Thursday 20 July 2017

परमहंस रामचंद्र दास

मुख्य मेनू खोलें  खोजें संपादित करेंइस पृष्ठ का ध्यान रखेंकिसी अन्य भाषा में पढ़ें परमहंस रामचंद्र दास महंत परमहंस रामचंद्र दास (१९१२ - ३१ जुलाई २००३) राम मन्दिर आंदोलन के प्रमुख संत व श्रीराम जन्मभूमि न्यास के अध्यक्ष थे। वे सन् ४९ से रामजन्म-भूमि आंदोलन में सक्रिय हुए तथा १९७५ से उन्होने दिगम्बर अखाड़े के महंत का पद संभाला। उन्होने कहा था कि "मेरे जीवन की तीन ही अन्तिम अभिलाषाएं हैं। पहली- राम मन्दिर, कृष्ण मन्दिर, काशी विश्वनाथ मंदिर का निर्माण। दूसरी- इस देश में आमूल-चूल गोहत्या बन्द हो। तीसरी- भारत मां को अखण्ड भारत के रूप में देखना। इसके लिए मैं जीवन भर संघर्ष करता रहा हूं और आगे जीवित रहा तो भी संघर्ष करता रहूंगा। मरने पर मैं मोक्ष नहीं चाहूंगा। मेरी अब एक ही कामना है जो मैं कह चुका हूं।" जीवन परिचय संपादित करें परमहंस जी महाराज का पूर्व नाम चन्द्रेश्वर तिवारी था। १७ वर्ष की आयु में साधु जीवन अंगीकार करने के बाद उनका नाम रामचन्द्र दास हो गया। बिहार के छपरा जिला के सिंहनीपुर ग्राम में १९१२ में माता स्वर्गीय श्रीमती सोना देवी और पिता श्री पण्डित भगेरन तिवारी (सम्भवत: भाग्यरन तिवारी) के पुत्र के रूप में उनका जन्म हुआ था। महाराजश्री के पिताजी सरयूपारीय, शाण्डिल्य गोत्रीय धतूरा तिवारी ब्राह्मण थे। चंद्रेश्वर बालक ही थे कि माता स्वर्ग सिधार गयीं। कुछ दिनों बाद पिता भी नहीं रहे। परिणामस्वरूप इनके शिक्षण एवं लालन-पालन का दायित्व घर में सबसे बड़े भाई यज्ञानन्द तिवारी के कंधों पर आ गया। परिवार में कुल चार भाई, चार बहनों का जन्म हुआ। परमहंस जी चारों भाइयों में सबसे छोटे थे। मंझले दोनों भाई अपनी अल्पायु में ही चल बसे, आज कोई बहन भी जीवित नहीं है। इस प्रकार परिवार में केवल दो भाई शेष रहे। सबसे बड़े यज्ञानन्द तिवारी और सबसे छोटे चन्द्रेश्वर तिवारी। बड़े भाई उनसे लगभग १७ वर्ष बड़े थे। श्री चंद्रेश्वर तिवारी जब कक्षा १० में पढ़ते थे, तभी पास के किसी ग्राम में यज्ञ देखने गए और सन्तों के सम्पर्क में आ गए। ग्राम में रहकर १२वीं कक्षा पास की। उसके पश्चात्‌ साधु जीवन स्वीकार कर लिया। उस समय लगभग १५ वर्ष की आयु में हृदय में वैराग्य भाव जागृत हो गया था। पटना आयुर्वेद कालेज से आयुर्वेदाचार्य, बिहार संस्कृत संघ से व्याकरणाचार्य तथा बंगाल से साहित्यतीर्थ की परीक्षाएं पास कीं। परमहंस जी महाराज १९३० ई. के लगभग अयोध्या आ गए थे। अयोध्या में वे रामघाट स्थित परमहंस रामकिंकर दास जी की छावनी में रहे। (आज इसी स्थान पर श्रीराम जन्मभूमि मन्दिर के लिए पत्थरों की नक्काशी का कार्य होता है।) महाराज जी के आध्यात्मिक गुरु ब्रह्मचारी रामकिशोर दास जी महाराज (मार्फा गुफा जानकी कुण्ड, चित्रकूट) थे। १९७५ में श्री पंच रामानन्दीय दिगम्बर अखाड़ा की अयोध्या बैठक के महन्त पद पर प्रतिष्ठित किए गए। इनके पूर्व गुरु का नाम श्री महन्त सुखराम दास जी महाराज (दिगम्बर अखाड़ा, अयोध्या) था। हरिद्वार में कुम्भ आयोजन के पूर्व देशभर से रामानन्द सम्प्रदाय के संतों के वृन्दावन में एकत्र होने की परम्परा है। इसी परम्परा के अनुसार १९९८ में वृन्दावन में वे अखिल भारतीय श्री पंच रामानन्दीय दिगम्बर अनी अखाड़ा के सर्वसम्मति से श्री महन्त चुने गए। श्रीराम जन्मभूमि न्यास के अध्यक्ष जगद्गुरु रामानन्दाचार्य पूज्य स्वामी शिवरामाचार्य जी महाराज का साकेतवास हो जाने के पश्चात्‌ अप्रैल, १९८९ में परमहंस जी महाराज को श्रीराम जन्मभूमि न्यास का कार्याध्यक्ष घोषित किया गया। बाद में वे श्रीराम जन्मभूमि मन्दिर निर्माण समिति के अध्यक्ष भी चुने गए। जगद्गुरु रामानन्दाचार्य पूज्य स्वामी भगवदाचार्य जी महाराज ने आपको "प्रतिवाद भयंकर' की उपाधि से सुशोभित किया था। महंत श्री ने विशिष्टाद्वैत की शिक्षा श्री अयोध्या प्रसादाचार्य जी से ग्रहण की थी। धर्मसम्राट पूज्य स्वामी करपात्री जी महाराज ने परमहंस जी के बारे में एक बार टिप्पणी करते हुए कहा था कि यह व्यक्ति केवल विद्वान ही नहीं अपितु पुस्तकालय है। संघर्ष गाथा संपादित करें परमहंस रामचन्द्र दास जी महाराज ने श्रीराम जन्मभूमि में पूजा-अर्चना के लिए १९५० में जिला न्यायालय में प्रार्थनापत्र दिया। अदालत ने उस प्रार्थना पत्र पर अनुकूल आदेश दिए और निषेधाज्ञा जारी की। मुस्लिम पक्ष ने उच्च न्यायालय में अपील की, उच्च न्यायालय ने अपील रद्द करके पूजा-अर्चना बेरोक-टोक जारी रखने के लिए जिला न्यायालय के आदेश की पुष्टि कर दी। इसी आदेश के कारण आज तक श्रीराम जन्मभूमि पर श्रीरामलला की पूजा-अर्चना होती चली आ रही है। श्रीराम जन्मभूमि मुक्ति के ७७वें संघर्ष की शुरूआत अप्रैल, १९८४ की प्रथम धर्म संसद (नई दिल्ली) में हुई, जिसमें अयोध्या, मथुरा, काशी के धर्म स्थानों की मुक्ति का प्रस्ताव स्वर्गीय दाऊदयाल खन्ना जी के द्वारा रखा गया, जो सर्वसम्मति से पारित हुआ। दिगम्बर अखाड़ा, अयोध्या में परमहंस रामचन्द्र दास जी की अध्यक्षता में ७७वें संघर्ष की कार्य योजना के संचालन हेतु प्रथम बैठक हुई थी, जिसमें श्रीराम जन्मभूमि मुक्ति यज्ञ समिति का गठन हुआ। परमहंस जी सर्वसम्मति से यज्ञ समिति के वरिष्ठ उपाध्यक्ष चुने गए। जन्मभूमि को मुक्त कराने हेतु जन-जागरण के लिए सीतामढ़ी से अयोध्या तक राम-जानकी रथ यात्रा का कार्यक्रम भी इसी बैठक में तय हुआ था। उत्तर प्रदेश में भ्रमण के लिए अयोध्या से भेजे गए ६ राम-जानकी रथों का पूजन परमहंस जी महाराज के द्वारा अक्टूबर १९८५ में सम्पन्न हुआ था। पूज्य परमहंस जी महाराज की दूरदर्शिता के परिणामस्वरूप जगद्गुरु रामानन्दाचार्य स्वामी शिवरामाचार्य जी महाराज के द्वारा श्रीराम जन्मभूमि न्यास की स्थापना हुई। दिसम्बर १९८५ की द्वितीय धर्म संसद उडुपी (कर्नाटक) में पूज्य परमहंस जी की अध्यक्षता में हुई जिसमें निर्णय हुआ कि यदि ८ मार्च १९८६ को महाशिवरात्रि तक रामजन्मभूमि पर लगा ताला नहीं खुला तो महाशिवरात्रि के बाद ताला खोलो आन्दोलन, ताला तोड़ो में बदल जाएगा और ८ मार्च के बाद प्रतिदिन देश के प्रमुख धर्माचार्य इसका नेतृत्व करेंगे। पूज्य परमहंस रामचन्द्र दास जी महाराज ने अयोध्या में अपनी इस घोषणा से सारे देश में सनसनी फैला दी कि "८ मार्च १९८६ तक श्रीराम जन्मभूमि का ताला नहीं खुला तो मैं आत्मदाह करूंगा।' जिसका परिणाम यह हुआ कि १ फ़रवरी १९८६ को ही ताला खुल गया। जनवरी, १९८९ में प्रयाग महाकुम्भ के अवसर पर आयोजित तृतीय धर्मसंसद में शिला पूजन एवं शिलान्यास का निर्णय परमहंस जी की उपस्थिति में ही लिया गया था। इस अभिनव शिलापूजन कार्यक्रम ने सम्पूर्ण विश्व के रामभक्तों को जन्मभूमि के साथ प्रत्यक्ष जोड़ दिया। श् श्रीराम जन्मभूमि न्यास के अध्यक्ष जगद्गुरु रामानन्दाचार्य पूज्य स्वामी शिवरामाचार्य जी महाराज का साकेतवास हो जाने के पश्चात्‌ अप्रैल, १९८९ में परमहंस जी महाराज को श्रीराम जन्मभूमि न्यास का कार्याध्यक्ष घोषित किया गया। परमहंस जी महाराज की दृढ़ संकल्प शक्ति के परिणामस्वरूप ही निश्चित तिथि, स्थान एवं पूर्व निर्धारित शुभ मुहूर्त ९ नवम्बर १९८९ को शिलान्यास कार्यक्रम सम्पन्न हुआ। ३० अक्टूबर १९९० की कारसेवा के समय अनेक बाधाओं को पार करते हुए अयोध्या में आये हजारों कारसेवकों का उन्होंने नेतृत्व व मार्गदर्शन भी किया। २ नवम्बर १९९० को परमहंस जी का आशीर्वाद लेकर कारसेवकों ने जन्मभूमि के लिए कूच किया। उस दिन हुए बलिदानश् के वे स्वयं साक्षी थे। बलिदानी कारसेवकों के शव दिगम्बर अखाड़े में ही लाकर रखे गए थे। अक्टूबर १९८२ में दिल्ली की धर्म संसद में ६ दिसम्बर की कारसेवा के निर्णय में आपने मुख्य भूमिका निभायी और स्वयं अपनी आंखों से उस ढांचे को बिखरते हुए देखा था जिसका स्वप्न वह अनेक वर्षोंश् से अपने मन में संजोए थे। अक्टूबर २००० में गोवा में केन्द्रीय मार्गदर्शक मण्डल की बैठक में पूज्य परमहंस जी महाराज को मन्दिर निर्माण समिति का अध्यक्ष सर्वसम्मति से चुना गया। जनवरी, २००२ में अयोध्या से दिल्ली तक की चेतावनी सन्त यात्रा का निर्णय पूज्य परमहंस रामचन्द्र दास जी का ही था। २७ जनवरी २००२ को प्रधानमंत्री से मिलने गए सन्तों के प्रतिनिधि मण्डल का नेतृत्व भी आपने ही किया। मार्च २००२ के पूर्णाहुति यज्ञ के समय शिलादान पर अदालत द्वारा लगायी गई बाधा के समय १३ मार्च को पूज्य परमहंस की इस घोषणा ने सारे देश व सरकार को हिला कर रख दिया कि "अगर मुझे शिलादान नहीं करने दिया गया तो मैं रसायन खाकर अपने प्राण त्याग दूंगा।' आन्दोलन को तीव्र गति से चलाने के लिए सितम्बर, २००२ को केन्द्रीय मार्गदर्शक मण्डल की लखनऊ बैठक में परमहंस जी की योजना से ही गोरक्ष पीठाधीश्वर महन्त अवैद्यनाथ जी महाराज की अध्यक्षता में श्रीराम जन्मभूमि मन्दिर निर्माण आन्दोलन उच्चाधिकार समिति का निर्माण हुआ। २६ मार्च २००३ को दिल्ली में आयोजित सत्याग्रह के प्रथम जत्थे का नेतृत्व कर पूज्य परमहंस रामचन्द्र दास जी महाराज ने अपनी गिरफ्तारी दी। २९, ३० अप्रैल २००३ को अयोध्या में आयोजित उच्चाधिकार समिति की बैठक में परमहंस जी के परामर्श से ही श्रीराम संकल्पसूत्र संकीर्तन कार्यक्रम की योजना का निर्णय हुआ। इसके द्वारा दो लाख गांवों के दो करोड़ रामभक्त प्रत्यक्ष रूप से मन्दिर के साथ सहभागी बनेंगे। इसके बाद बीमारी की अवस्था में भी वे अपने संकल्प को दृढ़ता के साथ व्यक्त एवं देश, धर्म-संस्कृति की रक्षा हेतु समाज का मार्गदर्शन करते रहे। Last edited 3 years ago by Sanjeev bot RELATED PAGES राम मंदिर, हरिद्वार स्वामी रामनरेशाचार्यजी महाराज साधु अखाड़ों की सूची  सामग्री CC BY-SA 3.0 के अधीन है जब तक 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