Saturday, 28 October 2017
ब्रह्म सन्ध्या
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ब्रह्म सन्ध्या
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गायत्री की परम कल्याणकारी सर्वांगपूर्ण सुगम उपासना विधि
ब्रह्म सन्ध्या
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गायत्र्यां या तुता सन्ध्या ब्रह्म सन्ध्यातुसामता ।।
कीर्तितं सर्वतः श्रेष्ठंतदनुष्ठानमागमैः ॥
(या सन्ध्या) जो सन्ध्या (गायत्रया) गायत्री से (युता) युक्त होती है (सा तु) वह (ब्रह्म सन्ध्या) ब्रह्म सन्ध्या (मता) कहलाती है।
(आगमैः) शास्त्रों ने (तदनुष्ठानं) उसका अनुष्ठान (सर्वतः श्रेष्ठ) सबसे श्रेष्ठ (कीर्तितं) कहीं है।
आचमनं शिखबन्धः प्राणायामोऽघमर्षणम् ।।
न्यासश्चोपसनायातु पंच कोष मता बुधैः ॥
(आचमनं) आचमन (शिखबन्धः) शिखा बाधना (प्राणायामः) प्राणायाम (अघमर्षणं) अघमर्षण (च) और (न्यासः) न्यास से (पंच कोषाः) पांच कोष (बुधैः) विद्वानों ने (उपासनायां) उपासना में (मताः) स्वीकार किये हैं।
(१) आचमन
जल भरे हुए पात्र में से दाहिने हाथ की हथेली पर जल लेकर उसका तीन बार आचमन करना चाहिए। बायें हाथ से पात्र को उठाकर हथेली में थोड़ा गड्ढा- सा करके उसमें जल भरें और गायत्री मन्त्र पढ़ें, मन्त्र पूरा होने पर उस जल को पी लें। दूसरी बार फिर उसी प्रकार हथेली में जल भरें और मन्त्र पढ़कर उसे पी लें। तीसरी बार भी इसी प्रकार करें। तीन बार आचमन करने के उपरांत दाहिने हाथ को पानी से धो डालें। कंधे पर रखे हुए अँगोछे से हाथ- मुँह पोंछ लें जिससे हथेली ओठ और मूँछ आदि पर आचमन किये उच्छिष्ट जल का अंश लगा न रह जावे ।।
आचमन त्रिगुणमयी माता की त्रिविधि शक्तियों को अपने अन्दर धारण करने के लिए है। प्रथम आचमन के साथ सतोगुणी विश्वव्यापी, सूक्ष्म- शक्ति ‘ह्रीं’ शक्ति का ध्यान करते हैं और भावना करते हैं कि विद्युत सरीखी सूक्ष्म नील किरणें मेरे मंत्रोच्चार के साथ- साथ सब ओर से इस जल में प्रवेश कर रही हैं और यह जल उस शक्ति से ओत- प्रोत हो रहा है। आचमन करने के साथ में सम्मिश्रित सब शक्तियाँ अपने अन्दर प्रवेश करने की भावना करनी चाहिए और अनुभव करना चाहिए कि मेरे अन्दर सतोगुण का पर्याप्त मात्रा में प्रवेश हुआ है। इसी प्रकार दूसरे आचमन के साथ रजोगुण ‘श्री’ शक्ति की पीतवर्ण किरणों को जल में आकर्षित होने और आचमन के साथ शरीर में प्रवेश होने की भावना करनी चाहिए। तीसरे आचमन में सतोगुणी ‘क्लीं’ भावना का रक्त- वर्ण शक्तियों कों अपने में धारण होने का भाव जाग्रत होना चाहिए।
जैसे बालक माता का दूध पीकर उसके गुणों और शक्तियों को अपने में धारण करता है और परिपुष्ट होता है, उसी प्रकार साधक मंत्र- बल से आचमन के जल कों गायत्री- माता के दूध के समान बना लेता है और उसका पान करके अपने आत्मबल को बढ़ाता है। इस आचमन से उसे त्रिविध, ह्रीं, श्रीं, क्लीं शक्ति से युक्त आत्म- बल मिलता है, तदनुसार उसको आत्मिक- पवित्रता, सांसारिक और सुदृढ़ बनाने वाली शक्ति की प्राप्ति होती है।
(२) शिखा बन्धन
आचमन के पश्चात् शिखा को जल से गीला करके उसमें गाँठ लगानी चाहिए, जो सिरा नीचे से खुल जाय ।। इसे आधी गाँठ कहते हैं। गाँठ लगाते समय गायत्री मन्त्र का उच्चारण करते रहना चाहिए ।।
शिखा, मस्तिष्क के केन्द्र बिन्दु पर स्थापित है। जैसे रेडियो के ध्वनि- विस्तारक केन्द्रों में ऊँचे खम्भे लगे होते हैं और वहाँ से ब्राडकास्ट की तरंगें चारों ओर फेंकी जाती हैं, उसी प्रकार हमारे मस्तिष्क का विद्युत भण्डार शिखा स्थान पर है। इस केन्द्र में से हमारे विचार, संकल्प और शक्ति- परमाणु हर घड़ी बाहर निकल- निकल कर आकाश में दौड़ते रहते हैं। इस प्रवाह से शक्ति का अनावश्यक व्यय होता है और अपना मानसिक कोष घटता है। इसका प्रतिरोध करने के लिए शिखा में गाँठ लगा देते हैं। सदा गाँठ लगाये रहने से अपनी मानसिक शक्तियों का बहुत- सा अपव्यय बच जाता है।
सन्ध्या करते समय विशेष रूप से गांठ लगाने का प्रयोजन यह है कि रात्रि को सोते समय यह गांठ प्रायः शिथिल हो जाती है या खुल जाती है। फिर स्नान करते समय केश- शुद्धि के लिए शिखा को खोलना पड़ता है। सन्ध्या करते समय अनेक सूक्ष्म तत्व आकर्षित होकर अपने अन्दर स्थित होते हैं, वे सब मस्तिष्क केन्द्र से निकल कर बाहर न उड़ जायें और कहीं अपने को साधना के लाभ से वञ्चित न रहना पड़े, इसलिए शिखा में गाँठ लगा दी जाती है। फुटबाल के भीतर की रबड़ में एक हवा भरने की नली होती है, इसमें गाँठ लगा देने से भीतर भरी हुई वायु बाहर नहीं निकलने पाती। साइकिल के पहियों में भरी हुई हवा को रोकने के लिए भी एक छोटी वालट्यूब नामक रबड़ की नली लगी होती है, जिसमें होकर हवा भीतर तो जा सकती है, पर बाहर नहीं आ सकती। गाँठ लगी हुई शिखा से भी यही प्रयोजन पूरा होता है। वह बाहर के विचार और शक्ति- समूह को ग्रहण तो करती है, पर भीतर के तत्वों को अनावश्यक व्यय नहीं होने देती ।।
आचमन से पूर्व शिखा बन्धन इसलिए नहीं होता, क्योंकि उस समय त्रिविध शक्ति का आकर्षण जहाँ जल द्वारा होता है, वहाँ मस्तिष्क के मध्य केन्द्र द्वारा भी होता है। इस प्रकार शिखा खुली रहने से दुहरा लाभ होता है। तत्पश्चात् उसे बाँध दिया जाता है।
(३) प्राणायाम
संध्या का तीसरा कोष है प्राणायाम अथवा प्राणाकर्षण। गायत्री की उत्पत्ति का वर्णन करते हुए पूर्व पृष्ठों में यह बताया जा चुका है कि सृष्टि दो प्रकार की है- (१) जड़- अर्थात् परमाणुमयी (२) चैतन्य अर्थात् प्राणमयी ।। निखिल विश्व में जिस प्रकार परमाणुओं के संयोग- वियोग से विविध प्रकार के दृश्य- उपस्थित होते रहते हैं, उसी प्रकार चैतन्य प्राण सत्ता की हलचलें चैतन्य जगत की विविध घटनाएँ घटित होती हैं। जैसे वायु अपने क्षेत्र में सर्वत्र भरी हुई है, उसी प्रकार वायु से भी असंख्यगुना सूक्ष्म चैतन्य हमारा मानव क्षेत्र बलवान् तथा निर्बल होता है ।। इस प्राणतत्व को जो जितनी मात्रा में अधिक आकर्षित कर लेता है, धारण कर लेता है, उसकी आंतरिक स्थिति उतनी ही बलवान् हो जाती है। आत्म- तेज, शूरता, दृढृता, पुरूषार्थ, विशालता, महानता, सहनशीलता, धैर्य, स्थिरता सरीखे गुण प्राण शक्ति के परिचायक हैं। जिनमें प्राण कम होता है, वे शरीर से स्थूल भले ही हों पर डरपोक, दब्बू, झेंपने वाले, कायर, अस्थिर मति, संकीर्ण, अनुदार, स्वार्थी, अपराधी मनोवृत्ति के घबराने वाले, अधीर, तुच्छ, नीच विचारों में ग्रस्त एवं चंचल मनोवृत्ति के होते हैं ।। इन दुर्गुणों के होते हुए कोई व्यक्ति महान् नहीं बन सकता। इसलिए साधक को प्राण शक्ति अधिक मात्रा में अपने अन्दर धारण करने की आवश्यकता होती है। जिस क्रिया द्वारा विश्वव्यापी प्राणतत्व में से खींचकर अधिक मात्रा में प्राणशक्ति को हम अपने अन्दर धारण करते हैं, उसे प्राणायाम कहा जाता है।
प्राणायाम के समय मेरूदण्ड को विशेष रूप से सावधान होकर सीधा कर लीजिये, क्योंकि मेरूदण्ड में स्थित इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना नाड़ियों द्वारा प्राणशक्ति का आवागमन होता है और यदि रीढ़ टेढ़ी झुकी रहे, तो मूलाधार में स्थित कुण्डलिनी तक प्राण की धारा निर्वाध गति से न पहुँच सकेगी। अतः प्राणायाम का वास्तविक लाभ न मिल सकेगा ।।
प्राणायाम के चार भाग हैं- (१) पूरक, (२) अन्तर, कुम्भक, (३) रेचक, (४) बाह्य कुम्भक ।। वायु को भीतर खींचने का नाम पूरक, वायु को भीतर, रोके रहने का नाम, अन्तर कुम्भक, वायु को बाहर निकालने का नाम रेचक और बिना श्वास के वायु बाहर रोके रहने को बाह्य कुम्भक कहते हैं। इन चारों के लिए गायत्री मंत्र के चार भागों की नियुक्ति की गई ।। पूरक के साथ ‘ॐ भूर्भुवः स्व’ अन्तर कुम्भक के साथ ‘तत्सवितुर्वरेण्यं’ रेचक के साथ ‘भर्गो देवस्य धीमहि’ बाह्य कुम्भक के साथ ‘धिया योनः प्रचोदयात्’ मन्त्र भाग का जाप होना चाहिए।
(अ) स्वस्थ चित्त से बैठिये, मुख को बन्द कर लीजिए। नेत्रों को बन्द या अधखुले रखिये। अब श्वास को धीरे- धीरे नासिका द्वारा भीतर खींचना आरम्भ कीजिये और ‘ॐ भूर्भुवः स्वः’ इस मंत्र भाग का मन ही मन उच्चारण करते चलिये और भावना कीजिये कि ‘विश्वव्यापी दुःखनाशक, सुख स्वरूप, ब्रह्म की चैतन्य प्राण- शक्ति को मैं नासिका द्वारा आकर्षित कर रहा हूँ।’ इस भावना और इस मंत्र के साथ धीरे- धीरे श्वास खींचिये और जितनी अधिक वायु भीतर भर सकें भर लीजिये ।।
(ब) अब वायु को भीतर रोकिये और ‘तत्सवितुर्वरेण्यं’ इस भाग का जप कीजिये, साथ ही भावना कीजिये कि नासिका द्वारा खींचा हुआ वह प्राण श्रेष्ठ है। सूर्य के समान तेजस्वी है। उसका तेज मेरे अङ्ग- प्रत्यंग में, रोम- रोम में भरा जा रहा है ।। इस भावना के साथ पूरक की अपेक्षा आधे समय तक वायु को भीतर रोके रखें।
(स) अब नासिका द्वारा वायु धीरे- धीरे बाहर निकालना आरम्भ कीजिए और ‘भर्गो देवस्य धीमहि’ इस मंत्र भाग को जपिये तथा भावना कीजिए कि ‘यह दिव्य प्राण मेरे पापों का नाश करता हुआ विदा हो रहा है। वायु को निकालने में प्रायः उतना ही समय लगना चाहिए जितना कि वायु खींचने में लगाया था।
(द) जब भीतर की सब वायु बाहर निकल जावे तो जितनी देर वायु को भीतर रोक रखा था, उतनी ही देर बाहर रोक रखें अर्थात् बिना सांस लिये रहें और ‘धियो यो नः प्रचोदयात्’ इस मन्त्र भाग को जपते रहें। साथ ही भावना करें कि ‘भगवती वेदमाता आद्य- शक्ति गायत्री हमारी बुद्धि को जाग्रत कर रही है।’
यह एक प्राणायाम हुआ। अब इसी प्रकार पुनः इन क्रियाओं की पुनरूक्ति करते हुए दूसरा प्राणायाम करें। सन्ध्या में यह पांच प्राणायाम करने चाहिए, जिससे शरीर स्थिर प्राण, अपान, व्यान, समान, उदान नामक पांचों प्राणों का व्यायाम प्रस्फुरण और परिमार्जन हो जाता है।
(४) अघमर्षण
अघमर्षण कहते हैं- पाप के नाश करने को। गायत्री की पुण्य- भावना के प्रवेश करने से पाप का नाश होता है। प्रकाश के आगमन के साथ- साथ अंधकार नष्ट हो जाता है, पुण्य संकल्पों के उदय के साथ- साथ पापों का संहार भी होता है। बल- बुद्धि के साथ- साथ निर्बलता का अन्त होता चलता है। ब्रह्म सन्ध्या की ब्राह्मी भावनाएँ हमारे अघ का मर्षण करती चलती हैं।
अघमर्षण के लिए दाहिने हाथ की हथेली पर जल लेकर उसे दाहिने नथुने के समीप ले आना चाहिए। समीप का अर्थ है- छः अंगुल दूर। बाएं हाथ के अँगूठे से बायां नथुना बन्द कर लें और दाहिने नथुने से धीरे- धीरे श्वास खींचना आरम्भ करें। सांस खींचते समय ऐसी भावना करें कि ‘गायत्री माता का पुण्य प्रतीक यह जल अपनी दिव्य शक्तियों सहित पापों का संहार करने के लिए श्वास के साथ मेरे अन्दर प्रवेश कर रहा है और भीतर से पापों को, मलों को, विकारों को संहार कर रहा है।
जब पूरी श्वास खींच चुकें तो बायां नथुना खोल दें और दाहिना नथुना अंगूठे से बन्द कर दें और श्वास बाहर निकालना आरम्भ करें। दाहिनी हथेली पर रखे हुए जल को अब बाएँ नथुने के सामने करें और भावना करें कि ‘‘नष्ट हुए पापों की लाशों का समूह श्वास के साथ बाहर निकल कर इस जल में गिर रहा है।’’ जब श्वास पूरी बाहर निकल जाय तो जल को बिना देखे घृणापूर्वक बाईं ओर पटक देना चाहिए ।।
अघमर्षण क्रिया में जल को हथेली पर भरते समय ‘ॐ भूर्भुवः स्वः’ दाहिने नथुने से सांस खींचते समय ‘तत्सवितुर्वरेण्यं’ इतना मन्त्र भाग जपना चाहिए और बाएं नथुने से सांस छोड़ते समय ‘भर्गोदेवस्य धीमहि’ और जल पटक ते समय ‘धियोयोनः प्रचोदयात्’ इस मन्त्र का उच्चरण करना चाहिए।
यह क्रिया तीन बार करनी चाहिए जिससे काय के, प्राण के और मन के त्रिविधि पापों का संहार हो सके।
(५) न्यास
न्यास कहते हैं- धारण करने को। अङ्ग- प्रत्यंगों में गायत्री की सतोगुणी शक्ति को धारण करने, स्थापित करने, भरने, ओत- प्रोत करने के लिए न्यास किया जाता है। गायत्री के प्रत्येक शब्द का, महत्त्वपूर्ण मर्म- स्थलों का घनिष्ठ सम्बन्ध है। जैसे सितार के, अमुक भाग में अमुक आघात के साथ उँगली का आघात लगाने से अमुक प्रकार, अमुक ध्वनि के स्वर निकलते हैं, उसी प्रकार शरीर- वीणा को सन्ध्याकाल में उँगलियों के सहारे दिव्य भाव से झंकृत किया जाता है।
ऐसा माना जाता है कि स्वभावतः अपवित्र रहने वाले शरीर से दैवी सान्निध्य ठीक प्रकार से नहीं हो सकता, इसलिये उसके प्रमुख स्थानों में दैवी पवित्रता स्थापित करके उसमें इतनी मात्रा दैवी तत्वों की स्थापित कर ली जाती है कि वह दैव- साधना का अधिकारी बन जावे।
न्यास के लिए भिन्न- भिन्न उपासना विधियों में अलग- अलग विधान हैं कि किन उँगलियों को काम में लाया जाय। गायत्री की ब्रह्म सन्ध्या में अंगूठा और अनामिका उँगली का प्रयोग प्रयोजनीय ठहराया गया है। अंगूठा और अनामिका उँगली को मिलाकर विभिन्न अङ्गों का स्पर्श इस भावना से करना चाहिए कि मेरे यह अङ्ग गायत्री- शक्ति से पवित्र तथा बलवान् हो रहे हैं। अङ्ग स्पर्श के साथ निम्न प्रकार मंत्रोच्चार करना चाहिये।
ॐ भूर्भुवः स्वः- मूर्धायै
तत्सवितुः- नेत्रभ्यां
वरेण्यं- कर्णाभ्यां
भर्गो- मुखाय
देवस्यः- कंठाय
धीमहिः- हृदयाय
धियोयोनः- नाभ्यै
प्रचोदयात्- हस्तपादाभ्यां
यह सात अङ्ग शरीर ब्रह्माण्ड के सात लोक हैं अथवा यों कहिये कि आत्मा रूपी सविता के सात वाहन अश्व हैं। शरीर सप्ताह के सात दिन हैं। यों साधारणतः दस इन्द्रियाँ मानी जाती हैं, पर गायत्री योग के अन्तर्गत ७ इन्द्रियाँ मानी गई हैं-
१. मूर्धा (मस्तिष्क, मन) २. नेत्र, ३. कर्ण ४. वाणी और रसना ५. हृदय, अन्तःकरण ६. नाभि, जननेन्द्रिय ७. श्रवण (हाथ- पैर) इन सातों में अपवित्रता न रहे, इनके द्वारा कुमार्ग को न अपनाया जाय, अविवेक पूर्ण आचरण न हो इस प्रतिरोध के लिये न्यास किया जाता है। इन सात अङ्गों में भगवती की सात शक्तियाँ निवास करती हैं उन्हें उपयुक्त न्यास द्वारा जाग्रत किया जाता है। जाग्रत हुई मातृकाएँ अपने- अपने स्थान की रक्षा करती हैं, अवांछनीय तत्वों का संहार करती हैं। इस प्रकार साधक का अन्तःप्रदेश ब्राह्मी शक्ति का सुदृढ़ दुर्ग बन जाता है।
इन पञ्चकोषों का विनियोग करने के पश्चात् आचमन, शिखाबन्धन, प्राणायाम, अघमर्षण न्यास से निवृत्त होने के पश्चात् गायत्री का जप और ध्यान करना चाहिए। सन्ध्या तथा जप में मन्त्रोच्चारण इस प्रकार करना चाहिए कि ओठ हिलते रहें, शब्दोच्चार होता रहे पर निकट बैठा हुआ व्यक्ति उसे सुन न सके।
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