Sunday, 8 April 2018

योगाग्नि करि प्रगट तब कर्म सुभासुभ लाइ।बुद्धि सिरावै ग्यान घृत ममता मल जरि जाइ॥117 क॥

कुण्डलिनी का प्राणयोग-सूर्यभेदन प्राणायाम प्राण तत्त्व एक है वही ब्रह्माण्ड में व्यापक रूप से संव्याप्त है और ब्रह्माग्नि कहा जात है। वही पिण्ड सत्ता में समाया हुआ है और आत्माग्नि कहलाता है। इस प्रकार एक होते हुए भी विस्तार भेद से उसके दो रूप बन गये। आत्माग्नि लघु है और ब्रह्माग्नि विभु। तालाब में जब वर्षा का विपुल जल भरता है तो वह परिपूर्ण हो जाता है। यह अनुदान न मिलने पर तालाब सूखता और घटता जाता है। पानी में मलीनता भी आ जाती है। जिस प्रकार तालाब को भरा-पूरा और स्वच्छ रखने के लिए नये वर्षा जल की आवश्यकता पड़ती है, उसी प्रकार आत्माग्नि में ब्रह्माग्नि का अनुदान पहुँचाना पड़ता है इसी का नाम प्राणायाम । यों गहरी साँस लेकर फेफड़े के व्यायाम को भी आरोग्यवर्धक प्राणायाम कहते हैं। शरीर शास्त्र की दृष्टि से उसकी उपयोगिता तथा विधि व्यवस्था बताई जाती है साथ ही महिमा का गुण-गान भी किया जाता है। इससे अधिक आक्सीजन मिलती है और श्वास यन्त्रों का व्यायाम होता है, पर अध्यात्म शास्त्र का योग प्राणायाम उससे भिन्न है। उसमें ब्रह्माण्ड व्यापी प्राण की अभीष्ट सफलताओं और आत्मिक विभूतियों के समस्त अवरुद्ध मार्ग खुल जाते हैं ब्रह्म-प्राण को आत्म-प्राण के साथ संयुक्त करने के लिए जहाँ जीवन-क्रम में शालीनता एवं उदारता की सत्प्रवृत्तियों का अधिकाधिक समावेश करने का प्रयास करना होता है वहाँ उपासनात्मक उपक्रमों को अपनाना भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। आहार-विहार से स्वास्थ्य वृद्धि होती है साथ ही दुर्बलता और रुग्णता को निरस्त करने के लिए विशेष चिकित्सा उपचार एवं व्यायाम आदि भी अपनाने की आवश्यकता पड़ती है। प्राण शक्ति के अभिवर्धन में -कुण्डलिनी जागरण में सूर्य वेधन जैसे प्राणायामों की भी आवश्यकता होती है। योगशास्त्र में व्यक्ति-प्राण और ब्रह्म-प्राण के सम्बन्ध और समन्वय की चर्चा इस प्रकार की है- प्राणा वै द्विदेवत्याः एक मात्रा गृह्यतें तस्मात् प्राणा एक नामात्ता द्विमात्र हूयन्ते तस्मात्प्राण द्वन्द्वम्-एते 2।27 प्राण एक है। पर वह दो देवताओं में -दो पात्रों में भरा हुआ है। अगर्भश्च सगर्भश्च प्राणायामों द्विधा स्मृतः । जपं ध्यानं विनागर्भः सगर्भस्तत्समन्वयात्-शिव पुराण “प्राणायाम अगर्भ और सगर्भ दो प्रकार का होता है। जप और ध्यान से युक्त प्राणायाम सगर्भ होता है और इनके बिना अगर्भ कहा जाता है।” तत्साधनं द्वयं मुख्यं सरस्वत्यास्तु चालनम्। प्राणरोधमाधाभ्यासाहज्वी कुण्डलिनी भवेत्-योग कुण्डल्युपनिषद् 1।8 उसके दो साधन मुख्य हैं- (1) सरस्वती (सुषुम्ना) का चालन (2) प्राणरोध । अभ्यास से यह कुण्डली मारे बैठी कुण्डलिनी सीधी हो जाती है। आध्यात्मिक प्राणायाम वे हैं जिनमें ब्रह्माण्डीय चेतना को जीव चेतना में सम्मिश्रित करके जीव सत्ता का अन्तःतेजस जागृत किया जाता है। कुण्डलिनी साधना में इसी स्तर के प्राणयोग की आवश्यकता रहती हैं सूर्य-वेधन इसी स्तर का है। उसमें ध्यान धारणा अधिकाधिक गहरी होनी चाहिए ओर प्रचण्ड संकल्प शक्ति का पूरा समावेश रहना चाहिए। श्वास खीचते समय महाप्राण को विश्वप्राण को-पकड़ने और घसीट कर आत्मसत्ता के समीप लाने का प्रयत्न किया जाता है। श्वास के साथ प्राण तत्त्व की अधिकाधिक मात्रा रहने की भाव-भरी मान्यता रहनी चाहिए। साँस में आक्सीजन की जितनी अधिक मात्रा होती है उतनी ही उसे आरोग्यवर्धक माना जाता है। आक्सीजन की न्यूनाधिक मात्रा का होना क्षेत्रीय प्रकृति परिस्थितियों पर निर्भर है। किन्तु प्राण तो सर्वत्र समान रूप में संव्याप्त है। उसमें से अभीष्ट मात्रा संकल्प शक्ति के आधार पर उपलब्ध की जा सकती है। सूक्ष्म जगत में -अध्यात्म क्षेत्र में श्रद्धा को ही सबसे प्रबल और फलदायक माना गया है। साधनात्मक कर्मकाण्डों का फल परिपूर्ण मिलना न मिलना अथवा स्वल्प मिलना कर्मकाण्डों के विधि-विधानों पर नहीं साधक की श्रद्धा पर निर्भर रहता है। श्रद्धा की न्यूनता ही साधनाओं के निष्फल जाने का प्रधान कारण होता है। जो इसे सुनिश्चित तथ्य को जानते हैं वे सभी साधना उपचारों में गहनतम श्रद्धा का समावेश करने के लिए प्रचण्ड संकल्प शक्ति का उपयोग करते हैं। साँस खीचते समय प्राण ऊर्जा का वायु के साथ प्रचुर मात्रा में समावेश होना, उसका सूक्ष्म शरीर में प्रवेश करना- सुषुम्ना (मेरुदंड) मार्ग से इड़ा धारा (बाम भाग के ऋण विद्युतीय शक्ति प्रवाह) द्वारा मूलाधार तक पहुँचना -वहाँ अवस्थित प्रसुप्त चिनगारी को झकझोरना, थपथपाना जागृत करना यह सूर्य-वेधन प्राणायाम पूर्वार्ध है। उत्तरार्ध में प्राण को पिंगला मार्ग से (मेरुदंड से दक्षिण भाग के धन विद्युत प्रवाह) में होकर वापिस लाया जाता है। जाते समय का अन्तरिक्षीय प्राण शीतल होता है, ऋण धारा भी शीतल मानी जाती है इसलिए इड़ा को -पूरक को चन्द्रवत् कहा गया है। चन्द्रनाड़ी कहने से यही प्रयोजन है। लौटते समय अग्नि उद्दीपन -प्राण प्रहार की संघर्ष क्रिया से ऊष्मा बढ़ती और प्राण में सम्मिलित होती है। लौटने का पिंगला मार्ग धन विद्युत का क्षेत्र होने से उष्ण माना गया है । दोनों ही कारणों से लौटता हुआ प्राण वायु उष्ण रहता है इसलिए उसे सूर्य की उपमा दी गई है। इड़ा, चन्द्र और पिंगला सूर्य है। पूरक चन्द्र और रेचक सूर्य है। ऐसा ही प्रतिपादन साधना विज्ञान के आचार्य करते रहे है। सोई हुई शक्ति का जगाना-लेटी हुई गिरी पड़ी क्षमता को सक्रिय बनाना शक्ति चालन है। यों मुद्रा प्रसंग में एक शक्तिचालिनी मुद्रा भी है और उसका प्रयोग भी कुण्डलिनी जागरण उपचार में किया जाता है। साथ ही शक्ति चालन का अर्थ वह भी है जो कुण्डलिनी जागरण शब्द से प्रति ध्वनित होता है । प्रसुप्त स्थिति की मूर्च्छना जब दूर हो जाती है और प्राण शक्ति प्रखर एवं सक्रिय होती है तो सारे अवसाद अभाव दूर हो जाते हैं । अन्तः स्थिति में उभरी हुई प्रखरता का बाह्य क्षेत्र की बढ़ी हुई तेजस्विता के रूप में परिचय मिलने लगता है। शक्ति के चल पड़ने पर प्रगति के समस्त आधार अग्रगम्य करते हुए दृष्टिगोचर होते हैं- आधारकरले सुप्तां चालयेत्कुण्डलीं दृढाम्। अपानवायुनारुह्य बलादाकृष्य बुद्धिमान्। शक्तिचालनमुद्रेयं सर्वषक्तिप्रदायिनी॥ शिव सं0 मूलाधार चक्र में स्थित प्रसुप्त पड़ी हुई कुण्डलिनी शक्ति को प्राण वायु द्वारा चलाने और जगाने वाली शक्ति चालन क्रिया सर्व शक्ति प्रदायिनी है। विहाय निद्रा भुजगी स्वयमूर्ध्व भवेत्खलु। तस्मादभ्यासनं कार्य योगिना सिद्धिगिच्छता॥ यः करोति सदाभ्यासं शक्तिचालनमुक्तमम्। येन विग्रहसिद्धिः स्याद् अणिमादिगुणप्रदा-शिव संहिता जो योगी सिद्धि की इच्छा से शक्ति चालन का नित्य अभ्यास करता है, उसके शरीर में सो रही सर्पिणी कुण्डलिनी जागृत होकर स्वयं ही ऊर्ध्वमुख हो जाती है । सदा अभ्यास करने पर उसे सिद्धि मिलती है तथा अणिमादि विभूतियाँ प्राप्त हो जाती हैं। कुण्डल्येव भवेच्छक्तिस्तां तु ‘चालयेद्बुधः। स्वस्थानादाभ्रुवोर्मध्यं शक्तिचालनमुच्यते॥ तत्साधने द्वयं मुख्यं सरस्वतयास्तु चालनम्। प्राणरोधमधाभ्यासादज्वीकुण्डलिनी भवेत्-योग कुण्डल्युपनिषद कुण्डली ही मुख्य शक्ति है, ज्ञानी साधक उसका चालन करके दोनों भौहों के मध्य में ले जाता है तो वही शक्ति चालन है। कुण्डलिनी को चलाने के दो मुख्य साधन हैं, सरस्वती का चालन और प्राण निरोध, अभ्यास द्वारा लिपटी हुई कुण्डलिनी सीधी हो जाती है। तस्माडडड चालयेन्नित्यं सुखसुप्त्तामरुधतीम्। तस्याः संचालनेनैव योगी रोगैः प्रमुच्यते॥ येन संचालिता शक्तिः स योगी सिद्धिभाजनम्। किमत्र बहुनोक्तेन कालं जयति लीलया-हठयोग प्रदीपिका इसलिए सुखपूर्वक सो रही अरुन्धती (कुण्डलिनी) का नित्य संचालन आवश्यक है। इस शक्ति चालन से योगी रोगों से मुक्त हो जाता है। जिसने शक्ति-संचालन कर लिया, वह योगी सिद्धि-भाजन है। वह कालजित् कहा जा सकता है। प्राण के प्रहार से अग्नि के उद्दीपन प्रज्ज्वलन का उल्लेख साधना ग्रन्थों में जगह-जगह पर हुआ है। यह वही अग्नि है जिसे योगाग्नि, प्राण ऊर्जा, जीवनी शक्ति या कुण्डलिनी कहते हैं । आग में ऐसा ही ईंधन डाला जाता है जिसमें अग्नि तत्त्व की प्रधानता वाले रासायनिक पदार्थ अधिक मात्रा में होते हैं। कुण्डलिनी प्राणाग्नि है उसमें सजातीय तत्त्व का ईंधन डालने से उद्दीपन होता है। प्राणायाम द्वारा इड़ा-पिंगला के माध्यम से अन्तरिक्ष से खींचकर लाया गया प्राण-तत्त्व मूलाधार में अवस्थित चिनगारी जैसी प्रसुप्त अग्नि तक पहुँचाया जाता है तो वह भभकती है और जाज्वल्यमान लपटों के रूप में सारी जीवन सत्ता को अग्निमय बनाती है। यही कुण्डलिनी जागरण है। अग्नि का उल्लेख मूलाधार स्थित प्राण ऊर्जा के लिए ही हुआ है- आदेहमध्यकटयन्तमग्निस्थानमुदाहृतम्। तत्र सिन्दूरवर्णोऽग्निर्ज्वलनं दषपज्च च-त्रिषिखोपनिषद कटि से निम्न भाग में अग्नि स्थान है। वह सिन्दूर के रंग का है। उसमें पन्द्रह घड़ी प्राण को रोक कर अग्नि की साधना करनी चाहिए। नाभेस्तिर्यगधोर्ध्व कुण्डलिनीस्थानम्। अष्टप्रकृति रुपाऽष्टधा कुण्डलीकृता कुण्डलिनी शक्तिर्भवति। यथावद्वायुसंचार जलान्नादीनि परितः स्कन्धपाष्वषु निरुध्यैनं मुखेनैष समावेष्ट्यं ब्रह्मरन्ध्र योगकालेऽपानेनाग्निना च स्फुरति-षाण्डिल्योपनिषद नाभि से नीचे कुण्डलिनी का निवास है। यह आठ प्रकृति वाली है। इसके आठ कुण्डल है। यह प्राण वायु को यथावत करती है। अन्न और जल को व्यवस्थित करती है। मुख तथा ब्रह्मरन्ध्र की अग्नि को प्रकाशित करती है। तडिल्लेखा तन्वी तपन शषि वैष्वानर मयी। तडिल्लता समरुचिबिद्युल्लेखेनं भास्वती॥ बिजली की बेल के समान, तपते हुए चन्द्रमा के समान, अग्निमय वह शक्ति दृष्टिगोचर होती है। मूलाधारादा ब्रह्मरन्ध्र पर्यन्तं सुषुम्ना सूर्यभा। तन्मध्ये तडित्कोटि समा तृणाल तन्तु सूक्ष्मा कुण्डलिनी। तत्र तमोनिवृत्ति। तर्द्दषनार्त्सव पाप निवृत्तिः-मण्डल ब्राह्मणोपनिषद मूलाधार से लेकर ब्रह्मरन्ध्र तक सूर्य के प्रकाश जैसी सुषुम्ना नाड़ी फैली हुई है। उसी के साथ कमल तन्तु से सूक्ष्म कुण्डलिनी शक्ति बंधी हुई है। उसी के प्रकाश से अन्धकार दूर होता है और पापों की निवृत्ति होती है। देहमध्ये ब्रह्मनाड़ी सुषुम्ना सूर्यरूपिणी पूर्ण-चन्द्राभा वर्तते। सा तु मूलाधारादारभ्य ब्रह्मरन्ध्रा-गामिनी भवति। तन्मध्ये तटकोटिसमानकान्त्या मृणालसूत्रवत् सूक्ष्माङ्गी कुण्डलिनीति प्रसिद्धाऽस्ति तां दृष्टा मनसैव नरः सर्वपापविनाशद्वारा मुक्तो भवति। देह में ब्रह्मनाड़ी सुषुम्ना परम प्रकाशवान है। वह मूलाधार से ब्रह्मरन्ध्र तक जाती है। उसके साथ सूक्ष्म तन्तु में जुड़ी अति ज्वलन्त कुण्डलिनी शक्ति है। उसका भावनात्मक दर्शन करने से मनुष्य सब पापों से और बंधनों से छुटकारा प्राप्त कर लेता है। आधार चक्रनिलयां विसन्तुतन्वी विद्युत्प्रभां सकलमन्त्रमयीं पवित्राम्। योगैकगम्यपरमामृतवर्षधारां सरां महेशसखिकुण्डलिनीं नमामि। मूलाधार चक्र में निवास करने वाली अग्नि रूप , बिजली के समान प्रकाशवान, तन्तु रूप, परम पवित्र, योगियों के लिए गम्य, अमृत वर्षा करने वाली, शिव सहचरी, कुण्डलिनी को नमस्कार। मूलाधारस्थ ब्रह्मयात्मतेजोमध्ये व्यवस्थिता। जीवशक्तिः कुण्डलाख्या प्राणाकाश तैजसी-रुद्र तन्त्र मूलाधार में निवास करने वाली आत्म तेजरूपी अग्नि, जीव शक्ति है। प्राण रूपी आकाश में प्रकाशवान कुण्डलिनी है। जब वह दिव्य अग्नि ऊपर जाती है तो उसकी अनुभूति अन्तः उत्साह के रूप में तो होती ही है साथ-साथ शरीर में भी ऐसा लगता है कि मेरुदंड के निकटवर्ती भाग में अथवा शरीर के अन्य किसी अवयव में स्फुरण जैसी विचित्र हलचलें होती हैं- यथा कुण्डलिनी देहेस्फुरत्यब्ज इवालिनी। तथा संविदुदेत्यन्त मृदुर्स्पशवयोदया-महायोग विज्ञान जब कुण्डलिनी देह में स्फुरण करती है तो त्वचा पर भ्रमर, कमल विचरने जैसे मृदुल दिव्य स्पर्श का अनुभव होता है। अंगे पिपीलिकारोहे यथार्स्पशः प्रतीयते। मेरुदंडे तथा वायोः स्पर्शः स्यादूर्ध्व रोहणो-योग रसायनम् जैसे किसी अंग में चींटी के चढ़ने का स्पर्श प्रतीत होता है, वैसे ही मेरुदण्ड में ऊपर चढ़ने वाले प्राण का स्पर्श प्रतीत होता है। दिनैः कतिपयैरेवभ्यासं कुर्वतो ध्रुवम्। मेरुदंडे विशेत्प्राणों वंशरंध्र यथानिलः-योग रसायनम् कुछ दिन तक इस प्रकार अभ्यास करने पर निश्चय ही प्राण मेरुदंड में उसी प्रकार प्रविष्ट होते हैं, जिस प्रकार बाँस की पोल में हवा। प्राण का अग्नि पर प्रहार-यही है कुण्डलिनी जागरण की प्रधान प्रक्रिया। मेरुदंड के वाम भाग के विद्युत प्रवाह को इडा कहते हैं। नासिका से वायु खींचते हुए उसके साथ प्रचंड प्राण प्रचुर मात्रा में घुला होने की भावना की जाती है। खींचे एक श्वाँस को मेरुदंड मार्ग से मूलाधार चक्र तक पहुँचने की संकल्पपूर्वक भावना की जाती है। यह मान्यता परिपक्व की जाती है कि निश्चित रूप से इस प्रकार अन्तरिक्ष से खींचा गया और श्वाँस द्वारा मेरुदण्ड मार्ग से प्रेरित किया गया प्राण मूलाधार तक पहुँचता है और उस पर आघात पहुँचा कर जगाने का प्रयत्न करता है। बार-बार लगातार प्रहार करने की भावना श्वास-प्रश्वास के द्वारा की जाती है। मेरुदंड मार्ग से मूलाधार तक इडा शक्ति के पहुँचने का विश्वास दृढ़ता पूर्वक चित्त में जमाया जाता है। प्रहार के उपरान्त प्राण को वापिस भी लाना पड़ता है। यह वापसी दूसरी धारा पिंगला द्वारा होती है। पिंगला मेरुदंड में अवस्थित दक्षिण पक्ष की प्राण धारा को कहते हैं। इड़ा से गया प्राण मूलाधार की प्रसुप्त सर्पिणी महा अग्नि पर आघात करके -झकझोर कर -पिंगला मार्ग से वापिस लौटता है। यह एक प्रहार हुआ। दूसरा इससे उलटे क्रम से होगा। दूसरी बार दाहिनी ओर से प्राण वायु का जाना और बाई ओर से लौटना होता है। इस बार पिंगला से प्राण का प्रवेश और इडा से वापिस लौटना है। प्रहार पूर्ववत्। एकबार इडा से जाना-पिंगला से लौटना। दूसरी बार पिंगला से जाना इडा से लौटना । यही क्रम जब तक प्राणायाम प्रक्रिया चलानी हो तब तक चलना चाहिए। इसे अनुलोम-विलोम क्रम कहते हैं। यही कुण्डलिनी जागरण के लिए प्रयुक्त होने वाला सूर्यभेदन प्राणायाम । सूर्यभेदन प्राणायाम का महत्त्व माहात्म्य बताते हुए हठयोग प्रदीपिका में कहा गया है- कपाल शोधनं वात दोषघ्नं कृमि दोषंत्हृतम्। पुनः पुनरिदं कार्य सूर्यवेधन मुत्तमम्। यह कपाल शोधन, वात रोग निवारण, कृमि दोष विनाशक है। इस सूर्यभेदन प्राणायाम को बार-बार करना चाहिए। ----***----

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