Friday, 27 October 2017

सूरदास: मन पंछी उडि जइहें,जा दिन मन पंछी उडि जइहें 

Logo  सूरदास: मन पंछी उडि जइहें,जा दिन मन पंछी उडि जइहें June 08, 2015  ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~ सूरदास: मन पंछी उडि जइहें,जा दिन मन पंछी उडि जइहें ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~ मन पंछी उडि जइहें, जा दिन मन पंछी उडि जइहें। ता दिन तेरे तन तरुवर के, सबहिं पात झरि जइहें।। सूरदास जी का यह भजन मुझे बहुत प्रिय है। आश्रम में होने वाले रविवार के सत्संग में कई बार इस भजन पर चर्चा हो चुकी है। सूरदास जी ने मानव जीवन की एक ऐसी सच्चाई इस भजन में बयान की है, जिसे कोई भी मनुष्य झुठला नहीं सकता है। सूरदास जी अपने मन के साथ साथ संसार के सभी मनुष्यों को समझाते हुए कहते हैं कि हे मन! शरीर से जिस दिन जीवात्मा रूपी पंछी बाहर निकल जायेगा, उस दिन शरीर रूपी वृक्ष के सभी पत्ते झड जायेंगे अर्थात हे मनुष्यों! आप अपने शरीर, अपने सम्बन्धियों और अपनी जमीन-जायदाद व् पद-प्रतिष्ठा को लेकर जो भी अहंकार अपने मन में पाल रखे हो वो सब अहंकार रूपी पत्ते जीव रूपी पंछी के शरीर के बाहर निकलते ही झड जायेंगे। किसी की मृत्यु पर अक्सर हम कहतें हैं कि फलां व्यक्ति का निधन हो गया है अर्थात मरने वाला व्यक्ति अब निर्धन या धनहीन हो गया है, उसके पास अब कुछ भी शेष नहीं बचा है। एक शब्द और किसी के मरने पर प्रयोग होता है कि फलां नाम के व्यक्ति चल बसे। इसका अर्थ हुआ कि इस शरीर से बाहर निकल कर कहीं और बसने के लिए वो व्यक्ति चल दिया है। जीवात्मा के शरीर से बाहर निकलते ही हमारा सब अहंकार यहीं धरा रह जायेगा। अत:हर मनुष्य को अहंकार रूपी सबसे बड़ी बीमारी से बचना चाहिए। घर के कहहिं वेगहि काढो, भूत भये कोऊ खइहें। जा प्रीतम सो प्रीति घनेरी, सोऊ देखि डरी जइहें। मन पंछी उडि जइहें, जा दिन मन पंछी उडि जइहें।। मानस में कहा गया है कि- "सुर नर मुनि सबहि की यही रीति, स्वारथ लागी करहिं सब प्रीति।" सब अपने स्वार्थ के कारण स्वार्थपूर्ति हेतु एक दुसरे से प्रेम करते हैं। जो व्यक्ति कोल्हू के बैल की तरह जीवन भर अपने परिवार के लिए खटता रहा उसके शरीर छोड़ने के बाद उसके वही परिवार वाले कहते हैं कि इसके मृत शरीर को जितनी जल्दी हो घर के बाहर निकालो, कहीं ऐसा न हो इसकी आत्मा यहीं भूत बनकर रह जाये और घर के लोगों को खाना शुरू कर दे अर्थात मरने के बाद यहाँ रहकर घर के लोगो को कहीं हानि न पहुंचाए। जीवन भर अपने परिवार की सेवा करने का ये प्रतिफल मिलता है। यहाँ पर मेरा अपना विचार है कि मरने के बाद लोग प्रेत रूप में रहते जरुर हैं, परन्तु जो व्यक्ति जीते जी किसी का अहित नहीं किया है, वो मरने के बाद प्रेत बनकर भी किसी का अहित नहीं करता है। सूरदास जी आगे कहते हैं कि जिस पति से पत्नी अथाह प्रेम करती है उस पति के मर जाने के बाद उसकी मृत देह को देखकर पत्नी को भय लगता है। हमारे शरीर के सभी सम्बन्धी महास्वार्थी है, मरने के बाद इस बात का एहसास सबको हो जाता है। इसीलिए संत समझाते है कि शरीर के संबंधियों में रात-दिन मगन रहने की बजाय जो हमारी आत्मा का सम्बन्धी है और जो मरने के बाद भी हमारा साथ देगा, उस परमात्मा की खोज करो और निरंतर उसके नाम का जाप करते रहो। हमारा सच्चा जीवन साथी परमात्मा ही है। कहां वह ताल कहां वह शोभा, देखत धूल उड़इहें। भाई बंधू कुटुंब कबीला, सुमीर सुमीर पछितइहें। मन पंछी उडि जइहें, जा दिन मन पंछी उडि जइहें।। सूरदास जी कहते हैं कि किसी तालाब की शोभा तभी तक है जब तक वो जल से भरा हो। तालाब का सब जल सूख जाये तो उसमे धूल उड़ने लगती है। इसी तरह से जब तक जीवात्मा हमारे शरीर में है और हम जीवित हैं, तभी तक इस शरीर की सोभा है। मरने के बाद तो शरीर की ये स्थिति है कि "हाड़ जरे ज्यों लाकडी, मांस जरे ज्यों घासा। सोने जैसी काया जरी गई, कोई न आयो पासा।।" जितने भी हमारे परिवार के लोग हैं, रिश्तेदार हैं, मित्र हैं और मोहल्ले के लोग हैं सब मरने वाले को याद करके रोते-पछताते हैं। मैंने बहुत से लोगों को देखा है कि वो जीते जी अपने परिवार के लोगों की क़द्र नहीं करते हैं और उनके मरने के बाद रोते-पछतातें हैं। जीते जी जिसे दो रोटी कायदे से न खिलाई, उसके मरने के बाद उसके अंतिम संस्कार में सैकड़ों लोंगो को स्वादिस्ट भोजन खिलाने का ढोंग करते हैं। याद रखिये, फिल्मों की तरह जीवन में रिटेक नहीं होता है अर्थात मरकर कोई व्यक्ति जीवित नहीं होता है और न ही बीता हुआ समय वापस लौटता है। जीवन में जो मरकर बिछुड़ गया उसकी सेवा का दुबारा अवसर नहीं मिलेगा, इसीलिए जो आपके परिजन जीवित हैं, उनकी जितनी हो सके सेवा कीजिये, उनका सही कहना मानिये, उनसे प्रेम से बोलिए और उनका कभी अनादर मत कीजिये। अपने मन में किसी तरह का अहंकार मत पनपने दीजिये। जीवन में हमेशा प्रसन्न, सहज और सरल बन के रहिये। बिना गोपाल कोऊ नहीं अपना, जिसकी रति रहि जइहें। सो तो सूर दुर्लभ देवन को, सतसंगति महि पइहें। मन पंछी उडि जइहें, जा दिन मन पंछी उडि जइहें।। सूरदास जी कहते हैं कि परमात्मा ही हमारे एकमात्र सच्चे साथी हैं, वो हमारे जन्म से पूर्व हमारे साथ थे, आज हमारे साथ हैं और शरीर छोड़ने के बाद भी हमारे साथ रहेंगे क्योंकि हमारी आत्मा उनका अंश है। अंशी परमात्मा अपने अंश रूपी आत्मा को भला कैसे भूल सकता है? परमात्मा से की गई रति अर्थात प्रेम ही साथ जायेगा। परमात्मा से किया गया प्रेम संसार में भी भजन, प्रवचन और संत वाणी के रूप में जीवित रहता है। सूरदास जी कहते हैं कि भगवान को पाना देवताओं के लिए भी कठिन काम है, क्योंकि देवताओं के पास मानव शरीर नहीं है। वे सूक्ष्म शरीर धारण करके रहतें हैं। भगवान को पाने के लिए या उनकी खोज करने के लिए मानव शरीर का होना जरुरी है। संत सूरदास जी अपने भजन के अंत में कहते हैं कि भगवान को खोजने के लिए उस जगह पर जाओ जहाँ भगवान की चर्चा होती हो। मेरे विचार से भगवान की अनुभूति प्राप्त करने के लिए ऐसे गुरु की खोज करनी चाहिए जिन्हें भगवान के बारे में जानकारी हो और जिन्हें भगवान के होने का अनुभव प्राप्त हो। गीता के अध्याय ४ श्लोक ३४ में भगवान श्री कृष्ण जी भी यही बात कहते हैं- "तत्वज्ञान को तू तत्वदर्शी ज्ञानियों के पास जाकर समझ। उनको भली-भांति दंडवत-प्रणाम करने से, उनकी सेवा करने से और कपट छोड़कर सरलतापूर्वक प्रश्न करने से वे परमात्मतत्व को भली-भांति जानने वाले ज्ञानी महात्मा तुझे उस तत्वज्ञान का उपदेश करेंगे।" तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया । उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्वदर्शिनः ॥ मेरे विचार से भगवान की यह वाणी पूरी गीता का सार है। ज्ञान हम घर बैठे भी धार्मिक ग्रंथो व् किताबों से हासिल कर सकते हैं, परन्तु इससे हमें ज्ञान तो मिल जाता है, परन्तु हमारे मन का अज्ञान और अहंकार दूर नहीं हो पाता है। भगवान का अनुभव पाने की सबसे बड़ी बाधा हमारा अज्ञान और अहंकार ही है। गुरु के सानिध्य और सेवा से हमारा अज्ञान और अहंकार दोनों दूर होता है। आप कभी गुरूद्वारे में जाकर देखिये, वहां पर बड़े से बड़े अमीर लोग और बड़े से बड़े नेता या मंत्री आपको लोगों की जूते चप्पलें साफ करते हुए दिखाई देंगे, यही नहीं बल्कि लैट्रिन बाथरूम की साफ-सफाई से लेकर प्रसाद बनाने और खिलाने में भी सहयोग करते दिखाई देंगे। ऐसी पवित्र जगहों को मै बार-बार सजदा करता हूँ जहाँ जाकर लोगों का पाप, अज्ञान और अहंकार सब सेवा के माध्यम से गिर जाता है। संतो ने कहा है कि एक ओंकार- ईश्वर एक है, सत्यनाम- वो सच्चा नाम है अर्थात सच्चे नाम के द्वारा ईश्वर की अनुभूति प्राप्त की जा सकती है और वाहेगुरु- वही सबका वास्तविक गुरु है। परमात्मा संसार में गुरु के रूप में है। मानस में भी यही बात कही गई है- "वन्दे वोधमयम नित्यं गुरुम शंकररुपिणम"। शंकाओं का समाधान करने के कारण गुरु को शंकर जी का रूप भी कहा गया है। भगवान में लीन रहने वाले सभी संत महात्मा भगवान के ही साक्षात् रूप हैं। उनके सानिध्य व् वचनों से अज्ञान दूर होता है, हमारी बुरी आदतें छूट जाती हैं और उनकी कृपा से टेढ़ा चन्द्रमा यानि हमारा दुष्ट मन शुद्ध और परोपकारी होकर होकर परिवार और समाज में हमें सम्मान दिलाने लगता है और उनकी सेवा से मन का अहंकार दूर होता है। हम स्वयम की और ईश्वर की अनुभूति प्राप्त करने के पात्र बन जाते हैं। नश्वर मानव जीवन जीने की सार्थकता और पूर्णता स्वयम की और ईश्वर की अनुभूति प्राप्त करना है। ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~ (आलेख और प्रस्तुति= सद्गुरु श्री राजेंद्र ऋषि जी, प्रकृति पुरुष सिद्धपीठ आश्रम, ग्राम- घमहापुर, पोस्ट- कन्द्वा, जिला- वाराणसी.पिन- २२११०६) ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~Related News  Copyright © 2017 Jagran.com All rights reserved.

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