Monday, 24 July 2017

हिन्दू_धर्म_का_प्रामाणिक_साहित्य

#हिन्दू_धर्म_का_प्रामाणिक_साहित्य
और शाकाहार
मित्रों सच को मानकर आगे बढ़ने में ही समझदारी होती है
हिन्दू धर्म ने जब भी अपने अंदर कुछ बुराई को पाया है
तो उसे दूर कर वह हमेशा आगे बढ़ा है
इसीलियें वह दुनिया का, जीवित प्राचीनतम धर्म और सभ्यता है
वरना इतिहास में बहुत से ऐसे कबिलियाई धर्म भी मिलते हैं
वर्तमान में जिनका नाम लेवा और पानी देवा भी नहीं मिलता
.
सभ्यताओं के प्रारम्भ होने से पूर्व
मनुष्य और जानवर में कोई फर्क नहीं था
सभी जानवर की तरह ही न केवल मांस, बल्कि कच्चा मांस खाते थे
फिर अग्नि के अविष्कार ने भून के खाना सिखाया
सभी खाते थे और सभ्यताओं के प्रारम्भ होने पर भी खाते रहे
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वैदिक सभ्यता भी इससे अछूती नहीं थी
वेदो में यज्ञों में बलि और मांस भक्षण का विवरण मिलता है
किन्तु वैदिक समाज में मांस भक्षण आवश्यक नहीं था
जैसा की कुछ अन्य धर्मो और समाजो में है (जैसे - बकरीद)
यानि वैदिक समाज मूलतः मांसाहारी कभी नहीं था
.
छठी शताब्दी ईसा पूर्व, जब भारत में जैन और बौद्ध परंपरा का जन्म हुआ
तो अहिंसा और शाकाहार को बढ़ावा मिला
और हिन्दू धर्म ने भी अपने अंदर परिवर्तन लाते हुए
प्रतिस्पर्धा में बने रहने के लियें, इसे एक सिद्धांत के रूप में अपना लिया
तब से आज तक हिन्दू धर्म शाकाहार के साथ चल रहा है
.
इतना सब होते हुए भी
सामान्यजन की जानकारी के लियें फिर से बता दूँ
कि हिन्दू धर्म में मांस खाना कभी भी जरुरी नहीं माना गया है
और न ही किसी मंदिर या धर्म स्थल पर इसके चढ़ाये जाने का
किसी भी वैदिक ग्रन्थ में उल्लेख है
क्योंकि उस समय मंदिर और धर्म स्थल थे ही नहीं
.
आज कहीं -कहीं, कुछ परम्पराओ का विवरण मिलता है
जहाँ मांस और शराब आदि कुछ चढ़ाया जाता है
पर ये सब परम्पराएँ मात्र हैं धर्म इनका समर्थन नहीं करता
और हमें जल्द से जल्द इन सब को भी बंद कर देना चाहिए

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मित्रों हमें यह समझना चाहिए की हमारे साहित्य में क्या है और क्या नहीं है
और यह समझना भी जरुरी है कि इसकी रचना कैसे हुई है
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हिन्दू धर्म के प्राचीनतम ग्रन्थ वेद हैं_ इनमे ऋग्वेद पहले स्थान पर आता है
जो न केवल हिन्दू धर्म का _ बल्कि विश्व में किसी भी धर्म या सभ्यता का प्राचीनतम ग्रन्थ है

वेदो की संख्या 4 है अन्य 3 हैं यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद
वेदो के बाद ब्राह्मण ग्रंथो का क्रम आता है जो की 8 हैं
तीसरे क्रम में आरण्यक ग्रन्थ आते हैं जो 6 हैं
तथा अंत में उपनिषदों का क्रम है
उपनिषदों की संख्या 108 मानी गयी है लेकिन प्रामाणिक 12 ही हैं
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इसके अतिरिक्त जो भी साहित्य है उसमे तीन समस्याएं हैं
-- एक तो वो वैदिक साहित्य का भाग नहीं हैं
-- दूसरे उनकी रचना काफी बाद में हुई है
-- तीसरे उनमे काफी विरोधाभाषी बिंदु भी मिलते हैं
जिनके विश्लेषण से पता चलता है कि उनमे काफी क्षेपक हैं
अर्थात उनमे काफी बातें बाद में किसी के द्वारा किसी स्वार्थवश मिला दी गयी हैं

इसी समस्या को दूर करने के लिए
भगवान् विष्णु का समय समय पर अवतरण होता हैं ...जैसे कि ..बुद्धावतार

बुद्धावतार ने वेदों के कर्मकाण्डपरक संस्करण के स्थान पर
मानवीय और आध्यात्मिक पक्ष पर बल दिया हैं
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अब ये भी जानना जरुरी है कि इनकी रचना कैसे हुई
मित्रों हमारे यहाँ ज्ञान को याद करने की परम्परा रही है न की लेखन की
इसलियें सभी ग्रन्थ अपने सृजन काल/ रचना काल के बाद ही लिखे गए हैं
साथ- साथ नहीं
जैसे वेदो के सृजनकर्ता बहुत से ऋग्वेदिक कालीन ऋषि व विदुषी हैं
जबकि उसका लेखन/ संकलन महाकाव्य काल में वेद व्यास द्वारा हुआ है
ऐसा बाकि सभी ग्रंथो के बारे में भी सही है
इसलियें इनके अध्ययन में बहुत सावधानी की जरुरत है
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4 वेद, 8 ब्राह्मण, 6 अरण्यक और 12 उपनिषद ही वैदिक साहित्य का भाग हैं
शेष वेदिकोत्तर साहित्य कहलाता है
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इस मूल वैदिक साहित्य में कोई भी सामाजिक बुराई देखने को नहीं मिलती है
इसमे न तो बाल विवाह है न ही सती प्रथा है न ही दहेज़ प्रथा है न ही पर्दा प्रथा है
विधवा के पुनर्विवाह पर कोई रोक नहीं है, न ही अस्पृश्यता यानि छूआ छूत है
स्त्री का पूर्ण सम्मान है, बहुत सी वैदिक ऋचाओं की रचना विदुषी स्त्रियों ने की है
वर्ण व्यवस्था है, पर वह वर्तमान, जाति व्यवस्था नहीं है
वर्ण कर्म पर आधारित था _और इच्छानुसार बदला जा सकता था
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अब यह जानना जरुरी है कि फिर हिन्दू धर्म में ये सब गड़बड़ कैसे और कब हुई
इतिहास के अनुसार प्राचीन भारत के इतिहास का क्रम निम्नानुसार है

1. ऋग्वेदिक काल (1500-1000 B.C.) इसमे ऋग्वेद की रचना हुई
2. उत्तर वैदिक काल (1000-800 B.C.) इसमे शेष वेदो, ब्राह्मणो, अरण्यको और उपनिषदों की रचना हुई
3. महाकाव्य काल (800-600 B.C.) इसमे रामायण और महाभारत की रचना हुई
4. धर्मसूत्र काल (600-300 B.C.) इसमे धर्म सूत्रों की रचना हुई
5. धर्मशास्त्र काल (300 B.C.-2000 A.D.) इसमे पुराणो और स्मृतियों की रचना हुई
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यहाँ आपके लियें इतना समझना ही पर्याप्त है कि वेदोत्तर साहित्य की रचना बाद में हुई है इनमे से कुछ तो ब्रिटिश काल में 20 वीं शताब्दी में लिखे गए हैं इसलिए उनमे इंग्लैंड की महारानी विक्टोरिया तक का उल्लेख आ गया है

अब आप समझ ही सकते हैं की इनमे कितने क्षेपक यानि मिलावट हो सकती है
सारे विवाद और विरोधाभाष इसी वजह से हैं
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पर हिन्दू धर्म की खूबसूरती ही ये है कि यह विरोधभाषों में से
सत्य को खोज कर सही दिशा में आगे बढ़ जाता है
सती प्रथा, बाल विवाह और पर्दा प्रथा जैसी बुराइयों को समाज ने नकार दिया है
जातिव्यवस्था के बंधन शिथिल हुए हैं
पर अभी भी बहुत सी चुनौतियां शेष हैं हमें समाज को जोड़ना है तोडना नहीं
समता मूलक समाज का गठन होना चाहिए
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यह मै इसलियें लिख रही हूँ क्योंकि मैंने अक्सर धार्मिक वाद विवादों में विरोधियों को हिन्दू धर्म ग्रंथो पर हमला करते और कुतर्क करते देखा है और हिन्दू नौजवानो को भी उसी स्तर पर जा कर गाली गलौंच करते देखा है

मैंने बड़े बड़े तथाकथित मुस्लिम विद्वानो जैसे ज़ाकिर नाइक को भी सुना है और मूलनिवासी नाम के नए विद्वानो को भी ये सब वेदिकोत्तर साहित्य पर ही विवाद करते हैं और आपकी कमियों का फायदा उठाने कि कोशिश करते हैं इसलियें जब भी वेदिकोत्तर साहित्य पर चर्चा हो, बहस ना करे, बहस को मूल वैदिक साहित्य पर ले आएं फिर आपको कोई भी तर्क से नहीं हरा सकता,
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मै चाहती हूँ कि नौजवान पहले सच क्या है ये जान लें तो असहजता की स्थिति से बच सकते हैं इसलियें आप पूरी श्रृंखला का अध्ययन करके स्वयं को समृद्ध बनाये और विरोधियों को तर्क के माध्यम से परास्त करे न की गाली गलौंच से
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मै यह स्पष्ट रूप से बताना चाहती हूँ कि वैदिक काल में
नारी की स्थिति अच्छी थी समाज में जातिवाद नहीं था न ही छुआ छूत था

इन सब समस्याओं का जन्म महाकाव्य काल में शुरू हुआ, धर्म सूत्र काल में स्थिति और ख़राब हुई और धर्म शास्त्र काल में तो इतनी मिलावट है की सत्य का पता लगाना एक चुनौती है
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यहाँ मै स्पष्ट रूप से कहना चाहूंगी कि इसमे ब्राह्मणो को दोष देना अनुचित नहीं होगा क्योंकि समाज को दिशा देने का दायित्व उन्ही का था, नए ग्रंथो की रचना भी उन्होंने ही की, ऐसे में वे अपनी जिम्मेवारी से बच नहीं सकते,

बस एक चीज है जो उन्हें दोष मुक्त कर देती है कि जब आवश्यकता हुई तो समाज सुधार का कार्य भी ब्राह्मणो ने ही किया चाहे वो राजा राममोहन राय हों या स्वामी दयानंद सरस्वती
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अभी भी बहुत सी चुनौतियां शेष हैं हमें समाज को जोड़ना है तोडना नहीं
समता मूलक समाज का गठन होना चाहिए
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मित्रों हमारे धार्मिक ग्रंथों को समझने के लिए
हमें यह जानना बहुत जरुरी है की इतिहास और कहानियों में अंतर होता है
इतिहास पुरातित्विक व साहित्यिक साक्ष्यों के सामंजस्य से बनता है
जबकि कहानी के लियें कोई बाध्य शर्त नहीं होती
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समस्या यह है कि हमारे प्राचीन लेखन में समाज सुधार की दृष्टि से आदर्श तो बताये गए पर वे कहानियों के रूप में बताये गए इससे उनका तथ्यपरक होना बाधित हो गया
प्राचीन ग्रन्थ अधिकतर काव्य में लिखे गए हैं या यूँ कहें की कवियों की रचनाएँ हैं

कवि भावुक व्यक्ति होता है और अतिश्योक्ति अलंकार का प्रयोग करता है
इससे उनका लेखन कहानी बन जाता है
काश हमारे किसी पौराणिक राजा ने कोई संवत सतयुग में ही चला दिया होता और कवियों ने अपनी कहानियों में उसका थोड़ा बहुत सन्दर्भ भी ले लिया होता तो तश्वीर बहुत साफ हो जाती
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अब स्थिति यह है कि या तो हमें लिखा मिलता है कि "बहुत साल पहले एक राज्य में एक राजा राज्य करता था" अब अगर कवि महोदय ने साथ में ये भी लिख दिया होता कि कितने साल पहले कौन से राज्य में कौन सा राजा राज्य करता था तो यही इतिहास बन जाता

इसी प्रकार जब पुराणो में यह लिखा मिलता है की उस राजा ने 50,000 साल या 36 लाख वर्ष शासन किया तो यह भी इतना अतिश्योक्ति से भरा है की स्वीकार ही नहीं किया जा सकता
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इसलियें अगर हम यह कहें कि, कवि ही वह अपराधी है, जिसने हमारे इतिहास को कहानी बना दिया, तो कोई अतिश्योक्ति नहीं है, परन्तु हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि, वह भी कवि ही है जिसके कारण आज हमें बहुत सी जानकारी (अधूरी ही सही) मिली है,
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अब हमारी समझदारी इसमें है कि हम उसमें से फ़िल्टर लगा के सही को छान लें और गलत को छोड़ दें, हिन्दू धर्म रूढ़िवादी नहीं है अव्वल तो मूल साहित्य में कुछ गलत है ही नहीं और अगर हो भी तो हम आगे बढ़ने के लिए हम उसे भी नकार सकते हैं, हम उनमे से नहीं हैं जो अपनी धर्मिक पुस्तक में से एक कोमा या एक डॉट भी न हटाना चाहें
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अभी भी बहुत सी चुनौतियां शेष हैं हमें समाज को जोड़ना है तोडना नहीं
समता मूलक समाज का गठन होना चाहिए
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वर्णव्यवस्था, जातिव्यवस्था और अश्पृश्यता
मित्रों यहाँ यह सोचने की जरुरत है कि आखिर इन सबका प्रारम्भ कैसे हुआ
और ये समाज में समस्या के रूप में कैसे फैले

प्रत्येक व्यक्ति के पास बौद्धिक, शारीरिक व आर्थिक क्षमता होती है, परन्तु बराबर मात्रा में नहीं होती एक ही माँ बाप के यदि चार बेटे हों तो यह अंतर उनमे भी होता है, परन्तु समाज में जीने व अपनी जीविका कमाने का अधिकार सबको बराबर है

इस समस्या को ही ध्यान में रखते हुए हमारे पूर्वज ऋषियों ने वर्ण व्यवस्था को जन्म दिया अर्थात जो बौद्धिक रूप से अधिक शक्तिशाली हो उसे पठन-पाठन की जिम्मेवारी दी गयी और वह ब्राह्मण कहलाया, दूसरे के पास यदि शारीरिक क्षमता अधिक थी तो उसे सैनिक बनाया गया और वह क्षत्रिय बन गया, इसी प्रकार जिसके पास बौद्धिक व शारीरिक दोनों शक्तियां कम थी उसे धन शक्ति के आधार पर व्यापार का कार्य सौपा गया और वह वैश्य बन गया, इस वर्ण विभाजन के बाद भी कुछ लोग ऐसे बच गए जिनके पास तीनो शक्तियों की कमी थी पर समाज में जीने व जीविका का अधिकार तो उन्हें भी था ना इसलिए उन्हें सेवा का कार्य दिया गया
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यह वर्गीकरण पूर्णतया वैज्ञानिक था और श्रम विभाजन के सिद्धांत का भी पालन करता था,
वर्ण कर्म के अनुसार था परिवर्तनशील था
अर्थात व्यक्ति अपनी क्षमता के अनुसार वर्ण बदल सकता था
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समस्या तब शुरू हुई जब महाकाव्य काल में वर्ण व्यवस्था में जातिव्यवस्था आ गयी
और वह जन्म के आधार पर होने लगी, अब जाति परिवर्तनशील नहीं थी

यह समस्या अपनी पराकाष्ठा पर तब पहुंची जब इसमे अश्पृश्यता यानि छुआ-छूत ने और स्थान बना लिया, हालाँकि उसका आधार स्वच्छ्ता के नियमो पर आधारित था और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से वह भी सही था, पर समाज में वह जातिगत आधार पर फैलने लगा और एक सामाजिक बुराई के रूप में सामने आया,
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मित्रों आज हमें यह समझने की जरुरत है की हर वो चीज जो हमारे समाज को तोड़ती है एक तो वो धर्म के आधार पर नहीं है दूसरे उसे ढोते रहना हमारी कोई मज़बूरी नहीं है, अतः हमें ऐसी समस्त गलत परम्पराओं को नकार देना चाहिए और समता मूलक समाज का गठन करना चाहिए
..
अभी भी बहुत सी चुनौतियां शेष हैं हमें समाज को जोड़ना है तोडना नहीं
समता मूलक समाज का गठन करना है

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