पूछो तो भगवान् का नाम स्वयंसिद्ध है और परिपूर्ण है, उसे कहीं और से पूर्णता प्राप्त करनी पढ़ती हो ऐसा नहीं है। सद्गुरु से लिया गया नाम और हमारी अपनी रुचि से लिया गया नाम, इनमें कोई फर्क नहीं हो सकता। फिर भी, सद्गुरु से लिये नाम की एक विषेशता है और वह यह कि उस नाम के पीछे सद्गुरु सत्ता रुप से होते हैै, और हमारे द्वारा नाम स्मरण होने के मामले में हमें उनकी बड़ी मदद होती है और इसीलिये, हमारे द्वारा हो रहा नामस्मरण उनकी सत्ता से ही हो रहा है, यह भान बना रहता है, और इसलिये मै नाम स्मरण करता हूँ इस प्रकार का अंहकार उत्पन्न होने की गुंजाइष नहीं रहती। अत: सद्गरु से नाम लेना आवष्यक है। वैसे देखो तो पहले तो सन्तों से भेंट होना ही कठिन होता हैै, और फिर भेंट हो भी जाये तो उन पर विष्वास बैठना तो और कठिन होता है। अत: नाम की साधना जारी रखना आवष्यक है, और तब, जैसे मिश्ररी की डली रख दो तो चींटियों को न्योता नहीं देना पड़ता है, व अपने–आप उसकी खोज करती चली आती है, क्योंकि वह उन्हें बहुत प्रिय होती है, ऐसे ही तुम मिश्ररी बनो तो सन्त–गुरु तुम्हारे पास दौडते चले आयेगें। मिश्ररी बनो यानी जो सन्तों को प्रिय है वह करो। सन्तों को क्या प्रिय है? भगवान् का अनुसन्धान और अखण्ड नाम–स्मरण, इसके सिवाय सन्तों को और कुछ भी प्रिय नहीं है। अत: तुम नीति और धर्म के अनुसार आचरण करते हुए षुद्ध अन्त:करण रखते हुए भगवान् का अखण्ड स्मरण करते रहो। गुरु तुम्हें स्वयं ही खोजते आएंगे और अपनी कृपा की वर्शा करेंगे। जब तक किसी साधक को उचित गुरु की प्राप्ति होकर दीक्षा सम्पन्न न हो तब तक कुछ न करके समय नश्ट नहीं करना चाहिये। बल्कि षास्त्रों में बताए विकल्पानुसार ऐसे साधक को किसी षुभ समय में अर्थात् षुभ तिथि, वार, नक्ष़त्र योग एवं चन्द्रबल आदि देखकर कुला–कुल–चक्र के आधार पर मन्त्र का निर्णय कर उसे भोजपत्र पर लिखकर मन्त्र देवता के सम्मुख रख दे। पष्चात् उनकी विधिवत् पूजा–आराधना करे और इश्टदेव का ध्यान कर यह समझें कि यह मन्त्र उनसे प्राप्त हुआ है ऐसा भाव रखते हुए मन्त्र–विषेश का 108 बार जप करें। इस तरह दीक्षा हो जाती हैै तथा मन्त्र फलप्रद होता हैै।
© Copyright 2009-2015 - Brahmagayatri
This site is designed by APlite Technologies Pvt. Ltd.