Friday, 6 April 2018

शक्तिचालिनी मुद्रा 

Daily Yoga 4 Health Tuesday, 14 June 2016 शक्तिचालिनी मुद्रा शक्तिचालिनी मुद्रा  मुद्राओं का क्रम जैसे - जैसे आगे बढ़  रहा है। सुक्ष्मता का स्तर भी उतना ही बढ़ रहा है।हठयोग प्रदीपिका में वज्रोली मुद्रा के साथ सहजोली व अमरोली मुद्रा का वर्णन है।  दोनों मुद्राये ही वज्रोली मुद्रा की सहयोगी मुद्रा है।  अन्तिम मुद्रा के रुप में शक्तिचालिनी मुद्रा का वर्णन है।इस मुद्रा का वर्णन हठयोग के सभी ग्रंथो जैसे घेरण्डसंहिता व शिवसंहिता आदि ग्रंथो में किया गया है।   शक्तिचालिनी,शक्ति अर्थात कुंडलीनी चालिनी अर्थात चलाने वाली कुंडलीनी को चलाने वाली मुद्रा को शक्ति चालिनी  कहते है।  हठयोगप्रदीपिका व घेरण्डसंहिता में वर्णित शक्ति चालिनी मुद्रा में कुछ अंतर है।    हठयोगप्रदीपिका मैं कहा गया है की - शक्ति चालिनि मुद्रा में कुण्डलिनी का चालन व उत्थान किया जाता है।  यह क्रिया दो क्रम में की जाती है।   "अवस्थिता चैव फनावती सा प्रातश्च सायं प्रहरार्धमातरम।  प्रपुर्य सुर्यात् परिधानयुक्त्या प्रगृह्य नित्यं परिचालनीया। "  प्रातः सायं आधा पहर अर्थात डेढ़ घंटे सुबह व डेढ़ घंटे शाम को पिंगला नाड़ी( दाहिने नाक से) से पूरक करके परिधानयुक्ति से मूलाधार स्थित कुण्डलिनी को चलाना चाहिए।   "उधर्व वितस्तिमात्रं तु विस्तारं चतुरङ्गुलम।  मृदुलं  धवलं प्रोक्तं वेष्टिताम्बरलक्षणम्।। " मूलस्थान (गूदामूल से) एक बित्ता (9 इंच) ऊंचाई पर चार अंगुल (3 इंच) लम्बाई चौड़ाई व मोटाई वाला वस्त्र में लिपटे हुए के समान, सफ़ेद व कोमल एक नाड़ी केंद्र होता है।जिसे कंद कहा गया है।   "सति वज्रासन पादौ कराभ्यां धारयेद दृढं।  गुलफदेशसमीपे च कंदं तत्र  प्रपीडयेत।।  " व्रजासन में बैठ कर दोनों हाथो से पाँवो के टखनों को दृढ़ता से पकड़कर उससे कंद को जोर से दबाये।   इस प्रकार कुण्डलिनी को चलाने की क्रिया की जाती है।   और उसके  "कुर्यादनन्तरं भस्त्रां कुंडलीमाशु बोधयेत।।"   अर्थात अनन्तर भस्त्रिका कुम्भक करते है।जिससे कुण्डलिनी शीघ्र जगती है,अर्थात उसका उत्थान होता है।  उसके बाद  "भानोराकुच्चन कुर्यात कुंडलीं चालयेत्तत:।।"  नाभि प्रदेश स्थित सूर्यनाडी का (अर्थात नाभि का) आकुच्चन कर कुण्डलिनी को चलावे।    विशलेषण : आम साधक इस मुद्रा का अभ्यास कर ही नहीं सकता है। प्रत्येक वह साधक जिसमे योग का कोई भी बाधक तत्व अधिक भोजन, अधिक श्रम, अधिक बोलना, नियम पालन में आग्रह, अधिक लोकसंपर्क तथा मन की चंचलता उपस्थित है, वह इस मुद्रा की सिद्धि नहीं कर सकता और उसे करनी भी नहीं चाहिए।   इस मुद्रा में कुण्डलिनी की दो अवस्थाओं का वर्णन है।  चालन तथा उत्थान वास्तव में ये कुण्डलिनी या प्राण के ऊपर चलने की दो अलग - अलग अवस्थाएं है।  चालन में प्राण का मेरुदण्ड में ऊपर चढ़ने का अनुभव होता है।  और उत्थान में यह अनुभव बहुत तीव्र, गहरा और लय में  स्थिर हो जाता है।   परिधानयुक्ति के सम्बन्ध में सभी ग्रंथो में गुरु द्वारा सिखने का निर्देश है। (यह एक गुप्त युक्ति है।गोपनीय रखने योग्य है।  इसलिए यहाँ वर्णन नहीं किया जा सकता है गुरु द्वारा जानकर इसका अभ्यास करे)अर्थात डेढ़ घंटा सुबह व डेढ़ घंटा शाम पिंगला नाड़ी से पूरक करके कुम्भक करे और उसके बाद  गुरु द्वारा बताई गयी युक्ति से कुण्डलिनी को चलाए।   उदर में पेडू के भीतर मूलाधार से 9 इंच उपर एक नाड़ी केंद्र होता है।जिसे कंद कहा गया है।गुरु द्वारा बताये अनुसार इस कंद को दबाने से कुण्डलिनी तेजी से ऊपर की तरफ चलती है।   हठयोग प्रदीपिका में वर्णित 10 मुद्राओं में यह अंतिम मुद्रा थी।   इसके बाद घेरण्ड संहिता में वर्णित मुद्राओं का वर्णन किया जायेगा।   लाभ  " तस्या सच्चाल्नेनैव योगी रोगोः प्रमुच्चते।।"   कुण्डलिनी के चलाने वाले भाग से ही साधक रोगो से छुटकारा पा  जाता है।   " मुहूर्तद्वयर्यत निर्भयं चालनदसो।  उर्ध्वमाकर्षयतेकिच्चित सुषुम्नायां  समुदगता।  " दो मुहूर्त तक निर्भय होकर चलाने से वह शक्ति सुषुमा में प्रवेश कर जाती है।  viky asok gandhi gandhi पर 00:23:00 Share ‹ › Home View web version Powered by Blogger.

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