Monday, 24 July 2017

शब्द-ब्रह्म

~~शब्द-ब्रह्म~~

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शब्द उमगता है,
निःशब्द से ,
शब्द ही सृजित करता है,
-आकाश को ।
शब्द ही रचता है,
काल को भी ।
शब्द है,
आकाश का गुण,
और गुण ही है,
-गुणी भी ।
वे अभिन्न हैं,
-परस्पर ।
शब्द ब्रह्म है,
और वही है,
-ब्रह्म का विस्तार भी ।
-आब्रह्म !
-अर्थात ब्रह्मा,
जहाँ तक कि है,
"सर्वं खल्विदं ब्रह्म",
और वही है सृजनहार ,
-वाणी का,
वाणी,
-जो सरस्वती है,
किंतु उससे भी पहले,
जो है वाक्,
जो है,
-चेतना ।
ब्रह्म ही सृजित करता है,
-उसे भी ।
और "मोहित" हो उठता है,
-अपनी ही 'कृति' पर,
"आत्ममुग्ध" ।
सिरजता है,
-सारा जड़ और चेतन,
-चराचर !
अपनी प्रकृति से 'एक' होकर ।
तब,
अव्यक्त ब्रह्म,
सहसा व्यक्त हो उठता है,
पञ्च भूतों और तीन गुणों में,
"पूर्ण" से "पूर्ण" का आगमन होने पर भी,
"पूर्ण" रहता है, यथावत , पूर्ण ही ।
चेतना खोजती है,
-अपने उत्स को,
अपनी ही प्रतिबिंबित प्रकृति में।
पुनः पाती है,
अपने इष्ट को,
-अपनी ही आत्मा में अवस्थित प्रियतम को,
और उसके प्रगाढ़ आलिंगन में,
जन्म होता है,
-अर्धनारीश्वर का ।
-पूर्ण का !
और काल,
जो न पहले था,
और जो,
न फ़िर होगा,
लीन हो जाता है,
उस पूर्ण में ही ।
पुनः,
उस निःशब्द में ही ।

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