Sunday, 29 October 2017
भक्ति का मूल श्रद्धा ही
कर्म, ज्ञान और उपासना या भक्ति का मूल श्रद्धा ही है
By: Srivastava
सामान्यत: श्रेष्ठता के प्रति अटूट आस्था को श्रद्धा कहा जाता है। आस्था जब सिद्धांत से व्यवहार में आती है तब उसे निष्ठा कहा जाता है। जब निष्ठा व्यक्ति के जीवन के परम लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए भक्ति के क्षेत्र में प्रवेश करती है तब श्रद्धा का रूप ले लेती हैं। वस्तुत: श्रद्धा एक गुण है जो व्यक्ति के सद्गुणों, सद्विचारों और उत्कृष्ट विशिष्टताओं के आधार पर उसे श्रेष्ठता प्रदान करता है।ऐसे सद्गुणी, सदाचारी और श्रेष्ठजन ही व्यक्ति को उन्नति के शिखर पर पहुंचाने की सीढ़ी के रूप में सहायक सिद्ध होते हैं और उसके जीवन-पथ को आलोकित करते हैं। कर्म, ज्ञान और उपासना या भक्ति का मूल श्रद्धा ही है। इसी प्रकार भक्ति रसामृत सिंधु नामक ग्रंथ में लिखा गया है कि श्रद्धा से सत्संग, पारस्परिक सद्भाव स्नेह-आदर और सहयोग के संवर्धन के साथ ही समाज में बिखराव पर नियंत्रण और एकत्व की भावना में वृद्धि होती है। समग्र सृष्टि भगवान की ही अभिव्यक्ति है। भगवान श्रीकृष्ण ने 'गीताÓ में एक स्थान पर स्पष्ट घोषणा करते हुए कहा है कि श्रद्धावान व्यक्ति ही मुझे प्राप्त कर सकता है। सारहीन संसार का कोई भी व्यक्ति भगवान को बिना श्रद्धा के प्राप्त कर सकता है। यह श्रद्धा ही है जो समाज को गति, दिशा और सद्भाव उत्पन्न करने के साथ मनुष्यता को विकसित करती है।श्रद्धा मानव जीवन के प्रत्येक क्षेत्र को गहराई से प्रभावित करती है। गीता में कहा गया है कि श्रद्धा अध्यात्म क्षेत्र में सात्विकी और कर्म के क्षेत्र में राजसी गुणों को उत्पन्न करती है। संत तुलसीदास ने भी 'मानसÓ में एक स्थान पर कहा है कि 'श्रद्धा बिना धर्म नहिं होईÓ। भक्ति के क्षेत्र में श्रद्धा की ही प्रधानता होती है। श्रद्धा और विश्वास के साथ अर्जित ऊर्जा विलक्षण प्रभाव प्रकट करती है। भौतिकता और पाश्चात्य सभ्यता के प्रभाव के कारण हम अपने गौरवशाली अतीत को भूलते जा रहे हैं। वस्तुत: श्रद्धा व्यक्ति के जीवन का उत्कृष्ट आभूषण है। तभी कहा गया है कि श्रद्धावान व्यक्ति ही ज्ञान को प्राप्त कर पाते हैं। यहां स्मरण रखना चाहिए कि श्रद्धा का अर्थ अंधविश्वास नहीं है। जब अंधविश्वास दूर हो जाता है तब श्रद्धा का अभ्युदय होता है।
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