Monday 24 July 2017

साधक

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'साधक- संजीवनी'

जब पवित्र चेतना आत्मतत्व की साधना की ओर अग्रसर होती हैं तो प्रमुख रूप से उसके मार्ग में तीन वाधायें ( Speed breaker ) आते है -

१- कंचन - अर्थात धन का लोभ ।
२- काया- अर्थात स्त्री या पुरुष का आकर्षण जैसे विश्वामित्र के सामने मेनका के रूप में आया था।
३- कीर्ति - अर्थात अपनी त्याग, तपस्या, ज्ञान एवं उससे उत्पन्न मान सम्मान का लोभ या अहंकार।

देव द्वारा साधक के सामने यह प्रमुख तीन बाधाएं आती हैं। इसे पार्वती जी एवं गोपियों की साधना द्वारा समझा जा सकता है, यह पार्वती एवं गोपियों से तात्पर्य आत्मतत्व को पाने की इच्छा रखने बाली पवित्र चेतनाओं तथा श्रीशिव एवं श्री कृष्ण का तात्पर्य आत्मा से है।

१- पार्वती जी -

शिव जी ने सप्तॠषियों को भेजा जाएं परीक्षा ले कर आयें, ॠषि गये बोले तुम मूर्ख हो, आखिर महादेव मिल गए भी तो क्या होगा, मुण्डमाला सर्पों की माला गले में पहने होंगे, श्मशान में डेरा है रहने के लिए घर भी नहीं, भूतों प्रेतों की संगति है जिद्द छोड़ चलो हम तुम्हारा विवाह सर्व ऐश्वर्य संपन्न श्री विष्णु स्वरूप करा दें सुख से बैकुंठ ये रहना। किन्तु पार्वती जी की निश्चय नहीं डिगा बह बिना विवाद में पड़े बोलीं -

महादेव अवगुण भवन विष्णु सकल गुण धाम।
जेहि कर मनु रम जाहि सन तेहि तेही सन काम।।

अर्थात भले ही शिव में समस्त अवगुण होृ इससे फर्क नहीं अब तो जिसमें मन रम गया बस उसी से मतलब बाकी बातों से क्या? दृढ़ संकल्प के कारण पार्वती जी ने शिवरूप आत्मतत्व को प्राप्त किया।

२ - गोपियाँ भी कहती हैं -

असुन्दर: सुन्दरशेखरा वा गुणैर्विहीनो गुणिनां वरो वा।
द्वेषी मयि स्यात् करुणाम्बुधिर्वा कृष्ण: स एवाद्य गतिर्ममायत्।।

यह शर्त नहीं की मेरे श्यामसुंदर बड़े सुंदर ना हों, चाहे सर्व गुणों से रहित हों चाहे सर्व गुण संपन्न हों, यह भी शर्त नहीं की बह हमसे प्रेम करें भले ही हमसे द्वेष रखें। वे ही श्यामसुंदर ही अब मेरे सर्वदा के लिए सर्वस्व हैं।

ऐसे दृढ़ निश्चय बाले साधक आत्मतत्व को पाते हैं, नहीं तो मार्ग में कंचन काया और कीर्ति हैं ही ..!
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३ - हनुमान उवाच

देहबुद्ध्या तु दासोहं जीवबुद्ध्या त्वदंशकम् ।
आत्मबुद्ध्या त्वमेवाहम्, इति मे निश्चिता मति: ॥

"दासस्तेऽहं देहदृष्टयाऽस्मि शम्भो जातस्तेऽङ्शो जीवदृष्टया त्रिदृष्टे।
सर्वस्याऽत्मन्नात्मदृष्टया त्वमेवेत्येवं मे धीर्निश्चिता सर्वशास्त्रैः॥"

देहबुद्धि से मै आपका दास हूँ, पर जीव होने के कारण मैं आपका अंश हूँ।(ममैवाशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः॥गीता )। आत्मा होने के कारण मैं और आप एक ही हैं(अयम् आत्मा ब्रह्म, "तत् त्वम् असि"॥ महावाक्य) और यह मेरा निश्चित मत है।

४ - भक्ति का शुभारम्भ ज्ञान है , भक्ति का फल वैराग्य है ।

ज्ञान का तात्पर्य है - उत्कृष्ट चिंतन।
एवं भक्ति का तात्पर्य है - संवेदना , भावना।

ज्ञान भक्ति की शुरुआत है, प्रारम्भ है
और भक्ति ज्ञान की पराकाष्ठा है , अंतिम सोपान है ।

प्रभु के द्वार पहुँचने के लिए
भक्ति एवं ज्ञान ,विचार एवं भावना की आवश्यकता होती है।

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५ - चेतना की पूरी अलग ही गुणवत्ता है जो नहीं सोचने से आती है: न ठीक, न गलत से, बस नहीं सोचने की दशा। तुम बस देखते हो, तुम बस होशपूर्ण होते हो, लेकिन तुम सोचते नहीं। और यदि कोई विचार आता है...वे आते हैं, क्योंकि विचार तुम्हारे नहीं हैं, वे बस हवा में तैर रहे हैं। यहां चारों तरफ विचार तैर रहे हैं, विचारों का क्षेत्र तैयार हो गया है। ऐसे ही जैसे कि यहां हवा है, तुम्हारे चारों तरफ पर विचार हैं, और ये स्वतः घुसते चले जाते हैं। यह तभी रुकते हैं जब तुम अधिक से अधिक होश से भरते हो। इसमें कुछ ऐसा है ः यदि तुम अधिक होश से भरते हो, विचार विलीन हो जाते हैं, वे पिघल जाते हैं, क्योंकि होश की ऊर्जा विचारों से अधिक बड़ी है।

होश विचारों के लिए आग की तरह है। यह ऐसे ही है जैसे कि तुम घर में दीपक जलाओ और अंधेरा प्रवेश नहीं कर सकता, तुम प्रकाश को बंद कर दो--चारों तरफ से अंधेरा प्रवेश कर जाता है; बगैर एक मिनट लिए, एक क्षण भी लिए, वह वहां होता है। जब घर में प्रकाश जलता है, अंधेरा प्रवेश नहीं कर सकता। विचार अंधेरे की तरह होते हैं :वे तब ही प्रवेश करते हैं जब भीतर प्रकाश न हो। होश आग है: तुम अधिक होश से भरते हो, कम से कम विचार प्रवेश करते हैं। यदि तुम अपने होश से पूरे एकीकृत हो जाते हो, विचार तुम्हारे में प्रवेश नहीं करते; तुम अभेद्य दुर्ग हो गए, कुछ भी प्रवेश नहीं कर सकता। ऐसा नहीं है कि तुम बंद हो गए, याद रखना--तुम पूरी तरह से खुले हो; पर तुम्हारी ऊर्जा दुर्ग बन जाती है। और जब कोई विचार तुम्हारे में प्रवेश नहीं कर सकता, वे आएंगे और तुम्हारे पास से गुजर जाएंगे। तुम उन्हें आते देखोगे, और बस, जब वे तुम्हारे करीब आएंगे वे मुड़ जाएंगे। तब तुम किसी तरफ मुड़ सकते हो, तब तुम नर्क में भी चले जाओ--तुम्हें कुछ भी छू नहीं सकता। बुद्धत्व का यही अर्थ है।

नम:..!!

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