Thursday, 26 October 2017
मरो हे जोगी मरो
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मरो हे जोगी मरो
October 29, 2012, 2:01 PM IST जयकुमार राणा in का सोवे दिन रैन | रिश्ते-नाते
हमारा भारत वह देश है जिसमे आत्मा की अमरता की सबसे ज्यादा बात होती है मगर होती है बस बात ही. अगर आप समाज में गौर से देखें तो आप पायेंगे की यहाँ के लोग मृत्यु के डर से आत्मा की अमरता की बात करते हैं. मैं जब कभी भी किसी की मृत्यु होने पर अंतिम यात्रा में शामिल होने गया हूँ तब यह देखकर हैरान होता हूँ कि लोगों के चेहरों का रंग बदला होता है! चारो ओर एक अजीब सी चुप्पी, यहाँ-वहां शून्य में ताकती आँखें, गहन विचारों में डूबा हुआ दिखने की कोशिश! क्या यह सब देखकर ऐसा लगता है की यही वह देश है जहाँ भगवान कृष्ण ने गीता में उद्घोष किया था – ‘नैनं छिदन्ति शस्त्राणि, नाहम दहती पावक: ……..‘ या यही वह धरती है जहाँ गुरु गोरखनाथ ने कहा है – ‘मरो हे जोगी मरो’ ?
हम इतने बेहोश हैं की हमें जगाने की हर कोशिश असफल हो जाती है फिर चाहे वो जगाने वाला भगवान कृष्ण हो, बुद्ध हो, महावीर हो, गुरु गोरखनाथ हो, या कबीर और नानक हो! सभी संत एक ही संदेश दे रहे हैं की अपने अंदर विराजमान उस सत्ता को जानो जो अमृत है, वो तत्व जो शरीर के साथ खत्म नही होता उसे पहचानना ही धर्म है मगर हम बस मानकर बैठ जाते हैं की आत्मा अमर है. हमारा यह थोथा शाब्दिक ज्ञान उस समय हवा हो जाता है जब हम अपनी मौत को सामने देखते हैं या किसी दूसरे की मृत्यु पर अपनी मृत्यु का खयाल आता है.
किसी बच्चे या जवान की असमय मृत्यु को अगर हम छोड़ दें तो हर मृत्यु का उत्सव मनाना चाहिये अपने प्रियजन को विदाई देने का इससे अच्छा तरीका और क्या हो सकता है? मगर हम हैं की 80-90 साल जीवन रस को भोग चुके व्यक्ति को भी हंस कर विदाई नही दे पाते. क्या हमारे दुख का कारण मृत्यु को प्राप्त व्यक्ति से हमारा अत्यधिक प्रेम होना है? या यह महज मोह है जो प्रेम का धोखा देता है? सदा याद रखना प्रेम हमें कभी दुख नही देता यह मोह ही होता है जिससे दुख उत्पन्न होता है. अगर हम अपने सम्बंधों को उनकी पूर्णता में जी लें तो हम मोह से मुक्त हो सकते हैं. सम्बंधों का पूर्णता से न जीना दुख उत्पन्न करता है.
तुमने चाहा था की तुम अपनी माँ की खूब सेवा करो मगर किसी कारणवश ऐसा न कर पाये और माँ चल बसी अब तुम्हारे पास माँ नही रही, कैसे करोगे उसकी सेवा, कोई तुम्हे तुम्हारी माँ वापस नही दिला सकता. एक मौका तुम्हारे पास था और वो तुमने गंवा दिया, यह तुम्हें जीवन भर दुख देगा. तुमने चाहा था की कभी थोड़ा समय अपने अजीज मित्र के साथ गुजारूं, थोड़ी देर बैठूं उसका हाथ अपने हाथों में लेकर मगर उसके लिये कभी समय न निकाल पाये और वह चल बसा, तुम इस सम्बंध को पूर्णता से जी न पाये इसलिये अब तुम्हे दुख होगा.
आत्मा की अमरता की बात भगवान कृष्ण प्रत्यक्ष रूप से कह रहे हैं कि इस मरणमय शरीर के अंदर उस चिन्मय को जानो. इसी बात को गुरु गोरखनाथ दूसरे शब्दों में कह रहे हैं जिसे सदगुरु ओशो सिद्धार्थ जी समझाते हुए कहते हैं –
मरो हे जोगी मरो, मरो मरण है मीठा
उस मरनी मरो जिस मरनी गोरख मरी दीठा!
गोरखनाथ जी कहते हैं की यह मरना बड़ा मीठा है, बड़ा आनंद भरा है इससे डरने जैसी कोई बात नही है. इसलिये हे योगी मरो और मरकर देखो की शरीर की सीमा से बाहर उस असीम से मिलन कितना आनंददायी है. मगर गोरखनाथ जी कह रहे हैं की ऐसे मारो जैसे मैने मरकर देखा. मृत्यु के क्षण में तो तुम बेहोश ��ो जाते हो इसलिये जीवित रहते मरने का प्रयोग करके देखो की जब शरीर की सीमा से निकालक�� असीम अपने असली स्वरूप को देखता है तो मृत्यु भय समाप्त हो जाता है.
कबीर साहब भी यही कहते हैं –
जिस मरनी से जग डरे, मेरो मन आनंद
कब मरिहों कब भेटिहों, पूर्ण-परमानंद|
कबीर साहब कह रहे हैं की जिस मृत्यु से सब डरते हैं उसको याद करके मेरे मन में आनंद भर जाता है, मैं सोचता हूँ की कब मरकर मैं उस परमानंद को प्राप्त करूंगा.
भगवान बुद्ध, महावीर, गुरु गोरखनाथ आदि ने अपने सभी शिष्यों को परा-मृत्यु के अनुभवों से गुजारा था. ओशो ने भी इस विषय पर ‘मैं मृत्यु सिखाता हूँ’ नामक प्रवचनमाला के तहत काफी व्याख्यान दिये है. ओशो ने अपनी समाधि पर भी लिखवाया है – Never born never died only visited this planet earth between 11 December 1931 and 19 January 1990.
गुरु रामदास जी कहते हैं –
जीवत मरिये भवजल तरिये गुरमुख नाभ समावै
पूरा पुरख पाया वड भागी सच नाम लिव लावै|
गुरु रामदास जी कहते हैं – जो आदमी जीवित मरने की कला जानता है वही इस संसार रूपी सागर से पार जा सकता है. सदगुरु उसे उसके जीवन के केन्द्र से परिचित कराता है. और गुरु रामदास जी कहते है की बड़ी किस्मत वालों को ही ऐसा सदगुरु मिलता है जो उसे मृत्यु की कला सिखा कर उसकी सच्चे नाम के साथ सुरती लगा देता है.
ऐसे सदगुरु पूर्व में भी हुए हैं और आज भी ऐसे सदगुरु उपलब्ध है जो स्वयम् जीवित मरने की कला जानते हैं और साधकों को परा-मृत्यु के प्रयोग सफलतापूर्वक करवा रहे हैं. मगर कितने हैं ऐसे वडभागी?
डिसक्लेमर : ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं
लेखक
जयकुमार राणा
सोनीपत के एक छोटे से गांव में एक मध्यमवर्गीय परिवार मे जन्म लिया.. . .
और
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9 COMMENTS
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Bang•4 years ago •फॉलो करें
This is what we need - an insghit to make everyone think
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Alicia•4 years ago •फॉलो करें
Shoot, so that''s that one spoupses.
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Elise•4 years ago •फॉलो करें
I''m not whroty to be in the same forum. ROTFL
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Arabe•4 years ago •फॉलो करें
Calnlig all cars, calling all cars, we''re ready to make a deal.
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Anurag•4 years ago •फॉलो करें
You can always tell an expert! Thanks for corntbituing.
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Semir•4 years ago •फॉलो करें
That''s a smart answer to a difficult quetsion.
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Cameron•4 years ago •फॉलो करें
Glad I''ve finally found somtheing I agree with!
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geetajhanbt•4 years ago •फॉलो करें
आनन्द विमल जी, इतनी उपयोगी और सार्थक जानकारी उपलब्ध करने के लिये आपका बहुत-बहुत आभार. ..मैं मृत्यु सिखाता हूँ.... ओशो की एक अनुपम कृति है जो अभ्यंतर कीमियागिरी की लाजबाब मिसाल प्रस्तुत करती है.मैने खुद इस पुस्तक को काफी बार पढ़ा है , लेकिन जैसे अन्य मेडिटेशन प्रक्रिया जैसे पुनर् -जनम , योग-निद्रा आदि की c.d. उपलब्ध है वैसे इस विषय पर गाइडेड-मेडिटेशन की शायद कोई c.d. केन्द्र द्वारा उपलब्ध नही है.वैसे इस पुस्तक में दो बार संक्षिप्त रूप से इस प्रक्रिया---- आर्ट ऑफ डाइयिंग-----का उल्लेख है जिसे, विश्वास पूर्वक करने से अद्भुत ,रहस्मय और सकारात्मक परिणाम जरूर मिलते हैं और जीते-जी अपनी मृत्यु का अनुभव कर लेने से हम जीवन को एक नये सिरे से देखते हैं, और जीते हैं.एक बार फिर इस ब्लॉग के लिये आपको शुक्रिया .
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iammalkhan•4 years ago •फॉलो करें
शत प्रतिशत सही कहा आपने. सद्गुरु वही है जो इंसान से यह संसार छीन ले और असली संसार उसे दिला दे. ओशो उन्हीं गुरुओं में से एक हैं.
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