|| उषा वंदन ||
जो बार बार पूछते हो मुझसे
'देवी! तूं है कौन?
मुखरित करती हूँ अपनी मौन!!
सप्त रंग विलीन, ऐसी शुभ्रता हूँ,
सप्तस्वर लयलीन अपरा वाक् हूँ मैं,
अवतरित आनन्द बन अंतःकरण में,
पार्थिव तन में विहरती दिव्यता हूँ!
साक्षी मैं और दृष्टा हूँ निरंतर,
ऊर्जस्वित, अनिरुद्ध मैं अव्याकृता हूँ!
काल बेबस निमिष-निमिष निहारता,
मैं स्वयं में संपूर्ण अजरा अक्षरा हूँ!
अप्रतिहत मैं, सहित, द्वंद्वातीत हूँ मैं,
मैं सतत चिन्मयी अपरूपा उषा हूँ!!
परातीत अपरा कलातीत परा
ऊर्जस्वित अरा कलानिधिन धरा
सम्यक दृष्टि स्वयंवरा दिगंबरा चिदंबरा
स्वयंप्रभा सविता तरुणे तु पीयूष परा
सतत चिन्मयी अपरूपा तरुणा
अर्पण के योग्य है तर्पण के योग्य है
जब डूबे इसमे पंच तत्व तरूणा की रचना होती है
जब डूबे इसमे सातो रंग आलोक सर्जना होती है
जब डूबे इसमे शब्द शब्द गीतो के निर्झर बहते है
जब डूबे इसमे सातो स्वर संगीत सुरीले सजते है
ये धार सत्य शिव सुन्दर है
और बहती तरूणा के भीतर है
हे उषे !
तुम चिदाकार भी निराकार
रविकिरणों का हो प्रथम सार
तुम राष्ट्ररूप की ध्वजाधार
स्वाधार तुम्हीं तुम निराधार
तुम श्रुति हो मति हो करुणा हो
ज्ञानवृद्ध वयतरुणा हो
संस्कार-अब्धि तुम अरुणा हो
नाद की झंकार हर आवर्त में भर,
उर-विवर आवृत्तियाँ रच-रच गुँजाती!
सतत श्री-सौंदर्य का अभिधान करती,
मुक्ति का रस भोग मैं निष्काम करती
स्फुरित हो अंतःकरण की शुद्ध चिति में,
कल्पना में सत्य का अवधान धरती!
मेरे प्रकृष्ट विचार जो प्रत्येक रचना में सँवरता,
मूल वह शाखा-प्रशाखा में सतत विस्तार पाती,
धारणा बन शुद्ध, अंतर्जगत में अभिव्यक्त होती,
बाह्य प्रतिकृति सृष्टि है, प्रकृत्यानुरूप स्वरूप धरती!
प्रणमामि!!
नमो नारायणाय!!
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महर्षि अंगिरा
यंस्माध्चो अपातक्षन यजुर्यस्मादपाक्षन समानि यस्य लोकामान्यथर्वागिसों मुखम।
स्कम्भं तं भूहि कतम: स्विदेव स: ॥
अर्थात उस स्कम्भ जगदाधार विराट परमेश्वर की महिमा को कौन जान सकता है। इससे ऋग्वेद का विस्तार हुआ, जिससे यजुर्वेद उत्पन्न हुआ, सामवेद जिसके लोम के समान है। और अथर्ववेद जिसका मुख है यहाँ अथर्ववेद को मुख कह इसकी सर्वोच्चता का प्रतिपादन किया गया है। इसी कारण यज्ञ के चार प्रधान ऋत्वियो के नेता ब्रह्मा के लिये अथर्ववेदित होने की अनिवार्यता रखी गयी है। अथर्ववेद काण्ड 10 सूक्त 7 मंत्र 14 स्वत: यह प्रमाणित करता है कि अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा ये चार ऋषि सर्व प्रथम सृष्टि मे उत्पन्न हुये। इन्ही के हृदयो मे क्रमश: ऋग, यजु, साम तथा अथर्ववेद का प्रकाश हुआ। महर्षि दयानन्द ने भी ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका मे वेदोत्पति विषय पर लिखते हुये इसी की पुष्टि की है।
अग्निवायुरव्यंगिरोमनुष्य देहधारि जीवद्वारेण परमेश्वरेण श्रुतिर्वेद: प्रकाशीकृत इति बोध्यम"
यह निश्चय है कि परमेश्वर ने अग्नि वायु आदित्य तथा अंगिरा इन देहधारी जीवो के द्वारा वेद का अर्थ प्रकाश किया। इन चारो ने ही ब्रह्मा को वेद ज्ञान दिया इसी कारण ये ब्रह्मर्षि कहलाये। अंगिरा का अर्थ यही रूढ हुआ कि देवां ओर ऋषियो को वेद पढाने वाला आचार्य।
ब्रह्मार्षि अंगिरा तथा इनके वंशज अंगिरस ऋषियो के कुरु क्षेत्र के निकट सरस्वती नदी के उत्तर मे थे। उसे प्राचीन काल मे जांगल देश कहा जाता था। यह महाभारत काल तक बहुत प्रसिद्ध था। इस प्रकार यह जांगल देश अंगिर्र कुल की तपो भूमि थी जिसके कारण अंगिरा को जांगिड भी कहा जाने लगा। इस प्रतापी वीर अंगिरा ही समस्त संसार को जीतकर इन्द्र पदवी धारण कर अत्याचारियो से प्रजा की रक्षा की |
अथर्ववेद 19 सूक्त 34 व 35 मे इस अंगिरा की खूब प्रशंसा की है।
इन्द्रस्य नाम गृहन्त ऋषियों जंगिडं ददु:।
द्विपाच्चातुष्पादस्माकं सर्व रक्ष्तु जंगिड:॥
अथर्ववेद का यह प्रमाण मिलता है कि " अंगिरा ही जांगिड है’ स्वत: प्रमाणित करता है।
इस सूक्त का छ्ठा मन्त्र इसी अर्थ की पुष्टि करता है
(जानकारियां)
महर्षि अंगिरा ब्रह्मा जी के मानस पुत्र तथा गुणों में ब्रह्मा जी के समान हैं। इन्हें प्रजापति भी कहा गया है और सप्तर्षियों में वसिष्ठ, विश्वामित्र तथा मरीचि आदि के साथ इनका भी परिगणन हुआ है। इनके दिव्य अध्यात्मज्ञान, योगबल, तप-साधना एवं मन्त्रशक्ति की विशेष प्रतिष्ठा है। इनकी पत्नी दक्ष प्रजापति की पुत्री स्मृति (मतान्तर से श्रद्धा) थीं, जिनसे इनके वंश का विस्तार हुआ।
इनकी तपस्या और उपासना इतनी तीव्र थी कि इनका तेज और प्रभाव अग्नि की अपेक्षा बहुत अधिक बढ़ गया। उस समय अग्निदेव भी जल में रहकर तपस्या कर रहे थे। जब उन्होंने देखा कि अंगिरा के तपोबल के सामने मेरी तपस्या और प्रतिष्ठा तुच्छ हो रही है तो वे दु:खी हो अंगिरा के पास गये और कहने लगे- 'आप प्रथम अग्नि हैं, मैं आपके तेज़ की तुलना में अपेक्षाकृत न्यून होने से द्वितीय अग्नि हूँ। मेरा तेज़ आपके सामने फीका पड़ गया है, अब मुझे कोई अग्नि नहीं कहेगा।' तब महर्षि अंगिरा ने सम्मानपूर्वक उन्हें देवताओं को हवि पहुँचाने का कार्य सौंपा। साथ ही पुत्र रूप में अग्नि का वरण किया। तत्पश्चात वे अग्नि देव ही बृहस्पति नाम से अंगिरा के पुत्र के रूप में प्रसिद्ध हुए। उतथ्य तथा महर्षि संवर्त भी इन्हीं के पुत्र हैं। महर्षि अंगिरा की विशेष महिमा है। ये मन्त्रद्रष्टा, योगी, संत तथा महान भक्त हैं। इनकी 'अंगिरा-स्मृति' में सुन्दर उपदेश तथा धर्माचरण की शिक्षा व्याप्त है।
सम्पूर्ण ऋग्वेद में महर्षि अंगिरा तथा उनके वंशधरों तथा शिष्य-प्रशिष्यों का जितना उल्लेख है, उतना अन्य किसी ऋषि के सम्बन्ध में नहीं हैं। विद्वानों का यह अभिमत है कि महर्षि अंगिरा से सम्बन्धित वेश और गोत्रकार ऋषि ऋग्वेद के नवम मण्डल के द्रष्टा हैं। नवम मण्डल के साथ ही ये अंगिरस ऋषि प्रथम, द्वितीय, तृतीय आदि अनेक मण्डलों के तथा कतिपय सूक्तों के द्रष्टा ऋषि हैं। जिनमें से महर्षि कुत्स, हिरण्यस्तूप, सप्तगु, नृमेध, शंकपूत, प्रियमेध, सिन्धुसित, वीतहव्य, अभीवर्त, अंगिरस, संवर्त तथा हविर्धान आदि मुख्य हैं।
ऋग्वेद का नवम मण्डल जो 114 सूक्तों में निबद्ध हैं, 'पवमान-मण्डल' के नाम से विख्यात है। इसकी ऋचाएँ पावमानी ऋचाएँ कहलाती हैं। इन ऋचाओं में सोम देवता की महिमापरक स्तुतियाँ हैं, जिनमें यह बताया गया है कि इन पावमानी ऋचाओं के पाठ से सोम देवताओं का आप्यायन होता है।
नमो नारायणाय!!
प्रणमामि!!
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महर्षि अगस्त्य
सत्रे ह जाताविषिता नमोभि: कुंभे रेत: सिषिचतु: समानम्।
ततो ह मान उदियाय मध्यात् ततो ज्ञातमृषिमाहुर्वसिष्ठम्॥
इस ऋचा के भाष्य में आचार्य सायण ने लिखा है-
'ततो वासतीवरात् कुंभात् मध्यात् अगस्त्यो शमीप्रमाण उदियाप प्रादुर्बभूव।
तत एव कुंभाद्वसिष्ठमप्यृषिं जातमाहु:॥
'इस प्रकार कुंभ से अगस्त्य तथा महर्षि वसिष्ठ का प्रादुर्भाव हुआ।
(विशेष)
ब्रह्मतेज के मूर्तिमान स्वरूप महामुनि अगस्त्य जी का पावन चरित्र अत्यन्त उदात्त तथा दिव्य है। वेदों में इनका वर्णन आया है।
ऋग्वेद का कथन है कि मित्र तथा वरुण नामक वेदताओं का अमोघ तेज एक दिव्य यज्ञिय कलश में पुंजीभूत हुआ और उसी कलश के मध्य भाग से दिव्य तेज:सम्पन्न महर्षि अगस्त्य का प्रादुर्भाव हुआ।
एक यज्ञ सत्र में उर्वशी भी सम्मिलित हुई थी। मित्र वरुण ने उसकी ओर देखा तो इतने आसक्त हुए कि अपने तेज रोक नहीं पाये। उर्वशी ने उपहासात्मक मुस्कराहट बिखेर दी। मित्र वरुण बहुत लज्जित हुए। कुंभ का स्थान, जल तथा कुंभ, सब ही अत्यंत पवित्र थे। यज्ञ के अंतराल में ही कुंभ में स्खलित तेज के कारण कुंभ से अगस्त्य, स्थल में वसष्टि तथा जक में मत्स्य का जन्म हुआ। उर्वशी इन तीनों की मानस जननी मानी गयी।
पुराणों में यह कथा आयी है कि महर्षि अगस्त्य (पुलस्त्य)- की पत्नी महान पतिव्रता तथा श्री विद्या की आचार्य हैं, जो 'लोपामुद्रा' के नाम से विख्यात हैं। आगम-ग्रन्थों में इन दम्पत्ति की देवी साधना का विस्तार से वर्णन आया है।
महर्षि अगस्त्य महातेजा तथा महातपा ऋषि थे। समुद्रस्थ राक्षसों के अत्याचार से घबराकर देवता लोग इनकी शरण में गये और अपना दु:ख कह सुनाया। फल यह हुआ कि ये सारा समुद्र पी गये, जिससे सभी राक्षसों का विनाश हो गया। इसी प्रकार इल्वल तथा वातापी नामक दुष्ट दैत्यों द्वारा हो रहे ऋषि-संहार को इन्होंने बंद किया और लोक का महान कल्याण हुआ।
एक बार विन्ध्याचल सूर्य का मार्ग रोककर खड़ा हो गया, जिससे सूर्य का आवागमन ही बंद हो गया। सूर्य इनकी शरण में आये, तब इन्होंने विन्ध्य पर्वत को स्थिर कर दिया और कहा- 'जब तक मैं दक्षिण देश से न लौटूँ, तब तक तुम ऐसे ही निम्न बनकर रूके रहो।' ऐसा ही हुआ । विन्ध्याचल नीचे हो गया, फिर अगस्त्य जी लौटे नहीं, अत: विन्ध्य पर्वत उसी प्रकार निम्न रूप में स्थिर रह गया और भगवान सूर्य का सदा के लिये मार्ग प्रशस्त हो गया।
इस प्रकार के अनेक असम्भव कार्य महर्षि अगस्त्य ने अपनी मन्त्र शक्ति से सहज ही कर दिखाया और लोगों का कल्याण किया। भगवान श्री राम वनगमन के समय इनके आश्रम पर पधारे थे। भगवान ने उनका ऋषि-जीवन कृतार्थ किया। भक्ति की प्रेम मूर्ति महामुनि सुतीक्ष्ण इन्हीं अगस्त्य जी के शिष्य थे। अगस्त्य संहिता आदि अनेक ग्रन्थों का इन्होंने प्रणयन किया, जो तान्त्रिक साधकों के लिये महान उपादेय है।
सबसे महत्त्व की बात यह है कि महर्षि अगस्त्य ने अपनी तपस्या से अनेक ऋचाओं के स्वरूपों का दर्शन किया था, इसलिये ये मन्त्र द्रष्टा ऋषि कहलाते हैं। ऋग्वेद के अनेक मन्त्र इनके द्वारा दृष्ट हैं। ऋग्वेद के प्रथम मण्डल के 165 सूक्त से 191 तक के सूक्तों के द्रष्टा ऋषि महर्षि अगस्त्य जी हैं। साथ ही इनके पुत्र दृढच्युत तथा दृढच्युत के पुत्र इध्मवाह भी नवम मण्डल के 25वें तथा 26वें सूक्त के द्रष्टा ऋषि हैं। महर्षि अगस्त्य और लोपामुद्रा आज भी पूज्य और वन्द्य हैं, नक्षत्र-मण्डल में ये विद्यमान हैं। दूर्वाष्टमी आदि व्रतोपवासों में इन दम्पति की आराधना-उपासना की जाती है।
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ऋग्वेद सातवें मंडल के तैतीसवें सूक्त के अनुसार उर्वसी अप्सरा मित्र वरूण- इन दो महापुरूषों के यहां उन्ही दिनों निमन्त्रित रहती थी। इसी बीच में वसिष्ठ तथा अगस्त्य उर्वसी अप्सरा से पैदा हुए। ऋग्वेद (7/33/13) में अगस्त्य का नाम “मान” है। शायद अगस्त्य पेदा होने के बाद मिटटी के घड़ें- जैसे पात्र में रखे गये हों, इसलिए उनका नाम ”कुंभज“ भी पड़ा। वाल्मीकीय रामायण (7/80/1) में कहा गया ”महर्षिः कुम्भसम्भवः।“ उर्वशी से पैदा होने से “और्वशेय” तथा उनके पिता मित्र या वरूण होने से “मैत्रावरूणि” भी उनके नाम पडे़। उन्होनें प्रयाग के अपने आश्रम से चलकर विंध्यपर्वत के दुर्गमपथ को जीता था। इसलिए उनका नाम “विंध्यकूट“ भी पड़ा। उन्होनें विदेशो में आर्यत्व के प्रचार के लिए समुद्र की लम्बी-लम्बी यात्राएं की थीं। इसलिए कहा गया कि अगस्त्य ने समुद्र को पी लिया था। वस्तुतः उन्होंने समुद्र पर विजय पायी थी। इसलिए उनके नाम “समुद्र चुलुक“ अर्थात समुद्र को पी लेने वाला पडे़। उन्होनें भारत के बाहर पूर्व तथा दक्षिण में आर्यत्व का प्रचार किया, इसलिए उनका एक नाम “आग्नेय” पड़ा।
महर्षि अगस्त्य का उपाख्यान महाभारत के वनपर्व के 93 से 99 अध्यायों1 तक दिया गया है, जो केवल पौराणिक पक्ष से रंगा है। महर्षि अगस्त्य का मूल आश्रम प्रयाग के समीप यमुना तट पर बताया जाता है। इसके पास कहीं की एक पर्वत चोटी का नाम अगस्त्यपर्वत था। महाभारत (वनपर्व) के अनुसार महर्षि अगस्त्य की पत्नि लोपामुद्रा विदर्भनरेश की पुत्री थीं। ऋग्देव (1/179) में लोपामुद्रा और अगस्त्य का संवाद आया है।
वेद-पुराणादि ग्रंथों से निष्कर्ष निकलता है कि महर्षि अगस्त्य वैदिक आर्यमत के महान प्रचारक थे अगस्त्य का व्यक्तित्व अथाह सागर-जैसा था। उनके मन में आर्यत्व प्रचार की तीव्र अभिलाषा थी और उन्होंने मध्य भारत होते हुए दक्षिणी भारत तथा समुद्र पर जावा सुमात्रादि अनेक द्वीपों एवं देशों में अपनी प्रचार ध्वजा फहराई थी।
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महर्षि अत्रि
एतानि जप्तानि पुनन्ति जन्तूंजातिस्मरत्वं लभते यदीच्छेत्। (अत्रिस्मृति)
विद्वेषादपि गोविन्दं दमघोषात्मज: स्मरन्। शिशुपालो गत: स्वर्गं किं पुनस्तत्परायण:॥
महर्षि अत्रि वैदिक मन्त्रद्रष्टा ऋषि हैं। पुराणों में इनके आविर्भाव का तथा उदात्त चरित्र का बड़ा ही सुन्दर वर्णन हुआ है। वहाँ के वर्णन के अनुसार महर्षि अत्रि ब्रह्मा जी के मानस-पुत्र हैं और उनके चक्षु भाग से इनका प्रादुर्भाव हुआ। सप्तर्षियों में महर्षि अत्रि का परिगणन है। साथ ही इन्हें 'प्रजापति' भी कहा गया है। महर्षि अत्रि की पत्नी अनुसूया जी हैं, जो कर्दम प्रजापति और देवहूति की पुत्री हैं। देवी अनुसूया पतिव्रताओं की आदर्शभूता और महान दिव्यतेज से सम्पन्न हैं। महर्षि अत्रि जहाँ ज्ञान, तपस्या, सदाचार, भक्ति एवं मन्त्रशक्ति के मूर्तिमान स्वरूप हैं; वहीं देवी अनुसूया पतिव्रता धर्म एवं शील की मूर्तिमती विग्रह हैं। भगवान श्री राम अपने भक्त महर्षि अत्रि एवं देवी अनुसूया की भक्ति को सफल करने स्वयं उनके आश्रम पर पधारे। माता अनुसूया ने देवी सीता को पतिव्रत का उपदेश दिया। उन्होंने अपने पतिव्रत के बल पर शैव्या ब्राह्माणी के मृत पति को जीवित कराया तथा बाधित सूर्य को उदित कराकर संसार का कल्याण किया। देवी अनुसूया का नाम ही बड़े महत्त्व का है। अनुसूया नाम है परदोष-दर्शन का –गुणों में भी दोष-बुद्धि का और जो इन विकारों से रहित हो, वही 'अनुसूया' है। इसी प्रकार महर्षि अत्रि भी 'अ+त्रि' हैं अर्थात वे तीनों गुणों (सत्त्व, रजस, तमस)- से अतीत है- गुणातीत हैं। इस प्रकार महर्षि अत्रि-दम्पति एवं विध अपने नामानुरूप जीवन यापन करते हुए सदाचार परायण हो चित्रकूट के तपोवन में रहा करते थे। अत्रि पत्नी अनुसूया के तपोबल से ही भागीरथी गंगा की एक पवित्र धारा चित्रकूट में प्रविष्ट हुई और 'मंदाकिनी' नाम से प्रसिद्ध हुई।
सृष्टि के प्रारम्भ में जब इन दम्पति को ब्रह्मा जी ने सृष्टिवर्धन की आज्ञा दी तो इन्होंने उस ओर उन्मुख न हो तपस्या का ही आश्रय लिया। इनकी तपस्या से ब्रह्मा, विष्णु, महेश ने प्रसन्न होकर इन्हें दर्शन दिया और दम्पति की प्रार्थना पर इनका पुत्र बनना स्वीकार किया। अत्रि-दम्पति की तपस्या और त्रिदेवों की प्रसन्नता के फलस्वरूप विष्णु के अंश से महायोगी दत्तात्रेय, ब्रह्मा के अंश से चन्द्रमा तथा शंकर के अंश से महामुनि दुर्वासा महर्षि अत्रि एवं देवी अनुसूया के पुत्र रूप में आविर्भूत हुए।
वेदों में उपर्युक्त वृत्तान्त यथावत नहीं मिलता है, कहीं-कहीं नामों में अन्तर भी है। ऋग्वेद- में 'अत्रि:सांख्य:' कहा गया है। वेदों में यह स्पष्ट रूप से वर्णन है कि महर्षि अत्रि को अश्विनीकुमारों की कृपा प्राप्त थी। एक बार जब ये समाधिस्थ थे, तब दैत्यों ने इन्हें उठाकर शतद्वार यन्त्र में डाल दिया और आग लगाकर इन्हें जलाने का प्रयत्न किया, किंतु अत्रि को उसका कुछ भी ज्ञान नहीं था। उस समय अश्विनीकुमारों ने वहाँ पहुँचकर इन्हें बचाया। ऋग्वेद के प्रथम मण्डल के 51वें तथा 112वें सूक्त में यह कथा आयी है। ऋग्वेद के दशम मण्डल में महर्षि अत्रि के दीर्घ तपस्या के अनुष्ठान का वर्णन आया है और बताया गया है कि यज्ञ तथा तप आदि करते-करते जब अत्रि वृद्ध हो गये, तब अश्विनीकुमारों ने इन्हें नवयौवन प्रदान किया।
ऋग्वेद के पंचम मण्डल में अत्रि के वसूयु, सप्तवध्रि नामक अनेक पुत्रों का वृत्तान्त आया है, जो अनेक मन्त्रों के द्रष्टा ऋषि रहे हैं। इसी प्रकार अत्रि के गोत्रज आत्रेयगण ऋग्वेद के बहुत से मन्त्रों के द्रष्टा हैं।
ऋग्वेद के पंचम 'आत्रेय मण्डल' का 'कल्याण सूक्त' ऋग्वेदीय 'स्वस्ति-सूक्त' है, वह महर्षि अत्रि की ऋतम्भरा प्रज्ञा से ही हमें प्राप्त हो सका है यह सूक्त 'कल्याण-सूक्त', 'मंगल-सूक्त' तथा 'श्रेय-सूक्त' भी कहलाता है। जो आज भी प्रत्येक मांगलिक कार्यों, शुभ संस्कारों तथा पूजा, अनुष्ठानों में स्वस्ति-प्राप्ति, कल्याण-प्राप्ति, अभ्युदय-प्राप्ति, भगवत्कृपा-प्राप्ति तथा अमंगल के विनाश के लिये सस्वर पठित होता है। इस मांगलिक सूक्त में अश्विनी, भग, अदिति, पूषा, द्यावा, पृथिवी, बृहस्पति, आदित्य, वैश्वानर, सविता तथा मित्रा वरुण और सूर्य-चंद्रमा आदि देवताओं से प्राणिमात्र के लिये स्वस्ति की प्रार्थना की गयी है। इससे महर्षि अत्रि के उदात्त-भाव तथा लोक-कल्याण की भावना का किंचित स्थापना होता है।
इसी प्रकार महर्षि अत्रि ने मण्डल की पूर्णता में भी सविता देव से यही प्रार्थना की है कि 'हे सविता देव! आप हमारे सम्पूर्ण दु:खों को-अनिष्टों को, शोक-कष्टों को दूर कर दें और हमारे लिये जो हितकर हो, कल्याणकारी हो, उसे उपलब्ध करायें'।
इस प्रकार स्पष्ट होता है कि महर्षि अत्रि की भावना अत्यन्त ही कल्याणकारी थी और उनमें त्याग, तपस्या, शौच, संतोष, अपरिग्रह, अनासक्ति तथा विश्व कल्याण की पराकष्ठा विद्यमान थी।
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