आत्मा का अन्नमय कोश-1
यह संपूर्ण जगत ही अन्नमय कोश है
वेद में सृष्टि की उत्पत्ति, विकास, विध्वंस और आत्मा की गति को पंचकोश के क्रम में समझाया गया है। पंचकोश ये हैं- 1.अन्नमय, 2.प्राणमय, 3.मनोमय, 4.विज्ञानमय और 5.आनंदमय। उक्त पंचकोश को ही पाँच तरह का शरीर भी कहा गया है। वेदों की उक्त धारणा विज्ञान सम्मत है, जो यहाँ सरल भाषा में प्रस्तुत है।
जब हम हमारे शरीर के बारे में सोचते हैं तो यह पृथवि अर्थात जड़ जगत का हिस्सा है। इस शरीर में प्राणवायु का निवास है। प्राण के अलावा शरीर में पाँचों इंद्रियाँ (आँख, नाक, कान, जीभ और स्पर्शानुभूति) है जिसके माध्यम से हमें 'मन' और मस्तिष्क के होने का पता चलता है। मन के अलावा और भी सूक्ष्म चीज होती है जिसे बुद्धि कहते हैं जो गहराई से सब कुछ समझती और अच्छा-बुरा जानने का प्रयास करती है, इसे ही 'सत्यज्ञानमय' कहा गया है।
मानना नहीं, यदि यह जान ही लिया है कि मैं आत्मा हूँ शरीर नहीं, प्राण नहीं, मन नहीं, विचार नहीं तब ही मोक्ष का द्वार खुलता है। ऐसी आत्मा 'आनंदमय' कोश में स्थित होकर मुक्त हो जाती है। यहाँ प्रस्तुत है अन्नमय कोशका परिचय।
अन्नमय कोश :
सम्पूर्ण दृश्यमान जगत, ग्रह-नक्षत्र, तारे और हमारी यह पृथवि, आत्मा की प्रथम अभिव्यक्ति है। यह दिखाई देने वाला जड़ जगत जिसमें हमारा शरीर भी शामिल है यही अन्न से बना शरीर अन्नरसमय कहलाता हैं। इसीलिए वैदिक ऋषियों ने अन्न को ब्रह्म कहा है।
यह प्रथम कोश है जहाँ आत्मा स्वयं को अभिव्यक्त करती रहती है। शरीर कहने का मतलब सिर्फ मनुष्य ही नहीं सभी वृक्ष, लताओं और प्राणियों का शरीर। जो आत्मा इस शरीर को ही सब कुछ मानकर भोग-विलास में निरंतर रहती है वही तमोगुणी कहलाती है। इस शरीर से बढ़कर भी कुछ है। इस जड़-प्रकृति जगत से बढ़कर भी कुछ है।
जड़ का अस्तित्व मानव से पहिले का है। प्राणियों से पहिले का है। वृक्ष और समुद्री लताओं से पहिले का है। पहिले पाँच तत्वों (अग्नि, जल, वायु, पृथवि, आकाश) की सत्ता ही विद्यमान थी। इस जड़ को ही शक्ति कहते हैं- अन्न रसमय कहते हैं। यही आत्मा की पूर्ण सुप्तावस्था है। यह आत्मा की अधोगति है। फिर जड़ में प्राण, मन और बुद्धि आदि सुप्त है। इस शरीर को पुष्ट और शुद्ध करने के लिए यम, नियम और आसन का प्रवधान है।
इस अन्नमय कोश को प्राणमय कोश ने, प्राणमय को मनोमय, मनोमय को विज्ञानमय और विज्ञानमय को आनंदमय कोश ने ढाँक रखा है। यह व्यक्ति पर निर्भर करता है कि वह क्या सिर्फ शरीर के तल पर ही जी रहा है या कि उससे ऊपर के आवरणों में। किसी तल पर जीने का अर्थ है कि हमारी चेतना या जागरण की स्थिति क्या है। जड़बुद्धि का मतलब ही यही है वह इतना बेहोश है कि उसे अपने होने का होश नहीं जैसे पत्थर और पशु।
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आत्मा का प्राणमय कोश-2
वेद में सृष्टि की उत्पत्ति, विकास, विध्वंस और आत्मा की गति को पंचकोश के क्रम में समझाया गया है। पंचकोश ये हैं- 1. अन्नमय, 2. प्राणमय, 3. मनोमय, 4. विज्ञानमय और 5. आनंदमय। उक्त पंचकोश को ही पाँच तरह का शरीर भी कहा गया है। वेदों की उक्त धारणा विज्ञान सम्मत है जो यहाँ सरल भाषा में प्रस्तुत है।
जब हम हमारे शरीर के बारे में सोचते हैं तो यह पृथवि अर्थात जड़ जगत का हिस्सा है। इस शरीर में प्राणवायु का निवास है। प्राण के अलावा शरीर में पाँचों इंद्रिया हैं जिसके माध्यम से हमें 'मन' और मस्तिष्क के होने का पता चलता हैं। मन के अलावा और भी सूक्ष्म चीज होती है जिसे बुद्धि कहते हैं जो गहराई से सब कुछ समझती और अच्छा-बुरा जानने का प्रयास करती है, इसे ही 'सत्यज्ञानमय' कहा गया है।
मानना नहीं यदि यह जान ही लिया है कि मैं आत्मा हूँ शरीर नहीं, प्राण नहीं, मन नहीं, विचार नहीं तब ही मोक्ष का द्वार खुलता है। ऐसी आत्मा 'आनंदमय' कोश में स्थित होकर मुक्त हो जाती है। यहाँ प्रस्तुत है प्राणमय कोश का परिचय।
प्राणमय कोश :
जड़ में ही प्राण के सक्रिय होने से अर्थात वायु तत्व के सक्रिय होने से प्राण धीरे-धीरे जाग्रत होने लगा। प्रथम वह समुद्र के भीतर लताओं, वृक्षों और न दिखाई देने वाले जीवों के रूप में फिर क्रमश: जलचर, उभयचर, थलचर और फिर नभचर प्रणियों के रूप में अभिव्यक्त हुआ।
जहाँ भी साँस का आवागमन दृष्टिगोचर होता है, महसूस होता है वहाँ प्राण सक्रिय है। आत्मा ने स्वयं को स्थूल से ऊपर उठाकर 'प्राण' में अभिव्यक्त किया। जब आत्मा ने स्वयं को स्थूल (जड़) में सीमित पाया तब शुरू हुई विकास की प्रक्रिया। इस तरह पृथवि में स्थूल का एक भाग जाग्रत या सक्रिय होकर प्राणिक होने लगा।
यह प्राण ही है जिसके अवतरण से जड़ जगत में हलचल हुई और द्रुत गति से आकार-प्रकार का युग प्रारम्भ हुआ। प्रकृति भिन्न-भिन्न रूप धारण करती गई। प्राण को ही जीवन कहते हैं। प्राण के निकल जाने पर प्राणी मृत अर्थात जड़ माना जाता है। यह प्राणिक शक्ति ही संपूर्ण ब्रह्मांड की आयु और वायु है अर्थात प्राणवायु ही आयु है, स्वास्थ्य है।
पत्थर, पौधे, पशु और मानव के प्राण में जाग्रति और सक्रियता का अंतर है। देव, मनुष्य, पशु आदि सभी प्राण के कारण चेष्ठावान है। मानव में मन ज्यादा सक्रिय है किंतु जलचर, उभयचर, नभचर और पशुओं में प्राण ज्यादा सक्रिय है, इसीलिए पशुओं को प्राणी भी कहा जाता है। ऐसा तैतरिय उपषिद के ऋषि कहते हैं। उपनिषद वेद का हिस्सा है।
ईर्ष्या, द्वैष, संघर्ष, वासना, आवेग, क्रोध और इच्छा यह प्राण के स्वाभाविक गुण है। जो मानव इन गुणों से परिपूर्ण है वह प्राणी के अतिरिक्त कुछ नहीं। प्राण को पुष्ट और शुद्ध करने के लिए 'प्राणायाम' का प्रवधान है।
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आत्मा का मनोमय कोश-3
वेद में सृष्टि की उत्पत्ति, विकास, विध्वंस और आत्मा की गति को पंचकोश के क्रम में समझाया गया है। पंचकोश ये हैं- 1. अन्नमय, 2. प्राणमय, 3. मनोमय, 4. विज्ञानमय और 5. आनंदमय। उक्त पंचकोश को ही पाँच तरह का शरीर भी कहा गया है। वेदों की उक्त धारणा विज्ञान सम्मत है, जो यहाँ सरल भाषा में प्रस्तुत है।
जब हम हमारे शरीर के बारे में सोचते हैं तो यह पृथवि अर्थात जड़ जगत का हिस्सा है। इस शरीर में प्राणवायु का निवास है। प्राण के अलावा शरीर में पाँचों इंद्रिया हैं जिसके माध्यम से हमें 'मन' और मस्तिष्क के होने का पता चलता हैं। मन के अलावा और भी सूक्ष्म चीज होती है जिसे बुद्धि कहते हैं जो गहराई से सब कुछ समझती और अच्छा-बुरा जानने का प्रयास करती है, इसे ही 'सत्यज्ञानमय' कहा गया है।
मानना नहीं, यदि यह जान ही लिया है कि मैं आत्मा हूँ शरीर नहीं, प्राण नहीं, मन नहीं, विचार नहीं तब ही मोक्ष का द्वार खुलता है। ऐसी आत्मा 'आनंदमय' कोश में स्थित होकर मुक्त हो जाती है। यहाँ प्रस्तुत है मनोमय कोश का परिचय।
मनोमय कोश : यह मनुष्य प्रकृति की अब तक की शुद्धतम कृति माना गया है। यह प्रकृति के सभी आकारों में अब तक का शुद्ध व ऐसा सुविधाजन आकार है जहाँ 'आत्मा' रहकर अपने को अन्यों से अधिक स्वतंत्र महसूस करती है। दूसरी ओर यह एक ऐसा आकार है जहाँ 'मन' का अवतरण आसान है।
उक्त आकार में अन्य प्राणियों की अपेक्षा 'मन' के अधिक जाग्रत होने से ही मनुष्य को मनुष्य या मानव कहा गया है। यही मनोमय कोश है। जगत के मनोमय कोश में मानव ही में 'मन' सर्वाधिक प्रकट है अन्यों में मन सुप्त है। मन भी कई तरह के होते हैं। यह विस्तार की बातें हैं।
आत्मा ने जड़ से प्राण और प्राण से मन में गति की है। सृष्टि के विकास में मन एक महत्वपूर्ण घटना थी। मन के गुण भाव और विचारों के प्रत्यक्षों से है। मन पाँच इंद्रियों के क्रिया-कलापों से उपजी प्रतिक्रिया मात्र नहीं है- इस तरह के मन को सिर्फ ऐंद्रिक मन ही कहा जाता है जो प्राणों के अधिन है।
औसत मन जो संस्कारबद्ध होता है अर्थात जो उन्हीं विचारों को सुनने के लिए तैयार रहता है जिसे ग्रहण करने की उसे शिक्षा मिल चुकी है। फिर भी वह अपने कार्यो में जितना अपने हित, आवेश और पक्षपातों द्वारा संचालित होता है उतना विचारों द्वारा नहीं- यही ऐंद्रिक मन है। 99 प्रतिशत लोग ऐंद्रिक मन में ही जीते हैं। जो भी मन किसी भी प्रकार के ऐंद्रिक ज्ञान से उपजे विचारों के प्रति आग्रही हैं वह ऐंद्रिक मन है। ऐंद्रिक मन में स्थित आत्मा भी जड़बुद्धि ही मानी गई है। विचार कितना ही महान हो वह ऐंद्रिक मन की ही उपज है।
उसी आत्मा का मन उच्चतर रूपों में रूपांतरित हो जाता है जिसने इंद्रियों तथा इनसे उपजने वाले भावों से संचालित होना छोड़ दिया है। समूह की मानसिकता में जिना 'मन' की प्राथमिक अवस्थाओं का लक्षण है और जो इससे ऊपर उठता है वह उच्चतर मन के अवतरण के लिए यथा-योग्य भूमि तैयार करता है।
इसीलिए मन के क्रिया-कलापों के प्रति जाग्रत रहकर जो विचारों की सुस्पष्टता और शुद्ध अवस्था में स्थित हो पूर्वाग्रहों से मुक्त होता है वही विज्ञानमय कोश में स्थित हो सकता है।
मन को उच्चतर रूपों में रूपांतरित कहने के लिए प्रत्याहार और धारणा को साधने का प्रावधान है। इसके सधने पर ही आत्मा विज्ञानमय कोश के स्तर में स्थित होती है। मनुष्यों मन की मनमानी के प्रति जाग्रत रहो वेदों में यही श्रेष्ठ उपाय बताया गया है।
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आत्मा का विज्ञानमय कोश-4
बोधपूर्वक जीने की राह....
वेद में सृष्टि की उत्पत्ति, विकास, विध्वंस और आत्मा की गति को पंचकोश के क्रम में समझाया गया है। पंचकोश ये हैं- 1.अन्नमय, 2.प्राणमय, 3.मनोमय, 4.विज्ञानमय और 5.आनंदमय। उक्त पंचकोश को ही पाँच तरह का शरीर भी कहा गया है। वेदों की उक्त धारणा विमान सम्मत है जो यहाँ सरल भाषा में प्रस्तुत है।
जब हम हमारे शरीर के बारे में सोचते हैं तो यह पृथवि अर्थात जड़ जगत का हिस्सा है। इस शरीर में प्राणवायु का निवास है। प्राण के अलावा शरीर में पाँचों इंद्रिया हैं जिसके माध्यम से हमें 'मन' और मस्तिष्क के होने का पता चलता हैं। मन के अलावा और भी सूक्ष्म चीज होती है जिसे बुद्धि कहते हैं जो गहराई से सब कुछ समझती और अच्छा-बुरा जानने का प्रयास करती है, इसे ही 'सत्यज्ञानमय' कहा गया है।
मानना नहीं, यदि यह जान ही लिया है कि मैं आत्मा हूँ शरीर नहीं, प्राण नहीं, मन नहीं, विचार नहीं तब ही मोक्ष का द्वार खुलता है। ऐसी आत्मा 'आनंदमय' कोश में स्थित होकर मुक्त हो जाती है। यहाँ प्रस्तुत है सत्यज्ञानमय कोश का परिचय।
विज्ञानमय कोश :
सत्यज्ञानमय या विज्ञानमय कोश। सत्यज्ञामय कोश अर्थात जिसे सांसारिक सत्य का ज्ञान होने लगे और जो माया-भ्रम का जाल काटकर साक्षित्व में स्थित होने लगे या जो जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति के स्तर से मुक्ति पाकर निर्विचार की दशा में होने लगे उसे ही सत्यज्ञान पर चलने वाला कहते हैं। दूसरा इस कोश को विज्ञानमय कोश भी कहते हैं। विज्ञान का अर्थ साइंस से न ले। विज्ञान का अर्थ विशेष ज्ञान या विशेष बोध। सत्यज्ञानमय कोश बोधपूर्वक जीने से मिलता है।
मनोमय कोश से मुक्त होकर विज्ञानमय अर्थात सत्यज्ञानमय कोश में स्थित आत्मा को ही हम सिद्ध या संबुद्ध कहते हैं। इस कोश में स्थित आत्माएँ मन से मुक्त हो चुकी होती है। इस कोश के भी कुछ स्तर माने गए है जिस तरह की मनोमय के है।
जब मनुष्य को अपने अज्ञान में पड़े रहने का ज्ञान होता है तब शुरू होता है मन पर नियंत्रण। मन को नियंत्रित कर उसे बुद्धि-संकल्प में स्थित करने वाला ही विवेकी कहलाता है। विवेकी में तर्क और विचार की सुस्पष्टता होती है।
विवेकी को ही विज्ञानमय कोश का प्रथम स्तर माना जाता है किंतु जो बुद्धि का भी अतिक्रमण कर जाता है उसे अंतर्दृष्टि संपन्न मनस कहते हैं। अर्थात जिसका साक्षित्व गहराने लगा। इसे ही ज्ञानीजन संबोधि का लक्षण कहते हैं, जो विचार से परे निर्विचार में स्थित है।
ऐसे अंतरदृष्टि संपन्न 'आत्मा' विज्ञानमय कोश के प्रथम स्तर में स्थित होकर सुक्ष्मातित दृष्टिवाला होता है। जब अंतरदृष्टि की पूर्णता आ जाती है तो मोक्ष के द्वार खुलने लगते हैं। इस सत्यज्ञानमय या विज्ञानमय कोश को पुष्ट-शुद्ध करने के लिए ध्यान का प्रावधान है। ध्यान तो प्राण और मन को साधने का उपाय भी है।
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आत्मा का आनंदमय कोश-5
अतिमानव होने की अनुभूति
वेद में सृष्टि की उत्पत्ति, विकास, विध्वंस और आत्मा की गति को पंचकोश के क्रम में समझाया गया है। पंचकोश ये हैं- 1.अन्नमय, 2.प्राणमय, 3.मनोमय, 4.विज्ञानमय और 5.आनंदमय। उक्त पंचकोश को ही पाँच तरह का शरीर भी कहा गया है। वेदों की उक्त धारणा विज्ञान सम्मत है जो यहाँ सरल भाषा में प्रस्तुत है।
जब हम हमारे शरीर के बारे में सोचते हैं तो यह पृथवि अर्थात जड़ जगत का हिस्सा है। इस शरीर में प्राणवायु का निवास है। प्राण के अलावा शरीर में पाँचों इंद्रिया हैं जिसके माध्यम से हमें 'मन' और मस्तिष्क के होने का पता चलता हैं। मन के अलावा और भी सूक्ष्म चीज होती है जिसे बुद्धि कहते हैं जो गहराई से सब कुछ समझती और अच्छा-बुरा जानने का प्रयास करती है, इसे ही 'सत्यज्ञानमय' कहा गया है।
मानना नहीं, यदि यह जान ही लिया है कि मैं आत्मा हूँ शरीर नहीं, प्राण नहीं, मन नहीं, विचार नहीं तब ही मोक्ष का द्वार खुलता है। ऐसी आत्मा आनंदमय कोश में स्थिर होकर मुक्त हो जाती है। यहाँ प्रस्तुत है आनंदमय कोश का परिचय।
आनंदमय कोश :
ईश्वर और जगत के मध्य की कड़ी है आनंदमय कोश। एक तरफ जड़, प्राण, मन, और बुद्धि (विज्ञानमय कोश) है तो दूसरी ओर ईश्वर है और इन दोनों के बीच खड़ा है- आनंदमय कोश में स्थित आत्मा। महर्षि अरविंद के अनुसार इस कोश में स्थित आत्मा अतिमानव कहलाती है। अतिमानव को सुपरमैन भी कह सकते हैं।
योगयुक्त समाधि पुरुष को ही हम भगवान कहते हैं। यह भगवान ही अतिमानव है। उसे ही हम ब्रह्मा, विष्णु और शिव कहते हैं। यही अरिहंतों और बुद्ध पुरुषों की अवस्था है। ऐसा अतिमानव ही सृष्टा और दृष्टा दोनों है। इस आनंदमय कोश से ही ब्रह्मांड चलायमान है। अन्य सभी कोश सक्रिय है। मानव और ईश्वर के मध्य खड़ा हैं- अतिमानव।
मनुष्यों में शक्ति है भगवान बनने की। दुर्लभ है वह मनुष्य जो भगवतपद प्राप्त कर लेता हैं। इसे ही विष्णु पद भी कहा गया है। भगवान सर्वशक्तिमान, अंतर्यामी और सबका रक्षक है। उसमें ज्ञाता, ज्ञान, ज्ञेय का कोई अंतर नहीं वह स्वयं के चरम आनंद के सर्वोच्च शिखर पर स्थित होता है। ऐसा ब्रह्म स्वरूप पुरुष जब देह छोड़ देता है तब ब्रह्मलीन होकर पंचकोश से मुक्त हो जाता है। अर्थात वह स्वयं ब्रह्ममय हो जाता है। ऐसे पुरुष का लक्षण है समाधि। समाधि या मोक्ष के भी भेद है।
अंतत: जड़ या अन्नरसमय कोश दृष्टिगोचर होता है अर्थात दिखाई देता है। फिर प्राण और मन का हम अनुभव ही कर सकते हैं किंतु जाग्रत मनुष्य को ही विज्ञानमय कोश समझ में आता है। जो विज्ञानमय कोश को समझ लेता है वहीं उसके स्तर को भी समझता है। अभ्यास और जाग्रति द्वारा ही उच्च स्तर में गति होती है। अकर्मण्यता से नीचे के स्तर में चेतना गिरती जाती है। इस प्रकृति में ही उक्त पंचकोशों में आत्मा विचरण करती है किंतु जो आत्मा इन पाँचों कोश से मुक्त हो जाती है ऐसी मुक्तात्मा को ही ब्रह्मलीन कहा जाता है। यही मोक्ष की अवस्था है।
इस तरह वेदों में जीवात्मा के पाँच शरीर बताएँ गए है- जड़, प्राण, मन, विज्ञान और आनंद। इस पाँच शरीर या कोश के अलग-अलग ग्रंथों में अलग-अलग नाम है जिसे वेद ब्रह्म कहते हैं उस ईश्वर की अनुभूति सिर्फ वही आत्मा कर सकती है जो आनंदमय शरीर में स्थित है। देवता, दानव, पितर और मानव इस हेतु सक्षम नहीं। उस सच्चिदानंद परब्रह्म परमेश्वर को तो भगवान ही जान सकते हैं। भगवान को ईश्वर स्वरूप माना जाता है ईश्वर नहीं। ईश्वर तो अनंत और व्यापक है।
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