Saturday 28 October 2017

गायत्री पञ्चदशी

गायत्री मंत्र के कई अर्थ-विस्तार से गायत्री पञ्चदशी (नाग प्रकाशक, दिल्ली), या अंग्रेजी में सारांश राष्ट्रीय संस्कृत विद्यापीठ, तिरुपति से प्रकाशित Vedic View of Sri Jagannatha देखें।
(1) अथर्ववेद में एक वेदमाता सूक्त है। यज्ञोपवीत के समय वेदारम्भ संस्कार में गायत्री मन्त्र पढ़ाया जाता है। इसका सामान्य अर्थ हुआ कि सबसे पहले गायत्री मन्त्र का अर्थ समझना जरूरी है, उसके बाद ही वेद पढ़ने की योग्यता होती है। जैसे +2 पास करने के बाद ही इन्जीनियरिंग में प्रवेश हो सकता है।
(2) संसार की सभी भाषाओं और वेद के भी छन्द 4 पाद के होते हैं जैसे पशु 4 पाद के हैं। पर गायत्री मंत्र 3 पाद का ही है। मीमांसा दर्शन के अनुसार छन्द और पाद के अनुसार अर्थ होता है। छन्द एक वाक्य हुआ। पाद उसका वाक्यांश। पहले हर वाक्यांश का अर्थ करें,  फिर उनको जोड़ कर पूरे वाक्य का अर्थ। पादों को तोड़ कर या उनको एक साथ मिला कर मनमाना अन्वय करने से वाक्य नष्ट हो जायेगा। वेद के हर मन्त्र का इसी प्रकार का अर्थ होगा। ओडिया में जगन्नाथ दास का भागवत भी गायत्री मंत्र की व्याख्या रूप में 3-3 पाद के छन्दों में ही है।
(3) मूल वेद सृष्टि है जिसे वेदपुरुष या परब्रह्म कहते हैं। उसका शब्द रूप शब्द वेद या श्री वेद देवी रूप में चण्डी पाठ में है। वेद के 6 प्रकार के दर्शन के अनुसार 6 दर्श-वाक् या लिपि हैं। दर्शन के जितने तत्त्व हैं, उसकी लिपि में उतने ही अक्षर होंगे। गायत्री छन्द से लोकों की माप है। 6×4 = 24 अक्षर के छन्द को गायत्री छन्द कहते हैं। मनुष्य के आकार को 24 बार 2 गुणा या 1 करोड़ गुणा करने से पृथ्वी का आकार होता है। पृथ्वी से करोड़ गुणा सौर मण्डल, उससे करोड़ गुणा ब्रह्माण्ड (गैलेक्सी) है जो पिछले 10 वर्ष की माप से प्रमाणित है (सौर मण्डल की माप अभी तक नहीं हुई है)। इसी क्रम में अनन्त विश्व को भी ब्रह्माण्ड से कोटि गुणा मानते हैं।
(4) विश्व का प्रायः 50 प्रकार से 3-3 का विभाजन है। हर विभाजन में कुछ छूट जाता है या कुछ अविभाज्य मूल तत्त्व है। अतः गायत्री मन्त्र में भी चतुर्थ अदर्श पद माना गया है। मूल वेद एक ही था जिसे अथर्ववेद कहते थे। अग्नि-वायु-तेज रूप में इसके 3 भाग हुये-ऋक्, यजु, साम। इसके साथ मूल भी बचा रहा।अतः त्रयी का अर्थ 4 वेद होता है-1 मूल + 3 शाखा। इसका प्रतीक पलास है जिसकी शाखा से 3 पत्ते निकलते हैं (ढाक के तीन पात)। अतः वेदारम्भ संस्कार में पलास दण्ड का प्रयोग होता है।
(4) 3 लोकों के विभाजन 3 स्तरों पर है, जो आकाश के 3 धाम हैं। इसमें बीच के 2 लोक दोनों धाम में आते हैं, इसलिए 7 लोक होते हैं। पहला या नीचे का धाम सौर मण्डल है। इसमें पृथ्वी भू लोक, नेपच्युन तक ग्रह कक्षा (100 करोड योजन की चक्राकार पृथ्वी) भुवः लोक तथा सौर मण्डल का आकाश स्वः लोक है। सौर मण्डल ब्रह्माण्ड के लिए भू लोक तथा ब्रह्माण्ड का आकाश जनः लोक है। ब्रह्माण्ड की सर्पाकार भुजा को वेद में अहिर्बुध्न्य (बुध्न्य = बाढ़, समुद्र, अहि = सांप) या पुराण में शेषनाग कहते हैं। इसमें जहां सूर्य है, उसके चारों ओर सर्पाकार भुजा की मोटाई के बराबर का गोला महः लोक है। इसके 1000 ताराओं को शेषनाग का 1000 सिर कहा गया है। इसके एक सिर (हमारा सूर्य) पर पृथ्वी विन्दु मात्र है। जहाँ तक का प्रकाश सिद्धान्त रूप में हमारे तक पहुँच सकता है वह तपः लोक है जिसे आधुनिक विज्ञान में दृश्य जगत् कहते हैं। उससे परे अनन्त आकाश को जिसे ब्रह्माण्ड का करोड गुणा मानते हैं, सत्य लोक (सनातन) कहते हैं। इसके लिए ब्रह्माण्ड ही भूलोक है। अतः गायत्री मन्त्र के पहले 3 लोक- भू, भुवः, स्वः कहते हैं या 7 लोक-भू, भुवः, स्वः, महः, जनः, तपः, सत्यः कहते हैं।
(5) हर अक्षर के ह्रस्व-दीर्घ-प्लुत के 3 भेद उदात्त (ऊंची आवाज), अनुदात्त (धीमा), स्वरित (मध्यम) के कारण संगीत के 7 स्वर हैं। इनके तीन क्रम को 3 ग्राम या 7×7 मिलन को 49 तान कहते हैं।
(6) आकाश की तरह पृथ्वी पर भी लोक हैं। उत्तर गोल का नक्शा 90-90 अंश देशान्तर के 4 भाग में बनता था जिनको भू-पद्म का 4 दल कहते थे-भारत, पूर्व में भद्राश्व, पश्चिम में केतुमाल, विपरीत में कुरु। दक्षिण में भी दल हैं। भारत के अलावा बाकी 7 दल 7 तल हैं-महातल (भारत के दक्षिण), अतल भारत के पश्चिम), तलातल (अतल के दक्षिण), सुतल भारत के पूर्व), वितल (सुतल के दक्षिण), पाताल उत्तर अमेरिका), रसातल (दक्षिण अमेरिका)। भारत दल के 3 लोक भारत, चीन, रूस को इन्द्र का या देव त्रिलोकी कहते थे। इनके भी 3-3 भाग होने से 7 लोक हैं-विन्ध्य के दक्षिण भू, हिमालय तक भुवः,  त्रिविष्टप (तिब्बत) स्वः, चीन महः, मंगोलिया जनः, साइबेरिया तपस् (स्टेपीज) तथा उत्तर ध्रुव वृत्त सत्य लोक हैं।
(7) ॐ के भी इसी प्रकार 3 भाग हैं-अ, उ, म। चौथा अनुस्वार को अर्ध मात्रा कहा है। इसी प्रकार शरीर के मेरुदंड के केन्द्रीय सुषुम्ना में 7 चक्र हैं तथा कुण्डलिनी के भी ॐ के साढे तीन मात्रा की तरह साढे तीन चक्र हैं।
(8) गायत्री का प्रथम पाद है-तत् (वह, अन्तिम), सवितुः (निर्माता) वरेण्यम् (श्रेष्ठ)। यह या निकट का सविता सूर्य है। अन्तिम या परम सविता पर ब्रह्म है जिसके स्रष्टा रूप को ब्रह्मा कहते हैं। यह दीखता नहीं है। वहीं दीख सकता है जिससे कुछ प्रकाश या तेज निकले जिसका अनुभव किया जा सके-भर्गो (तेज वाले) देवस्य (देव का) धीमहि (ज्ञान होता है)।यह सूर्य है जिससे जीवन चल रहा है। इस रूप को विष्णु कहते हैं। इन अदृश्य या दृश्य रूपों के कारण हमें जो ज्ञान होता है वह शिव है जिनको आदि गुरु कहा है-धियो (बुद्धि को) यो (जो) नः (हमारा) प्रचोदयात् (प्रेरित करे)।
(9) पहला पाद आकाश के बारे में है जिसे आधिदैविक कहते हैं। बीच का पाद दृश्य जगत् है जिसे आधिभौतिक कहते हैं। तीसरा मनुष्य शरीर के भीतर का संसार है जिसे आध्यात्मिक कहते हैं। तीनों एक दूसरे से सम्बन्धित हैं पर यह सम्बन्ध वैज्ञानिक प्रयोग द्वारा नहीं समझा जा सका है। सभी वेद मन्त्रों के इसी तरह 3-3 अर्थ होंगे।
(10) पुर या रचना रूप में जो संसार दीखता है वह पुरुष है। आकाश में उसके फैला हुआ प्रभाव श्री रूप है। इस रूप में गायत्री मन्त्र के तीन पाद हैं-महाकाली, महालक्ष्मी, महासरस्वती जो चण्डी पाठ के तीन चरित्र हैं।
(11) केवल ब्रह्मा रूप में रस रूप मूल पदार्थ प्रथम पाद है,  7 लोकों का विश्व द्वितीय पाद तथा त्रयी वेद चतुर्थ पाद है।
केवल शिव रूप में सृष्टि का सङ्कल्प प्रथम पाद, तेज का कम या अधिक क्रम (छाया-आतप) द्वितीय तथा उसका अनुभव तृतीय पाद है।
हनुमान् का स्रष्टा रूप वृषाकपि है-वृषा = आकाश में फैले मेघ जैसे पदार्थ से ब्रह्माण्ड रूप द्रप्स कणों की वर्षा, कपि = पहले जैसी सृष्टि), तेज रूप मारुति तथा ज्ञान रूप मनोजव है।
विष्णु का स्रष्टा रूप है सृष्टि का सङ्कल्प करने वाला, भर्ग रूप विष्णु तथा ज्ञान रूप है हर विन्दु में व्याप्त चेतना।
(12) शब्द वेद की अपौरुषेयता तीन प्रकार से है-यह समाधि अवस्था में प्राप्त ज्ञान जब कोई व्यक्तिगत पक्षपात नहीं रहता। सामान्यतः 5 प्राण द्वारा 5 ज्ञानेन्द्रियों से ज्ञान मिलता है। इसके अलावा परोरज और ऋषि नामक दो असत् प्राणों से प्राप्त अतीन्द्रिय ज्ञान ती विश्वों का सम्बन्ध बताता है। कई ऋषियों के ज्ञान के समन्वय रूप में भी वेद अपौरुषेय है।

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