Monday, 24 July 2017

एक ही सत् को सत् को जानने वाले

इदं मित्रं वरुणमग्निमाहुरथो दिव्यः स सुपर्णो गरुत्मान् ।
एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्त्यग्निम् यमं मातरिश्वानमाहु:।।
ऋग्वेद-1/164/46
एक ही सत् को सत् को जानने वाले ज्ञानी जन
इन्द्र, मित्र, वरुण, अग्नि , सुंदर पंख वाले गरुड, यम
तथा मातरिश्वा के नाम से पुकारते हैं ।
इस ऋचा पर मनन से स्पष्ट है कि वेदों में उपरोक्त नामों से परमात्मा को संबोधित किया गया है ।(साकार निराकार आदि विवाद का निराकरण यह ऋचा ही करता है !! गौर करें )
वस्तुतः नाम दो प्रकार का होता है -वर्णात्मक तथा ध्वन्यात्मक ।वर्णो के योग से बने नाम
वर्णात्मक हैं यथा राम कृष्ण, शिव विष्णु । ध्वन्यात्मक नाम का अनुभव केवल
योगियो को ही होता है ।यहाँ कुछ कलंगी कह सकते हैं कि वर्णात्मक नामों को बोलने से
भी तो ध्वनि निकलेगी ही ।लेकिन यहाँ बहुत ही सूक्ष्म नाद ऊर्जा की चर्चा है ।
योगी जब प्राणवायु को सुषुम्णा नाडी में प्रवेश करके मूलाधार से ऊपर उठता है तब नाद सहित अनेक अनुभूति होती है ।प्राण का गमन मूलाधार से सहस्रार तक होता है ।बीच में कयी ठहराव हैं जो चक्र के रुप में वर्णित हैं ।सहस्रार में पहुँचने पर नाद का अतिसूक्ष्म रुप में अनुभव होता है , जिसे महर्षियो , योगियो ने प्रणव कहा है ।यहीं पर सम्प्रज्ञात समाधि की अस्मितानुगत समाधि होती है , इसके बाद
ही परमात्मा का साक्षात्कार होना संभव है । इसके ऊपरी स्तर में जहाँ अस्मिता का लय
होता है तथा असम्प्रज्ञात समाधि का उदय होता है वहाँ जीवात्मा तथा परमात्मा का भेद समाप्त हो जाता है ।यही शिवोऽहं तथा अहं ब्रह्मास्मि वाली स्थिति है ।इसके पहले ऐसा कहने वाला पाखंडी तथा धूर्त है ।
अस्तु जिस भूमिका में ईश्वर का साक्षात्कार होता है , उससे संबंध होने के कारण ही प्रणव को ईश्वर का वाचक माना जाता है। ॐ ईश्वर का वाचक या परिचायक है क्योंकि ईश्वर से
परिचय कराता है ।वैसे भी ईश्वर को ईश्वर, परमात्मा आदि कहते ही हैं सब ।तो ईश्वर
का नाम ॐ , ऐसा कहना उपयुक्त नहीं लगता है । महर्षि पतञ्जलि भी योगदर्शन-1/27 में कहते हैं -
तस्य वाचकःप्रणवः ।ध्यान दीजिए, तस्य नाम प्रणवः नहीं कह रहे हैं ।
ॐ को ही प्रणव कहा गया है ।इसके विधि पूर्वक जप से सभी अभीष्ट सिद्धिया प्राप्त होती हैं
तथा चारों पुरुषार्थ संपन्न किया जाता है । प्रणव के महत्ता को देखें -
सर्वे वेदा यत्पदमामनन्ति तपान्सि सर्वाणि च यद् वदन्ति ।
यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत्ते पदं संग्रहेण ब्रवीम्योमित्येतत् ।।
कठोपनिषद-1/2/15
अर्थात् सभी वेद जिस परमपद का बारंबार प्रतिपादन करते हैं , सभी तप जिस पद का लक्ष्य करते हैं , जिसकी इच्छा से ब्रह्मचर्य का पालन होता है -उस परमपद को संक्षेप में ॐ कहा जा रहा है ।
तथा
एतद्ध्येवाक्षरं ब्रह्म एतद्ध्येवाक्षरं परम् ।
एतद्ध्येवाक्षरं ज्ञात्वा यो यदिच्छति तस्य तत् ।।
एतदालंबनं श्रेष्ठमेतदालंबनं परम् ।
एतदालंबनं ज्ञात्वा ब्रह्मलोके महीयते ।।
कठोपनिषद-1/2/16 -17
अर्थात् यह अक्षर ही ब्रह्म तथा परब्रह्म है ।
(क्षर अर्थात् नाशवान तथा अक्षर या शाश्वत सनातन )
ॐकार ही परब्रह्म प्राप्ति का श्रेष्ठ आलंबन है ।
इसके अवलंबन से महान ब्रह्म लोक की प्राप्ति होती है ।
यही बात गीता में भी है ।
यदक्षरं वेदविदो वदन्ति विशन्ति यद्यतयो वीतरागा:।
यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत्ते पदं संग्रहेण प्रवक्ष्ये ।।
ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन् ।
यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमाम् गतिम् ।।  गीता -8/ 11 ,13
अर्थात् वेदों के ज्ञाता जिस अक्षर रुप ब्रह्म ॐका उच्चारण करते हैं , वीतराग यति जिसमें प्रवेश
करते हैं , जिसकी प्राप्ति के लिये ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं , वह एकाक्षर ब्रह्म ॐकार है ।
इसके ध्यान करते हुए जो शरीर का त्याग करता है , वह मेरे परमपद को प्राप्त करता है । इसके अलावे भी अनेक पुराणों , उपनिषदादि में ओकार की महिमा बतायी गयी है

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