।। ऊँ-तत्-सत् का विस्तृत वर्णन।।
विशेष:- गीता अध्याय 4 श्लोक 34 में
वर्णित तत्वदर्शी संत ही पूर्ण परमात्मा के
तत्वज्ञान को सही बताता है, उन्हीं से
पूछो, मैं (गीता बोलने वाला प्रभु)
नहीं जानता। इसी का प्रमाण
गीता अध्याय 15 श्लोक 1 से 4 तक भी है।
इसीलिए यहाँ गीता अध्याय 17 श्लोक 23
से 28 तक का भाव समझें। अध्याय 17 के
श्लोक 23 से 28 तक में कहा है कि पूर्ण
परमात्मा के पाने के ऊँ, तत्, सत् यह तीन नाम
हैं। इस तीन नाम के जाप का प्रारम्भ स्वांस
द्वारा ओं (ॐ) नाम से किया जाता है।
तत्वज्ञान के अभाव से स्वयं निष्कर्ष निकाल
कर शास्त्रविधि सहित साधना करने वाले
ब्रह्म तक की साधना में प्रयोग मन्त्रों के
साथ ‘ऊँ‘ मन्त्र लगाते हैं। जैसे ‘ऊँ नमो भगवते
वासुदेवाय नमः‘, ‘ऊँ नम: शिवायः‘ आदि-
आदि। यह जाप (काल-ब्रह्म तक व उनके
आश्रित तीनों ब्रह्मा जी, विष्णु जी, शंकर
जी से लाभ लेने के लिए) स्वर्ग प्राप्ति तक
का है। फिर भी शास्त्र विधि रहित होने
से उपरोक्त मंत्र व्यर्थ हैं बेसक इन मंत्रों से कुछ
लाभ भी प्राप्त हो।
तत् नाम का तात्पर्य है कि (अक्षर ब्रह्म)
परब्रह्म की साधना का सांकेतिक मन्त्र।
यह तत् मन्त्र है। वह पूर्ण गुरु से लेकर
जपा जाता है। स्वयं या अनाधिकारी से
प्राप्त करके जाप करना भी व्यर्थ है। यह तत
(सतनाम ) मन्त्र इष्ट की प्राप्ति के लिए
विशेष मन्त्र है तथा सत् जाप मन्त्र पूर्ण
परमात्मा का है जो सारनाम के साथ
जोड़ा जाता है। उससे पूर्ण मुक्ति होती है।
सतशब्द अविनाशी का प्रतीक है। प्रत्येक
इष्ट की प्राप्ति के लिए भी "तत" शब्द है
तथा सतशब्द अविनाशी का प्रतीक है। वह
सारनाम है।
लेकिन वेदों व शास्त्रों में न तत् नाम है और न
ही सत मन्त्र है। केवल ऊँ नाम है। आदरणीय
गरीबदास साहेब जी (साहेब कबीर के
शिष्य) संत कहते हैं कि कबीर परमेश्वर ने
बताया कि यह सत नाम "तत " मंत्र मैं ही इस
काल लोक में लाया हूँ तथा सतशब्द
(सारनाम) गुप्त रहा है, वह केवल
अधिकारी को ही दिया जाता है।
गरीब, सोहं शब्द हम जग में लाए। सार शब्द हम
गुप्त छुपाए।।
यह सत शब्द (सारशब्द) पूर्ण गुरु ही दे
सकता है। अन्य जप, दान, यज्ञ
आदि श्रद्धा से व शास्त्रानुकूल किए जाएँ
तो उनका जो फल निहीत (कुछ समय स्वर्ग
प्राप्ति) है वह मिल जाएगा। यदि ऐसे
नहीं किए तो वह फल भी नहीं है। फिर
भी जब तक सारनाम (सत्शब्द)
नहीं मिला तो ओ3म तथा तत् मंत्र
(सांकेतिक) भी व्यर्थ हैं। कुछ साधक केवल ‘ऊँ-
तत्-सत्‘ इसी को मूल मन्त्र मान कर बार-बार
अभ्यास करते हैं जो व्यर्थ है, बिना श्रद्धा के
किया हुआ धार्मिक अनुष्ठान या जप न
तो इसी लोक में लाभदायक है तथा न मरने के
बाद। इसलिए गुरु आज्ञानुसार पूर्ण
श्रद्धा भाव से आध्यात्मिक कर्म
लाभदायक हैं। भक्ति चाहे नीचे के प्रभुओं
की करो, चाहे पूर्ण परमात्मा सतलोक
प्राप्ति की करो, वह
साधना शास्त्रानुकूल तथा श्रद्धा पूर्वक
ही लाभदायक है। केवल " तत " शब्द तक
की साधना भी काल जाल तक है।
परमेश्वर कबीर (कविर्देव) जी की अमृत
वाणी:-
कबीर, जो जन होगा जौहरी, लेगा शब्द
विलगाय।
सोहं - सोहं जप मुए, व्यर्था जन्म गंवाए।।
कोटि नाम संसार में, उनसे मुक्ति न होए।
सारनाम मुक्ति का दाता, वाकुं जाने न
कोए।।
आदरणीय गरीबदास साहेब जी की अमृत
वाणी:-
गरीब, सोहं ऊपर और है, सतसुकृत एक नाम।
सब हंसों का बास है,
नहीं बस्ती नहीं गाम।।
सोहं में थे ध्रुव प्रहलादा, ओ3मसोहं वाद
विवादा।
नामा छिपा ओ3मतारी, पीछे सोहं भेद
विचारी।
सार शब्द पाया जद लोई, आवागवन बहुर न
होई।।
उपरोक्त अमृत वाणी में परमात्मा प्राप्त
महान आत्मा आदरणीय गरीबदास साहेब
जी कह रहे हैं कि जो केवल ओ3म व सोहं के मंत्र
जाप तक सीमित है, वे भी काल के जाल में
ही हैं। जैसे पूर्ण परमात्मा कविर्देव
चारों युगों में आते हैं, तब पूर्ण विधि स्वयं
ही वर्णन करके जाते हैं। इसी पूर्ण
परमात्मा के नाम रहते हैं - सतयुग में सतसुकृत
जी, त्रोतायुग में मुनिन्द्र जी, द्वापर युग में
करूणामय जी तथा कलयुग में वास्तविक
कविर्देव नाम से ही प्रकट होते हैं। जब पूर्ण
ब्रह्म कविर्देव सतयुग में सतसुकृत नाम से आए थे
तो वास्तविक ज्ञान वर्णन करते थे। जो उस
समय के ऋषियों द्वारा वर्णित ज्ञान के
विपरित (सत्य) ज्ञान था।
क्योंकि ऋषिजन वेदों को ठीक से न समझ
कर ओ3म मंत्र को पूर्ण ब्रह्म का मानकर जाप
करते तथा कराते थे तथा ब्रह्म को पूर्ण ब्रह्म
ही बताते थे।
पूर्ण परमात्मा कहा करते थे कि ब्रह्म से ऊपर
परब्रह्म, उससे ऊपर पूर्ण ब्रह्म पूर्ण शक्ति युक्त
प्रभु है। इस ज्ञान को स्वीकार न करके उस
परमपिता को वामदेव (उल्टा ज्ञान देने
वाला) कहने लगे। वास्तविक सत्सुकृत नाम
भुलाकर प्रचलित उर्फ नाम वामदेव से
ही जानने लगे। यही पूर्ण
परमात्मा श्री ब्रह्मा जी, श्री विष्णु
जी तथा श्री शिव जी को मिले,
तत्वज्ञान समझाया। तीनों प्रभुओं ने प्रथम
मंत्र प्राप्त किया, परन्तु आगे नाम प्राप्त
करने में कालवश होकर रूची नहीं रखी।
यही परमात्मा श्री नारद जी आदि से
भी मिलें। श्री नारद जी को भी उपदेश
दिया। इनको केवल ‘तत‘ मंत्र दिया। फिर
नारद जी ने यही मंत्र ध्रुव तथा प्रहलाद
को भी प्रदान किया जिससे वे भी काल
जाल में ही रहे। पूर्ण ब्रह्म कविरग्नि (कबीर
परमेश्वर) पहली बार प्रमाणित मंत्रों में से
कोई एक मंत्र साधक को प्रदान करते थे।
फिर साधक की पूर्ण परमात्मा का प्राप्त
करने की अति उत्सुक्ता देख कर फिर
वास्तविक मंत्र ओ3म—तत्-- (सांकेतिक)
प्रदान करते थे, जिसे सतनाम कहा जाता है।
जैसे नारद जी को मार्ग दर्शन
किया तो नारद जी ने उत्सुकता (लग्न)
तो बहुत लगाई, परन्तु मन में शंका फिर
भी रही कि आज तक अन्य किसी ऋषि-
महर्षि ने पूर्ण परमात्मा का विवरण
नहीं दिया, क्या पता सत्य है या असत्य? इस
एक महात्मा पर विश्वास
करना बुद्धिमता नहीं। यह भाव अन्तःकरण
में समाया रहा। ऊपर से
औपचारिकता आवश्यकता से अधिक करते
रहे। अंतर्यामी पूर्ण परमेश्वर सतसुकृत उर्फ
वामदेव जी ने महर्षि नारद
जी को वास्तविक मंत्र ( ओ3म तत् )
नहीं प्रदान किया। केवल "तत " नाम प्रदान
किया तथा नारद जी की प्रार्थना पर उसे
केवल (तत) एक नाम दान करने की आज्ञा दे
दी। पूर्ण परमात्मा के सच्चे संत के अतिरिक्त
यदि कोई ब्रह्म तक के साधक
अधिकारी संत से उपदेश लेता है तो काल
(ब्रह्म) उसे ब्रह्मलोक में बने नकली (झूठे)
सत्यलोक में भेज देता है। वहाँ उन्हें उच्च पद
प्रदान कर देता है तथा सोहं मंत्र के जाप
की कमाई को समाप्त करवा कर फिर
कर्माधार पर नरक, फिर पृथ्वी पर
नाना प्रकार के प्राणियों के शरीर में
पीड़ा बनी रहती है। ओ3म नाम के जाप के
साधक ब्रह्मलोक में बने महास्वर्ग में चले जाते
हैं तथा फिर स्वर्ग सुख भोगकर जन्म-मृत्यु
तथा नरक के विकट चक्र में पड़े रहते हैं।
जो दो मंत्र का सत्यनाम जिसमें एक ओ3म
मंत्र तत् मंत्र (गुप्त) है, को मुझ (जगतगुरु
तत्वदर्शी संत रामपाल जी महाराज ) से
प्राप्त करके जो साधक साधना करता है
और तीसरे (सत्) नाम को प्राप्त करने योग्य
नहीं हुआ तथा देहान्त हो गया, वह साधक
काल के हाथ नहीं लगेगा। पूर्ण
परमात्मा कविर् देव ने ब्रह्मण्ड में एक
ऐसा स्थान बनाया है जिसका न ब्रह्म
(काल) को पता है और न अन्य ब्रह्मादिक
को। वह साधक उस लोक में चला जाता है।
वहाँ पर पूर्ण परमात्मा की तरफ से सर्व सुख
लाभ मिलते रहते हैं। साधक की सत्यनाम
की कमाई समाप्त नहीं होती। फिर
कभी सत्यभक्ति युग आने पर
उन्हीं पुण्यात्माओं को मानव शरीर प्रदान
कर देता है। पूर्व सत्यनाम (सच्चे नाम)
की कमाई के आधार पर जितनी जिसने
कमाई की थी, लगातार कई मनुष्य जन्म
मिलते रहेंगे, हो सकता है फिर किसी समय
पूर्ण संत मिल जाए, जिससे शीघ्र
ही भक्ति प्रारम्भ
हो जाएगी तथा नाना प्रकार के
प्राणियों के शरीर धारण करने व नरक में
गिरने से बचा रहता है। परन्तु मुक्ति फिर
भी बाकी है। उसके बिना सत्यनाम व केवल
सोहं नाम का जाप भी व्यर्थ ही सिद्ध
हुआ।
इसी प्रकार श्री नामदेव साहेब जी पहले
ओ3म नाम को वास्तविक व अन्तिम प्रभु
साधना का मंत्र जानकर निश्चिन्त थे। तब
पूर्ण परमात्मा कविर् देव (कबीर साहेब)
मिले। उनको तत्वज्ञान समझाया।
श्री नामदेव जी की श्रद्धा देखकर
परमात्मा ने केवल "तत" मंत्र प्रदान किया।
फिर बहुत समय उपरान्त श्री नामदेव
जी की असीम श्रद्धा तथा पूर्ण प्रभु पाने
की तड़फ देखकर नए सिरे से “ओ3म तत् “ नाम
जोड़ कर सत्यनाम प्रदान
किया तथा तत्पश्चात् सारनाम (सत् शब्द)
दिया, जिसे सारशब्द भी कहा है।
इसप्रकार श्री नामदेव साहेब जी की पूर्ण
मुक्ति हुई। इससे पूर्व की वाणी श्री नामदेव
की संग्रह करके भक्तजन इन्हें ब्रह्म उपासक
ही मानते हैं।
|| सत साहेब ||
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