Saturday, 7 April 2018

Purusha अवधि चेतना धातु 

ISSN 2249-5967   सुषमा शर्मा सम्पादक SEARCH Toggle navigation कबीर के मायने CATEGORY : आवरण 01-Jun-2016 12:00 AM 1709 जिन शब्दों के पीछे शा·ात सत्य हैं शक्ति और प्रभाव उन्हीं में होता है। वे ही शा·ाती पाकर त्रिकालजयी होते हैं और समय का वह काल खण्ड स्वयं इनके ही नाम हो जाता है। तैसे ध्यान धरहु जिन, बहुरि न धरना। ऐसेहि मरहु कि बहुरि न मरना। न तन का भार, न मन का भार, चेतना का कोई भार नहीं, कबीरा वही निर्भार चेतना है अतः उसे क्या, किसका और कैसा डर? जा मरने से जग डरे, सो मेरो आनंद, कब मरिहौं कब पाइहौं, मिलिहौं परमानन्द। आत्म-रमण करता हुआ भी कबीरा माया ग्रस्त जीव को हर संभव दृष्टांत से, तिनके से लेकर माटी के उपादानों से ज्ञान अमृत निकाल कर, सोई चेतना को जगाने में रत है। खाय, पकाय, लुटाय कै, कर लै अपना काम, चलती बिरिया रे नरा , संग न चले छदाम। घर रखवारा बहिरा , चिड़िया खार्इं खेत, आधा परधा उबरै,  चेत सके तो चेत। कामी तरै, क्रोधी तरै, लोभी की गति होय, सलील भक्त संसार में, तरत न देखा कोय। मानुष से पशुआ भया, दाम गाँठ से खोय, अवगुण कहू शराब का आपा अहमक हो। खुश कहना है खीचरी, जाहि परा टुक नोन मांस पराया खाय करि, गरा कटावै कौन? साँचा धन प्रभु सिमरन है जो जीव के साथ जाता है। जोड़ी हुई माया को साथ ले जाते कभी किसी को देखा है? इस आशय को कितने , सहज, सरल शब्दों में मार्मिक सन्देश -- कबीरा सो धन संचिये, जो आगे को होय सीस चढ़ाए पोटली , जात न देख्या कोय। एक निरासक्त संत को केवल अपने मोक्ष की नहीं समग्र मानवता की चिंता है। आडम्बर व कुप्रथाओं के प्रति गहरा आक्रोश है। जीवन का कौन सा पक्ष है जो कबीर ने नहीं छुआ, जीवन-मरण, आसक्ति-विरक्ति, शत्रु-मित्र, सुख-दुःख, ब्राहृ-जीव-प्रकृति, न·ारता-अमरता, मानव प्रवृति-चरित्र आदि। जो उग्या सो अंत सो, जो फूला कुम्हलाय। जो चिड़िया सो डहि पड़े, जो आया सो जाय।। आज जब समाज में साम्प्रदायिकता, भेदभाव, हिंसा, उत्पात, अशांति है, एक तरह से पूरी मानवता चीत्कार कर रही है, कबीर अब भी प्रासंगिक हैं। जितने भी प्रमाण कबीर के जीवन विषयक मिले हैं उनके अनुसार वे कहीं पढ़े नहीं थे अतः सिद्ध होता है कि ज्ञान का सम्बन्ध ग्रंथों से नहीं आत्म-बोध से है। प्र¶न है कि आज आधुनिकता की अंधी दौड़ में कौन कबीर को सुन रहा है, भौतिक दौड़ का हिस्सा बने सब भाग रहे हैं। किसी ने शहर, किसी ने देश छोड़ा, वासी-प्रवासी हो गए किन्तु अपनी नैतिक सम्पदा यहीं छोड़ गए। अर्थ के आगे ये व्यर्थ हो गए, पा¶चात्य सभ्यता में स्वयं को रंग लेना गर्व का विषय हो गया, आधुनिकता का पर्याय हो गया, सभ्यता का मापदंड हो गया। मानसिकता इतनी दास हो गयी कि किसी तथ्य की पुष्टि के पहले हम लिखते हैं -- पा¶चात्य विद्वानों-वैज्ञानिकों ने पुष्टि की है -- तो हम बड़े आ·ास्त हो जाते हैं --- जैसे हल्दी और योग -- पा¶चात्य वैज्ञानिकों ने कहा तो हल्दी - हेल्दी है अब तक ये बेकार थी, योग - योगा बन गया तो मन भा गया। किन्तु जब आगामी पीढ़ी ने वहीं जन्म लिया, पहनावा, खानपान, व्यवहार जब पूरा पा¶चात्य हुआ तो अविभावकों को चिंता हुई। जब वृद्धाश्रमों में माता-पिता जाने लगे, बच्चे अवज्ञा और अनुशासनहीन हो गए, स्वतंत्रता उद्दंडता में बदल गयी, मनमानी शादियाँ होने लगीं तो अपने नैतिक आदर्श याद आने लगे। अब पैसों भरी नाव तो है किन्तु पतवार खो गयी है। पतवार ही नौका पार लगाती है जिसे हम इसी किनारे छोड़ गए। जीवन तो अंदर है बाहर केवल आवरण है। भूल गए कि चारित्रिक दृढ़ता ही अंदर से सम्राट बनाती है। कदाचित इसीलिये आज मंदिरों में रविवार को भारतीय संस्कृति के कुछ मूल सूक्त और प्रार्थनाएं सीखने का क्रम आरम्भ हुआ है। जहां प्रवासी माता-पिता रविवार को अपने बच्चों को लेकर जाते हैं। वैसे भी दैनिक वार्ता के अनन्तर जैसे हमारे गुरुजन, परिजन करते थे, कबीर के दोहे दोहरा सकते हैं। जो इतनी सरल भाषा में है कि सरलता से याद और आत्मसात हो जाते हैं। इनमें छुपे मर्म को रुचिकर विधि से उजागर कर रुचि जगाने से मनोभूमि में बीज पड़ते ही हैं जो समय आने पर जीवन में अंकुरित भी होते हैं। कबीर के एक-एक दोहे में जीवन के अकाट्य सत्य समाये हैं और इन संदेशों को कबीर ने गूढ़ ग्रंथों की क्लिष्ट भाषा से नहीं सिखाया। जनमानस की भाषा, दिनचर्या में प्रयुक्त होने वाली सामान्य सी वस्तुओं को अध्यात्म और नैतिकता से जोड़ देना अचंभित करता है। आज तो टीचर यदि बच्चे को ज़रा सा गुस्से में छू भी दे तो बच्चे को यह अधिकार है कि वह पुलिस बुला ले कितना गजब का अंतर है अब और तब में। तब गुरु गोविन्द से बढ़ कर थे आज गुरु का मित्र की तरह नाम लेते हैं और यह मित्रता किस रूप में बदल जाती है आज सब जानते हैं। अब एक और विस्मित करने वाली बात है कि जब बच्चे ग्रेजुएशन करने जाते हैं तो माता-पिता को उनका परीक्षा फल जान पाने का भी अधिकार नहीं है, बच्चे अपने आप बता दें तो यह उनकी कृपा है किन्तु आप क़ानूनन पूछ नहीं सकते हैं। लगता है कि आज भौतिकता में आकंठ डूबे लोगों को कबीर की बातें खीर में आये कंकण के समान हैं। जैसे आधुनिकता के नाम पर सबको सभ्यता और संस्कृति की दुर्गति करने का अधिकार सा मिल गया है। नैतिक पतन की शर्त पर होती हुई प्रगति तो प्रगति के नाम पर दुर्गति है जो "नैतिक प्रलय' के युग में हमें ले जा रही हैं। आज जड़ता के कारण व्यक्ति वस्तु हो गया है अतः उसका प्रयोग भी वस्तु की तरह ही हो रहा है। मनुष्यता का सौभाग्य है कि राह दिखाने कबीर की वाणी अब भी मौजूद है। Share Tweet डॉ. मृदुल कीर्ति, अविस्मरणीय कबीर कबीर का समाज ALERT     CATEGORY शिकागो की डायरी न्यूयॉर्क की डायरी चीन की डायरी सिंगापुर की डायरी बातचीत स्मरण यात्रा संस्मरण अनुवाद हाइकू ग़ज़ल सम्पादकीय मुद्दा तथ्य परम्परा कम्पैक्ट फीचर नजरिया समसामयिक संस्मरण पुस्तक अंश चिन्तन किताब अभिमत रपट वर्षा स्मृति पर्यटन प्रतिक्रिया स्वराज-स्मृति पुस्तक-अंश पुस्तक-चर्चा संकलन अपनी बात आवरण विशेष शब्द चित्र सामयिक विमर्श 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