Saturday, 28 October 2017
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नादब्रह्म की साधना—नादयोग
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गायत्री की उच्चस्तरीय पाँच साधनाएँ
नादब्रह्म की साधना—नादयोग
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ब्रह्माण्डीय चेतना एवं सशक्तता का उद्गम स्रोत कहां है। इसकी तलाश करते हुए तत्वदर्शी ऋषि अपने गहन अनुसन्धानों के सहारे इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि यह समस्त हलचलें जिस आधार पर चलती हैं वह शक्ति स्रोत शब्द है। अचिन्त्य, अगम्य, अगोचर, परब्रह्म को जगत चेतना के साथ अपना स्वरूप निर्धारित करते हुए शब्दब्रह्म के रूप में प्रकट होना पड़ा। सृष्टि पूर्व यहां कुछ नहीं था। कुछ से सब कुछ को उत्पन्न होने का प्रथम चरण शब्दब्रह्म था। उसी को नाद-ब्रह्म कहते हैं। उसकी परमसत्ता का आरम्भ अवतरण इसी प्रकार होता है। उसके अस्तित्व एवं प्रभाव का परिचय प्राप्त करना सर्वप्रथम शब्द के रूप में ही सम्भव हो सका।
यह विश्व अनन्त प्रकाश के गर्भ में—पलने वाला और उसी की गोदी में खेलने वाला बालक है। ग्रह-नक्षत्रों का—निहारिकाओं का—प्राणि और पदार्थों का निर्वाह इस आकाश की छत्र-छाया में ही हो रहा है। सृष्टि से पूर्व आकाश ही था। आकाश में ऊर्जा रूप में हलचलें उत्पन्न हुईं। हलचलें सघन होकर पदार्थ बन गईं। पदार्थ से पंच तत्व और पंच प्राण बने। इन्हीं के सम्मिश्रण से विभिन्न प्रकार की वस्तुएं बनीं और प्राण बने। सृष्टि के इस आरम्भ क्रम से आत्म-विज्ञानी और भौतिक विज्ञानी प्रायः समान रूप से सहमत हो चले।
आरम्भिक हलचल शब्द रूप में हुई होगी इस कल्पना को अब मान्यता के रूप में स्वीकार कर लिया गया है। आकाश की तन्मात्रा शब्द ही है। शब्द और आकाश का—पारस्परिक घनिष्ठ सम्बन्ध है। स्थूल आकाश ‘ईथर’ के रूप में जाना जाता है। ध्वनि प्रवाह भी उसे कहते हैं। प्रकाश की भौतिक जगत की एक बड़ी शक्ति है। विद्युत चुम्बक आदि का नम्बर इसके बाद आता है। शक्ति का प्रथम स्रोत ध्वनि है। ध्वनि से प्रकाश। प्रकाश और ध्वनि के संयोग-वियोगों से तत्वों, प्रवाहों एवं चेतनाओं का उद्भव। सृष्टि का आधार कारण इसी प्रकार समझा जा सकता है।
शब्द का आरम्भ जिस रूप में हुआ उसी स्थिति में वह अनन्त काल तक बना रहेगा। आरम्भ शब्द ॐ माना गया है। यह कांस्य पात्र पर हथौड़ी पड़ने से उत्पन्न झन-झनाहट, थर-थराहट की तरह का प्रवाह है। घड़ियाल पर लकड़ी की हथौड़ी मार कर आरती के समय जो ध्वनि उत्पन्न की जाती है उसे ॐकार के समतुल्य माना जा सकता है। ओ शब्द का आरम्भ और उसके प्रवाह में अर्ध अनुस्वारों की श्रृंखला जोड़ दी जाय तो यही ॐ बन जायेगा। उसके उच्चारण का स्वरूप समझाते हुए ‘ओ’ शब्द के आगे 3 का अंक लिखा जाता है—तदुपरान्त आधा ‘म्’ लिखते हैं। 3 का अंक लिखने का अर्थ है उसे अपेक्षाकृत अधिक जोर से बोला जाय। ह्रस्व, दीर्घ, प्लुत के संकेतों में 3 गुनी शक्ति से बोले जाने वाले अक्षर को प्लुत कहते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि ओं शब्द को सामान्य की अपेक्षा तीन गुनी क्षमता से बोला जाय। तदुपरान्त उसके साथ अर्ध ‘म्’ की अर्धबिन्दु अर्थ अनुस्वारों की एक कड़ी जोड़ दी जाय यही ‘ॐ’ का उच्चारण है। ‘ओ, ३, म् इन तीनों का संक्षिप्त स्वरूप—मोनोग्राम—ॐ के रूप में लिखा जाता है। यही वह स्वरूप है जिसका सृष्टि आरम्भ के लिए उद्भव हुआ और उसी की पुनरावृत्ति परा प्रकृति के अन्तराल में यथावत् होती आ रही है। जागृतिक समस्त विधिव्यवस्थाएं उसी उद्गम से आरम्भ होती और गतिशील रहती हैं।
घड़ी में पेण्डुलम हिलता है। उससे अनायास ही एक स्वसंचालित प्रवाह बनता है जिसके आधार पर न केवल पेण्डुलम की अपनी क्रिया-प्रक्रिया चलती है वरन् घड़ी के अन्य पुर्जों को गतिशील बनाने के लिए अभीष्ट क्षमता की आवश्यकता पूर्ति होती है। परा और अपरा, चेतन और जड़ प्रकृति को यदि एक घड़ी यन्त्र माना जाय तो उसके संचालन की उद्गम व्यवस्था बनाने वाली शक्ति को ॐकार का ध्वनि प्रवाह कह सकते हैं, यह अनवरत रूप से होता रहता है। एक के बाद दूसरे आघात का क्रम चलता रहता है। इन आघातों को प्रकृति पुरुष के संयोग समागम की उत्पत्ति कहा गया है। शृंगारिक अलंकारों में इस काम-क्रीड़ा को विविध प्रवृत्तियों के रूप में भी सरस वर्णनों के साथ समझाने का प्रयत्न चलता रहता है। इसे दार्शनिकता और कवित्व का सम्मिश्रण कह सकते हैं।
शक्ति की धाराएं अनेक हैं, पर यदि उनके उद्गम केन्द्र तक पहुंचा जा सके तो उन सभी धाराओं पर अधिकार प्राप्त किया जा सकता है जो उस केन्द्र संस्थान से उद्भूत होती हैं। राजधानी पर, राजा के किले पर कब्जा हो जाने से उस प्रभाव में चलने वाले सारे क्षेत्र पर अधिकार हो जाता है। सहस्रार चक्र की साधना में सफलता मिलने पर समूची जीवन सत्ता वशवर्ती हो जाती है।सृष्टि का उद्गम केन्द्र ब्रह्म ॐकार यदि सिद्ध किया जा सके तो समूचे सृष्टि प्रवाह के साथ तारतम्य मिलना सम्भव हो जाता है। तब इस विश्व वैभव का अभीष्ट सत्प्रयोजनों के लिए उपयोग कर सकने में कठिनाई नहीं रहती। विशेषतया आत्म-विश्वास पर तो पूरी तरह अधिकार हो ही जाता है। विश्व नियन्ता परमात्मा के लिए विश्व व्यवस्था की बात जितनी महत्वपूर्ण है, आत्मनियन्ता—आत्मा के लिए उतना ही गरिमा मय आत्म सत्ता के क्षेत्र में सुव्यवस्था बना सकना है।
शब्द ब्रह्म—प्रकृति और पुरुष का मध्यवर्ती सम्बन्ध सूत्र है। इस पर अधिकार होने से दोनों ही क्षेत्रों में घनिष्ठता सध जाती है। प्रकृति क्षेत्र की शक्तियां और ब्रह्म क्षेत्र की चेतनाएं करतलगत हो सकें तो ऋद्धियों और सिद्धियों का—सम्पदाओं और विभूतियों का उभयपक्षीय वैभव उपलब्ध हो सकता है।
ॐकार साधना नादयोग की उच्चस्तरीय साधना है। आरम्भिक अभ्यासी को प्रकृति प्रवाह से उत्पन्न विविध स्तर की आहत—परिचित ध्वनियां सूक्ष्म कर्णेन्द्रिय से सुनाई पड़ती हैं। इनके सहारे मन को वशवर्ती बनाने तथा प्रकृति क्षेत्र में चल रही हलचलों को जानने तथा उन्हें मोड़ने-मरोड़ने की सामर्थ्य मिलती है। आगे चलकर ‘अनाहत’ क्षेत्र आ जाता है। स्वयं भू—ध्वनि प्रवाह—जिसे परब्रह्म का अनुभव में आ सकने वाला स्वरूप कह सकते हैं, यदि किसी के सघन सम्पर्क में आ सके तो अध्यात्म क्षेत्र का सिद्ध पुरुष भी कह सकते हैं।
भगवान का सर्वश्रेष्ठ नाम ओऽम् है। यह स्वयं भू है। पेट भरा होने पर जब डकार लेते हैं तब पूर्णता का प्रतीक ‘ओऽम्’ शब्द अनायास ही निकलता है जिसकी ध्वनि नाभि देश से आरम्भ होकर कंठमूल और मुखाग्र तक चली आती है। यह ॐ साढ़े तीन अक्षरों का विनिर्मित है—(1) ओ (2) ३ (3) म् ओं के उच्चारण में जो अर्धबिन्दु लगा हुआ है उसे चन्द्र बिन्दु अथवा अर्ध मात्रा कहते हैं। उसे आधा अक्षर माना गया है। इस प्रकार साढ़े तीन अक्षर का मन्त्रराज ओं कहलाता है। इसका उच्चारण कण्ठ, होठ, मुख, जिह्वा से होता है, पर इसका बीज कुण्डलिनी में सन्निहित है। जब ध्वनि और प्राण दोनों मिल जाते हैं तब उसका समग्र प्रभाव उत्पन्न होता है।
माण्डूक्योपनिषद में परमात्मा के समग्र रूप का तत्व समझाने के लिए उनके चार पादों की कल्पना की गई है। नाम और नामी की एकता प्रतिपादन करने के लिए भी और नाद शक्ति के परिचय रूप में अ, उ और म इन तीन मात्राओं के साथ और मात्रा रहित उसके अव्यक्त रूप के साथ परब्रह्म परमात्मा के एक-एक पाद की समता दिखलाई गई है और ओंकार को ही परमात्मा का अभिन्न स्वरूप मान कर यह बताया गया है—
ओमित्येतदक्षरमिदँ सर्व तस्योप व्याख्यानं भूतं भवद्भविष्यदिति सर्वमोङ्कार एव । यच्चन्यत् त्रिकालतीतं तदप्योङ्कार एव । —माण्क्योपनिषद ।1,
‘ओम’ यह अक्षर ही पूर्ण अविनाशी परमात्मा है। यह प्रत्यक्ष दिखाई देने वाला जड़-चेतन का समुदाय रूप जगत् उन्हीं का उपाख्यान अर्थात् उन्हीं की निकटतम महिमा का निर्देशक है, जो स्थूल एवं सूक्ष्म जगत् पहले उत्पन्न होकर उसमें विलीन हो चुका है, जो वर्तमान है, जो भविष्य में उत्पन्न होगा, वह सबका सब ओंकार (ब्रह्म का नाद-स्वरूप) ही है। तीनों कालों से अतीत इससे भिन्न है, वह भी ओंकार ही है।
स्थूल, सूक्ष्म और कारण जो कुछ भी दृश्य, अदृश्य है, उसका संचालन ‘ओंकार’ की स्फुरणा से ही हो रहा है। यह जो उनका अभिव्यक्त अंश और उससे अतीत भी जो कुछ है, वह सब मिलकर ही परब्रह्म परमात्मा का समग्र रूप है। पूर्ण ब्रह्म की प्राप्ति के लिए। अतएव उनकी नाद शक्ति का परिचय प्राप्त करना आवश्यक है।
परमात्मा के नाद रूप के साक्षात्कार के लिए किए गये ध्यान के सम्बन्ध में नाद-बिन्दूपनिषद् के 33 से 41 वें मन्त्रों में बड़ी सूक्ष्म अनुभूतियों का भी विवरण मिलता है। इन मन्त्रों में बताया गया है, जब पहले पहल अभ्यास किया जाता है तो ‘नाद’ कई तरह का और बड़े जोर-जोर से सुनाई देता है। आरम्भ में नाद की ध्वनि नागरी, झरना, भेरी, मेघ और समुद्र की हहराहट की तरह होती है, बाद में भ्रमर, वीणा, वंशी और किंकिणी की तरह गुंजन पूर्ण और बड़ी मधुर होती है। ध्यान को धीरे-धीरे बढ़ाया जाता है और उससे मानसिक ताप का शमन होना भी बताया गया है। तैत्तिरीयोपनिषद् के तृतीय अनुवाक में ऋषि ने लिखा है—वाणी में शारीरिक और आत्म-विषय दोनों तरह की उन्नति करने की सामर्थ्य भरी हुई है, जो इस रहस्य को जानता है, वह वाक् शक्ति पाकर उसके द्वारा अभीष्ट फल प्राप्त करने में समर्थ होता है।
ओंकार ध्वनि से प्रस्फुटित होने वाला ब्रह्म इतना सशक्त और सर्व-शक्तिमान है कि वह सृष्टि के किसी भी कण को स्थिर नहीं होने देता। समुद्रों को मथ डालने से लेकर भयंकर आंधी-तूफान और ज्वालामुखी पैदा करने तक—परस्पर विचार विनिमय की व्यवस्था से लेकर ग्रह-नक्षत्रों के सूक्ष्म कंपनों को पकड़ने तक एक सुविस्तृत विज्ञान किसी समय भारतवर्ष में प्रचलित था। नाद-ब्रह्म की उपासना के फलस्वरूप यहां के साधक इन्द्रियातीत क्षमताओं के अधिपति और स्वर्ग सम्पदा के अधिकारी देव मानव कहलाते रहे हैं।
अनाहत नाद की उपासना का प्रचलन विश्व-व्यापी है। पाश्चात्य विद्वानों तथा साधकों ने उसके वर्णन के लिए इन शब्दों का प्रयोग किया है—वर्ड लोगोस, ह्विस्पर्स फ्राम द अननोन, इनर ह्वायस, द लेंग्वेज आफ सोल, प्रिमार्डियल साउण्ड, द ह्वायस फ्राम हैवन, द ह्वायस आफ सोल आदि।
गणितज्ञ, दार्शनिक पाइथागोरस ने इसे सृष्टि का संगीत (म्यूजिक आफ द स्फियर्स) कहा है। व्यष्टि माइक्रोकाज्म) को समष्टि (मेक्रोकाज्म) से जोड़ने से नाद-साधना अतीव उपयोगी सिद्ध होती है।
स्वामी विवेकानन्द ने ॐ शब्द को समस्त नाम तथा रूपाकारों की एक जननी (मदर आफ नेम्स एण्ड फार्मस) कहा है। भारतीय मनीषियों ने इसे प्रणव-ध्वनि, उद्गीथ, स्टोफ आदि नाम अनाहत, ब्रह्मनाद आदि अनेक नामों से पुकारा है।
बाइबिल में कहा गया है—‘आरम्भ में शब्द था। शब्द ईश्वर के साथ था और शब्द ईश्वर था।’ इन दि विगनिंग वाज दि वर्ड, दि वर्ड वाज विद गौड, दि वर्ड वाज गौड।’ शिव पुराण के उमा संहिता खण्ड के 26वें अध्याय में अनाहत नाद सम्बन्धी विशेष विवरण और माहात्म्य मिलता है। भगवान शिव पार्वती से कहते हैं—‘अनाहत नाद कालजयी है। इसकी साधना करने वाला इच्छानुसार मृत्यु को जीत लेता है। सर्वज्ञाता और सम्पूर्ण सिद्धियों का अधिपति बनता है। उसकी सूक्ष्मता बढ़ जाती है और भव सागर के बन्धन कट जाते हैं। जागरूक योगी शब्द ब्रह्म की साधना करे। यह परम कल्याणकारी योग है।
नादयोग के दस मण्डल साधना ग्रन्थों में गिनाये गये हैं। कहीं-कहीं इन्हें लोक भी कहा गया है। एक ॐकार ध्वनि और शेष नौ शब्द इन्हें मिलाकर दस शब्द बनते हैं। इन्हीं की श्रवण साधना शब्द ब्रह्म की नाद साधना कहलाती है।
सन्त मत के मध्यकालीन आचार्यों ने नाद ब्रह्म की साधना को ‘सुरति’ शब्दयोग कहा है। कबीर, रैदास, नानक, पलटू और राधास्वामी एवं नाथ सम्प्रदाय में इसका विशेष रूप से प्रचलन है। सुरति का एक अर्थ प्रकृति पुरुष के बीच अनवरत क्रम से चलने वाली दिव्य मिलन-बिछुड़न क्रिया की ओर संकेत करता है। दूसरा अर्थ स्रोत शब्द के अपभ्रंश रूप में भी ‘सुरत’ को ले सकते हैं। शास्त्रों में अध्यात्म स्रोत अनवरत शब्द प्रवाह को माना गया है। यह सूक्ष्म नाद प्रकृति के अन्तराल में सर्वव्यापी बनकर गूंज रहा है उसे अपने कार्य घट में भी सुना जा सकता है। इसकी श्रवण विधियां साधना शास्त्र में विभिन्न प्रकार से बताई गई हैं।
कुण्डलिनी साधना को प्रणव विद्या भी कहा गया है। उसके जागरण में जहां अन्यान्य विधि-विधानों का प्रयोग होता है वहां उस सन्दर्भ में प्रणव तत्व को प्रायः प्रमुखता ही दी जाती है।
प्रकृतिः निश्चला परावग्रूपिणी परप्रणवात्मिका कुण्डलिनीशक्तिः । —प्रपंच सार तन्त्र
कुण्डलिनी तन्त्र को ही निश्चल प्रकृति परावाक् और प्रणव विद्या कहते हैं। कुण्डलिनी जागरण प्रयोग गायत्री महाविद्या के अन्तर्गत ही आता है। पंचमुखी गायत्री में पंचकोशों की साधना पंचाग्नि विद्या कही जाती है। यही गायत्री के पांच मुख हैं। गायत्री की प्राण साधना का नाम सावित्री विद्या है। सावित्री ही कुण्डलिनी है। गायत्री मन्त्र में—गायत्री साधना में—प्रणत्व तत्व का अविच्छिन्न समावेश है। कहा गया है—
ॐकार पितृरूपेण गायत्री मातरं तथा । पितरौ यो न जानाति ब्राह्मणः सोऽन्यीर्यंजः ।। —योग संध्या
ओंकार रूपी पिता और गायत्री रूपी माता को जो ब्राह्मण नहीं जानता है वह वर्णसंकर है।
गायत्री ही क्या किसी भी स्रुति का वेदमन्त्र का शक्ति जागरण ॐकार का समावेश किए बिना संभव नहीं होता। हर वेद मन्त्र के उच्चारण में पहले ॐकार संयुक्त करना पड़ता है तभी वह जागृत होता है। अन्यथा वह निर्जीव ही बना रहेगा।
न मामनीरयित्वा ब्राह्मणा ब्रह्म वदेयुः । यदि वदेयुः अब्रह्म तत् स्यात् ।। —गोपथ पूर्व. 23
ओंकार ने कहा कि मुझको उच्चारण किए बिना ब्राह्मण वेद न बोलें। यदि बोलें तो वह वेद न रहे।
साधना मार्ग पर जिस लक्ष्य वेध के लिए चला जाता है उसमें ॐकार का धनुष की तरह और आत्मा का बाण की तरह प्रयोग किया जाता है। आत्मा का अग्रगमन प्रणव धनुष की सहायता से ही होता है। कहा गया है—
प्रणवोधनुः शरोह्यात्मा ब्रह्म तल्लक्ष्यमुच्यते । अप्रमत्ते न वेद्धव्यं शरवत्तन्मयो भवेत् ।। ॐकार रूपी धनुष में आत्मा का बाण चढ़ा कर स्फूर्तिपूर्वक ब्रह्मलक्ष्य में वेध देना चाहिए।
कुण्डलिनी प्रणव रूपिणी । —शक्ति तन्त्र
महा कुण्डलिनी प्रोप्ता परब्रह्म स्वरूपिणी । शब्द ब्रह्ममयी देवी एकाननेकाक्षरऽकृतिः ।। —योग कुण्डलि उपनिषद्
अर्थात्—कुण्डलिनी प्रणव रूप है। महा कुण्डलिनी को परब्रह्म स्वरूपिणी कहा गया है। यह शब्द ब्रह्ममय है। एक ॐ से अनेक अक्षरों की आकृतियां उत्पन्न हुई हैं। कुण्डलिनी का आकार सर्पिणी जैसा बताया गया है। वह गुंजलक मारे सोती हुई पड़ी है और पूंछ को अपने मुंह में दबाए हुए है। इस आकृति को घसीट कर बनाने से ॐ शब्द बन जाता है। अस्तु प्राण और उच्चारण सहित समर्थ प्रणव को कुण्डलिनी ही कहा गया है और उसी सजीव ॐ के उच्चारण का पूरा फल बताया गया है, जिसमें कुण्डलिनी की जागृत शक्ति का समन्वय हुआ है।
नादयोग की साधना के दो रूप हैं। एक तो अन्तरिक्ष से सूक्ष्म जगत से आने वाली दिव्य ध्वनियों का श्रवण, दूसरा अपने अन्तरंग के शब्द ब्रह्म का जागरण और उसका अभीष्ट क्षेत्र में—अभीष्ट उद्देश्य के लिए परिप्रेषण। यह शब्द उत्थान एवं परिप्रेषण ॐकार साधना के माध्यम से ही बन पड़ता है।
साधारण रेडियो यन्त्र मात्र ग्रहण करते हैं वे मूल्य की दृष्टि से सस्ते और संरचना की दृष्टि से सरल भी होते हैं। किन्तु परिप्रेषण यन्त्र—ब्राडकास्ट—ट्रांसमीटर महंगे भी होते हैं और उनकी संरचना भी जटिल होती है। उनके प्रयोग करने की जानकारी भी श्रम-साध्य होती है जबकि साधारण रेडियो का बजाना बच्चे भी जानते हैं। रेडियो की संचार प्रणाली तभी पूर्ण होती है जब दोनों पक्षों का सुयोग बन जाय। यदि ब्राडकास्ट की व्यवस्था न हो तो सुनने का साधन कहां से बन पड़ेगा? जिस क्षेत्र में रेडियो का लाभ जाना है वहां आवाज ग्रहण करने की ही नहीं आवाज पहुंचाने की भी व्यवस्था होनी चाहिए।
नादयोग की पूर्णता दोनों ही प्रयोग प्रयोजनों से सम्बद्ध है। कानों के छिद्र बन्द करके दिव्य-लोक से आने वाले ध्वनि प्रवाहों को सुनने के साथ साथ यह साधन भी रहना चाहिये कि साधक अपने अन्तःक्षेत्र से शब्द शक्ति का उत्थान कर सके। इसी अभ्यास के सहारे अन्यान्य मन्त्रों की शक्ति सुदूर क्षेत्रों तक पहुंचाई जा सकती है। वातावरण को प्रभावित करने—परिस्थितियां बदलने एवं व्यक्तियों को सहायता पहुंचाने के लिए मन्त्र शक्ति का प्रयोग परावाणी से होता है। चमड़े की जीभ से निकलने वाली वैखरी ध्वनि तो जानकारियों का आदान-प्रदान भर कर सकती है। मंत्र की क्षमता तो परा और पश्यन्ति वाणियों के सहारे ही प्रचण्ड बनती और लक्ष्य तक पहुंचती है। परावाक् का जागरण ॐकार साधना से सम्भव होता है। कुण्डलिनी अग्नि के प्रज्ज्वलन में ॐकार को ईंधन की तरह प्रयुक्त किया जाता है—
अन्तपंगतरंगस्य रोधे वेलयतेऽपि च । ब्रह्मपणवसलग्ननादो ज्योतिर्मयात्मकः ।। मनस्तत्र लयं याति द्विष्णोः परम पद्म । —नादविन्दोपनिषद्
नाद के प्रणव में संलग्न होने पर वह ज्योतिर्मय हो जाता है उस स्थिति में मन का लय हो जाता है। उसी को भगवान विष्णु का परम पद कहा जाता है।
योग साधना में चित्त-वृत्तियों का निरोध और प्राणशक्ति की प्रखरता यह दो ही तत्व प्रधान हैं। इन दोनों ही प्रयोजनों के लिए ॐकार की शब्द साधना से अभीष्ट उद्देश्य सरलतापूर्वक सिद्ध होता है—
ओंकारोच्चारणसान्तशब्दतत्वानुभावनात् । सुषुप्ते सविदो जाते प्राणस्पन्दो निरुध्यते ।। —योगवशिष्ट
ऊंचे स्वर से ओंकार का जप करने पर सान्त में जो शेष तुर्यमात्रा रूप शब्द-शब्द तत्व की अनुभूति होती है, उनका अनुसंधान से बाह्य चित्त-वृत्तियों का जब बिलकुल उपराम हो जाता है तब प्राणवायु का निरोध हो जाता है।
नादयोग की साधना में प्रगति पथ पर दोनों ही चरण उठने चाहिये। यहां नाद श्रवण के साथ-साथ नाद उत्थान को भी साधना-क्रम में सम्मिलित रखना चाहिये। कुण्डलिनी जागरण साधना में नाद श्रवण में ॐकार की ध्वनि पकड़ने तक पहुंचना पड़ता है। अन्य शब्द तो मार्ग के मील पत्थर मात्र हैं। अनाहत ध्वनि को ‘सुरति’ तुर्यावस्था, समाधि आदि पूर्णता बोधक आस्थाओं के समतुल्य माना गया है और अनाहत ध्वनि ‘ॐ’कार की श्रवण अनुभूति ही है। ॐकार ध्वनि का नादयोग में इसीलिए उच्च स्थान है।
नव शब्द परित्यज्य ॐकारन्तु समाश्रयेत् । सर्वे तत्र लयं यान्ति ब्रह्म प्रणव नादके ।। —महायोग विज्ञान
नौ शब्द नादों की उपेक्षा करके ॐकार नाद का आश्रय लेना चाहिए। समस्त नाद प्रणव में ही लीन होते हैं। ॐकार की ध्वनि का नाद का आश्रय लेने वाला साधक सत्यलोक को प्राप्त करता है।
शब्द ब्रह्म के—ॐकार के उत्थान की साधना में हृदय आकाश से ॐकार ध्वनि का उद्भव करना होता है। जिह्वा से मुख ॐकार उच्चारण का आरम्भिक अभ्यास किया जाता है। पीछे उस उद्भव में परा और पश्यन्ति वाणियां ही प्रयुक्त होती हैं और उस ध्वनि से हृदयाकाश को गुंजित किया जाता है।
हृद्यविच्छिन्नमोंकारं घण्टानांद विसोर्णवत् । प्राणोनोदीर्य तत्राथ पुनः संवेशयेत् स्वरम् ।। ध्यानेनेत्थं सुतीव्रेण युञ्जतो योगिनो मनः । संपास्यत्पाशु निर्वाणं द्रव्यज्ञान क्रियाभ्रमः ।। —भागवत 11।14।34-46
हृदय में घण्टा नाद की तरह ओंकार का अविच्छिन्न पद्म नालवत् अखण्ड उच्चारण करना चाहिए। प्राणवायु के सहयोग से पुनः पुनः ‘‘ॐ’’ का जप करके बारम्बार हृदय में गिराना चाहिए। इस तीव्र ध्यान विधि से योगाभ्यास करने वाले का मन शीघ्र ही शांत हो जाता है और सारे सांसारिक भ्रमों का निवारण हो जाता है।
नादारंभे भवेत्सर्वगात्राणां भंजनं ततः । शिरसः कंपनं पश्चात् सर्वदेहस्य कंपनम् ।। —योग रसायनम् 254
नाद के अभ्यास के दृढ़ होने पर आरम्भ में पूरे शरीर में हलचल-सी मचती है। फिर शिर में कम्पन होता है, पश्चात् सम्पूर्ण देह में कंपन होता है।
क्रमेणाभ्यासतश्चैवं श्रूयतेऽनाहतो ध्वनिः । पृथग्विमिश्रितश्चापि मनस्तत्र नियोजयेत् ।। —योग रसायनम् 253
क्रमशः अभ्यास करते रहने पर ही अनाहत ध्वनि पहले मिश्रित तथा बाद में पृथक स्पष्ट रूप से सुनाई पड़ती है। मन को वहीं नियोजित करना चाहिए। नाद श्रवण से सफलता मिलने लगे तो भी शब्द ब्रह्म की उपलब्धि नहीं माननी चाहिए। नाद ब्रह्म तो भीतर से अनाहत रूप में उठता है और उसे ॐकार के सूक्ष्म उच्चारण अभ्यास द्वारा प्रयत्नपूर्वक उठाना पड़ता है।
बाहरी शब्द वाद्य यन्त्रों आदि के रूप में सुने जाते हैं। पर ॐकार का नाद प्रयत्नपूर्वक भीतर से उत्पन्न करना पड़ता है— नादः संजायते तस्य क्रमेणाभ्यासतश्च चः । —शिव सं.
अर्थ—अभ्यास करने से नाद की उत्पत्ति होती है यह शीघ्र फलदाता है। अनाहतस्य शब्दरूप ध्वनिर्य उपलभ्यते । ध्वनेरन्तर्गतं ज्ञेयं ज्ञेयस्यान्तर्गतं मनः ।। मनस्तय लयं यादि तद्विष्णोः परमपदम् । —हठ.प्र.
अनाहत ध्वनि सुनाई पड़ती है, उस ध्वनि के भीतर स्वप्रकाश चैतन्य रहता है और उस ज्ञेय के भीतर मन रहता है और वह मन जिस स्थान में लय को प्राप्त होता है उसी को विष्णु का परमधाम कहते हैं।
नादयोग की महिमा बताते हुए कहा गया है कि उसके आधार पर दृष्टि की, चित्त की, स्थिरता अनायास ही हो जाती है। आत्म-कल्याण का परम अवलम्बन यह नादब्रह्म ही है।
दृष्टिः स्थिरा यस्य बिना सदृश्यं, वायुः स्थिरो यस्य विना प्रयत्नम् । चित्तं स्थिरं यस्य विनावलम्बम्, स ब्रह्म तारान्तरनादरूप ।। जिससे बिना दृश्य के दृष्टि स्थिर हो जाती है, जिससे बिना प्रयत्न के प्राणवायु स्थिर हो जाती है। जिससे बिना अवलम्बन के चित्त का नियमन हो जाता है वह अन्तर नाद रूपी ब्रह्म ही है।
नाद क्रिया के दो भाग हैं—बाह्य और अंतर। बाह्य नाद में बाहर की दिव्य आवाजें सुनी जाती हैं और बाह्य जगत की हलचलों की जानकारियां प्राप्त की जाती हैं और ब्रह्माण्डीय शक्ति धाराओं को आकर्षित करके अपने में धारण किया जाता है। अन्तः नाद में भीतर से शब्द उत्पन्न करके—भीतर ही भीतर परिपक्व करते और परिपुष्टि होने पर उसे किसी लक्ष्य विशेष पर किसी व्यक्ति के अथवा क्षेत्र के लिए फेंका जाता है और उससे अभीष्ट प्रयोजन की पूर्ति की जाती है। धनुषबाण चलाने के समतुल्य समझा जा सकता है।
अन्तःनाद के लिए भी बैठना तो ब्रह्मनाद की तरह ही होता है, पर अन्तर ग्रहण एवं प्रेषण का होता है। मुखासन से मेरुदंड को सीधा रखते हुए षडमुखी मुद्रा में बैठने का विधान है। षडमुखी मुद्रा का अर्थ है—दोनों अंगूठों से दोनों कान के छेद बन्द करना। दोनों हाथों की तर्जनी और मध्यमा अंगुलियों से दोनों आंखें बन्द करना। दोनों अनामिका कनिष्ठाओं से दोनों नथुनों पर दबाव डालना। नथुनों पर इतना दबाव नहीं डाला जाता कि सांस का आवागमन ही रुक जाय।
होठ बन्द, जीभ बन्द, मात्र भीतर ही परा पश्यन्ति वाणियों से ॐकार का गुंजार-प्रयास—यही है अन्तःनाद उत्थान। इनमें कंठ से मन्द ध्वनि होती रहती है। अपने आपको उसका अनुभव होता है और अन्तःचेतना उसे सुनती है। ध्यान रहे यह ॐकार का जप या उच्चारण नहीं गुंजार है। गुंजार का तात्पर्य है शंख जैसी ध्वनि धारा एवं घड़ियाल जैसी थर-थराहट का सम्मिश्रण। इसका स्वरूप लिखकर ठीक तरह नहीं समझा समझाया जा सकता। इसे अनुभवी साधकों से सुना और अनुकरण करके सीखा जा सकता है। साधना आरम्भ करने के दिनों दस-दस सैकिण्ड के तीन गुंजार बीच-बीच में पांच-पांच सैकिण्ड रुकते हुए करने चाहिए। इस प्रकार 40 सैकिण्ड का एक शब्द उत्थान हो जायेगा। इतना करके उच्चार बन्द और उसकी प्रतिध्वनि सुनने का प्रयत्न करना चाहिए। जिस प्रकार गुम्बजों में पक्के कुओं में, विशाल भवनों में, पहाड़ों की घाटियों में जोर से शब्द करने पर उसकी प्रतिध्वनि उत्पन्न होती है, उसी प्रकार अपने अन्तःक्षेत्र में ॐकार गुंजार के छोड़े हुए शब्द प्रवाह की प्रतिध्वनि उत्पन्न हुई अनुभव करनी चाहिए और पूरी तरह ध्वनि एकाग्र करके इस सूक्ष्म प्रतिध्वनि का आभास होता है। आरम्भ में बहुत प्रयत्न से, बहुत थोड़ी-सी अतीव मन्द—रुक-रुककर सुनाई पड़ती है, किन्तु धीरे-धीरे उसका उभार बढ़ता चलता है और ॐकार की प्रतिध्वनि अपने ही अन्तराल में अधिक स्पष्ट एवं अधिक समय तक सुनाई पड़ने लगती है। स्पष्टता एवं देरी को इस साधना की सफलता का चिन्ह माना जा सकता है।
ॐकार की उठती हुई प्रतिध्वनि अन्तःक्षेत्र के प्रत्येक विभाग को—क्षेत्र को—प्रखर बनाती है। उन संस्थानों की प्रसुप्त शक्ति जगाती है। उससे आत्मबल बढ़ता है और छिपी हुई दिव्य शक्तियां प्रकट होती एवं परिपुष्ट होती हैं।
समयानुसार इसका उपयोग शब्दबेधी बाण की तरह—प्रक्षेपणास्त्र की तरह हो सकता है। भौतिक एवं आत्मिक हित-साधना के लिए इस शक्ति को समीपवर्ती अथवा दूरवर्ती व्यक्तियों तक भेजा जा सकता है और उनको कष्टों से उबारने तथा प्रगति पथ पर अग्रसर करने के लिए उसका उपयोग किया जा सकता है। वरदान देने की क्षमता—परिस्थितियों में परिवर्तन कर सकने जितनी समर्थता जिस शब्द ब्रह्म के माध्यम से सम्भव होती है उसे ॐकार गुंजार के आधार पर भी उत्पन्न एवं परिपुष्ट किया जाता है। पुरानी परिपाटी में षडमुखी मुद्रा का उल्लेख है। मध्यकाल में उसकी आवश्यकता नहीं समझी गई और कान को कपड़े में बंधे मोम की पोटली से कर्ण छिद्रों को बन्द कर लेना पर्याप्त समझा गया। इससे दोनों हाथों को गोदी में रखने और नेत्र अर्धोन्मीलित रखने की ध्यान मुद्रा ठीक तरह सधती और सुविधा रहती थी। अब अनेक आधुनिक अनुभवी शवासन शिथिलीकरण मुद्रा में अधिक अच्छी तरह ध्यान लगने का लाभ देखते हैं। आराम कुर्सी का सहारा लेकर शरीर को ढीला छोड़ते हुए नादानुसन्धान में अधिक सुविधा अनुभव करते हैं। कान बन्द करने के लिए ठीक नाप के शीशियों वाले कार्क का प्रयोग कर लिया जाता है। इनमें से किससे, किसे, कितनी सरलता एवं सफलता मिली यह तुलनात्मक अभ्यास करके जाना जा सकता है। इनमें से जिसे जो प्रयोग अनुकूल पड़े वह उसे अपना सकता है। सभी उपयोगी एवं फलदायक हैं।
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गायत्री की उच्चस्तरीय पाँच साधनाएँ
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