Saturday, 7 April 2018
सरल क्रिया-योग
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सरल क्रिया-योग में आपका स्वागत है
वर्तमान समय में लोगों के पास समय की कमी है - महावतार बाबा जी के बताए क्रियायोग में लोग उतना समय नहीं दे पाते। अतः योग की सहजता के लिए यहाँ पर योग के बारे में सरल-योग बताया गया है जिसे मैंने सरल क्रियायोग नाम दिया है। अतः सभी कोई इसका लाभ उठा सकते हैं। फिर आप चाहें तो बाबा जी के क्रियायोग को सहजता से अपना सकते हैं। यहाँ बताये गए सभी अभ्यास मूल क्रियायोग की आरंभिक सीढ़ी है।
अपनी इच्छाओं के अनुसार पृष्ठ पर जाएँ -
सर्व-प्रथम क्रियायोग की आवश्यकता को समझें - इसे समझने के लिए मुख्य पृष्ठ में प्रकाशित लेख को मनोयोग से पढ़ें
1. मन की चमत्कारिक शक्तियों के रहस्यों को जानने के लिए मन की शक्ति पर क्लिक करें
2. देवी-देवताओं के अस्तित्व को समझने के लिए देवताओं का अस्तित्व पर क्लिक करें 3. महावतार बाबा के बताए गए १८ योगाभ्यास और कुछ यौगिक क्रियाओं को समझने के लिए 18 योगाभ्यास पर क्लिक करें
4. गुरु की आवश्यकता और उनके महत्व को समझने के लिए गुरु का महत्व पर क्लिक करें
5. योग-ध्यान से सम्बंधित बातों के लिए ध्यान की विधि पर क्लिक करें
6. क्रियायोग को समझने के लिए क्रियायोग पर क्लिक करें
7. महावतार बाबा जी के बारे में जानने के लिए महावतार बाबा पर क्लिक करें
8. गीता के रहस्यों को समझने के लिए गीता का सत्य पर क्लिक करें
9 . सेतु विक्रम जी की अनमोल कृतियों को देखने के लिए अनमोल लेख-माला पर क्लिक करें
10. मृत्यु के समय आत्मा शरीर को किस प्रकार छोड़ रही है -इसकी सच्ची विडियो देखने के लिए आत्मा का शरीर त्याग पर क्लिक करें
11. महान क्रियायोगियों तथा अन्य योगी-संतों की तस्वीर देखने के लिए फोटो-एल्बम -1 पर क्लिक करें
12. वर्तमान क्रियायोगियों तथा अन्य योगियों की तस्वीरों के लिए फोटो एल्बम -2 पर क्लिक करें
13. वर्तमान अध्यात्मवादी तथा अन्य मित्रों की तस्वीरों के लिए फोटो-एल्बम-3 पर क्लिक करें
14. १४. संपर्क करने के लिए संपर्क करें पर क्लिक करें
मूल क्रियायोग के लिए पर जाएं - http://www.sarvsidhyoga.com/
सरल क्रिया-योग में आपका स्वागत है
क्रियायोग की आवश्यकता
प्राचीन काल में समस्त ऋषि एवं मुनि गृहस्थ थे , उन्होनें गृहस्थाश्रम में rah कर साधना द्वारा जिस तत्व की प्रत्यक्ष अनुभूति प्राप्त की थी , वह इन दिनों अबतक हजारों वर्षों के भीतर भी उपलब्ध नहीं। लेकिन बाबा जी के क्रियायोग द्वारा कोई भी योग्य व्यक्ति गृहस्थ- आश्रम का आजीवन पालन करते हुए आध्यात्मिक जगत का सन्धान कर सकता है , वह निःसन्देह इस युग में अन्य किसी भी माध्यम से सम्भव नहीं। यह सब अनुभव का विषय है , अनुमान का नहीं। यहां पांडित्य के लिए कोई गुंजाइश या अवकास नहीं। हमारे एक परम मित्र प्रदीप कुमार राजयोगी बड़े ही सरल भाषा में इस विषय को स्पष्ट कर सकते थे पर वे आज का भार मुझ पर ही छोड़ दिए। अगर कोई गूंगा - बहरा है तो वह भी आध्यात्मिक जगत में प्रवेश कर सकता है। एवं प्रत्यक्ष अनुभूतियों के माध्यम से ईश्वर तत्व का अंतरंग और बहिरंग पक्ष , सब कुछ देख सुन और समझ सकता है .इसमें कोई संदेह नहीं।
हजारों वर्ष पहले आर्य-ऋषियों ने जिस साधना - मार्ग को दिखाया , कालांतर में वह लुप्त-प्रायः हो गया। कुछ-कुछ साधना -प्रणाली बिज -मन्त्र के रूप में रूप में सुरक्षित हैं , किन्तु समय के उलट-फेर में साधना की क्रियाएं लुप्त हो गयी , केवल बिज-मन्त्र रह गए। परिणाम हुआ कि साधना की क्रियाओं के लुप्त हो जाने से बिज-मन्त्र निष्क्रिय एवं मृत-प्रायः हो गए। उस ओर किसी का ध्यान ही नहीं रहा। किन्तु उन क्रिया-हीन बीज-मन्त्रों को वर्तमान काल में गुरु , शिष्य के कान में दे देते हैं और इस तरह कान फुंकने से ही दीक्षा हो गयी। अतः क्रिया या प्रक्रिया का यथार्थ परिचय न होने के कारण न तो शिष्य का उपकार हुआ और न गुरु का। इस प्रकार मन्त्रों की जानकारी से वंश-परंपरा द्वारा गुरुगीरी की जा सकती है या मठाधीश और महंत हुआ जा सकता है और साधारण सरलमना लोगों को आसानी से बेवकूफ बनाया जा सकता है। धर्म के नाम पर यह खिलवाड़ और व्यवसायिकता की स्थिति को अपने देश में देख कर कबीर ने अत्यन्त दुःख के साथ कहा है –
कान फुंकने का गुरु और है ,
बेहद का गुरु और ,
बेहद का गुरु जो मिले ,
पहुंचा देवै ठौर .
ठौर का अर्थ होता है -धाम। श्री कृष्ण के शब्दों में - " जहां जाने या पहुँचाने पर फिर पुनरावर्तन नहीं होता , वही मेरा धाम है। " क्रियायोग एक मात्र साधन है जो व्यक्ति मुक्ति पाना चाहता है इस युग में। क्रियायोग उस स्थिति तक ले जाता है जहां सुख और आनंद ही व्याप्त है। इसके अलावा व्यक्ति को और कुछ भी इच्छा बाकि नहीं रह जाती। अतः उसका पुनर्जन्म नहीं होता।
" मैं अनासक्त हूँ " यह मौखिक रूप से कहने पर तो अनासक्त नहीं हुआ जा सकता। आखिर अनासक्त होंगे कैसे ? इस प्रश्न की भूमिका में पहले यह समझना होगा कि आसक्ति आती है कहाँ से ? उसकी उत्पत्ति कहाँ से होती है ? यह एक तथ्य है की प्रत्येक जीवधारी में प्राण स्थिर रूप में वर्तमान है। उस स्थिर प्राण के चंचल होने पर मन की उत्पत्ति होती है जिसे जीव का चंचल मन कहा जाता है। इस चंचल मन को ही जीव मन कहा जाता है। इस चंचल मन को ही जीव , मन के रूप में जानता-मानता है। उसी चंचल मन से ही आसक्ति की उत्पत्ति होती है। तो फिर आसक्ति शून्य होने के लिए मन को निर्मना स्थिति में लाना होगा . अर्थात मन शून्य होना होगा। किस उपाय से मन-शून्य हुआ जा सकता है अर्थात मनन तत्व का किस प्रकार नाश किया जाए , उसका या मानव कौशल गीता एवं पांतजल योग-दर्शन में स्पष्ट रूप से वर्णित है। किन्तु वर्तमान काल में उस साधन-कौशल को प्रत्यक्ष करने वाले का अभाव है। ( एक मात्र रजनीश जी ने इसे काबू करने का प्रयत्न किया था अपने अंतर्ज्ञान से क्यों कि क्रियायोग के बारे में उनका अच्छा अध्ययन था , किन्तु उन्होने अपनी विधि निकाली जो उनके ही काम में आई। पर उनका अवलोकन कर सभी साधक उनकी तरह नहीं कर पाए। लेकिन क्रियायोग से अंतर्ज्ञान की उत्पत्ति सभी साधक को होती है और सभी अपनी प्रगति का मार्ग ढूंढ लेते हैं और उनकी क्षमता में कई गुणा वृद्धि कर लेते हैं और समाधी की सुखद यात्रा तय कर लेते हैं )
इन समस्त शास्त्रों एवं ग्रंथों की व्यवस्था या टीका अनेक विद्यव्रति श्रेष्ठ विद्वानों एवं पंडितों ने प्रस्तुत की है। दार्शनिक व्याख्या , बौद्धिक व्याख्या , शास्त्रीय व्याख्या जैसी आदि अनेक व्याख्याएं हैं किन्तु साधना द्वारा अनुभवगत या उप्लब्धिगत व्याख्याएं प्रायः किसी ने नहीं प्रस्तुत की है। जिन समस्त महयोगियों या महापुरुषों ने साधना के द्वारा प्रत्य्क्ष अनुभव प्राप्त किया है उन्होने सम्भवतः जान-बूझकर ही कुछ भी आभास नहीं दिया , क्यों कि वे जानते थे कि जो साधन सापेक्ष एवं अनुभवगम्य है उसे मौखिक रूप से या लिखकर समझने से , कौन समझेगा ? जिस प्रकार चीनी स्वयं न खाकर या चख कर , क्या दूसरों की बात सुनकर चीनी खाने का स्वाद समझ में आ सकता है ?- कालांतर में यह विज्ञानसम्मत साधन कौशल लुप्त होने के उपक्रम में जुड़ गया। मानव इच्छा के प्रबल होने के कारण एक अद्भुत और पूर्णतः विज्ञानसम्मत विद्या का जन्म हुआ जिसे महावतार बाबा जी ने प्रदान किया है। ( महावतार बाबा जी का परिचय जानने के लिए या क्रियायोग के बारे जानने के लिए गूगल का सर्च की सहायता ले सकते हैं। ) यह मन का ही चमत्कार है जो एक विज्ञानसम्मत अत्यन्त प्रभावी क्रिया ( क्रियायोग ) प्रत्यक्ष हुआ है। इस क्रियायोग को फ़ैलाने के कार्यों में बाबा जी के परम शिष्य श्यामाचरण लाहिड़ी महाशय का भरपूर योगदान रहा।
क्रियायोग में कुछ योगाभ्यास की जरुरत पड़ती है क्यों कि मानव- शारीर सिर्फ एक देह ही नहीं है -एक बहुत ही पवित्र मंदिर है जहां आप रहते हैं। इसकी देखभाल तो करनी होगी।
हम ईश्वर को बैकुंठ में खोजते हैं , क्षीर-सागर में ढूंढते हैं , तीर्थ , मंदिर , और मस्जिद में तलाशते हैं , किन्तु अपने sharir के भीतर भू-मध्य के स्थान पर जो सदैव विराजमान हैं , उसका पता नहीं जानते और उसे ढूंढने का आग्रह भी नहीं जाग्रत होता , जब कि इस देह -पर के भू-मध्य-स्थान में वह प्रत्यक्ष देवात्मा विराजमान हैं . उसके दर्शन करने की बात सभी ऋषियों ने एक वाक्य में व्यक्त किया है और उसकी साधना पद्द्यती और कौशल प्राप्त करने का मार्ग प्रदर्शित किया है , किन्तु कालांतर में वह लुप्त हो गया। उसका प्रधान कारण साधन सापेक्षता है , क्यों कि इस साधन को संपन्न करने में कुछ समय धैर्य की जरुरत होती है जिसे कोई करना नहीं चाहता। उसका भी एक मुख्या कारण है , इन दिनों कुछ ऐसा युग -प्रचलन ही है अनेक गुरु इस प्रकार प्रचार करते हैं कि सर पर हाथ रखते ही समाधी लग जाती है , मन स्थिर होता है और क्या -क्या बहुत कुछ होता है। इस वजह से कोई समय नष्ट नहीं करना चाहता। किन्तु तनिक गहराई से विचार करने पर सभी समझ सकते हैं कि जिसे प्राप्त करने के लिए पृथ्वी या संसार की सारी सम्पदा के त्याग की आवश्यकता है , उसे इतनी सहजता से कैसे प्राप्त किया जा सकता है। यह बात सभी को माननी होगी कि इस देह-मंदिर में ऐसा एक देवता है जो चित-स्वरुप में जीवात्मा के नाम से भू-मध्य स्थान में विराजमान है। ऐसी एक सत्य वस्तु का संघान न करके व्यर्थ ही भरमते , भटकते रहते हैं। ब्रह्मा , विष्णु और महेश के बारे में हम सुनते आए हैं कि इन तीनों देवों को भी परदे की आड़ में रहकर जो नित्य नचाते हैं , वे किसी दिन भी बाहर नहीं आते , और आएँगे भी नहीं , फिर भी उन्हें खोजना या सत्य -वस्तु का संघान करना ही तो जीवन का परम आनंद है।
हम आर्य-धर्मावलम्बी भारतवासी , ब्रह्मा , विष्णु , शिव या महेश को मानते आए हैं , किन्तु संसार के अन्य लोग इन सब देवताओं का नाम तक नहीं जानते। लेकिन , सृष्टि , स्थिति , लय तथा सतव , रज , तम - इन गुणों की कोई उपेक्षा नहीं कर सकता। क्यों कि ये तीनों स्थितियां एवं गुण कहाँ नहीं हैं। यानि सभी वस्तुओं में सर्वत्र इनकी व्याप्ति है। "ये तीनों इलेक्ट्रॉन , न्यूट्रॉन और प्रोटोन के नाम से जाने जाते हैं जो कण-कण में हैं। " इनके कार्यों शक्तियों के अनुसार साकार मूर्ति की कल्पना दार्शनिक तत्व के माध्यम से से की गयी है। यदि किसी प्रकार मन स्थिर हो जाता है तो इन रूपों का दर्शन प्राप्त होता है। यह मन की स्थिरता की एक अवस्था अवश्य है और कुछ आभास भी मिलता है, किन्तु यह मायिक है , भ्रमात्मक है। क्यों कि ये रूप यदि सत्य और नित्य होते तो किसी भी देश के निवासी या धर्मावलम्बी व्यक्ति मन के स्थिर होते ही इनका दर्शन प्राप्त करते। किन्तु ऐसा नहीं होता। , बल्कि उनका जिस विषयों के प्रति बोध जाग्रत है या उनकी जो मन में बनी धारणा है , उसी का ही दर्शन होता है। इस यह एक मानसिक अवस्था का बिगड़ा स्वरुप है। इसमें व्यक्ति को काल्पनिक देवी-देवता का दर्शन होता है। इस मामले की दवा होमियोपैथी में - लैकेसिस 1000 , ओपियम २०० , स्त्रमोनियम २०० और हायोसाइमस २०० आदि दवाएं होती हैं। यदि वास्तविक सच्चाई होती तो ये दवाएं काम नहीं करती। - लेकिन भू-मध्य के स्थल पर मन स्थिर होने पर जिस जीवात्मा या कुठस्त ( मस्तक पर जहां बिंदी लगायी जाती है ) ब्रह्म का दर्शन होता है , वह सब के लिए सुलभ होगा और संसार के समस्त साधकों को भी उसका दर्शन प्राप्त होता है। यह भी एक कारण है क्रियायोग के पूर्ण वैज्ञानिकता का। इसी कारण भारत से ज्यादा विदेशों में क्रियायोग का प्रचलन ज्यादा है।
)
क्रियायोग में समस्त इंद्रियद्वार बलपुरवक रुद्ध कर के मन को चारो और से समेत कर भ्रूमध्य ( मस्तक पर , जहां चन्दन लगाया जाता है ) में स्थापित करके निर्दिष्ट मार्ग से अभ्यास करते-करते अविज्ञय आत्मा का दर्शन पा कर साधक कृत्य-कृत्य हो जाते हैं। " रथं च वामन दृट्वा पुनर्जन्म न विद्यते " अर्थात इस शारीर रूपी रथ में स्थित उस वामन देव् अथवा अंगुष्ठ -प्रमाण पुरुष का दर्शन कर के जन्म को सफल करते हैं। इस पुरुष का जो दर्शन प्राप्त करते हैं , उसका पुनर्जन्म नहीं होता है। वे हमेशा के लिए मुक्त हो जाते हैं। पुरुषोत्तम युग के यही वह पुरुष हैं जिनका दर्शन पाकर सधत जीवन कृतार्थ हो जाता है। कबीर दास ने सुन्दर ढंग से इस रहस्य को व्यक्त किया है -
" मरते-मरते जग मरा , मरना न जाना कोय।
ऐसा मरना कोई न मरा , जो फिर न मरना होय। .
मरना है दुइ भांति का जो मरना जाना कोय।
राम दुआरे जो मरे , फिर न मरना होय।
अर्थात , संसार में प्रतिदिन लोग मर रहे हैं , किन्तु हाय , अफ़सोस है कि ऐसा मरण किसी का न हुआ , की पुनः मृत्यु न हो। संसार में मृत्यु दो प्रकार की होती है -एक तो साधारण मृत्यु जो नित्य हो रही है और एक है असाधारण मृत्यु जिसे " रामदुआर " की मृत्यु कहते हैं , अर्थात राम के दरवाजे पर मृत्यु। साधारण आदमी सोचते हैं - यह किसी राम-मंदिर के समक्ष मरने की बात है।- "राम" शब्द या उच्चारण को परंपरा ने आगे चल कर त्रेता-युग के राम को समझने की भूल करावा दी है। - यह रामदुआर क्या है। - इसी रहस्य को महावतार बाबा जी के परम शिष्य लाहिड़ी महाशय ने बताया हैकि " रामदुआर ' अर्थात भ्रूमध्य के स्थान में कूटस्थ प्राण एवं मन को स्थापित करके जो उस परम पुरुष का दर्शन करते-करते देह त्याग देते हैं , उनका पुनर्जन्म नहीं होता। यह एक अत्यन्त वास्तविक और सच्ची साधना है सिर्फ बात ही नहीं है। जो जीवनभर अभ्यास करते हैं , उन्हीं के पक्ष में यह सम्भव है। यही तो क्रियायोग का उद्देश्य और फल है। साधना के काल में ही उनकी कुंडली शक्ति इस तरह जाग्रत हो उठती है की वह कोई भी चमत्कार करने में कामयाब होता है। यह कोई सुनी-सुनाई बात नहीं है - प्रत्यक्ष और प्रमाणिक है . अतः सिर्फ आँख -बंद कर विश्वास करने का कोई विषय नहीं है। जिसने कभी कोई शास्त्र न पढ़ा , वो क्रियायोग के अभ्यास सभी शात्रों की सत्यता का ज्ञान प्राप्त कर लेता है। शास्त्रों में कोई यदि उलट -फेर भी कर दी गयी हो तो उसे वह शीघ्र ही पकड़ कर समझ जाता है। गीता के सभी कथनों के रहस्य को प्रदीप कुमार राजयोगी -ने समझ लिया है और समय के उलट-फेर ने किस तरह गीता का स्वरुप ही बदल डाला है , उसे बहुत ही प्रमाणिक ढंग से वे समझते हैं। पर लोग अहंकार-वश समझना ही नहीं चाहते , इसका कारण आप सबको पता है।
जिस अमर विज्ञानसम्मत सहज योग साधन को बाबा जी ने जगत को दिया है , उसका अल्पांश भी यदि कोई करे तो उसका महान कल्याण होता है। इसमें कोई संदेह नहीं। - इस बात को हमारे परम मित्र पप्पू कुमार ने प्रत्यक्ष अनुभव किया है और यही अनुभव अन्य क्रिययोगियों ने भी किया है। वस्तुतः यह भगवत वचन भी है - " स्वल्पमस्य , धर्मस्य त्रायतो महतो भयात। " - इससे मानसिक , शारीरिक एवं आर्थिक दुःख से त्राण मिलता है। विज्ञानसम्मत इस क्रियायोग साधन को बाबा जी ने संसार को प्रदान किया है , वह ज्ञान विज्ञानं सहित है , इस सम्बंन्ध में किसी को कोई संदेह नहीं , वह अतुल्य है। प्रत्य्क्ष अनुभव दर्शन श्रवण इत्यादि के माध्यम से लाहिड़ी महाशय तथा अन्य क्रिययोगियों जो प्राप्त था , उसे बिना किसी प्रकार की कृपणता के संसार को सौंप दिया। यही कार्य पप्पू कुमार जैसे अन्य लोग भी कर रहे हैं। इस बात को कबीर जी की भाषा में इस प्रकार कहा गया है -
लिखा-लिखी का बात नहीं ,
देखा-देखि की बात
दूल्हा-दुल्हिन मिल गए ,
फीकी पड़ी भारत।
अर्थात , लिखा-लिखी की बात नहीं , यह प्रत्यक्ष अनुभव की बात है। उदाहरण देते हुए कहते हैं की विवाह के समय कितने वरयात्री या बाराती , बाजे , रोशनी आदि की सजावट के साथ बरात में शामिल होते हैं , किन्तु ज्योंही वर-कन्या का मिलन होता है , उसके बाद ही सभी अपने-अपने स्थान की ओर लौट जाते हैं -अर्थात-साधक जब प्रकृति-पुरुष या जीवात्मा और परमात्मा के साथ मिलने में समर्थ हो जाते हैं तभी क्रिया की परवस्था में पहुँच जाते हैं। यह अवस्था स्वयं बोधगम्य है . गीता की अनेक व्याख्याएं उपलब्ध हैं। देखने में आता हैकि वे सभी शास्त्रीय , बौद्धिक या दार्शनिक तथ्यों पर आधारित व्याख्याएं हैं किन्तु अनुभवगत व्याख्या एकमात्र लाहिड़ी महाशय ने ही किया और उनके आश्रित अनुयायी साधकों ने किया है। किन्तु मूल में वही है।
गीता के श्री " भगवानुवाच " इसका अर्थ उन्होने किया है - " कुठस्त द्वारा अनुभव हो रहा है "- कितनी अपूर्व व्याख्या है , सचमुच मन में तृप्ति और शीतलता का अनुभव होता है। महाभारत के 18 दिन व्यापी युद्ध में श्री कृष्ण ने अर्जुन को रथ पर बैठा कर साक्षात् रूप में उपदेश दिया था। किन्तु इस देह-रथ की प्रकृति एवं निवृति का युद्ध 18 जन्म में भी समाप्त नहीं होने वाला। श्री कृष्ण उस देह को त्याग-कर चले गए , किन्तु उसके भीतर जिन कृष्ण का अस्तित्व वर्तमान है वे तो अंदर भी प्रत्येक देह-रथ में वर्तमान है ,-और चिर काल तक रहेंगे, क्यों कि वे अविनाशी हैं . उनकी वर्तमानता के कारण ही हम सबकुछ अनुभव करते हैं , वे ही इस देह-रथ के भीतर बैठ कर उपदेश कर रहे हैं। भगवान ने फिर कहा ,- " हे अर्जुन , मैं भी नहीं रहूँगा , तुम भी नहीं रहोगे। " - तो फिर रहेगा क्या ?- " ईश्वर हृद्देशेअर्जुन तिष्ठति। " - अर्जुन के प्रति लक्ष्य करते हुए कह रहे हैं , हे जगतवासी , उस ईश्वर की शरणागति प्राप्त करो , उसके प्रसाद या उसकी अनुकम्पा से ही परम शांति एवं शाश्वत -पद की प्राप्ति होगी। जो ईश्वर हमारे भीतर वर्तमान है उसकी शरण किस प्रकार प्राप्त की जाए ? प्राप्त की जाए ? उसके लिए मन को किस प्रकार तैयार करना चाहिए। इसका ज्ञान क्रियायोग द्वारा प्राप्त होता है जो लाहिड़ी महशन ने भी प्राप्त किया और वर्तमान साधक भी प्रति की ओर हैं। लाहिड़ी महाशय ने आजीवन गृहस्थ आश्रम में रहकर आदर्श गृहस्थ के रूप में साधना के जिस उच्च -स्तर को प्राप्त किया था , वह हजारों वर्ष के भीतर देखने में नहीं आता। न जाने कितने दण्डी , संयासी , त्यागी एवं गृहस्थ उनका आश्रय पाकर धन्य हुए हैं। उसकी सीमा नहीं है।
गीता के कई उपदेशों की व्याख्या लाहिड़ी महाशय ने नहीं किया है , उसे ज्यों की त्यों ही छोड़ दिया है क्यों कि समय की धारा ने अनेकों विद्वानों ने अनेक श्लोकों का स्वरुप ही बदल डाला है . is मामले में पप्पू कुमार जी का कहना है कि असली गीता तो कालान्तर में ही फट-टूट गए हैं , अतः इसकी मरम्मत अनेकों विद्वानों ने अपने -अपने मन की धारणा के अनुसार कर डाली है . श्री कृष्ण ने अनेकों जगह पर मन की अद्भुत शक्तियों के बारे में बताया है। किन्तु उन बातों को इस प्रकार दर्शाया गया है जैसे श्री कृष्ण ने ही कहा। उदहारण के लिए - श्री कृष्ण ने कहा - " मैं ही जगत का पालन-कर्ता हूँ और मैं ही विनाश-कर्ता भी हूँ , संसार में जो हो रहा है , वह मेरी इच्छा से हो रहा है। मेरे इच्छा के बिना एक पत्ता भी नहीं हिलता। संसार में सभी होने वाली घटनाओं का जिम्मेवार भी मैं ही हूँ। ' - दूसरी ओर फिर कहते हैं - " जो जैसा कर्म करेगा , वो वैसा ही फल प्राप्त करता है। "- यह दो तरह का विरोधाभास करने वाली तथ्यों को क्यों कहा उन्होने ? इस बात की व्याख्या अभीतक कोई भी स्पष्ट नहीं कर पाये हैं। इसका मूल कारण हैकि उक्त बातें श्री कृष्ण ने मन के बारे में बताया है--स्वयं नहीं कहा है। मन की शक्तियों के बारे में अनेकों चकित कर देने वाली बातों मैंने बहुत ही सहज शब्दों में कई जानकारी दी है जो पूर्णतः प्रमाणिक है। देखें - मन की शक्ति
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