Thursday, 26 October 2017
अथ श्रीगुरुगीता
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गुरुगीता
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-डॉ. मनस्वी श्रीविद्यालंकार
भगवान शंकर और देवी पार्वती के संवाद में प्रकट हुई यह 'गुरुगीता' समग्र 'स्कंदपुराण' का निष्कर्ष है। इसके हर एक श्लोक में सूतजी का सचोट अनुभव व्यक्त होता है। इस गुरुगीता का पाठ शत्रु का मुख बंद करने वाला है, गुणों की वृद्धि करने वाला है, दुष्कृत्यों का नाश करने वाला और सत्कर्म में सिद्धी देने वाला है। गुरुगीता के एक-एक अक्षर को मंत्रराज माना जाता है।
अन्य जो विविध मंत्र हैं वे इसका सोलहवाँ भाग भी नहीं। गुरुगीता अकाल मृत्यु को रोकती है, सब संकटों का नाश करती है, यक्ष, राक्षस, भूत, चोर आदि का विनाश करती है। पवित्र ज्ञानवान पुरुष इस गुरुगीता का जप-पाठ करते हैं। उनके दर्शन और स्पर्श से पुनर्जन्म नहीं होता।
इस गुरुगीता के श्लोक भवरोग निवारण के लिए अमोघ औषधि हैं। साधकों के लिए यह परम अमृत है। स्वर्ग का अमृत पीने से पुण्य क्षीण होते हैं। यह गीता का अमृत पीने से पाप नष्ट होकर परम शांति मिलती है, स्वस्वरूप का भान होता है।
॥ श्री गुरु चरित्रांतर्गत श्री गुरु गीता ॥
॥ श्री गणेशायनमः॥ श्री सरस्वत्यै नमः॥ श्री गुरुभ्योनमः॥
विनियोगः -
ॐ अस्य श्रीगुरुगीतास्तोत्रमंत्रस्य भगवान् सदाशिवऋषिः। नानाविधानि छंदांसि। श्री गुरुपरमात्मा देवता। हं बीजं। सः शक्तिः। सोऽहं कीलकं। श्रीगुरुप्रसादसिद्धयर्थे जपे विनियोगः॥
अथ करन्यासः -
ॐ हं सां सूर्यात्मने अंगुष्ठाभ्यां नमः।
ॐ हं सीं सोमात्मने तर्जनीभ्यां नमः।
ॐ हं सूं निरंजनात्मने मध्यमाभ्यां नमः।
ॐ हं सैं निराभासात्मने अनामिकाभ्यां नमः।
ॐ हं सौं अतनुसूक्ष्मात्मने कनिष्ठिकाभ्यां नमः।
ॐ हं सः अव्यक्तात्मने करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः।
॥ इति करन्यासः ॥
अथ हृदयादिन्यासः -
ॐ हं सां सूर्यात्मने हृदयाय नमः।
ॐ हं सीं सोमात्मने शिरसे स्वाहा।
ॐ हं सूं निरंजनात्मने शिखायै वषट्।
ॐ हं सैं निराभासात्मने कवचाय हुं।
ॐ हं सौं अतनुसूक्ष्मात्मने नेत्रत्रयाय वौषट्।
ॐ हं सः अव्यक्तात्म्ने अस्राय फट्।
ॐ ब्रह्म भूर्भुवः स्वरोमिति दिग्बन्धः।
॥ इति हृदयादिन्यासः ॥
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अथ ध्यानं-
हंसाभ्यां परिवृत्तपत्रकमलैर्दिव्यैर्जगत्कारणैर्विश्वोत्कीर्णमनेकदेहनिलयैः स्वच्छन्दमात्मेच्छया। तद्योतं पदशांभवं तु चरणं दीपांकुरग्राहिणं, प्रत्यक्षाक्षरविग्रहं गुरुपदं ध्यायेद्विभुं शाश्वतम्॥ मम चतुर्विधपुरुषार्थसिद्धयर्थे जपे विनियोगः॥
॥अथ श्रीगुरुगीता ॥
सूत उवाच-
कैलासशिखरे रम्ये, भक्तिसंधान-नायकम्।
प्रणम्य पार्वती भक्त्या, शंकरं पर्यपृच्छत॥1॥
श्री देव्युवाच-
ॐ नमो देवदेवेश, परात्पर जगद्गुरो।
सदाशिव महादेव, गुरुदीक्षां प्रदेहि मे॥2॥
केन मार्गेण भो स्वामिन्, देही ब्रह्ममयो भवेत्।
त्वं कृपां कुरु मे स्वामिन्, नमामि चरणौ तव॥3॥
ईश्वर उवाच-
ममरूपासि देवि त्वं, व्यत्प्रीत्यर्थं वदाम्यहम्।
लोकोपकारकः प्रश्नो, न केनापि कृतः पुरा॥4॥
दुर्लभं त्रिषु लोकेषु, तच्छृणुष्व वदाम्यहम्।
गुरुं विना ब्रह्म नान्यत्, सत्यं, सत्यं वरानने॥5॥
वेदशास्त्रपुराणानि इतिहासादिकानि च।
मंत्रयंत्रादिविद्याश्च, स्मृतिरुच्चाटनादिकम्॥6॥
शैवशाक्तागमादीनि, अन्यानि विविधानि च।
अपभ्रंशकराणीह, जीवानां भ्रांतचेतसाम्॥7॥
यज्ञो व्रतं तपो दानं, जपस्तीर्थं तथैव च।
गुरुतत्वमविज्ञाय, मूढास्ते चरते जनाः॥8॥
गुरुबुद्धयात्मनो नान्यत्, सत्यं सत्यं न संशयः।
तल्लाभार्थं प्रयत्नस्तु, कर्तव्यो हि मनीषिभिः॥9॥
गूढविद्या जगन्माया, देहे चाज्ञानसंभवा।
उदयः स्वप्रकाशेन, गुरुशब्देन कथ्यते॥10॥
सर्वपापविशुद्धात्मा, श्रीगुरोः पादसेवनात्।
देही ब्रह्म भवेद्यस्मात्, तत्कृपार्थं वदामि ते॥11॥
गुरुपादांबुजं स्मृत्वा, जलं शिरसि धारयेत्।
सर्वतीर्थावगाहस्य, संप्राप्नोतिफलं नरः॥12॥
शोषणं पापपंकस्य, दीपनं ज्ञानतेजसाम्।
गुरुपादोदकं सम्यक्, संसारार्णवतारकम्॥13॥
अज्ञानमूलहरणं, जन्मकर्मनिवारणं।
ज्ञानवैराग्यसिद्धयर्थं गुरुपादोदकं पिबेत्॥14॥
गुरोः पादोदकं पीत्वा, गुरोरुच्छिष्टभोजनम्।
गुरुमूर्तेः सदा ध्यानं, गुरुमंत्रं सदा जपेत्॥15॥
काशीक्षेत्रं तन्निवासो, जाह्नवी चरणोदकम्।
गुरुर्विश्वेश्वरः साक्षात्, तारकं ब्रह्म निश्चितम्॥16॥
गुरोः पादोदकं यत्तु, गयाऽसौ सोऽक्षयो वटः।
तीर्थराजः प्रयागश्च, गुरुमूर्ते नमो नमः॥17॥
गुरुमूर्ति स्मरेन्नित्यं, गुरुनाम सदा जपेत्।
गुरोराज्ञां प्रकुर्वीत, गुरोरन्यन्न भावयेत्॥18॥
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