अति दुर्लभ सूत्र !!
अमंत्रं अक्षरं नास्ति , नास्ति मूलं अनौषधं।
अयोग्यः पुरुषः नास्ति, योजकः तत्र दुर्लभ:॥
कोई अक्षर ऐसा नहीं है जो मंत्र न हो, कोई ऐसी जड़ नहीं है, जिससे कोई औषधि न बनती हो और कोई पुरुष भी अयोग्य नहीं, उससे काम लेने वाले ही दुर्लभ हैं।
आत्मनो गुरुः आत्मैव पुरुषस्य विशेषतः।
यत प्रत्यक्षानुमानाभ्याम श्रेयसवनुबिन्दते॥
आप स्वयं अपने गुरू हैं, स्व ही पुरुष की विशेषता है।
प्रत्यक्ष और अनुमान के द्वारा जान लिया जाता है कि श्रेयस्कर क्या है।
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अद्भुत तथ्य !!
बाइबिल का इडेन कुछ नहीं सिन्धु indus पार का 'पूर्व का इलाका' है। आदम कोई और नहीं 'आदि' मनु है। इव कोई और नहीं 'इड़ा' है। स्वर्गभूमि भारत है जो सरोवरों, फलों, नदियों, मधु, दुग्धादि से भरा हुआ है। ईश्वर ने मानव को यहाँ गढ़ा। ज्ञान का फल खा कर निष्कासित होने का अर्थ यह है कि मेधा विकसित होने के साथ ही उसने दुर्गम पर्वतों और समुद्रों को पार कर बाकी भागों में अपना विस्तार किया। ... यह तो बताते हैं भगवान सिंह।
...और मैक्समूलर कहते हैं कि बाइबिल की इन सारी कहानियों की प्रेरणा और संकेत भारत से आ रहे हैं।
... तो भइये! हम बाहर से आये आक्रमणकारी कैसे?
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प्रस्तुत है बुद्ध वाणी ---
इमस्मिं सति, इदं होति; इमस्स उप्पादा इदं उपज्जति।
इमस्मिं असति इदं न होति; इमस्स निरोधा इदं निरुज्झति।
"यदि ऐसा है तभी ऐसा होगा, यदि यह पैदा हुआ तो यह अवश्य पैदा होगा।
यदि ऐसा नहीं है तो ऐसा नहीं हो सकता। यदि इसे रोक दिया जाए तो यह भी रुक जायेगा।"
बुद्ध वाणी का ये पैटर्न हैं --
विशुद्ध विज्ञान हैं ...गणित के सूत्र जैसा हैं
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राम भरत से पूछते हैं -
कच्चिदष्टादशान्येषु स्वपक्षे दश पंच च।
त्रिभिस्त्रिभिरविज्ञातैर्वेत्सि तीर्थानि चारकै:।
"क्या तुम शत्रुपक्ष के अठ्ठारह और अपने पक्ष के पन्द्रह तीर्थों की
तीन तीन अज्ञात गुप्तचरों द्वारा जाँच पड़ताल करते हो?"
अग्रज का अनुज को कूटनीति पाठ:
- शत्रुपक्ष के 18 तीर्थ -
शत्रुपक्ष के मंत्री, पुरोहित, युवराज, सेनापति, द्वारपाल, अंत:पुर अध्यक्ष, कारागराध्यक्ष, कोषाध्यक्ष, सचिव, प्रदेष्टा, कोतवाल, शिल्पियों का अध्यक्ष, धर्माध्यक्ष, सभाध्यक्ष, दंडपाल, दुर्गपाल, वनरक्षक और राष्ट्रसीमापाल
- स्वपक्ष के 15 तीर्थ - पहले तीन यानि मंत्री,
पुरोहित और युवराज को छोड़ कर बाकी सब (विचित्र है!)
इन 33 पर तीन तीन यानि कुल 99 गुप्तचरों द्वारा जाँच पड़ताल हमेशा!
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सम्भवत: अब भी ऐसी परिपाटी हो। RAW और IB जाने क्या क्या करते होंगे!
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उठो लाल अब आँखें खोलो, पानी लाई हूँ मुँह धो लो।
बीती रात कमल दल फूले, उनके ऊपर भौंरे झूले।
चिड़िया चहक रही पेंड़ों पर, बहने लगी हवा अति सुन्दर...
क्या आप ने यह जागरण लोरी कभी अपने बच्चे को सुनाया है? अगर नहीं तो सुना दीजिए और उसके बाद किसी संडे सुबह की सैर उसके साथ कीजिए, जब कि सूरज निकल ही रहा हो। उसमें इतनी सुबह उठने के लिए ललक भी आप को ही पैदा करनी होगा। ..यकीन मानिए उसे बहुत अच्छा लगेगा और वह जीवन भर याद रखेगा/गी।
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Your love is like sun coming inside AC compartment, the warmth in lifeless chill. I've wrapped the white linen around my cold feet and waiting for the 'death' to come. Such a long journey!
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आदि काल से ही प्रत्येक राज्य मे सनातन शिव औऱ शैतान की दोहरी शासन व्यवस्था रही है। जिसमें कभी सनातन शिव का पलड़ा भारी हो जाता है तो सब शांतिपूर्वक त्यागमय जीवन यापन करने लगते हैं और जब शैतान का पलड़ा भारी होता है तो सब मेरा-मेरा चिल्लाते हुए अशांति फैलाने लगते हैं। जब हाहाकार चरम सीमा के पार हो जाता है तो शिव तांडव होता है और शैतान ताकतें अपनी औकात पर आकर कुछ समय के लिए शांत हो जातीं हैं। मने आज के समय में शैतानी ताकतों का पलड़ा भारी है और सनातन शिव शक्तियां बिखरी हुई हैं तो इस प्रकार की हरकतों से होना जाना तो कुछ नहीं बस थोड़ा सा हाहाकारी कोलाहल ओर बढ़ जाना है दुनिया में ...
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संकल्प= में विकल्प आने पर संकल्पे समाप्तप हो जाता है।
लेकिन अधिकांश आराधकों का संकल्प अपनी सुविधाओं में विस्तातर है
न कि ईश्वकर की आराधना कर मोक्ष प्राप्त करना... ऐसे में संकल्पs सुरक्षित है
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ऋग्वैदिक चार वर्ण्य - असत, सत, यज्ञ और ऋत।
भाषा के कूट और शब्द शक्तियाँ वर्ण्य के अनुसार बहुपर्ती और रहस्यमय हो सकती हैं।
इस मौलिक सत्य का अनादर करने पर ग्रिफिथ और मैक्समूलर जैसे अनुवाद सामने आते हैं।
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दयानन्द तो डंके की चोट पर कह गये कि वेदों में इतिहास नहीं है। मुझे लगने लगा है कि ऋग्वेद में इतिहास (यदि उसे कह सकें) अत्यल्प है। ऋग्वेद ऋत और संसार चक्र का एक ऐसा काव्यमय, सरस और ओजस्वी कूट है जिसकी कुंजी खो चुकी है।
जिन वेदों को हम भुला चुके हैं उनमें विश्व के सब विज्ञान भरे पड़े हैं ....और विदेशी इनके बल पर ही आज उन्नति कर रहे हैं ...
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ऋग्वैदिक अग्नि 'भरत' है। मूल धातु का अर्थ उससे है जिसे सर्वदा धारण किया जाय अर्थात निरंतर बनाये रखा जाय। अग्निहोत्र की अखंड अग्नि यही है। अग्नि पर पक कर अन्न ग्रहण योग्य होता है इसलिये अग्नि भर्तार भी है। एक ब्राह्मण ग्रंथ में वैदिक जन के विभाजन का उल्लेख मिलता है - कुछ सरस्वती से पश्चिम की ओर गये और कुछ पूरब की ओर। ऐसा कब हुआ यह स्पष्ट नहीं किंतु यह तो है ही कि_ सोमयाग पश्चिम में प्रधान था तो _'अग्नि'याग पूरब में। भरत अग्नि के अनुष्ठानों की प्रधानता वाला क्षेत्र भारतवर्ष कहलाया।
वैदिक जन की एक शाखा भरत थी जिसके पुरोहित विश्वामित्र थे। भरत गण अग्नि के सबसे प्रमुख अनुष्ठानी रहे होंगे जिसके कारण अग्नि का मूल नाम ही उन्हों ने धारण किया। सर्वविदित है कि सोम की खोज में ही _विद्रोही विश्वामित्र ने पँचनद क्षेत्र पार कर पश्चिम की ओर प्रयाण का साहस किया और वहाँ से श्यामकर्ण अश्व लेकर लौटे। आश्चर्य नहीं कि विश्वामित्र की मेनका से उपजी पुत्री शकुंतला और दुष्यंत की संतान भरत के नाम से भी भारतवर्ष को जोड़ा जाता है।
कुरुओं के आपसी युद्ध की गाथा पहले तो जय कहलायी लेकिन संकलन के दूसरे चरण में भारत और तीसरे में महाभारत हो गयी। भरतों के क्षेत्र में फैले राजन्य वर्ग का आपसी संघर्ष होने के कारण महाभारत नाम उपयुक्त पाया गया जो कि दूसरी ओर राजा भरत की संतति से भी जुड़ता था।
पौराणिक समय में भारतवर्ष _कश्यपभूमि से समुद्र तक की भूमि के लिये प्रयुक्त होने लगा जिसका कारण मौर्यों और गुप्तों के समय में हासिल राजनैतिक एकता रही होगी। कश्यप और अगस्त्य ऋषि उन दो छोरों का प्रतिनिधित्त्व करते हैं जिनके बीच भारतवर्ष दृढ़ हुआ। विश्वास न हो तो उनसे जुड़ी गाथाओं पर एक दृष्टि डाल लें। जैन परम्परा के ऋषभदेव के पुत्र भरत चक्रवर्ती से भी नामकरण का संबंध कतिपय पुराण बताते हैं।
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देहात में एक शब्द चलता है भतार
जो कि संस्कृत भर्तार का तद्भव है - भरण पोषण करने वाला अर्थात पति।
ऋग्वेद में स्त्री के लिये एक शब्द है - विश्पत्नी
जो विश् अर्थात प्रजा परिवार की पोषक हो।
स्पष्टत: यहाँ 'पत्नी' परिवार की पोषक है न कि पति की ।
ऐसी स्त्री के लिये पति को यह निर्देश है कि "तुम उसका पोषण करो।"
कहीं सबका ध्यान रखने वाली _स्वयं न वंचित रह जाय इसलिये।
तस्यै विश्पत्न्यै हवि: सिनीवाल्यै जुहोतन (2.32.7)
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बालम, बलमुआ, बलमू, बलम आदि शब्द संस्कृत 'वल्लभ' से उपजे हैं।
'भ' का समपरिवारी पंचाक्षर 'म' में परिवर्तन रोचक है।
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दु:ख माजता ही नहीं, धो धा कर समय के भँड़सर में उँड़ास भी देता है।
भँड़सर - रसोईघर का वह स्थान जहाँ भांड अर्थात बरतन रखे जाते हैं।
उँड़ास - किसी वस्तु के उपयोग में लाई जाने वाली स्थिति से इतर casual स्थिति।
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लाल को, जाल भली मैं जानी |
सुनु सखि ! तोहिं बताऊँ उनकी, सिगरी कपट कहानी |
तजि पितु मातु बंदिगृह छल बस, बन्यो पूत नँदरानी |
मोर पंख सिर भेद जनावत, ‘अहि अहार, मधुवानी’ |
गुंजमाल, वनमाल रूप – छल, महँगी कौड़ी कानी |
तन घन बिच पट पीत न थिर रह, दामिनि गुन उनमानी |
विपुल छिद्र, छूछो हिय मुरली, जेहि सुनि हम बौरानी |
किमि ‘कृपालु’ इमि प्रकट बखानत, निगम नेति जेहि मानी ||
भावार्थ – एक विरहिणी झुँझलाकर विनोदमयी कटूक्ति द्वारा कहती है कि अरी सखी ! मैं श्यामसुन्दर के जाल को भली – भाँति जानती हूँ | अरी सखि ! मैं उनकी सारी ही कपट से भरी हुई बातें बताती हूँ, सुन ! अवतार लेते ही माता – पिता से कपट करते हुए जेल छोड़कर यशोदा का पुत्र बन गया | अरी सखि ! उसके सिर पर मोर पंख यही तो भेद बताता है कि जैसे मैं ( मोर ) साँपों को खाता हूँ किन्तु अत्यन्त ही मधुर बोलता हूँ, ठीक इसी प्रकार श्यामसुन्दर भी हैं | गुञ्जमाला एवं वनमाला भी देखने मात्र के लिए ही हैं, उसका मूल्य एक कौड़ी भी नहीं | उसके शरीर रूपी बादल पर फहराता हुआ पीताम्बर यही तो सिद्ध करता है कि चपला के समान मेरी प्रीति भी चपल है | इसी तरह उसकी मुरली भी, जिसका हृदय छूछा है एवं जिसमें अनेकानेक छिद्र हैं, जिसे सुनकर हम दीवानी हो जाती हैं, श्यामसुंदर का पूर्ण परिचय देती है | ‘श्री कृपालु जी’ कहते हैं कि जिसे वेदों ने ‘नेति नेति’ कहा है उसे दोष रूप में क्यों प्रकट वर्णन करती है ?
( प्रेम रस मदिरा विरह – माधुरी )
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