Saturday, 14 April 2018

कँवर साहेब 

परम संत कँवर साहेब जी महाराज का संक्षिप्त जीवन परिचय परम संत हुज़ूर कँवर जी महाराज का उदभव २ मार्च १९४८ को गांव दिनोद, ज़िला भिवानी में चो० सुरजाराम जी के यहाँ बड़भागिनी माता श्रीमती मुथरी देवी की कोख से हुआ | अभी हुज़ूर चार वर्ष के ही थे कि इनके सिर से पिता का साया उठ गया | परम संत ताराचंद जी महाराज ने हुज़ूर के प्रति गहरी सहानुभूति दर्शाई और इनको सांत्वना देने इनके घर चले गए | नन्हे कँवर को देखकर इनके मन में अनायास ही ये भाव जगे कि यदि मैं इसका बड़ा भाई होता तो इसे कभी दुखी नहीं होने देता | बड़े हुज़ूर महाराज जी के इसी अथाह प्रेम के परिणाम स्वरुप आगे चलकर हुज़ूर उन की ओर इस प्रकार आकर्षित हुए जैसे लोहा चुम्बक की ओर स्वतः खिंचा चला जाता है | अब पितृविहीन बच्चे का लालन-पालन इनकी माँ के हाथों हुआ | क्योंकि हुज़ूर को भविष्य मैं दीनहीन के आसूं पोछने थे, अतः विधाता ने आपको अभावो से दो-दो हाथ करने का प्रशिक्षण देना बाल्यकाल से ही प्रारम्भ कर दिया, जिसके फलस्वरूप हुज़ूर ने सांसारिक संबंधों की असलियत को नज़दीक से पहचान लिया | हुज़ूर अब आठवी कक्षा में थे तभी इनका विवाह सौ. सावित्री देवी के साथ हुआ | हुज़ूर की माता जी एक धार्मिक स्त्री थी और उन्होंने बड़े हुज़ूर से नाम की बख्शीश भी प्राप्त की हुई थी | वे प्रायः बड़े हुज़ूर महाराज जी के सत्संग में आया करती थी | इसके अतिरिक्त हुज़ूर के चाचा हरलाल भी बड़े महाराज जी के सत्संग में रोजाना आते थे | इन दोनों का विचार था कि यदि नवयुवक कँवर राधास्वामी सत्संग में आने लगे तो इसके निश्चित रूप से उसके जगत और अगत बन जाएंगे | अतः वे दोनों ही हुज़ूर को आश्रम जाने के लिए टोकते रहते थे | हुज़ूर आठवी कक्षा की तैयारी ठीक से नहीं कर पाए थे इसलिए परीक्षा में उत्तर संतोषजनक ढंग से नहीं लिखे जा सके थे | परंतु बड़े महाराज जी ने इनकी माता जी द्वारा पुछे जाने पर पहले ही भविष्यवाणी कर दी थी कि इस परीक्षा में वे उत्तीर्ण होंगे | हुज़ूर ने अपनी माँ को दोबारा भेजा कि पूछना की उसने इस परीक्षा में सही से लिखा ही नहीं है तो क्या फिर भी पास होगा ? बड़े हुज़ूर का फिर से जवाब था-हाँ | हुज़ूर इस परीक्षा में अपने उत्तीर्ण होने के अप्रत्याशित परिणाम से बड़े चकित हुए और उनकी ये भावना बन गई कि इस परीक्षा में बड़े महाराज जी के आशीर्वाद के प्रभाव से ही उत्तीर्ण हो सके हैं | हुज़ूर ने १९७० में वैश्य कॉलेज से बी० ए० तथा अगले ही वर्ष १९७१ में बी० एड० की परीक्षा के. एम. कॉलेज भिवानी से उत्तीर्ण की | १९७३ में हुजूर ने जयपुर विश्वविद्यालय से एम० ए० की परीक्षा उत्तीर्ण की और फिर आप सरकारी पद पर अद्यापक नियुक्त हुए | इस समय तक हुजूर का आध्यात्मिकता की और किंचित मात्र भी झुकाव नहीं था | अब तक बड़े महाराज जी के दरबार ने एक आध्यात्मिक केंद्र का रूप धारण कर लिए था और यह केंद्र असंख्य परमार्थ के जिज्ञासुओं के पथप्रदर्शन में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा था | अब आपने बड़े हुजूर को समीप से जानने की प्रबल इच्छा हुई और एक दिन आश्रम में तशरीफ़ ले आये, उस समय बड़े हुज़ूर का सत्संग चल रहा था | आपने उनके व्यक्तित्व व प्रवचनों में अभूतपूर्व आकर्षण पाया | तत्पश्चात आप प्रतिदिन आश्रम में आकर सत्संग सुनने लगे | और एक दिन जब आप अपने सदगुरु के समक्ष आये तो उन्ही के होकर रह गए तथा फिर मुड़कर घर नहीं गए, साथ ही यह भीष्म प्रतिज्ञा भी कर दी कि अब इस आश्रम से मेरी अरथी ही निकलेगी | इस समय आपकी आयु मात्र ३० वर्ष की थी | बचपन का भक्त हीरे-मोती इकठ्ठे करता है, युवावस्था का भक्त सोना-चांदी बटोरता है, बुढ़ापे के भक्त को केवल ताम्बा-पीतल ही हाथ आता है | उसी अनुसार पूर्व जनम के संस्कारों के प्रभाव के परिणामस्वरुप हुजूर को अपना आधयात्मिक मार्ग तय करते देर नहीं लगी तथा अपने सतगुरु के सानिंध्य में खूब साधन-अभयास किया | अब आपकी सारी-सारी रात भजन में बीतती थी | इसके साथ आपने अपने सतगुरु की तन-मन-धन से जो सेवा की वह अपने आप में एक मिशाल है | आपके आने के बाद धाम की व्यवस्था के प्रति बड़े हुज़ूर निश्चिन्त हो गए थे | भ्रह्मा मूरत में सामूहिक आरती विनती आपने ही शुरू करवाई थी, जो उसके बाद एक अमिट नियम बन गया | आपके सदगुणों व सेवा से प्रसन्न होकर बड़े हुजूर आपको अपना 'हीरा' बताते थे | आपने जिस स्कूल में भी अध्यापन कार्य किया छुट्टी होते ही सीधे अपने सतगुरु धाम में आये और सुबह वहीँ से ड्यूटी के लिए गए | एक सच्चे शिक्षक का कर्त्तव्य बखूबी निभाया और अपने विद्यार्थियों का सर्वांगीण विकास किया | आपने गुरुधाम में रहकर अपनी पारिवारिक जिमेवारियों को भी बखूबी अंजाम दिया | परिणामतः सन १९९४ में आपका पूरा परिवार कनाडा में आबाद हो गया | तब आप पूर्णरुपेण अपने सतगुरु की सेवा में जुट गए | आपने 'राधास्वामी नाम निजनाम व सदा की मुक्ति' , 'जुई से जहान', 'प्रवचन संग्रह' तथा 'सतगुरु प्रेम' नामक पुस्तकों की रचना भी की | 'सतगुरु प्रेम' पुस्तक में सतगुरु विरह में रचित बेजोड़ शब्द ये सिद्ध करते हैं कि आपकी अपने सतगुरु के प्रति अद्वितिय अगाध प्रेम था | परमसंत हुजूर ताराचंद जी महाराज के ये अमृत वचन कि पूर्ण संत कभी अकेले नहीं आते, वे सदैव अपने गुरुमुख शिष्य को साथ लेकर आते हैं | जैसे कबीर साहेब धर्मदास को, दादू जी सुंदर दास को और स्वामी जी राय सालिगराम जी को लेकर प्रकट हुए थे, इसी प्रकार परमसंत हुजूर ताराचंद जी अपने परम गुरुमुख कँवर जी को साथ लेकर प्रकट हुए | परम संत ताराचंद जी महाराज सन १९९७ के जनवरी मॉस कि ३ तारिख को राधास्वामी सत्संग दिनोद की पूर्ण जिम्मेदारी अपने इन परम गुरुमुख के सबल हाथों में सौपकर निजधाम प्रस्थान कर गए और अपनी पूर्ण धार हुजूर में स्थापित कर गए | सतगुरु के पवित्र प्रेम में पल्लवित पुष्पित और फलवित होते हुए आज आप उनके सारे कार्यों को उन्ही के रूप में सम्भाले हुए हैं | मात्र ६ वर्ष के अल्पकाल में ही आपने राधास्वामी सत्संग दिनोद को नित नए आयाम दिए हैं | फलस्वरूप देश-विदेश में संगत और आश्रमों की लगातार वृद्धि हो रही है | आपकी सोम्य आभा में ऐसा अलौकिक जादू है कि जो भी जिज्ञासु आप से एक बार मिलता है, वह आपका ही होकर रह जाता है | हुजूर महाराज जी का तप व त्याग से परिपूर्ण जीवन अद्वितीय है | आज अन्यत्र इस प्रकार के त्याग व तपस्वी परमसंत सतगुरु का मिलना दुर्लभ है |

No comments:

Post a Comment