Saturday 21 April 2018

शिवजी का रहस्य

शिवजी के पैदा होने के बारे में ये बातें नहीं जानते होंगे आप!

भगवान शिव के कई नाम

त्रिदेवों में से एक देव हैं शिव. भगवान शिव को देवों के देव महादेव भी कहा जाता है. भगवान शिव को कई और नामों से पुकारा जाता है जैसे- महादेव, भोलेनाथ, शंकर, महेश, रुद्र, नीलकंठ इत्याोदि. तंत्र साधना में भगवान शिव को भैरव के नाम से भी जाना जाता है.

भगवान शिव का परिवार

हिन्दू धर्म के प्रमुख देवताओं में से एक हैं भगवान शिव. वेद में इन्हेंम रुद्र के नाम से भी जाना जाता है. शिव इंसान की चेतना के अन्तर्यामी हैं यानी इंसान के मन की बात पढ़़ने वाले हैं. इनकी अर्धांग्नि यानि देवी शक्ति को माता पार्वती के नाम से जाना जाता है. भगवान शिव के दो पुत्र कार्तिकेय और गणेश हैं और एक पुत्री अशोक सुंदरी भी हैं.

ऐसे दिखते हैं शिव

शिव जी आपने अधिकत्तइर योगी या ध्याान की मुद्रा में ही देखा होगा. लेकिन उनकी पूजा शिवलिंग और मूर्ति दोनों रूपों में की जाती है. शिव जी के गले में हमेशा नाग देवता विराजमान रहते हैं और इनके हाथों में डमरू और त्रिशूल दिखाई देता हैं.

ऐसे दिखते हैं शिव

शैव मत के अनुसार इनका कैलाश पर्वत में इनका निवास स्था्न है. शैव मत के ही मुताबिक, शिव के साथ शक्ति यानी देवी पार्वती सर्व रूप में पूजी जाती हैं. इसलिए इन्हें अर्धनारिश्वीर भी कहा जाता है.

क्यों कहते हैं शिव को अर्धनारिश्वंर

भगवान सदाशिव परम ब्रह्म है. अर्वाचीन और प्राचीन विद्वान इन्हीं को ईश्वर कहते हैं. अकेले रहकर अपनी इच्छाम से सभी ओर विचरण करने वाले सदाशिव ने अपने शरीर से देवी शक्ति की सृष्टि की, जो उनके अपने अंग से कभी अलग होने वाली नहीं थी.

क्यों कहते हैं शिव को अर्धनारिश्वंर

देवी शक्ति को पार्वती के रूप में जाना गया और भगवान शिव को अर्धनारिश्वबर के रूप में. वहीं देवी शक्ति को प्रकृति, गुणवती माया, बुद्धितत्व की जननी तथा विकार रहित माना गया.

भगवान शिव के पिता - श्रीमद् देवी महापुराण के मुताबिक

श्रीमद् देवी महापुराण के मुताबिक, भगवान शिव के पिता के लिए भी एक कथा है. देवी महापुराण के मुताबिक, एक बार जब नारदजी ने अपने पिता ब्रह्माजी से सवाल किया कि इस सृष्टि का निर्माण किसने किया? आपने, भगवान विष्णु ने या फिर भगवान शिव ने? आप तीनों को किसने जन्म दिया है यानी आपके तीनों के माता-पिता कौन हैं?

भगवान शिव के पिता - श्रीमद् देवी महापुराण के मुताबिक

तब ब्रह्मा जी ने नारदजी से त्रिदेवों के जन्म की गाथा का वर्णन करते हुए कहा कि देवी दुर्गा और शिव स्वरुप ब्रह्मा के योग से ब्रह्मा, विष्णु और महेश की उत्पत्ति हुई है. यानि प्रकृति स्वरुप दुर्गा ही माता हैं और ब्रह्म यानि काल-सदाशिव पिता हैं.

श्री शिव महापुराण के विध्वेश्वर संहिता खण्ड

एक बार श्री ब्रह्मा जी और श्री विष्णु जी का इस बात पर झगड़ा हो गया कि ब्रह्मा जी ने कहा मैं तेरा पिता हूँ क्योंकि यह सृष्टिी मुझसे उत्पन्न हुई है, मैं प्रजापिता हूँ. इस पर विष्णु जी ने कहा कि मैं तेरा पिता हूँ, तू मेरी नाभि कमल से उत्पन्न हुआ है.

श्री शिव महापुराण के विध्वेश्वर संहिता खण्ड

झगड़ा होने पर दोनों एक-दूसरे को मारने के लिए तत्पर हो गए. उसी समय सदाशिव यानी काल ब्रह्म ने उन दोनों के बीच में एक सफेद रंग का चमकता हुआ स्तंभ खड़ा कर दिया, फिर स्वयं शंकर के रूप में प्रकट होकर उनको बताया कि तुम कोई भी कर्ता नहीं हो.

सदाशिव ने बंद करवाया विष्णु जी और ब्रह्मा जी झगड़ा

सदाशिव ने विष्णु जी और ब्रह्मा जी के बीच आकर कहा, हे पुत्रों! मैंने तुमको जगत की उत्पत्ति और स्थिति रूपी दो कार्य दिए हैं, इसी प्रकार मैंने शंकर और रूद्र को दो कार्य संहार और तिरोगति दिए हैं, मुझे वेदों में ब्रह्म कहा है. मेरे पाँच मुख हैं, एक मुख से अकार (अ), दूसरे मुख से उकार (उ), तीसरे मुख से मुकार (म)............

सदाशिव ने बंद करवाया विष्णु जी और ब्रह्मा जी झगड़ा

............... , चौथे मुख से बिन्दु (.) तथा पाँचवे मुख से नाद (शब्द) प्रकट हुए हैं, उन्हीं पाँच अववयों से एकीभूत होकर एक अक्षर ओम् (ऊँ) बना है, यह मेरा मूल मन्त्र है.

ये हैं शिवजी के माता-पिता

उपरोक्त शिव महापुराण के प्रकरण से सिद्ध हुआ कि श्री शकंर जी की माता श्री दुर्गा देवी (अष्टंगी देवी) है तथा पिता सदाशिव अर्थात् “काल ब्रह्म” है.

10 महान गुरु,

10 महान गुरु, इनसे शिक्षा लेने आते थे देव और दानव

अषाढ़ माह की पूर्णिमा को 'गुरु पूर्णिमा' के रूप में मनाने की परंपरा प्राचीन काल से ही भारत वर्ष में विद्यमान रही है। भारत में गुरुओं को सबसे ऊंचा स्‍थान प्राप्‍त है। गुरु को अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाने वाला बताया गया है। शास्‍त्रों में गुरु की महिमा का बखान मिलता है।

प्रतीकात्‍मक चित्र

''अज्ञान तिमिरांधश्‍च ज्ञानांजन शलाकया, क्षुन्‍मीलितम तस्‍मै श्री गुरुवै नम:'' 
अर्थात्, अंधकार को हटाकर प्रकाश की ओर ले जाने वाले को ही 'गुरु' कहा जाता है। तो आइए, जानते हैं भारत के उन 10 महान गुरुओं के बारे में जिनके बारे में मान्‍यता है कि स्‍वयं देवता और दैत्‍य इन गुरुओं के पास समय-समय पर शिक्षा ग्रहण करने के लिए आते रहे हैं। 

1. महर्षि वेदव्यास

अषाढ़ पूर्णिमा के दिन ही महर्षि वेदव्‍यास का जन्‍म हुआ था। यही कारण है कि इस दिन को महर्षि वेदव्‍यास को समर्पित करते हुए व्‍यास जयंती या गुरु पूर्णिमा के रूप में भी सनातनधर्मी पूरी आस्‍था के साथ मनाते हैं। प्राचीन भारतीय ग्रंथों के अनुसार महर्षि वेदव्‍यास स्‍वयं भगवान विष्‍णु के ही अवतार थे। महर्षि का पूरा नाम कृष्‍णद्वैपायन व्‍यास था। इनके पिता महर्षि पराशर तथा माता सत्‍यवती थी। 

लोक आस्‍था है कि महर्षि वेदव्‍यास ने ही वेदों, 18 पुराणों और दुनिया के सबसे बड़े महाकाव्‍य महाभारत की रचना की थी। महर्षि के शिष्‍यों में ऋषि जैमिन, वैशम्पायन, मुनि सुमन्तु, रोमहर्षण आदि शामिल थे। 

2. महर्षि वाल्‍मीकि 
महर्षि वाल्‍मीकि को आदिकवि कहा गया है। भारत के सबसे प्राचीन काव्‍य कहे जाने वाले रामायण की रचना महर्षि वाल्‍मीकि ने ही की थी। मान्‍यता है कि वाल्‍मीकि पूर्व जन्‍म में रत्‍नाकर नाम के खूंखार डाकू थे जिन्‍हें देवर्षि नारद ने सत्‍कर्मों की सीख दी। डाकू रत्‍नाकर से साधक बने और अगले जन्‍म में वरुण देव के पुत्र रूप में जन्‍में वाल्‍मीकि ने कठोर तप किया तथा महर्षि के पद पर सुशोभित हुए। 

महर्षि वाल्‍मीकि विभिन्‍न अस्‍त्र-शस्‍त्रों के आविष्‍कारक माने जाते हैं। इनके शिष्‍यों में अयोध्‍या के राजा श्रीराम और सीता के पुत्र लव तथा कुश का नाम सबसे ऊपर लिया जाता है। इनकी शिक्षा और दीक्षा का ही नतीजा रहा कि श्रीराम के दोनों कुमारों ने अस्‍त्र-शस्‍त्र संचालन की ऐसी विद्या प्राप्‍त कर ली थी जिससे उन्‍होंने एक युद्ध में ना सिर्फ महाबलि हनुमान को बंधक बना लिया था बल्‍कि अयोध्‍या की सारी सेना भी इन दो कुमारों के सामने बौनी साबित हुई थी।

3. परशुराम 

परशुराम की गिनती प्राचीन भारत के महान योद्धा और गुरुओं में होती है। जन्‍म से ब्राह्मण किंतु स्‍वभाव से क्षत्रिय परशुराम ने अपने पिता की मौत का बदला लेने के लिए हैहय वंश के क्षत्रिय राजाओं का संहार किया था। प्राचीन ग्रंथों के अनुसार परशुराम भगवान विष्‍णु के अंशावतार थे। इनके पिता का नाम ऋषि जमदग्‍नि तथा माता रेणुका थीं। 

परशुराम के शिष्‍यों में भीष्‍म, द्रोणाचार्य व कर्ण जैसे महान विद्वानों और शूरवीरों का नाम लिया जाता है। त्रेतायुग में जहां इन्‍होंने श्रीराम का कई जगहों पर समर्थन किया वहीं द्वापर युग में भी परशुराम ने भगवान कृष्‍ण को अपना समर्थन दिया। 

एक पौराणिक कथा के अनुसार कर्ण ने खुद को सूतपुत्र बताकर परशुराम से अस्‍त्र-शस्‍त्र की शिक्षा ली लेकिन उसके क्षत्रिय होने की जानकारी मिलते ही परशुराम ने उसे शाप दिया कि जब कर्ण को अपने विद्या की सबसे ज्‍यादा जरूरत पड़ेगी उस वक्‍त ये विद्याएं उसका साथ छोड़ देंगी। 

4. गुरु द्रोणाचार्य

द्रोणाचार्य की गिनती महान धनुर्धरों में होती है। धृतराष्‍ट्र और गांधारी के 100 पुत्र तथा पांडु के पांच पुत्रों को इन्‍होंने ही शिक्षा-दीक्षा दी थी। महाभारत के अनुसार गुरुद्रोण का जन्‍म एक द्रोणी (पात्र) में हुआ था तथा इनके पिता महर्षि भारद्वाज थे। महाभारत के ही अनुसार गुरु द्रोण देवगुरु बृहस्‍पति के अंशावतार थे। दुर्योधन, दु:शासन, अर्जुन, भीम, युधिष्‍ठिर आदि इनके प्रमुख शिष्‍यों में शामिल थे। हालांकि, अर्जुन द्वारा एक मगरमच्‍छ से गुरु की रक्षा करने के कारण द्रोणाचार्य सबसे ज्‍यादा स्‍नेह अर्जुन से ही रखते थे। 

अर्जुन को ही गुरु द्रोण ने दुनिया का सर्वश्रेष्‍ठ धनुर्धर होने का वरदान भी दिया था। कहते हैं इसी वरदान की रक्षा के लिए द्रोण ने श्रेष्‍ठ धनुर्धर एकलव्‍य से उसका अंगूठा गुरु दक्षिणा में मांग लिया था। महाभारत युद्ध में गुरु द्रोण राजसत्‍ता के प्रति वचनबद्ध होने के कारण कौरवों की ओर से युद्धभूमि में उतरे यहां पांडवों के पक्ष से धृष्‍टद्युम्‍न ने छल से गुरु द्रोण का सिर काट दिया। 

5. ब्रह्मर्षि विश्वामित्र

सनातन धर्म के महान ग्रंथों में हमें ब्रह्मर्षि विश्‍वामित्र की सबसे ज्‍यादा चर्चा मिलती हैं। विश्‍वामित्र जन्‍म से क्षत्रीय थे लेकिन घोर तप के कारण ही स्‍वयं भगवान ब्रह्मा ने उन्‍हें ब्रह्मर्षि की उपाधि से सुशोभित किया। त्रेतायुग में ब्रह्मषि विश्‍वामित्र ने कुछ काल के लिए ही सही लेकिन अयोध्‍या के राजकुमार श्रीराम और उनके भाई लक्ष्‍मण को अपने साथ रखा और उन्‍हें कई गूढ़ विद्याओं से परिचित कराया। ब्रह्मर्षि विश्‍वामित्र ने श्रीराम और लक्ष्‍मण को कई अस्‍त्र-शस्‍त्रों का ज्ञान दिया तथा अपने द्वारा अनुसंधान किये गये दिव्‍यास्‍त्रों को भी दोनों भाइयों को प्रदान किया। 

एक क्षत्रिय राजा से ऋषि बने विश्‍वामित्र, महान भृगु ऋषि के वंशज थे। यह भी कहा जाता है कि विश्‍वामित्र ने एक बार देवताओं से रुष्‍ट होकर अपनी अलग सृष्‍टि की रचना शुरू कर दी थी। 

6. गुरु सांदीपनि

महर्षि सांदीपनि भगवान श्रीकृष्ण के गुरु थे। श्रीकृष्ण व बलराम इनसे शिक्षा प्राप्त करने मथुरा से उज्जयिनी (वर्तमान उज्जैन) आए थे। महर्षि सांदीपनि ने ही भगवान श्रीकृष्ण को 64 कलाओं की शिक्षा दी थी। कहते हैं कि भगवान श्रीकृष्ण ने ये कलाएं मात्र 64 दिन में ही सीख ली थीं। मध्य प्रदेश के उज्जैन शहर में आज भी गुरु सांदीपनि का आश्रम स्थित है।

गुरु सांदीपनि के गुरुकुल में कई महान राजाओं के पुत्र पढ़ते थे। श्रीकृष्ण ने 18 वर्ष की आयु में उज्‍जयिनी आश्रम में रहकर शिक्षा ग्रहण किया था। इससे ये बात तो साबित होती है कि भगवान विष्‍णु के पूर्णावतार कहे जाने वाले श्रीकृष्‍ण को भी गुरु की आवश्‍यक्‍ता पड़ी जिन्‍होंने उन्‍हें विश्‍व के कई गूढ़ ज्ञानों से परिचित कराया। 

पुराणों में वर्णन मिलता है कि सांदीपनी ऋषि को गुरु दक्षिणा देने के लिए श्रीकृष्‍ण ने यमपुरी की यात्रा की और वहां से सांदीपनी के पुत्र को वापस धरती पर ले आए। 

7. देवगुरु बृहस्पति

गुरु बृहस्‍पति देवताओं के भी गुरू हैं। महाभारत के आदि पर्व के अनुसार बृहस्पति महर्षि अंगिरा के पुत्र थे। देवगुरु बृहस्पति रक्षोघ्र मंत्रों का प्रयोग कर देवताओं का पोषण एवं रक्षण करते हैं तथा दैत्यों से देवताओं की रक्षा करते हैं।

8. दैत्यगुरु शुक्राचार्य

दैत्‍यों के गुरु शुक्राचार्य का वास्‍तविक नाम शुक्र उशनस है। शुक्राचार्य हिरण्‍यकशिपु की पुत्री दिव्या के पुत्र थे। कहते हैं कि भगवान शिव ने ही इन्‍हें मृत संजीवनी विद्या का ज्ञान दिया था, जिसके बल पर यह मृत दैत्यों को पुन: जीवित कर सकते थे। आपको जानकर आश्‍चर्य होगा कि गुरु शुक्राचार्य के शिष्‍यों में जहां सर्वाधिक संख्‍या दैत्‍यों की होती थी वहीं इन्‍होंने गुरुधर्म का पालन करते हुए देवपुत्रों को भी शिक्षाएं प्रदान की। खुद देवगुरू बृहस्‍पति के पुत्र कच ने भी शुक्राचार्य से ही शिक्षा-दीक्षा ग्रहण की थी। साथ ही भयानक दैत्‍यों से अपने देवपुत्र शिष्‍य की रक्षा भी की थी। 

8. गुरु वशिष्ठ

गुरु वशिष्ठ सूर्यवंश के कुलगुरु थे। इन्हीं के परामर्श पर महाराज दशरथ ने पुत्रेष्‍टि यज्ञ किया था, जिसके फलस्वरूप श्रीराम, लक्ष्मण, भरत व शत्रुघ्न का जन्म हुआ। श्रीराम सहित चारो भाइयों ने वेद-वेदांगों की शिक्षा गुरु वशिष्ठ से ही प्राप्त की थी। वहीं वनवास के लौटने के बाद श्रीराम का राज्याभिषेक भी इन्‍हीं के द्वारा हुआ था। गुरु वशिष्‍ठ ने ही वशिष्ठ पुराण, वशिष्ठ श्राद्धकल्प, वशिष्ठ शिक्षा आदि ग्रंथों की रचना की। गुरु वशिष्‍ठ की गणना सप्‍तऋषियों में भी होती है। 

9. आदि शंकराचार्य

दक्षिण-भारत के केरल राज्य के कालडी़ ग्राम में एक ब्राह्मण परिवार शिवगुरु दम्पति के घर आदि शंकराचार्य का जन्म हुआ। असाधारण प्रतिभा के धनी आद्य जगद्‍गुरु शंकराचार्य ने सात वर्ष की उम्र में ही वेदों के अध्ययन किया और पारंगतता हासिल की। छोटी सी उम्र में ही इन्‍होंने अपनी माता से संन्यास लेने की अनुमति प्राप्‍त की और गुरु की खोज में निकल पड़े। सनातन धर्म में मान्‍यता है कि आदि शंकराचार्य भगवान शंकर के ही अवतार थे। 

आदि शंकराचार्य ने ही भारत के चार कोनों पर चार पीठों की स्‍थापना की। इनमें ‘श्रंगेरी' कर्नाटक (दक्षिण) में, ‘द्वारका' गुजरात (पश्चिम) में, 'पुरी' उड़ीसा (पूर्व) में और ज्योर्तिमठ (जोशी मठ) उत्तराखंड (उत्तर) में आज भी मौजूद है। आद्य शंकराचार्य ने मात्र 32 वर्ष की अल्पायु में ही पवित्र केदारनाथ धाम में इहलोक का त्याग दिया।

10. गुरु कृपाचार्य

गौतम ऋषि के पौत्र कृपाचार्य की गणना महाभारत कालीन 18 महायोद्धाओं में होती है। इस भीषण युद्ध में गुरु कृपाचार्य भी जीवित बच गये। कृपाचार्य को चिरंजीवी होने का वरदान भी प्राप्‍त था। भीष्‍म पितामह ने कृपाचार्य को पांडवों और कौरवों को धनुर्विद्या का ज्ञान दिया था। महाभारत का युद्ध समाप्‍त होने के बाद गुरु कृपाचार्य ने पांडव वंश के महा प्रतापी और कलियुग के प्रथम राजा परीक्षित को भी अस्त्रविद्या सिखाई थी। 

अष्‍ट सिद्धि नौ निधि के दाता, अस वर दीन्‍ह जानकी माता''

ये हैं असंभव को संभव बनाने वाली बजरंगबली की 'अष्‍टसिद्धियां'

''अष्‍ट सिद्धि नौ निधि के दाता, अस वर दीन्‍ह जानकी माता''। हनुमान चालीसा में गोस्‍वामी तुलसीदास जी द्वारा लिखे इस दोहे को आपने ना जाने कितनी ही बार दोहराया होगा लेकिन, क्‍या आप जानते भी हैं कि आखिर तुलसीदास यहां किन-किन सिद्धियों की बात कर रहे हैं। आखिर कौन सी हैं वो अष्‍ट सिद्धियां जिनके दाता महाबली हनुमान बताए गए हैं। क्‍या वास्‍तव में ऐसी सिद्धियां भी मौजूद हैं इस संसार में जिनसे असंभव को संभव बनाया जा सकता है। आइए जानते हैं।

अष्‍ट सिद्धियों के प्रदाता बजरंगबली (प्रतीकात्‍मक चित्र)

महाबली हनुमान ना सिर्फ 'अष्‍ट सिद्धियां' प्रदान करते हैं बल्‍कि नौ निधियों के प्रदाता भी मारुतिनंदन ही हैं। आठ प्रकार सिद्धियों के बल पर इंसान ना सिर्फ भय और बाधाओं पर विजय प्राप्‍त करता है बल्‍कि कई असंभव से लगने वाले कार्यों को भी बड़ी ही आसानी से पूरा कर सकता है। 

ये हैं आठ प्रकार की सिद्धियां 

महाबली हनुमान द्वारा उपासकों को प्रदान की जाने वाली आठ प्रकार की सिद्धियां इस प्रकार हैं। (1) अणिमा (2) महिमा (3) गरिमा (4) लघिमा (5) प्राप्‍ति (6) प्राकाम्‍य (7) ईशित्‍व (8) वशित्‍व । आइए, अब इन अष्‍ट सिद्धियों के बारे में थोड़ा विस्‍तार से समझते हैं। 


अणिमा :महाबली हनुमान जी द्वारा प्रदान की जाने वाली ये सिद्धि बड़ी ही चमत्‍कारिक है। इस सिद्धि के पूर्ण हो जाने पर इंसान कभी भी अति सूक्ष्‍म रूप धारण कर सकता है। इस सिद्धि का उपयोग स्‍वयं महाकपि ने भी किया था। हनुमान जी ने इस सिद्धि का प्रयोग करते हुए ही राक्षस राज रावण की लंका में प्रवेश किया था। महाकपि ने अणिमा सिद्धि के बल पर ही अति लघु रूप धारण करके पूरी लंका का निरीक्षण किया था। यही नहीं सुरसा नामक राक्षसी के मुंह में बजरंगबली ने इसी सिद्धि के माध्‍यम से प्रवेश किया और बाहर निकल आये।


महिमा : बजरंगबली द्वारा प्रदान की जाने वाली यह सिद्धि भी अत्‍यंत चमत्‍कारी है। इस सिद्धि को साध लेने वाला मनुष्‍य अपने शरीर को कई गुना विशाल बना सकता है। ये वही सिद्धि है जिसके प्रयोग से मारुतिनंदन ने सुरसा के मुंह से दुगना शरीर विस्‍तार किया था। महिमा सिद्धि के बल पर ही महाकपि ने अपने शरीर को सौ योजन तक लंबा कर लिया था। और तो और लंका के अशोक वाटिका में उदास बैठी माता सीता को वानर सेना पर विश्‍वास दिलाने के लिए भी बजरंगबली ने इस सिद्धि का प्रयोग किया था। 


गरिमा : अष्‍ट सिद्धियों के क्रम में तीसरी सिद्धि है 'गरिमा'। ये वो सिद्धि है जिसके पूर्ण होते ही इसके साधक अपना वजन किसी विशाल पर्वत से भी ज्‍यादा कर सकता है। महाभारत ग्रंथ में उल्‍लेख मिलता है कि अपने बल के घमंड में चूर कुंती पुत्र भीम के गर्व को हनुमान जी ने चूर-चूर कर दिया था। हनुमान जी एक वृद्ध वानर का रूप धारण कर के भीम के रास्ते में अपनी पूंछ फैलाकर बैठे हुए थे। भीम ने देखा कि एक वानर की पूंछ रास्ते में पड़ी हुई है, तब भीम ने वृद्ध वानर से कहा कि वे अपनी पूंछ रास्ते से हटा लें। तब वृद्ध वानर ने कहा कि मैं वृद्धावस्था के कारण अपनी पूंछ हटा नहीं सकता, आप स्वयं हटा दीजिए। इसके बाद भीम वानर की पूंछ हटाने लगे, लेकिन पूंछ टस से मस नहीं हुई। भीम ने पूरी शक्ति का उपयोग किया, लेकिन सफलता नहीं मिली। इस प्रकार भीम का घमंड टूट गया।


लघिमा : चौथी सिद्धि है 'लघिमा'। इस सिद्धि के पूर्ण हो जाने पर साधक अपना भार मयूर पंख से भी हल्‍का कर सकता है। अष्‍ट सिद्धियों के प्रदाता स्‍वयं हनुमान जी ने भी अशोक वाटिका में किया था, जब वह अशोक के पेड़ की शाखाओं में पत्‍तियों के बीच अपने शरीर को बेहद हल्‍का करते हुए राक्षसियों और रावण की नजर से छिपाए रखा था।


प्राप्ति :अष्‍ट सिद्धियों में से पांचवीं सिद्धि है 'प्राप्‍ति'। इसके बल पर साधक भविष्‍य में झांक सकता है और पशु-पक्षियों की भाषा समझ सकता है। सीता माता की तलाश में निकले महाबली हनुमान जी ने इसी सिद्धि को साधते हुए कई जंगली पशु-पक्षियों से माता सीता का पता भी पूछा था। 


प्राकाम्य :छठी सिद्धि है 'प्राकाम्‍य'। यह सिद्धि बड़ी ही अनोखी और अविश्‍वसनीय चमत्‍कार करने की ऊर्जा प्रदान करती है। इसके प्रयोग से साधक पृथ्‍वी की गहराइयों में उतर सकता है, आकाश में उड़ सकता है और मनमुताबकि समय तक पानी के भीतर जीवित रह सकता है। ये वही सिद्धि है जिसके प्रताप के कारण स्‍वयं महाबली हनुमान जी चिरकाल तक युवा रहेंगे। अपनी इच्‍छा से किसी का भी देह धारण कर सकते हैं। 


ईशित्व : सातवीं सिद्धि है 'ईशित्‍व'। इस सिद्धि को प्राप्‍त करने वाले मनुष्‍य में नेतृत्‍व के गुण पूरी तरह से निखर के सामने आते हैं। ईशित्व के प्रभाव से ही महाकपि ने पूरी वानर सेना का कुशल नेतृत्व किया था। इस सिद्धि के कारण ही उन्होंने सभी वानरों पर श्रेष्ठ नियंत्रण रखा। साथ ही, इस सिद्धि से हनुमानजी किसी मृत प्राणी को भी फिर से जीवित कर सकते हैं।


वशित्व : आठवीं और अंतिम सिद्धि का नाम है 'वशित्‍व'। ये सिद्धि अपने साधक को जितेंद्रिय बनाती है। इसके प्रभाव से साधक अपने मन पर पूरा नियंत्रण रख सकता है। ये वही सिद्धि है जिसके बल से इसके साधक किसी को भी अपने वश में कर सकते हैं। इसी के प्रभाव से महाकपि हनुमान ही अतुलित बल के धाम कहे गये हैं। 

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