Tuesday 31 October 2017

बड़े काम की 3 बातें

मरते वक़्त रावण ने लक्ष्मण को बताई थी ये बड़े काम की 3 बातें, आप भी जानिए JUNE 5, 2015 BY AG 3 COMMENTS Ravan updesh to laxman in Hindi : जिस समय रावण मरणासन्न अवस्था में था, उस समय भगवान श्रीराम ने लक्ष्मण से कहा कि इस संसार से नीति, राजनीति और शक्ति का महान् पंडित विदा ले रहा है, तुम उसके पास जाओ और उससे जीवन की कुछ ऐसी शिक्षा ले लो जो और कोई नहीं दे सकता। श्रीराम की बात मानकर लक्ष्मण मरणासन्न अवस्था में पड़े रावण के सिर के नजदीक जाकर खड़े हो गए। रावण ने कुछ नहीं कहा। लक्ष्मणजी वापस रामजी के पास लौटकर आए। तब भगवान ने कहा कि यदि किसी से ज्ञान प्राप्त करना हो तो उसके चरणों के पास खड़े होना चाहिए न कि सिर की ओर। यह बात सुनकर लक्ष्मण जाकर इस रावण के पैरों की ओर खड़े हो गए। उस समय महापंडित रावण ने लक्ष्मण को तीन बातें बताई जो जीवन में सफलता की कुंजी है। 1- पहली बात जो रावण ने लक्ष्मण को बताई वह ये थी कि शुभ कार्य जितनी जल्दी हो कर डालना और अशुभ को जितना टाल सकते हो टाल देना चाहिए यानी शुभस्य शीघ्रम्। मैंने श्रीराम को पहचान नहीं सका और उनकी शरण में आने में देरी कर दी, इसी कारण मेरी यह हालत हुई। 2- दूसरी बात यह कि अपने प्रतिद्वंद्वी, अपने शत्रु को कभी अपने से छोटा नहीं समझना चाहिए, मैं यह भूल कर गया। मैंने जिन्हें साधारण वानर और भालू समझा उन्होंने मेरी पूरी सेना को नष्ट कर दिया। मैंने जब ब्रह्माजी से अमरता का वरदान मांगा था तब मनुष्य और वानर के अतिरिक्त कोई मेरा वध न कर सके ऐसा कहा था क्योंकि मैं मनुष्य और वानर को तुच्छ समझता था। मेरी मेरी गलती हुई। 3- रावण ने लक्ष्मण को तीसरी और अंतिम बात ये बताई कि अपने जीवन का कोई राज हो तो उसे किसी को भी नहीं बताना चाहिए। यहां भी मैं चूक गया क्योंकि विभीषण मेरी मृत्यु का राज जानता था। ये मेरे जीवन की सबसे बड़ी गलती थी। भारत के मंदिरों के बारे में यहाँ पढ़े –   भारत के अदभुत मंदिर सम्पूर्ण पौराणिक कहानियाँ यहाँ पढ़े – पौराणिक कथाओं का विशाल संग्रह अन्य सम्बंधित कथाएं बच्चों ने ही बाँध दिया था रावण को अस्तबल में , जानिए रावण के जीवन से जुडी ख़ास बातें इन 6 लोगों के श्राप के कारण हुआ था रावण का सर्वनाश रामायण कथा- आखिर क्यों दिया राम ने लक्ष्मण को मृत्युदंड? वाल्मीकि रामायण की कुछ रोचक और अनसुनी बातें रावण-अंगद संवाद – ये 14 बुरी आदतें जीवित को भी बना देती हैं मृत समान        YOU MAY LIKE by गंजे लोगों ने घर बैठे दोबारा उगाएं सिर पर बाल (1 आसान तरीका) सेहतमंद तरीके से तेजी से वजन घटाएँ! इसे रोज इस्तेमाल करें। green-coffee.me Take 1 Cup Of This Every Morning And Burn 7 Kg In 1 Week स्तन बड़े करने का वो राज जो सारी दुनिया जानती है! और पढ़ें यहाँ! 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Type your email here... Sign Up « जब लंकापति रावण ने राजा बलि से राम के खिलाफ युद्ध में मांगी सहायताचाणक्य नीति- ये 4 काम करने के बाद नहाना जरूरी चाहिए » COMMENTS ramanlal sonar says May 13, 2017 at 11:00 am yah adhyatmik dnyan ka bhadaran hai Reply Parbhash chand says May 25, 2016 at 2:56 pm जो ज्ञान आप दे रहे हे ओ ज्ञान आज तक हम नही मिला Reply Ashok Chaudhary says May 15, 2016 at 5:46 pm जय श्री राम Reply JOIN THE DISCUSSION! Please submit your comment with a real name. Comment Thanks for your feedback! Name * Email * Website Post Comment Search this website … Search RECENT POSTS कार्तिक पूर्णिमा व्रत कथा पूजन विधि | Kartik Purnima Vrat Kath Pujan Vidhi पूर्णिमा व्रत कथा पूजन विधि | Purnima Vrat Kath Pujan Vidhi देवउठनी एकादशी के उपाय | Dev Uthani Ekadashi Ke Upay सम्पूर्ण सत्यनारायण व्रत कथा एवं पूजन विधि | Satyanarayan Vrat Katha Pujan Vidhi रवि प्रदोष व्रत कथा, पूजा विधि, उद्यापन विधि | Ravi Pradosh Vrat Katha Puja Vidhi शनि प्रदोष व्रत कथा, पूजा विधि, उद्यापन विधि | Shani Pradosh Vrat Katha Puja Vidhi शुक्र प्रदोष (भुगुवारा प्रदोष) व्रत कथा, पूजा विधि | Shukra Pradosh Vrat Katha Puja Vidhi गुरु प्रदोष व्रत कथा, पूजा विधि, उद्यापन विधि | Guru Pradosh Vrat Katha Puja Vidhi बुध (सौम्यवारा) प्रदोष व्रत कथा, पूजा विधि, उद्यापन विधि | Budh Pradosh Vrat Katha Puja Vidhi भौम (मंगल) प्रदोष व्रत कथा, पूजा विधि, उद्यापन विधि | Bhaum Pradosh Vrat Katha Puja Vidhi देवउठनी एकादशी के उपाय | Dev Uthani Ekadashi Ke Upay देवउठनी एकादशी व्रत कथा और पूजन विधि |  Dev Uthani Ekadashi Vrat Katha तुलसी विवाह व्रत कथा | Tulsi Vivah Vrat Katha तुलसी विवाह विधि | Tulsi Vivah Vidhi तुलसी विवाह कथा | Tulsi Vivah Katha जब विष्णु जी और लक्ष्मी जी को बनना पड़ा अश्व और अश्वी Bashir Badr – Bhool shaayad bahut badi kar li (बशीर बद्र – भूल शायद बहुत बड़ी कर ली) रहीम के दोहे – ये 7 बातें कोई भी ज्यादा दिनों तक छिपा नहीं सकता अगर आपकी उम्र है 18 से ज्यादा तो ही आप जा सकते है इन जगहों पर गोवा के वीरान बंगलों में,Team Pentacle द्वारा भूतों का इन्वेस्टीगेशन – खिची तस्वीरें, रिकॉर्ड कि आवाज़ें वास्तुशास्त्र के अनुसार सोते समय सिर के पास नहीं रखनी चाहिए ये चीज़ें बच्चों की परवरिश में सभी माता-पिता को ध्यान रखनी चाहिए ये चाणक्य नीति Javed Akhtar – Ye tera ghar ye mera ghar (जावेद अख्तर – ये तेरा घर ये मेरा घर) प्याज के यह घरेलु नुस्खे दूर करेंगे पुरुषों की शारीरिक कमजोरी टूटी झरना मंदिर- रामगढ़(झारखंड) – यहाँ स्वयं माँ गंगा करती है शिवजी का जलाभिषेक कर्ज लेते या देते समय ध्यान रखे ज्योतिष के ये नियम ये हैं भारत के 10 सबसे खतरनाक ‘सीरियल किलर’ जानिए कितनी तरह से शरीर से निकलते है प्राण कापूचिन कैटाकॉम्ब (Capuchin Catacombe) – एक अनोखा कब्रिस्तान जहाँ रखे हैं सदियों पुराने 8000 शव – कमजोर दिल वालो के लिए नहीं हैं यह जगह एक श्लोकी दुर्गासप्तशती – इस एक मंत्र के जप से मिलता है संपूर्ण दुर्गासप्तशती पढ़ने का फल CONTACT US       PRIVACY POLICY    DISCLAIMER  ShareThis Copy and Paste 

14 बुरी आदतें जीवित को भी बना देती हैं मृत समान

रावण-अंगद संवाद : ये 14 बुरी आदतें जीवित को भी बना देती हैं मृत समान  अच्छे और सुखी जीवन के लिए जरूरी है कि कुछ नियमों का पालन किया जाए। शास्त्रों के अनुसार बताए गए नियमों का पालन करने वाले व्यक्ति को जीवन में कभी भी किसी प्रकार की परेशानी का सामना नहीं करना पड़ता है। स्त्री हो या पुरुष, कुछ बातों का ध्यान दोनों को ही समान रूप से रखना चाहिए। अन्यथा भविष्य में भयंकर परिणामों का सामना करना पड़ता है।मृत्यु एक अटल सत्य है। देह एक दिन खत्म हो जानी है, यह पूर्व निश्चित है। आमतौर पर यही माना जाता है कि जब देह निष्क्रिय होती है, तब ही इंसान की मृत्यु होती है, लेकिन कोई भी इंसान देह के निष्क्रिय हो जाने मात्र से नहीं मरता। कई बार जीवित रहते हुए भी व्यक्ति मृतक हो जाता है। आज भी यदि किसी व्यक्ति में इन 14 दुर्गुणों में से एक दुर्गुण भी आ जाता है तो वह मृतक समान हो जाता है। यहां जानिए कौन-कौन सी बुरी आदतें, काम और बातें व्यक्ति को जीते जी मृत समान बना देती हैं।गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित श्रीरामचरित मानस के लंकाकांड में एक प्रसंग आता है, जब लंका दरबार में रावण और अंगद के बीच संवाद होता है। इस संवाद में अंगद ने रावण को बताया है कि कौन-कौन से 14 दुर्गण या बातें आने पर व्यक्ति जीते जी मृतक समान हो जाते हैं। 1. कामवश- जो व्यक्ति अत्यंत भोगी हो, कामवासना में लिप्त रहता हो, जो संसार के भोगों में उलझा हुआ हो, वह मृत समान है। जिसके मन की इच्छाएं कभी खत्म नहीं होती और जो प्राणी सिर्फ अपनी इच्छाओं के अधीन होकर ही जीता है, वह मृत समान है। 2. वाम मार्गी- जो व्यक्ति पूरी दुनिया से उल्टा चले। जो संसार की हर बात के पीछे नकारात्मकता खोजता हो। नियमों, परंपराओं और लोक व्यवहार के खिलाफ चलता हो, वह वाम मार्गी कहलाता है। ऐसे काम करने वाले लोग मृत समान माने गए हैं। 3. कंजूस- अति कंजूस व्यक्ति भी मरा हुआ होता है। जो व्यक्ति धर्म के कार्य करने में, आर्थिक रूप से किसी कल्याण कार्य में हिस्सा लेने में हिचकता हो। दान करने से बचता हो। ऐसा आदमी भी मृत समान ही है। 4. अति दरिद्र- गरीबी सबसे बड़ा श्राप है। जो व्यक्ति धन, आत्म-विश्वास, सम्मान और साहस से हीन हो, वो भी मृत ही है। अत्यंत दरिद्र भी मरा हुआ हैं। दरिद्र व्यक्ति को दुत्कारना नहीं चाहिए, क्योकि वह पहले ही मरा हुआ होता है। बल्कि गरीब लोगों की मदद नहीं चाहिए।

Sunday 29 October 2017

गौत्र परिचय

PAREEK SAMAJ ,PALI search AUG 22 गौत्र परिचय गौत्र परिचय ब्रह्मा ने वृहस्‍पति को व्‍याकरण पढ़ाया, वृहस्‍पति ने इन्‍द्र को, इन्‍द्र ने भारद्वाज को, भारद्वाज ने ऋषियों को, ऋषियों ने ब्राह्मणों क। वही यह अक्षर समाम्‍नाय है। विद्या का मूल लिपी है। वह लिपी आदि में ब्रह्मा ने दी इसलिए भारत की मूल लिपी का नाम ब्राह्मी लिपी है। भारत के अंतों में सर्वत्र म्‍लेच्‍छ बस्तियां हैं। पूर्वान्‍त में किरात और पश्चिम में वयन है, ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्‍य मध्‍य अर्थात आयावर्त आदि में हैं। शुद्र भिन्‍न-भिन्‍न भागों में बिखरे हैं। मोहनजोदड़ो और सौराष्‍ट्र की सीमा स्‍थानों पर यवन और उनके साथी असुरों आदि की बस्तियां थी। कभी ये यवन आदि संस्‍कृत भाषी विशुद्ध आर्य थे। कालान्‍तर में ये म्‍लेच्‍छ हो गए। भारत वर्ष जम्‍बूद्वीप का एक भाग है। पहले जम्‍बूद्वीप पर ही नहीं प्रत्‍युत संपूर्ण द्वीपों के बसनीय खंडों पर आर्यों का निवास था। कालान्‍तर में भाषा में अस्‍पृश्‍यता आयी और म्‍लेच्‍छ लोग उत्‍पन्‍न हो गए। लोगों का स्‍थान संकुचित होता गया। पुन: भारत में भी उनका वास भाग संकुचित हुआ। भारत की सीमाओं पर म्‍लेच्‍छ लोग उत्‍पन्‍न हो गए। अंगिरा, कश्‍यप, वशिष्‍ठ और भृगु ये चार मूल गौत्र थे। अन्‍य गौत्र कर्म से उत्‍पन्‍न हुए। गौत्र परम्‍परा प्राचीन काल से चली आई है। तथागत बुद्ध भी अपना गौत्र जानता था। गौत्र प्रवर्तक ऋषि भारत में रहा करते थे। उनकी सन्‍तति और उनके शिष्‍य, प्रशिष्‍य सतयुग से चले आ रहे थे। तभी से उनमें से अनेकों की मातृभूमि भारत थी। समाज के प्रत्‍येक व्‍यक्ति के लिए यह आवश्‍यक है कि वह अपने गौत्र, वेद, उपवेद, शाखा, सूत्र, प्रवर, पाद, शिखा एवं देवता आदि की पूर्ण जानकारी रखे। हमारी 103 शाखायें हैं। पारीक्ष ब्राह्मणोत्‍पत्ति के अनुसार इनका सरल एवं सुबोध अर्थ निम्‍न प्रकार है - 1. गौत्र -  "प्रारंभ में जो ऋषि जिस वंश को चलाता है, वह ऋषि उस वंश का गौत्र माना जाता है। 2. वेद - "गौत्र प्रवर्तक ऋषि जिस वेद को चिन्‍तन, व्‍याख्‍यादि के अध्‍ययन एवं वंशानुगत निरन्‍तरता पढ़ने की आज्ञा अपने वंशजों को देता है, उस वंश का वही वेद माना जाता है। 3. उपवेद - "वेदों की सहायता के लिए कलाकौशल का प्रचार कर संसार की सामाजिक उन्‍नति का मार्ग बतलाने वाले शास्‍त्र का नाम उपवेद है। 4. शाखा - "प्रत्‍येक वेद में कई शाखायें होती हैं। जैसे ऋग्‍वेद की 21 शाखा, यजुर्वेद की 101 शाखा, सामवेद की 1000 शाखा, अथर्ववेद की 9 शाखा है। इस प्रकार चारों वेदों की 1131 शाखा होती है। प्रत्‍येक वेद की अथवा अपने ही वेद की समस्‍त शाखाओं को अल्‍पायु मानव नहीं पढ़ सकता, इसलिए महर्षियों ने 1 शाखा अवश्‍य पढ़ने का पूर्व में नियम बनाया था और अपने गौत्र में उत्‍पन्‍न होने वालों को आज्ञा दी कि वे अपने वेद की अमूक शाखा को अवश्‍य पढ़ा करें, इसलिए जिस गौत्र वालों को जिस शाखा के पढ़ने का आदेश दिया, उस गौत्र की वही शाखा हो गई। जैसे पराशर गौत्र का शुक्‍ल यजुर्वेद है और यजुर्वेद की 101 शाखा है। वेद की इन सब शाखाओं को कोई भी व्‍यक्ति नहीं पढ़ सकता, इसलिए उसकी एक शाखा (माध्‍यन्दिनी) को प्रत्‍येक व्‍यक्ति 1-2 साल में पढ़ कर अपने धर्म-कर्म में निपुण हो सकता है। 5. सूत्र  - "वेदानुकूल स्‍मृतियों में ब्राह्मणों के जिन षोडश (16) संस्‍कारों का वर्णन किया है, उन षोडश संस्‍कारों की विधि बतलाने वाले ग्रन्‍थ ऋषियों ने सूत्र रूप में लिखे हैं और वे ग्रन्‍थ भिन्‍न-भिन्‍न गौत्रों के लिए निर्धारित वेदों के भिन्‍न-भिन्‍न सूत्र ग्रन्‍थ हैं।   6. प्रवर - "वैदिक कर्म-यज्ञ-विवाहादिक में पिता, पितामह, प्रपितामहादि का नाम लेकर संकल्‍प पढ़ा जाता है (यह रीति कर्म-काण्डियों में अब भी विद्यमान है) इन्‍हें ही प्रवर कहते हैं। इनकी जानकारी के बिना कोई भी ब्राह्मण धर्म-कार्य का अधिकारी नहीं हो सकता, अत: इनका जानना भी अति आवश्‍यक है। 7. पाद - "वेद-स्‍मृतियों में कहे हुए धर्म-कर्म में पाद नवा कर बैठने की आज्ञा है। जिस गौत्र का जो पाद है, उसको उसी पाद को नवाकर बैठ कर वह कर्म करना चाहिये। 8. शिखा -  "जिस समय बालक का मुण्‍डन संस्‍कार होता है, उस समय बालक के‍ शिखा रखने का नियम है। जिनकी दक्षिण शिखा है, उनको दक्षिण तरफ और जिनकी वाम शिखा है, उनको वाम की तरफ शिखा रखवानी चाहिये। 9. देवता - "सृष्टि के आदि में ब्रह्माजी ने जिस देवता द्वारा ऋषियों को जिस वेद का उपदेश दिलवाया, उस वेद का वही देवता माना गया। जैसे – अग्निवायुरविभयस्‍तु त्रयं ब्रह्म सनातनम्। दुदोह यज्ञसिद्धयर्थमृम्‍यजु: सामलक्षणम्।। (मनु: 1/23) अर्थ- अग्नि, वायु, सूर्य इन देवताओं से यज्ञ का प्रचार करने के लिए ऋक्, यजु:, साम इन तीन वेदों का प्रचार प्रजापति ने करवाया, इसिलये जिस वेद का जिस देवता ने प्रथम उपदेश दिया, उस वेद का वही देवता माना गया। इस प्रकार गौत्र, वेद, उपवेद, शाखा, सूत्र, प्रवर, शिखा, पाद और देवता इन 9 बातों को जानना प्रत्‍येक ब्राह्मण का धर्म है। इन्‍हीं 9 बातों के आधार पर महर्षियों ने नवगुणित यज्ञोपवीत का निर्माण किया गया था। यज्ञोपवीत (जनेऊ) 9 सूत्रों का होता है, जिसमें प्रत्‍येक सूत्र में इन्‍हीं देवताओं का आह्वान करके उसमें इनकी प्रतिष्‍ठा की जाती है।"       पारीकों की 108 और 103 शाखाओं की सामाजिक खोज -- पारीक समाज की शाखाओं के सम्‍बन्‍ध में विद्वानों ने जो मत व्‍यक्‍त किया है वह दृष्‍टव्‍य है। पारीक ब्राह्मणोंत्‍पत्ति के विद्वान लेखक श्री नारायण कठवड़ व्‍यास ने इस सम्‍बन्‍ध में विचार व्‍यक्‍त किया कि - 1. "सम्‍वत् 1300 वि. के आरम्‍भ में तावणा मिश्र (पारीक्षों के वत्‍स गौत्र की एक शाखा) श्री ज्ञानचूड़ जी ने संसार भ्रमण करके पता लगाकर यह निश्‍चय किया था कि पारीकों को 9 आस्‍पद, 12 गौत्र और 108 शाखायें विद्यमान हैं।" 2. "इसके बाद सम्‍वत् 1531 वि. में देवर्षि कठवड़ पराशर व्‍यास ने (जो जिलो पाटण राज्‍य के गुरू थे और ग्रंथ 'पारीक्ष ब्राह्मणोंत्‍पत्ति' लेखक के पूर्वजों में थे) लालचन्‍द्र नाम के पंडित को बहुत सा द्रव्‍य देकर पारीक्षों के आस्‍पद, गौत्र, शाखाओं का पता लगाने के‍ लिए अनेक देशों का भ्रमण करने के लिए भेजा। पण्डित लालचन्‍द्र जी ने मारवाड़, ढूंढाड़, शेखावटी, मथुरा, काशी, मालवा, मेवाड़ आदि देशों में भ्रमण किया और पता लगा कर यह निश्‍चय किया कि वर्तमान समय में पारीक्ष ब्राह्मणों के 9 आस्‍पाद, 12 गौत्र और 103 शाखायें विद्यमान हैं।" 3. "इसके बाद सम्‍वत् 1600 वि. ज्‍येष्‍ठ शुक्‍ला द्वितीया को सांगानेर में वरणाग जोशी जोगा जी के पुत्र छीतर मल जी की पु‍त्री सुभद्रा बाई (या सोतरा बाई) के विवाह में जोगा जी की प्रार्थनानुसार अकबर बादशाह की आज्ञा से उसके पुत्र जहांगीर ने समस्‍त भारतवर्ष में पारीक्षों को फरमान भेजकर बुलाया था और ये सब उस जोशी जी की पौत्री के विवाह में इकट्ठा हुए थे। तत् समय विवाह हो जाने के बाद 'पारीक्ष सरखत'  नाम का जातीय प्रबंध पत्र भी समस्‍त भारतवर्षीय पारीक्षों की सम्‍मति से कापडोदा जोशी गोकुल जी ने लिखा था "उस समय पारीक्षों की 103 शाखायें थी। श्री पारीक वंश परिचय पृष्‍ठ 176 पर इस सम्‍बन्‍ध में यह उल्‍लेख किया गया है कि बारहवीं शताब्‍दी में पारीक श्रीमान सेढू जी महाराज ने कूर्म वंशियों (कछवाहा) की पुरोहिताई का पुनरूद्धार किया। कालवंश पारीकों  की शाखायें जब जब लुप्‍त हुई हैं, तब-तब जाति हितैषी सज्‍जनों ने वंश के लिए किया है। तेरहवीं शताब्‍दी में तावणा मिश्र श्री ज्ञानचन्‍द्र जी ने समस्‍त शाखाओं की गणना करके उक्‍त शाखाओं का उद्धार किया" पारीक्ष संहिता पृष्‍ठ 50-53 पर इस सम्‍बन्‍ध में अंकित यह तथ्‍य भसी दृष्‍टव्‍य है - "मध्‍य देश में निषध नाम का देश है। वहां भूतर पर प्रसिद्ध नरवर नाम का एक नगर है। जहां पर परम धार्मिक राजा नल हुए थे। नल से तेईसवीं पीढ़ी में सोझदेव नाम के राजा हुए, इनका समय विक्रम की नवमी शताब्‍दी का समाप्ति काल है। उसके पारीक्ष जाति के ही सुधन्‍वा नाम के गुरू थे। सोढ़देव ने गुरू की आज्ञा से एक बड़ा यज्ञ किया था।" "उस यज्ञ में भारत के सब देशों से में निवास करनेवाले ब्राह्मणों को बुलाया गया था। कुछ विद्वान तो उस यज्ञ कर्म में भाग लेने के लिये ही आये थे और कुछ केवल दर्शन करने के लिये ही आये थे। सबसे प्रथम पारीक्ष ब्राह्मणों की गणना इसी यज्ञ में हुई थी। वहां इनके 9 आस्‍पद, 12 गौत्र और 108 शाखायें गिनी गई थी। इसके अनुसार विक्रम की 13वीं शताब्‍दी में तावणा मिश्र ज्ञानचूड़ जी हुए। उन्‍होंने भारत में सभी देशों में भ्रमण करके पारीक्ष ब्राह्मणों की यह संख्‍या निश्चित की। पारीक्षों के शासन 103 हैं। विक्रम सम्‍वत् 1531 में देवर्षि नाम के व्‍यास हुए। इन्‍होंने लालचन्‍द ब्रह्मभट्ट (राव) को धन देकर परीक्ष जाति की खोज करने के लिए देश देशान्‍तरों में भेजा था। लालचन्‍द ने भी सम्‍पूर्ण देशों में भ्रमण करके पारीक्ष ब्राह्मणों की गणना की।" वि. सं. 1531 में सेढू जी के वंशज देवऋषि जी ने जमुआरामगढ़ में भारी जाति सम्‍मेलन किया। उस समय उन्‍होंने अपने कुल गुरू (राय) लालचन्‍द जी से समस्‍त प्रान्‍तों के पारीक्षों की गणना कराई। उस समय पारीक्षों की घर संख्‍या 1,99,050 (उक्‍त सूचना के प्रेषक श्री नरसिंह जी शिवरतन जी तिवाड़ी नया शहर हैं) निश्चित की तथा पारीक्षों के शासन 103 हैं।       "इन्‍होंने नौ आस्‍पद और 12 गौत्र और उनके शासन 103 निश्चित किए। इसके अनन्‍तर विक्रय की 16वीं शता‍ब्‍दी में सांगानेर नाम के नगर में वरणा ज्‍योशियों में जोगा जी नाम के पारीक हुए। इनकी लड़की सुभद्राबाई के विवाह में आमेर से बारात आई। इस विवाह में भारत के सभी पारीक्ष ब्राह्मण एकत्रित हुए थे। इस समय इनके गौत्रादि की गणना हुई थी। इसी विवाह में सम्‍पूर्ण पारीक्ष ब्राह्मणों की सम्‍मति से जातीय प्रबन्‍ध पत्र (पारीख सरखत) लिखा गया था।" "उस समय भी पारीक्षों के गौत्रादि का यह निर्णय हुआ था क‍ि पारीक्षों में 12 गौत्र हैं, 9 आस्‍पद हैं और 103 शाखायें है। विशेषज्ञों ने इस प्रकार की गणना की थी।" "इसके अनन्‍तर सवाई जयसिंह नाम के राजा ने जयपुर नाम के नगर में 1645 विक्रम सम्‍वत् में अश्‍वमेघ यज्ञ किया था। इसमें भी पारीकों की गणना हुई थी तथा गणना करने पर पारीकों के 9 आस्‍पद और 12 गौत्र तथा 103 शाखायें निश्चित हुई थी। समय के अनुसार समय-समय पर पूर्वजों ने पारीक्ष ब्राह्मणों की गणाना की थी।" Posted 22nd August 2015 by Himanshu Pareek Labels: pareek samaj View comments Loading

वेद, क्‍यों हुई रचना

 Toggle navigation  होम धर्मक्षेत्र धर्मसार क्‍या हैं वेद, क्‍यों हुई रचना, कितना जानते हैं इसके बारे में आप ? Published: May 24,201603:28 PM भारत के प्राचीन ज्ञान-विज्ञान का मूल स्रोत हैं वेद। इनकी संख्‍या चार है। इनमें ऋगवेद, सामवेद, यजुर्वेद तथा अथर्ववेद शामिल हैं। वेद प्राचीन भारत के साहित्‍य हैं और दुनिया के सबसे प्राचीन लिखित ग्रंथ होने का गौरव भी वेदों को ही प्राप्‍त है। यही नहीं हिन्‍दू धर्म के मूल में इन्‍हीं ग्रंथों की भूमिका है। वेदों को ईश्‍वर की वाणी समझा जाता है। वेद, विश्‍व के उन प्राचीनतम ग्रंथों में से हैं जिनके ऋचाओं का इस्‍तेमाल आज भी किया जाता है।  प्रतीकात्‍मक चित्र आइए जरा विस्‍तार से जानते हैं, कि आखिर क्‍या हैं ये 'वेद' और क्‍यों इन्‍हें हिन्‍दू धर्म का सर्वोच्‍च ग्रंथ माना जाता है। लेकिन, इससे पहले हम आपको दो बातें जरूर बताना चाहेंगे। पहला ये कि 7 नवम्बर सन् 2003 को यूनेस्‍को (UNESCO) यानी युनाइटेड नेशन्‍स एजुकेशनल, साइंटिफिक एंड कल्‍चरल ऑर्गनाइजेशन द्वारा वेदपाठ को ''मानवता के मौखिक एवं अमूर्त विरासत की श्रेष्ठ कृति'' घोषित किया जा चुका है। दूसरा यह कि, हाल ही में भारत सरकार द्वारा सीबीएसई (CBSE) के तर्ज पर ही वैदिक शिक्षा बोर्ड बनाने की पहल भी शुरू कर दी गई है।  'वेद' का अर्थ दरअसल 'वेद' शब्‍द की उत्‍पत्‍ति संस्‍कृत भाषा के 'विद्' धातु से हुई है। इस प्रकार वेद का शाब्‍दिक अर्थ है 'ज्ञान के ग्रंथ'। इसी 'विद्' धातु से 'विद्वान' (ज्ञानी), 'विद्या' (ज्ञान) और 'विदित' (जाना हुआ) शब्‍द की उत्‍पत्‍ति भी हुई है। कुल मिलाकर 'वेद' का अर्थ है 'जानने योग्‍य ज्ञान के ग्रंथ'। 'वेद' हैं चार जैसा की हमने आपको ऊपर बताया है कि वेदों की संख्‍या चार हैं। आइए अब जरा इन चार वेदों की विशेषताओं के बारे में थोड़ा समझते हैं। ऋग्वेद : वेदों में इसे सबसे पहला स्‍थान प्राप्‍त है। इसे दुनिया का सबसे प्राचीन लिखित ग्रंथ माना गया है। इसमें ज्ञान प्राप्‍ति के लिए लगभग 10 हजार गूढ़ मंत्रों को शामिल किया गया है। इसमें देवताओं के गुणों का विस्‍तार वर्णन मिलता है। ये सभी मंत्र कविता और छंद रूप में हैं। सामवेद : चतुर्वेद के क्रम में यह दूसरा 'वेद' है। इसमें अलौकिक देवताओं की उपासना के लिए गाये जाने वाले तकरीबन 1975 मंत्र शामिल हैं। यजुर्वेद : यह तीसरा वेद है। इसमें कार्य (क्रिया), यज्ञ (समर्पण) की प्रक्रिया के लिये गद्यात्मक मन्त्र हैं। इन मंत्रों की संख्‍या 3750 हैं। अथर्ववेद : चतुर्वेद के क्रम में सबसे आखिरी और चौथा वेद है। इसमें गुण, धर्म, आरोग्य के साथ-साथ यज्ञ के लिये कवितामयी मंत्र भी शामिल हैं। इन मंत्रों की कुल संख्‍या 7260 है। वेद हैं 'ईश्‍वर कृत' वेदों को अपौरुषेय भी कहा जाता है। 'अपौरुषेय' का अर्थ यह हुआ कि वो कार्य जिसे कोई व्‍यक्‍ति ना कर सकता हो, यानी ईश्‍वर द्वारा किया हुआ। अत: परब्रह्म को ही वेदों का रचयिता माना जाता है। श्रुति, स्‍मृति और संहिता वेदों को 'श्रुति' यानी 'सुना हुआ' भी कहते हैं। जबकि, अन्‍य हिन्‍दू ग्रंथों को 'स्‍मृति' कहते हैं, यानि मनुष्‍यों की बुद्धि या स्‍मृति पर आधारित ग्रंथ। वहीं वेद के सबसे प्राचीन भाग को 'संहिता' कहा जाता है। सुन और भली-भांति समझकर इसे एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुंचाने के कारण ही इन्‍हें 'श्रुति' कहा जाता है। स्‍वत: प्रमाणित होने के कारण इनका दूसरा नाम 'आम्नाय' भी है। गुरु के मुख से सुनकर तथा परिश्रमपूर्वक अभ्‍यास और याद करने के कारण ही वेद आज भी संरक्षित हैं। ऐसे अवतरित हुए वेद श्रीमद्भागवत गीता के अनुसार सर्वप्रथम अग्‍नि, वायु, आदित्‍य और अंगीरा ऋषियों को वेदों का ज्ञान मिला। इसके बाद इसका ज्ञान सप्‍तऋषियों तक पहुंचा। वेदों के ऋषिगण जैसा कि आप ये जान ही चुके हैं कि वेद, 'अपौरुषेय' यानी ईश्‍वरकृत हैं फिर भी इन्‍हें मनुष्‍यों ने ही लिपिबद्ध किया है। ये वो मनुष्‍य थे जिन्‍हें हम प्राचीन भारत के ऋषिगण कहते हैं। 'श्रुति' आधारित ज्ञान को ऋषिगणों के माध्‍यम से ही भू- लोक के अन्‍य विद्वानों के बीच लाया जा सका। जैमिनी, व्‍यास, पराशर, कात्‍यायन, याज्ञवल्‍क्‍य, विश्‍वामित्र और पाणिनी आदि ऋषियों को वेदों का सर्व ज्ञाता माना जाता है। इसके अलावा मध्‍यकाल के ऋषि सायण को भी वेदों का अच्‍छा ज्ञाता माना जाता है। वेदों का काल सनातन धर्म में यह मान्‍यता है कि वेद सृष्‍टि के आरंभ (चैत्र शुक्‍ल प्रतिपदा तिथि) के समय ही स्‍वयं ब्रह्मा द्वारा रचे गये थे। अगर इस दृष्‍टिकोण से देखें तो इन्‍हें अवतरित हुए 1,96,08,53,117 वर्ष होंगे। मान्‍यता है कि शुरुआत में वेद 'श्रुति' रूप में रहे और इन्‍हें काफी बाद में लिपिबद्ध किया गया। वेदों के विषय वेदवेत्‍ता महर्षि स्‍वामी दयानंद सरस्‍वती के अनुसार ज्ञान, कर्म, उपासना और विज्ञान ही वेदों के प्रमुख विषय हैं। वैसे तो वेद 'एकेश्‍वरवादी' यानी परब्रह्म को ही समर्पित हैं फिर भी इनमें प्रकृति की अन्‍य शक्‍तियों को भी देव रूप में प्रस्‍तुत किया गया है। ऋग्वेद में अग्नि, वायु, मित्रावरुण, अश्‍विनी कुमार, इंद्र, विश्‍वदेवा, सरस्वती, मरुत, प्रजापति, वरुण, उषा, पूषा, सूर्य, वैश्वानर, ऋभुगण, नद्य: रुद्र, सविता आदि देवी-देवताओं को समर्पित ऋचाएं शामिल हैं। । सामवेद में अग्नि, वायु, पूषा, विश्‍वदेवा, सविता, पवमान, अदिति, उषा, मरुत, अश्विनी, इंद्राग्नि, द्यावापृथिवी, सोम, वरुण, सूर्य, गौ:, मित्रावरुण को समर्पित ऋचाएं शामिल हैं। यजुर्वेद में सविता, यज्ञ, विष्णु, अग्नि, प्रजापति, इंद्र, वायु, विद्युत, धौ, द्यावा, ब्रह्मस्पति, मित्रावरुण, पितर, पृथ्वी आदि देवी-देवताओं को समर्पित ऋचाएं शामिल हैं। अथर्ववेद में वाचस्पति, पर्जन्य, आप:, इंद्र, ब्रहस्पति, पूषा, विद्युत, यम, वरुण, सोम, सूर्य, आशपाल, पृथ्‍वी, विश्‍वेदेवा, हरिण्यम:, ब्रह्म, गंधर्व, अग्नि, प्राण, वायु, चंद्र, मरुत, मित्रावरुण, आदित्य आदि देवी-देवताओं को समर्पित ऋचाएं शामिल हैं। वेदों के मुख्‍य विषय देव, अग्नि, रूद्र, विष्णु, मरुत, सरस्वती इत्यादि जैसे शब्द पर ही आधारित हैं। धर्मशास्‍त्र का आधार, दर्शन और विज्ञान का स्रोत वैदिक ऋचाओं में छिपे ज्ञान का विद्वान ऋषिगणों ने बड़ी ही सूक्ष्‍मता के साथ अध्‍ययन किया है। ऋषि कणाद ने 'तद्वचनादाम्‍नायस्‍य प्राणाण्‍यम्' और "बुद्धिपूर्वा वाक्यकृतिर्वेदे" कहकर वेद को दर्शन और विज्ञान का स्रोत माना है। वहीं सनातन धर्म के सबसे प्राचीन नियम विधाता महर्षि मनु ने ''वेदोऽखिलो धर्ममूलम् - खिलरहित वेद'' कहकर इसे धर्मशास्‍त्रों का आधार बताया है। वेदों का वर्गीकरण ऐसी मान्‍यता है कि आज जो हमें चार वेद मालूम पड़ते हैं वो प्राचीनकाल में एक ही थे। बाद में इन्‍हें पढ़ना और याद रख पाना कठित मालूम हुआ जिसके बाद वेद के तीन अथवा चार विभागों में बांटा गया। इन्‍हें 'वेदत्रयी' या 'चतुर्वेद' कहा जाने लगा। आइए 'वेदत्रयी' के बारे में थोड़ा विस्‍तार से समझते हैं। वेदत्रयी पूरे संसार में शब्‍द प्रयोग की तीन शैलियां होती हैं, यथा पद्य (कविता), गद्य और गान। वेदों के मंत्र भी इन तीन विभागों के अंतर्गत बंटे हुए हैं। इनमें वेद के 'पद्य' विभाग में ऋगवेद और अथर्ववेद को रखा गया है, वहीं 'गद्य' विभाग में यजुर्वेद तो 'गायन' विभाग में सामवेद को रखा गया है। इन तीन प्रकार की शब्द प्रकाशन शैलियों के आधार पर ही शास्त्र एवं लोक में वेद के लिये ‘त्रयी' शब्द का प्रयोग किया गया है। वेदों को समझने के लिए जरूरी हैं 'वेदांग' स्‍वयं परब्रह्म द्वारा रचित वेदों को समझना हर किसी के लिए आसान नहीं है। इसके लिए वेदांगों का अध्‍ययन अत्‍यंत आवश्‍यक है। जैसा कि 'वेदांग' नाम से ही परिचय मिलता है कि ये वेदों के अंग हैं। इसनकी संख्‍या 6 है। इनमें क्रमश: व्‍याकरण, शिक्षा, निरुक्‍त, ज्‍योतिष, कल्‍प और छंद शामिल हैं। आइए अब इनके बारे में थोड़ी जानकारी हासिल करें। व्याकरण : इससे प्रकृति और प्रत्यय आदि के योग से शब्दों की सिद्धि और उदात्त, अनुदात्त तथा स्वरित स्वरों की स्थिति का बोध होता है। शिक्षा : इसमें वेद मन्त्रों के उच्चारण करने की विधि बताई गई है। निरुक्त : वेदों में जिन शब्दों का प्रयोग जिन-जिन अर्थों में किया गया है, उनके उन-उन अर्थों का निश्चयात्मक रूप से उल्लेख निरूक्त में किया गया है। ज्योतिष : इससे वैदिक यज्ञों और अनुष्ठानों का समय ज्ञात होता है। यहां ज्योतिष से मतलब `वेदांग ज्योतिष´ से है। कल्प : वेदों के किस मन्त्र का प्रयोग किस कर्म में करना चाहिये, इसका कथन इसमें दिया गया है। इसकी तीन शाखायें हैं, श्रौतसूत्र, गृह्यसूत्र और धर्मसूत्र। छन्द : वेदों में प्रयुक्त गायत्री, उष्णिक आदि छन्दों की रचना का ज्ञान छन्दशास्त्र से होता है। हर वेद के हैं चार भाग चारो वेदों में से प्रत्‍येक के भी चार-चार भाग बनाए गये हैं। ये हैं : संहिता : इसमें मंत्रों की विवेचना की गई है। ब्राह्मण ग्रन्थ : इसमें गद्य के रूप में कर्मकाण्ड की विवेचना है। आरण्यक : इसमें कर्मकाण्ड के पीछे के उद्देश्य की विवेचना की गई है। उपनिषद : इसमें परमेश्वर, परब्रह्म और आत्मा के स्वभाव और सम्बन्ध का बहुत ही दार्शनिक और ज्ञानपूर्वक वर्णन है। ध्‍यान देने वाली बात यह है कि ऊपर दिये चार भागों में से 'संहिता' को मूल वेद माना गया है जबकि, बाकी के तीन इसकी व्‍याख्‍या करते हैं। उपवेद महर्षि कात्‍यायन ने चारों वेदों के चार उपवेद भी बताए हैं। इनमें शामिल हैं, आयुर्वेद, धनुर्वेद, गान्धर्ववेद तथा स्थापत्यवेद। आइए अब जरा इनके बारे में थोड़ा समझते हैं। स्थापत्यवेद : इस उपवेद में स्थापत्‍य और वास्‍तुकला के बारे में बताया गया है। धनुर्वेद : यह उपवेद युद्ध कला को समर्पित है। हालांकि, दुर्भाग्‍यवश इसके ग्रंथ विलुप्‍त प्राय हैं। गन्धर्व वेद : यह उपवेद गायन कला को समर्पित है। आयुर्वेद : वैदिक ज्ञान पर आधारित स्वास्थ्य विज्ञान ही इसका मूल विषय है। वैदिक शाखाएं महर्षि पतंजलि के महाभाष्‍य के अनुसार वेदों की कुल 1,131 शाखाएं हैं। ऋग्वेद की 21 शाखाएं, सामवेद की 1000 शाखाएं, यजुर्वेद की 101 शाखाएं और अथर्ववेद की 9 शाखाएं हैं। लेकिन दुभाग्‍य से इन 1,131 वैदिक शाखाओं में से वर्तमान में केवल 12 शाखाएं ही मूल वैदिक ग्रंथों में उपलब्‍ध हैं। मौजूदा शाखाएं हैं - ऋगवेद : कुल 21 में से मात्र दो शाखाएं हैं यथा, शाकल और शांखायन शाखा यजुर्वेद : इसमें कृष्‍णयजुर्वेद की 86 शाखाओं में से केवल चार शाखाओं के ग्रंथ मौजूद हैं यथा, तैत्‍तिरीय, मैत्रायणीय, कठ और कपिष्‍ठल शाखा। शुक्‍लयजुर्वेद की कुल 15 शाखाओं में से केवल 2 शाखाओं के ग्रंथ प्राप्‍त हैं यथा माध्‍यन्‍दिनीय और काण्‍व शाखा। सामवेद : कुल एक हजार शाखाओं में से केवल 2 शाखाओं के ही ग्रन्थ प्राप्त हैं यथा, कौथुम और जैमिनीय शाखा। अथर्ववेद : कुल 9 शाखाओं में से केवल 2 शाखाओं के ही ग्रन्थ प्राप्त हैं यथा, शौनक और पिप्पलाद शाखा। यह भी पढ़ें कौन है सच्‍चा मुसलमान ? क्‍या कहता है इस्‍लाम ? 'वेदान्‍त-इस्‍लाम के संयोग से निर्मित धर्म ही है भारत की आशा' पद्मनाभस्‍वामी मंदिर के तहखाने में छिपा है कौन सा रहस्‍य ! वैज्ञानिकों ने माना, गंगा का मूल उद्गम गंगोत्री नहीं कैलाश है ! इन वैदिक मंत्रों के अभ्‍यास से अपने क्रोध पर पाएं काबू क्‍या आप जानते भी हैं क्‍या है हिन्‍दू धर्म के 10 सिद्धांत ? क्‍या आप जानते हैं क्‍या है 'ॐ' का रहस्‍य ? भारत को एक सूत्र में पिरोते हैं ये 12 ज्‍योतिर्लिंग क्‍या है शिवलिंग ? स्‍वयं ब्रह्मा ने बताया है इसका रहस्‍य ! जानिए, क्‍या हैं पुराण ? महर्षि वेदव्‍यास ने क्‍यों की इनकी रचना बौद्धधर्म : कुछ रोचक जानकारियां जिन्‍हें आप शायद नहीं जानते धर्म और आध्‍यात्‍म से जुड़ी खबरों के लिए लाइक करें ईनाडु इंडिया का पेज'धर्मक्षेत्र' आप हमें ट्विटर पर भी फॉलो कर सकते हैं। ट्विटर पर'धर्मक्षेत्र' About UsTerms of UseCarrersContact Us for AdvertisementsFeedback Copyright @ 2017, Ushodaya Enterprises Pvt. Ltd., All Rights Reserved. Powered by VPF

भारद्वाज श्रौतसूत्र

Phonetic Go  देवनागरी खोज भारद्वाज श्रौतसूत्र   यह तैत्तिरीय शाखा का दूसरा श्रौतसूत्र है। सत्याषाढ (हिरण्यकेशिसूत्र) की महादेवकृत 'वैजयन्ती' टीका के मंगल में तैत्तिरीय शाखा के कल्पाचार्यों की वन्दना की गई है। उसमें बौधायन के बाद भरद्वाज का नाम है। परम्परा से भरद्वाज और भारद्वाज– इन दोनों शब्दों के प्रयोग मिलते हैं। भारद्वाज शब्द का प्रयोग अधिक प्राचीन है। स्वयं भारद्वाज गृह्यसूत्र[1] में आचार्य भरद्वाज का निर्देश है–'भारद्वाजाय सूत्रकाराय।' सूची उपलब्ध श्रौतसूत्र में निम्नलिखित विषयों का वर्णन है:– प्रश्न विषय 1–4. दर्शपूर्णमास 5. अग्न्याधेय 6. अग्निहोत्र, आग्रयण 7. निरूढपशु 8. चातुर्मास्ययाग 9. पूर्वप्रायश्चित्त 10–14. ज्योतिष्टोम, प्रवर्ग्य 15. ज्योतिष्टोम ब्रह्मत्व सूत्रग्रन्थ जैसा कि उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है, यह सूत्रग्रन्थ प्रश्नों में विभक्त है। प्रत्येक प्रश्न में कुछ कण्डिकाएँ हैं और कण्डिकाओं में सूत्र हैं। यह सूत्रग्रन्थ है, प्रवचन नहीं है। सूत्रारम्भ में विध्यंश है और बाद में मन्त्र। बौधायन श्रौतसूत्र की अपेक्षा इसमें अनेक तैत्तिरीय शाखीय विषयों का अभाव होने से अपूर्ण प्रतीत होता है। प्रमाणपुरस्सर कहा जा सकता है कि कदाचित् पहले यह सूत्रग्रन्थ पूर्ण था, जिसके अप्रकाशित अंशों के हस्तलेख परम्परा का लोप होने से नष्ट हो गए। सौभाग्य से इसके प्रमाण अन्य सूत्रग्रन्थों में, उनके भाष्यों और प्रयोगों में मिलते हैं। डॉ. रघुवीर ने अपने संस्करण में भारद्वाज श्रौतसूत्र के उन प्रकरणों का संग्रह किया है, जो उन्हें आपस्तम्ब श्रौतसूत्र के रुद्रदत्तकृत भाष्य में और सत्याषाढ सूत्र की महादेवकृत 'वैजयन्ती' में मिले। डॉ. काशीकर ने भी अपने संस्करणों में इन उद्धरणों का संकलन कर उन्हें प्रकाशित किया है। इन प्रकरणों (उद्धरणों) में दाक्षायण यज्ञ, इष्टिहोत्र, काम्य पशुयाग, सोमयाग, प्रायश्चित्त, पश्वैकादशिनी, अग्निचयन और अश्वमेध का निरूपण है। इससे स्पष्ट है कि मूल श्रौतसूत्र में ये विषय अन्तर्भूत थे। नवम प्रश्न में अग्निहोत्र और इष्टि सम्बन्धी प्रायश्चित्त समाविष्ट हैं। इसी कारण उसे पूर्व प्रायश्चित्त कहा गया है। अन्य विषय सम्बन्धी प्रायश्चित्त निरूपक भारद्वाज सूत्र के उद्धरण मिलने से अनुमान होता है कि इस सूत्रग्रन्थ में 'उत्तरप्रायश्चित्त' संज्ञक एक प्रश्न था। भरद्वाज ने संहिता, ब्राह्मण और आरण्यक इन तीनों ग्रन्थों के मन्त्रों का विनियोग किया है। भरद्वाज ने तीसरे काण्ड के मन्त्रों का विनियोग उचित स्थान पर दिया है। उनके सामने सारस्वत पाठ प्रतिष्ठित रूप में था, इस कारण आवश्यकता के अनुरूप वह मन्त्रों का निर्देश 'अनुवाक' या 'अनुवाशकशेष' शब्दों से करते हैं। कभी–कभी 'इति प्रतिपद्य ... इत्यन्ते' (यहाँ से वहाँ तक) रूप में भी निर्देश है। भारद्वाज सूत्रों में ब्राह्मण ग्रन्थों के उद्धरण भी मिलते हैं। इन्हें उद्धृत करके अन्त में 'इति विज्ञायते' का उल्लेख है। इस सम्बन्ध में कभी–कभी 'ब्राह्मण–व्याख्यातम्' या 'यथा समाम्नातम्' शब्दों का भी प्रयोग किया गया है। बौधायन श्रौतसूत्र के विपरीत भारद्वाज ने तैत्तिरीय ब्राह्मण[2] के अच्छिद्र काण्ड में से भी कुछ मन्त्रों का विनियोग किया है। उपलब्ध भारद्वाज सूत्र में हौत्र का कोई अंश नहीं है। अग्निष्टोम या ज्योतिष्टोम प्रवर्ग्य विधि सोमयाग के अंगरूप में की जाती है। उसका स्थान कहाँ होना चाहिए, इस विषय में यजुर्वेदीय सूत्रों में कोई नियम नहीं है। बहुधा अग्निष्टोम या ज्योतिष्टोम के पश्चात् इसका विवरण स्वतन्त्र प्रश्न में दिया गया है। भारद्वाज सूत्र की हस्तलिखित प्रतियों में और प्रकाशित संस्करण में भी वह ज्योतिष्टोम के मध्य में दिया गया है। इस प्रकार भारद्वाज सूत्र में प्रवर्ग्य विधि स्वतन्त्र प्रश्न में वर्णित है। प्रतीत होता है कि किसी हस्तलेख के लेखक ने अपनी सुविधा के लिए उसे ज्योतिष्टोम के मध्य में रख दिया जिसका अनुसरण अन्य लोगों ने किया, क्योंकि वस्तुत: प्रवर्ग्य का स्थान ज्योतिष्टोम के अन्त में होना चाहिए, न कि अनुष्ठान–क्रम को खण्डित करते हुए मध्य में। मन्त्र और संहिता भरद्वाज सूत्र अपनी तैत्तिरीय शाखा के साथ अन्य शाखाओं से भी मन्त्र लेकर उनका विनियोग बतलाता है। उसने काण्ड और मैत्रायणीय शाखाओं से भी मन्त्र लिए हैं। वाजसनेय संहिता के भी कुछ मन्त्र उसमें मिलते हैं। चार ऋचाएँ उसमें शौनकीय अथर्ववेद से भी उद्धृत हैं। इनमें से अधिकाशं उद्धरण भारद्वाज और आपस्तम्ब सूत्र में समान हैं। हाँ, एक अन्तर अवश्य है। आपस्तम्ब श्रौतसूत्र में जहाँ ‘वाजसनेयक’ अथवा 'वाजसननेयिन्' के निर्देश के साथ कुछ मत प्रदर्शित हैं, वहीं भारद्वाज सूत्र में एक बार भी इस प्रकार का निर्देश नहीं मिलता। एक बात और ध्यान देने की है। कुछ स्थलों में भारद्वाज सूत्र जहाँ काठक और मैत्रायणीय संहिता का मन्त्र विनियुक्त करता है, वहीं आपस्तम्ब सूत्र तैत्तिरीय या वाजसनेय संहिता का आश्रय लेता है। वेद वेदों के कर्मकाण्ड में जो विभिन्न परम्पराएँ निर्मित हुईं, उनके कारण का सन्धान विविध ऐतिहासिक और भौगोलिक स्थितियों में करना चाहिए। पहले प्रत्येक वेद के शाकल, बाष्कल प्रभृति विभिन्न चरण हुए, फिर उनके आधार पर विभिन्न सम्प्रदाय स्थापित हुए, जो शाखाओं के रूप में विद्यमान हैं। सामान्यत: यह कहा जा सकता है कि जिस विषय में ब्राह्मणोक्त विधि स्पष्ट नहीं है, वहाँ सूत्रों में परस्पर मतभेद दिखलाई पड़ते हैं। यों ब्राह्मणों में भी भिन्न–भिन्न अनुष्ठान विषयक मत व्यक्त करने वाले आचार्यों के नाम मिलते हैं। ‘क्वचित्, एके, अपरे’ प्रभृति शब्दों द्वारा इस मत–वैभिन्न्य का प्रकाशन हुआ है। भारद्वाज श्रौतसूत्र में आश्मरथ्य और आलेखन इन दो आचार्यों के नाम कुछ बार आए हैं जो विधि के सम्बन्ध में विभिन्न मत व्यक्त करते हैं। भारद्वाज परिशेष सूत्र और भारद्वाज गृह्यसूत्र में भी इनके विभिन्न मतों का निर्देश मिलता है। भारद्वाज सूत्र के अतिरिक्त आपस्तम्ब श्रौतसूत्र, सत्याषाढ सूत्र, आश्वलायन श्रौतसूत्र, बौधायन प्रवरसूत्र, अथर्व प्रायश्चित्तानि तथा पूर्वमीमांसा सूत्र में भी इन दो आचार्यों के विभिन्न मत उद्धृत हैं। इनके अध्ययन से यह निष्कर्ष निकलता है कि प्राय: आश्मरथ्य का मत परम्परा के अनुकूल होता है और आलेखन का मत सुविधा की प्रधानता के अनुरूप होता है। भारद्वाज परिशेष सूत्र का द्वितीय प्रशोजन है कि एक ओर यह भारद्वाज भारद्वाज श्रौतसूत्र का परिशिष्ट है तथा दूसरी ओर परिभाषाओं का संग्रह है। कुल 222 सूत्रों में से 102 परिभाषा स्वरूप हैं, तथा 9 अनुग्रह रूवरूप तथा शेष परिशिष्ट प्रकार के हैं। परिशिष्ट सूत्र मूल सूत्रों को लेकर प्रवृत्त होते हैं। परिशेष सूत्र में आश्मरथ्य और आलेखन के साथा बादरायण और औडुलोमि के नाम आते हैं। कुछ सूत्र ब्राह्मण वाक्य सदृश हैं। हस्तलेखों में प्राप्त संकेतों से अनुमान होता है कि परिभाषा सूत्र कंडिकाओं में विभक्त था। सूत्रों में से एक तिहाई ऊसे सूत्र हैं, जिनके विषय उपलब्ध भारद्वाज सूत्र में नहीं हैं। परिशेष सूत्र का अधिकार भारद्वाज श्रौतसूत्र के ही समान रहा है। इसका प्रमाण यह है कि तैत्तिरीय शाखा के सूत्रों के टीकाकारों ने परिशेष और श्रौतसूत्र दोनों के ही सूत्रों का निर्देश भारद्वाज के नाम से ही किया गया है। परिशेष सूत्र के विषयक्रम के संकीर्ण होने से प्रतीत होता है कि यह एक आचार्य की कृति नहीं है। इसके प्रणयन में अनेक रचनाकारों ने योगदान किया होगा। श्रौतसूत्र तथा गृह्यसूत्र भारद्वाज रचित श्रौतसूत्र तथा गृह्यसूत्र; दोनों की एक ही शैली है। इससे निष्कर्ष निकलता है कि दोनों की रचना एक ही व्यक्ति ने की थी। भारद्वाज पैतृमेधिक सूत्र का भी श्रौतसूत्र से साधर्मय है। अत: इसे भी उसी रचनाकार की कृति मानना उपयुक्त है। भारद्वाज श्रौतसूत्र में ब्राह्मण ग्रन्थों की भाषा–शैली के बहुत प्रयोग मिलते हैं। प्राकृत भाषा के अंश भी इसमें मिलते हैं। भारद्वाज श्रौतसूत्र के पर्युक्त परिचय से इसकी प्राचीनता सुस्पष्ट है। बौधायन और भारद्वाज सूत्रों में कुछ बातें समान हैं तथा कुछ में भिन्नता भी है। भारद्वाज बौधायन के सदृश विस्तार से विषयों का प्रतिपादन नहीं करते और न ही मन्त्रों को पूर्ण रूप से उद्धृत करते हैं। जहाँ तक भारद्वाज सूत्र का विस्तार है, वहीँ तक बौधायन और भारद्वाज के विषयक्रम में भिन्नता है। दर्शपूर्णमासेष्टि में ब्रह्मत्व में ज्योतिष्टोम के पूर्व प्रायश्चित्तों का विधान है। बौधायन में सभी प्रायश्चित्त अन्त में एकत्र दिए गए हैं। भारद्वाज में प्रवर्ग्यप्रश्न को हस्तलेखों के लेखकों ने ज्योतिष्टोम के मध्य में सम्मिलित कर दिया है। बौधायन की अपेक्षा आपस्तम्ब श्रौतसूत्र से भारद्वाज की रचना–शैली अधिक मिलती है। दोनों में विषयों का क्रम प्राय: समान है। इतना ही नहीं, सूत्रों और शब्द–प्रयोगों में भी बहुधा साम्य है। आपस्तम्ब की अपेक्षा भारद्वाज की रचना–शैली कुछ शिथिल है। इन प्रमाणों से यह स्पष्ट है कि भारद्वाज का समय बौधायन के पश्चात् और आपस्तम्ब के पूर्व है। भारद्वाज ने सम्भवत: ई. पू. 550 के आस–पास अपना श्रौतसूत्र रचा होगा। भारद्वाज सूत्र में मैत्रायणीय संहिता से मन्त्र उद्धृत किए गए हैं। इस संहिता का भौगोलिक क्षेत्र कुरूपाञ्चाल प्रदेश में था। भारद्वाज गृह्यसेत्र में यमुना नदी का निर्देश मिलता है। इससे स्पष्ट है कि भारद्वाज का स्थान कुरु-पांचाल में यमुना नदी के प्रदेश में था। इस शाखा के अनुयायी आन्ध्र प्रदेश और तमिलनाडु में थे। इस शाखा के हस्तलेख भी इन्हीं प्रदेशों में मिले हैं। प्रतीत होता है कि इस शाखा के इने–गुने अनुयायी ही शेष हैं। संस्करण भारद्वाज श्रौतसूत्र के प्रथम 11 प्रश्न समग्र रूप से और 12वें प्रश्न का कुछ अंश सर्वप्रथम डॉ. रघुवीर ने ‘जर्नल ऑफ वैदिक स्टडीज़’ भाग 1–2, में लाहौर से सन् 1934 में प्रकाशित किया गया था। सन् 1964 में डॉ. चिं. ग. काशीकर के द्वारा अनेक हस्तलेखों के आधार पर पुन: सम्पादित तथा अंग्रेज़ी में अनूदित रूप में पितृमेध और परिशेष सूत्र सहित वैदिक संशोधन मण्डल, पुणे से दो भागों में प्रकाशित इस संस्करण का उपोद्घात अत्यन्त शोधपूर्ण सामग्री से संवलित है। टीका टिप्पणी और संदर्भ ऊपर जायें ↑ 3.11.1 उपाकरणोत्सर्जन ऊपर जायें ↑ तैत्तिरीय ब्राह्मण, 3.7 संबंधित लेख देखें • वार्ता • बदलें श्रौतसूत्र ॠग्वेदीय श्रौतसूत्र शांखायन श्रौतसूत्र · आश्वलायन श्रौतसूत्र शुक्ल-कृष्ण यजुर्वेदीय बौधायन श्रौतसूत्र · भारद्वाज श्रौतसूत्र · आपस्तम्ब श्रौतसूत्र · वाधूल श्रौतसूत्र · मानव श्रौतसूत्र · वाराह श्रौतसूत्र · हिरण्यकेशी श्रौतसूत्र · वैखानस श्रौतसूत्र · कात्यायन श्रौतसूत्र सामवेदीय श्रौतसूत्र आर्षेय कल्पसूत्र · क्षुद्र कल्पसूत्र · लाट्यायन श्रौतसूत्र · द्राह्यायण श्रौतसूत्र · जैमिनीय श्रौतसूत्र अथर्ववेदीय श्रौतसूत्र वैतान श्रौतसूत्र श्रुतियाँ देखें • वार्ता • बदलें वेद वेद · संहिता · वैदिक काल · उत्तर वैदिक काल · वेद का स्वरूप · वैदिक वाङ्मय का शास्त्रीय स्वरूप · वेदों का रचना काल · ऋग्वेद · यजुर्वेद · सामवेद · अथर्ववेद · मनुसंहिता · वेदांग · वेदांत · ब्रह्मवेद · वैदिक धर्म देखें • वार्ता • बदलें उपवेद और वेदांग उपवेद अर्थवेद (ॠग्वेद) कामन्दक सूत्र · कौटिल्य अर्थशास्त्र · चाणक्य सूत्र · नीतिवाक्यमृतसूत्र · बृहस्पतेय अर्थाधिकारकम् · शुक्रनीति धनुर्वेद (दोनों यजुर्वेदों के लिए मुक्ति कल्पतरू · वृद्ध शारंगधर · वैशम्पायन नीति-प्रकाशिका · समरांगण सूत्रधार गान्धर्ववेद (सामवेद) दत्तिलम · भरत नाट्यशास्त्र · मल्लिनाथ रत्नाकर · संगीत दर्पण · संगीत रत्नाकर आयुर्वेद (अथर्ववेद) अग्निग्रहसूत्रराज · अश्विनीकुमार संहिता · अष्टांगहृदय · इन्द्रसूत्र · चरक संहिता · जाबालिसूत्र · दाल्भ्य सूत्र · देवल सूत्र · धन्वन्तरि सूत्र · धातुवेद · ब्रह्मन संहिता · भेल संहिता · मानसूत्र · शब्द कौतूहल · सुश्रुत संहिता · सूप सूत्र · सौवारि सूत्र वेदांग      कल्प     गृह्यसूत्र (रीति-रिवाजों, प्रथाओं हेतु) · 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कर्मकांड संबंधी शंकानिरसन

Skip to content Select Language Search Menu Home > अध्यात्म > गुरुकृपायोग > नामजप > कर्मकांड संबंधी शंकानिरसन कर्मकांड संबंधी शंकानिरसन January 14, 2017 अध्यात्म की सैद्धांतिक भाग का कितना भी अभ्यास करें, तब भी मन की शंकाओं का निरसन न होने पर साधना ठीक से नहीं होती है । इस दृष्टि से गांव-गांव के जिज्ञासु और साधकों के मन में सामान्यत: निर्माण होनेवाले अध्यात्मशास्त्र की सैद्धांतिक और प्रायोगिक भाग की शंकाओं का सनातन संस्था के प्रेरणास्थान प.पू. डॉ. जयंत आठवले ने निरसन किया है । ‘शंकानिरसन’ इस स्तंभ से प्रश्नोत्तर के रूप में यह सर्व ही पाठकों के लिए उपलब्ध कर रही है । इसका अभ्यास कर अधिकाधिक जिज्ञासु उचित साधना आरंभ करें और अपने जीवन का खरे अर्थ में सार्थक कर लें, यही श्रीकृष्ण के चरणों में प्रार्थना है ! कर्मकांड साधना का प्राथमिक परंतु अविभाज्य भाग है । कर्मकांड में पालन करने योग्य विविध नियम, आचरण कैसे होना चाहिए, इस विषय में अनेक लोगों को जानकारी होती है; परंतु उसके पीछे का कारण और शास्त्र के विषय में हम अनभिज्ञ होते हैं । प्रत्येक कृति के पीछे का शास्त्र ध्यान में रखने से भगवान पर श्रद्धा बढने में सहायता होती है । इस दृष्टि से पूछे गए विविध प्रश्नों के उत्तर इसमें दिए हैं । प्रश्न : स्त्रियां गुरुचरित्र का वाचन न करें, गायत्रीमंत्र न बोलें, इसके पीछे क्या कारण है ? उत्तर : वर्तमान काल में स्त्रियां पुरुषों समान आचरण करने का प्रयत्न करती हैं । हमें भी पुरुषों समान अधिकार चाहिए, ऐसा कहते हुए वे लडती हैं । दोनों की देह तो भिन्न है । पुरुषों की जननेंद्रीय बाहर की ओर हैं, जबकि स्त्रियों की अंदर की ओर हैं, उदा. गर्भाशय । कोई भी साधना तपश्चर्या है, तप है, उससे उष्णता निर्माण होती है । उसका पुरुषों की जननेंद्रियों पर कोई परिणाम नहीं होता; इसलिए कि वे बाहर की ओर होती हैं । हवा लगती रहती है । इससे उनका तापमान अल्प होता है; परंतु स्त्रियों की जननेंद्रीय अंदर की ओर होने से अधिक तापमान में अधिक समय कार्य नहीं कर सकती हैं । इसलिए गायत्री की अथवा ओंकार की साधना, सूर्याेपासना ऐसी तीव्र साधना करने से लगभग २ प्रतिशत स्त्रियों को गर्भाशय के विकार आरंभ हो जाते हैं । स्त्रीबीज निर्माण करनेवाली जो ग्रंथियां हैं, उनके विकार आरंभ हो जाते हैं । माहवारी के समय कोई न कोई कष्ट अवश्य होता है । गुरु ने यदि किसी को इस प्रकार की साधना बताई, तो प्रश्न ही नहीं उठता; इसलिए कि गुरु को सब पता ही होता है, किसे क्या करना आवश्यक है । किसी कारणवश शरीर को कोई विकार हो जाए, तो प्रतिजैविक लेकर वह ठीक कर सकते हैं; परंतु इन शक्तियों के कारण कुछ कष्ट निर्माण होने पर वहां वैद्य कोई सहायता नहीं कर सकते हैं । इसलिए वैसा करने की अपेक्षा अपनी परंपरा के अनुसार ही करना चाहिए । अर्थात भगवान के नाम के आगे ॐ लगाना टालें ‘ॐ नमः शिवाय ’ के स्थान पर केवल ‘नमः शिवाय’ बोलें । गायत्री की उपासना करना टालें ।   प्रश्न : हम रूढिप्रिय होेते हैं और रूढि के अनुसार दादा, परदादा अथवा अपने से पूर्व की पीढियों ने जो बताया है, उसप्रकार हम कुछ करते हैं । साधक की दृष्टि क्या यह योग्य है ? उत्तर : रूढि को कोई अर्थ नहीं होता । शास्त्र में जो है, उसी प्रकार करना चाहिए । शास्त्र का अर्थ है ‘साइन्स’ । जो बात प्रमाणसहित सिद्ध की गई होती है, वह पुनःपुन: सिद्ध की जा सकती है; परंतु अनेक कुटुंबों में रूढि शास्त्र से भी अधिक बलवान होती है । ऐसे में यदि हम शास्त्र बताने गए, तो कोई सुनेगा नहीं । उसके स्थान पर जो वे करते हैं, उन्हें वैसे करने देना है । एक बार उनका साधना पर विश्वास हो जाए, तो वे हमारे शब्दों पर विश्वास रखेंगे । शब्दप्रमाण निर्माण होने पर, हम बता सकते हैं कि वह रूढि है । तब तक बताना टालें ।    प्रश्न : क्या गुरुपुष्यामृत के दिन सत्यनारायण की पूजा करें ? उत्तर : सत्यनारायण की पूजा, यह एक रुढि का भाग है । गत सौ वर्षों से वह हमारे पास आ गई है । धर्मशास्त्र में उसका उल्लेख नहीं है । बंगाल से वह हमारे पास आई है । धर्मशास्त्र में नियम बताए गए हैं । पंडितजी हमें बताते हैं कि इस विधि के लिए यह योग अच्छा है, अथवा दिन अच्छा है, नक्षत्र अच्छा है, उस प्रकार वह विधि करनी चाहिए । भक्तिभाव से करने पर कोई बंधन नहीं होता, कोई भी विधि कभी भी करें ।   प्रश्न : कहते हैं कि गांव में गणपति बिठाए हैं, तो अन्यत्र बिठाने की आवश्यकता नहीं है । इसके पीछे क्या शास्त्र है ? उत्तर : यह प्रथा अत्यंत अयोग्य है । जहां-जहां अलग रसोई बनती है, वहां पर अलग-अलग देवघर होना चाहिए । केवल बडा भाई ही भगवान का सर्व करता है, तो भगवान भी सब कुछ केवल बडे भाई के लिए ही करेंगे औरों के लिए कुछ नहीं करेंगे ।   प्रश्न : पंचायतन देवताओं के विषय में देवघर में रचना कैसे करनी चाहिए ? कुलदेवता की मूर्ति की रचना करते समय क्या श्री गणेश की मूर्र्र्र्ति मध्य में रखना आवश्यक है ? उत्तर : अपने यहां लोग पागलपन करते हैं । कोई जब किसी गांव अथवा तीर्थक्षेत्र जाता है, तो वहां से लौटते समय सभी सगे-संबंधियों के लिए आस-पडोस में रहनेवालों के लिए चित्र व मूर्तियां ले आता है और सभी में बांटता है । हम उस मूर्ति को देवघर में रख देते हैं । एक जिले में सत्संग के लिए आनेवाली एक महिला के सात घंटे केवल पूजा करने में जाते थे । उसे रात में दो बजे उठकर सब करना पडता था, तब कहीं ९ बजे तक सर्व पूर्ण होती थी । इसमें धार्मिकता, श्रद्धा, भाव कुछ भी नहीं था । हमारी दृष्टि से दो-चार भगवान ही महत्त्वपूर्ण हैं । उनकी ही प्रतिमा अथवा मूर्ति देवघर में रखनी चाहिए । कुलदेव और कुलदेवी, विवाह के समय मायके से लाई हुई अन्नपूर्णा माता की मूर्ति; कुछ कुल में हनुमानजी का विशेष महत्त्व है इसलिए एक उनकी मूर्ति । ऐसे दो-चार देवता पर्याप्त हैं । पहले की पीढी को अन्नपूर्णा माता की मूर्ति को देवघर में रखने की आवश्यकता नहीं थी; इसलिए कि अन्नपूर्णा तत्त्व है । ‘अनेक से एक में जाना’, यह साधना का पहला नियम है । ‘मुंबई के एक डॉक्टर मित्र ने मुझे (प.पू. डॉ. जयंत आठवले को) एक बार अपने घर पर बुलाया । उनके घर पहुंचने पर मैंने कहा, ‘‘यह आपका कक्ष है न, उसके उस सिरे से कुछ बुरा-सा लग रहा है । इस पर वे बोले, ‘‘अरे डॉक्टर, ऐसे क्या कहते हैं, वहां तो हमारा देवघर है ।’’ मैंने अंदर जाकर देखा, तो उस स्थान पर २५ – ३० देवताओं की मूर्तियां और प्रतिमा रखीं थीं । जहां देवता की मूर्तियां अथवा प्रतिमा है, वहां उस देवता का ‘शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध और शक्ति’ एकत्र होती है । हम सभी को केवल शब्द और रूप ज्ञात होता है । भगवान की हम उपासना करते गए, कि उनके दर्शन होते हैं । जिसने पदार्थ विज्ञान का अभ्यास किया है, उन्हें प्रत्येक वस्तु में विद्यमान शक्ति के बारे में पता होता है । दो शक्तियों के एकत्र आने पर उनका परिणाम होता है, और कोई नई शक्ति निर्माण होती है । उस देवघर में अनेक देवता किसी भी प्रकार रखने से उसके परिणामस्वरूप कष्टदायी शक्ति निर्माण हुई थी । देवघर में उपरोक्त बताए अनुसार आवश्यक देवता ही रख कर, शेष या तो समीप ही स्थित किसी मंदिर में दान दें अथवा उन्हें विसर्जन कर दें । इससे कुछ भी नहीं बिगडेगा । जिसे गुरुप्राप्ति हो चुकी हो, वे केवल गुरु का ही छायाचित्र देवघर में रखें । हम कुटुंब में रहते हैं और एक ही पूजा घर है, तो घर के अन्य सदस्यों का भी विचार करें । उनके लिए कुल मिलाकर चार-पांच देवता पूजाघर में रखें । परंतु यदि हम पर समय आया तो तुरंत सभी की पूजा करनी है । शंकराचार्य जिस काल में पंचायतन लाए, उसी काल में गणेशजी को भी लाए । पूर्व में शैव और वैष्णव संंप्रदायों में बहुत झगडे होते थे । तब उनमें समन्वय साधने हेतु शंकराचार्यजी ने शंकर और विष्णु को नहीं; अपितु पहला मान श्री गणेश को देना निश्चित किया । गणेशजीकी विशेषता है । हम जो बोलते हैं, वह नाद भाषा है । देवताओं की प्रकाश भाषा होती है और श्री गणेशजी को दोनों भाषाएं आती हैं; इसलिए श्री गणेश ‘दुभाषिए’ का काम करते हैं । व्यासजी को पुराण लिखना था । उस समय उन्हें विचारों के स्तर पर सूझनेवाला था, इसलिए विचारों की गति ग्रहण कर, उसी गति से लिखे जाने की आवश्यकता थी । इसके लिए उन्होंने श्री गणेशजी को चुना । मानसिक दृष्टि से पंथों का एकत्रीकरण और आध्यात्मिक दृष्टि से प्रकाश और नाद भाषा का रूपांतर करना, इन दोनों बातों के कारण श्री गणेशजी को पूजाघर के मध्यभाग में स्थान दिया था । श्री गणेशजी की एक ओर पुरुषवाचक देवता, उदा. कुलदेव, हनुमान और बाएं ओर स्त्रीवाचक देवता, उदा. कुलदेवी, अन्नपूर्णा । पूजा के समय पुरोहित पत्नी को पति की बार्इं ओर, तो कभी दार्इं ओर बैठने के लिए कहते हैं । उपासना के लिए शक्ति चाहिए तो पत्नी को दार्इं ओर बिठाते हैं और शक्ति विरहित पूजा करनी हो, तब पत्नी को बाएं बिठाते हैं । शक्ति संप्रदाय में पूर्णत: इसके विपरीत देवताओं की रचना होती है । हम सभी भक्तिमार्गानुसार साधना करनेवाले हैं । उसमें हमें शक्ति नहीं, अपितु हमें शक्ति को नष्ट कर शिव की अनुभूति लेनी है; इसलिए हम पुरुषवाचक देवताओं को अपने दार्इं ओर रखते हैं । संदर्भ : सनातन-निर्मित दृश्यश्रव्य चक्रिका ‘अध्यात्मसंबंधी शंकानिरसन’ Categories नामजप, शंकानिरसन Post navigation अध्यात्मसंबंधी शंकानिरसन कष्ट संबंधि शंकानिरसन संबंधित लेख यदि देवी की मूर्ति नीचे गिर जाए अथवा गिरकर टूट जाए, तब क्या करना चाहिए ?अन्य पंथीय व्यक्ति को हिन्दू धर्म में प्रवेश का अध्यात्मशास्त्र !नामजप संबंधी शंकानिरसनकष्ट संबंधि शंकानिरसनअध्यात्मसंबंधी शंकानिरसनजपमाला (मणिमाला) का उपयोग कैसे करें ? 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काण्ड

🌷
    
मंत्र- जप , देव पूजन तथा उपासना के संबंध में प्रयुक्त होने वाले कुछ विशिष्ट शब्दों का अर्थ इस प्रकार समझना चाहिए –

1.पंचोपचार – गन्ध , पुष्प , धूप , दीप तथा नैवैध्य
द्वारा पूजन करने को ‘पंचोपचार’ कहते हैं |

2. पंचामृत – दूध ,दही , घृत, मधु { शहद ] तथा शक्कर इनके मिश्रण को ‘पंचामृत’ कहते हैं|

3. पंचगव्य – गाय के दूध ,घृत , मूत्र तथा गोबर इन्हें सम्मिलित रूप में ‘पंचगव्य’ कहते हैं |

4. षोडशोपचार – आवाहन् , आसन , पाध्य , अर्घ्य ,
आचमन , स्नान , वस्त्र , अलंकार , सुगंध , पुष्प , धूप ,
दीप , नैवैध्य , ,अक्षत , ताम्बुल तथा दक्षिणा इन
सबके द्वारा पूजन करने की विधि को ‘षोडशोपचार’
कहते हैं |

5. दशोपचार – पाध्य , अर्घ्य ,आचमनीय , मधुपक्र , आचमन , गंध , पुष्प ,धूप , दीप तथा नैवैध्य द्वारा पूजन करने की विधि को ‘दशोपचार’ कहते हैं |

6. त्रिधातु –सोना , चांदी और लोहा |कुछ आचार्य सोना ,चांदी , तांबा इनके मिश्रण को भी ‘त्रिधातु’
कहते हैं |

7. पंचधातु – सोना , चांदी , लोहा ,
तांबा और जस्ता |

8. अष्टधातु – सोना , चांदी, लोहा ,
तांबा , जस्ता , रांगा ,कांसा और पारा |

9. नैवैध्य –खीर , मिष्ठानआदि मीठी वस्तुये |

10. नवग्रह –सूर्य , चन्द्र , मंगल , बुध , गुरु , शुक्र , शनि , राहु और केतु।

11. नवरत्न – माणिक्य , मोती ,मूंगा , पन्ना ,
पुखराज , हीरा ,नीलम , गोमेद , और
वैदूर्य |

12. [A] अष्टगंध – अगर , तगर , गोरोचन , केसर ,
कस्तूरी ,,श्वेत चन्दन , लाल चन्दन और सिन्दूर
[ देवपूजन हेतु ]

[B] अगर , लाल चन्दन ,हल्दी , कुमकुम , गोरोचन , जटामासी ,शिलाजीत और कपूर [ देवी पूजन
हेतु]

13. गंधत्रय – सिन्दूर , हल्दी , कुमकुम |

14. पञ्चांग – किसी वनस्पति के पुष्प , पत्र ,
फल , छाल ,और जड़ |

15. दशांश – दसवां भाग |

16. सम्पुट –मिट्टी के दो शकोरों को एक-दुसरे के मुंह से मिला कर बंद करना |

17. भोजपत्र – एक वृक्ष की छाल |
मन्त्र प्रयोग के लिए भोजपत्र का ऐसा टुकडा लेना चाहिए ,जो कटा-फटा न हो |

18. मन्त्र धारण –किसी भी मन्त्र
को स्त्री पुरुष दोनों ही कंठ में धारण कर सकते हैं ,परन्तु यदि भुजा में धारण करना चाहें तो पुरुषको अपनी दायीं भुजा में और स्त्री को बायीं भुजा में धारण
करना चाहिए |

19. ताबीज – यह तांबे के बने हुए
बाजार में बहुतायत से मिलते हैं | ये गोल तथा चपटे दो आकारों में मिलते हैं | सोना , चांदी , त्रिधातु तथा अष्टधातु आदि के ताबीज बनवाये जा सकते हैं |

20. मुद्राएँ –
हाथों की अँगुलियों को किसी विशेष
स्तिथि में लेने कि क्रिया को‘मुद्रा’ कहा जाता है | मुद्राएँ अनेक
प्रकार की होती हैं |

21. स्नान –
यह दो प्रकार का होता है | बाह्य तथा आतंरिक,बाह्य स्नान
जल से तथा आन्तरिक स्नान जप द्वारा होता है |

22. तर्पण –नदी , सरोवर ,आदि के जल में घुटनों तक
पानी में खड़े होकर ,हाथ की अंजुली द्वारा जल गिराने
की क्रिया को ‘तर्पण’ कहा जाता है | जहाँ नदी , सरोवर आदि न हो ,वहां किसी पात्र में पानी भरकर
भी ‘तर्पण’ की क्रिया संपन्न कर ली जाती है |

23. आचमन – हाथ में जल लेकर उसे अपने मुंह में डालने की क्रिया को आचमन कहते हैं |

24. करन्यास –अंगूठा , अंगुली , करतल तथा करपृष्ठ पर मन्त्र जपने को ‘करन्यास’ कहा जाता है |

25. हृद्याविन्यास –ह्रदय आदि अंगों को स्पर्श करते हुएमंत्रोच्चारण को ‘हृदय्विन्यास’ कहते हैं |

26. अंगन्यास – ह्रदय ,शिर , शिखा , कवच , नेत्र एवं करतल – इन 6 अंगों से मन्त्र का न्यास करने की क्रिया को ‘अंगन्यास’ कहते हैं
|

27. अर्घ्य – शंख , अंजलि आदि द्वारा जल छोड़ने को अर्घ्य देना कहा जाता है |घड़ा या कलश में पानी भरकर
रखने को अर्घ्य-स्थापन कहते हैं | अर्घ्य पात्र में दूध ,
तिल , कुशा के टुकड़े , सरसों , जौ , पुष्प , चावल एवं कुमकुम इन सबको डाला जाता है |

28. पंचायतन पूजा – इसमें पांच देवताओं –
विष्णु , गणेश ,सूर्य , शक्ति तथा शिव का पूजनकिया जाता है |

29. काण्डानुसमय – एक देवता के पूजाकाण्ड को समाप्त कर ,अन्य देवता की पूजा करने को ‘काण्डानुसमय’ कहते हैं |

30. उद्धर्तन – उबटन |

31. अभिषेक – मन्त्रोच्चारण करते हुए शंख से सुगन्धित जल छोड़ने को ‘अभिषेक’ कहते
हैं |

32. उत्तरीय – वस्त्र |

33.उपवीत – यज्ञोपवीत [ जनेऊ] |

34.समिधा – जिन लकड़ियों को अग्नि में प्रज्जवलित कर होम किया जाता है उन्हें समिधा कहते हैं | समिधा के लिए आक ,पलाश , खदिर , अपामार्ग , पीपल ,उदुम्बर ,शमी , कुषा तथा आम कीलकड़ियों को ग्राह्य माना गया है |

35. प्रणव –ॐ |

36. मन्त्र ऋषि – जिस व्यक्ति ने सर्वप्रथम
शिवजी के मुख से मन्त्र सुनकर उसे विधिवत सिद्ध
किया था ,वह उस मंत्र का ऋषि कहलाता है | उस
ऋषि को मन्त्र का आदि गुरु मानकर श्रद्धापूर्वक उसका मस्तक में न्यास किया जाता है|

37. छन्द – मंत्र को सर्वतोभावेन आच्छादित करने की विधि को ‘छन्द’ कहते हैं |
यह अक्षरों अथवा पदों से बनताहै | मंत्र का उच्चारण
चूँकि मुख से होता है अतः छन्द का मुख से न्यास किया जाता है।

38. देवता – जीव मात्र के समस्त क्रिया-
कलापों को प्रेरित , संचालित एवं नियंत्रित करने
वाली प्राणशक्ति को देवता कहते हैं | यह
शक्ति मनुष्य के हृदय में स्थित होती है ,
अतः देवता का न्यास हृदय में कियाजाता है |

39. बीज– मन्त्र शक्ति को उद॒भावित करने वाले तत्व
को बीज कहते हैं |इसका न्यास गुह्यांग में
किया जाता है |

40. शक्ति – जिसकी सहायता से
बीज मन्त्र बन जाता है वह तत्व ‘शक्ति’
कहलाता है |उसका न्यास पाद स्थान में करते है |

41. विनियोग– मन्त्र को फल की दिशा का निर्देश देना विनियोग कहलाता है |

42. उपांशु जप – जिह्वा एवं होठों को हिलाते
हुए केवल स्वयम को सुनाई पड़ने योग्य मंत्रोच्चारण
को ‘उपांशुजप’ कहते हैं |

43. मानस जप – मन्त्र , मंत्रार्थ एवं देवता में मन लगाकर मन ही मन मन्त्र
का उच्चारण करने को ‘मानसजप’ कहते हैं |

44.अग्नि की जिह्वाएँ –

[a] अग्नि की 7 जिह्वाएँ मानी गयीहैं , उनके नाम हैं –
1. हिरण्या 2. गगना 3. रक्ता 4. कृष्णा 5. सुप्रभा 6.
बहुरूपा एवं 7. अतिरिक्ता |

[b] 1. काली 2.कराली 3. मनोभवा 4. सुलोहिता 5. धूम्रवर्णा 6.स्फुलिंगिनी एवं 7. विश्वरूचि |

45. प्रदक्षिणा –देवता को साष्टांग दंडवत करने के पश्चात इष्ट देव की परिक्रमा करने को ‘प्रदक्षिणा’ कहते हैं |

विष्णु , शिव , शक्ति , गणेश और सूर्य आदि देवताओं
की4, 1, 2 , 1, 3, अथवा 7 परिक्रमायें
करनी चाहियें |

46. साधना – साधना 5 प्रकार
की होती है – 1.
अभाविनी 2. त्रासी 3.
दोवोर्धी 4. सौतकी 5.
आतुरी |

[1] अभाविनी – पूजा के साधन
तथा उपकरणों के अभाव से , मन से अथवा जल मात्र से जो पूजा साधना की जाती है , उसे‘अभाविनी’ कहा जाता है |

[2] त्रासी –जो त्रस्त व्यक्ति तत्काल अथवा उपलब्ध उपचारों से अथवा मान्सोपचारों से पूजन करता है , उसे ‘त्रासी’कहते हैं | यह साधना समस्त सिद्धियाँ देती है |

[3] दोवोर्धी – बालक , वृद्ध , स्त्री ,
मूर्ख अथवा ज्ञानी व्यक्ति द्वारा बिना जानकारी के
की जाने वाली पूजा‘दोर्वोधी’ कहलाती है |

[4] सूत की व्यक्ति मानसिक संध्या करा कामना होने पर मानसिक पूजन तथा निष्काम होने पर सब कार्य करें |ऐसी साधना को ‘सौतकी’ कहा जाता है |

[5] रोगी व्यक्ति स्नान एवं पूजन न करें |
देवमूर्ति अथवासूर्यमंडल की ओर देखकर, एक बार
मूल मन्त्र का जप कर उस परपुष्प चढ़ाएं फिर रोग
की समाप्ति पर स्नान करके गुरु
तथा ब्राह्मणों की पूजा करके, पूजा विच्छेद का दोष
मुझे न लगे – ऐसी प्रार्थना करके विधि पूर्वक इष्ट
देव का पूजनकरे तो इस पूजा को ‘आतुरी’
कहा जाएगा |

47. अपने श्रम का महत्व –पूजा की वस्तुए स्वयं लाकर तन्मय भाव से पूजन
करने से पूर्ण फल प्राप्त होता है | अन्य व्यक्ति द्वारा दिए
गये साधनों से पूजा करने पर आधा फल मिलता है |

48. वर्णित पुष्पादि –[1] पीले रंग की कट सरैया ,
नाग चंपा तथा दोनों प्रकार की वृहती के
फूल पूजा में नही चढाये जाते |

[2] सूखे ,बासी , मलिन , दूषित तथा उग्र गंध वाले पुष्प
देवता पर नही चढाये जाते |

[3] विष्णु पर अक्षत ,
आक तथा धतूरा नही चढाये जाते |

[4] शिव पर केतकी , बन्धुक [दुपहरिया] , कुंद ,
मौलश्री , कोरैया , जयपर्ण , मालती और
जूही के पुष्प नही चढाये जाते|

[5]दुर्गा पर दूब , आक , हरसिंगार , बेल तथा तगर
नही चढाये जाते |

[6] सूर्य तथा गणेश पर
तुलसी नही चढाई जाती |

[7] चंपा तथा कमल की कलियों के अतिरिक्त अन्य
पुष्पों की कलियाँ नही चढाई
जाती |

50. ग्राह्यपुष्प – विष्णु परश्वेत
तथा पीले पुष्प , तुलसी, सूर्य , गणेश
पर लाल रंग के पुष्प , लक्ष्मी पर कमल शिव
केऊपर आक , धतूरा , बिल्वपत्र तथा कनेर के पुष्प विशेष रूप
से चढाये जाते हैं | अमलतास के पुष्प
तथा तुलसी को निर्माल्य नही माना जाता |

51. ग्राह्य पत्र – तुलसी , मौलश्री ,
चंपा , कमलिनी , बेल ,श्वेत कमल , अशोक ,
मैनफल , कुषा , दूर्वा , नागवल्ली , अपामार्ग ,
विष्णुक्रान्ता , अगस्त्य तथा आंवला इनके पत्ते देव पूजन में ग्राह्य हैं |

52. ग्राह्य फल – जामुन ,
अनार ,नींबू , इमली , बिजौरा , केला ,
आंवला , बेर , आम तथा कटहल ये फल देवपूजन में ग्राह्य हैं |

53. धूप – अगर एवं गुग्गुल की धूप विशेष
रूप से ग्राह्य है ,यों चन्दन-चूरा , बालछड़ आदि काप्रयोग भी धूप के रूप में किया जाता है |

54.दीपक की बत्तियां –
यदि दीपक में अनेक
बत्तियां हों तो उनकी संख्या विषम
रखनी चाहिए | दायीं ओर के
दीपक में सफ़ेद रंग
की बत्ती तथा बायीं ओर के
दीपक में लला रंग
की बत्ती डालनी चाहिए |
🙏🙏