Monday 24 July 2017

दु:ख क्य

दु:ख क्यों ? मनुष्य दु:खी क्यों है ?
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(ये मेरे अपने विचार हैं जो हो सकता है कि सत्य भी हों व असत्य भी, और सत्य-असत्य दोनों भी या इन से परे भी)

प्राणी चिर काल से दु:ख सहन कर रहा है| दु:ख तीन प्रकार के होते हैं जिनकी निवृति अत्यंत आवश्यक है| दु:खों से निवृति होनी ही चाहिए, जो मेरे विचार से भक्ति, ज्ञान और समर्पण से ही होती है| भगवान की भक्ति ही परम पुरुषार्थ हैं|

शास्त्र कहते हैं कि दु:ख की निवृति ज्ञान से होती है| पर किसका ज्ञान ? ऐसा कौन सा ज्ञान है जिसे प्राप्त करने के पश्चात दु:खों से निवृति हो जाती है ?

एक दर्शन कहता है कि प्रकृति और पुरुष के भेद का विशेष ज्ञान वह उपाय है| तत्व के बार बार चिंतन से संशय और भ्रम से रहित शुद्ध विमल ज्ञान उत्पन्न होता है जिसको पाकर जीव जीवन मुक्त हो जाता है| तत्व साक्षात्कार होने पर सुख-दुःख दोनों ही नहीं होते|

जिस तत्व की यहाँ बात हो रही है हो सकता है वह परमात्मा के लिए ही कहा गया हो|

मेरी अल्प और सीमित बुद्धि से जहाँ तक मैं समझता हूँ --- 'पुरुष' तो परम चैतन्य है और 'प्रकृति' परम प्रेम| प्रकृति कर्ता है और 'पुरुष' है चैतन्य -- जो सबके पुरों में यानि अंतर में स्थित है| समस्त सृष्टि का संचालन तो 'प्रकृति' ही करती है| 'प्रकृति' जगन्माता स्वरुप है, और 'पुरुष' परमपिता| प्रकृति और पुरुष के भेद को समझने का मेरा प्रयास वैसा ही है जैसे कनक कसौटी पर हीरे को कसना| फिर भी एक आकर्षण है जो मुझे इस दिशा में प्रेरित कर रहा है|

यहाँ चर्चा हो रही है प्रकृति, पुरुष और परमात्मा की| मेरी समझ से पुरुष और प्रकृति --- सृष्टि संचालन के लिए परमात्मा की ही अभिव्यक्तियाँ हैं, ये दोनों परमात्मा में हैं और परमात्मा इन में होता हुआ भी इन से परे है|
प्रकृति और पुरुष दोनों अनादि हैं, समस्त विकास और गुण प्रकृति से उत्पन्न हैं। कार्यकारणकर्तृव्य (परिणाम) का हेतु प्रकृति तथा सुख-दु:ख भोक्तृत्व का हेतु पुरुष है। प्रकृति क्रिया शक्ति है और पुरुष परम चैतन्य|

परमात्मा ने तो अपना रहस्य छिपा रखा है जिसे वह जिस को जनाता है वही जान सकता है| उसके तत्व को बुद्धि से जानना असम्भव है| पर कभी ना कभी तो भगवान भी प्रेमवश स्वयं को भक्तों के लिए अनावृत करता ही है|

(त्रिगुणात्मक) प्रकृति और पुरुष नित्य हैं|
गीता में भी भगवान श्रीकृष्ण कहते है -----

प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्धयनादी उभावपि।
विकारांश्च गुणांश्चैव विद्धि प्रकृतिसंभवान्॥ (गीता १३, २०).
कार्यकारणकर्तृत्वे हेतु: प्रकृतिरुच्यते।
पुरुष: सुखदु:खानां भौक्तृत्वे हेतुरुच्यते॥ (गीता १३, २१).
पुरुष: प्रकृतिस्थो हि भुंक्ते प्रकृतिजान्गुणान् |
कारणं गुणसंगोsस्य सदसद्योनिजन्मसु || (गीता १३, २२).

प्रकृति और पुरुष दोनों अनादि हैं, समस्त विकास और गुण प्रकृति से उत्पन्न हैं। कार्यकारणकर्तृव्य (परिणाम) का हेतु प्रकृति तथा सुख-दु:ख भोक्तृत्व का हेतु पुरुष है।

मयाध्यक्षेण प्रकृति: सूयते सचराचरम्।
हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते॥

अर्थात् मेरी (परमात्मा की) अध्यक्षता (अधिष्ठातृत्व) में ही प्रकृति चराचर जगत की सृष्टि करती है।

इस प्रकार भगवद्गीता तीन तत्वों को मानती है ------
प्रकृति, पुरुष एवं परमात्मा। वैदिक साहित्य में 'पुरुष' चेतन तत्व के लिए प्रयुक्त होता है। इस प्रकार जड़-चेतन-भेद से दो तत्व निरूपित होते हैं। गीता में सृष्टि का मूलकारण प्रकृति को ही माना गया है। परमात्मा उसका अधिष्ठान है| इस अधिष्ठातृत्व को निमित्त कारण कहा जा सकता है। परमात्मा की परा-अपरा प्रकृति के रूप में जीव-प्रकृति को स्वीकार करके इन तीन तत्वों के सम्बन्धों की व्याख्या की गई है। परमात्मा स्वयं इस जगत में और इस जगत से परे रहता हुआ भी इसके उत्पत्ति और प्रलय का नियंत्रण करता है।

गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं--- 'जो कुछ भी सत्व, रजस और तमस भाव हैं वे सब मुझ (परमात्मा) से ही प्रवृत्त होते हैं। मैं उनमें नहीं बल्कि वे मुझमें हैं। इन त्रिगुणों से मोहित हुआ यह जगत मुझ अविनाशी को नहीं जानता। इस दैवी गुणमयी मेरी माया के जाल से निकलना कठिन है। जो मुझ को जान लेते हैं वे इस जाल से निकल जाते हैं।'

परमात्मा स्वयं जगदरूप में नहीं आता बल्कि जगत के समस्त भूतों में व्याप्त रहता है। समस्त कार्य (क्रिया) प्रकृति द्वारा ही किए जाते हैं।
परमात्मा अनादि, निर्गुण, अव्यय होने से शरीर में रहते हुए भी अकर्ता-अलिप्त रहता है।
(यह) शरीर क्षेत्र है और इसका ज्ञाता क्षेत्रज्ञ है। परमात्मा तो समस्त क्षेत्रों का क्षेत्रज्ञ है। इससे भी जीव तथा देह दोनों में परमात्मा का वास सुस्पष्ट होता है।

हो सकता है कि जिन्हें हम ब्रह्म और माया कहते हैं उन्हें ही पुरुष और प्रकृति के नाम से जाना जाता हो|

पुरुष में कभी परिवर्तन नहीं होता और प्रकृति कभी परिवर्तन रहित नहीं रहती|
जब यह पुरुष प्रकृति के साथ सम्बन्ध जोड़ लेता है तब प्रकृति की क्रिया पुरुष का “कर्म ” बन जाती है क्योंकि प्रकृति के साथ सम्बन्ध मानने से तादात्म्य हो जाता है| तादात्म्य होने से जो प्राकृत वस्तुए प्राप्त है , उनमे आसक्ति (ममता) होती है और उस ममता के कारण अप्राप्त वस्तुओं की कामना होती है| इस प्रकार कामना और ममता माया ही है जो कभी पूर्ण नहीं होतीँ| और इस माया के जाल में ही प्राणी दु:खी हैं|

ब्रह्म और माया अनादि हैं। जैसे दिन और रात साथ ही रहते हैं, जैसे दाने के साथ छिलका भी बढता है वैसे ही प्रकृति और पुरुष दोनों एक साथ ही प्रकट होते हैं। क्षेत्र (शरीर , संसार , स्वर्ग आदि) को प्रकृति और क्षेत्रज्ञ (आत्मा) को पुरुष कहते हैं|

सृष्टि, स्थिति और संहार का क्रम अनादि काल से चलता आया है और अनन्त काल तक चलता रहेगा। दु:ख और सुख भी सदा साथ साथ रहेंगे| सुख की कामना ही सब दु:खों का कारण है| जब तक सुख की कामना रहेगी दु:ख भी प्राप्त होंगे|

भक्ति और समर्पण के अतिरिक्त अन्य कोई मार्ग नहीं है इन से मुक्ति का|

हे भक्तवत्सल प्रभु, हे गोबिंद, हे गोपाल, हे माधव, हे पापतापहारि कृष्ण, मैं निराश्रय हूँ, मेरी रक्षा करो| मैं तुम्हारी शरणागत हूँ, अपने श्री चरणों में मुझे आश्रय दो, सब क्लेशों से मुझे मुक्त करो| त्राहिमाम् त्रहिमाम् | ॐ ॐ ॐ ||

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