Thursday, 26 October 2017
जप में जिह्वा भी नहीं हिलती, हृदयपूर्वक जप होता
नामोचारण का फल
सदगुरु और मंत्र दीक्षा
दस नामापराध
मंत्रजाप विधि
जापक के प्रकार
जप के प्रकार
जप के लिए आवश्यक विधान
मंत्रानुष्ठान
विद्यार्थियों के लिए सारस्वत्य मंत्र के अनुष्ठान की विधि
‘परिप्रश्नेन...’
मंत्रजाप महिमा एवं अनुष्ठान विधि
भगवन्नाम-महिमा
भगवन्नाम अनन्त माधुर्य, ऐश्वर्य और सुख की खान है । सभी शास्त्रों में नाम की महिमा का वर्णन किया गया है । इस नानाविध आधि-व्याधि से ग्रस्त कलिकाल में हरिनाम-जप संसार सागर से पार होने का एक उत्तम साधन है । भगवान वेदव्यास जी तो कहते हैं-
हरेर्नाम हरेर्नाम हरेर्नामैव केवलम्।
कलौ नास्त्येव नास्त्येव नास्त्येव गतिरन्यथा।।
(बृहन्नारदीय पुराणः 38.127)
पद्मपुराण में आया हैः
ये वदन्ति नरा नित्यं हरिरित्यक्षरद्वयम्।
तस्योच्चारणमात्रेण विमुक्तास्ते न संशयः।।
‘जो मनुष्य परमात्मा के इस दो अक्षरवाले नाम ‘हरि’ का नित्य उच्चारण करते हैं, उसके उच्चारणमात्र से वे मुक्त हो जाते हैं, इसमें शंका नहीं है।’
गरुड़ पुराण में उपदिष्ट है किः
यदीच्छसि परं ज्ञानं ज्ञानाच्च परमं पदम् ।
तदा यत्नेन महता कुरु श्रीहरिकीर्तनम् ।।
‘यदि परम ज्ञान अर्थात आत्मज्ञान की इच्छा है और उस आत्मज्ञान से परम पद पाने की इच्छा है तो खूब यत्नपूर्वक श्री हरि के नाम का कीर्तन करो ।’
एक बार नारद जी ने भगवान ब्रह्मा जी से कहाः
"ऐसा कोई उपाय बतलाइए, जिससे मैं विकराल कलिकाल के काल जाल में न फँसूं।"
इसके उत्तर में ब्रह्माजी ने कहाः आदिपुरुषस्य नारायणस्य नामोच्चारणमात्रेण निर्धूत कलिर्भवति।
‘आदि पुरुष भगवान नारायण के नामोच्चार करने मात्र से ही मनुष्य कलि से तर जाता है।’
(कलिसंवरणोपनिषद)
श्रीमदभागवत के अंतिम श्लोक में भगवान वेदव्यास कहते हैं-
नामसंकीर्तनं यस्य सर्वपापप्रणाशनम् ।
प्रणामो दुःखशमनस्तं नमामि हरिं पदम् ।।
‘जिसका नाम-संकीर्तन सभी पापों का विनाशक है और प्रणाम दुःख का शमन करने वाला है, उस श्रीहरि-पद को मैं नमस्कार करता हूँ ।’
कलिकाल में नाम की महिमा का बयान करते हुए भगवान वेदव्यास जी श्रीमदभागवत में कहते हैं-
कृते यद् ध्यायतो विष्णुं त्रेतायां यजतो मखैः ।
द्वापरे परिचर्यायां कलौ तद्धरिकीर्तनात् ।।
‘सतयुग में भगवान विष्णु के ध्यान से, त्रेता में यज्ञ से और द्वापर में भगवान की पूजा-अर्चना से जो फल मिलता था, वह सब कलियुग में भगवान के नाम कीर्तन मात्र से ही प्राप्त हो जाता है ।’
(श्रीमदभागवतः 13.3.52)
‘श्रीरामचरितमानस’ में गोस्वामी तुलसी दास जी महाराज इसी बात को इस रुप में कहते हैं-
कृतजुग त्रेताँ द्वापर पूजा मख अरु जोग ।
जो गति होइ सो कलि हरि नाम ते पावहिं लोग ।।
‘सतयुग, त्रेता और द्वापर में जो गति पूजा, यज्ञ और योग से प्राप्त होती है, वही गति कलियुग में लोग केवल भगवान के नाम से पा जाते हैं ।’
(श्रीरामचरित. उत्तरकाण्डः 102ख)
आगे गोस्वामी जी कहते हैं-
कलिजुग केवल हरि गुन गाहा ।
गावत नर पावहिं भव थाहा ।।
कलिजुग जोग न जग्य न ग्याना ।
एक आधार राम गुन गाना ।।
सब भरोस तजि जो भज रामहि ।
प्रेम समेत गाव गुन ग्रामहि ।।
सोइ भव तर कछु संसय नाहीं ।
नाम प्रताप प्रगय कलि माहीं ।।
‘कलियुग में तो केवल श्री हरि की गुण गाथाओं का गान करने से ही मनुष्य भवसागर की थाह पा जाते हैं ।
कलियुग में न तो योग और यज्ञ है और न ज्ञान ही है । श्री राम जी का गुणगान ही एकमात्र आधार है । अतएव सारे भरोसे त्यागकर जो श्रीरामजी को भजता है और प्रेमसहित उनके गुणसमूहों को गाता है, वही भवसागर से तर जाता है, इसमें कुछ भी संदेह नहीं । नाम का प्रताप कलियुग में प्रत्यक्ष है ।’
(श्री रामचरित. उत्तरकाण्डः 102.4 से 7)
चहुँ जुग चहुँ श्रुति नाम प्रभाऊ ।
कलि बिसेषि नहिं आन उपाऊ ।।
‘यों तो चारों युगों में और चारों ही वेदों में नाम का प्रभाव है किन्तु कलियुग में विशेष रूप से है । इसमें तो नाम को छोड़कर दूसरा कोई उपाय ही नहीं है ।’
(श्रीरामचरित. बालकाण्डः 21.8)
गोस्वामी श्री तुलसीदास जी महाराज के विचार में अच्छे अथवा बुरे भाव से, क्रोध अथवा आलस्य से किसी भी प्रकार से भगवन्नाम का जप करने से व्यक्ति को दसों दिशाओं में कल्याण-ही-कल्याण प्राप्त होता है ।
भायँ कुभायँ अनख आलसहूँ ।
नाम जपत मंगल दिसि दसहूँ ।।
(श्रीरामचरित. बालकाण्डः 27.1)
यह कल्पवृक्षस्वरूप भगवन्नाम स्मरण करने से ही संसार के सब जंजालों को नष्ट कर देने वाला है । यह भगवन्नाम कलिकाल में मनोवांछित फलों को देने वाला, परलोक का परम हितैषी एवं इस संसार में व्यक्ति का माता-पिता के समान सब प्रकार से पालन एवं रक्षण करने वाला है ।
नाम कामतरु काल कराला।
सुमिरत समन सकल जग जाला।।
राम नाम कलि अभिमत दाता।
हित परलोक लोक पितु माता।।
(श्रीरामचरित. बालकाण्डः 26.5-6)
इस भगवन्नाम-जपयोग के आध्यात्मिक एवं लौकिक पक्ष का सुंदर समन्वय करते हुए गोस्वामी जी कहते हैं कि ब्रह्माजी के बनाये हुए इस प्रपंचात्मक दृश्यजगत से भली भाँति छूटे हुए वैराग्यवान् मुक्ति योगी पुरुष इस नाम को ही जीभ से जपते हुए तत्त्वज्ञानरुप दिन में जागते हैं और नाम तथा रुप से रहित अनुपम, अनिर्वचनीय, अनामय ब्रह्मसुख का अनुभव करते हैं । जो परमात्मा के गूढ़ रहस्य को जानना चाहते हैं, वे जिह्वा द्वारा भगवन्नाम का जप करके उसे जान लेते हैं । लौकिक सिद्धियों के आकाँक्षी साधक लययोग द्वारा भगवन्नाम जपकर अणिमादि सिद्धियाँ प्राप्त कर सिद्ध हो जाया करते हैं । इसी प्रकार जब संकट से घबराये हुए आर्त भक्त नामजप करते हैं तो उनके बड़े-बड़े संकट मिट जाते हैं और वे सुखी हो जाते हैं ।
नाम जीहँ जपि जागहिं जोगी।
बिरती बिरंचि प्रपंच बियोगी।।
ब्रह्मसुखहि अनुभवहिं अनूपा।
अकथ अनामय नाम न रूपा।।
जाना चहहिं गूढ़ गति जेऊ।
नाम जीहँ जपि जानहिं तेऊ।।
साधक नाम जपहिं लय लाएँ।
होहिं सिद्ध अनिमादिक पाएँ।।
जपहिं नामु जन आरत भारी।
मिटहिं कुसंकट होहिं सुखारी।।
( श्री रामचरित. बालकाण्डः 21,1 से 5)
नाम को निर्गुण (ब्रह्म) एवं सगुण (राम) से भी बड़ा बताते हुए तुलसीदास जी ने तो यहाँ तक कह दिया किः
अगुन सगुन दुइ ब्रह्म सरूपा।
अकथ अगाध अनादि अनूपा।।
मोरें मत बड़ नामु दुहू तें।
किए जेहिं जुग निज बस निज बूतें।।
ब्रह्म के दो स्वरूप हैं- निर्गुण और सगुण। ये दोनों ही अकथनीय, अथाह, अनादि और अनुपम हैं। मेरी मति में नाम इन दोनों से बड़ा है, जिसने अपने बल से दोनों को वश में कर रखा है।
(श्रीरामचरित. बालकाण्डः 22,1-2)
अंत में नाम को राम से भी अधिक बताते हुए तुलसीदास जी कहते हैं-
सबरी गीघ सुसेवकनि सुगति दीन्हि रघुनाथ।
नाम उधारे अमित खल बेद गुन गाथ।।
‘श्री रघुनाथ जी ने तो शबरी, जटायु गिद्ध आदि उत्तम सेवकों को ही मुक्ति दी, परन्तु नाम ने अनगिनत दुष्टों का भी उद्धार किया। नाम के गुणों की कथा वेदों में भी प्रसिद्ध है।’
(श्रीरामचरित. बालकाण्डः 24)
अपतु अजामिलु गजु गनिकाऊ।
भए मुकुत हरिनाम प्रभाऊ।।
कहौं कहौं लगि नाम बड़ाई।
रामु न सकहिं नाम गुन गाई।।
‘नीच अजामिल, गज और गणिका भी श्रीहरि के नाम के प्रभाव से मुक्त हो गये। मैं नाम की बड़ाई कहाँ तक कहूँ? राम भी नाम के गुणों को नहीं गा सकते।’
(श्रीरामचरित. बालकाण्डः25,7-8)
किन्हीं महापुरुषों ने कहा हैः
आलोsयं सर्वशास्त्राणि विचार्य च पुनः पुनः।
एकमेव सुनिष्पन्नं हरिर्नामैव केवलम्।।
सर्वशास्त्रों का मन्थन करने के बाद, बार-बार विचार करने के बाद, ऋषि-मुनियों को जो एक सत्य लगा, वह है भगवन्नाम।
तुकारामजी महाराज कहते हैं-
‘नामजप से बढ़कर कोई भी साधना नहीं है। तुम और जो चाहो से करो, पर नाम लेते रहो। इसमें भूल न हो। यही सबसे पुकार-पुकारकर मेरा कहना है। अन्य किसी साधन की कोई जरूरत नहीं है। बस निष्ठा के साथ नाम जपते रहो।’
इस भगवन्नाम-जप की महिमा अनंत है। इस जप के प्रसाद से शिवजी अविनाशी हैं एवं अमंगल वेशवाले होने पर भी मंगल की राशि हैं। परम योगी शुकदेवजी, सनकादि सिद्धगण, मुनिजन एवं समस्त योगीजन इस दिव्य नाम-जप के प्रसाद से ही ब्रह्मनंद का भोग करते हैं। भवतशिरोमणि श्रीनारद जी, भक्त प्रह्लाद, ध्रुव, अम्बरीष, परम भागवत श्री हनुमानजी, अजामिल, गणिका, गिद्ध जटायु, केवट, भीलनी शबरी- सभी ने इस भगवन्नाम-जप के द्वारा भगवत्प्राप्ति की है।
मध्यकालीन भक्त एवं संत कवि सूर, तुलसी, कबीर, दादू, नानक, रैदास, पीपा, सुन्दरदास आदि संतों तथा मीराबाई, सहजोबाई जैसी योगिनियों ने इसी जपयोग की साधना करके संपूर्ण संसार को आत्मकल्याण का संदेश दिया है।
नाम की महिमा अगाध है। इसके अलौकिक सामर्थ्य का पूर्णतया वर्णन कर पाना संभव नहीं है। संत-महापुरुष इसकी महिमा स्वानुभव से गाते हैं और वही हम लोगों के लिए आधार हो जाता है।
नाम की महिमा के विषय में संत श्री ज्ञानेश्वर महाराज कहते हैं-
"नाम संकीर्तन की ऐसी महिमा है कि उससे सब पाप नष्ट हो जाते हैं। फिर पापों के लिए प्रायश्चित करने का विधान बतलाने वालों का व्यवसाय ही नष्ट हो जाता है, क्योंकि नाम-संकीर्तन लेशमात्र भी पाप नहीं रहने देता। यम-दमादि इसके सामने फीके पड़ जाते हैं, तीर्थ अपने स्थान छोड़ जाते हैं, यमलोक का रास्ता ही बंद हो जाता है। यम कहते हैं- हम किसको यातना दें? दम कहते हैं- हम किसका भक्षण करें? यहाँ तो दमन के लिए भी पाप-ताप नहीं रह गया! भगवन्नाम का संकीर्तन इस प्रकार संसार के दुःखों को नष्ट कर देता है एवं सारा विश्व आनंद से ओत-प्रोत हो जाता है।"
(ज्ञानेश्वरीगीताः अ.9,197-200)
नामोचारण का फल
श्रीमदभागवत में आता है:
सांकेत्यं पारिहास्यं वा स्तोत्रं हेलनमेव वा |
वैकुण्ठनामग्रहणमशेषधहरं विटुः ||
पतितः स्खलितो भग्नः संदष्टस्तप्त आहतः |
हरिरित्यवशेनाह पुमान्नार्हति यातनाम् ||
‘भगवान का नाम चाहे जैसे लिया जाय- किसी बात का संकेत करने के लिए, हँसी करने के लिए अथवा तिरस्कार पूर्वक ही क्यों न हो, वह संपूर्ण पापों का नाश करनेवाला होता है | पतन होने पर, गिरने पर, कुछ टूट जाने पर, डँसे जाने पर, बाह्य या आन्तर ताप होने पर और घायल होने पर जो पुरुष विवशता से भी ‘हरि’ ये नाम का उच्चारण करता है, वह यम-यातना के योग्य नहीं |
(श्रीमदभागवत: 6.2.14,15)
मंत्र जाप का प्रभाव सूक्ष्म किन्तु गहरा होता है |
जब लक्ष्मणजी ने मंत्र जप कर सीताजी की कुटीर के चारों तरफ भूमि पर एक रेखा खींच दी तो लंकाधिपति रावण तक उस लक्ष्मणरेखा को न लाँघ सका | हालाँकि रावण मायावी विद्याओं का जानकार था, किंतु ज्योंहि वह रेख को लाँघने की इच्छा करता त्योंहि उसके सारे शरीर में जलन होने लगती थी |
मंत्रजप से पुराने संस्कार हटते जाते हैं, जापक में सौम्यता आती जाती है और उसका आत्मिक बल बढ़ता जाता है |
मंत्रजप से चित्त पावन होने लगता है | रक्त के कण पवित्र होने लगते हैं | दुःख, चिंता, भय, शोक, रोग आदि निवृत होने लगते हैं | सुख-समृद्धि और सफलता की प्राप्ति में मदद मिलने लगती है |
जैसे, ध्वनि-तरंगें दूर-दूर जाती हैं, ऐसे ही नाह-जप की तरंगें हमारे अंतर्मन में गहरे उतर जाती हैं तथा पिछले कई जन्मों के पाप मिटा देती हैं | इससे हमारे अंदर शक्ति-सामर्थ्य प्रकट होने लगता है और बुद्धि का विकास होने लगता है | अधिक मंत्र जप से दूरदर्शन, दूरश्रवण आदि सिद्धयाँ आने लगती हैं, किन्तु साधक को चाहिए कि इन सिद्धियों के चक्कर में न पड़े, वरन् अंतिम लक्ष्य परमात्म-प्राप्ति में ही निरंतर संलग्न रहे |
मनु महाराज कहते थे कि:
“जप मात्र से ही ब्राह्मण सिद्धि को पा लेता है और बड़े-में-बड़ी सिद्धि है हृदय की शुद्धि |”
भगवान बुद्ध कहा करते थे: “मंत्रजप असीम मानवता के साथ तुम्हारे हृदय को एकाकार कर देता है |”
मंत्रजप से शांति तो मिलती ही है, वह भक्ति व मुक्ति का भी दाता है |
मंत्रजप करने से मनुष्य के अनेक पाप-ताप भस्म होने लगते हैं | उसका हृदय शुद्ध होने लगता है तथा ऐसे करते-करते एक दिन उसके हृदय में हृदतेश्वर का प्राकटय भी हो जाता है |
मंत्रजापक को व्यक्तिगत जीवन में सफलता तथा सामाजिक जीवन में सम्मान मिलता है | मंत्रजप मानव के भीतर की सोयी हुई चेतना को जगाकर उसकी महानता को प्रकट कर देता है | यहाँ तक की जप से जीवात्मा ब्रह्म-परमात्मपद में पहुँचने की क्षमता भी विकसित कर लेता है |
जपात् सिद्धिः जपात् सिद्धिः जपात् सिद्धिर्न संशयः |
मंत्र दिखने में बहुत छोटा होता है लेकिन उसका प्रभाव बहुत बड़ा होता है | हमारे पूर्वज ॠषि-मुनियों ने मंत्र के बल से ही तमाम ॠद्धियाँ-सिद्धियाँ व इतनी बड़ी चिरस्थायी ख्याति प्राप्त की है |
‘गीताप्रेस’ गोरखपुर के श्री जयदयाल गोयन्दकाजी लिखते हैं:
“वास्तव में, नाम की महिमा वही पुरुष जान सकता है जिसका मन निरंतर श्री भगवन्नाम के चिंतन में संलग्न रहता है, नाम की प्रिय और मधुर स्मृति से जिसको क्षण-क्षण में रोमांच और अश्रुपात होते हैं, जो जल के वियोग में मछली की व्याकुलता के समान क्षणभर के नाम-वियोग से भी विकल हो उठता है, जो महापुरुष निमेषमात्र के लिए भी भगवान के नाम को छोड़ नहीं सकता और जो निष्कामभाव से निरंतर प्रेमपूर्वक जप करते-करते उसमें तल्लीन हो चुका है |
साधना-पथ में विघ्नों को नष्ट करने और मन में होने वाली सांसारिक स्फुरणाओं का नाश करने के लिए आत्मस्वरूप के चिंतनसहित प्रेमपूर्वक भगवन्नाम-जप करने के समान दूसरा कोई साधन नहीं है |”
नाम और नामी की अभिन्नता है | नाम-जप करने से जापक में नामी के स्वभाव का प्रत्यारोपण होने लगता है | इससे उसके दुर्गुण, दोष, दुराचार मिटकर उसमें दैवी संपत्ति के गुणों का स्थापन होता है व नामी के लिए उत्कट प्रेम-लालसा का विकस होता है |
सदगुरु और मंत्र दीक्षा
अपनी इच्छानुसार कोई मंत्र जपना बुरा नहीं है, अच्छा ही है, लेकिन जब मंत्र सदगुरु द्वारा दिया जाता है तो उसकी विशेषता बढ़ जाती है | जिन्होंने मंत्र सिद्ध किया हुआ हो, ऐसे महापुरुषों के द्वारा मिला हुआ मंत्र साधक को भी सिद्धावस्था में पहुँचाने में सक्षम होता है | सदगुरु से मिला हुआ मंत्र ‘सबीज मंत्र’ कहलाता है क्योंकि उसमें परमेश्वर का अनुभव कराने वाली शक्ति निहित होती है |
सदगुरु से प्राप्त मंत्र को श्रद्धा-विश्वासपूर्वक जपने से कम समय में ही काम बा जाता है |
शास्त्रों में यह कथा आती है कि एक बार भक्त ध्रुव के संबंध में साधुओं की गोष्ठी हुई | उन्होंने कहा:
“देखो, भगवान के यहाँ भी पहचान से काम होता है | हम लोग कई वर्षों से साधु बनकर नाक रगड़ रहे हैं, फिर भी भगवान दर्शन नहीं दे रहे | जबकि ध्रुव है नारदजी का शिष्य, नारदजी हैं ब्रह्मा के पुत्र और ब्रह्मा जी उत्पन्न हुए हैं विष्णुजी की नाभि से | इस प्रकार ध्रुव हुआ विष्णुजी के पौत्र का शिष्य | ध्रुव ने नारदजी से मंत्र पाकर उसका जप किया तो भगवान ध्रुव के आगे प्रकट हो गये |”
इस प्रकार की चर्चा चल ही रही थी कि इतने में एक केवट वहाँ और बोला: “हे साधुजनों ! लगता है आप लोग कुछ परेशान से हैं | चलिए, मैं आपको जरा नौका विहार करवा दूँ |”
सभी साधु नौका में बैठ गये | केवट उनको बीच सरोवर में ले गया जहाँ कुछ टीले थे | उन टीलों पर अस्थियाँ दिख रहीं थीं | तब कुतुहल वश साधुओं ने पूछा:
“केवट तुम हमें कहाँ ले आये? ये किसकी अस्थियों के ढ़ेर हैं ?”
तब केवट बोला: “ये अस्थियों के ढ़ेर भक्त ध्रुव के हैं | उन्होंने कई जन्मों तक भगवान को पाने के लिये यहीं तपस्या की थी | आखिरी बार देवर्षि नारद मिल गये तो उनकी तपस्या छः महीने में फल गई और उन्हें प्रभु के दर्शन हो गये |
सब साधुओं को अपनी शंका का समाधान मिल गया |
इस प्रकार सदगुरु से प्राप्त मंत्र का विश्वासपूर्वक जप शीघ्र फलदायी होता है |
दूसरी बात: गुरुप्रदत्त मंत्र कभी पीछा नहीं छोड़ता | इसके भी कई दृष्टांत हैं |
तीसरी बात : सदगुरु शिष्य की योग्यता के अनुसार मंत्र देते हैं | जो साधक जिस केन्द्र में होता है, उसीके अनुरूप मंत्र देने से कुण्डलिनी शक्ति जल्दी जाग्रत होती है |
गुरु दो प्रकार के माने जाते हैं :
1. सांप्रदायिक गुरु और
2. लोक गुरु
सांप्रदाय के संत सबको को एक प्रकार का मंत्र देते हैं ताकि उनका संप्रदाय मजबूत हो | जबकि लोकसंत साधक की योग्यता के अनुसार उसे मंत्र देते हैं | जैसे, देवर्षि नारद | नारदजी ने रत्नाकर डाकू को ‘मरा-मरा’ मंत्र दिया जबकि ध्रुव को ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय’ मंत्र दिया |
मंत्र भी तीन प्रकार के होते हैं :
1. साबरी
2. तांत्रिक और
3. वैदिक
साबरी तथा तांत्रिक मंत्र से छोटी-मोटी सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं लेकिन ब्रह्मविद्या के लिए तो वैदिक मंत्र ही लाभदायी है | वैदिक मंत्र का जप इहलोक और परलोक दोनों में लाभदायी होता है |
किस साधक के लिये कौन सा मंत्र योग्य है ? यह बत सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान श्री सदगुरुदेव की दृष्टि छिपी नहीं रहती | इसीसे दीक्षा के संबंध में पूर्णतः उन्हीं पर निर्भर रहना चाहिए | वे जिस दिन, जिस अवस्था में शिष्य पर कृपा कर देते हैं, चाहे जो मंत्र देते हैं, विधिपूर्वक या बिना विधि के, सब ज्यों-का-त्यों शास्त्र सम्म्त है | वही शुभ मुहूर्त है, जब श्रीगुरुदेव की कृपा हो | वही शुभ मंत्र है, जो वे दे दें | उसमें किसी प्रकार के संदेह या विचार के लिए स्थान नहीं है | वे अनाधिकारी को अधिकारी बना सकते हैं | एक-दो की तो बात ही क्या, सारे संसार का उद्धार कर सकते हैं
‘श्रीगुरुगीता’ में आता है:
गुरुमंत्रो मुखे यस्य तस्य सिद्धियन्ति नान्यथा |
दीक्षया सर्व कर्माणि सिद्धयन्ति गुरु पुत्रके ||
‘जिसके मुख में गुरुमंत्र है, उसके सब कर्म सिद्ध होते हैं, दूसरे के नहीं | दीक्षा के कारण शिष्य के सर्व कार्य सिद्ध हो जाते हैं |
मंत्रदीक्षा
गुरु मंत्रदीक्षा के द्वार शिष्य की सुषुप्त शक्ति को जगाते हैं | दीक्षा का अर्थ है: ‘दी’ अर्थात जो दिया जाय, जो ईश्वरीय प्रसाद देने की योग्यता रखते हैं तथा ‘क्षा’ अर्थात जो पचाया जाय या जो पचाने की योग्यता रखता है | पचानेवाले साधक की योग्यता तथा देनेवाले गुरु का अनुग्रह, इन दोनों का जब मेल होता है, तब दीक्षा सम्पन्न होती है |
गुरु मंत्र दीक्षा देते हैं तो साथ-साथ अपनी चैतन्य शक्ति भी शिष्य को देते हैं | किसान अपने खेत में बीज बो देता है तो अनजान आदमी यह नहीं कह सकता कि बीज बोया हुआ है या नहीं | परन्तु जब धीरे-धीरे खेत की सिंचाई होती है, उसकी सुरक्षा की जाती है, तब बीज में से अंकुर फूट निकलते हैं और तब सबको पता चलता है कि खेत में बुवाई हुई है | ऐसे ही मंत्र दीक्षा के समय हमें जो मिलता है, वह पता नहीं चलता कि क्या मिला, परन्तु जब हम साधन-भजन से उसे सींचते हैं तब मंत्र दीक्षा का जो प्रसाद है, बीजरूप में जो आशीर्वाद मिला है, वह पनपता है |
श्री गुरुदेव की कृपा और शिष्य की श्रद्धा, इन दो पवित्र धाराओं का संगम ही दीक्षा है |गुरु का आत्मदान और शिष्य का आत्मसमर्पण, एक की कृपा व दूसरे की श्रद्धा के मेल से ही दीक्षा संपन्न होती है | दान और क्षेप, यही दीक्षा है | ज्ञान, शक्ति व सिद्धि का दान और अज्ञान, पाप और दरिद्रता का क्षय, इसी का नाम दीक्षा है |
सभी साधकों के लिये यह दीक्षा अनिवार्य है |चाहे जन्मों की देर लगे, परन्तु जब तक ऐसी दीक्षा नहीं होगी तब तक सिद्धि का मार्ग रुका ही रहेगा |
यद समस्त साधकों का अधिकार एक होता, यदि साधनाएँ बहुत नहीं होतीं और सिद्धियों के बहुत-से-स्तर न होते तो यह भी सम्भव था कि बिना दीक्षा के ही परमार्थ प्राप्ति हो जाती | परंतु ऐसा नहीं है | इस मनुष्य शरीर में कोई पशु-योनी से आया है और कोई देव-योनी से, कोई पूर्व जन्म में साधना-संपन्न होकर आया है और कोई सीधे नरककुण्ड से, किसी का मन सुप्त है और किसी का जाग्रत | ऐसी स्थिति में सबके लिये एक मंत्र, एक देवता और एक प्रकार की ध्यान-प्रणाली हो ही नहीं सकती |
यह सत्य है कि सिद्ध, साधक, मंत्र और देवताओं के रूप में एक ही भगवान प्रकट हैं | फिर भी किस हृदय में, किस देवता और मंत्र के रूप में उनकी स्फूर्ति सहज है- यह जानकर उनको उसी रूप में स्फुरित करना, यह दीक्षा की विधि है |
दीक्षा एक दृष्टि से गुरु की ओर आत्मदान, ज्ञानसंचार अथवा शक्तिपात है तो दूसरी दृष्टि से शिष्य में सुषुप्त ज्ञान और शक्तियों का उदबोधन है | दीक्षा से हृदयस्थ सुप्त शक्ति के जागरण में बड़ी सहायता मिलती है और यही कारण है कि कभी-कभी तो जिनके चित्त में बड़ी भक्ति है, व्याकुलता और सरल विश्वास है, वे भी भगवत्कृपा का उतना अनुभव नहीं कर पाते जितना कि शिष्य को दीक्षा से होता है |
दीक्षा बहुत बार नहीं होती क्योंकि एक बार रास्ता पकड़ लेने पर आगे के स्थान स्वयं ही आते रहते हैं | पहली भूमिका स्वयं ही दूसरी भूमिका के रूप में पर्यवसित होती है |
साधना का अनुष्ठान क्रमशः हृदय को शुद्ध करता है और उसीके अनुसार सिद्धियों का और ज्ञान का उदय होता जाता है | ज्ञान की पूर्णता साधना की पूर्णता है |
शिष्य के अधिकार-भेद से ही मंत्र और देवता का भेद होता है जैसे कुशल वैद्य रोग का निर्णय होने के बाद ही औषध का प्रयोग करते हैं | रोगनिर्णय के बिना औषध का प्रयोग निरर्थक है | वैसे ही साधक के लिए मंत्र और देवता के निर्णय में भी होता है | यदि रोग का निर्णय ठीक हो, औषध और उसका व्यवहार नियमित रूप से हो, रोगी कुपथ्य न करे तो औषध का फल प्रत्यक्ष देखा जाता है | इसी प्रकार साधक के लिए उसके पूर्वजन्म की साधनाएँ, उसके संस्कार, उसकी वर्त्तमान वासनाएँ जानकर उसके अनुकूल मंत्र तथा देवता का निर्णय किया जाय और साधक उन नियमों का पालन करे तो वह बहुत थोड़े परिश्रम से और बहुत शीघ्र ही सिद्धिलाभ कर सकता है |
मंत्र दीक्षा के प्रकार
दीक्षा तीन प्रकार की होती है:
1. मांत्रिक
2. शांभवी और
3. स्पर्श
जब मंत्र बोलकर शिष्य को सुनाया जाता है तो वह होती है मांत्रिक दीक्षा |
निगाहों से दी जानेवाली दीक्षा शांभवी दीक्षा कहलाती है |
जब शिष्य के किसी भी केन्द्र को स्पर्श करके उसकी कुण्डलिनी शक्ति जगायी जाती है तो उसे स्पर्श दीक्षा कहते हैं |
शुकदेवजी महाराज ने पाँचवें दिन परिक्षित पर अपनी दृष्टि से कृपा बरसायी और परिक्षित को ऐसा दिव्य अनुभव हुआ कि वे अपनी भूख-प्यास तक भूल गये | गुरु के वचनों से उन्हें बड़ी तृप्ति मिली | शुकदेवजी महाराज समझ गये कि सत्पात्र ने कृपा पचायी है | सातवें दिन शुकदेवजी महारज ने परिक्षित को स्पर्श दीक्षा भी दे दी और परिक्षित को पूर्ण शांति की अनुभूति हो गयी |
कुलार्णवतंत्र में तीन प्रकार की दीक्षाओं का इस प्रकार वर्णन है:
स्पर्शदीक्षा:
यथा पक्षी स्वपक्षाभ्यां शिशून्संवर्धयेच्छनैः |
स्पर्शदीक्षोपदेशस्तु तादृशः कथितः प्रिये ||
'स्पर्शदीक्षा उसी प्रकार की है जिस प्रकार पक्षिणी अपने पंखों से स्पर्श से अपने बच्चों का लालन-पालन-वर्द्धन करती है |'
जब तक बच्चा अण्डे से बाहर नहीं निकलता तब तक पक्षिणी अण्डे पर बैठती है और अण्डे से बाहर निकलने के बाद जब तक बच्चा छोटा होता है तब तक उसे वह अपने पंखों से ढ़ाँके रहती है |
दृग्दीक्षा:
स्वपत्यानि यथा कूर्मी वीक्षणेनैव पोष्येत् |
दृग्दीक्षाख्योपदेशस्तु तादृशः कथितः प्रिये ||
‘दृग्दीक्षा उसी प्रकार की है जिस प्रकार कछवी दृष्टिमात्र से अपने बच्चों का पोषण करती है |’
ध्यानदीक्षा:
यथा मत्सी स्वतनयान् ध्यानमात्रेण पोषयेत् |
वेधदीक्षापदेशस्तु मनसः स्यात्तथाविधाः ||
‘ध्यानदीक्षा मन से होती है और उसी प्रकार होती है जिस प्रकार मछली अपने बच्चों को ध्यानमात्र से पोसती है |’
पक्षिणी, कछवी और मछली के समान ही श्रीसदगुरु अपने स्पर्श से, दृष्टि से तथा संकल्प से शिष्य में अपनी शक्ति का संचार करके उसकी अविद्या का नाश करते हैं और महावाक्य के उपदेश से उसे कृतार्थ कर देते हैं | स्पर्श, दृष्टि और संकल्प के अतिरिक्त एक ‘शब्ददीक्षा’ भी होती है | इस प्रकार चतुर्विध दीक्षा है और उसका क्रा आगे लिखे अनुसार है :
विद्धि स्थूलं सूक्षमं सूक्ष्मतरं सूक्ष्मतममपि क्रमतः |
स्पर्शनभाषणदर्शनसंकल्पनजत्वतश्च्तुर्धा तम् ||
‘स्पर्श, भाषण, दर्शन, संकल्प - यह चार प्रकार की दीक्षा क्रम से स्थूल, सूक्ष्म, सूक्ष्मतर और सूक्ष्मतम है |’
इस प्रकार दीक्षा पाये हुए शिष्यों में कोई ऐसे होते हैं, जो दूसरों को वही दीक्षा देकर कृतार्थ कर सकते हैं और कोई केवल स्वयं कृतार्थ होते हैं, परन्तु दूसरों को शक्तिपात करके कृतार्थ नहीं सकते |
साम्यं तु शक्तिपाते गुरुवत्स्वस्यापि सामर्थ्यम् |
चार प्रकार की दीक्षा में गुरुसाम्यासाम्य कैसा होता है, यह आगे बतलाते हैं :
स्पर्श:
स्थूलं ज्ञानं द्विविधं गुरुसाम्यासाम्यद्वत्वभेदेन |
दीपप्रस्तरयोरिव संस्पर्शात्स्निग्धवर्त्ययसोः ||
किसी जलते हुए दीपक से किसी दूसरे दीपक की घृताक्त या तैलाक्त बत्ती को स्पर्श करते ही वह बत्ती जल उठती है, फिर यह दूसरी जलती हुई बत्ती चाहे किसी भी अन्य स्निग्ध बत्ती को अपने स्पर्श से प्रज्वलित कर सकती है | यह शक्ति उसे प्राप्त हो गयी | यही शक्ति इस प्रकार प्रज्वलित सभी दीपों को प्राप्त है | इसीको परम्परा कहते हैं | दूसरा उदाहरण पारस है | पारस के स्पर्श से लोहा सोना बन जाता है, परन्तु इस सोने में यह सामर्थ्य नहीं होता कि वह दूसरे किसी लोहखण्ड को अपने स्पर्श से सोना बना सके | साम्यदान करने की शक्ति उसमें नहीं होती अर्थात परम्परा आगे नहीं बनी रहती |
शब्दः
तद्वद् द्विविधं सूक्ष्मं शब्दश्रवणेन कोकिलाम्बुदयोः |
तत्सुतमयूरयोरिव तद्वज्ञेयं यथासंख्यम् ||
कौओं के बीच में पला हुआ कोयल का बच्चा कोयल का शब्द सुनते ही यह जान जाता है क मैं कोयल हूँ | फिर अपने शब्द से यही बोध उत्पन्न करने की शक्ति भी उसमें आ जाती है | मेघ का शब्द सुनकर मोर आनन्द से नाच उठता है, पर यही आनन्द दूसरे को देने का सामर्थ्य मोर के शब्द में नहीं आता |
दृष्टि:
इत्थं सूक्ष्मतरमपि द्विविधं कूर्म्या निरीक्षणात्तस्याः |
पुत्र्यास्तथैव सवितुर्निरीक्षणात्कोकमिथुनस्य ||
कछवी के दृष्टि निक्षेपमात्र से उसके बच्चे निहाल हो जाते हैं और फिर यही शक्तिपात उन बच्चों को भी प्राप्त होती है | इसी प्रकार सदगुरु के करुणामय दृष्टिपात से शिष्य में ज्ञान का उदय हो जाता है और फिर उसी प्रकार की करुणामय दृष्टिपात से अन्य अधिकारियों में भी ज्ञान उदय कराने की शक्ति उस शिष्य में भी आ जाती है | परन्तु चकवा-चकवी को सूर्यदर्शन से जो आनन्द प्राप्त होता है, वही आनन्द वे अपने दर्शन के द्वारा दूसरे चकवा-चकवी के जोड़ों को नहीं प्राप्त करा सकते |
संकल्पः
सूक्ष्मतमपि द्विविधं मत्स्याः संकल्पतस्तु तद्युहितुः |
तृप्तिर्नगरादिजनिर्मान्त्रिकसंकल्पतश्च भुवि तद्वत ||
मछली के संकल्प से उसके बच्चे निहाल होते हैं और इसी प्रकार संकल्पमात्र से अपने बच्चों को निहाल करने सामर्थ्य फिर उन बच्चों को भी प्राप्त हो जाता है | परन्तु आंत्रिक अपने संकल्प से जिन वस्तुओं का निर्माण करता है, उन वस्तुओं में वह संकल्पशक्ति उत्पन्न नहीं होती |
इन सब बातों का निष्कर्ष यह है कि सदगुरु अपनी सारी शक्ति एक क्षण में अपने शिष्य को दे सकते हैं |
यही बात परम भगवदभक्त संत तुकारामजी अपने अभंग में इस प्रकार कहते हैं:
“सदगुरु बिना रास्ता नहीं मिलता, इसलिए सब काम छोड़कर पहले उनके चरण पकड़ लो | वे तुरंत शरणागत को अपने जैसा बना लेते हैं | इसमें उन्हें जरा भी देर नहीं लगती |”
गुरुकृपा से जब शक्ति प्रबुद्ध हो उठती है, तब साधक को आसन, प्राणायाम, मुद्र आदि करने की आवश्यकता नहीं होती | प्रबुद्ध कुण्डलिनी ऊपर ब्रह्मरन्ध की ओर जाने के लिए छटपटाने लगती है | उसके इस छटपटाने में जो कुछ क्रियाएँ अपने-आप होती हैं, वे ही आसन, मुद्र, बन्ध और प्राणयाम हैं | शक्ति का मार्ग खुल जाने के बाद सब क्रियाएँ अपने-आप होती हैं और उनसे चित्त को अधिकाधिक स्थिरता प्राप्त होती है | ऐसे साधक देखे गये हैं, जिन्होंने कभी स्वप्न में भी आसन-प्राणयामादि का कोई विष्य नहीं जाना थ, न ग्रन्थों में देखा था, न किसीसे कोई क्रिया ही सीखी थी, पर जब उनमें शक्तिपात हुआ तब वे इन सब क्रियाओं को अन्तःस्फूर्ति से ऐसे करने लगे जैसे अनेक वर्षों का अभ्यास हो | योगशास्त्र में वर्णित विधि के अन्नुसार इन सब क्रियाओ। का उनके द्वारा अपने-आप होना देखकर बड़ा ही आश्चर्य होता है | जिस साधक के द्वारा जिस क्रिया का होना आवश्यक है, वही क्रिया उसके द्वारा होती है, अन्य नहीं | जिन क्रियाओं के करने में अन्य साधकों को बहुत काल कठोर अभ्यास करना पड़ता है, उन आसनादि क्रियाओं को शक्तिपात से युक्त साधक अनायास कर सकते हैं | यथावश्यक रूप से प्राणयाम भी होने लगता है और दस-पन्द्रह दिन की अवधि के अन्दर दो-दो मिनट का कुम्भक अनायास होने लगता है | इस प्रकार होनेवाली यौगिक क्रियाओं से साधक को कोई कष्ट नहीं होता, किसी अनिष्ट के भय का कोई कारण नहीं रहता, क्योंकि प्रबुद्ध शक्ति स्वयं ही ये सब क्रियाएँ साधक से उसकी प्रकृति से अनुरूप करा लिया करती है | अन्यथा हठयोग से साधन में जरा सी भी त्रुटि होने पर बहुत बड़ी हानि होने का भय रहता है | जैसा कि ‘हठयोगप्रदीपिका’ ने ‘आयुक्ता-भ्यासयोगेन सर्वरोगसमुदभवः’ यह कह कर चेता दिया है, परन्तु शक्तिपात से प्रबुद्ध होने वाली शक्ति के द्वारा साधक को जो क्रियाएँ होती हैं, उनसे शरीर रोग रहित होता है, बड़े-बड़े असाध्य रोग भी भस्म हो जाते हैं | इससे गृहस्थ साधक बहुत लाभ उठा सकते हैं | अन्य साधनों के अभ्यास में तो भविष्य में कभी मिलनेवाले सुख की आशा से पहले कष्ट-ही-कष्ट उठाने पड़ते हैं, परन्तु इस साधन में आरम्भ से ही सुख की अनुभूति होने लगती है | शक्ति का जागना जहाँ एक बार हुआ कि फ्र वह शक्ति स्वयं ही साधक को परमपद की प्राप्ति कराने तक अपना काम करती रहती है | इस बीच साधक के जितने भी जन्म बीत जायें, एक बार जागी हुई कुण्डलिनी श्कति फिर कभी सुप्त नहीं होती है |
शक्तिसंचार दीक्षा प्राप्त करने के पश्चात साधक अपने पुरुषार्थ से कोई भी यौगिक क्रिया नहीं कर सकता, न इसमें उसका मन ही लग सकता है | शक्ति स्वयं अंदर से जो स्फूर्ति प्रदान करती है, उसी के अनुसार साधक को सब क्रियाएँ होती रहती हैं | यदि उसके अनुसार वह न करे अथवा उसका विरोध करे तो उसका चित्त स्वस्थ नहीं रह सकता, ठीक वैसे ही जैसे नींद आने पर भी जागनेवाला मनुष्य अस्वस्थ होता है | साधक को शक्ति के आधीन होकर रहना होता है | शक्ति ही उसे जहाँ जब ले जाय, उसे जाना होता है और उसीमें संतोष करना होता है | एक जीवन में इस प्रकार कहाँ-से-कहाँ तक उसकी प्रगति होगी, इसका पहले से कोई निश्चय या अनुमान नहीं किया जा सकता | शक्ति ही उसका भार वहन करती है और शक्ति किसी प्रकार उसकी हानि न कर उसका कल्याण ही करती रहती है |
योगाभ्यास की इच्छा करनेवालों के लिए इस काल में शक्तिपात जैसा सुगम साधन अन्य कोई नहीं है | इसलिए ऐसे शक्तिसम्पन्न गुरु जब सौभाग्य से किसीको प्राप्त हों तब उसे चाहिए कि ऐसे गुरु का कृपाप्रसाद प्राप्त करे | इस प्रकार अपने कर्त्त्व्यों का पलन करते हुए ईश्वरप्रसाद का लाभ प्राप्त करके कृतकृत्य होने के लिए साधक को सदा प्रयत्नशील रहना चाहिए |
गुरु में विश्वास
गुरुत्यागाद् भवेन्मृत्युर्मंत्रत्यागाद्यरिद्रता |
गुरुमंत्रपरित्यागी रैरवं नरकं व्रजेत् ||
‘गुरु का त्याग करने से मृत्यु होती है, मंत्र को छोड़ने से द्ररिद्रता आती है और गुरु व मंत्र क त्याग करने से रौरव नरक मिलता है |’
एक बार सदगुरु करके फिर उन्हें छोड़ा नहीं जा सकता | जो हमारे जीवन की व्यवस्था करना जानते हैं, ऐसे आत्मवेत्ता, श्रोतिय, ब्रह्मनिष्ठ सदगुरु होते हैं | ऐसे महापुरुष अगर हमें मिल जायें तो फिर कहना ही क्या ? जैसे, उत्तम पतिव्रता स्त्री अपने पति के सिवाय दूसरे किसीको पुरुष नहीं मानती | मध्यम पतिव्रता स्त्री बडों को पिता के समान, छोटों को अपने बच्चों के समान और बराबरी वालों को अपने भाई के समान मानती है किन्तु पति तो उसे धरती पर एक ही दिखता है | ऐसे ही सतशिष्य को धरती पर सदगुरु तो एक ही दिखते हैं | फिर भले सदगुरु के अलावा अन्य कोई ब्रह्मनिष्ठ संत मिल जायें घाटवाले बाबा जैसे, उनका आदर जरूर करेंगें किन्तु उनके लिए सदगुरु तो एक ही होते हैं |
पार्वतीजी से कहा गया: “तुम क्यों भभूतधारी, श्मशानवासी शिवजी के लिए इतना तप कर रही हो ? भगवान नारायण के वैभव को देखो, उनकी प्रसन्नता को देखो | ऐसे वर को पाकर तुम्हारा जीवन धन्य हो उठेगा |”
तब पार्वतीजी ने कहा: “आप मुझे पहले मिल गये होते तो शायद, मैंने आपकी बात पर विचार किया होता | अब तो मैं ऐसा सोच भी नहीं सकती | मैंने तो मन से शिवजी को ही पति के रूप में वर लिया है |
“शिवजी तो आयेंगे ही नहीं, कुछ सुनेंगें भी नहीं, तुम तपस्या करते-करते मर जाओगी | फिर भी कुछ नहीं होगा |
पार्वतीजी बोलीं: “इस जन्म में नहीं तो अगले जन्म में | करोड़ जन्म लेकर भी मैं पाऊँगी तो शिवजी को ही पाऊँगी |”
कोटि जनम लगि रगर हमारी |
बरऊँ संभू न तो रहौउँ कुमारी ||
साधक को भी एक बार सदगुरु से मंत्र मिल गया तो फिर अटल होकर लगे रहना चाहिए |
मंत्र में विश्वास
एक बार सदगुरु से मंत्र मिल गया, फिर उसमें शंका नहीं करनी चाहिए | मंत्र चाहे जो हो, किन्तु यदि उसे पूर्ण विश्वास के साथ जपा जाय तो अवश्य फलदायी होता है |
किसी नदी के तट पर एक मंदिर में एक महान गुरुजी रहते थे | सारे देश में उनके सैकड़ों-हजारों शिष्य थे | एक बार अपना अंत समय निकट जानकर गुरुजी ने अपने सब शिष्यों को देखने के लिए बुलाया | गुरुजी के विशेष कृपापात्र शिष्यगण, जो सदा उनके समीप ही रहते थे, चिंतित होकर रात और दिन उनके पास ही रहने लगे | उन्होंने सोचा: ‘न मालूम कब और किसके सामने गुरुजी अपना रहस्य प्रकट कर दें, जिसके कारण वे इतने पूजे जाते हैं |’ अतः यह अवसर न जाने देने के लिए रात-दिन शिष्यगण उन्हें घेरे रहने लगे |
वैसे तो गुरुजी ने अपने शिष्यों को अनेक मंत्र बतलाये थे, किन्तु शिष्यों ने उनसे कोई सिद्धि प्राप्त नहीं की थी | अतः उन्होंने सोचा कि सिद्धि प्राप्त करने के उपाय को गुरुजी छिपाये ही हैं, जिसके कारण गुरुजी का इतना मान है | गुरुजी के दर्शनों के लिए शिष्यगण बड़े दूर-दूर से आये और बड़ी आशा से रहस्य के उदघाटन का इन्तजार करने लगे |
एक बड़ा नम्र शिष्य था जो नदी के दूसरे तट पर रहता था | वह भी गुरुजी का अंत समय जानकर दर्शन के लिए जाने लगा | किन्तु उस समय नदी में बाढ़ आयी हुई थी और जल की धारा इतनी तेज थी कि नाव भी नहीं चल सकती थी |
शिष्य ने सोचा: ‘जो भी हो, उसे चलना ही होगा क्योंकि कहीं ऐसा न हो कि दर्शन पाये बिना ही गुरुजी का देहान्त हो जाय
’
वह जानता था कि गुरुजी ने उसे जो मंत्र दिय है वह बड़ा शक्तिशाली है और उसमें सब कुछ करने की शक्ति है | ऐसा विश्वास करके श्रद्धापूर्वक मंत्र जपता हुआ वह नदी के जल पर पैदल ही चलकर आया |
गुरुजी के अन्य सब शिष्य उसकी यह चमत्कारी शक्ति देखकर चकित हो गये | उन्हें उस शिष्य को पहचानते ही याद आया कि बहुत दिनो। पूर्व यह शिष्य केवल एक दिन रहकर चला गया था | सब शिष्यों को हुआ कि अवश्य गुरुजी ने उसी शिष्य को मंत्र का रहस्य बतलाया है | अब तो सब शिष्य गुरुजी पर बहुत बिगड़े और बोले:
“आपने हम सबको धोखा क्यों दिया? हम सबने वर्षों आपकी सेवा की और बराबर आपकी आज्ञाओं का पालन किया | किन्तु मंत्र का रहस्य आपने एक ऐसे अज्ञात शिष्य को बता दिया जो केवल एक दिन, सो भी बहुत दिन पहले, आपके पास रहा |”
गुरुजी ने मुस्कराकर सब शिष्यों को शांत किया और नवागत नम्र शिष्य को पास बुलाकर आज्ञा की वह उपदेश जो उसे बहुत दिन पहले दिया था, उपस्थित शिष्यों को सुनाये |
गुरुजी की आज्ञा से शिष्य ने ‘कुडु-कुडु’ शब्द का उच्चारण किया तो पूरी शिष्यमंडली चकित हो उटई |
फिर गुरुजी ने कहा: “देखो ! इन शब्दों में इस श्रद्धावान शिष्य को विश्वास था कि गुरुजी ने सारी शक्तियों का भेद बतला दिया है | इस विश्वास, एकाग्रता और भक्ति से इसने मंत्र का जप किया तो उसका फल भी इसे मिल गया, किन्तु तुम लोगों का चित्त सदा संदिग्ध ही रहा और सदा यही सोचते रहे कि गुरुजी अभी-भी कुछ छिपाये हुए हैं | यद्यपि मैंने तुम लोगों को बड़े चमत्कारपूर्ण मंत्रों का उपदेश दिया था | किन्तु छिपे रहस्य के संदेहयुक्त विचारों ने तुम लोगों के मन को एकाग्र न होने दिया, मन को चंचल किये रहा | तुम लोग सदा मंत्र की अपूर्णता की बात सोचा करते थे | अनजानी भूल से जो तुम सबने अपूर्णता पर ध्यान जमाया, तो फलस्वरूप तुम सभी अपूर्ण ही रह गये |”
किसीने ठीक ही कहा है:
मंत्रे तीर्थे द्विजे दैवज्ञे भेषजे गुरौ |
यादृशीर्भावना यस्य सिद्धिर्भवति तादृशीः ||
“मंत्र में, तीर्थ में, ब्राह्मण में, देव में, ज्योतिषि में, औषधि में और गुरु में जिसकी जैसी भावना होती है उसको वैसी ही सिद्धि होती है |
दस नामापराध
सदगुरु से प्राप्त मंत्र को विश्वासपूर्वक तो जपें ही, साथ ही यह भी ध्यान रखें कि जप दस अपराध से रहित हो | किसी महात्मा ने कहा है :
राम राम अब कोई कहे, दशरित कहे न कोय |
एक बार दशरित कहै, कोटि यज्ञफल होय ||
‘राम-राम’ तो सब कहते हैं किन्तु दशरित अर्थात दस नामापराध से रहित नामजप नहीं करते | यदि एक बार दस नामापराध से रहित होकर नाम लें तो कोटि यज्ञों का फल मिलता है |”
प्रभुनाम की महिमा अपरंपार है, अगाध है, अमाप है, असीम है | तुलसीदासजी महाराज तो यहाँ तक कहते हैं कि कलियुग में न योग है, न यज्ञ और न ही ज्ञान, वरन् एकमात्र आधार केवल प्रभुनाम का गुणगान ही है |
कलिजुग जोग न जग्य न ग्याना |
एक आधार राम गुन गाना ||
नहिं कलि करम न भगति बिबेकु |
राम नाम अवलंबनु एकु ||
यदि आप भीतर और बाहर दोनों ओर उजाला चाहते हैं तो मुखरूपी द्वार की जीभरूपी देहली पर रामनामरूपी मणिदीपक को रखो |
राम नाम मनिदीप धरु, जीह देहरीं द्वार |
तुलसी भीतर बाहेरहुँ, जौं चाहेसि उजिआर ||
अतः जो भी व्यक्ति रामनाम का, प्रभुनाम का पूरा लाभ लेना चाहे, उसे दस दोषों से अवश्य बचना चाहिए | ये दस दोष ‘नामापराध’ कहलाते हैं | वे दस नामापराध कौन- से हैं ? ‘विचारसागर’ में आता है:
सन्निन्दाऽसतिनामवैभवकथा श्रीशेशयोर्भेदधिः
अश्रद्धा श्रुतिशास्त्रदैशिकागरां नाम्न्यर्थावादभ्रमः |
नामास्तीति निषिद्धवृत्तिविहितत्यागो हि धर्मान्तरैः
साम्यं नाम्नि जपे शिवस्य च हरेर्नामापराधा दशा ||
1. सत्पुरुष की निन्दा
2. असाधु पुरुष के आगे नाम की महिमा का कथन
3. विष्णु का शिव से भेद
4. शिव का विष्णु से भेद
5. श्रुतिवाक्य में अश्रद्धा
6. शास्त्रवाक्य में अश्रद्धा
7. गुरुवाक्य में अश्रद्धा
8. नाम के विषय में अर्थवाद ( महिमा की स्तुति) का भ्रम
9. ‘अनेक पापों को नष्ट करनेवाला नाम मेरे पास है’ - ऐसे विश्वास से निषिद्ध कर्मों का आचरण और इसी विश्वास से विहित कर्मों का त्याग तथा
10. अन्य धर्मों (अर्थात नामों) के साथ भगवान के नाम की तुल्यता जानना - ये दस शिव और विष्णु के जप में नामापराध हैं
पहला अपराध है, सत्पुरुष की निंदा:
यह प्रथम नामापराध है | सत्पुरुषों में तो राम-तत्त्व अपने पूर्णत्व में प्रकट हो चुका होता है | यदि सत्पुरुषों की निंदा की जाय तो फिर नामजप से क्या लाभ प्राप्त किया जा सकता है ? तुलसीदासजी, नानकजी, कबीरजी जैसे संत पुरुषों ने तो संत-निंदा को बड़ा भारी पाप बताया है | ‘श्रीरामचरितमानस’ में संत तुलसीदासजी कहते हैं :
हरि हर निंदा सुनइ जो काना |
होई पाप गोघात समाना ||
‘जो अपने कानों से भगवान विष्णु और शिव की निंदा सुनता है, उसे गोवध के समान पाप लगता है |’
हर गुर निंदक दादुर होई |
जन्म सहस्र पाव तन सोई ||
‘शंकरजी और गुरु की निंदा करनेवाला अगले जन्म में मेंढक होता है और हजार जन्मों तक मेंढक का शरीर पाता है |’
होहिं उलूक संत निंदा रत |
मोह निसा प्रिय ग्यान भानु गत ||
‘संतों की निंदा में लगे हुए लोग उल्लू होते हैं, जिन्हें मोहरूपी रात्रि प्रिय होती है और ज्ञानरूपी सूर्य जिनके लिए बीत गया (अस्त हो गया) होता है |’
संत कबीरजी कहते हैं :
कबीरा वे नर अंध हैं,
जो हरि को कहते और, गुरु को कहते और |
हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहीं ठौर ||
‘सुखमनि’ में श्री नानकजी के वचन हैं :
संत का निंदकु महा अतताई |
संत का निंदकु खुनि टिकनु न पाई ||
संत का निंदकु महा हतिआरा |
संत का निंदकु परमेसुरि मारा ||
‘संत की निंदा करनेवाला बड़ा पापी होता है | संत का निंदक एक क्षण भी नहीं टिकता | संत का निंदक बड़ा घातक होता है | संत के निंदक को ईश्वर की मार होती है |’
संत का दोखी सदा सहकाईऐ |
संत का दोखी न मरै न जीवाईऐ ||
संत का दोखी की पुजै न आसा |
संत का दोखी उठि चलै निरासा ||
‘संत का दुश्मन सदा कष्ट सहता रहता है | संत का दुश्मन कभी न जीता है, न मरता है | संत के दुश्मन की आशा पूर्ण नहीं होती | संत का दुश्मन निराश होकर मरता है |’
दूसरा अपराध है, असाधु पुरुष के आगे नाम की महिमा का कथन:
जिनका हृदय साधन-संपन्न नहीं है, जिनका हृदय पवित्र नहीं है, जो न तो स्वयं साधन-भजन करते हैं और न ही दूसरों को करने देते हैं, ऐसे अयोग्य लोगों के आगे नाम-महिमा का कथन करना अपराध है |
तीसरा और चौथा अपराध है, विष्णु का शिव से भेद व शिव का विष्णु के साथ भेद मानना :
‘मेरा इष्ट बड़ा, तेरा इष्ट छोटा…’ ‘शिव बड़े हैं, विष्णु छोटे हैं…’ अथवा तो ‘विष्णु बड़े हैं, शिव छोटे हैं…’ ऐसा मानना अपराध है |
पाचवाँ, छठा और सातवाँ अपराध है श्रुति, शास्त्र और गुरु के वचन में अश्रद्धा:
नाम का जप तो करना किन्तु श्रुति-पुराण-शास्त्र के विपरीत ‘राम’ शब्द को समझना और गुरु के वाक्य में अश्रद्धा करना अपराध है | रमन्ते योगीनः यस्मिन् स रामः | जिसमें योगी लोग रमण करते हैं वह है राम | श्रुति वे शास्त्र जिस ‘राम’ की महिमा का वर्णन करते-करते नहीं अघाते, उस ‘राम’ को न जानकर अपने मनःकल्पित ख्याल के अनुसार ‘राम-राम’ करना यह एक बड़ा दोष है | ऐसे दोष से ग्रसित व्यक्ति रामनाम का पूरा लाभ नहीं ले पाते |
आठवाँ अपराध है, नाम के विषय में अर्थवाद (महिमा की स्तुति) का भ्रम:
अपने ढ़ंग से भगवान के नाम का अर्थ करना और शब्द को पकड़ रखना भी एक अपराध है |
चार बच्चे आपस में झगड़ रहे थे | इतने में वहाँ से एक सज्जन गुजरे | उन्होंने पूछा: “क्यों लड़ रहे हो ?”
तब एक बालक ने कहा : “हमको एक रुपया मिला है | एक कहता है ‘तरबूज’ खाना है, दूसरा कहता है ‘वाटरमिलन’ खाना है, तीसरा बोलता है ‘कलिंगर’ खाना है तथा चौथा कहता है ‘छाँई’ खाना है |”
यह सुनकर उन सज्जन को हुआ कि है तो एक ही चीज लेकिन अलग-अलग अर्थवाद के कारण चारों आपस में लड़ रहे हैं | अतः उन्होंने एक तरबूज लेकर उसके चार टुकडे किये और चारों के देते हुए कहा:
“यह रहा तुम्हारा तरबूज, वाटरमिलन, कलिंगर व छाँई |”
चारों बालक खुश हो गये |
इसी प्रकार जो लोग केवल शब्द को ही पकड़ रखते हैं, उसके लक्ष्यार्थ को नहीं समझते, वे लोग ‘नाम’ का पूरा फायदा नहीं ले पाते |
नौवाँ अपराध है, ‘अनेक पापों को नष्ट करने वाला नाम मेरे पास है’- ऐसे विश्वास के कारण निषिद्ध कर्मों का आचरण तथा विहित कर्मों का त्याग:
ऐसा करने वालों को भी नाम जप का फल नहीं मिलता है |
दसवाँ अपराध है अन्य धर्मों (अर्थात अन्य नामों) के साथ भगवान के नाम की तुल्यता जानना:
कई लोग अन्य धर्मों के साथ, अन्य नामों के साथ भगवान के नाम की तुल्यता समझते हैं, अन्य गुरु के साथ अपने गुरु की तुल्यता समझते हैं जो उचित नहीं है | यह भी एक अपराध है |
जो लोग इन दस नामापराधों में से किसी भी अपराध से ग्रस्त हैं, वे नामजप का पूरा लाभ नहीं उठा सकते | किन्तु जो इन अपराधों से बचकर श्रद्धा-भक्ति तथा विश्वासपूर्वक नामजप करते हैं, वे अखंड फल के भागीदार होते हैं |
मंत्रजाप विधि
किसी मंत्र अथवा ईश्वर-नाम को बार-बार भाव तथा भक्तिपूर्वक दुहराने को जप कहते हैं | जप चित्त की समस्त बुराईयों का निवारण कर जीव को ईश्वर का साक्षात्कार कराता है |
जपयोग अचेतन मन को जाग्रत करने की वैज्ञानिक रीति है | वैदिक मंत्र मनोबल दृढ़, आस्था को परिपक्व और बुद्धि को निर्मल करने का दिव्य कार्य करते हैं |
श्रीरामकृष्ण परमहंस कहते हैं:
“एकांत में भगवन्नाम जप करना- यह सारे दोषों को निकालने तथा गुणों का आवाहन करने का पवित्र कार्य है |”
स्वामी शिवानंद कहते हैं:
“इस संसारसागर को पार करने के लिए ईश्वर का नाम सुरक्षित नौका के समान है | अहंभाव को नष्ट करने के लिए ईश्वर का नाम अचूक अस्त्र है |”
शास्त्रों में तो यहाँ तक कहा गया है कि जिह्वा सोम है और हृदय रवि है | जैसे चंद्रमा और सूर्य से स्थूल जगत में ऊर्जा उत्पन्न होती है वैसे ही जिह्वा द्वारा भगवन्नाम के उच्चारण और हृदय के भाव के सम्मिलित होने पर सूक्ष्म जगत में भी शक्ति उत्पन्न होती है |
जापक के प्रकार
जापक चार प्रकार के होते हैं
1. कनिष्ठ
2. मध्यम
3. उत्तम
4. सर्वोत्तम
कुछ ऐसे जापक होते हैं जो कुछ पाने के लिए, सकाम भाव से जप करते हैं | वे कनिष्ठ कहलाते हैं |
दूसरे ऐसे जापक होते हैं जो गुरुमंत्र लेकर केवल नियम की पूर्ति के लिए 10 माला करके रख देते हैं | वे मध्यम कहलाते हैं |
तीसरे ऐसे जापक होते हैं जो नियम तो पूरा करते ही हैं, कभी दो-चार माला ज्यादा भी कर लेते हैं, कभी चलते-चलते भी जप कर लेते हैं | ये उत्तम जापक हैं |
कुछ ऐसे जापक होते हैं कि जिनके सान्निध्यमात्र से, दर्शन-मात्र से सामनेवाले का जप शुरु हो जाता है | ऐसे जापक सर्वोत्तम होते हैं |
ऐसे महापुरुष लाखों व्यक्तियों के बीच रहें, फिर लाखों व्यक्ति चाहे कैसे भी हों किन्तु जब वे कीर्तन कराते हैं तथा लोगों पर अपनी कृपादृष्टि डालते हैं तो वे सभी उनकी कृपा से झूम उठते हैं |
जप के प्रकार
वैदिक मंत्र जप करने की चार पद्धतियाँ हैं
1. वैखरी
2. मध्यमा
3. पश्यंती
4. परा
शुरु-शुरु में उच्च स्वर से जो जप किया जाता है, उसे वैखरी मंत्रजप कहते हैं |
दूसरी है मध्यमा | इसमें होंठ भी नहीं हिलते, व दूसरा कोई व्यक्ति मंत्र को सुन भी नहीं सकता |
जिस जप में जिह्वा भी नहीं हिलती, हृदयपूर्वक जप होता है और जप के अर्थ में हमारा चित्त तल्लीन होता जाता है उसे पश्यंती मंत्रजाप कहते हैं |
चौथी है परा | मंत्र के अर्थ में हमारी वृत्ति स्थिर होने की तैयारी हो, मंत्रजप करते-करते आनंद आने लगे तथा बुद्धि परमात्मा में स्थिर होने लगे, उसे परा मंत्रजप कहते हैं |
वैखरी जप है तो अच्छा लेकिन वैखरी से भी दस गुना ज्यादा प्रभाव मध्यमा में होता है | मध्यमा से दस गुना प्रभाव पश्यंती में तथा पश्यंती से भी दस गुना ज्यादा प्रभाव परा में होता है | इस प्रकार परा में स्थित होकर जप करें तो वैखरी का हजार गुना प्रभाव हो जायेगा |
‘याज्ञवल्क्यसंहिता’ में आता है:
उच्चैर्जप उपांशुश्च सहस्रगुण उच्यते |
मानसश्च तथोपांशोः सहस्रगुण उच्यते |
मानसश्च तथा ध्यानं सहस्रगुण उच्यते ||
परा में एक बार जप करें तो वैखरी की दस माला के बराबर हो जायेगा | दस बार जप करने से सौ माला के बराबर हो जायेगा |
जैसे पानी की बूँद को बाष्प बनाने से उसमें 1300 गुनी ताकत आ जाती है वैसे ही मंत्र को जितनी गहराई से जपा जाता है, उसका प्रभाव उतना ही ज्यादा होता है | गहराई से जप करने से मन की चंचलता कम होती है व एकाग्रता बढ़ती है | एकाग्रता सभी सफलताओं की जननी है |
मंत्रजाप निष्काम भाव से प्रीतिपूर्वक किया जाना चाहिए | भगवान के होकर भगवान का जप करो | ऐसा नहीं कि जप तो करें भगवान का और कामना करें संसार की | नहीं … निष्काम भाव से प्रेमपूर्वक विधिसहित जप करने वाला साधक बहुत शीघ्र अच्छा लाभ उठा सकता है |
ईश्वर के नाम का बार-बार जप करो | चित्त को फुरसत के समय में प्रभु का नाम रटने की आदत डालें | चित्त को सदैव कुछ-न-कुछ चाहिए | चित्त खाली रहेगा तो संकल्प-विकल्प करके उपद्रव पैदा करेगा | इसलिए पूरा दिन व रात्रि को बार-बार हरिस्मरण करें | चित्त या तो हरि-स्मरण करेगा या फिर विषयों का चिंतन करेगा | इसलिए जप का ऐसा अभ्यास डाल लें कि मन परवश होकर नींद में या जाग्रत में बेकार पड़े कि तुरंत जप करने लगे | इससे मन का इधर-उधर भागना कम होगा | मन को परमात्मा के सिवाय फिर अन्य विषयों में चैन नहीं मिलेगा |
‘मन बार-बार अवांछनीय विचारों की ओर झुकता है और शुभ विचारों के लिए, शुभ नियम पालने के लिए दंगल करता है |’ साधक को ऐसी अनुभूति क्यों होती है ? इसका कारण है पूर्वजन्म के संस्कार और मन में भरी हुई वासना तथा संसारी लोगों का संग | इन सब दोषों को मिटाने के लिए नाम-जप, ईश-भजन के सिवाय अन्य कोई सरल उपाय नहीं है | जप मन को अनेक विचारों में से एक विचार में लाने की और एक विचार में से फिर निर्विचार में ले जानेवाली सांख्य प्रक्रिया है |
साधक का हृदय जप से ज्यों-ज्यों शुद्ध होता जायेगा, त्यों-त्यों पुस्तक के धर्म से भी अधिक निर्मल धर्म का बोध उसके हृदय में बैठा ईश्वर उससे कहेगा | जप से ही ध्यान में भी स्थिरता आती है |
जप चित्त की स्थिरता का प्रबल साधन है | जब जप में एकाग्रता सिद्ध होति है तो वह बुद्धि को स्थिर करके सन्मार्गगामिनी बनाती है |
भगवत्कृपा व गुरुकृपा का आवाहन करके मंत्र जपना चाहिए, जिससे छोटे-मोटे विघ्न दूर रहें औ श्रद्धा का प्राकट्य हो | कभी-कभी हमारा जप बढ़ता है तो आसुरी शक्तियाँ हमें प्रेरित करके नीच कर्म करवाकर हमारी शक्तियाँ क्षीण करती हैं | कभी कलियुग भी हमें इस मार्ग से श्रेष्ठ पुरुषों से दूर करने के लिए प्रेरित करता है इसीलिए कबीरजी कहत हैं:
“संत के दर्शन दिन में कई बार करो | कई बर नहीं तो दो बार, दो बार नहीं तो सप्ताह में एक बार, सप्ताह में भी नहीं तो पाख-पाख में (15-15 दिन में) और पाख-पाख में भी न कर सको तो मास-मास में तो जरूर करो |”
भगवद्दर्शन, संत-दर्शन विघ्नों को हटाने में मदद करता है |
साधक को मन, वचन और कर्म से निन्दनीय आचरण से बचने का सदैव प्रयत्न करना चाहिए |
चाहे कितनी भी विपरीत परिस्थितियाँ क्यों न आ जायें, लेकिन आप अपने मन को उद्विग्न न होने दें | समय बीत जायेगा, परिस्थितियाँ बदल जायेंगी, सुधर जायेंगी … तब जप-ध्यान करूँगा यह सोचकर अपना साधन-भजन न छोड़ें | विपरीत परिस्थिति आने पर यदि साधन-भजन में ढ़ील दी तो परिस्थितियाँ आप पर हावी हो जायेंगी | लेकिन यदि आप मजबूत रहे, साधन-भजन पर अटल रहे तो परिस्थितियों के सिर पर पैर रखकर आगे बढ़ने का सामर्थ्य आ जायेगा |
संसार स्वप्न है या ईश्वर की लीलामात्र है, यह विचार करते रहना चाहिए | ऐसे विचार से भी परिस्थितियों का प्रभाव कम हो जाता है |
साधक को अपने गुरु से कभी-भी, कुछ भी छिपाना नहीं चाहिए | चाहे कितना बड़ा पाप या अपराध क्यों न हो गया हो किन्तु गुरु पूछें, उसके पहले ही बता देना चाहिए | इससे हृदय शुद्ध होगा व साधना में सहायता मिलेगी |
साधक को गुरु की आज्ञा में अपना परम कल्याण मानना चाहिए |
शिष्य चार प्रकार के होते हैं: एक वे होते हैं जो गुरु के भावों को समझकर उसी प्रकार से सेवा, कार्य और चिंतन करने लगते हैं | दूसरे वे होते हैं जो गुरु के संकेत के अनुसार कार्य करते हैं | तीसरे वे होते हैं जो आज्ञा मिलने पर काम करते हैं और चौथे वे होते हैं जिनको गुरु कुछ कार्य बताते हैं तो ‘हाँ जी… हाँ जी…’ करते रहते हैं किन्तु काम कुछ नहीं करते | सेवा का दिखावामात्र ही करते हैं |
गुरू की सेवा साधु जाने, गुरुसेवा का मुढ पिछानै |
पहले हैं उत्तम, दूसरे हैं मध्यम, तीसरे हैं कनिष्ठ और चौथे हैं कनिष्ठतर | साधक को सदैव उत्तम सेवक बनने के लिए प्रयत्नशील रहना चाहिए | अन्यथा बुद्धिमान और श्रद्धालु होने पर भी साधक धोखा खा जाते हैं | उनकी जितनी यात्रा होनी चाहिए, उतनी नहीं हो पाती |
साधक को चाहिए कि एक बार सदगुरु चुन लेने के बाद उनका त्याग न करे | गुरु बनाने से पूर्व भले दस बार विचार कर ले, किसी टोने-टोटकेवाले गुरु के चक्कर में न फँसे, बल्कि ‘श्रीगुरुगीता’ में बताये गये लक्षणों के अनुसार सदगुरु को खोज ले | किन्तु एक बार सदगुरु से दीक्षा ले ली तो फिर इधर-उधर न भटके | जैसे पतिव्रता स्त्री यदि अपने पति को छोड़कर दूसरे पति की खोज करे तो वह पतिव्रता नहीं, व्यभिचारिणी है | उसी प्रकार वह शिष्य शिष्य नहीं, जो एक बार सदगुरु बन लेने के बाद उनका त्याग कर दे | सदगुरु न बनाकर भवाटवी में भटकना अच्छा है किन्तु सदगुरु बनाकर उनका त्याग कदापि न करें |
सदगुरु से मंत्रदीक्षा प्राप्त करके साधक क प्रतिदिन कम-से-कम 10 माला जपने का नियम रखना चाहिए | इससे उसका आध्यात्मिक पतन नहीं होगा |
जिसकी गति बिना माला के भी 24-50 माला करने की है, उसके लिए मेरा कोई आग्रह नहीं है कि माला लेकर जप करे, लेकिन नये साधक को माला लेकर आसन बैठकर 10 माला करनी चाहिए | फिर चलते-फिरते जितना भी जप हो जाय, वह अच्छा है |
कई लोग क्या करते हैं ? कभी उनके घर में यदि शादी-विवाह या अन्य कोई बड़ा कार्य होता है तो वे अपने नियम में कटौति करते हैं | फिर 10 मालाएँ या तो जल्दी-जल्दी करते हैं या कुछ माला छोड़ देते हैं | कोई भी दूसरा कार्य आ जाने पर नियम को ही निशाना बनाते हैं | नहीं, पहले अपना नियम करें, फिर उसके बाद ही दूसरे कार्य करें |
कोई कहता है: ‘भाई ! क्या करें ? समय ही नहीं मिलता …’ अरे भैया ! समय नहीं मिलता फिर भी भोजन तो कर लेते हो, समय नहीं मिलता फिर भी पानी तो पी लेते हो | ऐसे ही समय न मिले फिर भी नियम कर लो, तो बहुत अच्छा है |
यदि कभी ऐसा दुर्भाग्य हो कि एक साथ बैठकर 10 मालाएँ पूरी न हो सकती हों तो एक-दो मालाएँ कर लें और बाकी की मालाएँ दोपहर की संधि में अथवा उसमें भी न कर सकें तो फिर रात्रि को सोने से पूर्व तो अवश्य ही कर लेनी चाहिए | किन्तु इतनी छूट मनमुखता के लिए नहीं, अपितु केवल आपदकाल के लिए ही है |
वैसे तो स्नान करके जप-ध्यान करना चाहिए लेकिन यदि बुखार है, स्नान करने से स्वास्थ्य ज्यादा बिगड़ जायेगा और स्नान नहीं करेंगे तो नियम कैसे करें ? वहाँ आपदधर्म की शरण लेकर नियम कर लेना चाहिए | हाथ-पैर धोकर, कपड़े बदलकर निम्नांकित मंत्र पढ़कर अपने ऊपर जल छिड़क लें | फिर जप करें |
ॐ अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोऽपि वा |
यः स्मरेत् पुण्डरीकाक्षं स बाह्यभ्यन्तरः शुचिः ||
‘पवित्र हो या अपवित्र, किसी भी अवस्था में गया हुआ हो किन्तु पुण्डरीकाक्ष भगवान विष्णु का स्मरण करते ही आन्तर-बाह्य शुद्धि हो जाती है |’
ऐसा करके नियम कर लेना चाहिए |
‘राम-राम… हरि ॐ … ॐ नमः शिवाय …’ आदि मंत्र हमने कई बार सुने हैं किन्तु वही मंत्र गुरुदीक्षा के दिन जब सदगुरु द्वारा मिलता है तो प्रभाव कुछ निराला ही हो जाता है | अतः अपने गुरुमंत्र को सदैव गुप्त रखना चाहिए |
आपक गुरुमंत्र आपकी पत्नी या पति, पुत्र-पुत्री तक को पता नहीं चलना चाहिए | यदि पति-पत्नी दोनों साथ में गुरुमंत्र लेते हों तो अलग बात है, वरना अपना गुरुमंत्र गुप्त रखें | गुरुमंत्र जितना गुप्त होता है उतना ही उसका प्रभाव होता है | जिसके मनन से मन तर जाये, उसे मंत्र कहते हैं |
साधक को चाहिए कि वह जप-ध्यान आदि दिखावे के लिए न करे अर्थात ‘मैं नाम जपता हूँ तो लोग मेरे को भक्त मानें… अच्छा मानें… मुझे देखें…’ यह भाव बिल्कुल नहीं होना चाहिए | यदि यह भाव रहा तो जप का पूरा लाभ नहीं मिल पायेगा |
यदि कभी अचानक जप करने की इच्छा हो तो समझ लेना कि भगवान ने, सदगुरु ने जप करने की प्रेरणा दी है | अतः अहोभाव से भरकर जप करें |
सूर्यग्रहण, चंद्रग्रहण तथा त्यौहारों पर जप करने से कई गुना लाभ होता है | अतः उन दोनों में अधिक जप करना चाहिए |
साधक को चाहिए कि वह जप का फल तुच्छ संसारी चीजों में नष्ट न करे… हीरे-मोती बेचकर कंकर-पत्थर न खरीदे | संसारी चीजें तो प्रारब्ध से, पुरुषार्थ से भी मिल जायेंगी क्योंकि जापक थोड़ा विशेष जप करता है तो उसके कार्य स्वाभाविक होने लगते हैं | ‘जो लोग पहले घृणा करते थे, अब वे ही प्रेम करने लागते हैं… जो बॉस (सेठ या साहब) पहले डाँटता रहता था, वही अब सलाह लेने लगता है…’ ऐसा सब होने लगे फिर भी साधक स्वंय ऐसा न चाहे | कभी विघ्न-बाधाएँ आयें, तब भी जप द्वारा उन्हें हटाने की चेष्टा न करे बल्कि जप के अर्थ में तल्लीन होता जाये |
जप करते समय मन इधर-उधर जाने लगे तब हाथ-मुँह धोकर, दो-तीन आचमन लेकर तथा प्राणायाम करके मन को पुनः एकाग्र किया जा सकता है | फिर भी मन भागने लगे तो माला को रखकर खड़े हो जाओ, नाचो, कूदो, गाओ, कीर्तन करो | इससे मन वश में होने लगेगा |
जप चाहे जो करो, जप-त-जप ही है, किन्तु जप करने में इतनी शर्त जरुरी है कि जप करते-करते खो जाओ | वहाँ आप न रहना | ‘मैं पुण्यात्मा हूँ… मैंने इतना जप किया…’ ऐसी परिच्छिन्नता नहीं अपितु ‘मैं हूँ ही नहीं…जो कुछ भी है वह परमात्मा ही है…’ इस प्रकार भावना करते-करते परमात्मा में विलीन होते जाओ |
मेरा मुझमें कुछ नहीं, जो कुछ है सो तोर |
तेरा तुझको सौंपते क्या लागत है मोर ||
शरीर परमात्मा का, मन परमात्मा का, अंतःकरण भी परमात्मा, तो फिर समय किसका ? समय भी तो उसीका है | ‘उसीका समय उसे दे रहे हैं…’ ऐसा सोचकर जप करना चाहिए |
जब तक सदगुरु नहीं मिले, तब तक अपने इष्टदेव को ही गुरु मानकर उनके नाम का जप आरंभ कर दो … शुभस्य शीघ्रम् |
जप के लिए आवश्यक विधान
उपरोक्त बातों को ध्यान में रखने के अतिरिक्त प्रतिदिन की साधना के लिए कुछ बातें नीचे दी जा रही हैं :
1. समय
2. स्थान
3. दिशा
4. आसन
5. माला
6. नामोच्चारण
7. प्राणायाम
8. जप
9. ध्यान
1. समय:
सबसे उत्तम समय प्रातः काल ब्रह्ममुहूर्त और तीनों समय (सुबह सूर्योदय के समय, दोपहर 12 बजे के आसपास व सांय सूर्यास्त के समय) का संध्याकाल है | प्रतिदिन निश्चित समय पर जप करने से बहुत लाभ होता है |
2. स्थान:
प्रतिदिन एक ही स्थान पर बैठना बहुत लाभदायक है | अतः अपना साधना-कक्ष अलग रखो | यदि स्थानाभाव के कारण अलग कक्ष न रख सकें तो घर का एक कोना ही साधना के लिए रखना चाहिए | उस स्थान पर संसार का कोई भी कार्य या वार्तालाप न करो | उस कक्ष या कोने को धूप-अगरबत्ती से सुगंधित रखो | इष्ट अथवा गुरुदेव की छवि पर सुगंधित पुष्प चढ़ाओ और दीपक करो | एक ही छवि पर ध्यान केन्द्रित करो | जब आप ऐसे करोगे तो उससे जो शक्तिशाली स्पन्दन उठेंगे, वे उस वातावरण में ओतप्रोत हो जायेंगे |
3. दिशा
जप पर दिशा का भी प्रभाव पड़ता है | जप करते समय आपक मुख उत्तर अथवा पूर्व की ओर हो तो इससे जपयोग में आशातीत सहायता मिलती है |
4. आसन
आसन के लिए मृगचर्म, कुशासन अथवा कम्बल के आसन का प्रयोग करना चाहिए | इससे शरीर की विद्युत-शक्ति सुरक्षित रहती है |
साधक स्वयं पद्मासन, सुखासन अथवा स्वस्तिकासन पर बैठकर जप करे | वही आसन अपने लिए चुनो जिसमें काफी देर तक कष्टरहित होकर बैठ सको | स्थिरं सुखासनम् | शरीर को किसी भी सरल अवस्था में सुखपूर्वक स्थिर रखने को आसन कहते हैं |
एक ही आसन में स्थिर बैठे रहने की समयाविधि को अभ्यासपूर्वक बढ़ाते जाओ | इस बात का ध्यान रखो कि आपका सिर, ग्रीवा तथा कमर एक सीध में रहें | झुककर नहीं बैठो | एक ही आसन में देर तक स्थिर होकर बैठने से बहुत लाभ होता है |
5. माला
मंत्रजाप में माला अत्यंत महत्वपूर्ण है | इसलिए समझदार साधक माला को प्राण जैसी प्रिय समझते हैं और गुप्त धन की भाँति उसकी सुरक्षा करते हैं |
माला को केवल गिनने की एक तरकीब समझकर अशुद्ध अवस्था में भी अपने पास रखना, बायें हाथ से माला घुमाना, लोगों को दिखाते फिरना, पैर तक लटकाये रखना, जहाँ-तहाँ रख देना, जिस किसी चीज से बना लेना तथा जिस प्राकार से गूँथ लेना सर्वथा वर्जित है |
जपमाला प्रायः तीन प्रकार की होती हैं: करमाला, वर्णमाला और मणिमाला |
a. करमाला
अँगुलियों पर गिनकर जो जप किया जाता है, वह करमाला जाप है | यह दो प्रकार से होता है: एक तो अँगुलियों से ही गिनना और दूसरा अँगुलियों के पर्वों पर गिनना | शास्त्रतः दूसरा प्रकार ही स्वीकृत है |
इसका नियम यह है कि चित्र में दर्शाये गये क्रमानुसार अनामिका के मध्य भाग से नीचे की ओर चलो | फिर कनिष्ठिका के मूल से अग्रभाग तक और फिर अनामिका और मध्यमा के अग्रभाग पर होकर तर्जनी के मूल तक जायें | इस क्रम से अनामिका के दो, कनिष्ठिका के तीन, पुनः अनामिका का एक, मध्यमा का एक और तर्जनी के तीन पर्व… कुल दस संख्या होती है | मध्यमा के दो पर्व सुमेरु के रूप में छूट जाते हैं |
साधारणतः करमाला का यही क्रम है, परन्तु अनुष्ठानभेद से इसमें अन्तर भी पड़ता है | जैसे शक्ति के अनुष्ठान में अनामिका के दो पर्व, कनिष्ठिका के तीन, पुनः अनामिका का एक, मध्यमा के तीन पर्व और तर्जनी का एक मूल पर्व- इस प्रकार दस संख्या पूरी होती है |
श्रीविद्या में इससे भिन्न नियम है | मध्यमा का मूल एक, अनामिका का मूल एक, कनिष्ठिका के तीन, अनामिका और मध्यमा के अग्रभाग एक-एक और तर्जनी के तीन - इस प्रकार दस संख्या पूरी होती है |
करमाला से जप करते समय अँगुलियाँ अलग-अलग नहीं होनी चाहिए | थोड़ी-सी हथेली मुड़ी रहनी चाहिए | सुमेरु का उल्लंघन और पर्वों की सन्धि (गाँठ) का स्पर्श निषिद्ध है | यह निश्चित है कि जो इतनी सावधानी रखकर जप रखकर जप करेगा, उसका मन अधिकांशतः अन्यत्र नहीं जायेगा |
हाथ को हृदय के सामने लाकर, अँगुलियों को कुछ टेढ़ी करके वस्त्र से उसे ढककर दाहिने हाथ से ही जप करना चाहिए |
जप अधिक संख्या में करना हो तो इन दशकों को स्मरण नहीं रखा जा सकता | इसलिए उनको स्मरण करके के लिए एक प्रकार की गोली बनानी चाहिए | लाक्षा, रक्तचन्दन, सिन्दूर और गौ के सूखे कंडे को चूर्ण करके सबके मिश्रण से गोली तैयार करनी चाहिए | अक्षत, अँगुली, अन्न, पुष्प, चन्दन अथवा मिट्टी से उन दशकों का स्मरण रखना निषिद्ध है | माला की गिनती भी इनके द्वारा नहीं करनी चाहिए |
a. वर्णमाला
वर्णमाला का अर्थ है अक्षरों के द्वारा जप की संख्या गिनना | यह प्रायः अन्तर्जप में काम आती है, परन्तु बहिर्जप में भी इसका निषेध नहीं है |
वर्णमाला के द्वारा जप करने का विधान यह है कि पहले वर्णमाला का एक अक्षर बिन्दु लगाकर उच्चारण करो और फिर मंत्र का- अवर्ग के सोलह, कवर्ग से पवर्ग तक पच्चीस और यवर्ग से हकार तक आठ और पुनः एक लकार- इस क्रम से पचास तक की गिनती करते जाओ | फिर लकार से लौटकर अकार तक आ जाओ, सौ की संख्या पूरी हो जायेगी | ‘क्ष’ को सुमेरू मानते हैं | उसका उल्लंघन नहीं होना चाहिए |
संस्कृत में ‘त्र’ और ‘ज्ञ’ स्वतंत्र अक्षर नहीं, संयुक्ताक्षर माने जाते हैं | इसलिए उनकी गणना नही होती | वर्ग भी सात नहीं, आठ माने जाते हैं | आठवाँ सकार से प्रारम्भ होता है | इनके द्वारा ‘अं’, कं, चं, टं, तं, पं, यं, शं’ यह गणना करके आठ बार और जपना चाहिए- ऐसा करने से जप की संखया 108 हो जाती है |
ये अक्षर तो माला के मणि हैं | इनका सूत्र है कुण्डलिनी शक्ति | वह मूलाधार से आज्ञाचक्रपर्यन्त सूत्ररूप से विद्यमान है | उसीमें ये सब स्वर-वर्ण मणिरूप से गुँथे हुए हैं | इन्हींके द्वारा आरोह और अवरोह क्रम से अर्थात नीचे से ऊपर और ऊपर से नीचे जप करना चाहिए | इस प्रकार जो जप होता है, वह सद्यः सिद्धप्रद होता है |
b. मणिमाला
मणिमाला अर्थात मनके पिरोकर बनायी गयी माला द्वारा जप करना मणिमाला जाप कहा जाता है |
जिन्हें अधिक संख्या में जप करना हो, उन्हें तो मणिमामा रखना अनिवार्य है | यह माला अनेक वस्तुओं की होती है जैसे कि रुद्राक्ष, तुलसी, शंख, पद्मबीज, मोती, स्फटिक, मणि, रत्न, सुवर्ण, चाँदी, चन्दन, कुशमूल आदि | इनमें वैष्णवों के लिए तुलसि और स्मार्त, शाक्त, शैव आदि के लिए रुद्राक्ष सर्वोत्तम माना गया है | ब्राह्मण कन्याओं के द्वारा निर्मित सूत से बनायी गयी माला अति उत्तम मानी जाती है |
माला बनाने में इतना ध्यान अवश्य रखना चाहिए कि एक चीज की बनायी हुई माला में दूसरी चीज न आये | माला के दाने छोटे-बड़े व खंडित न हों |
सब प्रकार के जप में 108 दानों की माला काम आती है | शान्तिकर्म में श्वेत, वशीकरण में रक्त, अभिचार प्रयोग में काली और मोक्ष तथा ऐश्वर्य के लिए रेशमी सूत की माला विशेष उपयुक्त है |
माला घुमाते वक्त तर्जनी (अंगूठे के पासवाली ऊँगली) से माला के मनकों को कभी स्पर्श नहीं करना चाहिए | माला द्वारा जप करते समय अंगूठे तथा मध्यमा ऊँगली द्वारा माला के मनकों को घुमाना चाहिए | माला घुमाते समय सुमेरु का उल्लंघन नहीं करना चाहिए | माला घुमाते-घुमाते जब सुमेरु आये तब माला को उलटकर दूसरी ओर घुमाना प्रारंभ करना चाहिए |
यदि प्रमादवश माला हाथ गिर जाये तो मंत्र को दो सौ बार जपना चाहिए, ऐसा अग्निपुराण में आता है:
प्रामादात्पतिते सूत्रे जप्तव्यं तु शतद्वयम् |
अग्निपुराण: ३.२८.५
यदि माला टूट जाय तो पुनः गूँथकर उसी माला से जप करो | यदि दाना टूट जाय या खो जाय तो दूसरी ऐसी ही माला का दाना निकाल कर अपनी माला में डाल लो | किन्तु जप सदैव करो अपनी ही माला से क्योंकि हम जिस माला पर जप करते हैं वह माला अत्यंत प्रभावशाली होती है |
माला को सदैव स्वच्छ कपड़े से ढ़ाँककर घुमाना चाहिए | गौमुखी में माला रखकर घुमाना सर्वोत्तम व सुविधाजनक है |
ध्यान रहे कि माला शरीर के अशुद्ध माने जाने अंगों का स्पर्श न करे | नाभि के नीचे का पूरा शरीर अशुद्ध माना जाता है | अतः माला घुमाते वक्त माला नाभि से नीचे नहीं लटकनी चहिए तथा उसे भूमि का स्पर्श भी नहीं होना चहिए |
गुरुमंत्र मिलने के बाद एक बार माला का पूजन अवशय करो | कभी गलती से अशुद्धावस्था में या स्त्रियों द्वारा अनजाने में रजस्वलावस्था में माला का स्पर्श हो गया हो तब भी माला का फिर से पूजन कर लो |
माला पूजन की विधि: पीपल के नौ पत्ते लाकर एक को बीच में और आठ को अगल-बगल में इस ढ़ंग से रखो कि वह अष्टदल कमल सा मालूम हो | बीचवाले पत्र पर माला रखो और जल से उसे धो डालो | फिर पंचगव्य ( दूध, दही, घी, गोबर व गोमूत्र) से स्नान कराके पुनः शुद्ध जा से माला को धो लो | फिर चंदन पुष्प आदि से माला का पूजन करो | तदनंतर उसमें अपने इष्टदेवता की प्राण-प्रतिष्ठा करो और माला से प्रार्थना करो कि :
माले माले महामाले सर्वतत्त्वस्वरुपिणी |
चतुर्वर्गस्त्वयि न्यस्तस्तस्मान्मे सिद्धिदा भव ||
ॐ त्वं माले सर्वदेवानां सर्वसिद्धिप्रदा मता |
तेन सत्येन मे सिद्धिं देहि मातर्नमोऽस्तु ते |
त्वं मले सर्वदेवानां प्रीतिदा शुभदा भव |
शिवं कुरुष्व मे भद्रे यशो वीर्यं च सर्वदा ||
इस प्रकारा माला का पूजन करने से उसमें परमात्म-चेतना का अभिर्भाव हो जाता है | फिर माला गौमुखी में रखकर जप कर सकते हैं |
1. नामोच्चारण: जप-साधना के बैठने से पूर्व थोड़ी देर तक ॐ (प्रणव) का उच्चारण करने से एकाग्रता में मदद मिलती है | हरिनाम का उच्चारण तीन प्रकार से किया जा सकता है :
क. ह्रस्व: 'हरि ॐ ... हरि ॐ ... हरि ॐ ...' इस प्रकार का ह्रस्व उच्चारण पापों का नाश करता है |
ख. दीर्घ: 'हरि ओऽऽऽऽम् ...' इस प्रकार थोड़ी ज्यादा देर तक दीर्घ उच्चारण से ऐश्वर्य की प्राप्ति में सफलता मिलती है |
ग. प्लुत : ‘हरि हरि ओऽऽऽम् ...' इस प्रकार ज्यादा लंबे समय के प्लुत उच्चारण से परमात्मा में विश्रांति पायी जा सकती है |
यदि साधक थोड़ी देर तक यह प्रयोग करे तो मन शांत होने में बड़ी मदद मिलेगी | फिर जप में भी उसका मन सहजता से लगने लगेगा |
2. प्राणायाम : जप करने से पूर्व साधक यदि प्राणायाम करे तो एकाग्रता में वृद्धि होती है किंतु प्राणायाम करने में सावधानी रखनी चाहिए |
कई साधक प्रारंभ में उत्साह-उत्साह में ढ़ेर सारे प्राणायाम करने लगते हैं | फलस्वरूप उन्हें गर्मी का एहसास होने लगता है | कई बार दुर्बल शरीरवालों को ज्यादा प्राणायाम करने खुश्की भी चढ़ जाती है | अतः अपने सामर्थ्य के अनुसार ही प्राणायाम करो |
प्राणायाम का समय 3 मिनट तक बढ़ाया जा सकता है | किन्तु बिना अभ्यास के यदि कोई प्रारंभ में ही तीन मिनट की कोशिश करे तो अर्थ का अनर्थ भी हो सकता है | अतः प्रारंभ में कम समय और कम संखया में ही प्रणायम करो |
यदि त्रिबंधयुक्त प्राणायाम करने के पश्चात् जप करें तो लाभ ज्यादा होता है | त्रिबंधयुक्त प्राणायाम की विधि 'योगासन' पुस्तक में बतायी गयी है |
3. जप: जप करते समय मंत्र का उच्चारण स्पष्ट तथा शुद्ध होना चाहिए |
गौमुखी में माला रखकर ही जप करो |
जप इस प्रकार करो कि पास बैठने वाले की बात तो दूर अपने कान को भी मंत्र के शब्द सुनायी न दें | बेशक, यज्ञ में आहुति देते समय मंत्रोच्चार व्यक्त रूप से किया जाता है, वह अलग बात है | किन्तु इसके अलावा इस प्रकार जोर-जोर से मंत्रोच्चार करने से मन की एकाग्रता और बुद्धि की स्थिरता सिद्ध नहीं हो पाती | इसलिए मौन होकर ही जप करना चहिए |
जब तुम देखो कि तुम्हारा मन चंचल हो रहा है तो थोड़ी देर के लिए खूब जल्दी-जल्दी जप करो | साधारणतयः सबसे अच्छा तरीका यह है कि न तो बहुत जल्दी और न बहुत धीरे ही जप करना चाहिए |
जप करते-करते जप के अर्थ में तल्लीन होते जाना चाहिए | अपनी निर्धारित संख्या में जप पूरा करके ही उठो | चाहे कितना ही जरूरी काम क्यों न हो, किन्तु नियम अवशय पूरा करो |
जप करते-करते सतर्क रहो | यह अत्यंत आवश्यक गुण है | जब आप जप आरंभ करते हो तब आप एकदम ताजे और सावधान रहते हो, पर कुछ समय पश्चात आपका चित्त चंचल होकर इधर-उधर भागने लगता है | निद्रा आपको धर दबोचने लगती है | अतः जप करते समय इस बात से सतर्क रहो |
जप करते समय तो आप जप करो ही किन्तु जब कार्य करो तब भी हाथों को कार्य में लगाओ तथा मन को जप में अर्थात मानसिक जप करते रहो |
जहाँ कहीं भी जाओ, जप करते रहो लेकिन वह जप निष्काम भाव से ही होना चाहिए |
महिला साधिकाओं के लिए सूचना: महिलाएँ मासिक धर्म के समय केवल मानसिक जप कर सकती हैं | इन दिनों में उन्हें ॐ (प्रणव) के बिना ही मंत्र जप करना चाहिए |
किसीका मंत्र 'ॐ राम' है तो मासिक धर्म के पांच दिनों तक या पूर्ण शुद्ध न होने तक केवल 'राम-राम' जप सकती है | स्त्रियों का मासिक धर्म जब तक जारी हो, तब तक वे दीक्षा भी नहीं ले सकती | अगर अज्ञानवश पांचवें-छठवें दिन भी मासिक धर्म जारी रहने पर दीक्षा ले ली गयी है या इसी प्रकार अनजाने में संतदर्शन या मंदिर में भगवद्दर्शन हो गया हो तो उसके प्रायश्चित के लिए 'ऋषि पंचमी' (गुरुपंचमी) का व्रत कर लेना चाहिए |
यदि किसीके घर में सूतक लगा हुआ हो तब जननाशौच (संतान-जन्म के समय लगनेवाला अशौच-सूतक) के समय प्रसूतिका स्त्री (माता) 40 दिन तक व पिता 10 दिन तक माला लेकर जप नहीं कर सकता |
इसी प्रकार मरणाशौच (मृत्यु के समय पर लगनेवाल अशौच सूतक) में 13 दिन तक माला लेकर जप नहीं किया जा सकता किन्तु मानसिक जप तो प्रत्येक अवस्था में किया जा सकता है |
जप की नियत संख्या पूरी होने के बाद अधिक जप होता है तो बहुत अच्छी बात है | जितना अधिक जप उतना अधिक फल | अधिकस्य अधिकं फलम् | यह सदैव याद रखो |
नीरसता, थकावट आदि दूर करने के लिए, जप में एकाग्रता लाने के लिए जप-विधि में थोड़ा परिवर्तन कर लिया जाय तो कोई हानि नहीं | कभी ऊँचे स्वर में, कभी मंद स्वर में और कभी मानसिक जप भी हो सकता है |
जप की समाप्ति पर तुरंत आसन न छोड़ो, न ही लोगों से मिलो-जुलो अथवा न ही बातचीत करो | किसी सांसारिक क्रिया-कलाप में व्यस्त नहीं होना है, बल्कि कम-से-कम दस मिनट तक उसी आसन पर शांतिपूर्वक बैठे रहो | प्रभि का चिंतन करो | प्रभु के प्रेमपयोधि में डुबकी लगाओ | तत्पश्चात सादर प्रणाम करने के बाद ही आसन त्याग करो |
प्रभुनाम का स्मरण तो श्वास-प्रतिश्वास के साथ चलना चाहिए | नाम-जप का दृढ़ अभ्यास करो |
4. ध्यान: प्रतिदिन साधक को जप के पश्चात या जप के साथ ध्यान अवश्य करना चाहिए | जप करते-करते जप के अर्थ में मन को लीन करते जाओ अथवा मंत्र के देवता या गुरुदेव का ध्यान करो | इस अभ्यास से आपकी साधना सुदृढ़ बनेगी और आप शीघ्र ही परमेश्वर का साक्षात्कार कर सकोगे |
यदि जप करते-करते ध्यान लगने लगे तो फिर जप की चिंता न करो क्योंकि जप का फल ही है ध्यान और मन की शांति | अगर मन शांत होता जाता है तो फिर उसी शांति डूबते जाओ | जब मन पुनः बहिर्मुख होने लगे, तो जप शुरु कर दो |
जो भी जापक-साधक सदगुरु से प्रदत्त मंत्र का नियत समय, स्थान, आसन व संख्या में एकाग्रता तथा प्रीतिपूर्वक उपरोक्त बातों को ध्यान में रखकर जप करता है, तो उसका जप उसे आध्यात्मिकता के शिखर की सैर करवा देता | उसकी आध्यात्मिक प्रगति में फिर कोई संदेह नहीं रहता |
मंत्रानुष्ठान
‘श्रीरामचरितमानस’ में आता है कि मंत्रजप भक्ति का पाँचवाँ सोपान है |
मंत्रजाप मम दृढ़ विश्वासा |
पंचम भक्ति यह बेद प्राकासा ||
मंत्र एक ऐसा साधन है जो मानव की सोयी हुई चेतना को, सुषुप्त शक्तियों को जगाकर उसे महान बना देता है |
जिस प्रकार टेलीफोन के डायल में 10 नम्बर होते हैं | यदि हमारे पास कोड व फोन नंबर सही हों तो डायल के इन्हीं 10 नम्बरों को ठीक से घुमाकर हम दुनिया के किसी कोने में स्थित इच्छित व्यक्ति से तुरंत बात कर सकते हैं | वैसे ही गुरु-प्रदत्त मंत्र को गुरु के निर्देशानुसार जप करके, अनुष्ठान करके हम विश्वेशवर से भी बात कर सकते हैं |
मंत्र जपने की विधि, मंत्र के अक्षर, मंत्र का अर्थ, मंत्र-अनुष्ठान की विधि जानकर तदनुसार जप करने से साधक की योग्यताएँ विकसित होती हैं | वह महेश्वर से मुलाकात करने की योग्यता भी विकसित कर लेता है | किन्तु यदि वह मंत्र का अर्थ नहीं जानता या अनुष्ठान की विधि नहीं जानता या फिर लापरवाही करता है, मंत्र के गुंथन का उसे पता नहीं है तो फिर ‘राँग नंबर’ की तरह उसके जप के प्रभाव से उत्पन्न आध्यात्मिक शक्तियाँ बिखर जायेंगी तथा स्वयं उसको ही हानि पहुंचा सकती हैं | जैसे प्राचीन काल में ‘इन्द्र को मारनेवाला पुत्र पैदा हो’ इस संकल्प की सिद्धि के लिए दैत्यों द्वारा यज्ञ किया गया | लेकिन मंत्रोच्चारण करते समय संस्कृत में हृस्व और दीर्घ की गलती से ‘इन्द्र से मारनेवाला पुत्र पैदा हो’ - ऐसा बोल दिया गया तो वृत्रासुर पैदा हुआ, जो इन्द्र को नहीं मार पाया वरन् इन्द्र के हाथों मारा गया | अतः मंत्र और अनुष्ठान की विधि जानना आवश्यक है |
1. अनुष्ठान कौन करे ?: गुरुप्रदत्त मंत्र का अनुष्ठान स्वयं करना सर्वोत्तम है | कहीं-कहीं अपनी धर्मपत्नी से भी अनुष्ठान कराने की आज्ञा है, किन्तु ऐसे प्रसंग में पत्नी पुत्रवती होनी चाहिए |
स्त्रियों को अनुष्ठान के उतने ही दिन आयोजित करने चाहिए जितने दिन उनके हाथ स्वच्छ हों | मासिक धर्म के समय में अनुष्ठान खण्डित हो जाता है |
2. स्थान: जहाँ बैठकर जप करने से चित्त की ग्लानि मिटे और प्रसन्नता बढ़े अथवा जप में मन लग सके, ऐसे पवित्र तथा भयरहित स्थान में बैठकर ही अनुष्ठान करना चाहिए |
3. दिशा: सामान्यतया पूर्व या उत्तर दिशा की ओर मुख करके जप करना चाहिए | फिर भी अलग-अलग हेतुओं के लिए अलग-अलग दिशाओं की ओर मुख करके जप करने का विधान है |
‘श्रीगुरुगीता’ में आता है:
“उत्तर दिशा की ओर मुख करके जप करने से शांति, पूर्व दिशा की ओर वशीकरण, दक्षिण दिशा की ओर मारण सिद्ध होता है तथा पश्चिम दिशा की ओर मुख करके जप करने से धन की प्राप्ति होती है | अग्नि कोण की तरफ मुख करके जप करने से आकर्षण, वायव्य कोण की तरफ शत्रु नाश, नैॠत्य कोण की तरफ दर्शन और ईशान कोण की तरफ मुख करके जप करने से ज्ञान की प्राप्ति होती है | आसन बिना या दूसरे के आसन पर बैठकर किया गया जप फलता नहीं है | सिर पर कपड़ा रख कर भी जप नहीं करना चाहिए |
साधना-स्थान में दिशा का निर्णय: जिस दिशा में सूर्योदय होता है वह है पूर्व दिशा | पूर्व के सामने वाली दिशा पश्चिम दिशा है | पूर्वाभिमुख खड़े होने पर बायें हाथ पर उत्तर दिशा और दाहिने हाथ पर दक्षिण दिशा पड़ती है | पूर्व और दक्षिण दिशा के बीच अग्निकोण, दक्षिण और पश्चिम दिशा के बीच नैॠत्य कोण, पश्चिम और उत्तर दिशा के बीच वायव्य कोण तथा पूर्व और उत्तर दिशा के बीच ईशान कोण होता है |
4. आसन: विद्युत के कुचालक (आवाहक) आसन पर व जिस योगासन पर सुखपूर्वक काफी देर तक स्थिर बैठा जा सके, ऐसे सुखासन, सिद्धासन या पद्मासन पर बैठकर जप करो | दीवार पर टेक लेकर जप न करो |
5. माला: माला के विषय में ‘मंत्रजाप विधि’ नामक अध्याय में विस्तार से बताया जा चुका हि | अनुष्ठान हेतु मणिमाला ही सर्वश्रेष्ठ मानी जाती है |
6. जप की संख्या : अपने इष्टमंत्र या गुरुमंत्र में जितने अक्षर हों उतने लाख मंत्रजप करने से उस मंत्र का अनुष्ठान पूरा होता है | मंत्रजप हो जाने के बाद उसका दशांश संख्या में हवन, हवन का दशांश तर्पण, तर्पण का दशांश मार्जन और मार्जन का दशांश ब्रह्मभोज कराना होता है | यदि हवन, तर्पणादि करने का सामर्थ्य या अनुकूलता न हो तो हवन, तर्पणादि के बदले उतनी संख्या में अधिक जप करने से भी काम चलता है | उदाहणार्थ: यदि एक अक्षर का मंत्र हो तो 100000 + 10000 + 1000 + 100 + 10 = 1,11,110 मंत्रजप करने सेसब विधियाँ पूरी मानी जाती हैं |
अनुष्ठान के प्रारम्भ में ही जप की संख्या का निर्धारण कर लेना चाहिए। फिर प्रतिदिन नियत स्थान पर बैठकर निश्चित समय में, निश्चित संख्या में जप करना चाहिए।
अपने मंत्र के अक्षरों की संख्या के आधार पर निम्नांकित तालिका के अनुसार अपने जप की संख्या निर्धारित करके रोज निश्चित संख्या में ही माला करो। कभी कम, कभी ज़्यादा......... ऐसा नहीं।
सुविधा के लिए यहाँ एक अक्षर के मंत्र से लेकर सात अक्षर के मंत्र की नियत दिनों में कितनी मालाएँ की जानी चाहिए, उसकी तालिका यहाँ दी जा रही हैः
अनुष्ठान हेतु प्रतिदिन की माला की संख्या
कितने दिन में अनुष्ठान पूरा करना है?
मंत्र के अक्षर
7 दिन में
9 दिन में
11 दिन में
15 दिन में
21 दिन में
40 दिन में
एक अक्षर का मंत्र
150 माला
115 माला
95 माला
70 माला
50 माला
30 माला
दो अक्षर का मंत्र
300 माला
230 माला
190 माला
140 माला
100 माला
60 माला
तीन अक्षर का मंत्र
450 माला
384 माला
285 माला
210 माला
150 माला
90 माला
चार अक्षर का मंत्र
600 माला
460 माला
380 माला
280 माला
200 माला
120 माला
पाँच अक्षर का मंत्र
750 माला
575 माला
475 माला
350 माला
250 माला
150 माला
छः अक्षर का मंत्र
900 माला
690 माला
570 माला
420 माला
300 माला
180 माला
सात अक्षर का मंत्र
1050 माला
805 माला
665 माला
490 माला
350 माला
210 माला
जप करने की संख्या चावल, मूँग आदि के दानों से अथवा कंकड़-पत्थरों से नहीं बल्कि माला से गिननी चाहिए। चावल आदि से संख्या गिनने पर जप का फल इन्द्र ले लेते हैं।
7. मंत्र संख्या का निर्धारणः कई लोग ‘ॐ’ को ‘ओम’ के रूप में दो अक्षर मान लेते हैं और नमः को नमह के रूप में तीन अक्षर मान लेते हैं। वास्तव में ऐसा नहीं है। ‘ॐ’ एक अक्षर का है और ‘नमः’ दो अक्षर का है। इसी प्रकार कई लोग ‘ॐ हरि’ या ‘ॐ राम’ को केवल दो अक्षर मानते हैं जबकि ‘ॐ... ह... रि...’ इस प्रकार तीन अक्षर होते हैं। ऐसा ही ‘ॐ राम’ संदर्भ में भी समझना चाहिए। इस प्रकार संख्या-निर्धारण में सावधानी रखनी चाहिए।
8. जप कैसे करें: जप में मंत्र का स्पष्ट उच्चारण करो। जप में न बहुत जल्दबाजी करनी चाहिए और न बहुत विलम्ब। गाकर जपना, जप के समय सिर हिलाना, लिखा हुआ मंत्र पढ़कर जप करना, मंत्र का अर्थ न जानना और बीच में मंत्र भूल जाना.. ये सब मंत्रसिद्धि के प्रतिबंधक हैं। जप के समय यह चिंतन रहना चाहिए कि इष्टदेवता, मंत्र और गुरुदेव एक ही हैं।
9. समयः जप के लिए सर्वोत्तम समय प्रातःकाल ब्रह्म मुहूर्त है किन्तु अनुष्ठान के समय में जप की अधिक संख्या होने की वजह से एक साथ ही सब जप पूरे हो सकें, यह संभव नहीं हो पाता। अतः अपना जप का समय 3-4 बैठकों में निश्चित कर दो। सूर्योदय, दोपहर के 12 बजे के आसपास एवं सूर्यास्त के समय जप करो तो लाभ ज्यादा होगा।
10. आहारः अनुष्ठान के दिनों में आहार बिल्कुल सादा, सात्त्विक, हल्का, पौष्टिक एवं ताजा होना चाहिए। हो सके तो एक ही समय भोजन करो एवं रात्रि को फल आदि ले लो। इसका अर्थ भूखमरी करना नहीं वरन् शरीर को हल्का रखना है। बासी, गरिष्ठ, कब्ज करने वाला, तला हुआ, प्याज, लहसुन, अण्डे-मांसादि तामसिक भोजन कदापि ग्रहण न करो। भोजन बनने के तीन घंटे के अंदर ही ग्रहण कर लो। अन्याय से अर्जित, प्याज आदि स्वभाव से अशुद्ध, अशुद्ध स्थान पर बना हुआ एवं अशुद्ध हाथों से (मासिक धर्मवाली स्त्री के हाथों से) बना हुआ भोजन ग्रहण करना सर्वथा वर्ज्य है।
11. विहारः अनुष्ठान के दिनों में पूर्णतया ब्रह्मचर्य का पालन जरूरी है। अनुष्ठान से पूर्व आश्रम से प्रकाशित ‘यौवन सुरक्षा’ पुस्तक का गहरा अध्ययन लाभकारी होगा। ब्रह्मचर्य-रक्षा के लिए एक मंत्र भी हैः
ॐ नमो भगवते महाबले पराक्रमाय मनोभिलाषितं मनः स्तंभ कुरु कुरु स्वाहा।
रोज दूध में निहार कर 21 बार इस मंत्र का जप करो और दूध पी लो। इससे ब्रह्मचर्य की रक्षा होती है। यह नियम तो स्वभाव में आत्मसात् कर लेने जैसा है।
12. मौन एवं एकान्तः अनुष्ठान अकेले ही एकांत में करना चाहिए एवं यथासंभव मौन का पालन करना चाहिए। अनुष्ठान करने वाला यदि विवाहित है, गृहस्थ है, तो भी अकेले ही अनुष्ठान करें।
13. शयनः अनुष्ठान के दिनों में भूमि शयन करो अथवा पलंग से कोमल गद्दे हटाकर चटाई, कंतान (टाट) या कंबल बिछाकर जप-ध्यान करते-करते शयन करो।
14. निद्रा, तन्द्रा एवं मनोराज से बचोः शरीर में थकान, रात्रि-जागरण, गरिष्ठ पदार्थ का सेवन, ठूँस-ठूँसकर भरपेट भोजन-इन कारणों से भी जप के समय नींद आती है। स्थूल निद्रा को जीतने के लिए आसन करने चाहिए।
कभी-कभी जप करते-करते झपकी लग जाती है। ऐसे में माला तो यंत्रवत चलती रहती है, लेकिन कितनी मालाएँ घूमीं इसका कोई ख्याल नहीं रहता। यह सूक्ष्म निद्रा अर्थात तंद्रा है। इसको जीतने के लिए प्राणायाम करने चाहिए।
कभी-कभी ऐसा भी होता है कि हाथ में माला घूमती है जिह्वा मंत्र रटती है किन्तु मन कुछ अन्य बातें सोचने लगता है। यह है मनोराज। इसको जीतने के लिए ‘ॐ’ का दीर्घ स्वर से जप करना चाहिए।
15. स्वच्छता और पवित्रताः स्नान के पश्चात् मैले, बासी वस्त्र नहीं पहनने चाहिए। शौच के समय पहने गये वस्त्रों को स्नान के पश्चात् कदापि नहीं पहनना चाहिए। वे वस्त्र उसी समय स्नान के साथ धो लेना चाहिए। फिर भले बिना साबुन के ही पानी में साफ कर लो।
लघुशंका करते वक्त साथ में पानी होना जरूरी है। लघुशंका के बाद इन्द्रिय पर ठण्डा पानी डालकर धो लो। हाथ-पैर धोकर कुल्ले भी कर लो। लघुशंका करके तुरंत पानी न पियो। पानी पीकर तुरंत लघुशंका न करो।
दाँत भी स्वच्छ और श्वेत रहने चाहिए। सुबह एवं भोजन के पश्चात भी दाँत अच्छी तरह से साफ कर लेना चाहिए। कुछ भी खाओ-पियो, उसके बाद कुल्ला करके मुखशुद्धि अवश्य करनी चाहिए।
जप करने के लिए हाथ-पैर धोकर, आसन पर बैठकर शुद्धि की भावना के साथ जल के तीन आचमन ले लो। जप के अंत में भी तीन आचमन करो।
जप करते समय छींक, जम्हाई, खाँसी आ जाये या अपानवायु छूटे तो यह अशुद्धि है। उस समय की माला नियत संख्या में नहीं गिननी चाहिए। आचमन करके शुद्ध होने के बाद वह माला फिर से करनी चाहिए। आचमन के बदले ‘ॐ’ संपुट के साथ गुरुमंत्र सात बार दुहरा दिया जाये तो भी शुद्धि हो जाएगी। जैसे मंत्र है ‘नमः शिवाय’ तो सात बार ‘ॐ नमः शिवाय ॐ’ दुहरा देने से पड़ा हुआ विघ्न निवृत्त हो जाएगा।
जप के समय यदि मलमूत्र की हाजत हो जाये तो उसे दबाना नहीं चाहिए। ऐसी स्थिति में जप करना छोड़कर कुदरती हाजत निपटा लेनी चाहिए। शौच गये हो तो स्नानादि से शुद्ध होकर स्वच्छ वस्त्र पहन कर फिर जप करो। यदि लघुशंका करने गये हो तो केवल हाथ-पैर-मुँह धोकर कुल्ला करके शुद्ध-पवित्र हो जाओ। फिर से जप का प्रारंभ करके बाकी रही हुई जप-संख्या पूर्ण करो।
16. चित्त के विक्षेप का निवारण करोः अनुष्ठान के दिनों में शरीर-वस्त्रादि को शुद्ध रखने के साथ-साथ चित्त को भी प्रसन्न, शान्त और निर्मल रखना आवश्यक है। रास्ते में यदि मल-विष्ठा, थूक-बलगम अथवा कोई मरा हुआ प्राणी आदि गंदी चीज के दर्शन हो जायें तो तुरंत सूर्य, चंद्र अथवा अग्नि का दर्शन कर लो, संत-महात्मा का दर्शन-स्मरण कर लो, भगवन्नाम का उच्चारण कर लो ताकि चित्त के क्षोभ का निवारण हो जाये।
17. नेत्रों कि स्थितिः आँखें फाड़-फाड़ कर देखने से आँखों के गोलकों की शक्ति क्षीण होती है। आँखें बँद करके जप करने से मनोराज की संभावना होती है। अतः मंत्रजप एवं ध्यान के समय अर्धोन्मीलित नेत्र होने चाहिए। इससे ऊपर की शक्ति नीचे की शक्ति से एवं नीचे की शक्ति ऊपर की शक्ति से मिल जायेगी। इस प्रकार विद्युत का वर्तुल पूर्ण हो जायेगा और शक्ति क्षीण नहीं होगी।
18. मंत्र में दृढ़ विश्वासः मंत्रजप में दृढ़ विश्वास होना चाहिए। विश्वासो फलदायकः। ‘यह मंत्र बढ़िया है कि वह मंत्र बढ़िया है... इस मंत्र से लाभ होगा कि नहीं होगा...’ ऐसा संदेह करके यदि मंत्रजप किया जायेगा तो सौ प्रतिशत परिणाम नहीं आयेगा।
19. एकाग्रताः जप के समय एकाग्रता का होना अत्यंत आवश्यक है। एकाग्रता के कई उपाय हैं। भगवान, इष्टदेव अथवा सदगुरुदेव के फोटो की ओर एकटक देखो। चंद्र अथवा ध्रुव तारे की ओर एकटक देखो। स्वस्तिक या ‘ॐ’ पर दृष्टि स्थिर करो। ये सब त्राटक कहलाते हैं। एकाग्रता में त्राटक का प्रयोग बड़ी मदद करता है।
20. नीच कर्मों का त्यागः अनुष्ठान के दिनों में समस्त नीच कर्मों का त्याग कर देना चाहिए। निंदा, हिंसा, झूठ-कपट, क्रोध करने वाला मानव जप का पूरा लाभ नहीं उठा सकता। इन्द्रियों को उत्तेजित करनेवाले नाटक, सिनेमा, नृत्य-गान आदि दृश्यों का अवलोकन एवं अश्लील साहित्य का पठन नहीं करना चाहिए। आलस्य नहीं करना चाहिए। दिन में नहीं सोना चाहिए।
21. यदि जप के समय काम-क्रोधादि सतायें तोः काम सताये तो भगवान नृसिंह का चिंतन करो। मोह के समय कौरवों को याद करो। लोभ के समय दान पुण्य करो। सोचो कि कौरवों का कितना लंबा-चौड़ा परिवार था किन्तु आखिर क्या? अहं सताए तो अपने से धन, सत्ता एवं रूप में बड़े हों, उनका चिंतन करो। इस प्रकार इन विकारों का निवारण करके, अपना विवेक जाग्रत रखकर जो अपनी साधना करता है, उसका इष्टमंत्र जल्दी फलता है।
विधिपूर्वक किया गया गुरुमंत्र का अनुष्ठान साधक के तन को स्वस्थ, मन को प्रसन्न एवं बुद्धि को सूक्ष्म करने में तथा जीवन को जीवनदाता के सौरभ से महकाने में सहायक होता है। जितना अधिक जप, उतना अधिक फल। अधिकस्य अधिकं फलम्।
विद्यार्थियों के लिए सारस्वत्य मंत्र के अनुष्ठान की विधि
यदि विद्यार्थी अपने जीवन को तेजस्वी-ओजस्वी, दिव्य एवं हर क्षेत्र में सफल बनाना चाहे तो सदगुरु से प्राप्त सारस्वत्य मंत्र का अनुष्ठान अवश्य करे।
1. सारस्वत्य मंत्र का अनुष्ठान सात दिन का होता है।
2. इसमें प्रतिदिन 170 माला करने का विधान है।
3. सात दिन तक केवल श्वेत वस्त्र ही पहनने चाहिए।
4. सात दिन तक भोजन भी बिना नमक का करना चाहिए। दूध चावल की खीर बनाकर खाना चाहिए।
5. श्वेत पुष्पों से सरस्वती देवी की पूजा करने के बाद जप करो। देवी को भोग भी खीर का ही लगाओ।
6. माँ सरस्वती से शुद्ध बुद्धि के लिए प्रार्थना करो।
7. स्फटिक के मोतियों की माला से जप करना ज़्यादा लाभदायी है।
8. बाकी के स्थान, शयन, पवित्रता आदि के नियम मंत्रानुष्ठान जैसे ही हैं।
‘परिप्रश्नेन...’
प्रश्नः जप करते समय भगवान के किस स्वरूप का विचार करना चाहिए?
उत्तरः अपनी रूचि के अनुसार सगुण अथवा निर्गुण स्वरूप में मन को एकाग्र किया जा सकता है। सगुण का विचार करोगे, फिर भी अंतिम प्राप्ति तो निर्गुण की ही होगी। जप में साधन और साध्य एक ही हैं जबकि अन्य साधना में दोनों अलग हैं। योग में अष्टांग योग का अभ्यास साधना है और निर्विल्प समाधि साध्य है। वेदांत में आत्मविचार साधन के और तुरीयावस्था साध्य है। किन्तु जप-साधना में जप के द्वारा ही अजपा स्थिति को सिद्ध करना है अर्थात् सतर्कपूर्वक किये गये जप के द्वारा सहज जप को पाना है। मंत्र के अर्थ में तदाकार होना ही सच्ची साधना है।
प्रश्नः क्या दो या तीन मंत्रों का जप किया जा सकता है?
उत्तरः नहीं, एक समय में एक ही मंत्र और वह भी सदगुरु प्रदत्त मंत्र का ही जप करना श्रेष्ठ है। यदि आप श्री कृष्ण भगवान के भक्त हैं तो श्रीरामजी, शिवजी, दुर्गामाता, गायत्री इत्यादि में भी श्रीकृष्ण के ही दर्शन करो। सब एक ही ईश्वर के रूप हैं। श्री कृष्ण की उपासना ही श्रीराम की या देवी की उपासना है। सभी को अपने इष्टदेव के लिए इसी प्रकार समझना चाहिए। शिव की उपासना करते हैं तो सबमें शिव की ही स्वरूप देखें।
प्रश्नः क्या गृहस्थ शुद्ध प्रणव का जप कर सकता है?
उत्तरः सामान्यतया गृहस्थ के लिए केवल प्रणव यानि ‘ॐ’ का जप करना उचित नहीं है। किन्तु यदि वह साधन-चतुष्टय से सम्पन्न है, मन विक्षेप से मुक्त है और उसमें ज्ञानयोग साधना के लिए प्रबल मुमुक्षत्व है तो वह ‘ॐ’ का जप कर सकता है।
प्रश्नः ‘ॐ नमः शिवाय’ पंचाक्षरी मंत्र है या षडाक्षरी? इसका अनुष्ठान करना हो तो कितने लाख जप करें?
उत्तरः केवल ‘नमः शिवाय’ पंचाक्षरी मंत्र है एवं ‘ॐ नमः शिवाय’ षडाक्षरी मंत्र है। अतः इसका अनुष्ठान तदनुसार करें।
प्रश्नः जप करते-करते मन एकदम शांत हो जाता है एवं जप छूट जाता है तो क्या करें?
उत्तरः जप का फल ही है शांति और ध्यान। यदि जप करते-करते जप छूट जाये एवं मन शांत हो जाये तो जप की चिंता न करो। ध्यान में से उठने के पश्चात पुनः अपनी नियत संख्या पूरी कर लो।
प्रश्नः जब जप करते हैं तो काम-क्रोधादि विकार अधिक सताते-से प्रतीत होते हैं और जप करना छोड़ देते हैं। क्या यह उचित है?
उत्तरः कई बार साधक को ऐसा अनुभव होता है कि पहले इतना काम-क्रोध नहीं सताता था जितना मंत्रदीक्षा के बाद सताने लगा है। इसका कारण हमारे पूर्वजन्म के संस्कार हो सकते हैं। जैसे घर की सफाई करने पर कचरा निकलता है, ऐसे ही मंत्रजाप करने से कुसंस्कार निकलते हैं। अतः घबराओ नहीं, न ही मंत्रजप करना छोड़ दो वरन् ऐसे समय में दो-तीन घूँट पानी पीकर थोड़ा कूद लो, प्रणव का दीर्घ उच्चारण करो एवं प्रभु से प्रार्थना करो। तुरंत इन विकारों पर विजय पाने में सहायता मिलेगी। जप तो किसी भी अवस्था में त्याज्य नहीं है।
प्रश्नः अधिक जप से खुश्की चढ़ जाये तो क्या करें?
उत्तरः जप से खुश्की नहीं चढ़ती, वरन् साधक की आसावधानी से खुश्की चढ़ती है। नया साधक होता है, दुर्बल शरीर होता है एवं उत्साह-उत्साह में अधिक प्राणायाम करता है, फिर भूखामरी करता है तो खुश्की चढ़ने की संभावना होती है। अतः उपरोक्त कारणों का निराकरण कर लो। फिर भी यदि किसी को खुश्की चढ़ ही जाये तो प्रातःकाल सात काजू शहद के साथ लेना चाहिए अथवा भोजन के पश्चात बिना शहद के सात काजू खाने चाहिए। (सात से ज़्यादा काजू दिनभर में खाना शरीर के लिए हितावह नहीं है।) इसके अलावा सिर के तालू पर एवं ललाट के दोनों छोर पर गाय के घी की मालिश करो। इससे लाभ होता है। खुश्की चढ़ने में, पागलपन में पक्के पेठे का रस या उसकी सब्जी हितावह है। कच्चे पेठे नहीं लेना चाहिए। आहार में घी, दूध, बादाम का उपयोग करना चाहिए। ऐसा करने से ठीक होता है। खुश्की या दिमाग की शिकायत में विद्युत का झटका दिलाना बड़ा हानिकारक है।
प्रश्न: स्वप्न में मंत्र दीक्षा मिली हो तो क्या करें ? क्या पुनः प्रत्यक्ष रूप में मंत्र दीक्षा लेना अनिवार्य है ?
उत्तर: हाँ
प्रश्न: पहले किसी मंत्र का जप करते थे, वही मंत्र यदि मंत्रदीक्षा के समय मिले, तो क्या करें ?
उत्तर: आदर से उसका जप करना चाहिए | उसकी महानता बढ़ जाती है |
प्रश्न: मंत्रदीक्षा के समय कान में अंगुली क्यों डलवाते हैं ?
उत्तर: दायें कान से गुरुमंत्र सुनने से मंत्र का प्रभाव विशेष रहता है ऐसा कहा गया है |
प्रश्न: यदि गुरुमंत्र न लिया हो, फिर भी अनुष्ठान किया जा सकता है क्या ?
उत्तर: हाँ, किया जाता है |
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