Monday 24 July 2017

!! “ ज्ञान स्वरूपं निजबोधरूपम् ” !! : !! ॥ बुद्धं शरणम् गच्छामि ॥ !! !! “ ज्ञान स्वरूपं निजबोधरूपम् ” !! : " ज्ञानमेकं सदा भाति सर्वावस्थासु निर्मलम् " । नारायण ! यह जो ज्ञान है सब चीज़ों को प्रकाशित करता रहताहै , सभी अवस्थाओं के अन्दर । और स्वयं कैसा रहता है? सारी अवस्थाएँ आती - जातीहैं , लेकिन यह जो ज्ञान है , यह कैसा बना रहता है ? निर्मल बना रहता है ।विचार करके देखें तो पता लग जायेगा । आप किसी प्राणी को पानी पिलाओ तो भी आप जानोगे कि " मैंने पानी पिलाया " । और प्यासे को धक्का मारकर बाहर निकाल देते हैं , तो भी जानेंगे । एक धर्म है दूसरा अधर्म है । लेकिन दोनों के जानने में कोई फर्क पड़ रहा है ? दोनों को एक जैसे स्पष्ट रूप से जान रहे हैकि नहीं ? ज्ञान पर कोई फर्क नहीं पड़ा। “ भगवान् श्रीभाष्यकार आचार्य श्रीशङ्करभवत्पाद् जी “ कहते हैं कि यह जो ज्ञान - स्वरूप एक जैसा बैठा हुआ है इसमें कोई फर्क नहीं पड़ता । ज्ञान है तो सब कुछ हो रहा है , ज्ञान नहीं तो कुछ नहीं होता । लेकिन यह सब कुछ जो होरहा है उसका प्रभाव ज्ञान के ऊपर कुछ नहीं । लेकिन " मन्दभाग्या न जानन्ति स्वरूपं केवलं बृहत् । " जो मन्द भाग्य होते हैं , जिनका भाग्य मन्द होता है , वे इस बात जानते नहीं । यही बात भगवान् श्रीवासुदेव श्रीकृष्ण ने भी श्रीगीता गायन में उद्घोषणा की । क्या उद्घोषणा की ? कहते हैं : " ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन ! तिष्ठति" । भगवान् ने गाया - हरेक के हृदय के अन्दर यह ज्ञानरूप ईश्वर बैठा हुआ है। वह ज्ञान बैठा हुआ है तभी बाकी सब पूरा है । जरा आप विचार करना : ज्ञान नहींहोता तो " मैं" सीता को भगा नहीं ले जाता औरज्ञान नहीं होता तो " मैं" रावण को मारकर सीता को लौटा नहींलाता । लेकिन सीता को भगाने वाले को दण्ड मिलता है । क्योंकि भगाने वाला अपने कोमिथ्या आत्मा शरीर समझता है । यदि वह उस ज्ञानरूप ईश्वर को अपना स्वरूप समझता तो उसको कोई दण्ड न मिलता । मुख्यात्मा को छोड़कर मिथ्या आत्मा को पकड़ा , बस इसी अपराध से मारे जाते हैं । यही है" मेरे नारायण " ! " मन्द भाग्य " । सर्वव्यापक परमात्म - तत्त्व एक जैसा ज्ञानरूप विद्यमान है , इसकी तरफ ध्यान जाता ही नहीं । ध्यान रखें मेरे नारायण ! भगवान् श्रीवासुदेव कृष्ण ने ज्ञान के लिये " ईश्वर" शब्द का प्रयोग कर स्पष्ट कियाकि इसको नचाने वाला तो ईश्वर हुआ । लेकिन इसे नचाने वाले ईश्वर के लिये भी कोई नरक बनाया गया क्या ? महाभारत में श्रीवासुदेव कृष्ण ने अर्जुन से कहा कि " शिखण्डी को आगे कर भीष्म को बाण मार दो । " भीष्म पितामह को मरवा दिया । युधिष्ठिर से कहाकि " अरे कह दे ," अश्वत्थामा मारा गया । मैं कहता हूँ न ,बोल दे झूठ । " कर्ण का रथ युद्ध - भुमि में लड़ते समय दलदल में फँस गया था । उसके पहिये को निकालने के लिए कर्ण लगा हुआ था , उसके हाथ मेँ कोई भी शस्त्र नहीं था । जो लोक विदित है । भगवान् श्रीवासुदेव कृष्ण कहते हैं कि " अरे भाई ! मार दे , मार दे , बाण । यही मौका है । " कृष्ण कहते हैं कि " मारो, मारो " । वहाँ कर्ण को मरवा दिया । यह सब करवाने वालाकौन है ? कृष्ण । महाभारत के अन्त में आता है कि जब " महाप्रस्थान " में पाण्डव मरते है तब नरक जाते है। लेकिन कृष्ण ? किसी ने नहीं लिखा कि कृष्ण कभी नरक पहुँचे ! कृष्ण क्योंकि ज्ञानस्वरूपता को समझते थे इसलिये झूठ बोलने के काल में जो उनकी निर्मलता , सच बोलने के काल में भी वही निर्मलता थी ।लेकिन अर्जुन और युधिष्ठिर आदि अपने को मिथ्या आत्मा समझते थे । " मैं झूठ बोलने वाला । " झूठ तो वाणी बोलेगी । वह ब्रह्म नहीं ।" शस्त्र चलाने वाला मैं" ; यह तो मिथ्या आत्मा है ,मुख्य आत्मा नहीं । इसलिये इस आत्मा पर मल भी आयेगा । उन्हें नरक जानापड़ा । मन्द भाग्य का मतलब साधारण मन्द भाग्य ही नहीं लेंगे । युधिष्ठिर आदि की जब यह बात है , तब स्पष्ट है कि इतना सब करने के बाद भी ज्ञान की प्राप्ति जिसको नहीं हुई वह मन्द भाग्य है । इसको समझे कैसे ? साधन क्या है ? भगवान् भाष्यकार साधन बतलाते हैं : " सकल्पसाक्षि यज्ज्ञानं सर्वलोकैकजीवनम् । तदेवास्मीति यो वेद स मुक्तो नात्र संशयः ॥" जाग्रत् काल में कोई क्षण ऐसा नहीं जब मन में कोई नकोई संकल्प नहीं उठता । " यहकिया , क्या करना है , और आगे यह होने जा रहा है " । कुछ न कुछ संकल्प मन में संकल्प बना ही रहता है । अनादि काल से लोग हमें - आपको यही संकल्प देते रहे कि इन संकल्पों पर गोलियाँदागते रहो । यह अच्छा , यह बुरा ,यह जड , या चेतन , यह प्राणायाम , ध्यान -समाधि ; किसी तरह से संकल्प- हीन बनो इसके सब साधन बताये । बार -बार शस्त्र चलाये पर सारे शस्त्र चलाने के बाद भी यह दुश्मन अभी मरा नहीं ! सीनातानकर खड़ा है । क्यों नहीं मरा ? कोई कहेगा कि पूर्व जन्म में तपस्या नहीं की होगी अतः और तपस्या कर लो । पूर्व जन्ममें साधना की कमी थी । न जाने और क्या - क्या बतलायेंगे । भगवान् भाष्यकार आचार्य श्रीसर्वज्ञ शङ्करभगवत्पाद् जी कृपा - पूर्ण अनुग्रह करते हुए कहते हैं कि अरे ! जरा विचार तो करो : " संकल्प को नष्ट करो " यह संकल्प है या और कुछ है ? बस , यहीं पकड़े जाते हो । संकल्प को काटना चाहते हो । काहे से ? संकल्प से। यह संभव है क्या ? कभी नहीं । इसी से फँसते जाते हो । नारायण ! बड़े - बड़े व्यापारी होते हैं , उनके पास हिसाब - किताब देखो तो लाखों ,करोड़ों रुपये देखने में आते हैं । लेकिनसमय पर कहें कि " शुक्ला जी को पचास हजार रुपये चाहिए । " तो जवाब क्या मिलता है ? " आजकल ज़रा हाथ तंग है " । जो औरत पाँच सौ रुपये महीना पाती है ,उस औरत से समय पर कहो कि " उत्सव आ रहा है , पचास रुपये दोगी ? " तो वह कहती है " कल सवेरे ले आऊँगी । " अगले दिन ले भी आती है । सेठजी लाखों रुपये का व्यापार करते हैं , उनका हाथ तंग है । यहनहीं कि वे झूठ बोल रहे हैं । वे पैसे से पैसा कमाते हैं । इसलिये जितना पैसा आता है उसे फिर व्यापार में झोंक दिया । जो भी पैसा आता गया फिर - फिर व्यापार में लगता रहा । व्यापार में जरा - सी गड़बड़ी हुई तो क्या होता है ? शुक्लाजी खुद भी रोते हैं और जिन्हें उनसे पैसा लेना था , उधार था , वे भी सब रोते हैं । नारायण ! पहले हमने स्वयं देखा है कि जहाँ दो - चार हजार रुपये इकट्ठे हुए , घर में लाकर उस धन में से आधा या चौथाई अपनी घरवाली को दे देते थे जिससे वह गहने आदि बनवा लेती थी । इस प्रकार घर में काफी पूँजी जमा हो जाती थी । कभी दस साल में कोई व्यापार ऊपर - नीचे होता था , कोई भी मुश्किल धन - संबंधी पड़े तो वह घरवाली का इकट्ठा किया पैसा काम आ जाता था । उसपैसे का सेठजी को सही - सही पता भी नहीं रहता था । आज इस प्रकार बचत सेठ लोग करते नहीं है । और उनको अपनी धर्मपत्नियों पर विश्वास भी तो नहीं रहा ! हो भी कैसे यकीन? घरवालियों के हाथ में आज यदि पैसा आ जाता है तो वे बढ़िया - बढ़िया साड़ी खरीदने लगती है , हजार - पाँच हजार के जूते खरीदने लगती हैं । फिजूलखर्ची करने लगती है । व्यापारी बेचारा क्या करे ! विचार करें ; व्यापारी का धन व्यापार में ; धन कमाता रहेगा तो लाभ है , लेकर रख नहीं सकता , क्योंकि कमाया धन तो फिर व्यापार में ही लग जाता है । हाथ में तो कुछ नहीं रहता , केवल मन का संतोष है , स्वयं को कोई लाभ नहीं । इसी प्रकार जब संकल्प करके संकल्प को कम करना चाहते हैं तब भी वह एक संकल्प हो गया ! अनादि काल से लगे है कोशिश करने में लेकिन बना कुछ नहीं । भगवान् भाष्यकार आचार्य श्रीभगवत्पाद् शङ्कर कहते हैंकि इसे छोड़ने का तरीका है कि संकल्प को हटाओ मत , लाओ मत । नारायण ! संकल्प को सिनेमा समझकर सीट पर बैठे देखते रहो । सिनेमा देखने के लिये सौ - दो सौ रुपये का टिकट लेकर जाते हैं । देखा होगा सबने बड़े - बड़े हाल बने हुए हैं। वहाँ टिकट लेकर , कोई दही - बड़े थोड़े ही खाने को मिलते है , रबड़ी थोड़े ही खाने को मिलते हैं । क्या मिलताहै ? कुर्सी मिलती है बैठने को ।वहाँ चुपचाप बैठे रहो । बीच में खड़े हो गये तो पीछे वाला शोर और मचा देगा ! इसी प्रकार प्रारब्ध कर्म के पैसे देखकर हम - आप अन्तःकरण के सिनेमा का टिकट लेकर आयेहो । जो हमें - आपको सुख - दुःख भोगना है , वह प्रारब्ध के टिकट के अनुसार । जब आकर इस देह ,सिनेमाघर में बैठ गये तब मन के आगे जो आता चला जाये उसे देखते चले जायें । सीट पर बैठे रहें , शोर मत मचायें । यह संकल्प की साक्षीरूपता है । नारायण ! यह जो ज्ञान है यही सारे लोकों का , जितने भी अनुभव है , इन सबका जीवन है । जो निश्चित रूप से उस साक्षी - स्वरूप में बैठ जाता है ,वह संकल्प करने वाला " मैं " नहीं , अहंकार नहीं , आत्मा है । यह बात सुनते तो हैं , समझते हैं लेकिन भूलजाते हैं। कई लोग सिनेमा देखकर आते हैं तो आँखे लाल होती हैं । पूछें" आँखे लाल कैसे हो गई?" उत्तर देते हैं " जी ऐसा दृश्य था कि रोना रोक नहीं पाये ।" वहाँ रोने वालों को देखने गये थे कि खुद रोने लग गये ! इसी प्रकार कोई दूसरा चित्र आता है , बड़ा अच्छा लगता है , कोई गाना सुना तो वहीं हाथ पैर मारने लगते हैं ,दिवाने हो जाते हैं ! अरे , यह करने गये थे कि देखने गये थे । यहाँ भी आकर आप - हम शरीर में बैठे हैं । प्रारब्ध का टिकट ले लिया । बीच - बीच में भुल जाते है कि दर्शक हूँ , समझ देते हैं कि खेल करने वाला ही मैं हूँ । बस ,यह न करें । मैं केवल साक्षिरूप ज्ञान हूँ , उससे अतिरिक्त मैं कुछनहीं । सिनेमा के नट - नटियों से मेरा कोई मतलब नहीं । इसको जो निश्चित रूप से यादरखते है वे ही मुक्त है। पूर्ण मुक्ति तो उसकी है जो सब काल में यह निश्चय रख सके। लेकिन मान लें आपको चार फुलकों की भूख है । पेट तो तभी भरेगा जब चार फुलके खानेको मिल जायें लेकिनयदि दो फुलके भी खाने को मिल गये तो कुछ तो संतोष हो ही जाता है । इसी तरह से नित्य निरन्तर साक्षिभाव में स्थित हो सकें इसके लिये प्रयास करें क्योंकि तभी पूर्ण रूप से आप मुक्त होंगे , लेकिन जिस - जिस क्षण इस साक्षिभाव में स्थित होते है उस - उस क्षण भी तो मुक्त ही हैं। प्रयास करते रहें लक्ष्य प्राप्त ही होगा । यह निश्चित है । निश्चित है । यही आचार्य का संदेश है । प्रणाम । श्री नारायण हरिः । ____________________ परमात्मा ने संकल्प लिया और हो गए बहुत । कुछ करना तो नहीं पड़ा । लेकिन हम तो संकल्प लेते है और करते है । रोज - रोज नया - नया संकल्प । शराब की आदत को छोड़ने के लिए माँ - बहनों को लेकर बुरी - बुरी कसमे खाते है यह कसमे खाना भी तो संकल्प ही हुआ । उसके तो संकल्प मात्र से सब कुछ हो जाता है उन्हें कुछ करना नहीं पड़ता । उनका संकल्प बदलता नहीं कभी यह कभी वह । हमारा आपका संकल्प - विकल्प होता ही रहता है नित्य नया - नया । मंगल ही मंगल हो । आनन्द की प्राप्ति नहीं आनन्द तो तुम्हारा स्वरुप है । जिस चीज की प्राप्ति होती है वह अस्थाई होता है । आगमापायी होती है । आत्मा स्वयं आनंद स्वरुप है । आनन्द आता ओर जाता नहीं है - भैया । वह तो सदा सर्वदा है । इसीलिए तो संसार के किसी भी शब्दकोष में आनन्द का विपरीतार्थक शब्द नहीं है - भैया । लाभ का हानी , सुख का दुःख , भला का बुरा , ऊँचे का नीचा , गोरा का काला , छोटे का बड़ा , हर्ष का विषाद . शान्ति का अशांति , पुण्य का पाप आदि आदि । लेकिन आनन्द का कोई विपरीत शब्द बतला तो दो हम भी जान जायेंगे । आपका गुण गायेंगे । दुःख शब्द पर ध्यान दे जड़ा - दू + ख = ,दुःख । दू शब्द का अर्थ होता है दुर्गुण । और ख शब्द का अर्थ होता है इन्द्रियाँ । अर्थात हमारी - आपकी इन्द्रियाँ दुर्गुणों को ग्रहण कर रही है तो परिणाम दुःख ही होगा । मन भी एक इन्द्रियाँ ही है । भगवान ने स्वयं गीता जी में गया है कि इन्द्रियों में मै मन हूँ । इसे जहाँ लगाओ लग जायेगा । दुःख आगमापायी हैं आते और जाते हैं । लेकिन सारे दुखों का कारण मन ही है । मन गलती करता है और दुःख शरीर को होता है । मन चटपटा भोजन चाहता है हम मन को मनाने के लए चटपटा भोजन ले लेते हैं फिर परिणाम पेट में जलन । हाँ जितने भी दुःख हैं वे सब माने हुए है । वह भी थोड़े दिन रहते है । एक गया दूसरा आया । हम दुःख को स्वयं निमंत्रण देते है । सब कोई चाहते है की सुखी रहे , लेकिन 24 घंटे दुःख पाने का ही काम कर रहे है ।सब कोई चाहते है कि स्वस्थ्य रहें लेकिन देखा जाये तो 24 घंटे अस्वस्थ रहने का कम कर रहे हैं । इसके विपरीत सुख को लीजिये । सु अर्थात सुन्दर ख अर्थात इन्द्रियां अगर इन्द्रियाँ सुन्दर शास्त्र सम्मत चीजों को ग्रहण कर रही है तो परिणाम सुख है । लेकिन ध्यान रखें सुख और दुःख दोनों माने हुए है । किसी का सुख दुसरे के लिए दुःख हो सकता है । और किसी का दुःख दुसरे के नजर में सुख भी हो सकता है । सुख और दुःख ये दोनों मन के ताने - बाने है । हमारे नजरों में न सुख है न दुःख । आनंद ही आनन्द है । इस अपेक्षा महारानी जी की थोड़ी घूँघट तो उठाओ महाराज । फिर समझ में आवे कि अपेक्षा ही दुखो का कारण है । हम आपके भोले भाले भक्त हैं हम कैसे जान पाएंगे कि अपेक्षा ही सारे दुखों की जननी है ।

!! “ ज्ञान स्वरूपं निजबोधरूपम् ” !! :

!! ॥ बुद्धं शरणम् गच्छामि ॥ !!

!! “ ज्ञान स्वरूपं निजबोधरूपम् ” !! :

" ज्ञानमेकं सदा भाति सर्वावस्थासु निर्मलम् " ।

नारायण ! यह जो ज्ञान है सब चीज़ों को प्रकाशित करता रहताहै , सभी अवस्थाओं के अन्दर । और स्वयं कैसा रहता है? सारी अवस्थाएँ आती - जातीहैं , लेकिन यह जो ज्ञान है , यह कैसा बना रहता है ? निर्मल बना रहता है ।विचार करके देखें तो पता लग जायेगा । आप किसी प्राणी को पानी पिलाओ तो भी आप जानोगे कि " मैंने पानी पिलाया " । और प्यासे को धक्का मारकर बाहर निकाल देते हैं , तो भी जानेंगे । एक धर्म है दूसरा अधर्म है । लेकिन दोनों के जानने में कोई फर्क पड़ रहा है ? दोनों को एक जैसे स्पष्ट रूप से जान रहे हैकि नहीं ? ज्ञान पर कोई फर्क नहीं पड़ा।

“ भगवान् श्रीभाष्यकार आचार्य श्रीशङ्करभवत्पाद् जी “ कहते हैं कि यह जो ज्ञान - स्वरूप एक जैसा बैठा हुआ है इसमें कोई फर्क नहीं पड़ता । ज्ञान है तो सब कुछ हो रहा है , ज्ञान नहीं तो कुछ नहीं होता । लेकिन यह सब कुछ जो होरहा है उसका प्रभाव ज्ञान के ऊपर कुछ नहीं । लेकिन

" मन्दभाग्या न जानन्ति स्वरूपं केवलं बृहत् । "

जो मन्द भाग्य होते हैं , जिनका भाग्य मन्द होता है , वे इस बात जानते नहीं । यही बात भगवान् श्रीवासुदेव श्रीकृष्ण ने भी श्रीगीता गायन में उद्घोषणा की । क्या उद्घोषणा की ? कहते हैं :

" ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन ! तिष्ठति" ।

भगवान् ने गाया - हरेक के हृदय के अन्दर यह ज्ञानरूप ईश्वर बैठा हुआ है। वह ज्ञान बैठा हुआ है तभी बाकी सब पूरा है । जरा आप विचार करना : ज्ञान नहींहोता तो " मैं" सीता को भगा नहीं ले जाता औरज्ञान नहीं होता तो " मैं" रावण को मारकर सीता को लौटा नहींलाता । लेकिन सीता को भगाने वाले को दण्ड मिलता है । क्योंकि भगाने वाला अपने कोमिथ्या आत्मा शरीर समझता है । यदि वह उस ज्ञानरूप ईश्वर को अपना स्वरूप समझता तो उसको कोई दण्ड न मिलता । मुख्यात्मा को छोड़कर मिथ्या आत्मा को पकड़ा , बस इसी अपराध से मारे जाते हैं । यही है" मेरे नारायण " ! " मन्द भाग्य " । सर्वव्यापक परमात्म - तत्त्व एक जैसा ज्ञानरूप विद्यमान है , इसकी तरफ ध्यान जाता ही नहीं ।

ध्यान रखें मेरे नारायण ! भगवान् श्रीवासुदेव कृष्ण ने ज्ञान के लिये " ईश्वर" शब्द का प्रयोग कर स्पष्ट कियाकि इसको नचाने वाला तो ईश्वर हुआ । लेकिन इसे नचाने वाले ईश्वर के लिये भी कोई नरक बनाया गया क्या ? महाभारत में श्रीवासुदेव कृष्ण ने अर्जुन से कहा कि " शिखण्डी को आगे कर भीष्म को बाण मार दो । " भीष्म पितामह को मरवा दिया । युधिष्ठिर से कहाकि " अरे कह दे ," अश्वत्थामा मारा गया । मैं कहता हूँ न ,बोल दे झूठ । " कर्ण का रथ युद्ध - भुमि में लड़ते समय दलदल में फँस गया था । उसके पहिये को निकालने के लिए कर्ण लगा हुआ था , उसके हाथ मेँ कोई भी शस्त्र नहीं था । जो लोक विदित है । भगवान् श्रीवासुदेव कृष्ण कहते हैं कि " अरे भाई ! मार दे , मार दे , बाण । यही मौका है । " कृष्ण कहते हैं कि " मारो, मारो " । वहाँ कर्ण को मरवा दिया । यह सब करवाने वालाकौन है ? कृष्ण ।

महाभारत के अन्त में आता है कि जब " महाप्रस्थान " में पाण्डव मरते है तब नरक जाते है। लेकिन कृष्ण ? किसी ने नहीं लिखा कि कृष्ण कभी नरक पहुँचे ! कृष्ण क्योंकि ज्ञानस्वरूपता को समझते थे इसलिये झूठ बोलने के काल में जो उनकी निर्मलता , सच बोलने के काल में भी वही निर्मलता थी ।लेकिन अर्जुन और युधिष्ठिर आदि अपने को मिथ्या आत्मा समझते थे । " मैं झूठ बोलने वाला । " झूठ तो वाणी बोलेगी । वह ब्रह्म नहीं ।" शस्त्र चलाने वाला मैं" ; यह तो मिथ्या आत्मा है ,मुख्य आत्मा नहीं । इसलिये इस आत्मा पर मल भी आयेगा । उन्हें नरक जानापड़ा । मन्द भाग्य का मतलब साधारण मन्द भाग्य ही नहीं लेंगे । युधिष्ठिर आदि की जब यह बात है , तब स्पष्ट है कि इतना सब करने के बाद भी ज्ञान की प्राप्ति जिसको नहीं हुई वह मन्द भाग्य है ।
इसको समझे कैसे ? साधन क्या है ?

भगवान् भाष्यकार साधन बतलाते हैं :

" सकल्पसाक्षि यज्ज्ञानं सर्वलोकैकजीवनम् ।
तदेवास्मीति यो वेद स मुक्तो नात्र संशयः ॥"

जाग्रत् काल में कोई क्षण ऐसा नहीं जब मन में कोई नकोई संकल्प नहीं उठता । " यहकिया , क्या करना है , और आगे यह होने जा रहा है " । कुछ न कुछ संकल्प मन में संकल्प बना ही रहता है । अनादि काल से लोग हमें - आपको यही संकल्प देते रहे कि इन संकल्पों पर गोलियाँदागते रहो । यह अच्छा , यह बुरा ,यह जड , या चेतन , यह प्राणायाम , ध्यान -समाधि ; किसी तरह से संकल्प- हीन बनो इसके सब साधन बताये । बार -बार शस्त्र चलाये पर सारे शस्त्र चलाने के बाद भी यह दुश्मन अभी मरा नहीं ! सीनातानकर खड़ा है । क्यों नहीं मरा ? कोई कहेगा कि पूर्व जन्म में तपस्या नहीं की होगी अतः और तपस्या कर लो । पूर्व जन्ममें साधना की कमी थी । न जाने और क्या - क्या बतलायेंगे ।

भगवान् भाष्यकार आचार्य श्रीसर्वज्ञ शङ्करभगवत्पाद् जी कृपा - पूर्ण अनुग्रह करते हुए कहते हैं कि अरे ! जरा विचार तो करो : " संकल्प को नष्ट करो " यह संकल्प है या और कुछ है ? बस , यहीं पकड़े जाते हो । संकल्प को काटना चाहते हो । काहे से ? संकल्प से। यह संभव है क्या ? कभी नहीं । इसी से फँसते जाते हो ।

नारायण ! बड़े - बड़े व्यापारी होते हैं , उनके पास हिसाब - किताब देखो तो लाखों ,करोड़ों रुपये देखने में आते हैं । लेकिनसमय पर कहें कि " शुक्ला जी को पचास हजार रुपये चाहिए । " तो जवाब क्या मिलता है ? " आजकल ज़रा हाथ तंग है " । जो औरत पाँच सौ रुपये महीना पाती है ,उस औरत से समय पर कहो कि " उत्सव आ रहा है , पचास रुपये दोगी ? " तो वह कहती है " कल सवेरे ले आऊँगी । " अगले दिन ले भी आती है । सेठजी लाखों रुपये का व्यापार करते हैं , उनका हाथ तंग है । यहनहीं कि वे झूठ बोल रहे हैं । वे पैसे से पैसा कमाते हैं । इसलिये जितना पैसा आता है उसे फिर व्यापार में झोंक दिया । जो भी पैसा आता गया फिर - फिर व्यापार में लगता रहा । व्यापार में जरा - सी गड़बड़ी हुई तो क्या होता है ? शुक्लाजी खुद भी रोते हैं और जिन्हें उनसे पैसा लेना था , उधार था , वे भी सब रोते हैं ।

नारायण ! पहले हमने स्वयं देखा है कि जहाँ दो - चार हजार रुपये इकट्ठे हुए , घर में लाकर उस धन में से आधा या चौथाई अपनी घरवाली को दे देते थे जिससे वह गहने आदि बनवा लेती थी । इस प्रकार घर में काफी पूँजी जमा हो जाती थी । कभी दस साल में कोई व्यापार ऊपर - नीचे होता था , कोई भी मुश्किल धन - संबंधी पड़े तो वह घरवाली का इकट्ठा किया पैसा काम आ जाता था । उसपैसे का सेठजी को सही - सही पता भी नहीं रहता था । आज इस प्रकार बचत सेठ लोग करते नहीं है । और उनको अपनी धर्मपत्नियों पर विश्वास भी तो नहीं रहा ! हो भी कैसे यकीन? घरवालियों के हाथ में आज यदि पैसा आ जाता है तो वे बढ़िया - बढ़िया साड़ी खरीदने लगती है , हजार - पाँच हजार के जूते खरीदने लगती हैं । फिजूलखर्ची करने लगती है । व्यापारी बेचारा क्या करे ! विचार करें ; व्यापारी का धन व्यापार में ; धन कमाता रहेगा तो लाभ है , लेकर रख नहीं सकता , क्योंकि कमाया धन तो फिर व्यापार में ही लग जाता है । हाथ में तो कुछ नहीं रहता , केवल मन का संतोष है , स्वयं को कोई लाभ नहीं । इसी प्रकार जब संकल्प करके संकल्प को कम करना चाहते हैं तब भी वह एक संकल्प हो गया ! अनादि काल से लगे है कोशिश करने में लेकिन बना कुछ नहीं ।

भगवान् भाष्यकार आचार्य श्रीभगवत्पाद् शङ्कर कहते हैंकि इसे छोड़ने का तरीका है कि संकल्प को हटाओ मत , लाओ मत ।

नारायण ! संकल्प को सिनेमा समझकर सीट पर बैठे देखते रहो । सिनेमा देखने के लिये सौ - दो सौ रुपये का टिकट लेकर जाते हैं । देखा होगा सबने बड़े - बड़े हाल बने हुए हैं। वहाँ टिकट लेकर , कोई दही - बड़े थोड़े ही खाने को मिलते है , रबड़ी थोड़े ही खाने को मिलते हैं । क्या मिलताहै ? कुर्सी मिलती है बैठने को ।वहाँ चुपचाप बैठे रहो । बीच में खड़े हो गये तो पीछे वाला शोर और मचा देगा ! इसी प्रकार प्रारब्ध कर्म के पैसे देखकर हम - आप अन्तःकरण के सिनेमा का टिकट लेकर आयेहो । जो हमें - आपको सुख - दुःख भोगना है , वह प्रारब्ध के टिकट के अनुसार । जब आकर इस देह ,सिनेमाघर में बैठ गये तब मन के आगे जो आता चला जाये उसे देखते चले जायें । सीट पर बैठे रहें , शोर मत मचायें । यह संकल्प की साक्षीरूपता है ।

नारायण ! यह जो ज्ञान है यही सारे लोकों का , जितने भी अनुभव है , इन सबका जीवन है । जो निश्चित रूप से उस साक्षी - स्वरूप में बैठ जाता है ,वह संकल्प करने वाला " मैं " नहीं , अहंकार नहीं , आत्मा है । यह बात सुनते तो हैं , समझते हैं लेकिन भूलजाते हैं। कई लोग सिनेमा देखकर आते हैं तो आँखे लाल होती हैं । पूछें" आँखे लाल कैसे हो गई?" उत्तर देते हैं " जी ऐसा दृश्य था कि रोना रोक नहीं पाये ।" वहाँ रोने वालों को देखने गये थे कि खुद रोने लग गये ! इसी प्रकार कोई दूसरा चित्र आता है , बड़ा अच्छा लगता है , कोई गाना सुना तो वहीं हाथ पैर मारने लगते हैं ,दिवाने हो जाते हैं ! अरे , यह करने गये थे कि देखने गये थे ।

यहाँ भी आकर आप - हम शरीर में बैठे हैं । प्रारब्ध का टिकट ले लिया । बीच - बीच में भुल जाते है कि दर्शक हूँ , समझ देते हैं कि खेल करने वाला ही मैं हूँ । बस ,यह न करें । मैं केवल साक्षिरूप ज्ञान हूँ , उससे अतिरिक्त मैं कुछनहीं । सिनेमा के नट - नटियों से मेरा कोई मतलब नहीं । इसको जो निश्चित रूप से यादरखते है वे ही मुक्त है। पूर्ण मुक्ति तो उसकी है जो सब काल में यह निश्चय रख सके। लेकिन मान लें आपको चार फुलकों की भूख है । पेट तो तभी भरेगा जब चार फुलके खानेको मिल जायें लेकिनयदि दो फुलके भी खाने को मिल गये तो कुछ तो संतोष हो ही जाता है । इसी तरह से नित्य निरन्तर साक्षिभाव में स्थित हो सकें इसके लिये प्रयास करें क्योंकि तभी पूर्ण रूप से आप मुक्त होंगे , लेकिन जिस - जिस क्षण इस साक्षिभाव में स्थित होते है उस - उस क्षण भी तो मुक्त ही हैं। प्रयास करते रहें लक्ष्य प्राप्त ही होगा । यह निश्चित है । निश्चित है । यही आचार्य का संदेश है ।
प्रणाम ।

श्री नारायण हरिः ।
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परमात्मा ने संकल्प लिया और हो गए बहुत । कुछ करना तो नहीं पड़ा । लेकिन हम तो संकल्प लेते है और करते है । रोज - रोज नया - नया संकल्प । शराब की आदत को छोड़ने के लिए माँ - बहनों को लेकर बुरी - बुरी कसमे खाते है यह कसमे खाना भी तो संकल्प ही हुआ । उसके तो संकल्प मात्र से सब कुछ हो जाता है उन्हें कुछ करना नहीं पड़ता । उनका संकल्प बदलता नहीं कभी यह कभी वह । हमारा आपका संकल्प - विकल्प होता ही रहता है नित्य नया - नया । मंगल ही मंगल हो ।

आनन्द की प्राप्ति नहीं आनन्द तो तुम्हारा स्वरुप है । जिस चीज की प्राप्ति होती है वह अस्थाई होता है । आगमापायी होती है । आत्मा स्वयं आनंद स्वरुप है । आनन्द आता ओर जाता नहीं है - भैया । वह तो सदा सर्वदा है । इसीलिए तो संसार के किसी भी शब्दकोष में आनन्द का विपरीतार्थक शब्द नहीं है - भैया । लाभ का हानी , सुख का दुःख , भला का बुरा , ऊँचे का नीचा , गोरा का काला , छोटे का बड़ा , हर्ष का विषाद . शान्ति का अशांति , पुण्य का पाप आदि आदि । लेकिन आनन्द का कोई विपरीत शब्द बतला तो दो हम भी जान जायेंगे । आपका गुण गायेंगे ।

दुःख शब्द पर ध्यान दे जड़ा - दू + ख = ,दुःख । दू शब्द का अर्थ होता है दुर्गुण । और ख शब्द का अर्थ होता है इन्द्रियाँ । अर्थात हमारी - आपकी इन्द्रियाँ दुर्गुणों को ग्रहण कर रही है तो परिणाम दुःख ही होगा । मन भी एक इन्द्रियाँ ही है । भगवान ने स्वयं गीता जी में गया है कि इन्द्रियों में मै मन हूँ । इसे जहाँ लगाओ लग जायेगा । दुःख आगमापायी हैं आते और जाते हैं । लेकिन सारे दुखों का कारण मन ही है । मन गलती करता है और दुःख शरीर को होता है । मन चटपटा भोजन चाहता है हम मन को मनाने के लए चटपटा भोजन ले लेते हैं फिर परिणाम पेट में जलन । हाँ जितने भी दुःख हैं वे सब माने हुए है । वह भी थोड़े दिन रहते है । एक गया दूसरा आया । हम दुःख को स्वयं निमंत्रण देते है । सब कोई चाहते है की सुखी रहे , लेकिन 24 घंटे दुःख पाने का ही काम कर रहे है ।सब कोई चाहते है कि स्वस्थ्य रहें लेकिन देखा जाये तो 24 घंटे अस्वस्थ रहने का कम कर रहे हैं । इसके विपरीत सुख को लीजिये । सु अर्थात सुन्दर ख अर्थात इन्द्रियां अगर इन्द्रियाँ सुन्दर शास्त्र सम्मत चीजों को ग्रहण कर रही है तो परिणाम सुख है । लेकिन ध्यान रखें सुख और दुःख दोनों माने हुए है । किसी का सुख दुसरे के लिए दुःख हो सकता है । और किसी का दुःख दुसरे के नजर में सुख भी हो सकता है । सुख और दुःख ये दोनों मन के ताने - बाने है । हमारे नजरों में न सुख है न दुःख । आनंद ही आनन्द है ।

इस अपेक्षा महारानी जी की थोड़ी घूँघट तो उठाओ महाराज । फिर समझ में आवे कि अपेक्षा ही दुखो का कारण है । हम आपके भोले भाले भक्त हैं हम कैसे जान पाएंगे कि अपेक्षा ही सारे दुखों की जननी है ।

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